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हदीस : दियत (हर्जाना)

दियत (हर्जाना)

मुहम्मद ने रक्तपात-शोध की पुरानी अरब प्रथा को बरक़रार रखा (4166-4174)। अतएव जब एक औरत ने अपनी गर्भवती सौत को लाठी मारी और सौत का गर्भपात हो गया, तो उसके लिए मुहम्मद ने ”उस गर्भ में जो था“ उसके एवज में ”सबसे बढ़िया किस्म के एक मर्द या औरत गुलाम“ को हर्जाने के रूप में निश्चित किया। उस औरत के एक मुखर रिश्तेदार ने हर्जाना माफ़ करने की पैरवी की और तर्क दिया कि ”क्या हमें किसी ऐसे के लिए हर्ज़ाना देना चाहिए जिसने न कुछ खाया और न कोई शोर किया और जो न-कुछ के समान था।“ मुहम्मद ने उसके एतराज को ठुकरा दिया और कहा कि वह ”काफिया-बन्द मुहावरे बोल रहा है, जैसे कि रेगिस्तान के अरब बोलते रहते हैं (4170)।

author : ram swarup

अल्लाह का इलाज

अल्लाह का इलाज

बरेली में मुसलमान भाइयों का उत्सव था। धर्मवार्ता-शास्त्रार्थ के लिए देहलवीजी को भी बुला लिया गया। देहलवीजी ने वहाँ दर्शनों के नामी पण्डित स्वामी दर्शनानन्दजी की युक्ति दी कि अल्लाह तौरेत में कौन-सी बात भूल गया था, जो ज़बूर में ठीक कर दी?

और फिर ज़बूर के बाद इंजील आई तो ज़बूर में कौन-सी चूक रह गई थी, जो कुरआन में ठीक की है? और यह क्रम कहाँ तक चलेगा?

आगे अब कौन-सी पुस्तक आएगी, यदि कुरआन में भी कमी रह गई हो?

पण्डितजी के इस प्रश्न पर एक मौलाना मुस्कराते हुए खड़े हुए और कहा कि पण्डितजी प्रतीत होता है आपको कभी किसी हकीम (वैद्य) से काम नहीं पड़ा। पण्डितजी ने कहा कि मेरा ज़्या काम वैद्य से? रोगी को वैद्यों-डाज़्टरों से पाला पड़ता है, न कि स्वस्थ मनुष्य को। चलो, कहो ज़्या कहना चाहते हो? मौलाना बोले कि हकीम लोग पेट के रोगी को पहले ऐसी ओषधि देता है जिससे मेदा (आमाशय) नर्म हो जाता है, फिर कोई ऐसी ओषधि देता है जिससे जुलाब लगें और सारा मल निकल जाए। अल्लाह ने ये पुस्तकें (तौरेत, ज़बूर, इंजील आदि) देकर उन पुराने मनुष्यों में सत्य के, एकेश्वरवाद के विरुद्ध जितना मल था उसे नर्म कर दिया और जब क़ुरान मजीद आया तो जुलाब से सबको कतई निकालकर बाहर फेंक दिया।

पण्डितजी ने उज़र दिया कि वे लोग (तौरेत, जबूर, इंजीलवाले) जिनका आमाशय तो नर्म कर दिया गया परन्तु जुलाब नहीं दिया गया, चिल्ला रहे हैं और वे भी शोर कर रहे हैं जिनको जुलाब तो दे दिया, परन्तु मेदा नर्म नहीं किया गया। यह ज़्या ढंग है कि पेट में गड़बड़ एक के हो, आमाशय दूसरे का नर्म किया और जुलाब तीसरे को दिया जाता है।

हदीस : मुसलमान और मृत्युदंड

मुसलमान और मृत्युदंड

एक मुसलमान को जो ”यह गवाही दे कि अल्लाह के सिवा अन्य आराध्य नहीं, और मैं (मुहम्मद) उस का रसूल हूँ“ सिर्फ़ तभी मृत्यु-दंड दिया जा सकता है, जब वह शादीशुदा होते हुए परस्त्री-गामी हो, अथवा जब उसने किसी को मार डाला हो (अनेक इस्लामी न्यायविदों के अनुसार किसी मुसलमान को मार डाला हो) अथवा यदि उसने इस्लाम का त्याग किया हो (4152-4155) अनुवादक हमें बतलाते हैं कि इस्लाम के न्यायविदों में इस बात पर लगभग सहमति है कि इस्लाम त्यागने की सजा मौत है। जो लोग ऐसी सजा को बर्बर मानते हैं, उन्हें इसके बारे में अनुवादक की मार्जना और युक्ति पढ़नी चाहिए (टि0 2132)।

author : ram swarup

गोल-गोल बातों वाले पण्डितजी

गोल-गोल बातों वाले पण्डितजी

श्रद्धेय पण्डित गणपति शर्मा शास्त्रार्थ-महारथी एक बार जगन्नाथपुरी देखने उत्कल प्रदेश पहुँचे। वहाँ के पण्डितों को किसी प्रकार पता चल गया कि पण्डित गणपति शर्मा आये हैं। जहाँ पण्डितजी ठहरे थे वहाँ बहुत-से लोग पहुँचे और कहने लगे- लोग-ज़्या आप आर्यसमाजी पण्डित हैं?

पण्डिजी-हाँ, मैं आर्यपण्डित हूँ।

लोग-आर्यपण्डित कैसे होते हैं?

पण्डितजी-जैसा मैं हूँ!

लोग-पण्डित के साथ आर्य शज़्द अच्छा नहीं लगता!

पण्डितजी-ज़्यों? इस देश का प्रत्येक निवासी आर्य है। यह आर्यावर्ज़ देश है। इसमें रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है।

लोग-ज़्या आर्यावर्ज़ में रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है?

पण्डितजी-देश के कारण आर्य कहला सकते हैं। धर्म के कारण नहीं।

लोग-आप किस धर्म को मानते हैं?

पण्डितजी-वैदिक धर्म को मानता हूँ!

लोग-ज़्या सत्य सनातन धर्म को नहीं मानते?

पण्डितजी-वैदिक धर्म ही तो सत्य सनातन धर्म है।

लोग-ज़्या मूर्ति को मानते हैं?

पण्डितजी-ज़्यों नहीं, मूर्ज़ि को मूर्ज़ि मानता हूँ।

लोग-जगन्नाथजी को ज़्या मानते हो?

पण्डितजी-जो है सो मानता हूँ।

लोग-जगन्नाथ को परमेश्वर की मूर्ज़ि नहीं मानते हो?

पण्डितजी-हम सब भगवान् की बनाई हुई मूर्ज़ियाँ हैं।

लोग-श्राद्ध को मानते हो?

पण्डितजी-ज़्यों नहीं, माता, पिता, गुरु आदि का श्राद्ध करना ही चाहिए, अर्थात् इनमें श्रद्धा करनी ही चाहिए।

लोग-और पितरों को?

