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“महाभारतोत्तर काल के देशी-विदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द”

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ओ३म्

महाभारतोत्तर काल के देशीविदेशी वेद भाष्यकार और महर्षि दयानन्द

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

आईये, पौर्वीय एवं पाश्चात्य वेदों के भाष्यकारों पर दृष्टि डालते हैं। महाभारत काल के बाद से अब तक लगभग 5,115 वर्षों से कुछ अधिक समय व्यतीत हो चुका है। महाभारत युद्ध के बाद वेदों के अध्ययन व अध्यापन की परम्परा में बड़ा व्यवधान उपस्थित हुआ। युद्ध के बाद प्रायः ऐसा हुआ ही करता है। आजकल भी यदि घर में किसी को खर्चीला रोग हो जाये या फिर कोई मुकदमा आदि ऐसा हो जाये जिसमें उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में मुकदमा लड़ना पड़े तो अति व्यय साध्य होने से अच्छे अच्छे को पसीने आ जाते हैं मुख्यतः सामान्य व मध्यम वर्गीय व्यक्तियों को। महाभारत काल व बाद के समय में देश की आज कल की तरह वैज्ञानिक दृष्टि से उन्नति भी नहीं थी। हम अनुभव करते हैं कि वेदों का अध्ययन हो व सामान्य सांसारिक अध्ययन, हस्त-लिखित पुस्तकों से अध्ययन व अध्यापन किया जाता था। पुस्तकें हो सकता है कि ताड़पत्रों या भोज पत्रों पर होती रही हांगी। यह आजकल की तरह से किसी पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक से सुलभ व उपलब्ध भी नहीं होती होंगी? यही स्थिति वेदों व वैदिक साहित्य की कही जा सकती थी। देश की ऐसी स्थिति में महाभारत काल के बाद मध्यकाल व उससे कुछ पूर्व हमारे अज्ञानी व स्वार्थी धर्माधिकारियों द्वारा स्त्री व शूद्रों को वेद व वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन से ही वंचित कर दिया गया। जब समाज में वैदिक ज्ञान को जानने व समझने वाले लोगों की कमी या अभाव सा हुआ तो हमारे शीर्ष ब्राह्मण धर्माधिकारियों ने अपना अध्ययन, पुरूषार्थ व तप करना छोड़ दिया या कम कर दिया जिसका परिणाम यह हुआ कि वेदाध्ययन की परम्परा प्रायः टूट गई। दूसरी ओर ऐसे अन्धकार के समय में भी हमारे देश में पाणिनी, पतंजलि व महर्षि यास्क जैसे वेदों के विश्व-विश्रुत विद्वान हुए जिन्होंने अपनी साधना व योग की प्रतिभा व पुरूषार्थ के बल पर अष्टाध्यायी, महाभाष्य एवं निरूक्त आदि अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। यहां हम अनुमान करते हैं कि इन गुरूओं व शिष्यों ने मिलकर इन ग्रन्थों की एक-एक प्रति तैयार की होंगी। फिर उन शिष्यों ने मिलकर एक से अनेक प्रतियां बनाई होगी। यह कार्य आसान नहीं था। अतः महर्षि पाणिनी, पतंजलि एवं यास्क जी का अध्ययन व अध्यापन क्षेत्र विकसित व उन्नत होकर भी सामाजिक प्रभाव की दृष्टि से अति सीमित प्रतीत होता है। समय के साथ-साथ पाणिनी की अष्टाध्यायी जैसे ग्रन्थ भी विलुप्त व अप्राप्य हो गये। देश बहुत बड़ा है। दूरस्थ भागों में जब समस्यायें आयीं होंगी तो हमें लगता है कि वहां के विद्वानों ने अपनी ज्ञान व क्षमता के अनुसार व्याकरण व अन्य ग्रन्थ तैयार किये हांेगे। संस्कृत के यह व्याकरण ग्रन्थ शेखर, मनोरमा, लघुकौमुदी, सिद्धान्त कौमुदी आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं जिनका आज भी उपयोग किया जा रहा है। ऋषिकृत व विद्वान के ग्रन्थों में अन्तर हुआ करता है जैसे कि एक बहुत बड़ा विद्वान या आचार्य किसी महाविद्यालय में पढ़ायें और कहीं एक अल्प शिक्षित विद्वान किसी साधारण विद्यालय में अध्ययन व शिक्षण कराये। अतः अष्टाध्यायी, महाभाष्य व निरूक्त, निघण्टु आदि वैदिक संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ ऋषियों व उच्च कोटि के विद्वानों के द्वारा बनाये हुए थे और अन्य मनोरमा, कौमुदी आदि ग्रन्थ साधारण विद्वानों के बनाये ग्रन्थ थे। हम समझते हैं कि यह सभी हमारे आदर के पात्र हैं परन्तु यहां एक नियम लागू होता है कि जब दिन निकल आता है तो बुद्धिमान लोग दीपक या प्रकाश के वैकल्पिक साधनों बल्ब आदि का प्रयोग न कर सूर्य के प्रकाश से लाभ उठाते हैं परन्तु धार्मिक व विद्वत जगत में अष्टाध्यायी व महाभाष्य एवं निरूक्त आदि सूर्य के समान उच्च कोटि के ग्रन्थ प्राप्त हो जाने पर भी हमारे पूर्वज महानुभावों ने उन्हें न अपना कर अति अल्प महत्व के व्याकरण ग्रन्थों का आश्रय लेना जारी रखा जो अब भी बदस्तूर जारी है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि वेद व्याख्या के क्षेत्र में वेद मन्त्रों के सत्य अर्थों को करने की क्षमता इन लौकिक व्याकरणाचार्यों में नहीं है। इनकी पहुंच रामायण, महाभारत व गीता आदि लौकिक ग्रन्थों तक श्लोकों का अनुवाद करने की ही है।

महाभारत काल के बाद से अब तक तथा महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायियों को छोड़कर जितने भी वेद भाष्यकार हुए हैं उनमें सायण व महीधर का नाम मुख्य है। इन दोनों ही वेद भाष्यकारों ने जो वेदार्थ किया है वह सत्य वेदार्थ को प्रकाशित व उद्घाटित करने में सर्वथा असमर्थ रहा है। इसके विपरीत इन भाष्यों में अर्थ का अनर्थ किया गया है जिसका प्रमाण-पुरस्सर प्रकाश महर्षि दयानन्द ने अपने साहित्य में किया है। इन मध्यकालीन भाष्यकारों ने तो एक कल्पना की कि वेदों का मुख्य व एकमात्र प्रयोजन केवल यज्ञों को करने वा कराने में ही हैं। इनका हमारे जीवन के सभी क्षेत्रों से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि वेद मनुष्य का धर्म ग्रन्थ न होकर एक प्रकार से यज्ञ, अग्निहोत्र या संस्कार आदि कर्मों को करने वा कराने वाला ग्रन्थ ही है, इससे अधिक कुछ नहीं। इसके विपरीत जो आर्ष विद्वान महर्षि पाणिनी, महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि तथा महर्षि यास्क आदि हुए हैं, उन्होंने वेदों को ईश्वर ज्ञान मानने के साथ इस ज्ञान को जीवन के सभी अंगों व क्षेत्रों पर व्यापक रूप से विचार, ज्ञान व विज्ञान देने वाला सभी विद्याओं का प्रकाशक ग्रन्थ स्वीकार किया है। पौराणिकों, लौकिक व्याकरणाचार्यों एवं अनार्ष विद्वानों के ग्रन्थों के कारण ही वेद विलुप्ति के कागार पर पहुंचे और देश में अनेकानेक अन्धविश्वास व कुरीतियां उत्पन्न हुईं थीं। दूसरी ओर महर्षि दयानन्द अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के मार्गदर्शन एवं शिक्षण से आर्ष ग्रन्थों को ढूढ्ने व खोजने में सफल हुए। उन्होंने गुरूजी की सहायता, मार्गदर्शन, अपने पुरूषार्थ एवं योग की उपलब्धियों व सिद्धियों का उपयोग वेद के यथार्थ रहस्य, सत्य वेदार्थ व संसार के रहस्यों को जानने में किया और इसमें वह सफल हुए। उन्होंने वैदिक धर्म, संस्कृति व प्राचीन परम्पराओं को पुनर्जीवित करने के लिए जहां आरम्भ में सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ लिखें वही वेदों के जो अनुचित, त्रुटिपूर्ण वा अश्लील अर्थ किये गये थे उनका निराकरण कर सत्य वेदार्थ को ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका व ऋग्वेद आंशिक एवं यजुर्वेंद सम्पूर्ण वेदभाष्य करके पूरा किया। आज उनका किया हुआ यह समस्त वेद भाष्य एवं उनके अनुयायी विद्वानों के किए हुए अनेक वेदभाष्य न केवल हिन्दी भाषा में ही अपितु अंग्रेजी भाषा में भी उपलब्ध हैं। वेदों के सत्यार्थ का वर्तमान में उपलब्ध होना आर्य जनता, देशवासियों एवं सारे संसार के लोगों का परम सौभाग्य है। वेदों की महत्ता इस कारण से है कि यह धर्म के आदि स्रोत होने के कारण सत्य धर्म व सच्ची आध्यात्मिकता के ग्रन्थ हैं। इनसे हमें अपने जीवन के सत्य लक्ष्य का ज्ञान होने के साथ उसकी प्राप्ति के साधनों का ज्ञान भी होता है। संसार के अन्य मतों से जीवन के लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों का भली प्रकार से ज्ञान नहीं होता। योग दर्शन एक ऐसा ग्रन्थ है जो इस विषय में सहायक है एवं इसका आधार भी वेद ही है। यदि वेद न होते तो योग दर्शन न होता और योग दर्शन न होता तो ईश्वर की सही विधि से उपासना का ज्ञान संसार में किसी को न हो पाता। वेदों का महत्व इस कारण से भी है कि वेद संसार का सबसे प्राचीनतम ज्ञान है और यह हमारे आदिकालीन अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा ऋषियों को सीधा सर्वव्यापक व सृष्टिकत्र्ता से प्राप्त हुआ था। वेद सभी सत्य विद्याओं के भण्डार होने के कारण हमारे सभी के पूर्वजों की एक प्रकार से सम्मिलित थाती व पूंजी है। आज भी सभी बच्चे अपने माता-पिता की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी बनते ही हैं। इसी प्रकार से वैदिक ज्ञान का उत्तराधिकार भी सभी सन्तानों व देशवासियों को ग्रहण करना चाहिये। यदि नहीं करते तो वह पूर्वजों की योग्य सन्ताने व सन्तति नहीं हैं। अब कुछ चर्चा पाश्चात्य वेदों के विद्वानों की भी कर लेते हैं।

यह ऐतिहासिक तथ्य है कि बाबर के आक्रमण करने पर भारत मुगलों का गुलाम हुआ। उन्होंने देश के लोगों का शोषण किया, उन पर अत्याचार किये और भारी संख्या में धर्मान्तरण किया तथा हमारे मन्दिरों आदि को तोड़ा और उनको मस्जिद के रूप में बदला। हमारे तक्षशिला व नालन्दा सहित देश के पुस्तकालयों को अग्नि के समर्पित कर दिया गया। हमें लगता है कि देश में यदि सरदार वल्लभ भाई पटेल गृहमंत्री व उपप्रधान मंत्री न हुए होते तो विध्वंसित सोमनाथ मन्दिर दुबारा अस्तित्व में कदापि न आता। भारत माता के इस भक्त सरदार पटेल को स्मरण कर अपनी श्रद्धांजलि देते हैं। इसके बाद अनेक पीढि़यों के बीत जाने के बाद मुगल शासन भी अपनी ही विसंगितों व अत्याचारों आदि के कारण कमजोर हुआ तो उनसे अधिक बुद्धिमान व बलवान अंग्रेजों ने अपनी बुद्धिचातुर्य से देश को गुलाम बनाया। उन्होंने भी अत्याचारों में कहीं कोई कमी नहीं की। इन्होंने भी अनुभव किया कि भारत पर स्थाई शासन करने के लिए भारत के वैदिक धर्मी आर्य व हिन्दुओं को ईसाई बनाना सबसे अच्छा व निरापद तरीका हो सकता है। पर्दे के पीछे षडयन्त्र व योजनायें बनी और छल व कपट से काम लिया गया। इसी योजना का एक भाग वेदों का मिथ्या व अनेक दोषों से पूर्ण भाष्य वा अनुवाद करना था जिससे वेद विश्वासी भारतीयों को अपने वैदिक धर्म से घृणा हो जाये। उनका कार्य हमारे सायण व महीधर के वेदों के भाष्यों ने कर दिया। अतः उन्हें अधिक परिश्रम व कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ा। उनका किया गया वेदों का भाष्य एक प्रकार से सायण आदि वाममार्गी वेद भाष्यकारों के भाष्यों का अंग्रेजी में अनुवाद ही है। उनमें किसी के पास यथार्थ वेदभाष्य या वेदार्थ की योग्यता भी नहीं थी। प्रो. मैक्समूलर जर्मनी मूल के अंगे्रज विदेशी वेद भाष्यकारों एवं वेदों पर कार्य करने वालों लोगों के अग्रणीय प्रमुख व्यक्ति हैं। इतना ही नहीं उन्होंने व उनके विदेशी सहयोगियों ने काल्पनिक सिद्धान्त प्रस्तुत कर प्रचारित किये। जैसे कि वेदों को धर्म ग्रन्थ मानने वाले आर्य व हिन्दू भारत के मूल निवासी नहीं हैं। यह मध्य एशिया व विश्व के किसी अन्य स्थान पर रहते थे और वहां से भारत आये, यहां के मूल निवासियों जो काले रंग रूप वाले थे, उन पर आक्रमण किया, विजय प्राप्त की और उन पर शासन किया। वह अपने इस षडयन्त्र व मनोरथ में आंशिक रूप से सफल भी हुए। आज हम भारत के अनेक स्थानों पर जिन ईसाई मतावलम्बियों को देखते हैं वह इन्हीं षडयन्त्रों व छल-कपट से धर्मान्तरण का परिणाम हैं। इसमें कुछ व पर्याप्त कारण भारत की गरीबी, अशिक्षा, अज्ञान व अन्धविश्वास, धार्मिक पाखण्ड, मूर्ति पूजा, जन्म पर आधारित जन्मना जाति व्यवस्था, छुआछुत, फलित ज्योतिष आदि मुख्य रूप से रहे हैं। ईश्वर की कुछ ऐसी दैवीय कृपा भारतवासियों पर रही कि यह दोनों विदेशी आक्रान्ता अपने षडयन्त्रों में पूर्णतः सफल नहीं हो सके। इसी बीच 15 फरवरी, 1825 को भारत में महर्षि दयानन्द जी का गुजरात राज्य के राजकोट से लगभग 25 किलोमीटर दूरी पर स्थित टंकारा नामक एक ग्राम व कस्बे में जन्म होता है। शिवरात्रि को अन्ध विश्वास की घटना घटती है जिससे मूर्तिपूजा से उन्हें वैराग्य हो जाता है। उसके कुछ काल बाद बहिन व चाचाजी की मृत्यु की घटनाओं से उन्हें अपनी मृत्यु का डर सताता है। वह सत्य ज्ञान की खोज एवं मृत्यु पूजा पर विजय पाने के लिए घर से भाग जाते हैं और नवम्बर, सन् 1860 तक देश के विभिन्न भागों का भ्रमण करते हुए सच्चे योगियों व विद्वानों के सम्पर्क में आकर अपनी सभी धार्मिक, आध्यात्मिक व सामाजिक शंकाओं की चर्चा कर उनके समाधानों पर विचार करते हैं। इस प्रयास व पुरूषार्थ में वह एक सिद्ध योगी बनने के साथ संस्कृत व्याकरण के अपूर्व विद्वान और वेदों के भी अपूर्व विद्वान तथा साक्षात्कृतधर्मा ऋषि भी बन जाते जाते हैं। गुरू विरजानन्द जी के परामर्श व आज्ञा से वह अपने जीवन का उद्देश्य सत्य का मण्डन व असत्य का खण्डन निर्धारित करते हैं। गुरू जी से सत्य व असत्य को जानने की कसौटी उन्हें पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है। अब वह एक-एक करके मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, वेदाधिकार, वेद किन-किन ग्रन्थों की संज्ञा है, छुआछूत शास्त्रीय है वा मनघड़न्त अथवा कपोल कल्पित है, इस पर वेद आदि शास्त्रों की आर्ष दृष्टि के आधार पर विचार कर निर्णय करते हैंै। उनके अनुसंधान के परिणाम के अनुसार वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है जो सृष्टि की आदि में इस संसार को रचने वाली चेतन, आनन्द से पूर्ण, सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एक सत्ता ईश्वर से आविर्भूत हुए थे। देश-विदेश के सभी धार्मिक व सामाजिक संगठनों एवं सम्प्रदाय आदि को सत्य व असत्य का निर्णय करने में सहायता करने के लिए वह अपने युग का अपूर्व क्रान्तिकारी ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश का लेखन व प्रकाशन करते हैं और सबको सत्य व असत्य के निर्णयार्थ शास्त्रार्थ करने की चुनौती देते हैं। इस ग्रन्थ में वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुसार धार्मिक जीवन कैसा होता है, इसका उल्लेख करते हैं और इसके साथ समाज में व्याप्त सभी पाखण्डों का दिग्दर्शन कराकर उनका खण्डन करते हैं। समाज के पवित्र जीवन जीने वाले निर्भीक बुद्धिजीवी व्यक्ति उनकी बातों को सुनते, समझते, उनसे वार्तालाप व शंका समाधान आदि करते हैं। बहुत से उनकी बातों को सत्य स्वीकार कर उनके अनुयायी बन जाते हैं और उनके द्वारा 10 अप्रैल, 1875 को स्थापित भारत के अपने प्रकार के प्रथम धार्मिक व क्रान्तिकारी आन्दोलन से जुड़कर देश का भाग्य बदलने के लिए आगे आते हैं। यह आन्दोंलन आंशिक रूप से सफल होता है। उनके द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से सन् 1875 में की गई प्रेरणा से ही स्वतन्त्रता वा स्वराज्य प्राप्ति का आन्दोलन आरम्भ होता है। कालान्तर में घार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक नेताओं की किन्ही अदूरदर्शिताओं से देश का विभाजन व खण्डित देश आजाद होता है। उन्होंने अपने समय में देश भर में घूम-घूम कर सत्य वैदिक धर्म का प्रचार किया। असत्य व पाखण्डों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन किया। उनके अनुयायी ने देशभर में गुरूकुलों व डीएवी कालेजों की स्थापना कर समाज का कायाकल्प कर दिया। आज के आधुनिक भारत में महर्षि दयानन्द का कार्य स्पष्ट दृष्टि गोचर होता है। देश की उन्नति के लिए जो कार्य उन्होंने किया वह अन्य किसी सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक व्यक्ति विशेष, पुरूष या महापुरूष ने नहीं किया। वह भारतमाता के सर्वोत्तम व योग्यतम पुत्र सिद्ध हुए।

महर्षि दयानन्द के वेद भाष्य की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। उनका भाष्य न केवल महाभारत युद्ध के बाद का सर्वोत्तम वेद भाष्य है अपितु हमारा अनुमान है कि यह सृष्टि की आदि से अब तक का सर्वोत्तम भाष्य है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह है कि यह संस्कृत के साथ हिन्दी में भी किया गया है। हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने में महर्षि दयानन्द के कार्याें का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने अपने ज्ञान व चर्म चक्षुओं से हिन्दी के महत्व को बहुत पहले जान व समझ लिया था। स्वामीजी ने देश को क्षेमचन्द्र दास त्रिवेदी, पं. जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार, पं. आर्यमुनि, पं. तुलसी राम स्वामी, पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार आदि ऋषि श्रेणी के वेदभाष्यकार विद्वान दिये हैं। इनका वेदभाष्य समस्त मानव जाति की घरोहर है। महाभारत काल के बाद पहली बार यह स्वर्णिम दिन भारत में आयें हैं कि जब वेदभाष्य घर-घर में विद्यमान है। महर्षि दयानन्द के साहित्य व इन आर्य वेद भाष्यकारों के ग्रन्थों का अध्ययन कर ही मनुष्य जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य सहित उसकी प्राप्ति के साधनों को जानकर अपना जीवन सफल कर सकता है। अन्य कोई मार्ग जीवन को सफल करने का किसी मत आदि में नहीं है। सभी मतानुयायियों को देव व सवेर महर्षि दयानन्द की शरण में आना ही पड़ेगा। हम यह भी कहना चाहते कि महर्षि दयानन्द के देशहित के कार्यों के अनुरूप देश के लोगों व धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक नेताओं ने उनके साथ न्याय नहीं किया है। वेद भाष्य कर व वैदिक मान्यताओं का प्रचार करके महर्षि दयानन्द ने वैदिक धर्म की सबल व समर्थ विरोधी विधर्मियों से रक्षा की। हम समझते हैं कि परमात्मा के अलावा उनकी सेवाओं का मूल्यांकन कोई मनुष्य शायद कभी नहीं पायेगा। महर्षि दयानन्द की जय के साथ हम अपनी लेखनी को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

