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हदीस : यीशु

यीशु

मुहम्मद को यीशु में एक प्रकार की आस्था थी। वस्तुतः इस आस्था को तथा साथ ही मूसा और इब्राहिम की पैगम्बरी में उनकी आस्था को बहुधा मुहम्मद की उदार तथा सहिष्णु दृष्टि के प्रमाण के रूप में उद्धृत किया जाता है। पर यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो पायेंगे कि इस आस्था में उनका स्वार्थ निहित था। इसका आंशिक उद्देश्य था। अपनी पैगम्बरी की परम्परा को प्रमाणित करना तथा अंशतः यह आस्था यहूदियों और ईसाईयों का मतान्तरण करने के आशय से प्रेरित थी। बहरहाल यीशु के प्रति उनका अभिमत अधिक वजनदार नहीं है। उन्होंने यीशु को अपने काफिले का एक मुजाहिद मात्र बना डाला। यीशु का पुनरुत्थान या पुनरावतरण, मुहम्मद की एक धुंधली छाया के रूप में होगा। वे और लोगों के साथ ईसाइयों के खिलाफ युद्ध छेड़ रहे होंगे। मुहम्मद का उद्घोष है-”मरियम का बेटा तुम्हारे बीच एक न्यायशील न्यायाधीश के रूप में जल्द ही आयेगा। वह सलीबों को तोड़ डालेगा, सुअरों को मारेगा और जजिया खत्म कर देगा“ (287)। कैसे ? अनुवादक समझाते हैं-”सलीब ईसाइयत का प्रतीक है। मुहम्मद के आगमन के बाद यीशु इस प्रतीक को तोड़ देंगे। इस्लाम अल्लाह का दीन (मजहब) है और कोई और मजहब उसे मंजूर नहीं। इसी तरह, सुअर का मांस ईसाइयों का प्रिय आहार है। यीशु इस गंदे और घृणित जानवर का अस्तित्व ही समाप्त कर देंगे। सम्पूर्ण मानवजाति इस्लाम अपना लेगी और कोई जिम्मी नहीं बचेगा और इस तरह जजिया खुद-ब-खुद खत्म हो जायेगा“ (टि0 289-290)। यीशु को एक न्यायशील न्यायाधीश माना गया है, पर इसका मतलब सिर्फ यह है कि वह मुहम्मद की शरह के मुताबिक न्याय करेगा। जैसा कि अनुवादक ने स्पष्ट किया है-”मुहम्मद की पैगम्बरी के बाद, पहले के पैगम्बरों की शरह निरस्त हो जाती है। इसीलिए यीशु इस्लामी कानून के मुताबिक न्याय करेंगे“ (टी0 288)।

लेखक : राम स्वरुप

 

इस्लाम : महिलाओं का खतना बन्द हो .. सुप्रीम कोर्ट में गुहार

महिलाओं का खतना बन्द हो .. सुप्रीम कोर्ट में गुहार

जो किसी ने सुना भी नहीं होगा , उसे देखना पड़ रहा है लोगों को अब उनकी आंखों के आगे .  और जो देख रहे हैं वो सोचते हैं कि उन्होंने इसे झेला कैसे रहा होगा .. 3 तलाक को कुप्रथा और क्रूरता की संज्ञा देने वालों को ये नहीं पता कि वो तो एक बानगी मात्र भर है .. एक समाज औरतों का भी खतना करता है और खास कर उस समय मे जब उनका बाल्यकाल चल रहा होता है .. सुप्रीम कोर्ट में सुनीता तिवारी नाम की एक समाज सेविका ने याचिका दाखिल करते हुए मुस्लिमों की दाऊदी वोहरा समुदाय में 5 वर्ष से रजस्वला होने के मध्य की बच्चियों के साथ होने वाली इस प्रथा को बेहद अमानवीय और मानवता के विरुद्ध बताते हुए इसे कुप्रथा मान कर तत्काल बन्द करने की मांग की .. याचिका की गम्भीरता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल भारत सरकार , महाराष्ट्र सरकार , दिल्ली सरकार , गुजरात सरकार और राजस्थान सरकार को नोटिस जारी करते हुए इस मुद्दे पर जवाब मांगा .  याचिकाकर्ती ने इस मुद्दे पर भारत संविधान की धारा 14 व धारा 21 के साथ नीति निर्देशक तत्व 39 का भी हवाला देते हुए बताया कि यह महिलाओ को समानता के अधिकार से वंचित करता है . अपने तथ्यों के समर्थन में श्रीमती सुनीता ने लिखित दिया कि संयुक्त राष्ट्र संघ में मुस्लिम औरतों के खतना को विश्व भर में बंद करने के प्रस्ताव पर खुद भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं , ऐसे में इस कुप्रथा का भारत मे ही चलना किसी भी प्रकार से तर्कसंगत नहीं है ..

सुप्रीम कोर्ट ने याचिका को स्वीकार करते हुए तत्काल 4 राज्यों और केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया .. इन सरकारों के उत्तर आने के बाद इसकी अगली सुनवाई की जाएगी .. पर ये प्रथा अधिकांश जनता के लिये बिल्कुल पहली बार सुनने जैसा है जिस के बाद काफी लोग आश्चर्यचकित हैं .

source: http://www.sudarshannews.com/category/national/categorynationalpetition-against-female-brutality-in-supreme-court–2013

पितृ-यज्ञ

                  पितृ-यज्ञ

‘पितृयज्ञ’ दो शबदों से मिलकर बना है। एक ‘‘पितृ’’ और दूसरा ‘यज्ञ’।

‘पितृ’ का अर्थ है पिता। माता और पिता दोनों को भी ‘पितृ’ कहते हैं। जैसे ‘‘माता च पिता च पितरौ’’ (द्वन्द्वैकशेष समास)। ‘माता’ और ‘पिता’ दोनों शबदों का जब द्वन्द्व समास बनाते हैं तो ‘पितरौ’ बनता है। अर्थात् ‘पितृ’ का अर्थ है माँ और पिता दोनों।

‘पितृ’ का प्रथम विभक्त में ‘पिता’ हो जाता है। कुछ संस्कृत न पढ़े हुये लोग समझते हैं कि ‘पिता’ जीते हुये बाप को कहते हैं और ‘पितर’ मरे हुये बाप को, परन्तु यह बात नहीं है। असली शबद ‘पितृ’ है। जब उसका कर्त्ताकारक बनाते हैं तो ‘पिता’ हो जाता है। जब कर्मकारक बनते हैं तो ‘पितरम्’ हो जाता है। कर्त्ताकारक बहुवचन में ‘पितरः’ होता है। जैसे ‘मम पिता गच्छति’ का अर्थ है ‘मेरा बाप जाता है’। ‘पितरम् अपश्यम्’ का अर्थ है मैंने बाप को देखा। ‘तेषां पितर आयान्ति’ का अर्थ है ‘उनके बाप आते हैं’।

इस प्रकार ‘पितृ’ या ‘पितर’ शबदों में मौत का कुछ संकेत नहीं है। और यह कहना गलत है कि ‘पितृ’ या ‘पितर’ मरे हुये बाप के लिये आता है, जीते हुए के लिये नहीं।

दादे, परदादे या दादी और परदादी के लिये भी ‘पितृ’ शबद आता है। ‘यज्ञ’ शबद का अर्थ है पूजा, सत्कार। कुछ लोग समझते हैं कि ‘यज्ञ’ शबद और ‘हवन’ शबद का एक अर्थ है। यह भी गलत है। हवन को भी यज्ञ कहते हैं, परन्तु यज्ञ अन्य अर्थों में आता है। ‘यज्’ धातु-जिससे ‘यज्ञ’ शबद बना है-देवपूजा, संगतिकरण और दान, तीन अर्थों में आती है। इसलिये ‘यज्ञ’ का अर्थ केवल हवन नहीं है। उदाहरण के लिये ‘ब्रह्मयज्ञ’ का अर्थ है-स्वाध्याय या ईश्वर का ध्यान। अतिथि-यज्ञ का अर्थ है ‘मेहमान की खातिरदारी करना’। यहाँ न तो होम या हवन से समबन्ध है, न आहुति देने से, न किसी पशु आदि के काटने से। देखिये मनुस्मृति अध्याय 3, श्लोक 70-

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृ यज्ञश्च तर्पणम्।

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्।।

अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने का नाम ब्रह्मयज्ञ है। तर्पण को पितृ-यज्ञ कहते हैं। होम देवयज्ञ कहलाता है। पशुओं को भोजन देने का नाम भूतयज्ञ है और अतिथि के सत्कार को नृयज्ञ कहते हैं। हमने यहाँ यह श्लोक इसलिये दिया है कि केवल ‘देवयज्ञ’ में ‘यज्ञ’ शबद का अर्थ ‘होम’ है। अन्यत्र यज्ञ का अर्थ पूजा और सत्कार ही है।

