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स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

ओ३म्

अथ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् साम्राज्य सार्वजनिक धर्म जिस को सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी, इसीलिये इस को सनातन नित्यधर्म कहते हैं कि जिस का विरोधी कोई भी न हो सके। यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत वाले के भ्रमाये हुए उस को अन्यथा जानें वा मानें, उस का स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिस को आप्त अर्थात् सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जिस को नहीं मानते वह अमन्तव्य होने से उसका प्रमाण नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनिमुनि पर्य्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ जिन को कि मैं मानता हूँ सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।

मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन काल में एक सा सब के सामने मानने योग्य है। मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना, मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझ को अभीष्ट है यदि मैं पक्षपात करता तो आर्य्यावर्त्त में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता किन्तु जो-जो आर्य्यावर्त्त वा अन्य देशों में अधर्मयुक्त चाल चलन है उस का स्वीकार और जो धर्मयुक्त बातें हैं उन का त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ क्योंकि ऐसा करना मनुष्यधर्म से बहिः है।

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख दुःख और हानि लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं—कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित हों—उन की रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और [अधर्मी] चाहे चक्रवर्त्ती सनाथ महाबलवान् और गुणवान् भी हो तथापि उस का नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उस को कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। इस में श्रीमान् महाराजे भर्तृहरि, व्यास जी [और] मनु ने श्लोक लिखे हैं, उन का लिखना उपयुक्त समझ कर लिखता हूँ—

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥

—भर्तृहरि [नीतिशतक ८५]

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥२॥

—महाभारत [उद्योगपर्व-प्रजागरपर्व अ॰ ४०। श्लोक ११-१२]

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥३॥      —मनु॰ [८।१७]

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः। येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥४॥

—मुण्डकोपनिषद् [३।१।६]

न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यं समाचरेत्॥५॥  —उपनिषदि॥

[तुलना—मनु॰ ८।१२]

इन्हीं महाशयों के श्लोकों के अभिप्राय से अनुकूल निश्चय रखना सबको योग्य है।

अब मैं जिन-जिन पदार्थों को जैसा-जैसा मानता हूँ उन-उन का वर्णन संक्षेप से यहाँ करता हूँ कि जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्रन्थ में अपने-अपने प्रकरण में कर दिया है। इन में से प्रथम—

१. ‘ईश्वर’ कि जिसको ब्रह्म, परमात्मादि नामों से कहते हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता, धर्त्ता, हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त परमेश्वर है उसी को मानता हूँ।

२. चारों ‘वेदों’ को विद्या धर्मयुक्त ईश्वरप्रणीत संहिता मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त स्वतःप्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, कि जिस के प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो जैसे सूर्य्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के प्रकाशक होते हैं वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और ११२७ (ग्यारह सौ सत्ताईस) वेदों की शाखा जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं उन को परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इन में वेदविरुद्ध वचन हैं उन का अप्रमाण करता हूँ।

३. जो पक्षपातरहित न्यायाचरण सत्यभाषणादियुक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है उस को ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञाभङ्ग वेदविरुद्ध है उस को ‘अधर्म’ मानता हूँ।

४. जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को ‘जीव’ मानता हूँ।

५. जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्त्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, [न] है, न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य व्यापक, उपास्य उपासक और पिता पुत्रवत् आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूँ।

६. ‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरी प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उन के गुण, कर्म स्वभाव भी नित्य हैं।

७. ‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते, परन्तु जिस से प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उन में अनादि है, और उस से पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीन [को] प्रवाह से अनादि मानता हूँ।

८. ‘सृष्टि’ उस को कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान युक्तिपूर्वक मेल हो कर नानारूप बनना।

९. ‘सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिस में ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि नेत्र किस लिये हैं? उस ने कहा देखने के लिये। वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी।

१०. ‘सृष्टि सकर्तृक’ है। इस का कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर है। क्योंकि सृष्टि की रचना देखने, जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से सृष्टि का ‘कर्त्ता’ अवश्य है।