‘यात्रा व पर्यटन से देवपूजा व संगतिकरण का लाभ, देश की एकता व अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास’

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यात्रा पर्यटन से देवपूजा संगतिकरण का लाभ, देश की एकता अखण्डता को बढा़वा तथा प्रदेशों का आर्थिक विकास

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

 

जब हम किसी उद्देश्य से एक स्थान से अन्य दूरस्थ स्थान पर जाते हैं तो घर से निकल कर घर वापिस लौटने तक भ्रमण किये गये स्थानों पर जाने को हम यात्रा का नाम देते हैं। यात्रा के अनेक उद्देश्य हुआ करते हैं। जैसे बच्चे सुदूर स्थानों पर रहने वाले अपने माता-पिता, दादी-दादा व नानी-नाना के घर जाते हैं तो इसे यात्रा कहा जाता है। इसी प्रकार शिक्षा के उद्देश्य से हम आवासीय स्कूलों में पढ़ते हैं तो हमारा वहां जाना व अवकाश के दिनों में घर पर आना भी एक संक्षिप्त व सीमित यात्रा की परिधि में आता है। शिक्षा पूरी होने पर व्यवसाय के लिए युवक व युवतियां प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आवेदन करते हैं। लिखित परीक्षा के लिए दूर-दूर के स्थानों पर जाना पड़ता है। उत्तीर्ण होने पर साक्षात्कार के लिए भी किसी अन्य दूरस्थ स्थान पर जाना होता है। यह सब भी यात्रायें हैं। यदि हमें अपने नगर या गांव से कहीं बाहर व्यवसाय करना होता है तो सप्ताह, माह या इससे अधिक अवधि के अन्तराल पर आना-जाना होता है। विवाह यदि निवास स्थान से दूर अन्य नगरों व स्थानों पर होता है तो समय-समय पर ससुराल में जाना-आना होता है तो इसके लिए भी यात्रा करनी पड़ती है।

 

केन्द्र सरकार, सार्वजनिक प्रतिष्ठान, राज्य सरकारों व कुछ प्राइवेट सेवाओं में नियोक्ताओं की ओर से अपने कार्मिकों को वर्ष, दो वर्ष या इससे कुछ अधिक अवधि में एक या अनेक बार यात्रा सुविधा दी जाती है जिसका उपभोग कर व्यक्ति पर्यटन के प्रसिद्ध स्थानों यथा पोर्ट ब्लेयर, गोवा, कन्याकुमारी, गंगटोक, शिलांग-गुवाहाटी, अरूणाचल प्रदेश, मुम्बई, द्वारिका, सोमनाथ मन्दिर, हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी आदि स्थानों पर जाते हैं। उन्हें अपने विभाग की ओर से यात्रा का किराया मिल जाता है और परिवार के लोग कुछ होटल-धर्मशालाओं व भोजन आदि पर अपनी तरफ से व्यय करके इन स्थानों पर घूम कर मन को प्रसन्न व आनन्दित अनुभव करते हैं।  ईश्वरीय ज्ञान मानी जाने वाली सृष्टि की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद में एक स्थान पर आता है कि हे मनुष्यों, तुम ईश्वर की बनाई हुई इस सृष्टि को देखो, परखो व जानों, जो न कभी नष्ट होती है, न पुरानी और जीर्ण होती है। दार्षनिक सिद्धान्त भी है कि रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। इसी प्रकार से सृष्टि की सुन्दरता, भव्यता व रचनादि विशेष गुणों को देखकर इसके रचयिता सृष्टिकर्ता अर्थात् ईश्वर का ज्ञान होता है। अतः यात्रा का उद्देश्य ऐसे स्थानों पर जाना होता है जो सुन्दर, सुविधापूर्ण, सुख की अनुभूति कराने वाले हों व इसके साथ वहां के लोगों के पहनावें, बोलचाल, व्यवहार, आचार व संस्कृति आदि का अनुभव कराने वाले हों।  मनुष्य को सुखद जीवन व्यतीत करने के लिए संसार में जड़ व चेतन की संगति करना अपरिहार्य है। मनुष्य का जन्म ही संगति का परिणाम है। परिवार में बच्चों की माता-पिता, दादी-दादा, भाई-बहिन, ताऊ-चाचा, तायी-चाची, बुआ आदि हुआ करती हैं। इनकी संगति व सहयोग से ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आत्मिक विकास व उन्नति हुआ करती है। इसके बाद वह अपने आचार्यों व सहपाठी विद्यार्थियों की संगति करते हैं जिससे उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इसी प्रकार से वह जीवन-यात्रा में जिन-जिन व्यक्तियों के सम्पर्क में आते हैं उनकी संगति से भी उन्हें नये-नये अनुभव होते हैं। इन सबसे व्यक्तित्व के निर्माण में लाभ होता है। यात्रा या पर्यटन का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ से ही हो गया था। तिब्बत में लगभग 2 अरब वर्ष पहले सृष्टि की रचना सम्पन्न होने, मनुष्य व प्राणी जगत की उत्पत्ति होने के बाद लोगों की जनसंख्या में वृद्धि के साथ लोग चारों ओर बढ़ते या फैलते गये। नये-नये स्थानों का अनुसंधान किया गया और वहां बस्तियां बसाईं गईं। आरम्भ में कुछ व्यक्ति 10, 20 या 50 बसे होगें जो आज एक नगर या देश बन गये हैं। इस प्रकार से यात्रा का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ही हो गया था जो सतत जारी है और आज भी समर्थ व सम्पन्न लोग समय-समय पर यात्रा कर अपनी उस प्रवृत्ति को पूरा करते हैं।

 

मनुष्यों में यात्रा की प्रवृत्ति जन्मजात या ईश्वर प्रदत्त एक गुण के रूप में है। इसी प्रवृत्ति के कारण सुदूर अतीत में धार्मिक पर्यटन का उद्भव हुआ था। देश की एकता व अखण्डता के लिए भी धार्मिक पर्यटन सहायक रहा है। हमारे सनातन धर्म के बन्धुओं के तीर्थ स्थान भारत के सभी स्थानों पर हैं जिससे दक्षिण, पूर्व व पश्चिम के लोग उत्तर में हरिद्वार, ऋषिकेश, बदरीनाथ, केदारनाथ आदि स्थानों पर आते हैं। यहां उत्तर भारत व अन्य स्थानों के लोग दक्षिण के रामेश्वरम्, मदुरै के विशाल भव्य मीनाक्षी मन्दिर, कांचीपुरम् के शंकराचार्य मठ, पश्चिम के सोमनाथ मन्दिर, द्वारिका, दिलवाड़ा व पालिताना मन्दिरों तथा पूर्व के कामाख्या, जगन्नाथपुरी, गंगासागर आदि स्थानों पर जाते हैं जिससे पूरे देश की यात्रा और धर्म-कर्म हो जाता है। देश के सभी स्थानों के लोग एक-दूसरे के सम्पर्क में आते हैं। एक विचारधारा होने से प्रेम व सहयोग की भावना उत्पन्न होती है जिससे राष्ट्रीय एकता को बल मिलता है। अतः यात्रा बहु-प्रयोजनीय सिद्ध होती है। आजकल इन यात्राओं का एक पहलु और सामने आया है और वह है पर्यटन स्थल व प्रदेश का आर्थिक व सामाजिक विकास।  हम लोग चेन्नई में एक समुद्र तट पर गये जहां प्रतिदन सायं को मेला सा लगता था। वहां फुटपाथ पर सामान रखकर बेचने वाले सभी तमिल भाषी लोग थे परन्तु यह सब ग्राहकों से अच्छी हिन्दी बोल रहे थे। ऐसा ही हमने दक्षिण भारत के त्रिवेन्द्रम, मदुरै व कन्याकुमारी आदि स्थानों पर भी पाया। हमें लगता है कि यात्राओं व पर्यटन से गुजरात के महर्षि दयानन्द का वह स्वप्न कुछ साकार हुआ सा लगता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मेरी आंखे वह दिन देखना चाहती हैं कि जब भारत के सभी स्थानों व प्रदेशों में देवनागरी अक्षरों, लिपि व हिन्दी भाषा = बोली का प्रचार होगा। यह सब कार्य पर्यटन और यात्राओं से सम्भव हुआ है। धार्मिक व पर्यटन स्थलों पर देश व विदेश से लोग आते हैं। इससे वहां होटल, वाहन व यात्रा के साधनों व इनसे जुड़े नाना छोटे-बड़े उद्योगों को बढ़ावा मिलता है और वहां का आर्थिक विकास होता है। सरकारें भी तीर्थ स्थलों व पर्यटन स्थलों के विकास के लिए सावधान हैं जिससे देश व समाज को नानाविध लाभ हो रहे हैं। हम यहां यह भी बताना चाहते हैं कि तीर्थ स्थान का अर्थ होता है कि जहां जाने से दुःख छूट जायें। प्राचीन काल में जिन स्थानों पर बड़े-बड़े योगी, ईश्वर के उपासक, ज्ञानी, चिन्तक व विचारक रहते थे, उनके आश्रमों को तीर्थ कहा जाता था। वहां जाने से यात्री अपनी शंकाओं, समस्याओं, दुःखों, सामाजिक व आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान पाते थे। आजकल तीर्थ स्थानों पर जाने का महात्म्य तो बहुत बताया जाता है परन्तु वह किसी का आज तक पूरा हुआ या नहीं, इसका कोई प्रमाण किसी के पास नहीं है। यहां महर्षि दयानन्द व दर्शनों का कार्य-कारण cause and effect का सिद्धान्त काम करता है। इसे कर्म-फल सिद्धान्त भी कहते हैं। कोई भी पाप क्षमा नहीं किया जाता है। कर्मों के फल भोगने ही पड़ते हैं। हां, प्रायश्चित करने से भविष्य के लिए पापों में प्रवृत्ति को रोक कर उसे सद्कर्मों में प्रेरित किया जा सकता है। यदि हम केवल किसी जड़ पदार्थों से निर्मित देव मूर्तियों के दर्शन करके ही किसी बड़े फल की इच्छा करने लगें तो यह असम्भव है। दर्शन से तो केवल आंखों को लाभ हो सकता है जैसे भोजन का लाभ उठाने के लिए खाना पड़ता है, दवा को देखने से लाभ नहीं होता अपितु उसे भी नियम पूर्वक सेवन करने से लाभ होता है। मूर्तिपूजा से भी इसी प्रकार आंखों से अनुभूत क्षणिक सुख-लाभ ही होता अन्य कुछ नहीं। यदि हमारे कर्म व पाप-पुण्यों में ईश्वर के गुणों व शिक्षाओं का सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता है तो उससे कदापि कोई लाभ नहीं न हुआ है न होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई कसाई तीर्थ यात्रा करे और वह अपना काम उसके बाद भी जारी रखे तो उसे इस जन्म व परजन्म में लाभ होने के स्थान पर हानि ही होती है। हां, यदि बार-बार परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाला कोई मूर्तिपूजक व तीर्थगामी विद्यार्थी किसी गुरू के पास जाकर अथवा किसी तीर्थ स्थान पर जाकर वहां विद्वानों से मिलकर अपना सुधार करे, मनोयोग से समझ कर अध्ययन करे, असत्य व मिथ्या आचरण के त्याग की प्रतिज्ञा, व्रत व संकल्प करता है तथा सत्य के ग्रहण व उसके लिए पुरूषार्थ का संकल्प कर तदानुकूल आचरण करता है तो इससे निश्चित रूप से उसे लाभ होगा।

 

यात्रा के सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि हमारा जीवन अपने आप में एक यात्रा है। हम यहां माता-पिता के माध्यम से संसार में आते हैं, कर्म करते हैं, पूर्व व वर्तमान जीवन के कर्मों के फलों को भोगते हैं, सुख-दुख का अनुभव कर शैषव, किशोर, युवा व वृद्धावस्थाओं से गुजरते हुए मुत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कर्मों की बची पूंजी जिसे प्रारब्ध या भाग्य कहा जाता है उसके अनुसार हमारा पुनर्जन्म होता है और फिर उस जन्म में भी प्रारब्ध का भोग व नये कर्म करके नया प्रारब्ध बना कर वहां से फिर अन्य जन्म के लिए आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जीवन की एक अनन्त यात्रा चल रही है जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है और न हि अन्त। यह बिना ओर व छोर वाली नदी है। इसमें निरन्तरता है। विज्ञान का अविनाशिता का नियम अर्थात् न कोई वस्तु बनाई जा सकती है और न हि नष्ट की जा सकती है, यहां भी लागू होता है। आत्मा न बनती है न नष्ट होती है। इसी बात को कहा जाता है कि आत्मा अजन्मा व अमर है, अनादि व अनन्त है। इस जीवन यात्रा में एक बड़ा मुकान “मोक्ष या मुक्ति” का आता है। मुक्ति सद्कर्मों व ईश्वर साक्षात्कार का परिणाम होती है। सद्कर्मों व ईश्वरोपासना से ईश्वर साक्षात्कार के लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। यह पुरूषार्थ अर्थात् धर्म-कर्म ही मोक्ष व मुक्ति का कारण, साधन या आधार होता है। चिन्तन, मनन, अध्ययन व अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि यह मत, सम्प्रदाय व धर्म के नाम से माने जाने वाले सभी धर्मावलम्बी मनुष्यों के लिए एक समान ही है। संसार के सभी मत-सम्प्रदायों व धर्मों का आधार मनुष्य ही हैं, परमात्मा नहीं। परमात्मा ने तो एक ही धर्म बनाया है और वह है मानवता, मनुष्यता, सत्य का आचरण, ज्ञान पूर्वक कर्म।  सम्प्रदाय व मत विशेष की विचारधारा में अपने आपको कैद न करके इस ब्रह्माण्ड की स्वयं को एक इकाई मानना और सर्वव्यापक, सर्वोत्तम, चेतन, न्यायकारी व आनन्दस्वरूप परमात्मा को अपना नेता, आचार्य, गुरू, माता-पिता, राजा और न्यायाधीश मानना चाहिये। इससे स्वयं को भी सुख मिलेगा और संसार में भी सुख-शान्ति में वृद्धि होगी। यह जीवन यात्रा का संक्षेप में उल्लेख किया है जो कि सत्य है और इसे स्वाध्याय, विचार व चिन्तन तथा विद्वानों से शंका समाधान कर जाना व माना जा सकता है।

 

यात्रा कैसी भी हो, उसका एक उद्देश्य होता है। वह उद्देश्य सुख व सकून की प्राप्ति व उपलब्धि है। जब तक संसार है, मनुष्य छोटी-बड़ी सभी प्रकार की यात्रायें करते रहेगें। हां, हमें यह प्रयास करना चाहिये कि यात्रा में जाने पर हम जहां जायें वहां के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें। वहां जो सबसे अधिक ज्ञानी व्यक्ति हों, उनसे मिले। उनके जीवन का निचोड़ जाने और उन्हें सम्मान व कुछ द्रव्य देकर तथा कृतज्ञता पूर्वक उनसे विदा लें। वहां सामान्य व सभी लोगों के सम्पर्क में आकर उन्हें अधिक से अधिक जानने का प्रयास करें। उनके अनुभवों से लाभ उठायें व अपने अनुभव उन्हें बतायें जिससे यात्रा का उद्देश्य भली-भांति पूरा हो सके।

मनमोहनकुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2 

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आर्यसमाज क्या है ? पण्डित मनसाराम वैदिक तोप

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वेद ने तमाम लोगो को आज्ञा दी हैकी तुम सारे संसार को आर्य बनाओ ,आर्य का अर्थ है नेक,पवित्र व् धर्मात्मा | नेक ,पवित्र धर्मात्मा वह है जो ईश्वरीय ज्ञान वेद के अनुकूल अपना चाल चलन बनावे , चूँकि सृष्टि के आरम्भ से हि हमारे पूर्वजो ने अपना जीवन वेद के अनुकूल व्यतीत करते थे | इसलिए उनका नाम आर्य हुआ और… चूँकि हमारे पूर्वजो ने हि सबसे पहले देश को बसाया था | इस लिए इस देश का नाम आर्यवर्त हुआ | इसलिए वेदों ,स्मृतियों ,शास्त्रों ,रामायण ,माहाभारत और संस्कृत की सारी पुराणी पुस्तकों में हमारा नाम आर्य है हमारे देश का नाम आर्यवर्त आता है | आज से लगभग पांच हजार साल पहले सारी दुनिया में एक हि धर्म था और वह वैदिक धर्म था | और सारी दुनिया में एक हि जाती थी और वह आर्य जाती थी |इस आर्यजाति के दुर्भाग्य से माहाभारत का युद्ध हुआ, जिसमे अच्छे अच्छे वेदों के ज्ञाता और वेद प्रचार का प्रबंध करने वाले राजा और माहाराजा मारे गए|
तत्पश्चात स्वार्थी और पाखंडी लोगो की बन आई इन लोगो ने मधपान , मांसभक्षण और परस्त्रीभोग को हि धर्म बतलाया और संस्कृत में इस प्रकार की पुस्तके बनाई | जिनमे मधपान , मांसभक्षण और परस्त्रीभोग को धर्म कहा गया और कोई ऋषि, कोई मुनि या माहात्मा ऐसा नहीं छोड़ा की जिस पर मधपान ,मांसभक्षण और  परस्त्रीगमन का आरोप न लगाया हो , इन लोगो ने वेद के विरुद्ध बनाई किताबो के नाम पुराण और इनका लेखक महर्षि व्यास जी को बताया , इन लोगो ने यज्ञो के बहाने से पशुओ को मार कर इनके मांस का हवं करना ,खाना तथा शराब पीना आरम्भ कर दिया | और वेदों की बजाए आर्यजाति में इन्ही पुराणों को धर्मग्रंथकहा गया |
लोग वेदों को भूल गए और इन्ही वेद के विरुद्ध अष्टादश पुराणों को अपना धर्मग्रन्थ मानकर धर्म से भटक गए | समय समय पर माहात्मा बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य , गुरु नानक देव और गुरु गोबिंद सिंह आदि महात्माओ ने इस जाती को कुमार्ग से हटा कर सुमार्ग पर लाने का प्रयास किया और वे किसी हद तक इस जाति को सुमार्ग पर लाने में सफल भी हुए , परन्तु यौगिक अवस्था में इस जाति की शारीरिक आत्मिक और आर्थिक अवस्था गिरती चली गयी |
आखिरकार विदेशी ईसाई तथा मुसलमानों ने इस देश में प्रविष्ट होकर पुराणों की बुरी शिक्षाओ का खंडन आरम्भ किया जिससे आर्यजाति के युवक इस पौराणिक हिंदू धर्म से घृणित होकर धड़ा धड ईसाई और मुसलमान बनने लगे | निकट था की यह पौराणिक धर्म को मानने वाली हिन्दूजाति संसार से मटियामेट हो जाती किन्तु – काठियावाड गुजरात के मौरवी राज्य के टंकारा शहर के एक औदीच्य ब्राहमण पण्डित कर्षण लाल जी तिवारी सर्राफ जमींदार के घर माता अमृतबाई के पेट से विक्रमी संवत् १८८१ में एक बालक का जन्म हुआ जिसका नाम मूलशंकर दयाल रखा | एक बार जब उनकी आयु केवल १४ वर्ष की थी , शिवरात्रि के अवसर पर इनके पिता ने इनका शिवरात्रि का व्रत रखने पर आग्रह किया , व्रत रखा गया |
रात को जब उनके पिता दूसरे पुजारियों के साथ शिव  की पूजा करके चडावा चड़ा चुके तो वह शिव का गुणगान करने के लिए दूसरे साथियों के साथ मूर्ति के सामने बैठ गए तो वे निंद्रा से उंघने लगे ,लेकिन बालक मूलशंकर जी जागते रहे | इसी बीच में एक चूहा आया और शिव की मूर्ति पर चड मजे से च्डावित चीजों को खाने लगा |बालक मूलशंकर इस दृश्य को देख कर हैरान रह गए की कैसा शिव है जो चूहे से भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता |पिता को जगाकर अपनी शंका प्रकट की परन्तु उत्तर में डांट डपट के सिवाय कुछ नहीं मिला | इस दृश्य ने मूलशंकर की आँखे खोल दी | उनको वर्तमान मूर्तिपूजा के गलत होने का ज्ञान हो गया | इस चूहे वाले दृश्य के कुछ दिन पश्चात मूलशंकर की बहिन और इसके पश्चात इनके चाचा की भी मृत्यु हो गयी | ये दोनों हि मूलशंकर
को प्यारे थे , इन दोनों दृश्यों ने मौत का प्रश्न लाकर इनके सम्मुख खड़ा कर दिया और वे सोचने लगे की मृत्यु क्या वस्तु है और किस तरह मनुष्य मृत्यु पर विजय पा सकता है |
इन प्रश्नों को हल करने की इतनी तीव्र इच्छा हुयी की उन्होंने बाप की जायदाद को ठोकर मारकर जंगल की राह ली | सन्यास धारण किया और मूलशंकर जी से स्वामी दयानंद जी बन गए और योगाभ्यास करते हुए ताप का जीवन बिताना आरम्भ किया |
विद्या की खोज में पर्वतों ,जंगलो ,नदियों के तटो पर चक्कर लगाना आरम्भ कर किया | इस तरह तप की आयु व्यतीत करते हुए और योगाभ्यास करते हुए समाधि तक योग की विद्या प्राप्त की | अंत में अपने आखिरी गुरु स्वामी विरजानंद जी के पास मथुरा में पहुंचे और तीन वर्ष में वेदों और शास्त्रों की पूर्ण विद्या प्राप्त करके वेद के अर्थ करने की कुंजी गुरु से प्राप्त की | पुनः गुरु से विदा होने का समय आया | गुरु विरजानंद ने अपने शिष्य दयानंद से माँग की कि बेटा इस समय मत मतान्तरो का अन्धकार छाया हुआ है लोग वेद कि शिक्षा के विरुद्ध चल रहे है तुम्हारे से यह गुरुदक्षिणा मांगता हूँ कि मत मतान्तरो का खंडन करके वैदिक धर्म का प्रचार करो |
महर्षि स्वामी दयानंद जी ने अपने गुरु कि इस आगया में अपना पूरा जीवन बलिदान कर दिया |
स्वामी दयानंद ने अपने जीवन कि दो विचारधाराएं ठहराई वैदिक धर्म का प्रचार और ईसाई,मुसलमानों के हाथो से पौराणिक हिंदू जाती की रक्षा की | महर्षि दयानंद जी ने अपने दोनों विचारधाराओं को पूरा करने के लिए सहस्त्र मीलो की यात्रा की | हजारों भाषण दिए |सैकड़ो शाश्त्रार्थ किये और दर्जनों पुस्तके लिखी और वेद का सरल हिंदी में अनुवाद किया और अपने अनथक प्रयास से सोये हुए आर्यवर्त देश को जगा दिया और वेद की पुस्तक हाथ में लेकर ईसाई और मुसलमानों आदि एनी मतवालो को शाश्त्रार्थ के लिए ललकारा और सेकडो स्थानों पर उनको पराजय दी और पौराणिक हिन्दुजाती को मृत्यु के मुख से बचा लिया | भविष्य में वैदिक धर्म का प्रचार और पौराणिक हिन्दुजाति की रक्षा के लिए एक संस्था की स्थापना की जिसका नाम “आर्यसमाज“रखा |
आखिरकार वेद के शत्रुओ ने षड्यंत्र रच कर स्वामी जी के रसोइये द्वारा दुष् में पिसा हुआ कांच और विष मिलाकर महर्षि स्वामी दयानंद जी को पिला दिया जिससे इनका शरीर फुट पड़ा और वे अजमेर में दीपावली की शाम को संवत १९४० में परलोक सिधार गए |स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात आर्यसमाज ने अपने पुरे प्रयत्नों द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार और पौराणिक हिन्दुजाति की रक्षा की , करता है और करता रहेगा