आश्वालयन गृहसूत्र में भी ऐसा ही है।

अर्थात् पंचयज्ञो देवयज्ञो भूतयज्ञः पितृयज्ञो ब्रह्मयज्ञो मनुष्ययज्ञ इति तद् यदग्नौ जुहोति स देवयज्ञो यद् बलिं करोति स भूतयज्ञो यत् पितृयो ददाति सः पितृयज्ञो यत् स्वाध्यायमधीते स ब्रह्मयज्ञो यन् मनुष्येयो ददाति स मनुष्य यज्ञ इति तानेतान् यज्ञानहरहः कुर्वीत। (अश्वालयन गृह्यसूत्र तृतीय अध्याय)

हम ऊपर कह आये हैं कि पितृ का अर्थ है माता, पिता या अन्य पूर्वज। और यज्ञ का अर्थ है सत्कार। इसलिये ‘पितृयज्ञ’ का अर्थ हुआ माता-पिता आदि की सेवा सुश्रुषा।

इसमें वेद का भी प्रमाण हैः-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः

अर्थात् लड़के को चाहिये कि पिता के व्रतों का अनुसरण करने वाला और माता को प्रसन्न करने वाला हो। अर्थात् सन्तान को माता-पिता आदि गुरुजनों की सेवा करनी चाहिये।

अब एक प्रश्न उठता है कि पितृयज्ञ मरे हुये माता-पिता का होता है या जीते हुओं का। इसमें लोगों का मतभेद है। हम कुँआर के महीनों में लोगों को अपने मरे हुये पितरों का श्राद्ध-तर्पण करते हुए देखते हैं, कुँआर के कृष्ण-पक्ष को लोग ‘पितृपक्ष’ कहते हैं, क्योंकि इसमें मरे हुये पुरखों का श्राद्ध-तर्पण किया जाता है।

हम अभी कह चुके हैं कि ‘पितृ’ शबद में कोई ऐसी बात नहीं, जो मरे हुये माँ-बाप की ओर संकेत करे। अब हम यहाँ यह देखना चाहते हैं कि क्या मरा हुआ भी किसी का बाप या माँ हो सकता है।

मनुष्य नाम है विशेष शरीरधारी जीव का। न तो केवल शरीर को ही मनुष्य कहते हैं। न केवल जीव को। जब शरीर से जीव निकल जाता है तो उसे मनुष्य नहीं कहते किन्तु ‘मनुष्य की लाश’ कहते हैं। वह जीव भी मनुष्य नहीं है, क्योंकि वह जीव मनुष्य के अतिरिक्त अन्य शरीर भी धारण कर सकता है। जो आज आदमी के शरीर में है, वह कल मरकर चींटी के शरीर को धारण कर सकता है और परसों कुत्ता, बिल्ली इत्यादि का। समभव है कि फिर किसी जन्म में वह मनुष्य का शरीर धारण करे।

इसी प्रकार न तो शरीर को ही माँ या बाप कहते हैं न जीव को। जब तक हमारे माता, पिता, दादी, बाबा जीवित हैं, तब तक वह हमारे माता, पिता, दादी या बाबा हैं। जब मर गये तो उनकी लाश रह जायगी, जिसको जला देंगे। न्याय-दर्शन में कहा है कि-

‘‘शरीरदाहे पातकाभावात्।’’

– (न्याय-दर्शन अध्याय 3)

अर्थात् लाश के जलाने से पाप नहीं होता। जब हमारे माता-पिता आदि मर जाते हैं और हम उनकी लाश को जला आते हैं, तो कोई हमसे यह नहीं कहता कि तुमने पितृ-हत्या की, तुम पापी हो। क्योंकि जिस चीज को हमने जलाया वह माँ-बाप न थे, किन्तु माँ-बाप की लाशें थीं।

अब प्रश्न होता है कि मरने के बाद हमारे माँ-बाप कहाँ हैं? क्या वह जीव माँ-बाप हैं? कदापि नहीं। उन जीवों की पितृ संज्ञा नहीं। क्योंकि मरने के पश्चात् न जाने उन्होंने कहाँ जन्म लिया। वही जीव समभव है कि हमारे ही घरों में नाती पोतों या पुत्र के रूप में जन्म लें। या अपने कर्मानुसार ऊँच या नीच योनियों को प्राप्त हों या यदि परमयोगी हों तो उनकी मुक्ति भी हो जाए। यदि हमारे माता या पिता हमारे पुत्र या पुत्री के रूप में जन्म लेंगे तो हम उनके ‘पितृ’ होंगे न कि वह हमारे। वस्तुतः माता-पिता आदि समबन्ध उसी समय तक है जब तक कि शरीर और जीव संयुक्त हैं? मृत्यु होते ही यह समबन्ध छूट जाते हैं।

जब माता-पिता मर जाते हैं तो हम कहते हैं कि हमारे माता-पिता मर गये, परन्तु वह मरते नहीं। जीव तो सदा अमर है। इसीलिये मरे हुये माता-पिता की पितृ संज्ञा केवल भूतकाल की अपेक्षा से होती है, वर्तमान काल की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि वह समबन्ध केवल भूतकाल में था, अब नहीं। इसीलिये यह कहते हैं कि हमारे पिता धनाढ्य थे, या निर्धन थे, विद्वान् थे या अविद्वान् थे, परन्तु यह कोई नहीं कहता कि आज हमारे माता कुत्ता या घोड़ा हैं या हाथी हैं, क्योंकि हमारा पितृत्व का समबन्ध उसी दिन समाप्त हो गया, जिस दिन वे मर गये। इसीलिये पितृयज्ञ केवल जीवित माता-पिता का हो सकता है न कि मरे हुओं का। इसी को चाहे श्राद्ध कह लीजिये चाहे तर्पण। साधारणतया श्राद्ध का मरे हुओं के साथ जो समबन्ध है, वह गलत है और वह एक प्रकार की कुप्रथा है। कुँआर को पितृपक्ष कहना गलत है। अगर हमारे माँ-बाप या दादी बाबा जीवित हैं तो हमारे लिये सौभाग्यवश समस्त वर्ष ही पितृपक्ष है, क्योंकि हमको नित्य उनकी सेवा, सत्कार करना चाहिये, परन्तु यदि वह मर गये हैं तो कुँआर में ही कहाँ से आयेंगे। इसलिये श्राद्ध-तर्पण जीते हुओं का होना चाहिये।

यह बात मनुस्मृति के नीचे के श्लोकों से प्रकट होती हैः-

देवतातिथिभृत्यानां पितृणामात्मनश्च यः।

न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्रवसन्न स जीवति।।

– (मनु. 3/72)

इस पर मन्वर्थ मुक्तावली में कुल्लूकभट्ट की टीका इस प्रकार हैः-

देवतेति।। देवता शदेन भूतानामपि ग्रहणम्।

तेषामपि बलिहरणे देवतारूपत्वात्। भृतयः वृद्ध माता

पित्रोदयोऽवश्यं सवर्धनीयाः। सर्वत एवात्मानं गोपायेत् इति श्रुत्या आत्मपोषणमप्यवश्यं कर्त्तव्यम्।

देवतादीनां पञ्चानां योऽन्नं न ददाति स उच्छ्रवसन्नपि जीवित कार्याकरणान्नजीवतीति निन्दयावश्यकर्त्तव्यता बोध्यते।

यहाँ ‘पितृ’ का अर्थ ‘‘वृद्ध मातापित्रादयो’’ अर्थात् ‘‘बूढ़े माँ-बाप’’ स्पष्ट दिया है। यह श्लोक भी उसी प्रसंग का है जिसमें पाँच यज्ञों का वर्णन है। इसलिये हमारी यह धारणा ठीक है कि पितृयज्ञ बूढ़े माता-पिता का हेाता है न कि मरों का। इसमें कुल्लूक भट्ट ने ‘अन्न देने’ का भी वर्णन किया है। अर्थात् देवता, अतिथि, भृत्य, पितृ और आत्मा को अन्न देना चाहिये। इनमें जब मरे हुये अतिथि, मरे हुये भृत्य, मरे हुये आत्मा का वर्णन नहीं, तो ‘पितरों’ को ही मरा हुआ क्यों माना जाए? जिस प्रकार अतिथियज्ञ जीवित अतिथियों का है, इसी प्रकार पितृयज्ञ भी जीवित पितरों का होना चाहिये।

आगे के श्लोक से और भी स्पष्टता होती हैः-

ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा।

आशासहे कुटुबियस्तेयः कार्य विजानता।

– (मनु. 3/80)

इस पर कुल्लूकाट्ट की टीका हैः-

एते गृहस्थेयः सकाशात्प्रार्थयन्ते। अर्थात् ऋषि, पितर, देव, भूत और अतिथि लोग गृहस्थियों से ही अन्न आदि की आशा रखते हैं। इससे भी स्पष्ट है कि ऋषि, देव, पितर और अतिथि सब जीवित ही हैं। मरे हुए नहीं।

अगले श्लोक से तो कोई सन्देह ही नहीं रहताः-

कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्ये नोदकेन वा।

पयोमूलफलैर्वापि पितृयः प्रीतिमावहन्।

– (मनु. 3/82)

अर्थात् (अहरहः) प्रतिदिन श्राद्ध करे। किस प्रकार? अन्न, जल, दूध, मूल, फल से। किसका श्राद्ध करे? पितृयः-पितरों का। किस प्रकार? प्रीतिमावहन् अर्थात् प्रेम से बुलाकर।