पण्डितजी-पितरों का भी श्राद्ध करो। पितर अर्थात् बड़े-बूढ़े बुजुर्ग, विद्वान् आदि।

पण्डितजी के मुख से अपने प्रश्नों के ये उज़र पाकर लोग परस्पर कहने लगे ‘‘देखो! यह कैसी गोल-गोल बातें करता है।’’

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२२

*सच्ची रामायण का खंडन भाग-२२*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों!हम एक बार फिर उपस्थित हुये हैं *भगवान श्रीराम पर किये आक्षेपों का खंडन*
आगे २२ वें आक्षेप से समीक्षा प्रारंभ करते हैं:-
*आक्षेप-२२-* इसका सार है कि अपने पास वन में आये हुये भरत से रामने कहा-” हे भरत! क्या तुम प्रजा द्वारा खदेड़ भगाए हुए हो? क्या तुम अनिच्छा से हमारे बाप की सेवा करने आये हो? (अयोध्याकांड १००)( पेरियार ने १०० की जगह १००० लिखा है।यदि ये मुद्रण दोष है तो भी चिंतनीय है)
*समीक्षा-* हम चकित हैं कि इस प्रकार से बेधड़क झूठ बोलकर किसी लेखक की पुस्तक हाई कोर्ट से बाइज्जत बरी हो जाती है।
इस सर्ग में श्रीराम ने भरत से यह बिल्कुल नहीं पूछा कि “क्या तुम जनता द्वारा खदेड़ कर भाग आए हुए हो ” ।अब भला राजा भरत को कौन खदेड़ेगा ?राजा भरत माता पिता मंत्रियों और सेना सहित श्री राम से मिलने के लिए आए थे। क्या कोई खदेड़ा हुआ व्यक्ति सेना के साथ आता है? “क्या तुम अनिच्छा से हमारे बाप की सहायता सहायता करने आए”- न ही यह प्रश्न भी श्री राम ने नहीं किया।भला भरत जैसा पितृ भक्त अपने पिता की ‘अनिच्छा’ से सेवा क्यों करेगा? और वन में आकर पिता की कौन सी सेवा की जाती है ?यह पेरियार साहब का श्री राम पर दोषारोपण करने का उन्मत्त प्रलाप है यह देखिए अयोध्या कांड सर्ग १०० में मात्र यह लिखा है कि:-
क्व नु तेऽभूत् पिता तात यदरण्यं त्वमागतः ।
न हि त्वं जीवतस्तस्य वनमागन्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
“तात ! पिताजी कहां थे कि तुम इस वनमें निकलकरआये हो? वे यदि जीवित होते तो तुम वनमें नहीं आ सकते थे॥ ४ ॥ “
चिरस्य बत पश्यामि दूराद् भरतमागतम् ।
दुष्प्रतीकमरण्येऽस्मिन् किं तात वनमागतः ॥ ५ ॥
’मैं दीर्घ काल केबाद दूरसे (नानाके घर से ) आये भरतको आज इस वनमें देख रहा हूं, परंतु इसका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है।तात ! तुम किसलिये इस बुरे वनमें आये हो ? ॥ ५ ॥
देखा यहां पर मात्र इतना ही उल्लेख है आपकी कही वही कपोल कल्पित बातें यहां बिल्कुल भी नहीं है।
*आक्षेप-२३-*राम ने भरत से पुनः कहा कि ,”जब तुम्हारी मां का मनोरथ सिद्ध हो गया, क्या वो प्रसन्न है?”(अयोध्याकांड सर्ग १००)
*समीक्षा-* इस बात का अयोध्याकांड सर्ग 100 में बिल्कुल भी उल्लेख नहीं है विसर्ग में तो श्रीराम अपनी तीनो माताओं की कुशल क्षेम पूछ रहे हैं देखियेे प्रमाण:-
तात कच्चिच्च कौसल्या सुमित्रा च प्रजावती ।
सुखिनी कच्चिदार्या च देवी नंदति कैकयी ॥ १० ॥
’बंधो ! माता कौसल्या सुखमें है ना ? उत्तम संतान होनेवाली सुमित्रा प्रसन्न हैे ना ? और आर्या कैकेयी देवीभीआनंदित है ना ? ॥ १० ॥’
देखिये, श्रीराम वनवास भेजने वाली अपनी विमाता कैकेयी को भी ‘आर्या’ तथा ‘देवी’ कहकर संबोधित करते हैं।
 यदि आप की कही हुई बाक मान भी ली जाये तो भी इससे श्रीराम पर क्या आक्षेप आता है?कैकेयी राम के वनवास और भरत के राज्य प्राप्ति पर तो प्रसन्न ही होगी।इसमें भला क्या संदेह है?यह प्रश्न पूछकर श्रीराम ने कौन सा पाप कर दिया?
*आक्षेप-२४-* इसका सार है:- भरत ने कहा कि उन्होंने सिंहासन के लिये स्वत्व का त्याग कर दिया,तब श्रीराम ने कैकेयी के पिता को दशरथ के वचन देने की बात कही। (अयोध्याकांड सर्ग १०७)
*समीक्षा-* हम पीछे सिद्ध कर चुके हैं कि कैकेयी के पिता को दशरथ ने कोई वचन नहीं दिया था।अतः यह आक्षेप निर्मूल है।
परंतु अभी तो भरत को सिंहासन मिल ही गया न?अब यदि दुर्जनतयातोष इस वचन को सत्य मान भी लें तो भरत को तो राज्य मिल ही गया है! एक तरह से दशरथ का दिया वचन सत्य ही हुआ। फिर भला इस पर क्या आपत्ति।
*आक्षेप-२५-*इसका सार है, कि भरत रामजी की पादुकायें लेकर लौटे,उन्होंने अयोध्या में प्रवेश न किया नंदिग्राम में निवास,तपस्वी जीवन करके क्षीणकाय होना इत्यादि वर्णन है।आक्षेप ये है कि “रामने ऐसे सज्जन और पर संदेह किया”।
तत्पश्चात वनवास से लौटकर हनुमान जी द्वारा अपने आगमन की सूचना देने का उल्लेख किया है।यह वचन सुनकर भरत अत्यंत प्रसन्न होकर श्रीराम के स्वागत को चल पड़े। यहां महोदय ने टिप्पणी की है कि,” संपूर्ण भोगोपभोग पूर्ण अयोध्या को त्यागकर राम के स्वागत के लिये दौड़ कर जाना अत्यंत दुष्कर था”।
*समीक्षा-* हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप किस प्रकार के प्राणी है ।यहां भला कहां लिखा है कि श्रीराम ने भारत के ऊपर संदेह किया ?वे तो उन्हें प्राणों के समान प्रिय मानते थे इसलिए उनको राजनीति का उपदेश देकर अयोध्या में राज्य करने हेतु वापस भेज दिया। यदि श्रीराम का भारत के ऊपर संदेह होता तो उन्हें ना तो राजनीति का उपदेश करते और ना अयोध्या में राज्य करने के लिए भेजते ।हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप कैसे बेसिर-पैर के आरोप लगा रहे हैं।
आप की दूसरी आपत्ति है कि समस्त भागों को त्याग करके तपस्वी जीवन बिताते भरत जी श्री राम के आगमन की सूचना पाते ही अचानक दौड़ कर उनका स्वागत करने हेतु कैसे पहुंच गए ।क्यों महाशय! शंका करने की क्या बात है श्रीराम भी १४ वर्ष तक वनवास में रहे वह भी मात्र कंद-फल-मूल खाकर।फिर भी उन्होंने अपने तपोबल और ब्रह्मचर्यबल से १४००० राक्षसों समेत खर-दूषण का नाश कर दिया।बालि जैसे योद्धा को एक बाण में ही मार गिराया।लंका में घुसकर कुंभकर्ण और रावण को मार गिराया।उनको तो मांस और राजसी भोग भोगने वाले राक्षस लोग भी पराजित ना कर सके तो इसमें भला क्या संदेह है कि राज्य  को छोड़कर कोई तपस्वी जीवन जिए और किसी के स्वागत के लिए भागकर जा भी ना पाए। यदि श्रीराम 14 वर्ष तक वन में रहकर राक्षसों का संहार कर सकते हैं तो भरत जी के लिए मात्र उनके स्वागत के लिए दौड़े दौड़े चले आना सामान्य सी बात है ।रामायण में यह थोड़े ही लिखा है कि भरतजी कुछ नहीं खाते थे।वे राजसी भोग छोड़कर ऋषि-मुनियों योग्य आहार करते थे।