११. ‘बन्ध’ सनिमित्तक अर्थात् अविद्यादि निमित्त से है। जो-जो पाप कर्म ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि ये सब दुःखफल करने वाले हैं। इसी लिये यह ‘बन्ध’ है कि जिस की इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।

१२. ‘मुक्ति’ अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित सर्वव्यापक ईश्वर और उस की सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोग के पुनः संसार में आना।

१३. ‘मुक्ति के साधन’ ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं।

१४. ‘अर्थ’ जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय। और जो अधर्म से सिद्ध होता है उस को ‘अनर्थ’ कहते हैं।

१५. ‘काम’ वह है कि जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।

१६. ‘वर्णाश्रम’ गुण कर्मों के योग से मानता हूँ।

१७. ‘राजा’ उसी को कहते हैं जो शुभ गुण, कर्म, स्वभाव से प्रकाशमान, पक्षपातरहित न्यायधर्म का सेवी, प्रजा में पितृवत् वर्त्ते और उन को पुत्रवत् मान के उन की उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।

१८. ‘प्रजा’ उस को कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को धारण कर के पक्षपातरहित न्यायधर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई राजविद्रोहरहित राजा के साथ पुत्रवत् वर्त्ते।

१९. जो सदा विचार कर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सब का सुख चाहे, उस को ‘न्यायकारी’ मानता हूँ।

२०. ‘देव’ विद्वानों को, और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।

२१. उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इस से विपरीत अदेवपूजा। इन मूर्त्तियों की पूजा कर्त्तव्य, इन मूर्त्तियों से इतर जड़ पाषाणादि मूर्त्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।

२२. ‘शिक्षा’ जिस से विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और इनसे अविद्यादि दोष छूटें, उस को शिक्षा कहते हैं।

२३. ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाये ऐतरेयादि ब्राह्मण पुस्तक हैं उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य भागवतादि को नहीं।

२४. ‘तीर्थ’ जिससे दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ विद्यादानादि शुभ कर्म है उसी को तीर्थ समझता हूँ, इतर जलस्थलादि को नहीं।

२५. ‘पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध बनते जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।

२६. ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य स्वात्मवत् सुख, दुःख, हानि, लाभ में वर्त्तना श्रेष्ठ, अन्यथा वर्त्तना बुरा समझता हूँ।

२७. ‘संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कर्त्तव्य समझता हूँ और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।

२८. ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि पदार्थविद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना, उत्तम समझता हूँ।

२९. जैसे ‘आर्य्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ।

३०. ‘आर्य्यावर्त्त’ देश इस भूमि का नाम इसलिये है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात् आर्य्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस की अवधि उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्रा नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है उसी को ‘आर्य्यावर्त्त’ कहते और जो इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य्य कहते हैं।

३१. जो साङ्गोपाङ्ग वेदविद्याओं का अध्यापक सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे वह ‘आचार्य’ कहाता है।

३२. शिष्य—उस को कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करने वाला है।

३३. गुरु—माता, पिता। और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे वह भी ‘गुरु’ कहाता है।

३४. पुरोहित—जो यजमान का हितकारी सत्योपदेष्टा होवे।

३५. उपाध्याय—जो वेदों का एकदेश वा अङ्गों को पढ़ाता हो।

३६. शिष्टाचार—जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।

३७. प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को भी मानता हूँ।

३८. ‘आप्त’ कि जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।

३९. ‘परीक्षा’ पाँच प्रकारी है। इस में से प्रथम जो ईश्वर उसके गुण कर्म स्वभाव और वेदविद्या, दूसरी प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, तीसरी सृष्टिक्रम, चौथी आप्तों का व्यवहार और पांचवीं अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या, इन पाँच परीक्षाओं से सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिये।

४०. ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार, दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़ें, उसके करने को परोपकार कहता हूँ।

४१, ‘स्वतन्त्र’ ‘परतन्त्र’—जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र, वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार काम करने में स्वतन्त्र है।