यहाँ तीन बातें कहीं हैं। (1) हर दिन श्राद्ध करे। (2) अन्न, जल, दूध, फल आदि से। (3) प्रीतिपूर्वक बुलाकर। यह तीनों बातें जीते हुओं में घट सकती हैं, मृतकों में नहीं। इसमें न तो कुंआर के पितृपक्ष का वर्णन है, न गया के पिण्डदान का, न कौओं को खिलाने का। जीते पिता-माता के लिये, जो बुड्डे हो गये हैं रोज-रोज श्राद्ध करने का विधान है।

फिर यदि मरे हुये पितरों का तात्पर्य होता तो उनको प्रीतिपूर्वक कैसे बुला सकते? क्या वे अपनी-अपनी योनि को छोड़कर आ सकते थे? कदापि नहीं। हम तो कभी नहीं देखते कि कोई जीव कुँआर के कृष्णपक्ष में अपने शरीर को छोड़कर श्राद्ध लेने के लिये जाता हो या जा सकता हो। मरे हुओं का श्राद्ध करना असमभव और असमबद्ध कार्य करने की कोशिश करने के समान है।

यहाँ एक प्रश्न उठता है कि संस्कृत शास्त्र में मृतक-श्राद्ध का वर्णन नहीं है। हम मानते हैं। स्वयं मनुस्मृति मृतक-श्राद्ध का बहुत से श्लोकों में वर्णन है। उनके लिये कहीं मांस के पिण्डों का वर्णन है, कहीं अन्य अण्ड-बण्ड बातों का। जैसे

द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु।

औरन्भ्रेणाथ चतुरः शाकुनेनाथ पञ्च वै।।

षण्मासांच्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।

अष्टावेणस्य मांसेन रारवैण नवैव तु।।

दशमासांस्तु तृप्यन्ति बराहमहिषामिषैः।

शश कूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु।।

– (मनु. 31, 268, 169, 270)

अर्थात् मछली से दो मास के लिये, हिरण के मांस से तीन मास के लिये, भेड़ के मांस से चार मास के लिये, पक्षियों के मासं से पाँच मास के लिये, बकरी के मांस से 6 महीनों के लिये, चित्र मृग के मांस से सात मास के लिये, एण के मास से आठ, हरु के मास से नौ, सुअर और भैंसे के मांस से दस और खरगोश और कछुवे के मांस से 11 महीनों के लिये पितरों की तृप्ति होती है।

ऐसी अण्ड-बण्ड और हिंसायुक्त बातों को आज कोई पण्डित नहीं मानता। और न कहीं इस प्रकार के श्राद्ध किये ही जाते हैं। बात यह है कि मनुस्मृति में पीछे से स्वार्थी लोगों ने समय-समय पर अपने स्वार्थ की बातें मिलाकर उसको दूषित कर दिया है। इसी प्रकार अन्य शास्त्रों में भी बहुत मिलावट हुई है। बुद्धिमान् लोगों को थोड़े से विचार करने से ही पता चल सकता है।

हम कह चुके हैं कि मृतक-श्राद्ध न केवल अनुचित ही है, किन्तु असमभव भी है। हमारे पास कोई साधन नहीं है कि यदि हम घोर प्रयत्न करें तो भी उन जीवों को जो अपनी जीवित दशा में हमारे माता-पिता कहलाते थे कुछ खाना पानी पहुँचा सकें। मरकर प्राणी की दो ही दशा हो सकती हैं। या तो मुक्त हो गये या जन्म-मरण के फेर में हैं। यदि मुक्त हो गये हों तो मुक्त जीवों को खाना-पानी या श्राद्ध-तर्पण से क्या प्रयोजन? वह तो परमगति को पहुँच चुके। प्राकृतिक पदार्थों से उनका कुछ समबन्ध नहीं रहा। यदि वे जन्म ले रहे हैं और पशु, पक्षी या मनुष्य की योनि में हैं तो उन तक हम उनके शरीरों द्वारा ही पहुँच सकते हैं। केवल नदी में जलदान करने या ब्राह्मणों को खिलाने, या कौओं को खिलाने से उन तक कुछ भी नहीं पहुँच सकता। अतः यह सब व्यर्थ और भ्रममूलक है।

कुछ लोग कहते हैं कि हमारे कर्मों का उनको फल मिलता है, परन्तु यह तो महा अनर्थ है। वैदिक-सिद्धान्त में जो करता है, वही भोगता है। एक के कर्म का फल दूसरे को मिला करे तो बड़ा अन्याय हो जाए। ईश्वर जन्म तो मरते समय ही देता है। फिर हमारे कर्मों का फल हमारे मरे हुये पितरों को कदापि नहीं पहुँच सकता।

कुछ लोग श्राद्ध इसलिये करते हैं कि इस बहाने से ब्राह्मणों को भोजन देने का पुण्य मिल जाता है, परन्तु वह ठीक बात का विचार नहीं करते। हम ब्राह्मणों को भोजन खिलाने के विरुद्ध नहीं हैं, न कौओं या मछलियों को भोजन खिलाने के। क्योंकि विद्वान्, ऋषि, मुनि अथवा अतिथि ब्राह्मणों को खिलाना अतिथियज्ञ है और कौओं, चीटियों, मछलियों को खिलाना भूतयज्ञ है, परन्तु हमारा विरोध इस अज्ञान और धोखे से है। तुम यदि अतिथि यज्ञ करते हो तो अतिथियज्ञ के नाम से करो। भूतयज्ञ करते हो तो भूतयज्ञ के नाम से करो। करते तो हो भूतयज्ञ या अतिथियज्ञ और नाम रखते हो पितृयज्ञ का इससे खाने वाले और खिलाने वाले दोनों को भ्रम होता है। ब्राह्मणों को यज्ञ कहकर खिलाओ कि हम तुमको खिलाते हैं। कौओं को यह कह कर खिलाओ कि हम पक्षियों को खाना देते हैं। पितरों का बहाना क्यों करते हो! जो काम झूठ और अज्ञान के मिलाकर किया जाता है उससे पुण्य के स्थान में पाप होता है।

सच पूछिये तो मृतक-श्राद्ध का सिद्धान्त वैदिक नहीं है। या तो इसका आरमभ बौद्धों से हुआ है, जो मृतकों के आत्माओं की पूजा करते थे। या ईसाई-मुसलमानों से लिया है, जो पुनर्जन्म को नहीं मानते। पुराने मिश्र देश वालों को इस बात का ज्ञान न था कि मृत्यु के पीछे जीव का क्या होता है। इसलिये जब कोई मर जाता था तो उसकी लाश के साथ भोजन आदि भी कब्रों में गाड़ देते थे। वह समझते थे कि लाश को खाने की जरूरत होगी। जब कोई राजा मरता था तो उसकी रानियाँ भी साथ में गाड़ी जाती थीं। आजकल भी ईसाई और मुसलमानों को यह पता नहीं कि मृत्यु के पीछे जीवात्मा का क्या होता है। वह समझते हैं कि कब्र में जीवात्मा रहता है, इसीलिये वह कब्र पर फातिहा पढ़ते हैं, चद्दर चढ़ाते हैं और मन्नत माँगते हैं। वह समझते हैं कि जीव वहाँ मौजूद है। कुछ लोग समझते हैं कि क़यामत के दिन मुर्दे उठेंगे। यह सब ‘आत्मा’ के तत्व को न समझने और पुनर्जन्म न मानने का फल है। यदि ईसाई, मुसलमान मरे हुओं का श्राद्ध करते तो आश्चर्य न होता, क्योंकि उनको पुनर्जन्म और कर्म-व्यवस्था का पता नहीं, परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि वैदिक-धर्म के मानने वाले हिन्दू भी ऐसे भ्रममूलक काम करते हैं, जबकि उनको आवागमन और कर्मफल-व्यवस्था का ज्ञान है।

वस्तुतः पितृयज्ञ यह है कि हम जीते हुये माता-पिता, आदि की सेवा करें। क्योंकि वह बुड्ढे हो गये हैं। अब वह धन कमाने के योग्य नहीं रहे। उन्होंने हमारे ऊपर उपकार किया है। हमको पाल-पोस कर बड़ा किया। उनका हमारे ऊपर कर्जा है, जिसको पितृऋण कहते हैं। पितृऋण के चुकाने का एकमात्र उपाय पितृयज्ञ है। माता-पिता की सेवा करने से हम अपने ऋण से उऋण होंगे। वह हमको आशीर्वाद देंगे और हमारा कल्याण होगा।

सच पूछिये तो मृतक-श्राद्ध पितृयज्ञ का बाधक है, साधक नहीं। हम नित्यप्रति आँख से देखते हैं कि बूढ़े माँ-बाप को कोई पूछता तक नहीं। वह अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं। मरने पर उनका बहुत धन लगाकर श्राद्ध किया जाता है।