आपने इसका पता भी “उत्तरकांड १२७” लिखा है।क्योंजी!उत्तरकांड में राम जी वापस आये थे?इसका सही पता युद्ध कांड सर्ग १२७ है।ऐसी प्रमाणों की अशुद्धि चिंताजनक है।आप केवल सर्ग लिखकर गपोड़े हांक देते हैं पर उन्हें खोलकर पढ़ा होता तो आधे से अधिक आक्षेप न करते। युद्ध कांड सर्ग १२७ में यह लिखा है कि भरत उपवास से दुर्बल हो गये थे:-
उपवासकृशो दीनः चीरकृष्णाजिनाम्बरः ।
भ्रातुरागमनं श्रुत्वा तत्पूर्वं हर्षमागतः ॥ २० ॥
परंतु यह नहीं लिखा कि उनमें श्रीराम का स्वागत करने की भी शक्ति न थी। वे तो उस समय राजा थे।वे पैदल थोड़े ही गये थे!वे पूरे गाजे-बाजे हाथी-घोड़े के साथ उनके दर्शन करने चले।
यहां वर्णन है कि भरत जी ने स्वागत के लिये घोड़े और रथ सजाये थे:-
प्रत्युद्ययौ तदा रामं महात्मा सचिवैः सह ।
अश्वानां खुरशब्दैश्च रथनेमिस्वनेन च ॥ २१ ॥
क्या आपको लगता है कि राजा पैदल किसी का स्वागत करने जायेगा? वे राजसी भोग न खाकर ऋषि मुनियों का भोजन करते थे।उपवास का अर्थ नहीं कि निर्जला व्रत कर लिया।उपवास में भी फलाहार किया जाता है।आपका यह आक्षेप मूर्खतापूर्ण है।
*आक्षेप-२६-* संक्षेप में श्री राम का मां सीता के चरित्र पर संदेह करने उनकी अग्निपरीक्षा लेने का वर्णन है श्रीराम के कारण सीता को दुख भोगना पड़ा साथ ही उनके गर्भवती पाए जाने पर उन्हें वन में छोड़ने का आरोप लगाया है।
*आक्षेप-* हम डंके की चोट पर कहते हैं की मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने मां सीता को कभी वन में नहीं भेजा।यह बात उत्तर कांड में लिखी है,जोकि पूरा का पूरा प्रक्षिप्त है। अतः श्री राम पर आरोप नहीं लग सकता यह प्रश्न अग्निपरीक्षा का तो महोदय उस प्रसंग में पौराणिक पंडितों ने काफी मिलावट की है बारीकी से अवलोकन करने से यह विदित होता है कि श्री राम ने समस्त विश्व के आंगन में मां सीता के पावन तन चरित्र को सिद्ध करने के लिए ऐसा किया था इस वर्णन में संक्षेप में है कि जब विभीषण ने मां सीता को अलंकृत करके श्रीराम की सेवा में भेजा तब श्री राम ने उनको कहा कि तुम बहुत समय तक राक्षस के घर में रह कर आई हूं अतः मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता तुम चाहो तो सुग्रीव लक्ष्मण या विभीषण के यहां रहो या जहां इच्छा हो वहां जाओ परंतु मैं तुम्हें ग्रहण नहीं करूंगा ऐसा आप स्वयं का अपमान होते देख मां सीता ने ओजस्वी वाणी में श्रीराम को उत्तर दिया उसके बाद उन्होंने अपने पति द्वारा त्यागे जाने पर चिता में भस्म होने का निश्चय किया उनके आदेश पर लक्ष्मण ने चिता सजा दी जब मां सीता सीता की अग्नि की परिक्रमा करते हुए जैसे ही उसने प्रवेश करने वाली थी श्री रामचंद्र ने उनको रोक लिया पता तथा सबके सामने उनके पवित्र होने की साक्षी दी यदि वह ऐसा नहीं करते तो लोगापवाद हो जाता कि रघुकुल नंदन राम अत्यंत का व्यक्ति है जिसने दूसरे के यहां आ रही अपनी स्त्री को ऐसे ही स्वीकार कर लिया।
अतः यह आवश्यकता था।
यह अग्नि का गुण है कि चाहे जो भी हो,वह उसे जला देती है।फिर चाहे मां सीता हो या अन्य कोई स्त्री उसका अग्नि में जलना अवश्यंभावी है। जिस स्त्री को अग्नि ना जला पाए वह पतिव्रता है -यह कदापि संभव नहीं है , तथा हास्यास्पद,बुद्धिविरुद्ध बात है।यह अग्नि का धर्म है कि उसमें प्रवेश करने वाला हर व्यक्ति जलता है ।पुराणों में तो होलि का नाम की राक्षसी का उल्लेख है ।उसे भी अग्नि में ना जलने का वरदान था ।तो क्या इसे वह प्रति पतिव्रता हो जाएगी?? दरअसल अपने पति द्वारा त्यागी जाने पर मां सीता ने अपने प्राणों को तिनके की तरह त्यागने का निश्चय किया।उनके अग्निसमाधि लेने के निश्चय से सिद्ध हो गया कि श्री राम के सिवा उनके मन में सपने में भी किसी अन्य पुरुष की प्रति (पति समान)प्रेम भाव नहीं था।मां सीता क अतः मां सीता को चिता के पास जाने से रोक कर श्रीराम ने समस्त विश्व के सामने उनकी पवित्रता को प्रमाणित कर दिया जो स्त्री अपने पति द्वारा त्यागे जाने पर एक क्षण भी जीना पसंद नहीं करती तथा अपने शरीर को अग्नि में झुककर मरना चाहती है उसका चरित्र अवश्य ही असंदिग्ध एवं परम पवित्र है इस तथ्य से मां सीता का चरित्र पावनतम था।
     हां ,हम आपको बता दें कि इस प्रसंग में ब्रह्मा विष्णु आदि देवताओं का तथा महाराज दशरथ का स्वर्ग से आकर सीता की पवित्रता की साक्षी देना तथा ब्रह्मा जी का श्रीराम से उनके मूल रूप के बारे में पूछना और श्री राम की ईश्वर होने का वर्णन तथा स्तुति करना यह सारे प्रसंग पौराणिक पंडितों ने श्री राम पर ईश्वरत्व का आरोप करने के लिए  लिखे हैं। इन्हें हटाकर अवलोकन करने से अग्नि परीक्षा की पूरी कथा स्पष्ट हो जाती है।
(अधिक जानकारी के लिये आर्यसमाज के विद्वान स्वामी जगदीश्वरानंदकृत रामायण की टीका को पढ़ें)
 हम आपके सामने इसके प्रमाण रखते हैं अवलोकन कीजिए।
यत् कर्तव्यं मनुष्येण धर्षणां प्रतिमार्जता ।
तत् कृतं रावणं हत्वा मयेदं मानकाङ्‌क्षिणा ।। १३ ।।
अपने तिरस्कारका बदला लेने हेतु मनुष्यका जो कर्तव्य है वो सब मैंने अपने मानके रक्षण की अभिलाषा से रावणका वध करके पूर्ण कर दिया है॥१३॥
कः पुमान् हि कुले जातः स्त्रियं परगृहोषिताम् ।
तेजस्वी पुनरादद्यात् सुहृल्लोभेन चेतसा ।। १९ ।।
ऐसा कौन कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घरमें रही स्त्रीके केवल” ये मेरेसाथ बहुत दिवस रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है इस लोभसे उसके मनसे ग्रहण कर सकेगा ? ॥१९॥
यदर्थं निर्जिता मे त्वं सोऽयमासादितो मया ।
नास्ति मे त्वय्यभिष्वङ्गो यथेष्टं गम्यतामिति ।। २१ ।।