| इस कार्य को करते हुए कुछ स्वार्थी लोगो ने आर्य समाज का विरोध शुरू कर दिया और भिन्न भिन्न प्रकार के दोष लगाकर आर्य समाज को बदनाम करने के प्रयत्न किये |

किसी ने कहा कि – १.) आर्य समाज एक अवैध समाज है जो वर्तमान सरकार के तख्ताये हुकूमत को उलटना चाहता है |
२.) किसी ने कहा कि आर्य समाज एक दिल को ठेस पहुँचाने वाली संस्था है जो भिन्न भिन्न मतो का खंडन करके
उनके दिलो को ठेस लगाती है |
३.) किसी ने कहा कि आर्य समाज एक फसादी टोला है | जब तक भारत वर्ष में समाज का नाम था , लोग प्रीति और प्रेम के साथ रहते थे | जब से आर्यसमाज का जन्म हुआ तब से लोगो में लड़ाई और झगडे फ़ैल गए,इसलिए आर्य समाज एक फसादी टोला है |अतः प्रत्येक मनुष्य ने आर्यसमाज के बारे में अपने अपने दृष्टिकोण से अनुमान लगाया उदाहरणार्थ कहते है कि एक जंगल में पाँच मनुष्य इकट्ठे बैठे थे | जंगल में तीतर कि बोली के बारे में सोचने लगे कि बताओ भाई यह तीतर क्या कहता है | उन पांचो ने अपने विचारानुसार तीतर कि बोली का अनुमान लगाया |
१.) मियाँ साहिब ने कहा कि तीतर कहता है – “ सुबहान तेरी कुदरत “
२.) पंडित जी ने कहा कि तीतर कहता है – “सीता राम दशरथ “
३.) दूकानदार ने कहा – “ नून तेल अदरक “
४.) पहलवान ने कहा –“ खाओ पियो करो कसरत “
५.) जेंटलमैन ने खा – “ पीओ बीड़ी सिगरट “
अब आपने देखा कि तीतर ने अपनी बोली में बोला और पाँच मनुष्यों ने अपने अपने विचारानुसार तीतर कि बोली का अनुमान लगाया लेकिन तीतर क्या कहता है इसको या टो तीतर जानता है या तीतर कि बोली समझने
वाला | इसी प्रकार लोग आर्य समाज के बारे में अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार अनुमान लगाते है |
१.) कोई कहता है कि आर्य समाज एक अवैध समाज है |
२.) कई कहता है कि आर्य समाज एक दिल को ठेस पहुचानें वाली संस्था है |
३.) कोई कहता है कि आर्य समाज एक फसादी टोला है |
लेकिन आर्य समाज क्या है ? इसको या आर्य समाज जानता है या आर्य समाज के सिद्धांतों को समझने वाला | हाँ इससे पहले आपको यह बताए कि आर्य समाज क्या है तीन प्रकार के लोगो के भ्रम को दूर करना आवश्यक समझते है |
१.) पहले प्रकार के वे लोग है जो कहते है कि आर्य समाज एक अवैध समाज है | मै यह बताना चाहता हूँ कि जो लोग आर्य समाज को ऐसा समझते है वे भ्रम में है | वे नहीं जानते कि आर्यसमाज क्या चीज है ? आर्य समाज वेद का प्रचारक है और वेद ईश्वरीय गया है और ईश्वर एक देश का नहीं बल्कि संसार का है | इसलिए आर्य समाज भी किसी एक देश के लिए नहीं ,बल्कि सारे विश्व के लिए है | आर्य समाज जो कुछ भी बताता है वह सारे संसार के लिए नियम कि बाते बताता है | इस से जो देश भी चाहे लाभ उठा सकता है |
उदाहरणार्थ आर्य समाज राज्य प्रबंध के बारे में यह नियम बताता है कि प्रत्येक देश में राज करने का अधिकार उस देश के वासियों का है , दूसरे देश के लोगो का यह अधिकार नहीं है कि वे किसी देश पर राज्य करे | जैसे चीन पर राज्य करने का अधिकार चीनियों को है जापानियों का यह अधिकार नहीं कि वे चीन पर राज्य करे | बस इसी तरह आर्य समाज कहता है कि भारत पर राज्य करने का अधिकार केवल भारतीयों का है इटली वालो का यह अधिकार नहीं |
यह एक नियम कि बात है जिसे आर्य समाज डंके कि चोट पर कहता है और इस प्रकार कहने में आर्य समाज को किसी का भय नहीं | अब रहा आर्य समाज के सभासद बनने का प्रश्न सो आर्य समाज के दस नियम है
जो मनुष्य इन नियमों को समझ कर इन पर चले कि प्रतिज्ञा करता है वह आर्य समाज का सभासद बन सकता है | एक क्रन्तिकारी मनुष्य जो रिवाल्वर और बम चलाना अपना धर्म समझता है यदि वो आर्य समाज के दस नियम का विचार कर उनके अनुसार चलने कि प्रतिज्ञा करता है वह आर्यसमाज का सभासद बन सकता है | आर्य समाज का सभासद बनने में उसे किसी प्रकार कि बाधा नहीं है और एक सरकारी कर्मचारी भी जो सर्कार कि आज्ञा को निभाना अपना धर्म समझता है वह भी आर्य समाज के नियमों का पालन करके आर्यसमाज का अभासाद बन सकता है | आर्य समाज कि स्टेज आर्य समाज के नियमों के प्रचार के लिए है इसलिए जो लोग यह कहते है कि आर्य समाज एक अवैध समाज है वे भ्रम में है | वे नहीं जानते कि आर्य समाज क्या है |
२.) दूसरी प्रकार के लोग है जो कहते है कि आर्य समाज एक दिल को ठेस पहुचने वाली संस्था है | हम यह बतलाना चाहते हाउ ये लोग पहले कि अपेक्षा अधिक भ्रम में है | ये नहीं जानते कि आर्य समाज क्या चीज है ? दिल को ठेस लगाना दो प्रकार का होता है एक नेकनीयती से बदनीयती से | जो दिल को ठेस नेकनीयती से लगाई जाती है वह उस मनुष्य कि हानि के लिए नहीं,  बल्कि लाभ के लिए होती है | उदाहरणार्थ एक आदमी कि टांग पर फोड़ा निकल आया | फोड़े में पीप पड़ गयी , पीप में कीड़े पड़ गएग | वह आदमी औषधालय में गया | औषद्यालय के डाक्टर ने उसकी टांग का निरीक्षण किया और निरिक्षण करने के पश्चात डाक्टर नेकनीयती से इस परिणाम पर पहुंचा कि अगर इसकी टांग का ओप्रेसन करके इसके अंदर से पीप न निकाल दी गयी टो संभवतः इसकी टांग काटनी पड़े और काटने के साथ साथ इसका जीवन भी समाप्त हो सकता है | अब डाक्टर नेकनीयती से इसका जीवन बचाने के लिए ओप्रेसन करना शुरू कर देता है | जहां डाक्टर ने ओप्रेसन करना आरम्भ किया उधर रोगी ने चीखना शुरू कर दिया कि यह डाक्टर टो बड़ा डीठ है निर्दयी है बेरहम है और दिल दुखाने वाला है |और लगे हाथो दस बीस गालिय भी डाक्टर को दे डाली |

अब आप बताइए कि इस अवस्था में उस डाक्टर का क्या कर्तव्य है ,क्या डाक्टर का यह कर्तव्य है कि वह रोगी कि गालियों से क्रोधित होकर नश्तर को अनुचित चला कर रोगी को हानि पहुचाएं ? कदाचित नहीं !  यदि डाक्टर रोगी कि गालियों से क्रोधित होकर नश्तर को अनुचित चलाकर रोगी को हानि पहुंचाता है तो डाक्टर अपने कर्तव्य से गिर जाता है | वह अपने कर्तव्य को पूरा नहीं करता और क्या डाक्टर का यह कर्तव्य है कि वह रोगी कि गालियों से निराश होकर इलाज करना छोड दे तो भी वह अपने कर्तव्य से गिर जाता है | डाक्टर का तो यह कर्तव्य है कि वह रोगी कि गालियों कि तरफ ध्यान न देकर नेकनीयत से इसके जीवन बचाने के लिए निरंतर ओप्रेसन करता चला जाए |एक समय ऐसा आएगा जब ओप्रेसन सफल हो जाएगा और रोगी कि टांग
कि सारी पीप निकल जायेगी और डाक्टर इस पर मरहम रखेगा और रोगी को आराम आ जावेगा तो वही रोगी जो डाक्टर को गालिय देता था वह डाक्टर को आशीर्वाद देगा कि इसने मेरा जीवन नष्ट होने से बचा दिया | बस यही हालत आर्य समाज कि है | आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद जी ने अनुभव किया कि पोरानिक हिन्दुजाति के अंदर बहुत से बुरे रीती रिवाज और बुरे नियम विद्यमान है | अगर इनको न निकल दिया गया तो संभव् है कि इस हिन्दुजाति का नामोनिशान भी इस संसार में न रहे | इस बात को विचार करते हुए महर्षि दयानंद ने अपनी आयु में और इनकी मृत्यु के बाद आर्य समाज ने नेकनीयत के साथ हिन्दुजाति के जीवन को संसार में स्थापित करने के लिए उसके बुरे नियमों और बुरे रीती रिवाज का खंडन आरम्भ किया | खंडन आरम्भ होने के बात हिन्दुजाति ने महर्षि दयानंद जी के जीवन में उनके साथ और उनकी मृत्यु के बाद आर्य समाज के साथ बुरा व्यव्हार किया | गाली गलोच दी ,ईंट और पत्थर बरसाए और अब भी कई स्थानों पर आर्य समाज के साथ ऐसा व्यवहार हिन्दुजाति कि तरफ से हो रहा है |
अब ऐसी अवस्था में आर्य समाज का क्या कर्तव्य है ? क्या आर्य समाज का यह कर्तव्य है कि वह पोरानिक हिन्दुजाति कि गाली गलोच और बुरे व्यव्हार से क्रोधित होकर अनुचित भाव से हिन्दुजाति को चिडाने के लिए या उसे हानि पंहुचाने के लिए इसका खंडन करे | कदापि नहीं अगर आर्य समाज ऐसा करता है तो वह अपने कर्तव्य से गिर जाएगा | क्या आर्य समाज का यह कर्तव्य है कि वह गाली गलोच और बुरे व्यव्हार से
निराश होकर ठीक तरह से बुरे रश्मो रिवाज और बुरे नियमों का खंडन करना छोड दे ? कदापि नहीं , अगर आर्य समाज ऐसा करता है तो वह अपने कर्तव्य से गिर जाता है | वह अपने कर्तव्य को पूरा नहीं करता | आर्य समाज का यह कर्तव्य है कि वह हिन्दुजाति कि गाली गलोच और बुरे व्यवहार कि कुछ भी परवाह न करते हुए नेकनीयती से हिन्दुजाति के सुधर और उसके जीवन को स्थिर रखने के लिए निरंतर इसके बुरे नियमों और रीती रिवाज का खंडन करता हुआ चले | वह समय अति निकट होगा जब हिन्दुजाति के अंदर से बुरे रस्मो रिवाज और बुरे नियम निकल जायेंगे और यह हिंदू जाति एकता में संयुक्त हो जायेगी | तब यह हिंदू जाति आर्य समाज को आशीर्वाद देगी कि इसने मेरे जीवन को नष्ट होने से बचा लिया |
इस लिए जो लोग कहते है कि आर्य समाज एक दिल दुखाने वाली संस्था है ,वे भ्रम में है | वे नहीं जानते कि आर्य समाज क्या है ? अब मै आपकी सेवा में यह बतलाना चाहता हूँ कि आर्य समाज क्या है ? अगर कोई आदमी मेरे से पूछे तो मै उसे थोड़े शब्दों में बताना चाहूँ कि आर्यसमाज क्या चीज है तो मै कहूँगा कि –
१.) आर्य समाज पीडितों का सहायक है |
२.) आर्य समाज रोगियों का डॉक्टर है |
३.) आर्य समाज सोते हुयो का चोंकिदार है |
१.) पीडितों का सहायक आर्य समाज – आर्य समाज पीडितों का सहायक है ,आर्य समाज निर्धनों का मददगार है |
जिनके अधिकारों को दुष्ट और कुटिल लोगो ने अपने पाँव के निचे कुचल दिया था उनके अधिकारों को वापस दिलाने वाली संस्था है |आर्य समाज ने अपने जीवन में किस किस कि सहायता कि है और किस किस के दबे हुए अधिकारों को वापिस दिलाया है इसकी एक लंबी सूचि बन जायेगी जिसके इस छोटे से लेख के अंदर लिखा नहीं जा सकता , फिर भी आर्य समाज ने जिन जिनकी सहायता कि है इसमें से कुछ एक का नमूने के तोर पर वर्णन करना आवश्यक प्रतीत होता है:
क) गाय आदि पशु- आर्य समाज ने सबसे पहली वकालत गाय आदि पशुओ की की | महर्षि दयानंद जी और आर्य समाज से पूर्व लोग यह मानते थे की यज्ञ में गाय आदि पशुओ को मारकर इस्नके मांस से हवन करना और बचे हुए मांस का खाना उचित है ,इस से वह पशु और यज्ञ करने वाला दोनों हि स्वर्ग में जाते है |
स्वामी दयानंद और आर्य समाज ने इस बारे में गाय आदि पशुओ की वकालत की और बताया की यज्ञ तो कहते हि उसे है जिसमे विद्वानों की प्रतिष्ठा की जावे | अच्छी संगत और दान आदि नेक काम किये जाए , फिर वेद में यह आता है  की यज्ञ उसे कहते है जिसमे किसी भी जीव का दिल ना दुखाया जाए और फिर वेद में स्थान स्थान पर यह लिखा है की यजमान के पशुओ की रक्षा की जाए | इन सब बातो से सिद्ध होता है की यज्ञ में किसी भी पशु का मारना पाप है क्योंकि किसी भी जीव का दिल दुखाये बिना मांस प्राप्त नहीं हो सकता और धार्मिक दृष्टिकोण से भी मांस खाना पाप है | और किसी भी निर्दोष जीव की हत्या करना पाप है | आर्य समाज की यह वकालत फल लायी , और सबसे पहली गोशाला रिवाड़ी में खोली गयी जिसकी आधारशिला महर्षि दयानंद जी ने अपने कर कमलों से रखी और आर्य समाज के प्रयत्नों से लाखो आदमियों ने मांसभक्षण छोड दिया | आज गो आदि पशुओ की रक्षा का विचार और मांस भक्षण न करने के प्रति विचार जो देश में उन्नति कर रहा है यह आर्य समाज की वकालत का परिणाम है |
ख) स्त्रियों की शिक्षा – स्वामी दयानंद और आर्य समाज से पूर्व स्त्रियो को शिक्षित बनाना पाप समझा जाता था , आर्य समाज ने इस विषय में स्त्रियों की वकालत की और बताया की जैसे परमात्मा की पैदा की हुयी जमीन पानी हवा, आग सूर्य आदि के प्रयोग का अधिकार पुरुषों और स्त्रियो को एक समान है और परमात्मा की बनाई हुई चीजे दोनों को लाभ पहुंचाती है वैसे हि परमात्मा में सृष्टि के आरम्भ में जो ज्ञान दिया इसको प्राप्त करने का अधिकार भी स्त्रियों और पुरुषों को समान है | आर्य समाज की यह वकालत फल लायी और इसका परिणाम यह निकला की जो लोग स्त्रियों की शिक्षा के विरुद्ध थे सैकडो कन्या पाठशालाए इन लोगो की और से खुली हुई है | आज स्त्रियां न्यायालय विभाग, वकालत, डॉक्टरी और शिक्षा में पुरुषों के समान कार्य करती हुई दृष्टिगोचर हो रही है |
वे म्युनसिपल कमेटियो ,डिस्ट्रिक्ट बोर्डो लेजिस्लेटिव असेम्बलियो और गोलमेज कांफ्रेंसो में भी पुरुषों के समा कार्य कर रही है | बल्कि भारत की प्रधानमंत्री भी स्त्री रही है | यह किसका फल है ? यह आर्य समाज की वकालत का हि परिणाम है |