४२. स्वर्ग—नाम सुख विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।

४३ नरक—जो दुःख विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है।

४४. जन्म—जो शरीर धारण कर प्रकट होना सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार के मानता हूँ।

४५. शरीर के संयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।

४६. विवाह—जो नियमपूर्वक प्रसिद्धि से अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना ‘विवाह’ कहाता है।

४७. नियोग—विवाह के पश्चात् पति के मर जाने आदि वियोग में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री वा पुरुष आपत्काल में स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष [वा स्त्री के] साथ नियोग कर सन्तानोत्पत्ति कर लेवें।

४८. स्तुति—गुणकीर्त्तन, श्रवण और ज्ञान होना, इसका फल प्रीति आदि होते हैं।

४९. प्रार्थना—अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करनी और इसका फल निरभिमान आदि होता है।

५०. ‘उपासना’—जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना। ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जान के, ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, वैसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना, उपासना कहाती है, इस का फल ज्ञान की उन्नति आदि है।

५१, ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’—जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उनसे युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर प्रशंसा करना सगुणनिर्गुण स्तुति कहाती है और शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना सगुणनिर्गुणप्रार्थना और सब दोषों से रहित, सब गुणों से सहित परमेश्वर को मानकर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना निर्गुणसगुणोपासना कहाती है।

ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी ‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है तथा [ऋग्वेदादिभाष्य]-भूमिका आदि ग्रन्थों में भी लिखी है। अर्थात् जो-जो बात सबके सामने माननीय है, उसको मानता अर्थात् जैसा कि सत्य बोलना सबके सामने अच्छा, और मिथ्या बोलना बुरा है, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूँ। और जो मतमतान्तर के परस्पर विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं प्रसन्न नहीं करता, क्योंकि इन्हीं मत वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसा के परस्पर शत्रु बना दिये हैं। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सब को ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़प्रीतियुक्त करा के, सब से सबको सुख लाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा, सहाय और आप्तजनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे और जिससे सब लोग सहज से धर्म्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके, सदा उन्नत और आनन्दित होते रहैं, [यही] मेरा मुख्य प्रयोजन है।

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्य्येषु।

ओ३म्। शन्नो मित्रः शं वरुणः। शन्नो भवत्वर्य्यमा।

शन्न इन्द्रो बृहस्पतिः। शन्नो विष्णुरुरुक्रमः॥

नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम्। ऋतमवादिषम्। सत्यमवादिषम्। तन्मामावीत्। तद्वक्तारमावीत्। आवीन्माम्। आवीद्वक्तारम्।

ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥

[तैत्तिरीय आरण्यक ७।१२]

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितः स्वमन्तव्यामन्तव्यसिद्धान्तसमन्वितः

सुप्रमाणयुक्तः सुभाषाविभूषितः

सत्यार्थप्रकाशोऽयं ग्रन्थः सम्पूर्तिमगमत्॥

अवैदिक कर्म – सूर्य अर्ध्य

पौराणिक अपने घर की छत पर 10 बजे सूर्य की दिशा पानी डालते हुए आर्यसमाजी को देख कर कहता हैं की आपलोग पूजा पाठ नहीं करते इससे धर्म की बड़ी हानि हो रही हैं।

आर्यसमाजी – मैंने ईश्वर की उपासना कई घंटे पहले कर ली हैं, मैं सूर्योदय से पहले जाग जाता हूँ।

पौराणिक – पर आप सूर्य को पानी नहीं चढ़ाते।

आर्यसमाजी – वेदो में क्या सूर्य की दिशा में पानी डालने को कहा गया हैं ? क्या तुम्हारा पानी सूर्य तक पहुँच जाता हैं ? क्या पानी डालने या न डालने से सूर्य को कोई फर्क पड़ता हैं ? क्या अन्य देशो में सूर्य ने चमकना बंद कर दिया जहाँ पानी नहीं डाला जाता ?