इसलिये जिस उद्देश्यसे मैंने तुमको जीता था वो सिद्ध हो गया है।मेरे कुलके कलंक का मार्जन हो चुका है। अब मेरी तुम्हारेप्रति ममता अथवा आसक्ति नहीं है इसलिये तुम जहां जाना चाहो वहां जा सकती हो॥२१॥
और साथ ही कहा कि तुम चाहे भरत,शत्रुघ्न, या विभीषण के यहां चली जाओ,या जहां इच्छा हो वहां जाओ-
शत्रुघ्ने वाथ सुग्रीवे राक्षसे वा विभीषणे ।
निवेशय मनः सीते यथा वा सुखमात्मना ।। २३ ।।
(युद्ध कांड ११५)
फिर मां सीता फूट-फूटकर रोने लगीं और हृदय स्पर्शी वाणी में श्रीराम को उत्तर दिया:-
‘स्वामी आप साधारण पुरुषों की भांति ऐसे कठोर और अनुचित वचन क्यों कह रहे हैं? मैं अपने शील की शपथ करके कहती हूं आप मुझ पर विश्वास रखें प्राणनाथ हरण करके लाते समय रावण ने मेरे शरीर का अवश्य स्पर्श किया था किंतु उस समय में परवश थी ।इसके लिए तो मैं दोषी ठहरा ही नहीं जा सकती ;मेरा हृदय मेरे अधीन है और उस पर स्वप्न में भी किसी दूसरे का अधिकार नहीं हुआ है।फिर भी यदि आपको यही करना था तो जब हनुमान को मेरे पास भेजा था उसी समय मेरा त्याग कर दिया होता ताकि तब तक मैं अपने प्राणों का ही त्याग कर देती।’
( युद्ध कांड सर्ग ११६ श्लोक ५-११ का संक्षेप)
मां सीती ने लक्ष्मण से कहा:-
अप्रीतस्य गुणैर्भर्त्रा त्यक्ताया जनसंसदि ।
या क्षमा मे गतिर्गन्तुं प्रवेक्ष्ये हव्यवाहनम् ।। १९ ।।
एवमुक्तस्तु वैदेह्या लक्ष्मणः परवीरहा ।
अमर्षवशमापन्नो राघवं समुदैक्षत ।। २० ।।
‘ लक्ष्मण! इस मिथ्यापवाद को लेकर मैं जीवित रहना नहीं चाहती।मेरे दुःख की निवृत्ति के लिये तुम मेरे लिये चिता तैयार कर दो।मेरे प्रिय पति ने मेरे गुणों से अप्रसन्न होकर जनसमुदाय में मेरा त्याग किया है।अब मैं इस जीवन का अंत करने के लिये अग्नि में प्रवेश करूंगी।’
जानकी जी के वचन सुनकर तथा श्रीराम का संकेत पाकर लक्ष्मण ने चिता सजा दी।मां सीता पति द्वारा परित्यक्त होकर अग्नि में अपना शरीर जलाने के लिये उद्यत हुईं।
एवमुक्त्वा तु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम् ।
विवेश ज्वलनं दीप्तं निःशंकेनान्तरात्मना ।। २९ ।।
ऐसा कहकर वैदेहीने अग्निकी परिक्रमा की और निशंक चित्तसे वे उस प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश करने को उद्यत हुईं। ॥२९॥
जनश्च सुमहांस्तत्र बालवृद्धसमाकुलः ।
ददर्श मैथिलीं दीप्तां प्रविशन्तीं हुताशनम् ।। ३० ।।
बालक और वृद्धों से भरे हुये उस महान्‌ जनसमुदायने उन दीप्तिमती मैथिलीको जलती अग्नि प्रवेश करते हुये (घुसने को उद्यत होते )देखा ॥३०॥
इसके बाद मां सीता की अग्नि में कूद जाने ,अग्निदेव के प्रकट होकर उन्हें उठाकर लाने का वर्णन है ।वहीं पर ब्रम्हा ,शिव, कुबेर ,इंद्र ,वरुण आदि बड़े बड़े देवता उपस्थित हो जाते हैं उस समय ब्रह्मा जी श्री राम और सीता के रहस्य की बहुत सी बातें कहते हैं।वहां पर श्रीराम के ऊपर ईश्वरत्व का आरोप है। हमारा मानना है कि यह सारे प्रसंग पौराणिक पंडितों ने मिलाएं हैं , अतः हम उनको प्रक्षिप्त मानकर उल्लेख नहीं करेंगे। हमारा मत में  जब मां सीता अग्नि में प्रवेश करने को उद्यत थी उसी समय श्रीराम को उन की पवित्रता का भान हो गया था और फिर श्रीराम ने यह वचन कहे:-
अवश्यं त्रिषु लोकेषु न सीता पापमर्हति ।
दीर्घकालोषिता हीयं रावणान्तःपुरे शुभा ।।  ।।
बालिशः खलु कामात्मा रामो दशरथात्मजः ।
इति वक्ष्यन्ति मां सन्तो जानकीमविशोध्य हि ।।
अनन्यहृदयां भक्तां मच्चित्तपरिवर्तिनीम् ।
अहमप्यवगच्छामि मैथिलीं जनकात्मजाम् ।।
प्रत्ययार्थं तु लोकानां त्रयाणां सत्यसंश्रयः ।
उपेक्षे चापि वैदेहीं प्रविशन्तीं हुताशनम् ।।
इमामपि विशालाक्षीं रक्षितां स्वेन तेजसा ।
रावणो नातिवर्तेत वेलामिव महोदधिः ।।
न हि शक्तः स दुष्टात्मा मनसा ऽपि हि मैथिलीम् ।
प्रधर्षयितुमप्राप्तां दीप्तामग्निशिखामिव ।।
नेयमर्हति चैश्वर्यं रावणान्तःपुरे शुभा ।
अनन्या हि मया सीता भास्करेण प्रभा यथा ।।
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा ।
न हि हातुमियं शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ।।
(युद्ध कांड सर्ग ११८ श्लोक १४-२०)
लोक दृष्टि में सीता की पवित्रता की परीक्षा आवश्यक थी क्योंकि यह बहुत समय तक रावण के अंतः पुर में रही हैं। यदि मैं जानकी की परीक्षा ना करता तो लोग यही कहते कि दशरथ पुत्र राम बड़ा ही मूर्ख और कामी है।जनक नंदिनी सीता का मन अनन्य भाव से मुझे में लगा रहता है और यह मेरे ही चित्त का अनुसरण करने वाली है। यह बात मैं भी जानता हूं यह अपने तेज से स्वयं ही सुरक्षित है इसलिए समुद्र जिस प्रकार अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार रावण इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था ।जिस प्रकार प्रज्ज्वलित अग्निशिखा का कोई स्पर्श नहीं कर सकता उसी प्रकार दुष्ट रावण अपने मन से भी इस पर अधिकार नहीं कर सकता था ।यह तो उसके लिए सर्वथा अप्राप्य थी। रावण के अंतः पुर में रहने पर भी इसका किसी प्रकार तिरस्कार नहीं हो सकता था क्योंकि प्रभाव जैसे सूर्य से अभिन्न है उसी प्रकार इसका मूल्य से कोई भेद नहीं है ।जनक दुलारी सीता तीनों लोकों में पवित्र है इसलिए आत्माभिमानी पुरुष जैसे कीर्ति का लोभ नहीं छोड़ सकते, वैसे ही मैं इसका त्याग नहीं कर सकता।’
इससे सिद्ध है कि केवल लोगों के सामने मां सीता को निर्दोष और पवित्र सिद्ध करने के लिए अग्नि परीक्षा ली गई ।वस्तुतः श्रीराम जानते थे कि मां सीता महान सती और पतिव्रता स्त्री हैं। अतः पेरियार साहब का आक्षेप निर्मूल है कि भगवान श्री राम माता सीता के चरित्र पर संदेह करते थे वह तो मानते थे। कि जिस प्रकार से सूर्य प्रभाव से अभिन्न है उसी प्रकार से उनमें और मां सीता में कोई भेद नहीं। अस्तु।
लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद मित्रों।कृपया इसे अधिक से अधिक शेयर करें अगले भाग में आगे के आक्षेपों को की समीक्षा की जाएगी।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर श्री कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : क़िसास