जियत पिता से दंगमदंगा।

मरे पिता पहुचाये गंगा।।

बहुत से बूढ़े लोग भी भ्रम में पड़े हैं। वे जीते जी खाते नहीं। एक-एक कौड़ी जोड़कर अपने श्राद्ध के लिये छोड़ मरते हैं। इस प्रकार वह अपने कर्त्तव्य की हानि करते हैं। यदि उनको दान ही करना था तो अपने जीते जी दान कर जाते, परन्तु वह दान नहीं करना चाहते, मानों दान को भी स्वार्थ के साथ मिलाकर दूषित कर रहे हैं।

जब तक लोग यह न समझेंगे कि पितृयज्ञ का मृतकों से समबन्ध नहीं, उस समय तक लोगों में सच्चे पितृयज्ञ के लिये श्रद्धा न होगी। और माता-पिता की उपेक्षा ही होती रहेगी।

बहाने मत खोजो। जो करना है उसको उद्देश्य समझकर और ज्ञानपूर्वक करो, तभी कल्याण है। गपोड़ों पर विश्वास मत करो।

 

हदीस : मुहम्मद द्वारा रात को जन्नत का सफर

मुहम्मद द्वारा रात को जन्नत का सफर

”किताब अल-ईमान“ में अनेक अन्य विषयों पर भी विचार किया गया है, जैसे कि मुहम्मद द्वारा रात में यरूशलम जाना और कयामत के पहले दज्जाल तथा यीशु का आना। इस्लामी मीमांसा में इनका पर्याप्त महत्व है।

 

एक रात, अल-बराक (एक लम्बा सफेद जानवर, जो गधे से बड़ा पर खच्चर से छोटा था) पर चढ़कर मुहम्मद यरूशलम के मंदिर में पहुंचे। और वहां से विविध लोकों में या स्वर्ग के विविध ”वृत्तों“ में (जैसा कि दांते ने उन्हें कहा है) घूमते रहे-रास्ते में विभिन्न पैगम्बरों से मिलते हुए। पहले आसमान में उन्हें आदम मिले। दूसरे में यीशु। छठे में मूसा और सातवें में इब्राहिम। फिर वे अल्लाह से मिले, जिन्होंने मुसलमानों के लिए हर रोज पचास नमाजों का आदेश दिया। पर मूसा की सलाह पर मुहम्मद ने अल्लाह से अपील की और तब नमाजों की संख्या घटाकर पांच कर दी गई। ”पांच और फिर भी पचास“-एक प्रार्थना दस के बराबर मानी जासगी, क्योंकि ”जो कहा जा चुका है, वह बदलेगा नहीं“ (313)। इसलिए असर में अन्तर नहीं आएगा और पांच ही पचास का काम करेंगी।

 

रहस्यवादी भावना वाले लोग इस यात्रा को आध्यात्मिक यात्रा के रूप में समझते हैं। किन्तु मुहम्मद के साथी, और बाद के अधिकांश मुस्लिम विद्वान, यही विश्वास करते हैं कि यह यात्रा या आरोहण (मिराज) दैहिक था। मुहम्मद के समकालीन अनेक लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई और इस यात्रा को एक सपना बतलाया। पर हमारे अनुवादक का तर्क है कि यात्रा पर यकीन नहीं किया गया, इसीलिए वह एक सपना नहीं थी। क्योंकि ”अगर वह सपना होता, तो उस पर इस तरह की प्रतिक्रिया नहीं होती। इस तरह के सपने तो किसी भी काल के किसी भी व्यक्ति की कल्पना में कौंध सकते हैं“ (टि0 325)।

author : ram swarup

ईश्वर-परिचय

ईश्वर-परिचय

-प्रकाश चौधरी

यह सृष्टि अपने आप में ईश्वर-परिचय है। सूर्य, चाँद, पृथ्वी, लोक-लोकांतर और इनका संचालन किसी शक्ति का परिचय दे रहा है। जगत् का सत्ता में आना ही अपने आप में ईश्वर-परिचय है।

वह महामहिम है। उसकी महिमा के सममुख जगत् की हर सत्ता तुच्छ है। वह ‘पर’ है, ‘परम’ है सर्वोत्कृष्ट है, इसीलिए परमात्मा, परमेश्वर, परमदेव आदि नामों से स्मरण किया जाता है। वह इन्द्र है, उसके बल, विस्तार और यश का वर्णन नहीं हो सकता। कोई भी सांसारिक वस्तु उसका उपमान नहीं बन सकती। वह बेमिसाल है। ईश्वर वज्रधर है, पापी आत्माओं को दंड देने वाला है। जड़-चेतन सबका आश्रयदाता है।

वैदिक संस्कृति के अनुसार ईश्वर निराकार, अजन्मा, अगोचर, अमर, अनंत, निर्विकार, सीमा से परे है। यह जगत् जो दृश्यमान् है, वह केवल उसका एक चरण है। शेष तीन चरण तो पहुँच से, शायद कल्पना से भी परे हैं।

पौराणिक विचारधारा के अनुसार व अपनी-अपनी कल्पना के अनुसार ईश्वर को कितने रूप दे दिए गये हैं और दिए जा रहे हैं। वे उसे एक मूर्ति में बाँधकर रख देना चाहते हैं। वे सत्य से दूर भागते हैं। ईश्वर बंधन रहित है। सर्वत्र एवं सर्व-व्यपाक है। वह एकदेशीय नहीं। वह कण-कण में विद्यमान है। वह उस काल्पनिक मूर्ति में भी है, परन्तु उसकी सारी शक्तियों तथा गुणों से मूर्ति परिपूर्ण नहीं। उसकी चेतन-शक्ति, उसका आनन्द-रस मूर्त्ति में विद्यमान नहीं। वह सब तो उसकी अपनी बनाई हुई मूर्तियों में ही है। आनन्द-रस तो वह स्वयं ही है। हर आत्मा को उसके  उस आनन्द-रस की तलाश है। ईश्वर ही हमारा मनभावन है। क्योंकि वही चेतन शक्ति है, ज्ञान स्वरूप है, प्रकाशमय है, ज्योतिपुञ्ज है। उसी के प्रकाश से यह जगत् प्रकाशमय है। हर कार्यशक्ति उसी की शक्ति से प्रेरित और गतिशील है। वह है तो हमारी सत्ता है। उसका नियंत्रण हट जाए तो यह जीवन निराधार होकर ढह जाए, क्योंकि वह ही सारे जगत् का आधार है।

ईश्वर ‘‘सत्पति’’ है। विलक्षण रक्षक है। वह विश्व की रक्षा अकेला ही करता है। उसे इस कार्य के लिए किसी से सहायता की आवश्यकता नहीं। वह सर्वशक्तिमान् एवं भयहीन है। प्रभु ‘अग्नि’ है। अग्नि-स्वरूप है। बाह्य जगत् में आदित्य रूप में प्रकाश प्रदान करता है। सबके  हृदय अन्तरिक्ष में भी प्रकाश उत्पन्न करता है। मार्ग-दर्शन करता है। वह ‘जातवेदा’ है। सब कुछ जानता है, क्योंकि वह सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक है।

स्वामी दयानन्द जी ने अपनी रचना ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ में ईश्वर परिचय देते हुए कहा है कि ‘‘ईश्वर वह है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, निराकार, सर्वत्र, व्यापक, अनादि और अनंत आदि सत्य गुणों वाला है। और जिसका स्वभाव अविनाशी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी और अजन्मा आदि है, जिसका कर्म जगत् की उत्त्पति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुँचाना है, उसको ईश्वर कहते हैं।’’

देव दयानन्द जी की इस ईश्वरीय परिभाषा के उपरान्त कुछ भी शेष नहीं बचता, जो वर्णन किया जाए। फिर भी वह अनन्त है। साधक उसका वर्णन तथा व्याखया करके भी ‘चरैवेति चरैवेति’ कहकर उठ खड़े होते हैं।

वेदों में अधिकतर मन्त्रों में उस प्रभु का परिचय, उसकी स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना का वर्णन है। कई मन्त्रों में परमेश्वर स्वयं अपना परिचय दे रहे हैं।

सामवेद में परमेश्वर कहते हैं कि ‘‘मैं ऋत का प्रथम जनक हूँ। यह दृश्यमान् जगत्, सूर्य, चंद्र, इनके ग्रहण, संवत्सर, मास, कृष्णपक्ष, शुक्ल-पक्ष, ऋतु, इनका उदय होना, अस्त होना, जितने भी सत्य नियम हैं, उनका प्रथम उत्पादक तथा व्यवस्थापक मैं ही हूँ। सूर्य, चंद्र, वायु, विद्युत, अग्नि, प्राकृतिक देव हैं। आत्मा, मन, चक्षु और शारीरिक देव या ऋषि मुनि उन सबसे मैं पहले का हूँ। साधकों को जिस अमृत की तलाश है, आनंद की खोज है, मैं ही उसका केन्द्र हूँ। यदि आनंद पाना चाहते हो तो मेरी शरण में आओ। मेरी अनुभूति करो और फिर दूसरों को मार्ग दिखाओ। दूसरों को इसका दान करो।’’

परमेश्वर ‘अन्न’ है। साधकों का भोजन है। जैसे अन्न के बिना शरीर नहीं रह सकता वैसे ही आत्मा एवं साधक ईश्वर के आनन्द-रस को पाए बिना नहीं रहते। ईश्वर ‘भोक्ता’ भी है। एक ना एक दिन यह सारा चराचर जगत् ही उदर में समेट लेता है।

ऐसे सर्वोत्कृष्ट ईश्वर को पाने के उद्देश्य से ही हमें यह मनुष्य जीवन मिला है। उसकी ही स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करें। कै से?