पौराणिक – अमुक बाबा ने कहा हैं की सूर्य हमें रौशनी देता हैं इसलिए हमें पानी चढ़ाना चाहिए।

आर्यसमाजी – तुम अँधेरे में बैठे थे तुम्हारे पिता ने घर में बिजली का कनेक्शन लेके , बल्ब लगा के अँधेरा दूर किया और अब तुम अपने पिता के स्थान पे बल्ब को धनयवाद दे रहे हो, कभी सृस्टि के रचियता की भी उपासना कर लिया करो।

पौराणिक – तुम्हारे कहने का मतलब हैं की सूर्य देवता नहीं हैं ?

आर्यसमाजी – हैं, पर चेतन नहीं हैं, जड़ हैं , और जड़ पूजा से कोई लाभ नहीं होता।

पौराणिक – नहीं हमने टीवी पर देखा हैं की सूर्य जागृत देवता हैं और अपने रथ पे सवार होके निकलता हैं और रौशनी देता हैं ।

आर्यसमाजी – टीवी पे तो यह भी कहा हैं की सूर्य एक तारा हैं और इस जैसे करोड़ो तारे इस ब्रह्माण्ड में हैं ।

पौराणिक – आप आर्यसमाजी लोगो की धर्म में आस्था नहीं हैं, आप लोग सिर्फ तर्क कर सकते हैं।

आर्यसमाजी – तुम्हारी वेदो में आस्था नहीं है , हमेशा वेद विरोधी काम करते हो और किस मुंह से खुद को धार्मिक कहते हो, क्रिसमस पे ईसाई के साथ अंडे वाला केक खाते समय या मज़ार पे चादर डालते समय तुम्हारी आस्था को क्या हो जाता हैं ? क्या तुम्हारे टीवी वाले बाबा ने ऐसा करने को कहा हैं या खुद करते हो ?

पौराणिक – समाज में रहने समय यह सब करना पड़ता हैं , आपलोग नहीं समझोगे।

आर्यसमाजी – तो आस्था , धर्म जैसी बाते क्यों करते हो , बोलो न जो मन में आता हैं वही करते हैं और तुम्हे धर्म से कोई लेना देना नहीं हैं।

पौराणिक उतरे चेहरे और खाली लौटे के साथ घर में घुस गया।

वेदों में पदार्थ – विज्ञान :-ज्ञानचन्द्र

           पद का अर्थ है स्थिति अर्थात् स्टेटस एवं अर्थ का प्रयोजन है तात्पर्य एवं मूल। पृथ्वी क्योंकि सभी प्राणियों की स्थिति का कारण है तथा पृथ्वी ही सबका मूल है अतः पृथ्वी के द्रव्य का नाम हुआ पदार्थ। साथ ही पृथ्वी पंच सृजनकारी तत्वों का अन्तिम परिवर्तन है तथा आकाश, वायु, अग्नि व जल का सघन तत्व है अतः उसका नाम हुआ पदार्थ अर्थात् स्थिति और मूल। इसी नाते पदार्थ भौतिक तत्वों भी कहते हैं।

            पदार्थ के विज्ञान से यदि आधुनिक दृष्टि सम्मत मूल तत्व को जड़ पदार्थ मानकर और उनसे विकसित साधनों का, उसकी व्यवस्था से होने वाले किकासों और जीवनोपयोगी विधानों से है, तो उसका उतना महत्व नहीं है। क्योंकि भारत ने अन्न अर्थात् पदार्थ को भी ब्रह्म माना है। भारतीय मनीषा की यह घोषणा है कि अस्तित्व मात्र ब्रह्म ही सत् है, सत्य है और अस्तित्व है। प्रकृति जड़ है तथा ब्रह्म से विशेष है- पर यह सत्य नहीं प्रतिभास है। ‘‘परब्रह्म के अतिरिक्त कुछ तत्व सत्ता में हो नहीं सकता’’ क्योंकि ‘‘है’’ का अर्थ ही ब्रह्म है। ब्रह्म जो ‘‘है’’ और सतत प्रवर्धमान है, उद्घाटनशील है। पर ब्रह्म की प्रवर्धमानता व उद्घाटनशीलता मौलिक नहीं है मात्र अभिव्यक्ति में है। क्योंकि ब्रह्म सदा सम्पूर्ण है अतः उसमें मौलिक नूतन कुछ नहीं हो सकता परन्तु अभिव्यक्ति में नूतन सदा ही हो सकता है।