क़िसास

क़िसास का शाब्दिक अर्थ है ”दुश्मन के पदचिन्हों का पीछा करना।“ लेकिन क़ानून में उसका पारिभाषिक अर्थ है, बदले की सज़ा। आंख के बदले में आंखें, यह मूसा के क़ानून का लेक्स टेलीआॅनिस अर्थात् बदला लेने का नियम है।

 

किसी यहूदी ने एक अंसार लड़की का सिर फोड़ दिया और वह मर गयी। मुहम्मद ने हुक्म दिया कि उस यहूदी के सिर को दो पत्थरों के बीच में दबाकर कुचल डाला जाये (4138)। पर एक दूसरे मामले में रक्तपात-शोध की व्यवस्था दी गयी। मुहम्मद के साथियों में से एक की बहन इस मामले में दोषी थी। उसने किसी के दांत तोड़ डाले थे। मामला मुहम्मद के पास पहुंचा। वे उस लड़की से बोले-”अल्लाह की किताब में इसकी सज़ा क़िसास है।“ उसने बहुत मिन्नत की और तब पीड़ित व्यक्ति के नज़दीकी रिश्तेदारों को हर्जाने की रक़म दे देने के बाद लड़की को छोड़ दिया गया (4151)।

author : ram swarup

आप कैसे मिशनरी थे!

आप कैसे मिशनरी थे!

जब स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी उपदेशक विद्यालय, लाहौर के आचार्य थे तो शनिवार के दिन कहीं बाहर किसी समाज में प्रचारार्थ चले जाया करते थे। एक दिन वे रेलवे की टिकटवाली खिड़की पर

जाकर खड़े हो गये और कुछ पैसे आगे करके बाबू से कहा- टिकट दीजिए।

उसने कहा-कहाँ का टिकट दूँ? पैसे 4-6 आने ही पास थे। आपने कहा-इतने पैसे में जहाँ की टिकट बनती हो बना दो। बाबू ने आश्चर्य से फिर पूछा आपको जाना कहाँ है? आपने कहा प्रचार

ही करना है, इतने पैसे में जहाँ भी पहुँच जाऊँगा, प्रचार कर लूँगा। ऐसी लगनवाले अद्वितीय मिशनरी थे हमारे पूज्य स्वामीजी।