परमात्मा ‘त्वष्टा’ है। ऐसा शिल्पकार जिसने शरीर नगरी दे रखी है। यह देव नगरी है। हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों से सद्ज्ञान एवं कर्म करें, जिससे कि सारे दिव्य भाव इसी नगरी में रहना पसंद करे। ज्ञान का अधिपति आत्मा है जो दिव्य वचनों को प्रवाहित करता रहता है, हम उन्हें अनसुना ना करें। हमारा मन सदा सात्विक विचारों से पूर्ण हो और दिव्य भावनाओं को ही प्रेरित करे। हमारी वाणी सदा मधुर हो। सदा दिव्य वचन ही कहे। दिव्य भाव ही हमारा कवच है। बाह्य और आंतरिक सुरक्षा प्रदान करता है। ईश्वर का परिचय पाना ही केवल उद्देश्य न हो, उसके गुणों को धारण कर अपना तथा समाज का उत्थान  करें। चारों ओर दिव्य भावों एवं शान्ति का वातावरण हो और अपने परम-लक्ष्य उस परमपिता को पाने, उसकी अनुभूति को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हों।

 

एक ऐसी जगह जहां निकाह कराया जाता है “क़ुरान” से.

एक ऐसी जगह जहां निकाह कराया जाता है “क़ुरान” से. क्या आप जानते हैं फिर क्या होता है ?

प्रथा और कुप्रथा लगभग हर मत में पायी जाती है , कुछ इसे सही मान कर सुधार लेते हैं पर कुछ इसको किसी भी हालत में ना सुधरने की कसम खा कर बिलकुल भी ना बदलने की कसम खा कर बैठ जाते हैं .  आइये जानते हैं एक ऐसी ही प्रथा के बारे में जो प्रचलित है पाकिस्तान के एक हिस्से में . पाकिस्तान में यद्द्पि इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया गया है पर अभी भी मुस्लिमों के ग्रंथ कुरान से निकाह करवाने की प्रथा अभी भी चोरी छिपे कुछ स्थानों पर हो रही है जिसे “हक बख्शीश” कहा जाता है. इस प्रथा में नियम है की कुवारी लड़कियों का निकाह कुरान से करवा कर उन्हें उन्हें निकाह के हक से त्याग करवा दिया जाता है . एक बार जिस लड़की का “हक बख्शीश” अर्थात कुरान से निकाह हो जाता है वो बाद में किसी अन्य लड़के से निकाह नहीं कर सकती है . निकाह के बाद उस लड़की का अधिकतर समय कुरान की आयते पढ़ने में ही बीत जाता है और धीरे धीरे उस लड़की को कुरान की हर आयत कंठस्त हो जाती है जिसे समाज में हाफ़िज़ा कहा जाने लगता है . ज्ञात हो की पाकिस्तान की इस परम्पर को वहाँ गैर कानूनी माना गया है . तमाम इस्लामिक जानकार भी इस परम्परा से इत्तेफाक नहीं रखते , फिर भी कुछ लोग अपनी बेटियों को बोझ मैंने की नियत से इस रिवाज़ पर चलते हैं जिस के चलते वो लड़की दुबारा किसी से निकाह नहीं कर पाती है और वो अकेली लड़की जिंदगी भर कुरान की बीबी नाम से जानी जाती है .. या परंपरा पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में ज्यादा  प्रचलित है , इस रिवाज में वो लोग भी शामिल होते हैं जिन्हे अपनी बेटियां बोझ के समाज दिखती हैं और वो उनके निकाह आदि पर पैसा आदि खर्च नहीं करना चाहते है .  पाकिस्तान ने इस रिवाज को बंद करने के लिए कड़े क़ानून बनाये है . अभी भी पाकिस्तान में हक़ बख्शीश करवाने वाले को 7 साल की सज़ा का प्रावधान है . सन 2007 में पाकिस्तानी न्यूज एजेंसी पाकिस्तान प्रेस इंटरनेशनल ने 25 साल की फरीबा का विस्तृत विवरण छापा था जो इस मामले में पीड़िता बानी थी . इसी मुद्दे पर कार्य करने वाली एक अन्य संस्था यूनाइटेड नेशंस इन्फर्मेशन यूनिट ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि तमाम लोग इस कुप्रथा का इस्तेमाल अपनी जिम्मेदारियों के साथ जमीन और जायदाद आदि बचाने के लिए भी बतौर हथियार प्रयोग करते हैं .. तमाम सामाजिक संगठन इस रिवाज के समूल उन्मूलन के लिए कार्य भी कर रहे हैं .

source: http://www.sudarshannews.com/category/international/categoryinternationalvery-rare-tradition-in-pakistan–1871

हदीस : पैगम्बर के पिता और चाचा

पैगम्बर के पिता और चाचा

यह बात हमें माननी ही होगी कि मुहम्मद अविचल थे। उन्होंने अपनी शक्ति अपनी उम्मा के बचाव के लिए सुरक्षित रखी। उम्मा यानि वे लोग जो लोग अल्लाह और उज्जा को त्याग कर अल्लाह पर और मुहम्मद की पैगम्बरी पर ईमान लाए। अपनी शक्ति का उपयोग उन्होंने अपने प्रियतम एवं निकटतम जनों, जैसे पिता एवं चाचा को बचाने में भी नहीं किया। एक प्रश्नकत्र्ता से उन्होंने उनके पिता के बारे में कहा-”दरअसल, मेरे और तुम्हारे वालिद जहन्नुम की आग में हैं“ (368)। पर अपने चाचा के वास्ते वे कुछ सहृदय थे। ये चाचा थे अबू तालिब, जिन्होंने उन्हें पाला-पोसा था, और उनकी रक्षा भी की थी पर उनका मज़हब नहीं माना था। उनके बारे में मुहम्मद बतलाते हैं-”मैने उन्हें आग की सबसे निचली सतह पर पाया और मैं उन्हें छिछली सतह पर ले आया“ (409)। पर आग की यह छिछली सतह भी चाचा जी को भून तो रही ही होगी। मुहम्मद हमें आश्वस्त करते हैं-”आग के निवासियों में से अबू तालिब को सबसे कम तकलीफ होगी और वे आग के दो जूते पहनें होंगे, जिससे उनका दिमाग खौल उठेगा“ (413)। क्या इसे हम राहत कहें ?

 

यद्यपि मुहम्मद रिश्ते कायम करने में गौरव का अनुभव करते थे, तथापि अपने पुरखों की पीढ़ियों और उनके उत्तरकालीन लोगों से अपने सम्बन्धों का उन्होंने पूर्णतः प्रत्याख्यान कर दिया था। मुहम्मद की घोषणा है-”ध्यान दो ! मेरे पुरखों के वारिस……. मेरे दोस्त नहीं हैं“ (417)। कयामत के दिन उनके शुभ कर्म काम नहीं आयेंगे। पैगम्बर की युवा पत्नी आयशा बतलाती हैं-”मैंने कहा, अल्लाह के रसूल ! जुदान के बेटे (आयशा का एक रिश्तेदार और कुरैश के नेताओं में से एक) ने रिश्ते कायम किये और निभाये तथा गरीबों का पोषण किया। क्या वह सब उसके कुछ काम आयेगा ? उन्होंने कहा-वह सब उसके किसी काम न आयेगा“ (416)।

 

बहुदेववादियों के बारे में अल्लाह ने निर्णय कर लिया है। इसलिए किसी सच्चे मोमिन को उनके वास्ते आर्शीवाद तक की याचना नहीं करनी चाहिए। कुरान का वचन है-”पैगम्बर के लिए और मोमिनों के लिए यह उचित नहीं कि वे बहुदेववादियों के लिए अल्लाह से माफी मांगे, भले ही वे सगे-सम्बन्धी ही क्यों न हों। उन्हें यह जता दिया गया है कि काफिर जहन्नुम के बाशिन्दे हैं“ (9/113)।

लेखक : राम स्वरुप

शाश्वत-स्वर

शाश्वत-स्वर

– धर्मवीर

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।

युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।।

– यजु-5-36

बड़ा सुपरिचित मन्त्र है। मन्त्र कुछ इस प्रकार का है कि जहाँ पर सारे प्रयत्नों की समाप्ति दृष्टि-गोचर होती है, उपासक अपनी समस्त सामर्थ्य प्रभु को समर्पित कर चुका है, स्वयं को उसकी शरण में डाल चुका है, उसकी इच्छानुसार चलने के लिये अपना मानस बना चुका है। अतः प्रभु से कह रहा है कि अब आप ही ले चलो-मेरे चलने से पहुँचना समभव नहीं है, बिल्कुल नहीं है।

मन्त्र में ईश्वर को अग्नि-रूप में देखा गया है। अग्नि क्रिया का सर्वाधार है, अग्नि के अभाव में क्रिया समभव ही नहीं है, फिर संसार की गति बिना अग्नि के कैसे समभव है, तो वह स्वयं अग्नि है, अग्नि-रूप है, प्रकाश, ज्ञान, क्रिया का भण्डार है।