३.)अनाथो की रक्षा  स्वामी दयानंद और आर्य समाज के पूर्व पौराणिक हिन्दुजाती में अनाथ बच्चो के पाले का कोई प्रबंध नहीं था जिससे हिन्दू बच्चे इसाई और मुसलमानों के अधिकार में जाकर हिन्दुजाती के शत्रु बनते थे |आर्य समाज और मह्रिषी दयानंद जी महाराज ने इस विषय में अनाथ बच्चो की वकालत की और इनके पालन पोषण के लिए सर्वप्रथम अनाथालय अजमेर में स्थापित किया | जिसकी आधार शिला मह्रिषी स्वामी दयानंद
जी महाराज ने स्वंय अपने करकमलो से राखी | आज दर्जनों अनाथालय आर्य समाज के निचे काम कर रहे है |जिनमे हजारो संख्या में हिन्दुजाती के अनाथ बच्चे सम्मिलित होकर हिन्दुजाती का अंग बन रहे है | आज अनाथो की पालना का विचार जो देश में उन्नत है यह भी आर्य समाज की वकालत का फल है |
४.)विधवा विवाह स्वामी दयानंद और आर्य समाज से पहले पौराणिक हिन्दुजाती में यह रीती थी की यदि किसी पुरुष की स्त्री मर जाती थी तो इसको दूसरी स्त्री के साथ विवाह कराने का अधिकार प्राप्त था , परन्तु यदि किसी स्त्री का पति मृत्यु का ग्रास बन जाता था तो उस स्त्री को दुसरे पुरुष से विवाह का अधिकार प्राप्त न था | इसका परिणाम यह होता था की हजारो विधवाए व्यभिचार , गर्भपात के पापो में फंस जाती थी और बहुत सी विधवाएं ईसाई और मुसलमानों के घरो को बसाकर गोघातक संतान पैदा करती थी |इस बारे में आर्य समाज ने विधवाओ की वकालत की और बतायाकि जब पुरुषो को रंडवा होने पर दुसरे विवाह का अधिकार प्राप्त है तो कोई कारण प्रतीत नहीं होता की विधवा स्त्री को दुसरे पति से विवाह करने का अधिकार क्यों प्राप्त न हो | आर्य समाज ने बतलाया यदि कोई स्त्री पति के मरने के पश्चात् ब्रह्मचारिणी रहना चाहे और ईश्वर की अराधना में अपना जीवन बितावे तो उसके लिए पुनः विवाह करना जरुरी नहीं |हाँ यदि कोई स्त्री पति के मर जाने के बाद ब्रह्मचारिणी न रहना चाहे या न रह सकती हो तो उसको दुसरे पति के साथ पुनर्विवाह करने का अधिकार प्राप्त है | आर्य समाज की यह वकालत फल लाई | इसका परिणाम यह हुआ की आज विधवाओं के विवाह के लिए कोई बाधा नहीं है |
५.)अछूतोद्धार महर्षि स्वामी दयानंद और आर्य समाज से पहले अछूतों की क्या दशा थी ? लोग इनको मनुष्य न समझते थे | लोग इनको दारियो पर बैठ कर उपदेश सुनने , कुएं पानी भरने , पाठशालाओ में शिक्षा पाने और मदिर में अराधना करने की भी आज्ञा न देते थे | इस से लाचार होकर अछूत लोग इसाई और मुसलमानों की शरण लेते थे | आर्य समाज ने इस बारे में अछूतों की वकालत की और बतलाया की मनुष्य के रूप में सब बराबर है | जन्म से न कोई छोटा है न कोई बड़ा है | प्रत्येक आदमी अपने नेक कार्यो से बड़ा बनता है | आर्य समाज की यह वकालत रंग लाइ और इसका परिणाम यह है की आज अछूतों पर से सारी बाधाएं दूर हो गयी है |और अछूत लोग शारीरिक , आत्मिक , समाजिक और आर्थिक उन्नति में दिन दुगुनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे है | यह सब आर्य समाज की वकालत का ही फल है |
ख ) रोगियों का डॉक्टर आर्य समाज –यदि आप आर्य समाज का औषधालय देखना चाहे तो सत्यार्थ प्रकाश के अंतिम चार समुल्लासो का अध्ययन करे |इन चार समुल्लासो में आर्य समाज के प्रवर्तक ऋषि दयानंद जी ने वेद के प्रतिकूल अनेक मत मतान्तरो का ऑपरेशन किया है और वह पूर्ण रूप से सफल हुआ है |इसका प्रमाण यह है की आज भारत के सारे मत मतान्तर अपने नियमो को वेदानुकुल बनाने की चिंता में है | पौराणिक हिन्दुजाती में अनेक रोग उपस्थित थे जिनकी आर्य समाज ने चिकित्सा की | नमूने के लिए कुछ ऐसे रोगों का वर्णन करना जरुरी है |
१> अज्ञानता आर्य समाज से इस पौराणिक हिन्दुजाती में घोर अविद्या ने घर कर रखा था | लोग वेदों के नाम से भी अनभिज्ञ थे | आर्य समाज ने इन रोगों की चिकित्सा की और देश के अन्दर कन्या गुरुकुल , कन्या पाठशाला , प्राइमरी स्कूल , हाई स्कूल और विश्वविद्यालयो का जाल बिछा दिया और वेद प्रचार के लिए जगह जगह सभाए स्थापित कर दी और आर्य समाज की देखा देखि दुसरे लोगो ने जो विद्यालय खोले है वे अलग ! आज लोगो में जो संस्कृत और वेदविद्या पढने का चाव दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है यह आर्य समाज रूपी डॉक्टर की कृपा का परिणाम है |
२) बाल विवाह , वृद्ध विवाह , बेजोड़ विवाह आर्य समाज के प्रचार से पहले छोटे छोटे बच्चो का विवाह , बुढ़ापे का विवाह और बेजोड़ विवाह इस पौराणिक हिन्दुजाती को घुन की भाँती खा रहे थे लोग छोटे छोटे बच्चो का विवाह कर देते थे | साठ वर्ष के बूढ़े के साथ चौदह वर्ष की लड़की का विवाह कर देते थे और अठारह वर्ष की लड़की का विवाह आठ वर्ष के लड़के के साथ कर देते थे | इस से ब्रह्मचर्य का नाश होकर दिन प्रतिदिन हिन्दुजाती की शारीरिक अवस्था बिगडती जा रही थी | इस रोग की चिकत्सा आर्य समाज ने की और यह नियम वेद से बतलाया की नवयुवती लड़की का विवाह नवयुवक लड़के से करना चाहिए | लड़की की आयु कम से कम सोलह वर्ष और लड़के की आयु कम से कम पच्चीस वर्ष होनी चाहिए इस बारे में लोगो ने आर्य समाज का बड़ा विरोध किया , परन्तु आर्य समाज दृढ़ संकल्प से इस कार्य में लगा रहा | अंत में आर्य समाज का प्रयत्न फल लाया और इसका पता लोगो को तब लगा सब राज्य शासन में सर्वसम्मति से शारदा बिल पास हो गया | शारदा एक्ट के आधीन चौदह वर्ष से कम आयु की लड़की और अठारह वर्ष से कम आयु के लड़के का विवाह करना कानूनी अपराध था | इसमें बदलाव होते होते लड़के और लड़की की न्यूनतम आयु अठारह कर दी गयी विवाह के लिए | यह सब आर्य समाज रूपी चिकित्सक की ही कृपा का फल है | अब बाल और वृद्धोके विवाह बहुत कम हो गये है और बेजोड़ विवाह की तो रीती ही समाप्त हो गई है |

३)अन्धविश्वास आर्य समाज के प्रचार से पूर्व यह पौराणिक हिन्दू जाति भूतपुजा , प्रेतपूजा , डाकिनी शाकिनी पूजा , पीर मदार पूजा ,गण्डा ताबीज पूजा ,बुत पूजा , इन्सान पूजा , मकान पूजा ,पानी पूजा , पशु पूजा , आग पूजा , मिट्टी पूजा , वृक्ष पूजा , श्मशान पूजा , मुसलमान पूजा , मृतक पूजा , सूर्य पूजा , चाँद पूजा इत्यादि अनेक रोगों में फंसी हुई थी | और निकट था की इन रोगों के कारण यह हमेशा के लिए मिट जाती की महर्षि दयानंद और आर्य समाज रूपी चिकित्सक ने इसकी चिकित्सा की और वेद अमृत पिला कर इसके रोगों को दूर करके इसको एक परमात्मा का पुजारी बनाकर इस जाती को अमर कर दिया | यह भी आर्य समाज रूपी चिकित्सक की कृपा का फल है |
अतः आर्यसमाज पीडितो का वकील है ,रोगियों का डॉक्टर है और सोते हुओ का चौकीदार है |इस लिए आप सबका कर्तव्य बनता है की आर्य समाज केछृथृ साथ मिल कर देश और जाति का उद्धार करने में सहायक बने |
ओउम्

Rishi Gatha

rishi dayanand

ऋषि गाथा ओ3म् ऽ ओ3म् ऽ ओ3म्।। हम आज एक ऋषिराज की पावन कथा सुनाते हैं। आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं। हम कथा सुनाते हैं। ओ3म् ऽ हम एक अमर इतिहास के कुछ पन्ने पलटाते हैं। आनन्दकन्द ऋषि दयानन्द की गाथा गाते हैं। हम कथा सुनाते हैं। ऋषिवर को लाख प्रणाम, गुरुवर को लाख प्रणाम।।… धर्मधुरन्धर मुनिवर को कोटि-कोटि प्रणाम, कोटि-कोटि प्रणाम।। टेक।।

भारत के प्रान्त गुजरात में एक ग्राम है टंकारा। उस गाँव के ब्राह्मण कुल में जन्मा इक बालक प्यारा। बालक के पिता थे करसन जी माँ थी अमृतबाई। उस दम्पति से हम सबने इक अनमोल निधि पाई। हम टंकारा की पुण्यभूमि को शीश झुकाते हैं।। 1।।

फिर नामकरण की विधि हुई इक दिन करसन जी के घर। अमृत बा का प्यारा बेटा बन गया मूलशंकर। पाँचवे वर्ष में स्वयं पिता ने अक्षरज्ञान दिया। आठवें वर्ष में कुलगुरु ने उपवीत प्रदान किया। इस तरह मूलजी जीवनपथ पर चरण बढ़ाते हैं।। 2।।

जब लगा चौदहवाँ साल तो इक दिन शिवरात्रि आई। उस रात की घटना से कुमार की बुद्धि चकराई। जिस घड़ि चढ़े शिव के सिर पर चूहे चोरी-चोरी। मूलजी ने समझी तुरंत मूर्तिपूजा की कमजोरी। हर महापुरुष के लक्षण बचपन में दिख जाते हैं।। 3।।

फिर इक दिन माँ से पुत्र बोला माँ दुनियाँ है फानी। मैं मुक्ति खोजने जाऊँगा पानी है ये जिन्दगानी। चुपचाप सुन रहे थे बेटे की बात पिता ज्ञानी। जल्दी से उन्होंने उसका ब्याह कर देने की ठानी। इस भाँति ब्याह की तैयारी करसन जी कराते हैं।। 4।।

शादी की बात को सुनके युवक में क्रान्तिभाव जागे। वे गुपचुप एक सुनसान रात में घर से निकल भागे। तेजी से मूलजी में आए कुछ परिवर्तन भारी। दीक्षा लेकर वो बने शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी। हम कभी-कभी भगवान की लीला समझ न पाते हैं।। 5।।

फिर जगह-जगह पर घूम युवक ने योगाभ्यास किया। कुछ काल बाद पूर्णानन्द ने उनको संन्यास दिया। जिस दिवस शुद्ध चैतन्य यहाँ संन्यासी पद पाए। वो स्वामी दयानन्द सरस्वती उस दिन से कहलाए। हम जगप्रसिद्ध इस नाम पे अपना हृदय लुटाते हैं।। 6।।

संन्यास बाद स्वामी जी ने की घोर तपश्चर्या। सच्चे सद्गुरु की तलाश यही थी उनकी दिनचर्या। गुजरात से पहुँचे विन्ध्याचल फिर काटा पन्थ बड़ा। फिर पार करके हरिद्वार हिमालय का रस्ता पकड़ा। अब स्वामीजी के सफर की हम कुछ झलक दिखाते हैं।। 7।।

तीर्थों में गए मेलों में गए वो गए पहाड़ों में। जंगल में गए झाड़ी में गए वो गए अखाड़ों में। हर एक तपोवन तपस्थलि में योगीराज ठहरे। पर हर मुकाम पर मिले उन्हें कुछ भेद भरे चेहरे। साधू से मिले सन्तों से मिले वृद्धों से मिले स्वामी। जोगी से मिले यतियों से मिले सिद्धों से मिले स्वामी। त्यागी से मिले तपसी से मिले वो मिले अक्खड़ों से। ज्ञानी से मिले ध्यानी से मिले वो मिले फक्कड़ों से। पर कोई जादू कर न सका मन पर स्वामी जी के। सब ऊँची दूकानों के उन्हें पकवान लगे फीके। योगी का कलेजा टूट गया वो बहुत हताश हुए। कोई सद्गुरु न मिला इससे वो बहुत निराश हुए। आँखों से छलकते आँसू स्वामी रोक न पाते हैं।। 8।। इतने में अचानक अन्धकार में प्रकटा उजियाला। प्रज्ञाचक्षु का पता मिला इक वृद्ध सन्त द्वारा। मथुरा में रहते थे एक सद्गुरु विरजानन्द नामी। उनसे

मिलने तत्काल चल पड़े दयानन्द स्वामी। आखिर इक दिन मथुरा पहुँचे तेजस्वी संन्यासी। गुरु के दर्शन से निहाल हुई उनकी आँखे प्यासी। गुरु के अन्तर्चक्षुने पात्र को झट पहचान लिया। उसकी प्रतिभा को पहले ही परिचय में जान लिया। सद्गुरु की अनुमति मांग दयानन्द उनके शिष्य बने। आगे चलकर के यही शिष्य भारत के भविष्य बने। गुरु आश्रम में स्वामी जी ने जमकर अभ्यास किया। हर विद्या में पारंगत बन आत्मा का विकास किया। जो कर्मठ होते हैं वो मंझिल पा ही जाते हैं।। 9।।

गुरुकृपा से इक दिन योगिराज वामन से विराट बने। वो पूर्ण ज्ञान की दुनियाँ के अनुपम सम्राट बने। सब छात्रों में थे अपने दयानन्द बड़े बुद्धिशाली। सारी शिक्षा बस तीन वर्ष में पूरी कर ड़ाली। जब शिक्षा पूर्ण हुई तो गुरुदक्षिणा के क्षण आए। मुट्ठीभर लौंग स्वामी जी गुरु की भेंट हेतु लाए। जो लौंेग दयानन्द लाए थे श्रद्धा से चाव से। वो लौंग लिए गुरुजी ने बड़े ही उदास भाव से। स्वामी ने गुरु से विदा माँगी जब आई विदा घड़ी। तब अन्ध गुरु की आँख में गंगा-यमुना उमड़ पड़ी। वो दृष्य देखकर हुई बड़ी स्वामी को हैरानी। पर इतने में ही मुख से गुरु के निकल पड़ी वाणी। जो वाणी गुरुमुख से निकली वो हम दोहराते हैं।। 10।।

गुरु बोले सुनो दयानन्द मैं निज हृदय खोलता हूँ। जिस बात ने मुझे रुलाया है वो बात बोलता हूँ। इन दिनों बड़ी दयनीय दशा है अपने भारत की। हिल गईं हैं सारी बुनियादें इस भव्य इमारत की। पिस रही है जनता पाखण्डों की भीषण चक्की में। आपस की फूट बनी है बाधा अपनी तरक्की में। है कुरीतियों की कारा में सारा समाज बन्दी। संस्कृति के रक्षक बनें हैं भक्षक हुए हैं स्वच्छन्दी। कर दिया है गन्दा धर्म सरोवर मोटे मगरों ने। जर्जरित जाति को जकड़ा है बदमाश अजगरों ने। भक्ति है छुपी मक्कारों के मजबूत शिकंजों में। आर्यों की सभ्यता रोती है पापियों के फंदों में। गुरु की वाणी सुन स्वामी जी व्याकुल हो जाते हैं।। 12।।

गुरु फिर बोले ईश्वर बिकता अब खुले बजारों में। आया है भयंकर परिवर्तन आचार-विचारों में। हर चबूतरे पर बैठी है बन-ठन कर चालाकी। उस ठगनी ने है सबको ठगा कोई न रहा बाकी। बीमार है सारा देश चल रही है प्रतिकूल हवा। दिखता है नहीं कोई ऐसा जो इसकी करे दवा। हे दयानन्द इस दुःखी देश का तुम उद्धार करो। मँझधार में है बेड़ा बेटा तुम बेड़ा पार करो। इस अन्ध गुरु की यही है इच्छा इस पर ध्यान धरो। भारत के लिए तुम अपना सारा जीवन दान करो। संकट में है अपनी जन्मभूमि तुम जाओ करो रक्षा। जाओ बेटे भारत के भाग्य का तुम बदलो नक्क्षा। स्वामी जी गुरु की चरणधूल माथे पे लगाते हैं।। 13।।

गुरु की आज्ञा अनुसार इस तरह अपने ब्रह्मचारी। करने को देश उद्धार चल पड़े बनके क्रान्तिकारी। कर दिया शुरु स्वामी जी ने एक धुँआधार दौरा। हर नगर-गाँव के सभी कुम्भकर्णों को झँकझोरा। दिन-रात ऋषि ने घूम-घूम कर अपना वतन देखा। जब अपना वतन देखा तो हर तरफ घोर पतन देखा। मन्दिरों पे कब्जा कर लिया था मिट्टी के खिलौनों ने। बदनाम किया था भक्ति को बदनीयत बौनों ने। रमणियाँ उतारा करती थी आरती महन्तों की। वो दृष्य देखती रहती थी टोली श्रीमन्तों की। छिप-छिप कर लम्पट करते थे परदे में प्रेमलीला। सारे समाज के जीवन का ढाँचा था हुआ ढीला। यह देख ऋषि सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजाते हैं।। 14।।

क्रान्ति का करके ऐलान ऋषि मैदान में कूद पड़े। उनके तेवर को देख हो गए सबके कान खड़े। इक हाथ में था झंडा उनके इक हाथ में थी लाठी। वो चले बनाने हर हिन्दू को फिर से वेदपाठी। हरिद्वार में कुम्भ का मेला था ऐसा अवसर पाकर। पाखण्ड खण्डनी ध्वजा गाड़ दी ऋषि ने वहाँ जाकर। फिर लगे घुमाने संन्यासी जी खण्डन का खाण्डा। कितने ही गुप्त बातों का उन्होंने फोड़ दिया भाँडा। धज्जियाँ उड़ा दी स्वामी ने सब झूठे ग्रन्थों की। बखिया उधेड़ कर रख दी सारे मिथ्या पन्थों की। ऋषिवर ने तर्क तराजू पर सब धर्मग्रन्थ तोले। वेदों की तुलना में निकले वो सभी ग्रन्थ पोले। वेदों की महत्ता स्वामी जी सबको समझाते हैं।। 15।।

चलती थी हुकूमत हर तीरथ में लोभी पण्ड़ों की। स्वामी ने पोल खोली उनके सारे हथकण्ड़ों की। आए करने ऋषि का विरोध गुण्डे हट्टे-कट्टे। पर अपने वज्रपुरुष ने कर दिए उनके दाँत खट्टे। दुर्दशा देश की देख ऋषि को होती थी ग्लानी। पुरखों की इज्जत पर फेरा था लुच्चों ने पानी। बन गए थे देश के देवालय लालच की दुकानें। मन्दिरों में राम के बैठी थीं रावण की सन्तानें। स्वामी ने हर भ्रष्टाचारी का पर्दाफाश किया। दम्भियों पे करके प्रहार हरेक पाखण्ड का नाश किया। लाखों हिन्दू संगठित हुए वैदिक झंडे के तले। जलनेवाले कुछ द्वेषी इस घटना से बहुत जले। इस तरह देश में परिवर्तन स्वामी जी लाते हैं।। 16।।

कुछ काल बाद स्वामी ने काशी जाने की ठानी। उस कर्मकाण्ड की नगरी पर अपनी भृकुटि तानी। जब भरी सभा में स्वामी की आवाज बुलन्द हुई। तब दंग हो गए लोग बोलती सबकी बन्द हुई। वेदों में मूर्तिपूजा है कहाँ स्वामी ने सवाल किया। इस विकट प्रश्न ने सभी दिग्गजों को बेहाल किया। काशीवालों ने बहुत सिर फोड़ा की माथापच्ची। पर अन्त में निकली दयानन्द जी की ही बात सच्ची। मच गया तहलका अभिमानी धर्माधिकारियों में। भारी भगदड़ मच गई सभी पंडित-पुजारियों में। इतिहास बताता है उस दिन काशी की हार हुई। हर एक दिशा में ऋषिराजा की जय-जयकार हुई। अब हम कुछ और करिश्में स्वामी के बतलाते हैं।। 17।।

उन दिनों बोलती थी घर-घर में मर्दों की तूती। हर पुरुष समझता था औरत को पैरों की जूती। ऋषि ने जुल्मों से छुड़वाया अबला बेचारी को। जगदम्बा के सिंहासन पर बैठा दिया नारी को। बदकिस्मत बेवाओं के भाग भी उन्होंने चमकाए। उनके हित नाना नारी निकेतन आश्रम खुलवाए। स्वामी जी देख सके ना विधवाओं की करुण व्यथा। करवा दी शुरु तुरन्त उन्होंने पुनर्विवाह प्रथा। होता था धर्म परिवर्तन भारत में खुल्लम-खुल्ला। जनता को नित्य भरमाते थे पादरी और मुल्ला। स्वामी ने उन्हें जब कसकर मारा शुद्धि का चाँटा। सारे प्रपंचियों की दुनियाँ में छा गया सन्नाटा। फिर भक्तों के आग्रह से स्वामी मुम्बई जाते हैं।। 18।।