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१

*सच्ची रामायण का खंडन भाग-२१*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों । *श्रीराम पर किये आक्षेपों के खंडन में* आगे बढ़ते हैं।पेरियार आगे लिखते हैं:-
*आक्षेप-१५-* वनवास में जब कभी राम को निकट भविष्य के दुख पूर्ण समय से सामना करना पड़ा तो उसने यही कहा कि अब कैकेई की इच्छा पूर्ण होगी अब वह संतुष्ट हुई होगी।
*आक्षेप-१६-* राम ने लक्ष्मण से वनवास में कहा था कि क्योंकि हमारे बाप वृद्धत्व निर्बल हो गए हैं और हम लोग यहां आ गए हैं अब भारत अपनी स्त्री सहित बिना किसी विरोध के अयोध्या पर शासन कर रहा होगा ।इस बात को उसकी राजगद्दी और भारत के प्रति ईर्ष्या की स्वाभाविक तथा निराधार अभिलाषा प्रकट होती है।(अयोध्याकांड ५३)
*आक्षेप-१७-* जब कैकेयी ने राम से कहा -,”हे राम!राजा ने मुझे तुम्हारे पास तुम्हें यह बताने के लिए भेजा है कि भरत को राजगद्दी मिलेगी और तुम्हें वनवास ।तब राम ने उससे कहा कि ,”राजा ने मुझसे यह कभी नहीं कहा कि मैं भरत को राजगद्दी दूंगा।” (अयोध्या कांड 19 अध्याय)
*आक्षेप-१८-* उसने अपने पिता को मूर्ख और पागल कहा था। (अ.कां। ५३ अ.)
आक्षेप 16 और 17 के स्पष्टीकरण में ललई सिंह यादव ने प्रमाण दिया  है-
अयोध्याकांड ५३/१-२ “सौभाग्यवती स्त्री मांडवी का पति और रानी केकेई का पुत्र भारत की सूखी है क्योंकि वह सम्राट की तरह कौशल प्रदेश को भोगेगा।पिताजी वृद्ध है और मैं अकेला वन को चला आया हूं अतएव राज्य का सारा सुख अकेले भरत को मिलेगा।”
फिर इसी सर्ग के ५३/८-१७ का प्रमाण देकर राम ने दशरथ को कामी,मूर्ख आदि कहने का वर्णन है।
*समीक्षा-*  निराधार आरोप लगाने की कला में पेरियार जी अभ्यस्त हैं।इनके आक्षेपों की भला क्या समीक्षा करूं?
१:- यह ठीक है कि वनवास में श्रीराम का समय दुख पूर्ण था
 और उनका यह कहना कि अब कैकेई की इच्छा पूर्ण हो गई -इसमें गलत क्या है क्या भा़रत को राज्य और राम को वनवास मिलने से कैकेयी की इच्छा पूरी नहीं हुई थी?
२:- आक्षेप १६ की पुष्टि के लिये ललई सिंह अयोध्याकांड ५३/१-२ का प्रमाण देते हैं।वैसे पुस्तक में प्रमाण भी मुद्रणदोष सहित दिये हैं। १-२ की जगह १-१२ लिखा है,जो चिंतनीय है।
तो इसका उत्तर यह है कि इस सर्ग में श्रीराम ने लक्ष्मण को अयोध्या वापस भेजने और उनकी परीक्षा लेने के लिये ये बातें कहीं थीं।उनके मन में द्वेष या ईर्ष्या नहीं थी, क्योंकि वे तो अपने भाइयों के लिये ही राज्य चाहते थे,न कि खुद के सुखोपभोग के लिये। श्रीराम जब वनवास से लौट रहे थे,तब उन्होंने श्रीहनुमानजी से कहा था कि-“यदि १४ वर्षों तक राज्यसंचालन करने के बाद भी यदि भरत और आगे भी राजा बने रहना चाहते हैं तो,यही ठीक रहेगा।”
सङ्गत्या भरतः श्रीमान् राज्येनार्थी स्वयं भवेत् ।
प्रशास्तु वसुधां कृत्स्नां अखिलां रघुनन्दनः ॥ १७ ॥
“यदि कैकेयीकी संगति और चिरकालतक संसर्ग होनेसे श्रीमान्‌ भरत स्वतः राज्य प्राप्त करने की इच्छा करते हैं तो रघुनंदन भरत खुशी खुशी समस्त भूमण्डलपर  राज्य राज्य कर सकते हैं।”(मुझे ये राज्य लेने की इच्छा नहीं। ऐसी स्थितीमें हम अन्यत्र कहीं जाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करेंगे।) ॥१७॥(युद्ध कांड सर्ग १२५)
देखा !श्रीराम का कितना उज्जवल चरित्र था!वे कितने निर्लोभ,त्यागी और तपस्वी थे! जिन श्रीराम का ऐसा महान चरित्र हो वे कभी अपने भ्राता से ईर्ष्या और द्वेष नहीं कर सकते । वे तो भरत के लिए राज्य त्यागने के लिए भी तैयार हैं। इससे सिद्ध है कि आपके दिए प्रमाण में श्री राम के मूल विचार व्यक्त नहीं होते वे विचार केवल लक्ष्मण की परीक्षा और उन्हें अयोध्या लौट आने के लिए ही थे।
३:- आपने ५३/८-१७ का पता लिखकर श्रीराम द्वारा दशरथ को मूर्ख आदि कहने का उल्लेख किया है।इसका स्पष्टीकरण भी २ के जैसा ही है । वैसे यह श्रीराम के मूलविचार नहीं थे,ये तो लक्ष्मण के लिये कहे थे। इसमें कुछ गलत नहीं है कि दशरथ काम के वशीभूत होकर कैकेयी के वरदानों के आगे विवश हो गये।यह भी ठीक है कि उस समय उनकी बुद्धि भ्रमित हो गई थी।कुछ समय के लिये मौर्ख्य ने उनकी बुद्धि को घेर लिया था।इसमें श्रीराम अपने पिता को अपशब्द नहीं कह रहे हैं , केवल वस्तुस्थिति प्रकट कर रहे हैं।ऐसा करना गाली देना नहीं होता।
*आक्षेप-१९-*उसने अपने पिता से प्रार्थना की थी,कि “जब तक मैं वनवास से वापस न लौट आऊं – तब तक तुम अयोध्या का राज्य करते रहो और किसी को राजगद्दी पर न बैठने दो।” इस प्रकार उसने भरत के सिंहासनारूढ होने से अड़चन लगा दी।”(अयोध्याकांड ३४)
*समीक्षा-* झूठ झूठ झूठ!ऐसा सफेद झूठ बोलने में भी शर्म नहीं आई? क्या पता था कि कोई  स्वाध्यायी रामयण पढ़कर आपके झूठ की धज्जियां उड़ा सकता है?  हमें समझ नहीं आता कि इस झूठ के पुलिंदे को हाईकोर्ट के न्यायाधीशों ने निर्दोष कैसे घोषित कर दिया? आश्चर्य है!
पेरियार साहब!आपके दिये सर्ग  ३४ में कहीं नहीं लिखा कि रामने दशरथ से कहा कि -“मेरे वन से वापस आने तक किसी को गद्दी पर न बैठने दो” और इस तरह भरत के सिंहासन पाने में अड़चन लगा दी।
उल्टा इस सर्ग में तो श्रीराम स्वयं भरत को राज्यगद्दी देने का अनुमोगन करते हैं।लीजिये,प्रमाणों का अवलोकन करें:-
भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः ।
अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राज्यस्य काङ्‌क्षिता ॥ २८ ॥
“महाराज ! आप सहस्रों(अनेक) वर्षों तक इस पृथ्वीके अधिपति होकर रहें। मैं तो अब वनामें ही निवास करूंगा। मुझे राज्य लेनेकी इच्छा नहीं।॥२८॥
नव पञ्च च वर्षाणि वनवासे विहृत्य ते ।
पुनः पादौ ग्रहीष्यामि प्रतिज्ञान्ते नराधिप ॥ २९ ॥
“नरेश्वर ! चौदह वर्षों तक वनमें घूम फिरकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके मैं पुनःआपके युगल चरणों को मस्तक नवाऊंगा ॥२९॥(अयोध्याकांड सर्ग ३४)
हम डबल चैलेंज देकर कहते हैं कि रामायण में रामजी ने कहीं नहीं कहा कि-” मेरे आने तक किसी को गद्दी पर बैठने मत देना।”अपने कहे शब्द निकालकर दिखावें अन्यथा चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
आपके चेले ललई ने भी इसका कोई स्पष्टीकरण न दिया।होगा तब देंगे न!
 इस सर्ग में इसके विपरीत श्रीराम भरत को गद्दी देने की बात करते हैं:-
मा विमर्शो वसुमती भरताय प्रदीयताम् ॥ ४४ ॥