वह अग्नि ही है, अग्नि उसका ही नाम है। उसको अग्नि के रूप में ही प्रत्यक्ष किया है। भक्त जानता है-इस अग्नि के सिवाय चेतना और क्रिया का अनन्त भण्डार कहीं और नहीं है। संसार का सारा प्रकाश उसी अग्नि से प्रकाशित है। आँख उसी के सामर्थ्य से देख पाती है, सूर्य उसी के प्रकाश से प्रकाशित है, संसार की प्रत्येक वस्तु उसी से गतिमान् है।

अग्नि स्थूल को सूक्ष्म की ओर ले जाता है। सूक्ष्म बना देता है, अदृश्य कर देता है, परन्तु प्रभाव बढ़ जाता है। स्थूल का प्रभाव कम है, परन्तु सूक्ष्म होकर क्षमता बढ़ती है। अग्नि ऊर्ध्वगामी है, कहीं भी-कभी भी उसका स्वरूप दृष्टि में आया, तो वह ऊपर की ओर ही जाने वाला होगा। सूक्ष्म होगा तो ही ऊपर की ओर उठ सकेगा। स्थूल की तो अधोगति अवश्यभावी है, अतः अग्नि सूक्ष्म है, ऊर्ध्वगति वाला है, व्यापक है। अपने साथ-साथ दूसरों को भी विस्तृत करने की, व्यापक करने की क्षमता रखता है-वह ज्ञान का प्रकाश गति का कारण है। समिधा को प्रज्वलित कर अपने साथ प्रकाशित करता है, समिधा के साथ जलता है, उसे जलाता है। प्रकाशित होता है समाप्त हो जाता है, समाप्त कर देता है, परन्तु वास्तव में समाप्त नहीं होता न करता है। वह तो सूक्ष्म-व्यापक होकर अदृश्य होता है, स्थूल दृष्टि से ओझल हो जाता है। भक्त समिधा है, तभी तो परमेश्वर को अग्नि के रूप में देख पाता है। गुरु के  पास शिष्य समित्पाणि होकर जाता है, बिना समिधा बने कुछ नहीं पाया जा सकता है। समिधा बनना स्वयं को जलने के लिये, अग्नि में ढलने के लिये तैयार करना है, उसके लिये अपने को समर्पित कर देना है, कहीं कमी रही तो बात बनेगी नहीं। समिधा गीली रही तो जलेगी नहीं। जल्दी नहीं जलेगी, बहुत धुआँ होगा, प्रकाश नहीं होगा। अतः समिधा की, सूखी हुई समिधा की आवश्यकता है, तभी समिधा बना भक्त परमेश्वर को अग्ने कहता है।

अग्नि को प्रार्थना करता है-सुपथा नय! आश्चर्य है-चलने के लिये पैर दिये हैं, विवेक के लिये, पथ की पहचान के लिये बुद्धि दी है, परन्तु भक्त जानता है कि इन पैरों से वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता है, भटका जा सकता है। संसार में भटकता रहता है, भटकता रहेगा, जब तक वह यह नहीं समझ लेगा कि इन पैरों से नहीं चला जा सकता, वहाँ तक नहीं पहुँचा जा सकता। तब उपासक कहता है-हे अग्ने! नय-ले चल, ले जा। आज तक मैं जो भी चला, जो चलने का दमभ किया, वह तो व्यर्थ ही है-न मैं चला, न मैं चल सकता हूँ। आप ही ले चलो, मैं आपकी शरण में हूँ। आप जहाँ ले जायेंगे, वास्तव में वही सुपथ है। जिसे मैं सुपथ समझ रहा था, वह तो पथ ही नहीं है, अन्धकूप है। मैं उसमें चलने के भ्रम में पड़ा रहा- मैं तो अब समझा हूँ कि सुपथ तो तेरे बिना होता ही नहीं, इसलिये अग्ने! मुझे सुपथ पर ले चल।

जब मैं जानता था कि मैं जानता हूँ, तब मेरा अहंकार मुझे कुछ जानने नहीं देता था। मैं जानने के स्थान पर जानने के दमभ में जीता रहा हूँ। जब मैंने तुझे, ज्ञान के सागर को जाना है तो मैंने जाना है कि मैं कुछ भी नहीं जान पाया हूँ, मैं कुछ भी जानने में समर्थ नहीं। मैं एक तुच्छ कण से स्वयं को जानने वाला समझता रहा हु। हे अग्ने! आप ज्ञानमय हो- प्रकाशमय हो, आप ही मुझे ले चलो, अपने मार्ग से ले चलो-मैं आपके बिना नहीं चल पाऊँ गा।

मैंने सोचा था मेरा सामर्थ्य बहुत है, मैं सारे संसार का ऐश्वर्य एकत्रित कर लूँगा, सारा सुख मेरे पास होगा। मैंने जीवन भर प्रयत्न करके बहुत इकट्ठा किया, बड़े-बड़े महल खड़े किये, बहुत सारी भूमि का अधिपति बना और बहुत सपत्ति भी एकत्रित की। सारा संसार मेरी प्रशंसा करता था, परन्तु आज मैं देखता हूँ कि मैंने सारी आयु और सारा सामर्थ्य पत्थरों के ढोने में लगा दिया और एक मजदूर जितना भी नहीं पा सका-जो पत्थर तो ढोता है, परन्तु बदले में कुछ पाकर सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु मैं देखता हूँ जिसको मैं ऐश्वर्य समझता था, वह धन है ही नहीं। जिसको मैं सुख समझता रहा, वह तो दुःख का ही मूल है। भला मैं उससे सुख किस प्रकार प्राप्त कर सकता हूँ? इसलिये मेरा चला पथ सुपथ नहीं था, कभी भी नहीं हो सकता। सुपथ तो वही है जो रयि को, वास्तविक धन को, सत्यसुख को प्राप्त करा सके, वहाँ तक पहुँचा सके। इसलिये आप ही सुख को जानते हो। हे देव! सारे कर्मों को, सारे ज्ञान को आप ही जानते हो, अतः आप ही सुमार्ग पर लेकर चलो, दूसरा कोई ऐसा करने में समर्थ नहीं होगा।

अब तो मेरा यह सामर्थ्य भी  नहीं कि मैं अपनें को पाप से अलग कर सकूँ। मेरे संस्कार इस प्रकार के हो गये हैं कि जन्म-जन्मान्तर की छाया मेरे चित्त पर सञ्चित हैं। मैं बहुत प्रयत्न करता हूँ, परन्तु संस्कार उसी ओर ले जाता है, जहाँ से दूर होना चाहता हूँ। क्योंकि पाप का मार्ग सीधा नहीं होता, वह टेढ़ा-मेढ़ा होता है, उसमें आँख-मिचौनी हैं, हर मोड़ पर आगे कुछ पाने की आशा है, और प्रलोभन बढ़ता ही जाता है। मेरा सारा प्रयत्न पाप से छूटने का धरा का धरा रह जाता है। आश्चर्य होता है कि टेढ़े मार्ग पर चलने का, बुराई करने का सामर्थ्य मुझमें कहाँ से आता है और सुपथ पर, सरल पथ पर चलना आसान होना चाहिए, उधर कदम ही नहीं उठते। क्यों नहीं उठते? यही तो मैं नहीं जान पाया।

ज्ञानी कहते हैं कि धार्मिक वह है जो सरल है। पता नहीं सब धार्मिक क्यों नहीं हो पाते। जो सहज है, सरल है, वह कठिन है। जो टेढ़ा है, कुटिल है, दुर्लभ है, वही सरल प्रतीत होता है। इस संसार की रीत ही कुछ ऐसी है, यहाँ धर्म कठिन लगता है, अधर्म सरल। सत्य अस्वाभाविक लगता है, झूठ सहज। ईमानदारी अनहोनी लगती है, बेईमानी आदत। तभी तो मैं छूट नहीं पाता हूँ। हे अग्ने! मुझे-सरल और सहज होना ही तो नहीं आता। प्रभु, तुम ही मुझे कुटिल मार्ग की कठिनता से हटाकर पुण्य के सहज सरल मार्ग का पथिक बना सकते हो। यही मेरी बारंबार आपसे प्रार्थना है। मैं प्रार्थी होकर, याचक होकर, आपकी शरण में आया हूँ। मैं नमन करता हूँ, बार-बार करता हूँ-मेरा मुझ में अब कुछ भी नहीं बचा। मैं तो जैसा भी हूँ, तेरे आधीन हूँ। यह नम्रता निरभिमानता ही सरलता का आधार है। जब नम्रता आ गयी, फिर कुछ करना शेष नहीं रहा। सारे शास्त्र, सारे उपदेश, सारी साधना यहाँ तक पहुँचने के लिये है। यहाँ से आगे जाने का सामर्थ्य तो किसी में नहीं-वह तो सब ईश्वर की इच्छा से ही संभव है।