भारत के सब नगरों में नगर मुम्बई था भाग्यशाली। ऋषि जी ने पहले आर्य समाज की नींव यहीं डाली। फिर उसी वर्ष स्वामी से हमें सत्यार्थ प्रकाश मिला। मन पंछी को उड़ने के लिए नूतन आकाश मिला। सदियों से दूर खड़े थे जो अपने अछूत भाई। ऋषि ने उनके सिर पर इज्जत की पगड़ी बँधवाई। जो तंग आ चुके थे अपमानित जीवन जीने से। उन सब दलितों को लगा लिया स्वामी ने सीने से। मुम्बई के बाद इक रोज ऋषि पंजाब में जा निकले। उनके चरणों के पीछे-पीछे लाखों चरण चले। लाखों लोगों ने मान लिया स्वामी को अपना गुरु। सत्संग कथा प्रवचन कीर्तन घर-घर हो गए शुरु। स्वामी का जादू देख विरोधी भी चकराते हैं।। 19।।

पंजाब के बाद राजपूताना पहुँचे नरबंका। देखते-देखते बजा वहाँ भी वेदों का डंका। अगणित जिज्ञासु आने लगे स्वामी की सभाओं में। मच गई धूम वैदिक मन्त्रों की दसों दिशाओं में। सब भेद भाव की दीवारों को चकनाचूर किया। सदियों का कूड़ा-करकट स्वामी जी ने दूर किया। ऋषि ने उपदेश से लाखों की तकदीर बदल डाली। जो बिगड़ी थी वर्षों से वो तस्वीर बदल ड़ाली। फिर वीर भूमि मेवाड़ में पहुँचे अपने ऋषि ज्ञानी। खुद उदयपुर के राणा ने की उनकी अगुवानी। राणा ने उनको देनी चाही एकलिंग जी की गादी। पर वो महन्त की गादी ऋषि ने सविनय ठुकरा दी। इतने में जोधपुर का आमन्त्रण स्वामी पाते हैं।। 20।।

उन दिनों जोधपुर के शासन की बड़ी थी बदनामी। भक्तों ने रोका फिर भी बेधड़क पहुँच गए स्वामी। जसवतसिंह के उस राज में था दुष्टों का बोलबाला। राजा था विलासी इस कारण हर तरफ था घोटाला। एक नीच तवायफ बनी थी राजा के मन की रानी। थी बड़ी चुलबुली वो चुड़ैल करती थी मनमानी। स्वामी ने राजा को सुधारने किए अनेक जतन। पर बिलकुल नहीं बदल पाया राजा का चाल-चलन। कुलटा की पालकी को इक दिन राजा ने दिया कन्धा। स्वामी को भारी दुःख हुआ वो दृश्य देख गन्दा। स्वामी जी बोले हे राजन् तुम ये क्या करते हो। तुम शेर पुत्र होकर के इक कुतिया पर मरते हो। स्वामी जी घोर गर्जन से सारा महल गुँजाते हैं।। 21।।

राजा ने तुरत माफी माँगी होकर के शरमिंदा। पर आग-बबूला हो गई वेश्या सह न सकी निन्दा। षडयन्त्र रचा ऋषि के विरुद्ध कुलटा पिशाचिनी ने। जहरीला जाल बिछाया उस विकराल साँपिनी ने। वेश्या ने ऋषि के रसोइये पर दौलत बरसा दी। पाकर सम्पदा अपार वो पापी बन गया अपराधी। सेवक ने रात में दूध में गुप-चुप सखिया मिला दिया। फिर काँच का चूरा ड़ाल ऋषिराजा को पिला दिया। वो ले ऋषि ने पी लिया दूध वो मधुर स्वाद वाला। पर फौरन स्वामी भाँप गए कुछ दाल में है काला। अपने सेवक को तुरन्त ही बुलवाया स्वामी ने। खुद उसके मुख से सकल भेद खुलवाया स्वामी ने। पश्चातापी को महामना नेपाल भगाते हैं।। 22।।

आए डाक्टर आए हकीम और वैद्यराज आए। पर दवा किसी की नहीं लगी सब के सब घबराए। तब रुग्ण ऋषि को जोधपुर से ले जाया गया आबू। पर वहाँ भी उनके रोग पे कोई पा न सका काबू। आबू के बाद अजमेर उन्हें भक्तों ने पहुँचाया। कुछ ही दिन में ऋषि समझ गए अब अन्तकाल आया। वे बोले हे प्रभू तूने मेरे संग खूब खेल खेला। तेरी इच्छा से मैं समेटता हूँ जीवनलीला। बस एक यही बिनति है मेरी हे अन्तर्यामी। मेरे बच्चों को तू सँभालना जगपालक स्वामी। जब अन्त घड़ि आई तो ऋषि ने ओ3म् शब्द बोला। केवल ओम् शब्द बोला। फिर चुपके से धर दिया धरा पर नाशवान् चोला। इस तरह ऋषि तन का पिंजरा खाली कर जाते हैं।। 23।।

संसार के आर्यों सुनो हमारा गीत है इक गागर। इस गागर में हम कैसे भरें ऋषि महिमा का सागर। स्वामी जी क्या थे कैसे थे हम ये न बता सकते। उनकी गुण गरिमा अल्प समय में हम नहीं गा सकते। सच पूछो तो भगवान का इक वरदान थे स्वामी जी। हर दशकन्धर के लिए राम का बाण थे स्वामी जी। प्रतिभा के धनि एक जबरदस्त इन्सान थे स्वामी जी। हिन्दी हिन्दू और हिन्दुस्थान के प्राण थे स्वामी जी। क्या बर्मा क्या मॉरिशस क्या सुरिनाम क्या फीजी। इन सब देशों में विद्यमान् हैं आज भी स्वामी जी। केनिया गुआना त्रिनिदाद सिंगापुर युगंडा। उड़ रहा सब जगह बड़ी शान से आर्यों का झंड़ा। हर आर्य समाज में आज भी स्वामी जी मुस्काते हैं।। 24।।

बहुकुण्डी यज्ञ – एक विवेचना आचार्य सुनील शास्त्री

Bahu Kundeey Yagay

 

‘‘ओ३म्’’

आज आर्य समाजों व सम्पन्न श्रद्धालु आर्यों में बहुकुण्डी यज्ञ व वेद – परायण यज्ञों का प्रचलन तीव्रता से हो रहा है । प्रायः समाजों व परिवारों में उत्सवादि विशेष अवसरों पर इनका आयोजन होना अब सामान्य बात है । सामान्यतः यह सब देख – सुनकर आर्यजनों के सुखद अनुभूति व उत्साह मिलता है । आर्य उपदेशकों द्वारा भी इनके आयोजन हेतु उत्साह व प्रेरणा मिलती है । आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने वेद और वेदानुकूल शास्त्रोक्त उपदेशों को मनसा – वाचा – कर्मणा पालन करना ही (आर्योचित) धर्म माना है । अतः अब इनकी कसौटी पर बहुकुण्डी यज्ञ की प्रामाणिकता को हम कसते हैं । हम देखेंगे कि वेद व वेदानुकूल शास्त्र तथा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज कहाँ तक इसका अनुमोदन करते हैं ? साथ ही साथ यह भी विचारणीय है कि इस नव – प्रतिष्ठित याज्ञिक – परम्परा से क्या – क्या लाभ व हानियाँ हो रही हैं ।

वेदों में द्रव्य – यज्ञों का कहीं भी स्पष्ट वर्णन नहीं है । ऋषियों ने बाद में वेद – मन्त्रों के आधार पर इन यज्ञों का आविष्कार किया । अतः वेदों में बहुकुण्डी ही नहीं किसी भी प्रकार के शास्त्रीय यज्ञों सोमयाग , अश्वमेधादि का प्रत्यक्ष वर्णन नहीं है ।

(विशेष – विस्तृत अध्ययन के लिए महामहोपाध्याय पं० युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा विरचित ‘‘श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय’’ नामक पुस्तक पढ़ें प्रकाशक – रामलाल कपूर ट्रस्ट)

कल्प साहित्य मूलतः कर्मकाण्डीय है । इन ग्रन्थों में भी कहीं भी बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन अथवा संकेत भी नहीं है । इनमें वैदिक याज्ञिक कर्मकाण्ड का सविस्तार व विधिवत् सर्वांगरूपेण वर्णन है । किन्तु बहुकुण्डी व वेद – परायण का कहीं संकेत भी नहीं है ।

गुरूवर महर्षि देव दयानन्द जी ने भी अपने कर्मकाण्डीय ग्रन्थ संस्कार – विधि अथवा पञ्च महायज्ञ – विधि अथवा अपने अन्य किसी भी ग्रन्थ में इस बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन व संकेत नहीं किया है । महर्षि ने सर्वत्र ही अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों की चर्चा की है ।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बहुकुण्डी यज्ञ का वर्णन वेद अथवा प्राचीन प्रामाणिक याज्ञिक ग्रन्थों में कहीं भी नहीं मिलता है । साथ ही साथ यह महर्षि की इच्छाओं व मन्तव्यों के भी सर्वथा विरूद्ध है ।

श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी, पूर्व उपकुलपति गुरूकुल काँगडी विश्वविद्यालय , ने अपने ग्रन्थ यज्ञ – मीमांसा में इस विषय में स्पष्ट लिखते हैं – ‘‘वेदों में या किसी अन्य प्रामाणिक प्राचीन आर्ष ग्रन्थ में बहुकुण्डी यज्ञ का विधान भी हमें अद्यावधि प्राप्त नहीं हो सका है ।’’ – (यज्ञ मीमांसा, भूमिका , प्रकाशित – विजय कुमार गोविन्द राम हासानन्द)

बहुकुण्डी यज्ञ के प्रचलन के कारण – वेद , वेदानुकूल आर्ष याज्ञिक ग्रन्थों तथा महर्षि के ग्रन्थों में भी बहुकुण्डी यज्ञ का विधान का समर्थन न होने के बावजूद आर्य समाजों में बहुकुण्डी यज्ञ प्रचलित हुआ और क्रमशः बढ़ता जा रहा है । जबकि महर्षि की इच्छा अश्वमेधादि शास्त्रीय यज्ञों के प्रचार – प्रसार की भी । किन्तु आर्य समाज में कहीं भी किसी भी विद्वान द्वारा इस विषय में कोई विशेष प्रयत्न नहीं दिखता है । इसका कारण महामहोपाध्याय श्रद्धेय पं० युधिष्ठिर मीमांसक जी लिखते हैं (यद्यपि वहाँ वेद – परायण यज्ञ का प्रसंग है किन्तु बहुकुण्डी यज्ञ  भी वेद – परायण यज्ञ की भाँति अनार्ष ही है; अतः यह कथन यहाँ भी ठीक बैठता है) ‘‘आजकल आर्य समाज में जो विद्वान् हैं , उनमें एक भी व्यक्ति ऋषि दयानन्द प्रदर्शित पाठविधि के अनुसार शिक्षा से लेकर वेदपर्यन्त अध्ययन किया हुआ नहीं है ।’’—- यही कारण है कि ऋषि दयानन्द के मन्त्रव्यों को आज के आर्य समाज के विद्वान यथावत् समझने में प्रायः असमर्थ हैं ।’’ वे पुनः आगे लिखते हैं – ‘‘आर्य समाज में ऋषि दयानन्द प्रदर्शित अग्नि होत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त यज्ञों का प्रचलन होने का प्रधान कारण ब्राह्मणग्रन्थों तथा श्रौतसूत्रों का यथावत् अध्ययन करना है ।’’ – (श्रौत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय , उपोद्घात , प्रकाशक – रामलाल कपूर ट्रस्ट)

विशेष – परमात्मा की असीम कृपा से मैं व्यक्तिगत रूप से एक ऐसे तपोनिष्ठ ऋषि – भक्त आचार्य को जानता हूँ जिन्होंने तपस्या पूर्वक महर्षि निर्देशित पाठ – विधि के अनुसार शिक्षा से लेकर वेद पर्यन्त अध्ययन किया है , किन्तु दुर्भाग्य से उस दिव्यात्मा को भी महर्षि की इच्छानुसार वेद के विद्वान तैयार करने के लिए महान् संघर्ष करना पड़ रहा है । न तो उनको उचित स्थान है और न ही पर्याप्त संसाधन । यदि होते तो वे निश्चिन्त होकर वेद के विद्वानों का निर्माण कर सकते थे। महान् दुर्भाग्य है कि आर्य समाज के पास भवन – निर्माण के लिए करोड़ों रूपये हैं; अन्यान्य कार्यों के लिए संसाधन है किन्तु वेद के विद्वान् के निर्माण के लिए कोई योजना नहीं है । अन्यथा कोई कारण नहीं कि ऐसे उद्भट् विद्वान् को भटकना पड़े ।

बहुकुण्डी यज्ञ के लाभ – बहुकुण्डी यज्ञ के समर्थन में अनेक तर्क दिये जाते हैं । इस विषय में हम स्वयं कुछ न कहकर श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकर जी को ही उद्घृत करते हैं –

बहुकुण्डी यज्ञ की निम्नलिखित विशेषताएँ कही जा सकती हैं –

१. एक ही काल में अधिक यजमान हो सकते हैं तथा उन सभी को एक साथ आहुति डालने का अवसर प्राप्त हो सकता है । —–

२. सब यजमानों का सब यज्ञ – कुण्डों के लिए पुरोहित तथा वेदपाठी एक ही रहते हैं । यदि अलग – अलग स्थानों पर  १-१ कुण्ड रखकर १०१ यज्ञ होते, तो पुरोहित तथा वेदपाठी भी अलग – अलग रखने पड़ते ।

३. ब्रह्मा की ओर से सबको उपदेश भी इकट्ठा मिल जाता है । अलग – अलग स्थानों पर यज्ञ की जो अलग – अलग व्यवस्था करनी पड़ती उससे भी बच जाते हैं ४. पुरोहितों को एक ही काल में अनेक यजमानों की ओर से दक्षिणा मिलने से दक्षिणा की राशि पुष्कल हो जाती है जिसे वे किसी सत्कार्य में लगा सकते हैं । ——–

वे आगे लिखते हैं – ‘‘किन्तु हमारे विचार से बहुकुण्डी यज्ञों को प्रोत्साहित किया जाना ही उचित है एक स्थान पर अनेक कुण्डों में यज्ञ करने की अपेक्षा अनेक स्थानों पर एकएक कुण्ड से यज्ञ किये जाने में अधिक लाभ है । अनेक स्थानों पर अलग – अलग यज्ञ होगा , तो उन सब स्थानों का वायुमण्डल यज्ञीय सुगन्ध से शुद्ध होगा और सब स्थानों से सुगन्ध चारों ओर फैलेगी । उस स्थिति में पुरोहित भी भिन्न व्यक्ति हो सकते हैं , जिससे पौरोहित्य कुछ ही विद्वानों में सीमित न रहकर बहुव्यापी हो सकेगा ।’’—– ‘‘श्रद्धेय आचार्य जी आगे एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात रखते हैं — कहा जाता है कि सार्वजनिक यज्ञ में यदि एक ही कुण्ड होगा , तो गिने – चुने लोग ही आहुति डाल सकेंगे , शेष लोग आहुति डालने के पुण्य से वंचित ही रह जायेंगे । किन्तु सबको आहुति डालने का पुण्य तो बहुकुण्डी यज्ञों में भी नहीं मिल पाता , यजमानों को ही मिलता है । दूसरे , आहुति डालने का पुण्यलाभ करना है , तो घर पर दैनिक अग्निहोत्र से कीजिए । सार्वजनिक यज्ञ में तो सम्मिलित होने का ही पुण्य है ।’’ – (यज्ञ मीमांसा भूमिका)

बहुकुण्डी यज्ञों से हानि – अब बहुकुण्डी यज्ञ से होने वाले हानियों पर विचार करते हैं ।

१. वेदानुकूल शास्त्रीय सोमयाग , अश्वमेधादि यज्ञों का प्रचलन न होना । फलतः इन शास्त्रीय यज्ञों में निहित सृष्टि – विज्ञान व अन्य विज्ञान का ज्ञान न होना ।

२. महर्षि दयानंद की इच्छाओं व आज्ञाओं का हनन ।

३. वेद , ब्राह्मण , कल्पादि आर्ष ग्रन्थों के पठन – पाठन में शिथिलता ।

४. यज्ञों की शास्त्रीय एकरूपता का हनन होकर मनमाने ढ़ंग के यज्ञों का प्रचलन । इससे शास्त्र व संगठन की महती हानि ।

५. यज्ञों में अनेक प्रकार के आडम्बरों का प्रवेश ।

६. शास्त्रीय यज्ञ सत्य वेदार्थ को भी समझने में सहायक हैं । अतः इनके लोप से सही वेदार्थ भी असम्भव है ।

अन्त में विनम्र निवेदन है कि प्रस्तुत लेख का एक मात्र उद्देश्य वेदानुकूल शास्त्रीय यज्ञों के प्रचार – प्रसार को प्रेरित करना है । इसमें किसी को कहीं भी कोई शंका हो अथवा कुछ भी शास्त्र – विरूद्ध लगे कृपया सप्रमाण अवश्य ही लिखें, मेरा ज्ञानवर्द्धन होगा ।

 

आचार्य सुनील शास्त्री

E-mail id – achangasumlshashln@gmail.com

चलभाष –  ९८३७५१८८७३

 

क्या वेदों में वर्णित जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ?(चार्वाक मत खंडन )

मित्रो कई नास्तिक वादी और अम्बेडकर वादी वेदों पर चार्वाक दर्शन के आधार पर आरोप लगाते है कि वेदों में जर्भरी तुर्फरी का कोई अर्थ नही है ये युही लिखे गये है | कुछ दलित साहित्य कार जो आर्यों को विदेशी साबित करने पर तुले है वो कहते है कि ये ईराक आदि देशो के नदियों या किसी शहर के नाम थे जहा से आर्य भारत आये |
इस तरह की काल्पनिक बातें या कहानिया ये लोग गढ़ लेते है |
चार्वाक कहते है :-

” त्रयो वेदस्य कर्तारो भंडधूर्तनिशाचरा:|
जर्फरीतुर्फरीत्यादी पंडितानां वच: स्मृतम्||चार्वाक||”
भंड ,धूर्त ,निशाचर ये लोग वेदों के कर्ता है |इनके नाना प्रकार के बेमतलब शब्दों जर्भरी तुर्फरी से वेद भरा पड़ा है |
यहा चार्वाक और अनेक अम्बेडकर वादी ये भ्रम पैदा कर दिया कि वेदों में कई अनर्थक बिना मतलब वाले शब्द है |जिनका कोई अर्थ नही है | तो कुछ इन शब्दों को संस्कृत का न बता कर अन्य भाषा का बताते है |क्यूंकि ये लोग लोकिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत के भेद से परिचित नही है या थे इसलिए इस तरह की कल्पनाये या बातें मन में धारण कर लेते है |
वेदों में वर्णित सभी शब्द या धातु अपना अर्थ रखती है ..
इस संधर्भ में निरुक्त में कौत्स के नाम से ऐसा पूर्वपक्ष उठाकर यही बात कहलाई गयी है | और यास्क उत्तर देते हुए कहते है कि वेदों में वर्णित सभी शब्दों के अर्थ है और स्पष्ट अर्थ है |
जैमिनी मुनि ने मीमासा में पूर्वपक्ष में इस तरह के प्रश्नों का समाधान करते हुए कहा है कि वेदों में सब शब्द अर्थ पूर्ण है |
ये जर्भरि और तुर्फरी शब्द ऋग्वेद के १०/१०६/६ में आये है :-
” सृण्येव जर्भरी तुर्फरीतु नैतोशेव तुर्फरी पर्फरीका |
उदन्यजेव जेमना म्देरु ता में जराय्वजरं मरायु ||६||”

ये दोनों शब्द दिवचन है और अश्विनो के विशेषण है यास्क मुनि निरुक्त परिशिष्ट अध्याय १३ के ६ खंड में इन शब्दों का अर्थ स्पष्ट करते हुए ऋग्वेद के १०/१०६/६ की व्याख्या करते हुए कहते है – ” सृण्येवेति द्विविधा सृणिर्भवति भर्ता च हन्ता च तथाश्विनौ चापि भर्तारो जर्भरी भर्तारावित्यर्थस्तूर्फरीतू हन्तारो| निरुक्त १३/६/४ |
यहा इसे अश्विनो का विशेषण बताते हुए यास्कचार्य जर्भरी को भर्ता से व्यक्त करते है अर्थात पोषण करने वाला अत: जर्भरी का अर्थ हुआ पोषण करने वाला |
तुर्फरी को हन्ता से व्यक्त करते है अर्थात ताड़ने वाला या मारने वाला होता है | अत: तुर्फरी का अर्थ हुआ मारने वाला या सताने वाला |
यहा दोनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट कर दिया है |
अश्विनी का अर्थ विद्युत भी होता है और इस मन्त्र में इसे यास्क ने इसी का विशेषण बताया है |  इस मन्त्र में जर्भरी ओर तुर्फरी को पालन करने वाला बताया है जेसा की हम देखते है कि विद्युत का कई तरह से उपयोग कर हम अपने जीवन को सरल और आरामदायक बना रहे है ,जैसे मिक्सी ,चक्की ,फ्रिज,वाशिंगमशीन ,हीटर आदि में विद्युत के उपयोग द्वारा …
तो दूसरी तरफ यही विद्युत दुर्घटना वश लोगो को करंट दे कर ताड़ती है ,कई बार आकाशी विद्युत गिर जाती है तो बहुत हानि करती है ,अत्यधिक वोल्टेज के या ३ फेस तारो को कोई छू लेता है तो वो मर जाता है या विधुयुत उसे मारती है ..इस तरह इस मन्त्र में यही रहस्य प्रकट करते हुए विद्युत को जर्भरी पालने वाली और तुर्फरी नाशक बताया गया है |
इन सब प्रमाणों से इस बात का खंडन हो जाता है कि वेदों में बिना अर्थ वाले शब्द है या विदेशी शब्द है |
ओम ……………