“आपके मन में कुछ भी अन्यथा विचार आना उपयोगी नहीं। आप  सारी पृथ्वी भरतको दे दीजिये।”
अब क्या ख्याल है महाशय!कहिये,कि आपने झूठा आक्षेप लगाकर श्रीराम कीचड़ उछालने का दुष्प्रयत्न किया जो सर्ग खोलते ही ध्वस्त हो गया।
*आक्षेप-२०-*राम ने यह कहकर सत्यता व न्याय का गला घोंटा,कि,”यदि मुझे क्रोध आया तो मैं स्वयं अपने शत्रुओं को मारकर या कुचलकर स्वयं राजा बन सकता हूं-किंतु मैं यह सोचकर रुक जाता हूं,कि प्रजा मुझसे घृणा करने लगेगी।”(अयोध्याकांड ५३)
*समीक्षा-*इस सर्ग के २५,२६
श्लोक में श्रीराम ने कहा था:-
एको ह्यहमयोध्यां च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
तरेयमिषुभिः क्रुद्धो ननु वीर्यमकारणम् ॥ २५ ॥
’लक्ष्मण !यदि मैं कुपित हुआ तो अपने बाणों से अकेला अयोध्यापुरी तथा समस्त भूमण्डल पर निष्कण्टक बनकर आपने अधिकारमें ला सकता हूं, परंतु पारलौकिक हितसाधनमें बल पराक्रम कारण  नहीं होता। (इसलिये मैं ऐसा नहीं करता।) ॥२५॥
अधर्मभयभीतश्च परलोकस्य चानघ ।
तेन लक्ष्मण नाद्याहमात्मानमभिषेचये ॥ २६ ॥
’निष्पाप लक्ष्मण ! मैं अधर्म और परलोकके भयसे रह जाता हूं, इसलिये आज अयोध्या के राज्यापर अपना अभिषेक नहीं कराता’॥२६।।
‘शत्रुओं को मारकर कुचल कर राजा कर सकता हूं’- ये आपके घर का आविष्कार है जिससे आप श्री राम के मुख से भरत को उनका शत्रु सिद्ध कर सकें। परंतु आप की चाल यहां नहीं चलेगी महोदय 53 वें सर्ग में  श्रीराम ने लक्ष्मण से वे बातें कही हैं जो उनको वापस आयोध्या भेजने तथा परीक्षा लेने के लिए कही है। यह श्रीराम के मूल विचार नहीं है अतः इस पर आक्षेप करना ठीक नहीं वैसे अवलोकन किया जाए तो इन श्लोकों में कोई दोष नहीं है यह बात बिल्कुल सत्य है कि श्री राम पूरी त्रिलोकी को अपने बाणों के बल से जीत सकते थे। परंतु धर्म और परलोक के लिए उन्होंने ऐसा प्रयास नहीं किया। इस पर भला क्या आरोप लगाया जा सकता है ?यदि श्रीराम ने स्वयं बानो द्वारा बलपूर्वक अपना राज्य प्राप्त किया होता तब उन पर दोष लग सकता था ,परंतु कहने मात्र से दोष क्यों लगेगा? यह तो वस्तुस्थिति है ।उन्होंने तो देवताओं को पराजित करने वाले रावण और कुंभकर्ण तक का मर्दन किया ऐसे वीर योद्धा के लिए मात्र अयोध्या की गद्दी प्राप्त करना हंसी खेल है ।परंतु श्रीराम धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए भी यह अनुचित प्रयास नहीं करना चाहते थे ,इसीलिए तो श्री राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता हैं।अतः उन्होंने ऐसा कहकर सत्य और न्याय का गला नहीं घोंटा। हां,मूलनिवासियों के तथाकथित पूज्य आदर्श रावण ने पति और देवर अनुपस्थिति में मां जानकी सीता को कपट संन्यासी बनकर उनका हरण कर लिया।रावण के इस कृत्य पर क्या कहना है आपका?
*आक्षेप-२१-* उसने अपनी स्त्री सीता से कहा कि  -“तुम बिना रुचि जाने भरत के लिए जो भोजन बनाती हो,वह आगे चलकर हमारे लिये लाभदायक रहेगा।” (अयोध्याकांड २६)
*समीक्षा-* हे परमेश्वर! देख,ये लोग किस तरह झूठे और निराधार आरोप लगाकर भगवान श्रीराम को कलंकित करने का दुष्प्रयास कर रहे हैं।क्या इन पर तेरा दंड नहीं चलेगा? अवश्य चलेगा और धूर्त लोग भागते दिखाई देंगे।
पेरियार साहब!लगता है जानबूझकर  झूठे आरोप लगाते हैं ताकि पुस्तक का आकार बढ़ जाए। परंतु आपके दिए हुए सर्ग में श्रीराम ने मां सीता से ऐसी कोई भी बात नहीं कही। आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मां सीता भरत के लिये भोजन में उनकी रुचि के विरुद्ध सामग्रियां बनाती थीं। एक तो भगवती सीता श्री राम की पत्नी थीं ,कोई दासी नहीं थी जो भोजन बनाया करती थीं। राजा महाराजाओं के महलों में खानसामें और बावर्ची रहते हैं जो 56 प्रकार के भोग बनाना जानते हैं ।क्या अयोध्या के सभी बावर्चियों ने आत्महत्या कर ली थी जो मां सीता को भरत के लिए भोजन बनाना पड़े!एक तो सीता भोजन बनाए वह भी भरत के लिए उसकी रुचि के विरुद्ध, परंतु अपने पति के लिए भोजन ना बनाएं।वाह वाह!! क्या कहने!कम से कम झूठ तो ढंग से बोला करें । भला इस प्रकार की बुद्धि विरुद्ध वाद को कौन बुद्धिमान व्यक्ति मानेगा? हम डबल चैलेंज के साथ कहते हैं कि रामायण में मांसीता के मुख से कहे जाने वाले ऐसे शब्दों को हू-ब-हू निकाल कर दिखावें वरना चुल्लू भर पानी मिथ्या भाषण का प्रायश्चित करें।
सर्ग २३ में तो श्रीराम मां सीता को अपनी अनुपस्थिति में भरत के प्रति उचित व्यवहार करने का उपदेश देते हैं।
इस सर्ग में श्रीराम ने सीता जी से भरत के विषय में निम्नलिखित बातें कहीं उनका संक्षिप्त उल्लेख करते हैं:-
१:- श्लोक २५- भरत के सामने मेरे गुणों की प्रशंसा ना करना।
२:- श्लोक २६-भरतके समक्ष सखियों के साथ भी बारंबार मेरी चर्चा ना करना।
३:- श्लोक २७:- राजा ने उन्हें सदा के लिए युवराज पद दे दिया है अब वही राजा होंगे।
४:-श्लोक ३३:- भारत और शत्रुघ्न मुझे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय है अतः तुम्हें इन दोनों को विशेष कहा आपने भाई और पुत्र के समान देखना और मानना चाहिये।
५:-श्लोक ३४- भरत की इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करना क्योंकि इस समय वह मेरे देश और कुल के राजा हैं।
६:-श्लोक ३७:- तुम भरत के अनुकूल बर्ताव करती हुई धर्म एवं सत्यव्रत में तत्पर रहकर यहां निवास करो।
कहिए महाराज! यहां पर आप की कही हुई कपोलकल्पित बातें कहां हैं?आप कभी भी श्रीराम को भरत का शत्रु सिद्ध नहीं कर सकते ।वस्तुतः तीनों भाई श्रीराम के लिए प्राणों के समान प्रिय थे।इसलिए अपने अभाव में वह मां जानकी को भरत के अनुकूल बरतने का उपदेश करते हैं ।साथ ही भरत और शत्रुघ्न को भाई और पुत्र के समान मानने का आदेश देते हैं ।यहां न तो मां सीता के भरत के लिए भोजन बनाने का उल्लेख है और न ही उसे भरत की रुचि के विरुद्ध बनाने का।
कुल मिलाकर आपका किया हुआ आक्षेप रामायण में कहीं नहीं सिद्ध होता।आपको रामायण के नाम से झूठी बातें लिखते हुए शर्म आनी चाहिए। झूठे पर परमात्मा के धिक्कार है!
………क्रमशः ।
मित्रों !पूरा लेख पढ़ने के लिए धन्यवाद। कृपया इसे अधिक से अधिक शेयर करें। अगले लेख में श्रीराम पर किए गए अगले सात आक्षेपों का खंडन किया जाएगा।
।।मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर भगवान कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : मत-त्याग और विद्रोह के लिए मृत्युदंड