जब एक बार बरेली में स्वामी दयानन्द के भाषण हो रहे थे तो प्रतिदिन ईश्वर के अस्तित्व पर नवयुवक मुन्शीराम तर्क करते थे। अन्तिम दिन युवक मुन्शीराम ने कहा मुझे तर्क से तो आपने निरुत्तर कर दिया, परन्तु विश्वास नहीं हुआ। तब महाराज ने उत्तर दिया-नवयुवक! यह तो ईश्वर की इच्छा से होगा। जब प्रभु चाहेंगे, तब तुमहारी आत्मा में प्रकाश होगा।

बस यही सूत्र है जो विश्वास का आधार है-

भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।

हदीस : फैसले का दिन

फैसले का दिन

फैसले का दिन (कयामत), अंतिम दिन (योमुल-आखिर) इस्लामी पंथमीमांसा का अपरिहार्य अंग है। जैसा कि मिर्जा हैरत ने अपनी किताब, मुकद्दमा तफसीर उलफुरकान2 में दर्ज किया है, कुरान में ’कयामत‘ शब्द सत्तर बार आया है और उसके सत्तर पर्याय हैं। अपनी अनुवर्ती अवधारणाओं, जन्नत और जहन्नुम, के साथ यह शब्द हदीस के भी लगभग हर-एक पृष्ठ में आ टपकता है। कुरान में कम आग्रहशील किन्तु उतनी ही उन्नत योग-पद्धतियों में यही विचार भिन्न रूप में और अधिक मनोवैज्ञानिक पदों में प्रकट किया जाता है-हमें अपने पतन की स्मृति से आविष्ट नहीं रहना चाहिए, वरन् अपने अन्तर में स्थित दिव्य तत्त्व की प्रीति में रमना चाहिए।

 

  1. सामाजिक तथा कानूनी दृष्टि से स्त्री का स्तर नीचा रहा है। उसके शरीर की रचना अन्य प्रकार की है। उसके शरीर की क्रियाएं भी विभिन्न हैं। इन समस्त विभेदों से सिद्ध होता है कि स्त्री नैतिक दृष्टि से निकृष्ट है। अतएव अल्लाह यदि उसे दण्ड देता है तो ठीक ही करता है। अल-गजाली (ईसवी 1058-1111) अपने युग में महान माने जाने वाले अरब मनीषी थे। वे अपनी पुस्तक नसीहत अल-मुलूक में लिखते हैं-”अल्लाह प्रशंसनीय है। उसने स्त्री को अठारह प्रकार की सजा दी हैः (1) मासिक धर्म, (2) प्रजनन, (3) माता-पिता से बिछुड़ना और एक अजनबी से निकाह, (4) गर्भ-धारण,(5) अपने ऊपर अधिकार का अभव (अर्थात दूसरों की मातहत रहना), (6) दायभाग में उसका हिस्सा कम होना, (7) उसे आसानी से तलाक दिया जाना किन्तु उसके द्वारा तलाक देने में असमर्थता, (8) मर्द के लिए चार बीवियों का वैध होना किन्तु उसके लिए एक ही पति जायज होना, (9) यह बात कि उसे घर के भीतर परदे में रहना पड़ता है, (10) यह बात कि घर के भीतर भी उसे सर ढके रखना होता है, (11) यह बात कि दो स्त्रियों की गवाही एक पुरुष की गवाही के बराबर है, (12) यह बात की यदि कोई निकट का सम्बन्धी साथ न हो तो वह घर के बाहर नहीं जा सकती, (13) यह बात कि पुरुष लोग जुम्मे के दिन और त्यौहारों के मौकों पर अदा की जाने वाली नमाज में शामिल हो सकते हैं, जबकि वह नहीं हो सकती, (14) शासक तथा न्यायाधीश के पदों के लिए उसकी अपात्रता, (15) यह बात कि पुण्य के एक हजार अवयव हैं जिनमें से स्त्रियों द्वारा केवल एक ही सम्पन्न होता है जबकि नौ-सौ निन्यानवे पुरुषों द्वारा सम्पन्न माने जाते हैं, (16) यह बात कि स्त्री यदि लम्पट हो तो कयामत के दिन शेष मिल्लत को मिलने वाली सजा का आधा भाग ही उसे मिलता है, (17) यह बात कि उनके शौहर मर जाते हैं तो दोबारा शादी करने के पहले उन्हें चार महीने तथा दस दिन तक इन्तजार करना पड़ता है, और (18) यह बात कि यदि उनके शौहर उनको तलाक दे देते हैं तो उन्हें दोबार शादी करने के लिए तीन महीने अथवा तीन मासिक धर्म पूरे होने तक इन्तजार करना पड़ता है।“ (नसीहत अल मुलूक लन्दन 1971, पृ0 164-164)।
  2. ये सभी पर्याय कुरान परिचय नाम की पुस्तक में मिलते हैं। हिन्दी की इस पुस्तक के लेखक तथा प्रकाशक हैं – देव प्रकाश, रतलाम, मध्य प्रदेश।

 

कयामत के दिन मुहम्मद के अनुयायी सब से अधिक

मुहम्मद हमें बतलाते हैं कि ”कयामत के रोज हमारे अनुयायी सबसे ज्यादा होंगे“ (283)। यह तर्क समझ में आता है। हम जानते हैं कि जहन्नुम की आग मुहम्मद के हक में है। यह आग मुहम्मद के विरोधियों को जलाने में व्यस्त रहेगी और जन्नत के लिए सिर्फ मुसलमान बच रहेंगे।

 

मुहम्मद बतलाते हैं-”यहूदियों और ईसाइयों में जो व्यक्ति मेरे बारे में जानता है, पर तब भी उस सन्देश पर ईमान नहीं लाता जिसे लेकर मैं भेजा गया हूँ, और अनास्था की दशा में ही जिन्दगी बिता देता है, वह दोजख की आग में जलने वालों में से एक  होगा“ (284)। यहूदी और ईसाई न केवल अपनी अनास्था के लिए जहन्नुम की आग में जलेंगे, अपितु उन मुसलमानों के बदले में भी काम आयेंगे, जो जहन्नुम भेजे जाने योग्य होंगे। मुहम्मद बतलाते हैं-”कयामत के रोज पहाड़ जैसे पापों वाले मुसलमान आएंगे और अल्लाह उन्हें माफ कर देगा और उनके एवज में यहूदियों और ईसाईयों को जहन्नुम में भेजेगा“ (6668)। संयोगवश, इससे जन्नत में जगह का मसला भी हल हो जायेगा। अनुवादक हमें बतलाते हैं-”ईसाइयों और यहूदियों को दोजख की आग में फेंक दिये जाने पर जन्नत में जगह निकल आयेगी“ (टी0 2-67)।

 

जहन्नुम की आबादी का एक और अहम हिस्सा औरतों का होगा। मुहम्मद कहते हैं-”ऐ औरतों !……. मैने जहन्नुम के बाशिन्दों में तुम्हारा अम्बार देखा।“ एक औरत ने पूछा कि ऐसा क्यों होगा, तो मुहम्मद ने उसे समझाया-“तुम लोग बहुत ज्यादा दुर्वचन बोलती हो और अपने पतियों के प्रति एहसान फरामोश हो। मैने किसी और को (तुम्हारे जैसा) सामान्य बुद्धि से हीन और मज़हबी मामलों में कमजोर और फिर भी बुद्धिमानों से बुद्धिमत्ता छीन लेने वाला नहीं देखा।“ उनमें ”सामान्य बुद्धि की कमी का प्रमाण“ है खुद मुहम्मद द्वारा प्रवर्तित अल्लाह के कानून की यह धारा कि ”दो औरतों की गवाही एक मर्द की गवाही के बराबर है।“ मजहब में उनकी कमजोरी का प्रमाण भी मुहम्मद उन्हें बतलाते हैं-”तुम्हारी कुछ रातें और दिन ऐसे होते हैं जब तुम नमाज नहीं अदा कर पाती और रमजान के महीने में तुम रोजे नहीं रख पाती“ (142)। औरतें कई बार इसलिए यह घोर भयावह दिन (यौम), जिसे कहीं ”हिसाब“ का दिन, कहीं ”छटनी“ (फस्ल) का या ”पुनरुत्थान“ (कियामह) का दिन कहा गया है, तीन सौ से अधिक बार आया है।

 

आखिरी दिन के आ पहुंचने के कई संकेत प्रकट होंगे। ”जब तुम देखो कि एक गुलाम औरत अपने मालिक को जन्म दे रही है-यह एक संकेत है। जब तुम नंगे पांव नंगे लोगों, बहरों और गूंगों को पृथ्वी का शासक देखो-यह कयामत के संकेतों में से एक है। जब तुम काले ऊँटों के चरवाहों को इमारतों में आनन्द करते देखो-यह भी कयामत के संकेतों में से एक है“ (6)। संक्षेप में, जब गरीब और वंचित जन, धरती पर अपना अधिकार पा लें, तब मुहम्मद के अनुसार वह धरती का अंतकाल है।

 