मैंने इस्लाम क्यों छोड़ा………

leave islam

 

 

लेखक :डॉ आनंदसुमन सिंह पूर्व डॉ कुंवर रफत अख़लाक़ 

इस्लामी साम्प्रदाय में मेरी आस्था दृड़ थी | मै बाल्यकाल से ही इस्लामी नियमो का पालन किया करता था | विज्ञानं का विद्यार्थी बनने के पश्चात् अनेक प्रश्नों ने  मुझे इस्लामी नियमो पर चिन्तन करने हेतु बाध्य किया | इस्लामी नियमो में कुरआन या अल्लाहताला या हजरत मुहम्मद पर प्रश्न करना या शंका करना उतना ही अपराध है जितना किसी व्यक्ति के क़त्ल करने पर अपराधी माना जाता है |युवा अवस्था में आने के पश्चात् मेरे मस्तिष्क में सबसे पहला प्रश्न आया की अल्लाहताला रहमान व् रहीम है , न्याय करने वाला है ऐसा मुल्लाजी खुत्बा ( उपदेश ) करते है | फिर क्या कारण है की इस दुनिया में एक गरीब , एक मालदार , एक इन्सान , एक जानवर होते है | यदि अल्लाह का न्याय सबके लिए समान है जैसा कुरआन में वर्णन किया गया है , तब तो सबको एक जैसा होना चाहिए | कोई व्यक्ति जन्म से ही कष्ट भोग रहा है तो कोई आनन्द उठा रहा है |यदि संसार में यही सब है तो फिर अल्लाह न्यायकारी कैसे हुआ ? यह  प्रश्न मैंने अनेक वर्षो तक अपने मित्रो , परिजनों एवं मुल्ला मौलवियों से पूछता रहा किन्तु सभी का समवेत स्वर में एक ही उत्तर था , तुम अल्लाहताला के मामले में अक्ल क्यों लगाते हो ? मौज करो , अभी तो नैजवान हो | यह मेरे प्रश् का उत्तर नहीं था | निरंतर यह विषय मुझे बाध्य करता था और मै निरंतर यह प्रश्न अनेक जानकार लोगो से करता रहता था किन्तु इसका उत्तर मुझे कभी नहीं मिला | उत्तर मिला तो महर्षि दयानंद सरस्वती के पवित्र वैज्ञानिक ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में | जिसमे महर्षि ने व्यक्ति के अनेक एवं इस इस जन्म में किये गये सुकर्म या दुष्कर्मो को अगले जन्म में भोग का वर्णन किया | यह तर्क संगत था क्योंकि हम बैंक में जब खता खोलते है तो हमे बचत खाते पर नियमित छह माह में ब्याज मिलता है , मूलधन सुरक्षित रहता है , तथा स्थिर निधि पर एक साथ ब्याज मिलता है , उसी प्रकार जीवात्मा सृष्टि की उत्पत्ति के पश्चात् अनेक शरीरो, योनियों में परवेश करता है तथा अपने सुकर्मो और दुष्कर्मो का फल भोगता है |पुनर्जन्म के बिना यह सम्भव नही हो सकता | अतः पुनर्जन्म का मानना आवश्यक है किन्तु मुस्लिम समाज पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता |उनकी मान्यता तो यह है की चौहदवी शताब्दी में संसार मिट जाएगा | कयामत आएगी और फिर मैदानेहश्र में सभी का इंसाफ होगा |किन्तु उस मैदानेहश्र में जो भी हजरत मुहम्मद के ध्वज निचे आ जायेगा , मुहम्मद को अपना रसूल मान लेगा वही इन्सान बख्सा जाएगा | अर्थात उसे अपने कर्मो के फल भुक्त्ने का झंझट नहीं करना पड़ेगा और वह सीधा जन्नत में जावेगा , जो बुद्धिपरक नहीं लगता |क्योंकि एक व्यक्ति के कहने मात्र से यदि सारा खेल चलने लगे तो संसार में अन्य मत मतान्तरो को मानने की आवश्यकता क्यों पड़े ?और सृष्टि का अंत चौहदवी सदी में माना जाता है जबकि चौहदवी शदाब्दी तो समाप्त हो गयी | फिर यह संसार समाप्त क्यों नहीं हुआ ? कयामत क्यों नहीं आई ? क्या मुहम्मद साहब और इस्लाम से पूर्व यह संसार नहीं था ? क्योंकि इस्लाम के उदय को लगभग १५०० वर्ष हुए है संसार तो इससे पूर्व भी था और रहेगा | मेरा दूसरा प्रश्न था की जब एक मुस्लिम पीटीआई एक समय में चार पत्निया रख सकता है तो एक मुस्लिम औरत एक समय में चार पति क्यों नही राख सकती ? इस्लाम में औरत को अधिक अधिकार ही नही है | एक पुरुष के मुकाबले दो स्त्रियों की गवाही ही पूर्ण मानी जाती है | ऐसा क्यों ? आखिर औरत भी तो इंसानी जाती का अंग है | फिर उसे आधा मानना उस पर अत्याचार करना कहाँ की बुद्धिमानी है और कहाँ तक इसे अल्लाह ताला का न्याय माना जा सकता है ?८० साल का बुड्ढा १८ साल की लड़की से विवाह रचाकर इसे इस्लामी नियम मानकर संसार को मजहब के नाम पर मुर्ख बनाये यह कहाँ का न्याय है ?इस प्रश्न का उत्तर भी मुझे सत्यार्थ परकाश से मिला | महर्षि दयानंद ने महर्षि मनु और वेद वाक्यों के आधार पर सिद्ध किया की स्त्री और पुरुष दोनों का समान अधिकार है | एक पत्नी से अधिक तब ही हो सकती है जब कोई विशेष कारण हो (पत्नी बाँझ हो , संतान उत्पन्न न कर सकती हो ) अन्यथा एक पत्नीव्रत होना सव्भाविक गुण होना चाहिए | मनु ने कहा है –

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः  अर्थात जहाँ नारियो का सम्मान होता है वहां देवता वास करते है | तीसरा प्रश्न मेरे मन में था स्वर्ग व् नरक का | इस्लामी बन्धु मानते है की कयामत के बाद फैसला होगा | उसमे अच्छे कर्मो वालों को जन्नत और बुरे कर्मो वालो को दोजख मिलेगा | जन्नत का जो वर्णन है वह इस प्रकार है की वहां सेब , संतरे , शराब , एक व्यक्ति को सत्तर हुरे  तथा चिकने चुपड़े लौंडे मिलेंगे | मै मुल्ला मौलवियों व् मित्रो से पूछता था की बताये , जब एक पुरुष को जन्नत में लडकिय मिलेंगी तो मुस्लिम महिलाओं को क्या मिलेगा ? मेरे इस प्रश्न ने वे चिड़ते थे | चौहदवी सदी तो बीत गयी पर कयामत क्यों नही आई ? क्या अब नहीं आएगी ?अल्लाह के वायदे का क्या हुआ ?इससे क्या यह स्पष्ट नहीं की कुरआन किसी आदमी की लिखी है ?इन सब प्रश्नों से मेरा तात्पर्य किसी का दिल दुखाना नही अपितु केवल अपने मन में उठ रही शंकाओं का समाधान करना था | किन्तु कभी किसी ने मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया अपितु इन सब से दूर रहकर महज अल्लाह की इबादत में वक्त गुजारने और मौज उड़ाने का रास्ता दिखाया |

चौथा प्रश्न मेरे दिल में था सभ्यता का | मैंने मुस्लिम इतिहास गम्भीरता से अध्ययन किया है | इतिहास साक्षी है की इस्लाम कभी भी वैचारिकता या सवविवेक के कारण नहीं फैला अपितु इस्लाम आरम्भिक काल से अब तक तलवार का बल , भय , बहुपत्नी प्रथा , स्वर्ग का लोभ या धन का मोह आदि ही इस्लाम के विस्तार के कारण बने | इस्लाम की शैशव अवस्था में हजरत मुहम्मद साहब को अनेक युद्ध करने पड़े | स्वंय उनके चाचा अबुलहब ने अंतिम समय तक इस्लाम को नहीं स्वीकार किया क्योंकि वह उसे वैज्ञानिक व् तर्क सम्मत नहीं मानते थे | हजरत मुहम्मद को मक्का से निष्कासित भी होना पड़ा क्योंकि वह अरब की सभ्यता में आमूल परिवर्तन की कल्पना करते थे और अरब वासी अनेक कबीलों में बनते हुए थे | अबराह का लश्कर तो एक बार मक्का में स्थापित भगवान शंकर के विशाल शिवलिंग ( संगे अस्वाद ) को मक्का से ले जाने के लिए आया था किन्तु भीषण युद्ध में अनेको ने अपने प्राण गंवा दिए | यह मक्का शब्द भी संस्कृत के मख अर्थात यज्ञ शब्द का ही बिगड़ा रूप है | इस समय इस विषय पर चर्चा करना हमारा उद्देश्य नहीं है | मुस्लिम इतिहास में एक भी प्रमाण त्याग , समर्पण या सेवा का नही मिलता | वैदिक इतिहास के झरोखे से देखे तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम पिता की आज्ञा का पालन करते हुए वन को प्रस्थान करते है किन्तु दूसरी और औरंगजेब अपने पिता को जेल में कैद कर बूंद बूंद पानी के लिए तरसाता है | यह त्याग , समर्पण एवं सेवा का ही प्रतिफल है की विगत दो अरब वर्षो में वैदिक संस्कृति महँ बनी रह स्की |मेरे परिवार के इतिहास के साथ भी एक काला पृष्ठ जुदा है की उन्हें प्रलोभनवश अपना मूल धर्म त्याग कर इस्लाम में जाना पड़ा | मै स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ की आपकी पूजा पद्धति कुछ भी हो सकती है , आप किसी भी समुदाय के हो सकते है किन्तु जिस देश में प्ले बड़े है उस देश को तो अपनी माँ ही मानना चाहिए | राष्ट्रभक्ति किसी व्यक्ति का पहला कर्तव्य होना चाहिए , वैदिक धर्म की महानता के अनेक प्रमाण दिए जा सकते है किन्तु यहाँ मेरा उद्देश्य मात्र कुछ विचारों पर लिखना है |क्योंकि विगत छः वर्षो में मेरे सम्मुख यह प्रश्न रहा है की मै हिन्दू क्यों बना ?मै प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से हिन्दू ही मानता हूँ क्योंकि कोई मनुष्य बिना माँ के गर्भ के पैदा नहीं हो सकता यहाँ तक की विज्ञानं की पहुँच टेस्ट ट्यूब चाइल्ड को भी माँ के गर्भ में आश्रय लेना पड़ा , तभी उसका पूर्ण विकास सम्भव हो पाया है |अतः माँ के गर्भ में तो प्रत्येक हिन्दू ही होता है जन्म के पश्चात्  मुस्लमानिया कराए बिना मुसलमान और बपतिस्मा कराए बिना इसाई नहीं बना जा सकता |अतः इन क्रियाओं के पूर्व बच्चा काफिर अर्थात हिन्दू होता है अतः संसार का प्रत्येक शिशु हिन्दू है | मूल हम सबका वेद है अर्थात सत्य सनातन वैदिक धर्म | आशा है मेरे मित्र मेरी भावना को समझेंगे ,  मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओ को चोट पहुँचाने का नहीं है अपितु केवल अपने विचारों से समाज को अवगत कराना मात्र है | किन्तु यदि फिर भी किसी की भावनाओं को मेरे कारण ठेस लगे तो उन सबसे मै क्षमा – याचना करता हूँ |

क्या वेदों में यज्ञो में गौ आदि पशु मॉस से आहुति या मॉस को अतिथि को खिलाने का विधान है ??(अम्बेडकर के आक्षेप का उत्तर )..

नमस्ते मित्रो |
अम्बेडकर साहब आर्ष ग्रंथो और वैदिक ग्रंथो पर आक्षेप करते हुए अपनी लिखित पुस्तक “THE UNTOUCHABLE WHO WERE THEY WHY BECOME UNTOUCHABLES” में कहते है कि प्राचीन काल (वैदिक काल ) में गौ बलि और गौ मॉस खाया जाता था | इस हेतु अम्बेडकर साहब ने वेद (ऋग्वेद ) और शतपथ आदि ग्रंथो का प्रमाण दिया है |
हम उनके वेद पर किये आक्षेपों की ही समीक्षा करेंगे | क्युकि शतपत आदि ग्रंथो को हम मनुष्यकृत मानते है जिनमे मिलावट संभव है लेकिन वेद में नही अत: वेदों पर किये गए आक्षेपों का जवाब देना हमारा कर्तव्य है क्यूंकि मनु महाराज ने कहा है :-
” अर्थधर्मोपदेशञ्च वेदशास्त्राSविरोधिना |
यस्तर्केणानुसन्धते स धर्म वेदनेतर:||”-मनु
जो ऋषियों का बताया हुआ धर्म का उपदेश हो और वेदरूपी शास्त्र के विरुद्ध न हो और जिसे तर्क से भी सिद्ध कर लिया हो वही धर्म है इसके विरुद्ध नही |
मनु महाराज ने स्पष्ट कहा है कि यदि अन्य ग्रंथो में वेद विरुद्ध बातें है तो त्याज्य है | शतपत ,ग्र्ह्सुत्रो में जो गौ वध आदि की बात दी है वो वेद विरुद्ध और वाम मर्गियो द्वारा डाली गयी है ,पहले यज्ञो में पशु बलि नही होती थी | अब हम यहा बतायेंगे कि ये वाममार्ग और मॉस भक्षण का विधान कहा से आया तो पता चलता है यज्ञ सम्बंधित कर्मकांड वेद के यजुर्वेद का विषय है और यजुर्वेद की दो शाखाये है :-
शुक्ल यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद
यहा शुक्ल का अर्थ है शुद्ध ,सात्विक जबकि कृष्ण का तमोगुणी ,अशुद्ध |
अर्थात जिस यजुर्वेद में सतोगुणी यज्ञ का विधान हो वह शुक्ल है और जिसमे तमोगुणी (मॉस आहुति आदि ) का विधान है वो कृष्ण है |
इनमे से शुक्ल यजुर्वेद ही प्राचीन और अपोरुष मानी गयी वेद संहिता है जबकि कृष्ण बाद की और मनुष्यकृत है |
इस कृष्ण यजुर्वेद के संधर्भ में महीधर भाष्य भूमिका से पता चलता है कि याज्ञवल्क्य व्यास जी के शिष्य वैश्यायन के शिष्य थे | उन्होंने वैशम्पायन से यजुर्वेद पढ़ा | एक दिन किसी कारण वंश याज्ञवल्क्य जी पर वैशम्पायन क्रुद्ध हो गये | और कहा मुझ से जो पढ़ा है उसे छोड़ दो ,याज्ञवल्क्य ने वेद का वमन कर दिया |
तब वैशम्पायन जी ने दुसरे शिष्यों से कहा कि तुम इसे खा लो ,शिष्यों ने तुरंत तीतर बन कर उसे खा लिया |
उससे कृष्ण यजुर्वेद हुआ | यद्यपि ये बात साधारण मनुष्यों की बुधि में असंगत ओर निर्थक ठहरती है लेकिन बुद्धिमान लोग तुरंत परिणाम निकाल लेंगे |इससे पता चलता है कि तमो गुणी यज्ञ का विधान याज्ञवल्क्य के समय (महाभारत के बाद ) से चला |
और तभी से आर्ष ग्रंथो में मिलावट होना शुरू हो गयी थी |शतपत में भी याज्ञवल्क्य का नाम है अत: स्पष्ट है इसमें भी मिलावट हो गयी थी |और तामसिक यज्ञो का प्रचलन शुरू होने लगा …
जबकि प्राचीन काल में ऐसा नही था इसके बारे में स्वयं बुद्ध सुतानिपात में कहते है :-
“अन्नदा बलदा नेता बण्णदा सुखदा तथा
एतमत्थवंस ञत्वानास्सु गावो
हनिसुते |
न पादा न विसाणेन नास्सु हिंसन्ति केनचि
गानों एकक समाना सोरता कुम्भ दुहना |
ता विसाणे गहेत्वान राजा सत्येन घातयि |”
अर्थ -पूर्व समय में ब्राह्मण लोग गौ को अन्न,बल ,कान्ति और सुख देने वाली मानकर उसकी कभी हिंसा नही करते थे | परन्तु आज घडो दूध देने वाली ,पैर और सींग न मारने वाली सीधी गाय को गौमेध मे मारते है |
इसी तरह सुतनिपात के ३०० में बुद्ध ने ब्राह्मणों के लालची ओर दुष्ट हो जाने का उलेख किया है |
इससे पता चलता है कि बुद्ध के समय में भी यह ज्ञात था कि प्राचीन काल में यज्ञो में गौ हत्या अथवा गौ मॉस का प्रयोग नही था |इस संधर्भ में एक अन्य प्रमाण हमे कूटदंतुक में मिलता है | जिसमे बुद्ध ब्राह्मण कुतदंतुक से कहते है कि उस यज्ञ में पशु बलि के लिए नही थे | इस बात को अम्बेडकर ने हसी मजाक बना कर टालमटोल करने की कोशिस की है ,जबकि कूटदंतुक में बुद्ध ने यज्ञ पुरोहित के गुण भी बताये है :- सुजात ,त्रिवेद (वेद ज्ञानी ) ,शीलवान और मेधावी | और यज्ञ में घी ,दूध ,दही ,अनाज ,मधु के प्रयोग को बताया है |
अत: स्पष्ट है कि बुद्ध यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ में हिंसा विरोधी थे ,सुतानिपात ५६९ में बुद्ध का निम्न कथन है :-

अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री छंद ) मुख्य है ओर यज्ञो मे अग्निहोत्र ।  अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे।