            स्थिति या पद मात्र ब्रह्म है तथा अर्थ या तात्पर्य भी एकमात्र ब्रह्म है। जगत् की अभिव्यक्ति ब्रह्म के ही दो आयामों का परस्पर संबंध और और अभिव्यंजना है।

            जड़ पदार्थ ब्रह्म का आत्मलीन योग निद्रात्मक स्वरूप है। चेतन ब्रह्म परंतत्व का आत्मज्ञानात्मक, अनिद्रात्मक सबोध स्वरूप है। ‘जीव’ के विकास मुक्ति लाभार्थ ब्रह्म और प्रकृति का सृजन विलास होता है।

            चेतना के द्वारा जड़ ब्रह्म के अनेकों उपयोग व विधान बनाए जा सकते हैं।

चेतना में संश्लेषण, स्तर, आयाम, संघटन व सम्मिश्रण बदल कर चमत्कारिक साधनों का निर्माण किया जा सकता है।

            जड़ पदार्थ के बने शरों और नाराचों के भीतन विशिष्ट चेतना प्रवाहित करके राम-रावण युद्ध एवं महाभारत युद्ध में अत्यन्त आश्चर्यपूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया गया था। उन पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र व सर्वविनाशक ब्रह्मास्त्र को विशिष्ट ध्यान व एकाग्रता की विधियों से स्मृतिगत करके प्रयुक्त किया जाता था।

            ब्रह्मास्त्र के विषय में महाभारत में एक विशिष्ट उल्लेख है जिससे उसकी सचेतन विधि प्रक्रिया का ज्ञान होता है। अश्वत्थामा ने पांडवों के समूल विनाश के लिए जब ब्रह्मास्त्र छोड़ा, तो शास्त्र व विज्ञान के महान् पंडित कृष्ण ने सबसे शस्त्र छोड़ कर रथों से नीचे उतरने को कहा। सबने तत्काल कृष्ण वचन का पालन किया परन्तु आग्रह और मूढ़ता से भीम रथ पर ही डटा रहा तथा अपनी गदा घुमाता रहा। श्रीकृष्ण ने बलपूर्वक उसे नीचे खींचा और उसकी गदा हाथ से छीनी। तत्काल ब्रह्मस्त्र पीछे हटा और आकाश में विलीन हो गया। यह घटना उस काल के अस्त्रों के सचेतन क्रियाकारी स्वरूप को बताती है।

            उसी प्रकार पुष्पक विमान भी वैदिक पदार्थ विज्ञान का परिपुष्ट प्रमाण था। वह मंत्रचर था। उसकी बनावट व प्रक्रिया इस प्रकार की थी कि वह मंत्रोच्चारण से परिचालित हो कर गतिमान होता था तथा इच्छित ऊंचाई तक आकाश में उठ कर अत्यन्त तीव्र गति से आगे बढ़ता था। वाल्मीकीय रामायण के सुन्दर काण्ड में पुष्पक विमान का अत्यन्त सजीव वर्णन है। एक जर्मन विज्ञान एरिक वान डैनिकन ने पुष्पक विमान का वर्णन व प्रक्रिया पढ़ कर आश्चर्य से यह लिखा कि ‘‘बिना विमान को देखे और उसकी प्रक्रिया को बिना जाने ऐसा सजीव वर्णन व ऐसी सटीक अभिव्यक्ति प्रस्तुत नहीं की जा सकती। ‘‘भारतीय पदार्थ विज्ञान के विषय में एरिक वान डैनिकन की ‘‘चैरियट आफ द गाड्स’’ एक अत्यन्त उपयोगी व पठनीय पुस्तक है।