”किताब अल-ईमान“ के अंतिम भाग में 82 हदीसों में कयामत के दिन का विस्तृत विवरण है। मुहम्म्द हमें बतलाते हैं कि इस दिन अल्लाह ”लोगों को इकट्ठा करेंगे“, ”जहन्नुम के ऊपर एक पुल बनाया जायेगा“ और ”मैं (मुहम्मद) तथा मेरी मिल्लत सबसे पहले उस पर से पार होंगे“ (347)। साफ है कि काफिर लोग उस दिन पूरी तरह दुर्दशा को प्राप्त होंगे। पर आसमानी किताब वाले लोग-यहूदी और ईसाई-भी कुछ बेहतर न होंगे। मसलन, ईसाई बुलाए जाएंगे और उनसे पूछा जाएगा- ”तुम किसी उपासना करते थे?“ जब वे जवाब देंगे कि ”अल्लाह के बेटे“ यीशू की, तब अल्लाह उनसे कहेंगे-”तुम झूठे हो। अल्लाह के न तो कोई बीवी है, न बेटा।“ फिर उनसे पूछा जायेगा कि वे चाहते क्या हैं। वे कहेंगे-”ऐ मालिक ! हम प्यासे हैं। हमारी प्यास बुझा।“ उन्हें एक खास तरफ निर्देशित करते हुए अल्लाह कहेंगे-”तुम वहां जाकर पानी क्यों नहीं पी लेते?“ जब वे वहां जायेंगे तो वे पायेंगे कि उन्हें गुमराह किया गया है। वहां पानी मृगमरीचिका मात्र है, वस्तुतः वह जहन्नुम है। तब वे ”आग में गिर जाएंगे“ और नष्ट हो जाएंगे (352)।

 

उस दिन कोई और पैगम्बर या उद्धारक काम न आयेगा, सिवाय मुहम्मद के। लोग आदम के पास जायेंगे और कहेंगे-”अपनी संतति के लिए सिफारिश करो।“ वह जवाब देगा-”मैं इसके काबिल नहीं हूँ। पर तुम इब्राहिम के पास जाओ, क्योंकि वह अल्लाह का दोस्त है।“ वे इब्राहिम के पास जाएंगे। पर वह जवाब देगा-”मैं इसके काबिल नहीं हूँ। पर तुम मूसा के पास जाओ, क्योंकि वह अल्लाह का संभाषी है।“ वे मूसा के पास जाएंगे। पर वह जवाब देगा-”मैं इसके काबिल नहीं हूँ। पर तुम यीशु के पास जाओ, क्योंकि वह अल्लाह की रूह और उनका शब्द है।“ वे यीशु के पास जाएंगे और वह उत्तर देगा-”मैं इसके काबिल नहीं हूं। बेहतर है कि तुम मोहम्मद के पास जाओ।“ तब वे मुहम्मद के पास आयेंगे और मोहम्मद कहेगा-”मैं यह कर सकने में समर्थ हूँ।“ वह अल्लाह से अपील करेगा और उसकी सिफारिश स्वीकार कर ली जाएगी (377)।

 

कई हदीसों (381-396) में मुहम्मद हमें बतलाते हैं कि पैगम्बरों में उन्हीं के पास सिफारिश करने का विशेष सामथ्र्य है, क्योंकि  ”पैगम्बरों में से और कोई पैगम्बर इस तरह प्रमाणित नहीं हुआ, जिस तरह मैं प्रमाणित हुआ हूं“ (383)। यदि यह सत्य है तो उनके इस दावे में कुछ वनज हो जाता है कि अन्य पैगम्बरों ”की अपेक्षा कयामत के दिन उनके अनुयायी सर्वाधिक होंगे।“ उस विशेष हैसियत के कारण (मेरी) मिल्लत के सत्तर हजार लोग बिना कोई हिसाब दिए जन्नत में दाखिल होंगे (418) और ”जन्नत के बाशिन्दों में से आधे मुसलमान होंगे“ (427)। यह देखते हुए कि आस्थारहित, काफिर और बहुदेववादी लोग जन्नत से पूरी तरह बाहर रखे जाएंगे तथा यहूदियों और ईसाइयों का प्रवेश भी वहां वर्जित होगा, जन्नत की बाकी आधी आबादी के बारे में अनुमान लगाना कठिन है।

 

सिफारिश करने का यह विशिष्ट सामथ्र्य मुहम्मद ने कैसे पाया ? इस सवाल का जवाब खुद मुहम्मद देते हैं-”हर एक पैगम्बर की एक प्रार्थना स्वीकृत होती है। पर हर पैगम्बर ने प्रार्थना करने में उतावली बरती। बहरहाल, मैने अपनी प्रार्थना को कयामत के रोज अपना मिल्लत के वास्ते अनुनय के लिए सुरक्षित रखा“ (3689)। अनुवादक हमारे समक्ष इस वक्तव्य को अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं-”पैगम्बर लोग अल्लाह को प्रिय हैं और उनकी प्रार्थना अक्सर स्वीकार की जाती है। किन्तु पैगम्बर की एक प्रार्थना ऐसी होती है, जो उसकी मिल्लत के बारे में निर्णायक कही जा सकती है। उसके द्वारा ही मिल्लत की किस्मत तय होती है। मसलन, नूह आर्त होकर कह उठे-मेरे मालिक ! जमीन पर एक भी अनास्थावान व्यक्ति मत रहने देना (अलकुरान, 71/26)। मुहम्मद ने अपनी प्रार्थना कयामत के दिन के लिए सुरक्षित रख छोड़ी और वे अपनी मिल्लत की मुक्ति के लिए उसका उपयोग करेंगे“ (टी0 412)

 

नूह द्वारा दिए गए शाप के बारे में जानने का कोई उपाय हमारे पास नहीं है। पर  इस प्रकार का शाप मुहम्मद की विचारधारा के अनुरूप ही है। उदाहरणार्थ विभिन्न कबीलों के बारे में उन के शाप देखें-”ऐ अल्लाह ! मुजार लोगों को बुरी तरह पामाल कर और उनके लिए अकाल रच…. अल्लाह ! लिहयान, रिल जकवान, उसय्या को शाप दे, क्योंकि उन्होंने अल्लाह और रसूल की आज्ञा नहीं मानी“ (1428)।

 

बहरहाल जब काफिर लोग आग में झोंके जा रहे होंगे तब यह जानते हुए भी कि किसी और की सिफारिश काम न आयेगी, मुहम्मद उनकी सिफारिश नहीं करेंगे। ”तुम्हें अपने दुश्मनों को नरक में नहीं डालना चाहिए। लेकिन उन्हें बचाने के लिए कष्ट उठाने की भी जरूरत नहीं है।

लेखक : राम स्वरुप

ट्रिपल तलाक: भड़कीं शाइस्ता अंबर बोलीं- एक रात की अय्याशी का सामान नहीं हैं मुस्लिम औरतें

ट्रिपल तलाक: भड़कीं शाइस्ता अंबर बोलीं- एक रात की अय्याशी का सामान नहीं हैं मुस्लिम औरतें

शाइस्ता ने मुस्लिम वक्फ बोर्ड पर आरोप लगाते हुए कहा कि शाह बाने केस के बाद 1986 में शरियत ने ये कानून बनाया था कि हर तलाक पीड़िता को वक्फ बोर्ड पेंशन देगा लेकिन आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ।

तस्वीर का इस्तेमाल आज तक के वीडियो से किया गया है।

ट्रिपल तलाक के मसले पर ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने बोलते हुए कहा है कि मुस्लिम महिलाएं सिर्फ एक रात की अय्यासी का सामान नहीं हैं कि रात में इस्तेमाल किया और सुबह तलाक बोल दिया। हिंदी न्यूज चैनल आज तक के कार्यक्रम में शाइस्ता ने कहा कि तलाक पीड़िता अगर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाएगी तो क्या करेगी। शाइस्ता ने मुस्लिम वक्फ बोर्ड पर आरोप लगाते हुए कहा कि शाह बाने केस के बाद 1986 में शरियत ने ये कानून बनाया था कि हर तलाक पीड़िता को वक्फ बोर्ड पेंशन देगा लेकिन आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ।

ऑल इंडिया मुस्लिम महिला पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर ने शरियत के नाम पर ट्रिपल तलाक का विरोध कर रहे मौलानाओं को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि आप लोग मुजरिमों को और अन्याय को बढ़ावा दे रहे हैं। शाइस्ता ने सवाल किया कि जब मुस्लिम औरतों पर अत्याचार हो रहा है तो वो कहां जाएंगी। उन्होंने आगे कहा कि वो दिन जरूर आएगा जब हिंदुस्तान का संविधान और सुप्रीम कोर्ट मुस्लिम महिलाों के लिए एक दिन ऐसा कानून जरूर बनाएगा जो पूरी दुनिया में मिसाल साबित होगा।

 

पर जो शाइस्ता अम्बर ने कहा, उसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे
लाइव: http://aajtak.intoday.in 

आपको बता दें कि पिछले कुछ समय से ट्रिपल तलाक पर बहस चल रही है। जहां सरकार इसे खत्म करना चाह रही है तो वहीं कुछ मुस्लिम संगठन इसे शरियत का हिस्सा बताकर इसका बचाव कर रहे हैं।

source : http://www.jansatta.com/rajya/uttar-pradesh/lucknow/aimplw-women-president-shaishta-ambars-statement-on-triple-talaq-issue/316219/