अत : स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी इस बात पर मह्रिषी चरक का भी प्रमाण है जो देखिये :-
अत निम्न कथन से भी स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यज्ञ हिंसा नही थी |
मीमासा दर्शन ने इस बात पर प्रकाश डाला है :-” मांसपाक प्रतिषेधश्च तद्वत |”-मीमासा १२/२/२
यज्ञ में पशु हिंसा मना है ,वैसे मॉस पाक भी मना है | इसी तरह दुसरे स्थान पर आता है १०/३/.६५ व् १०/७/१५ में लिखा है कि ” धेनुवच्चाश्वदक्षिणा ” और अपि व दानमात्र स्याह भक्षशब्दानभिसम्बन्धात |” गौ आदि की भाति अश्व भी यज्ञ में केवल दान के लिए ही है | क्यूंकि इनके साथ भक्ष शब्द नही आया है | अत: स्पष्ट है कि पशु वध के लिए नही दान आदि के लिए थे |
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
अत: स्पष्ट है कि मॉस बलि वेदों में नही है न ही प्राचीन काल यज्ञ में थी |
चुकी आंबेडकर जी ने शतपत का भी प्रमाण दिया है तो हम कुछ बात शतपत की भी रखते है :-
शतपत में मॉस भोजी को यज्ञ का अधिकार नही दिया है देखिये :-
 “न मॉसमश्रीयात् ,यन्मासमश्रीयात्,यन्मिप्रानमुपेथादिति नेत्वेवैषा दीक्षा ।”(श. ६:२ )
अर्थात मनुष्य मॉस भक्षण न करे , यदि मॉस भक्षण करता है अथवा व्यभिचार करता है तो यज्ञ दीक्षा का अधिकारी नही है ….
यहा स्पष्ट कहा है की मॉस भक्षी को यज्ञ का अधिकार नही है ,अत : यहाँ स्पष्ट हो जाता है की यज्ञ मे मॉस की आहुति नही दी जाती थी ।
शतपत में ही ये लिखा है कि मॉस भक्षक को यज्ञ का अधिकार नही है इससे स्पष्ट है कि बाद में मॉस ,गौ बलि ,मासाहार शतपत में क्षेपक जोड़ा गया है उन्ही को अम्बेडकर ने आधार बनाया ब्राह्मणवाद के विरोध में …
शतपत में मॉस शब्द का उलेख है जिसकी आहुति का विधान है लेकिन यह लोक प्रशिद्ध मॉस नही बल्कि कुछ और है
मासानि वा आ आहुतय:(श ९,२ )
अर्थात यज्ञ आहुति मॉस की होनी चाहिए ।
चुकि यहाँ मॉस के चक्कर मे भ्रम मे न पडे तो आगे मॉस के अर्थ को स्पष्ट किया है –
” मासीयन्ति ह वै जुह्वतो यजमानस्याग्नय:।
एतह ह वै परममान्नघ यन्मासं,स परमस्येवान्नघ स्याता भवति (शत .११ ,७)”।।
हवन करते हुआ यज्मान की अग्निया मॉस की आहुति की इच्छा रखती है ।
परम अन्न ही मॉस है परम अन्न से आहुति दे ,..
यहा मॉस को परम अन्न कहा है ओर यदि ये जीवो का मॉस होता तो यहाँ अन्न का प्रयोग नही होता क्यूँ की मॉस अन्न नहीं होता है ।परम अन्न के बारे मे अमरकोष के अनुसार “परमान्नं तु पायसम् ” अर्थात दूध ओर चावल से तैयार (खीर) को परम अन्न कहा है ।अतः शतपत ब्राह्मण के अनुसार मॉस का अर्थ पायसम है ।लोक प्रसिद्ध मॉस नही ।
अत: स्पष्ट है कि शतपत में मॉस आदि गूढ़ अर्थो में प्रयोग किया है तथा इस बात से भी इनकार नही की इनमे वाम्मार्गियो के क्षेपक है |
अब हम वेदों पर विचार करते है |वेदों में मॉस और यज्ञ में मासाहार जो लोग बताते है उन्हें पहले निम्न मंत्रो पर विचार करना चाहिए ..
इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम् (यजु १३/४७ )
दो खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
इमं मा हिंसीरेकशफ़ पशुम (यजु १३/४८ )
एक खुर वाले पशु की हिंसा मत करो |
मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्यपद:(अर्थव ११/२/१)
हमारे दो ,चार खुरो वाले पशुओ की हिंसा मत करो |
मा सेंधत (ऋग. ७/३२/९ )
हिंसा मत करो |
वेद स्पष्ट अंहिसा का उलेख करते है जबकि मॉस बिना हिंसा के नही मिलता और यज्ञ में भी बलि आदि हिंसा ही है |
अब यज्ञो में पशु वध या वैदिक यज्ञो में पशु मॉस आहुति के बारे में विचार करेंगे :-
आंबेडकर जी का कहना है कि वेदों में बाँझ जो दूध नही दे सकती उनकी बलि देने और मॉस खाने का नियम है जबकि वेद स्वयम उनकी इस बात का खंडन करते है
वेदों में मॉस निषेध :- ऋग्वेद १०/८७/१६ में ही आया है की राजा जो पशु मॉस से पेट भरते है उन्हें कठोर दंड दे …
पय: पशुनाम (अर्थव १९/३१/१५ )
है मनुष्य ! तुझे पशुओ से पैय पदार्थ (पीने योग्य पदार्थ ) ही लेने है |
यदि पशु मॉस खाने का विधान होता तो यहा मॉस का भी उलेख होता जबकि पैय पदार्थ दूध और रोग विशेष में गौ मूत्र आदि ही लेने का विधान है |
वेदों में यज्ञ में हिंसा और मॉस भक्षण के संधर्भ में आंबेडकर जी निम्न प्रमाण वेदों के देते है :-

 यज्ञ के संधर्भ में वेद में लिखा है:-  उपावसृज त्मन्या समज्ञ्चन् देवाना पाथ ऋतुथा हविषि।वनस्पति: शमिता देवो अग्नि: स्वदन्तु द्रव्य मधुना घृतेन ।।(यजु २९,३५ )
पाथ ,हविषि,मधुना,घृत ये चारो पद चारो प्रकार के द्रव्यों का ही हवं करना उपादेष्ट करते है,अत: यज्ञ मे इन्ही का ग्रहण करना योग्य है ,,
यहा स्पष्ट उलेख है की किन किन वस्तुओ का उपयोग किया जा सकता है यदि मॉस का होता तो यहा मॉस रक्त आदि का भी उलेख होता ..
कात्यान्न श्रोतसूत्र मे आया है-
दुष्टस्य हविषोSप्सवहरणम् ।।२५ ,११५ ।।
उक्तो व मस्मनि ।।२५,११६ ।।
शिष्टभक्षप्रतिषिध्द दुष्टम।।२५,११७ ।।
अर्थात होमद्र्व्य यदि दुष्ट हो तो उसे जल मे फेक देना चाहिए उससे हवन नहीं करना चाहिए ,शिष्ट पुरुषो द्वारा निषिध मांस आदि अभक्ष्य वस्तुयें दुष्ट कहलाती है ।
उपरोक्त वर्णन के अनुसार यहाँ मॉस की आहुति का निषेध हो रहा है ।
यज्ञ में पशुओ का उलेख है तो उसका समाधान ऊपर दिया है मीमासा का प्रमाण देकर की यज्ञ में पशु हत्या के लिए नही बल्कि दान के लिए होते थे …
यजुर्वेद के एक अध्याय में यज्ञ में कई पशु लाने का उलेख है जिसका उदेश्य उनकी हत्या नही बल्कि यज्ञ में दी गयी ओषधी आदि की आहुति से लाभान्वित करना है क्यूँ की यज्ञ का उदेश्य पर्यावरण और स्रष्टि में उपस्थित प्राणियों को आरोग्य प्रदान करना पर्यावरण को स्वच्छ रखना है | क्यूंकि यज्ञ में दी गयी आहुति अग्नि के द्वारा कई भागो में टूट जाती है और श्वसन द्वारा प्राणियों के शरीर में जा कर आरोग्य प्रदान करती है

जरा यजुर्वेद का यह मंत्र देखे-
“इमा मे अग्नS इष्टका धेनव: सन्त्वेक च दश च दश च शतं च शतं च सहस्त्रं च सहस्त्रं चायुतं चायुतं च नियुतं च नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुदं च समुद्रश्र्च मध्यं चान्तश्र्च परार्धश्र्चैता मे अग्नS इष्टका धनेव: सन्त्वमुत्रामुष्मिल्लोके”॥17:2॥
अर्थ-है अग्नीदेव!ये इष्टिकाए(हवन मे अर्पित सूक्ष्म इकाईया)हमारे लिए गौ के सदृश(अभीष्ट फलदायक) हौ जाए। ये इष्टकाए एक,एक से दसगुणित होकर दस,दस से दस गुणित हौकर सौ,सौ की दस गुणित होकर हजार,हजार की दस गुणित होकरअयुत(दस हजार),अयुत की दस गुणित होकर नियुत(लाख),नियुत की दस गुणित हो कर प्रयुत(दस लक्ष), प्रयुत की दस गुणित हो कर कोटि(करौड),कोटि की दस गुणित हो कर अर्बुद(दस करौड),अर्बुद की दस गुणित होकर न्युर्बुद इसी प्रकार दस के गुणज मे बढती है।न्युर्बुद का दस गुणित खर्व(दस अरब),खर्व का दस गुणित पद्म(खरब)पद्म का दस गुणित महापद्म(दस खरब)महापद्म का दस गुणित मध्य(शंख पद्म)मध्य का दस गुणित अन्त(दस शंख)ओर अन्त की दस गुणित होकर परार्ध्द(लक्ष लक्ष कोटि)संख्या तक बढ जाए॥
उपरोक्त मन्त्र में स्पष्ट है की यज्ञ से आहुति कई भागो नेनो में बट जाती है तथा कई दूर तक फ़ैल कर कई प्राणियों को लाभान्वित करती है |
अब अम्बेडकर जी के दिए प्रमाणों पर एक नजर डालते है :-
आंबेडकर जी ऋग्वेद १०/८६/१४ में लिखता है :- इंद्र कहता है कि वे पकाते है मेरे लिए १५ बैल ,मै खाता हु उनका वसा ….!
यहा लगता है अम्बेडकर ने किसी अंग्रेजी भाष्यकार का अनुसरण किया है या फिर जान बुझ ऐसा लिखा है इसका वास्तविक अर्थ जो निरुक्त ,छंद ,वैदिक व्याकरण द्वारा होना चाहिए इस प्रकार है :-
“परा श्रृणीहि तपसा यातुधानान्पराग्ने रक्षो हरसा  श्रृणीहि|
परार्चिर्षा मृरदेवाञ्छृणीहि परासुतृपो अभि शोशुचान:(ऋग्वेद १०/८३/१४ )”
उपरोक्त मन्त्र में कही भी इंद्र ,बैल ,वसा ,खाना आदि शब्द नही है फिर अम्बेडकर जी को कहा से नजर आये ..इसका भाष्य – (अग्ने) यह अग्नि (अभि शोशुचान) तीक्ष्ण होता हुआ (तपसा) ताप से (यातुधानान) पीड़ाकारक जन्तुओ (रोगाणु आदि ) (परशृणीहि ) मारता है (मृरदेदान) रोग फ़ैलाने वाले अथवा मारक व्यापार करने वाले घातक रोगाणु को (अचिषा) अपने तेज से   (परा श्रृणीहि ) मारता और (असृतृप:) प्राणों से तृप्त होने वाले क्रिमी को मारता अथवा नष्ट करता है |
इसमें अग्नि के ताप से सूक्ष्म रोगानुओ के नष्ट होने का उलेख है | वेदों में सूर्य और उसकी किरण को भी अग्नि कहा है तो यह सूर्य किरणों द्वारा रोगाणु का नाश होना है ..इस मन्त्र में सूर्य किरण या ताप द्वारा चिकित्सा और रोगाणु नाश का रहस्य है |
एक अन्य मन्त्र १०/७२/६ का भी अम्बेडकर वेदों में हिंसा के लिए उलेख करते है |
” यद्देवा ………………….रेणुरपायत(ऋग. १०/७२/६)”
(यत) जो (देवा) प्रकाशरूप सूर्य आदि आकाशीय पिंड (अद:) दूर दूर तक फैले है (सलिले) प्रदान कारण तत्व वा महान आकाश में (सु-स-रब्धा) उत्तम रीती से बने हुए और गतिशील होकर (अतिष्ठित) विद्यमान है |
है जीवो ! (अत्र) इन लोको में ही (नृत्यतां इव वा ) नाचते हुए आनंद विनोद करते हुए आप लोगो का (तीव्र: रेणु 🙂 अति वेग युक्त अंश ,आत्मा स्वत: रेणुवत् अणु परिणामी वा गतिशील है वह (अप आयत ) शरीर से पृथक हो कर लोकान्तर में जाता है |
इस मन्त्र में  लोको में प्राणी (पृथ्वी आदि अन्य ग्रह में प्राणी ) एलियन आदि का रहस्य है और आत्मा और मृत्यु पश्चात आत्मा की स्थिति का रहस्य है | यहा कही भी मॉस या मॉस भक्षण नही है जेसा की अम्बेडकर जी ने माना …
एक अन्य उदाहरन अम्बेडकर जी ऋग्वेद १०/९१/१४ का देते है :-अग्नि में घोड़े ,गाय ,भेड़ ,बकरी की आहुति दी जाती थी |
” यस्मिन्नश्वास ऋषभास उक्षणो वशामेषा अवसृष्टास आहूता:|
कीलालपे सोमपृष्ठाय वेधसे हृदामर्ति जनये चारुमग्नये (ऋग्वेद १०/९१/१४)”
(यस्मिन) जिस सृष्टी में परमात्मा ने (अश्वास:) अश्व (ऋषभास) सांड (उक्ष्ण) बैल (वशा) गाय (मेषा:) भेड़ ,बकरिया (अवस्रष्टास) उत्पन्न किये और (आहूता) मनुष्यों को प्रदान कर दिए | वाही ईश्वर (अग्नेय) अग्नि के लिए (कीलालपो) वायु के लिए (वेधसे) आदित्य के लिए (सोमपृष्ठाय) अंगिरा के लिए (हृदा) उनके ह्रदय में (चारुम) सुन्दर (मतिम) ज्ञान (जनये) प्रकट करता है |
यहा भी मॉस आदि नही बल्कि सृष्टि के आरम्भ में परमेश्वर द्वारा वेद ज्ञान प्रदान करने का उलेख है |
लेकिन इस मन्त्र में कोई हट करे की अग्नि बैल ,अश्व ,भेड़ गौ आदि शब्दों से इनकी अग्नि में आहुति है |
तो ऐसे लोगो से मेरा कहना है की क्या ये नाम किसी ओषधी आदि के नही हो सकते है | क्यूँ कि वेदों में आहुति में ओषधि का उलेख मिलता है | जो की महामृत्युंजय मन्त्र में “त्र्यम्बकम यजामहे …..” में देख सकते है इसमें त्रि =तीन अम्ब =ओषधी का उलेख है और यजामहे =यज्ञ में देने का …अत: ये नाम ओषधियो के है |
इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण देता हु –
(१) बुद्ध ग्रन्थ में आया है :-

यहा आये सुकर मद्दव से यही लगता हैं कि बुद्ध ने सूअर का मॉस खाया इसका यही अर्थ श्रीलंकाई भिक्षु सूअर का ताजा मॉस करते है | जबकि वास्तव में  यहा सूकर मद्दव पाली शब्द है जिसे

हिन्दी करे तो होगा सूकर कन्द ओर संस्कृत मे बराह
कन्द यदि आम भाषा मे देखे तो सकरकन्द चुकि ये दो प्रकार
का होता है १ घरेलु मीठा२ जंगली कडवा इस
पर छोटे सूकर जैसे बाल आते है इस लिए इसे बराह कन्द
या शकरकन्द कहते है|ये एक कन्द होता है जिसका साग
बनाया जाता है |इसके गुण यह है कि यह चेपदार मधुर और गरिष्ठ
होता है तथा अतिसार उत्पादक  है जिसके कारण इसे खाने से बुद्ध को अतिसार हो गया था |
एक अन्य उदाहरण भी देखे :-
हठयोग प्रदीप में आया है :-
” गौमांसभक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् |
कुलीन तमहं मन्ये इतर कुलघातक:||”
अर्थात जो मनुष्य नित्य गौ मॉस खाता है और मदिरा पीता है,वही  कुलीन है ,अन्य मनुष्य कुल घाती है |
यहा गौ मॉस का उलेख लग रहा है लेकिन अगले श्लोक में लिखा है :-
” गौशब्देनोदिता जिव्हा तत्प्रवेशो हि तालुनि गौमासभक्षण तत्तु महापातकनाशम्”
अर्थात योगी पुरुष जिव्हा को लोटाकर तालू में प्रवेश करता है उसे गौ मॉस भक्षण कहा है |
यहा योग मुद्रा की खेचरी मुद्रा का वर्णन है ..गौ का अर्थ जीव्हा होती है और ये मॉस की बनी है इस्लिते इसे गौ मॉस कहा है और इसे तालू से लगाना इसका भक्षण करना तथा ऐसा माना जाता है की ये मुद्रा सिद्ध होने पर एक रस का स्वाद आता है इसी रस को मदिरा पान कहा है |
यदि यहा श्लोक्कार स्वयम अगले श्लोक में अर्थ स्पष्ट नही करता तो यहा मॉस भक्षण ही समझा जाता …
इसी तरह वेदों में आय गौ ,अश्व ,आदि नाम अन्य वस्तुओ ओषधि आदि के भी हो सकते है ..यज्ञ के आहुति सम्बन्ध में ओषधि और अनाज के ,,जिसके बारे में वेदों में ही लिखा है :-
धाना धेनुरभवद् वत्सो अस्यास्तिलोsभवत (अर्थव १८/४/३२)
धान ही धेनु है औरतिल ही बछड़े है |
अश्वा: कणा गावस्तण्डूला मशकास्तुषा |
श्याममयोsस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम||(अर्थव ११/३ (१)/५७ )
चावल के कण अश्व है ,चावल ही गौ है ,भूसी ही मशक है ,चावल का जो श्याम भाग है वाही मॉस है और लाल अंश रुधिर है |
यहा वेदों ने इन शब्दों के अन्य अर्थ प्रकट कर दिए जिससे सिद्ध होता है की मॉस पशु हत्या का कोई उलेख वेदों में नही है |
अनेक पशुओ के नाम से मिलते जुलते ओषध के नाम है ये नाम गुणवाची संज्ञा के कारण समान है ,श्रीवेंकटेश्वर प्रेस,मुम्बई से छपे ओषधिकोष में निम्न वनस्पतियों के नाम पशु संज्ञक है जिनके कुछ उधाहरण नीचे प्रस्तुत है :-
वृषभ =ऋषभकंद       मेष=जीवशाक
श्वान=कुत्ताघास ,ग्र्न्थिपर्ण   कुकुक्ट = शाल्मलीवृक्ष
मार्जार= चित्ता       मयूर= मयुरशिखा
बीछु=बिछुबूटी        मृग= जटामासी
अश्व= अश्वग्न्दा       गौ =गौलोमी
वाराह =वराह कंद     रुधिर=केसर
इस तरह ये वनस्पति भी सिद्ध होती है अत: यहा यज्ञो में प्राणी जन्य मॉस अर्थ लेना गलत है |
अम्बेडकर कहते है कि प्राचीन काल में अतिथि का स्वागत मॉस खिला कर किया जाता था| ये शायद ही इन्होने नेहरु या विवेकानद जेसो की पुस्तक से पढ़ा होगा विवेकानद की जीवनी द कोम्पिलीत वर्क में कुछ ऐसा ही वर्णन है जिसके बारे में यहा विचार नही किया जाएगा ..जिसे आप आर्यमंत्वय साईट के एक लेख में सप्रमाण देख सकते है |
इस संधर्भ में मै कुछ बातें रखता हु :-
ऋग्वेद १०/८७/१६ में स्पष्ट मॉस भक्षी को कठोर दंड देना लिखा है तो अतिथि को मॉस खिलाना ऐसी बात संभव ही नही वेदानुसार …
मनुस्मृति में आया है ” यक्षरक्ष: पिशाचान्न मघ मॉस सुराssसवम (मनु ११/९५ )”
मॉस और मध राक्षसो और पिशाचो का आहार है |
यहा मॉस को पिशाचो का आहार कहा है जबकि भारतीय संस्कृति का प्राचीन काल से अतिथि के लिए निम्न वाक्य प्रयुक्त होता आया है ” अतिथि देवोभव:” अर्थात अतिथि को देव माना है अब भला कोई देवो को पिशाचो का आहार खिलायेगा …
” अघतेsत्ति च भुतानि तस्मादन्न तदुच्यते (तैत॰ २/२/९)”
प्राणी मात्र का जो कुछ आहार है वो अन्न ही है |
जब प्राणी मात्र का आहार अन्न होने की घोषणा है तो मॉस भक्षण का सवाल ही नही उठता |
कुछ अम्बेडकर के अनुयायी या वेद विरोधी लोग अर्थव॰ के ९/६पर्याय ३/४ का प्रमाण देते हुए कहते है की इसमें लिखा है की अथिति को मॉस परोसा जाय|
जबकि मन्त्र का वास्तविक अर्थ निम्न प्रकार है :-” प्रजा च वा ………………पूर्वोष्शातिश्शनाति |”
जो ग्रहस्थ निश्चय करके अपनी प्रजा और पशुओ का नाश करता है जो अतिथि से पहले खाता है |
इस मन्त्र में अतिथि से छुप कर खाने या पहले खाने वाले की निंदा की है …उसका बेटे बेटी माँ ,पिता ,पत्नी आदि प्रजा दुःख भोगते है ..और पशु (पशु को समृधि और धनवान होने का प्रतीक माना गया है ) की हानि अथवा कमी होती है …अर्थात ऐसे व्यक्ति के सुख वैभव नष्ट हो जाए | यहा अतिथि को मॉस खिलाने का कोई उलेख नही है |
अत: निम्न प्रमाणों से स्पष्ट है की प्राचीन काल में न यज्ञ में बलि होती थी न मॉस भक्षण होता था ..न ही वेद यज्ञ में पशु हत्या का उलेख करते है न ही किसी के मॉस भक्षण का …..
यदि कोई कहे की ब्राह्मण मॉस खाते थे तो सम्भवत कई जगह खाते होंगे, और यज्ञ में भी हत्या होती थी लेकिन कहे की वेदों में हत्या और मॉस भक्षण है तो ये बिलकुल गलत और प्रमाणों द्वारा गलत सिद्ध होता है | और कहे प्राचीन काल यज्ञो में मॉस भक्षण और मॉस आहुति होती थी तो ये भी उपरोक्त प्रमाणों से गलत सिद्ध होता है यज्ञ का बिगड़ा स्वरूप और ब्राह्मण ,ग्रहसूत्रों में मॉस के प्रयोग वाममर्गियो द्वारा महाभारत के बाद जोड़ा गया जो की उपरोक्त प्रमाणों में सिद्ध क्या गया है |
अत: अम्बेडकर का कथन प्राचीन आर्य (ब्राह्मण आदि ) यज्ञ में पशु हत्या और मॉस भक्षण करते थे ,वैदिक काल में अतिथि को मॉस खिलाया जाता था आदि बिलकुल गलत और गलत भाष्य पढने का परिणाम है |
समभवतय उन्होंने ये ब्राह्मण विरोधी मानसिकता अथवा बुद्ध मत को सर्व श्रेष्ट सिद्ध करने के कारण लिखा हो |
ओम
संधर्भित ग्रन्थ एवम पुस्तके :- (१) वेद सौरभ – जगदीश्वरानन्द जी 
(२) वैदिक सम्पति -रघुनंदन शर्मा जी 
(३) यज्ञ में पशुवध वेद विरोध – नरेंद्र देव शास्त्री जी 
(४) वैदिक पशु यज्ञ मिमास -प्रो. विश्वनाथ जी 
(५) सत्यार्थ प्रकाश उभरते प्रश्न गरजते उत्तर -अग्निव्रत नैष्ठिक जी 
(६) the untouchable who were they and why become untouchables-अम्बेडकर जी 
(७) महात्माबुद्ध और सूअर का मॉस -अज्ञात 
(८) भारत का वृहत इतिहास -आचार्य रामदेव जी 
(९) mahatma budha an arya reformer-धर्मदेवा जी 
(१०) ऋग्वेदभाष्य -आर्यसमाज जाम नगर ,हरिशरणजी ,जयदेव शर्मा जी 
(११) स्वामी दर्शनानंद ग्रन्थ संग्रह (क्या शतपत आदि में मिलावट नही )-स्वामी दर्शनानद जी   

ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था

issa masih

ईसा मसीह मुक्तिदाता नहीं था …….