मत-त्याग और विद्रोह के लिए मृत्युदंड

कोई भी व्यक्ति इस्लाम कबूल करने के लिए पूरी तरह आजाद है। लेकिन उसे इस्लाम को छोड़ने की आजादी नहीं है। मत-त्याग-इस्लाम को छोड़ने-की सज़ा मौत है। छूट केवल इतनी है कि सज़ा में उसे जला कर मारने का विधान नहीं है। “एक बार लोगों के एक दल ने इस्लाम को त्याग दिया। अली ने उन्हें जला कर मार डाला। जब इब्न अब्बास ने इसके बारे में सुना तो वह बोला-“अगर मैं होता तो मैंने उन्हें तलवार से मारा होता, क्योंकि मैंने रसूल-अल्लाह को यह कहते सुना है कि इस्लाम का त्याग करने वाले को मार डालो, पर उसे जला कर मत मारो; क्योंकि पापियों को सज़ा देने के लिए आग अल्लाह का साधन है“ (तिरमिज़ी, जिल्द एक, 1357)।1

 

उक्ल कबीले के आठ लोग मुसलमान बन गये, और वे मदीना में आ बसे। मदीना की आबोहवा उन्हें मुवाफ़िक़ नहीं आयी। मुहम्मद ने उन्हें इज़ाज़त दी कि ”सदके के ऊंटों के पास जाओ और उनका दूध और पेशाब पीओ“ (पेशाब को औषधि समझा जाता था)2 पैगम्बर के नियन्त्रण से बाहर होते ही उन लोगों ने ऊंटों के रखवालों को मार डाला, ऊंट छीन लिए और इस्लाम त्याग दिया। पैगम्बर ने एक टोह लेने वाले विशेषज्ञ के साथ बीस अंसार (मदीनावासी) उनके पीछे भेजे। विशेषज्ञ का काम उनके पदचिन्हों का पीछा करना था। मत त्यागने वाले वापस लाये गये। ”उन्होंने (पाक पैगम्बर ने) उन लोगों के हाथ और पांव कटवा दिए, उनकी आंखें निकलवा ली और उन्हें पथरीली ज़मीन पर फिंकवा दिया, जहां वे दम तोड़ते तक पड़े रहे“ (4130)। एक दूसरी हदीस बतलाती हैं कि जब वे लोग तोड़ते पथरीली ज़मीन पर तड़प रहे थे “तब वे पानी मांग रहे थे, लेकिन उन्हें पानी नहीं दिया गया“ (4132)।

 

अनुवादक कुरान की उस आयत का हवाला देते हैं, जिसके मुताबिक यह सज़ा दी गयी-”जो लोग अल्लाह और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़िसाद करने की कोशिश करें, उनकी उचित सजा यही है कि उन सबको कत्ल कर दिया जाये अथवा उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाये अथवा उनके एक तरफ के हाथ और दूसरी तरफ से पांव काट डाले जायें अथवा उन्हें मुल्क से निकाल दिया जाये“ (कुरान 5/36)।

 

  1. अबू हुरैरा बतलाते हैं-”रसूल-अल्लाह ने हमें एक हमले पर भेजा। उन्होंने हमें आदेश दिया कि कुरैशों से मुठभेड़ हो तो हम दो कुरैशों को जला डालें। उन्होंने हमें उन दोनों के नाम बता दिये। लेकिन फिर जब हम रुख़सत के लिए उनके पास पहुंचे, तब वे बोले उन्हें तलवार से मार डालना, क्योंकि आग से सजा देना अल्लाह का एकाधिकार है।“ (सही बुखारी शरीफ, सही 1219)।

 

  1. सदक़े में मुहम्मद को जो ऊंट मिलते थे, उनको मदीना के बाहर कुछ दूरी पर चरने के लिए भेजा जाता था।

author : ram swarup

पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए

पण्डित लेखरामजी की लगन देखिए

स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज ने बड़े परिश्रम से अपनी लौह लेखनी से धर्मवीर लेखरामजी का एक प्रेरणाप्रद जीवन-चरित्र लिखा और भी कई जीवन-चरित्र अन्य विद्वानों ने लिखे। इन पंक्तियों के

लेखक ने भी ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ नाम से एक खोजपूर्ण जीवन-चरित्र लिखा। पण्डित जी के अब तक छपे हुए जीवन चरित्रों में उनके जीवन की कई महज़्वपूर्ण घटनाएँ छपने से रह गईं

हैं। अभी गत वर्ष उनके पावन चरित्र का एक नया पहलू हमारे सामने आया।

पण्डितजी ‘आर्यगज़ट’ के सज़्पादक थे तो वे बड़ी मार्मिक भाषा में अपनी सज़्पादकीय टिपणियाँ लिखा करते थे। आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार के समाचार पाकर बड़ी प्रेरणाप्रद टिपणी देकर

पाठकों में नवीन उत्साह का सञ्चार कर देते थे। एक बार पण्डित आर्यमुनिजी पंजाब की उज़र-पश्चिमी सीमा के किसी दूरस्थ स्थान पर प्रचार करने गये। वहाँ उनके प्रचार से वैदिक धर्म की अच्छी छाप लोगों पर पड़ी। वहाँ प्रचार करके वे भेरा में पधारे। वहाँ भी पण्डित आर्यमुनि की विद्वज़ा ने वैदिक धर्म की महज़ा का सिक्का लोगों के हृदयों पर जमाया। पण्डित लेखरामजी

को यह समाचार प्रकाशनार्थ पहुँचा तो आपने पण्डित आर्यमुनि की विद्वज़ा व कार्य की प्रशंसा करते हुए लिखा कि ‘‘प्रशंसित पण्डितजी जेहलम आदि से भेरा पहुँचे। मार्ग में कितने ही और ऐसे महज़्वपूर्ण स्थान व नगर हैं जहाँ सद्धर्म के प्रकाश की बहुत आवश्यकता है। जिज्ञासु जन पवित्र वेद के सद्ज्ञान से लाभान्वित होना चाहते हैं। यदि हमारे माननीय पण्डितजी वहाँ भी प्रचार करके आते तो कितना अच्छा होता।’’

देखा! अपने पूज्य विद्वान् के लिए पण्डित लेखराम के हृदय में

कितनी श्रद्धा है और वैदिक धर्म के प्रचार के लिए कितनी तड़प है।

एक जगह से दूसरी जगह पर जानेवाले प्रत्येक आर्य से धर्म दीवाना

लेखराम यह अपेक्षा करता है कि वह मार्ग में सब स्थानों पर

धर्मध्वजा फहराता जाए।