लेखक :- अनुज आर्य 

इसाई लोग बड़े जोर सोर के साथ यह प्रचार किया करते है की इसा मसीह पर विश्वास ले आने से से ही मुक्ति मिल सकती है | अन्य कोई तरीका नहीं मुक्ति व् उद्धार का | स्वतः बाइबल में भी इसी प्रकार की बाते लिखी मिलती है जिनमे इसा मसीह को मुक्ति दाता बताया गया है | इस विषय में निम्न प्रमाण प्रायः उपस्थित किये जाते है | बाइबल में लिखा है कि –

” क्योंकि परमेशवर ने जगत से ऐसा प्रेम रक्खा कि उसे अपना इकलोता पुत्र दे दिया , ताकि जो कोई उस पर विश्वास करे वह नाश न हो परन्तु अनंत जीवन पाए (१३) जो उस पर विश्वास करता है उस पर दंड की आज्ञा नहीं होती , परन्तु जो उस पर विश्वास नहीं रखता वह दोषी ठहराया जा चूका है , इसलिए की उसने परमेश्वर के इकलौते पुत्र के नाम पर विश्वास नहीं किया (१८ ) जो पुत्र पर विश्वास करता है अनंत जीवन उसका है परन्तु जो पुत्र को नहीं मानता , वह जीवन को देखेगा परन्तु परमेश्वर का क्रोध उस पर रहता है ( ३६ ) ( युहन्ना ३  )

यह बात तो युहन्ना ने कही है की इसा पर ही विश्वास लाने से से उद्धार सम्भव है और जो उस पर विश्वास नहीं लाता उस पर परमेश्वर का कोप होगा | अब इसा मसीह का भी दावा देखिये वह क्या कहता है ? बाइबल में लिखा है –

” तब यीशु ने उनसे फिर कहा मै तुम से सच कहता हूँ की भेड़ो का द्वार मै हूँ ( ७) जितने मुझ से पहले आये वो सब डाकू और चोर है (८)द्वार मै हूँ यदि कोई मेरे भीतर प्रवेश करे तो उद्धार पायेगा (९)मेरी भेड़े मेरा शब्द सुनती है और मै उन्हें जानता हूँ और वे मेरे पीछे पीछे चलती है ( २७ ) और मै उन्हें अनंत जीवन देता हु और वे कभी नाश न होगी और कोई मेरे हाथ से छीन न लेगा (२८ )( युहन्ना १० )

इस उद्धरण में ईसा ने स्वंय को मनुष्य का उद्धारक बताया है और अपने भक्तो को भेड़े बताया है | भेड़ का यही गुण होता है की वह अन्धानुगमन करती है | यदि आगे की भेड़े कुए में गिर पड़े तो पीछे वाली भी उसी में गिरती चली जावेंगी उसमे सोचने की अकल नहीं होती | मसीह ने भी अपने चेलो को बुद्धिहीन व् मुर्ख भेड़े बताकर यह प्रकट कर दिया है की इसाई लोग बुद्धि से काम नहीं लेना चाहते है , वे सवतंत्र बुद्धि से कुछ नहीं सोच सकते है | यदि वे सोचने लगे तो न तो वे भेड़े रहे और न वे इसाई ही बने रह सकेंगे , क्योंकि फिर वे ईसा का अन्धानुगमन नहीं करेंगे |

साथ ही मसीह ने अपने से पहले पैदा हुए जननेताओ पैगमबरो को चोर डाकू बता कर गालिया दी है और उनकी निंदा की है ताकि लोगो का उन पर से विश्वास हट जावे और वे मसीह के अंधभक्त बन जावे |

अपने स्वार्थ के लिए दुसरो को गालिया देना बहुत ही निम्न स्तर की भद्दी बात है | यह बात प्रकट करती है की ईसा की विचारधारा कितनी गलत थी | ईसा मसीह अपने विरोधियो की हत्या भी कराया करता था | वह उनके विरोध को अपने सम्प्रदाय के फैलाने में घातक वा बाधक समझता था उसने स्वंय आदेश दिया था की –

” परन्तु मेरे उन बैरियो को जो नहीं चाहते की मै उन पर राज करू , उनको यहाँ लाकर मेरे सामने कत्ल करो ( लुका १९/२७ )

इस प्रकट है की मसीह प्रेम का प्रचारक नहीं था वह लोगो को धर्म और ईश्वर के नाम पर गुमराह करके अपनी हुकूमत इस्राइल में कायम करना चाहता था और एक नवीन सम्प्रदाय का प्रवर्तक बनने का प्रयत्न कर रहा था | साम दाम दंड भेद सभी हथकंडे वह काम में लाया करता था | उसने अपने विचारो को कभी छिपाकर भी नहीं रक्खा था | उसने स्पष्ट अपना उद्देश्य लोगो को बता दिया था | उसने घोषणा की थी कि –

” जो कोई मनुष्यों के सामने मेरा इंकार करेगा , उससे मै भी अपने स्वर्गीय पिता के सामने इंकार करूँगा ( ३३) यह न समझो की मै पृथ्वी पर मिलाप करने आया हूँ , मै मिलाप करने को नहीं पर तलवार चलाने को आया हूँ (३४)मै तो आया हूँ की मनुष्य को उसके पिता से , और बेटी को उसकी माँ से बहु को उसकी सास से अलग कर दूँ (३५)जो माता या पिता को मुझसे अधिक प्रिय जानता है वह मेरे योग्य नहीं है और जो बेटा या बेटी को मुझसे अधिक प्रिय जानता है वह मेरे योग्य नहीं ( ३७ )( मती -१० )

इन वाक्यों से मसीह ने अपना असली स्वरूप खोल कर सामने रख दिया है की उसका उद्देश्य इस्राइल समाज में आपस में युद्ध करवाना , समाजिक व्यवस्था का विध्वंश कराना , ईश्वर की आड़ में लोगो को धर्म का डर दिखा कर अपना चेला बनाकर सेना तैयार करना , पारिवारिक व्यवस्था को भंग करना , बाप बेटे , माँ बेटी के भाई बहन के पवित्र ओरेम को मिटवाना और घर घर में कलह पैदा कराकर लोगो को मोक्ष देने की आड़ में अपने साथ लेकर राज्य शासन को बागडोर हथियाना था | ईसा को उसके चेले यहूदियों का राजा बताते थे जैसा की उसकी सूली के समय लोगो ने उसे बताया था समाज में अव्यवस्था फैलाना व् धर्म तथा मोक्ष के नाम पर पुरानी व्यवस्थाओ को भंग करना सामाजिक व् राजनैतिक अपराध था और इसलिए ईसा को सूली दी गयी | अपना चेला बनने पर खुदा से सिफारिश करके मुक्ति दिलाने और जो चेला न बने उसकी सिफारिश न करके उसे दोजख में डलवाने आदि का प्रलोभन व् धमकी देना सरासर मसीह के गलत हथकंडे थे जिससे वह लोगो को फाँसकर अपनी भेड़ो की संख्या बढ़ाता करता था |

क्योंकि ईसा मसीह का जन्म माँ के क्वारेपन के गर्भ से हुआ था अतः उसके वास्तविक पिता को कोई नहीं जानता था और मरियम ने भी मसीह के वास्तविक मानवी पिता का नाम कभी किसी को नहीं बताया था अतः मसीह ने अपने को खुदा का ख़ास बेटा बताकर लोगो को धोखा दिया था |

मसीह का उद्देश्य उपर के प्रमाणों से अपवित्र साबित होता है | केवल वे ही लोग उसके चक्कर में फंस गये थे जिनकी बुद्धि सत्यासत्य के निर्णय में समर्थ नहीं थी इसलिए मसीह ने भी उनको भेड़े बताया था | तो जो मसीह क्रोधी हो अपने विरोधियो का कत्ल कराता हो समाज में तलवारे चलवाकर विद्रोह पैदा करता रहा हो जिसका उद्देश्य व् लक्ष्य श्रेष्ठ न रहा हो और जो स्वंय अपना उद्धार न कर सका हो जिसे उसके विरोधियो ने बदले में पकड़कर सूली पर चड़ा दिया हो और जो मौत से अपनी रक्षा न कर सका हो उसे संसार का उद्धारकर्ता खुदा का इकलौता बेटा तथा मोक्ष दाता नहीं माना जा सकता है | केवल इसाई भेड़े ही आँख बंद करके उस पर ईमान ला सकती है जैसा की बाइबल में लिखा है |

समझदार व्यक्ति यह नहीं देखते है की कोई क्या दावा करता है वरन वे यह देखते है की क्या दावा करने वाले में दावे को सत्य सिद्ध करने की क्षमता भी है या उसका दावा केवल आत्मप्रशंसा या स्वार्थपूर्ति के लिए कोरा धोखा है | मसीह का दावा सर्वथा गलत उस समय हो गया जब उसे सूली पर चड़ा दिया गया | उस समय न तो खुदा या उसकी फौजे ईसा की मदद को आई और न ही वह स्वंय मौत से बचने का कोई चमत्कार दिखा सका |मुक्ति ईसा या किसी व्यक्ति पर विश्वास लाने से नहीं मिल सकती है हर व्यक्ति के कल्याण के लिए उसके भले व् बुरे कर्म ही जिम्मेवार होते है प्रत्येक प्राणी अपने ही कर्मो का फल भोगता है | स्वंय बाईबल में भी इस विषय के कई प्रमाण मिलते है जिनसे ईसा मसीह का यह दावा झूठा हो जाता है की वह लोगो के पाप नाश करके उनका उद्धार केवल उस पर विश्वास लाने से कर देगा | बाइबल के चंद प्रमाण इस विषय में द्रष्टव्य है —

” जो प्राणी पाप करेगा वही मरेगा | न तो पुत्र पिता के अधर्म का भार उठाएगा और न पिता पुत्र के धर्मो का |अपने ही धर्म का फल और दुष्ट को अपनी दुष्टता का फल मिलेगा ( यहेजकेल १८/२० )

धोखा न खाओ , परमेश्वर टटटो में नहीं उड़ाया जाता , क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है वही काटेगा ( गलतियों ६/७)

” परमेश्वर हर एक को उसके कर्मो का प्रतिफल देगा “( मत्ती १६/१७)

बाईबल के उपर प्रमाण यह घोषणा करते है की सभी मनुष्यों को उनके कर्मानुकुल ही फल मिलेगा | इससे किसी भी एक आदमी पर ईमान लाने की आवश्यकता नहीं है और न कोई आदमी किसी के पाप पुण्य को क्षमा कर सकता है |कर्म करना हर मनुष्य के अधिकार की बात है और फल देना परमात्मा का काम है | मनुष्य और परमात्मा के बिच किसी भीं दलाल या वकील की कोई आवश्यकता नहीं है | ईसा मसीह या मुहम्मद साहब या अन्य किसी भी एजेंट या वकील की आवश्यकता नहीं है | शुभ अशुभ कर्मो की ही प्रधानता फल भोग में रहती है | बाइबल में भोले लोगो को लिखा है की मसीह लोगो के पाप अपने साथ ले गया था यह बात भी गलत है पाप क्या कोई धातु या कपडा के थोड़े होते है जो कोई लाद  के ले जावेगा ? जो मसीह स्वंय अपने गलत कर्मो और पापो की वजह से सूली पर चडाया गया , अपने को ही अपने पापो से न बचा सका वह बेचारा दुसरो के पाप क्या दूर करेगा ? यदि ईसा मसीह की सिफारिश मान कर लोगो के पाप दूर करा देगा तो कुरआन में मुहम्मद साहब का और गीता में श्री कृष्ण जी का दावा भी क्यों न माना जाए ?सभी ने ईसा की तरह पाप दूर करने का ठेका लिया था | गंगा गंगा जपने से , शिवलिंग के दर्शन करने से , राम राम कृष्ण कृष्ण करने से भी पापो का दूर होना क्यों न माना जावे ? हिन्दुओ के पाप नाश के तरीके इसाई मुसलमानों के नुस्खो से सस्ते और श्रेष्ठ है तो इसाई स्वंय भी हिन्दुओ के तरीको से लाभ क्यों नहीं हिन्दू बनकर लाभ उठाते है ?

ईसाई जीवात्मा को अनादी अनंत सत्ता तो मानते नहीं है और न पुनर्जन्म को ही मानते है तो यदि हम उनकी मान्यता पर यह कहें की जन्म के समय उनकी आत्मा खुदा पैदा कर देता है और उसके मरने के बाद वह नष्ट हो जाती है , मरने के बाद जीवात्मा या रूह नाम की कोई वस्तु कायम नहीं रह जाती है जिसे स्वर्ग या दोजख में उनका खुदा भेजता है न कोई मुक्ति है न कोई स्वर्ग नरक है न कोई वकील या दलाल मसीह या मुहम्मद साहब की हस्ती खुदा से सिफारिश कराने वाली है तो इसमें क्या गलती होगी ? इसाई मुसलमानों के पास ऐसी कोई दलील मरने के बाद जीवात्मा अस्तित्व साबित करने की नहीं हो सकती है |जब पुनर्जन्म नहीं होना है और जीवो को पुनः भले बुरे कर्म करने का आगे कभी अवसर नहीं मिलना है तो फिर मरने के बाद उसे कायम रखने की जरूरत साबित नहीं की जा सकती है ? तब ईसा मसीह का लोगो को अपने चेले बनाकर मुक्ति खुदा से बाईबल में सिफारिश करने की सारी बात स्वंय गप्पाषटके साबित हो जाती है |

इसके अतिरिक्त इसाई खुदा से न्याय की आशा भी नहीं की जा सकती है | क्योंकि वह गुस्सेबाज है ( याशायाह ५४/७-८ ) | वह गलती करके पछताता रहता है ( शैमुअल १५/३५ तथा उत्पत्ति ६/६ ) |खुदा मुकदमे लड़ता था ( यहेजकेल १७/२० ) आदि में खुदा को कम समझने वाला भी साबित किया गया है | तो ऐसा खुदा दुसरो से क्या न्याय करेगा | सम्भव है वह न्याय में भी गलती करके फिर पछताने लगे और जीवो का सर्वनाश गुस्से में कर डाले | ऐसे कम समझ इसाई खुदा पर ईमान लाना भी इसाइयों की भूल है |

ईसा मसीह को खुदा का इकलौता बेटा बताकर भी बाइबल ने सत्य नहीं बोला है | बाइबल में अय्यूब १/६ में लिखा है की इसाई ईश्वर के बहुत से बेटे है केवल एक बेटा नहीं था तथा भजन संहिता ८२ में लिखा है की ईश्वर भी बहुत से है तो इसाई बतावे की उनका ख़ास खुदा बहुत से खुदाओ में से कोण था जिसे वे मानते है और जब सैकड़ो बेटे अय्यूब १ में लिखे है तो वे मसीह को इकलौता बेटा बता कर वे लोगो को धोखा देकर जुर्म क्यों करते है | समझदार व्यक्ति जानता है की वैदिक धर्म के सत्य तर्क युक्त सिद्धांतो के सामने इसाई मत के सिद्धांत ठहर नहीं सकते है | इसाई लोग अपनी कल्पित बात लोगो को सुना सुनाकर लोभलालच देकर फांसने व् गरीब हिन्दुओ का ईमान भ्रष्ट करते रहते है | अतः सभी को इस मजहब के प्रचारको से सावधान रहना चाहिए जहाँ भी इसाई प्रचारक जावे उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारना चाहिए और उनकी कलई खोलनी चाहिए ताकि कोई हिन्दू इनके चक्कर में न फंस सके |

सभी भारतीय इसाई नस्ल से हिन्दू ही है | कभी लोग लालच या दबाव के कारण वे या उनके पूर्वज इसाई बने होंगे | उनको पुनः शुद्ध करके हिन्दू धर्म में शामिल कर लेना चाहिए और उनके साथ समानता का व्यव्हार करना चाहिए |

शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका……

shikshak

शिक्षक की राष्ट्र विकास मे अद्भुत भूमिका

संसार मे अनेक व्यक्तियों मे से दो व्यक्तियों को उच्च और श्रेष्ठ मानता है क्योंकी किसी भी राष्ट्र की उन्नति और उच्च सभ्यता का मूलाधार ये दो व्यक्ति ही होते है | एक किसान और दूसरा शिक्षक, आचार्य, गुरु आदि | जिसमे कृषि क्षेत्र का आधार तो धरती, हवा, पाणी इत्यादि है | और शिक्षा क्षेत्र का आधार है आचार और विचार | एक सफल शिक्षक वहि माना जाता है जिसे अपने विषय का पूर्ण ज्ञान हो, पढाने की लग्न हो और सभी से प्रेम हो | आज शिक्षण क्षेत्र इतना भ्रष्ठ हो चूका है की योग्य शिक्षक मिलना दुर्लभ हो चूका है |पहले बालको की योग्यता पर शिक्षा दि जाति थी इसका प्रमाण है हमारी गुरुकुलो मे पहले बालक और बालिकाओ का उपनयन संस्कार किया जाता था परन्तु आज शिक्षण क्षेत्र इतना भ्रष्ठ हो चूका है की पहले यह देखा जाता है की कौन कितना डोनेशन दे सकता है | डोनेशन, टुयशं, कोचिंग क्लास, शिक्षक बनने के लिए रिश्वत आदि ये बाते इस बात का प्रमाण है की शिक्षक क्षेत्र बहोत हद तक भ्रष्ठ हो चूका है | इसके करण कुछ भी रहे हो परन्तु इसका परिणाम ये हुआ की हर क्षेत्र, हर पेशे मे रिश्वतखोरी की बाढ़ आई हुयी है | छोटे से छोटे पद से लेकर बड़े से बड़े पद तक ज्यादातर व्यक्तियों को भिखारी वृतियो से ग्रस्त हो चूका है | सड़क का भिखारी किसे परेशान नहीं करता देना है तो दो अन्यथा न दे और वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ता | परन्तु ये भिखारी तो ऐसे भिखारी है जिन्होंने हमारा जिना मुश्किल कर रखा है |मै इस बात को यही विराम देकर बस इतना कहूँगा की शिक्षा क्षेत्र से जुडा व्यक्ति प्रमाणिकता से सोचे की वह बच्चो को कैसे पढाये, जिससे की बच्चो को भ्रष्ठता छूने भी ना पावे |

हज़ार डॉक्टर, हज़ार वकील जितना संसार का उपकार कर सकते है | उससे कई गुना ज्यादा उपकार मात्र एक शिक्षक कर सकता है | डॉक्टर जीवनदान देता है परन्तु शिक्षक जीवन का निर्माण करता है | लाखो बच्चो को चाहे तो देश का एक योग्य नागरिक बना कर देश की सेवा कर सकता है | अगर वह व्रत धारण कर तो नहीं तो एक रुपये कमाने की मशीन बन कर रह जाता है | आज कल के ये काचिंग क्लास उसी के नमूने है | किताबो की पढाई किताबो की पढाई और अपनी आमदनी इससे ज्यादा उन्हें और कुछ लेना देना नहीं |चाहे बच्चा पास होकर भ्रष्ठाचारी बने या रिश्वतखोर बने | एक शिक्षक की सफलता तब है जब उसका विद्यार्थी हर परीक्षा पास कर सुरक्षित देश का भविष्य बने, आदर्श मनुष्य बने |