            मोहन जोदड़ों हड़प्पा तथा गुजरात में लोथल आदि नगरों के उत्खनन में निकले नगरावशेष भारत के उच्च वास्तु विज्ञान के प्रमाण हैं।

            आयुर्वेद भी स्वयं में एक पदार्थ विज्ञान है जो भौतिक देह के स्वास्थ्य और उपचार का श्रेष्ठ विज्ञान विधान है।

            यातायात, व्यापार व अर्थ विधान, भांति-भांति के यंत्र भारतीय ग्रंन्थों में संदर्भित हैं। इस पार्थिव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को सुविधा और व्यवस्था से परिपूर्ण करने के लिए उस काल की श्रेष्ठतम वैज्ञानिक प्रगति आज भी लोगों को चकित कर देती है।

            परन्तु सबसे मुख्य बात तो वैदिक सभ्यता में ध्यान देने की है वह यह की पाश्चात्य प्रभावित मनोवृत्ति से उस पुरातन मनोवृत्ति का कोई मेल नहीं है। अतः पदार्थ विज्ञान की पुरातन व्यवस्था भी आज के काल के गणित से नहीं देखनी चाहिए। भारतीय उच्चादर्श को जो पूर्ण विश्व में अपूर्व व अद्वितीय है जीवन के चार पुरूषार्थों की दृष्टि से जांचना पड़ेगा। धर्म का अध्ययन-अभ्यास अर्थ, काम व मोक्ष की दृष्टि से। काम का परिसेवन धर्म, अर्थ व मोक्ष के आधार पर, अर्थ का उपार्जन व व्यय धर्म, काम व मोक्ष के लक्ष्य से तथा धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का अभ्यास मोक्ष की चरम दृष्टि के साथ करना अभीष्ट था। इस चतुर्मुखी दृष्टि से पदार्थ और पदार्थ विज्ञान के ध्येय व प्राप्तव्य बदल जाने से यहां पदार्थ विज्ञान का विकास पाश्चात्य विस्तार के समान नहीं किया गया। असुर लोग क्योंकि भोगवादी थे अतः उन्होंने अत्यन्त श्रेष्ठ यंत्रों, साधनों और भौतिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया। यही श्रेष्ठ भौतिक पदार्थ उन्हें तृप्तवादी, भोगोन्मुख अतः अनैतिक बना देते थे अतः बाद में वे नष्ट कर दिए जाते थे। रावण जैसा असुर कला कौशल व ज्ञान-विज्ञान में दशरथ और राम आदि से श्रेष्ठ व ऊंचा था। पुष्पक विमान के अतिरिक्त भी उसके पास और आकाशचारी यान थे। शस्त्र-अस्त्र भी उसके पास श्रीरामचन्द्र से श्रेष्ठ थे। परन्तु उसकी अनैतिकता व स्वैर उसे ले डूबे। वह एक अलग विषय है व्याख्या व विस्तार के लिए।

            वेदों का पदार्थ विज्ञान आज के योरोपीय विज्ञान से श्रेष्ठतर होते हुए भी जनसाधारण तक नहीं पहुंच सका था। उस काल के यन्त्र और यान आदि अत्यन्त सीमित रूप में राजाओं आदि के पास ही होते थे। वे भी दुःसाध्य, दुष्प्राप्य एवं अत्यधिक मूल्य पर ही प्राप्य थे।

            वैदिक पदार्थ की भाषा आज समझाने के प्रयास बहुत कठिन व दुरूह हो जाते हैं। पूरी भाषा, व्यंजना अभिव्यक्ति के साथ मान्यताएं व वरीयताएं भिन्न होने से भिन्न मनोवृत्ति चाहिए उन्हें समझने के लिए अतः हमने संक्षेप में भूमिका मात्र प्रस्तुत की है।

श्री अरविन्द चेतना समाज,

६५६/९, चमेलियान रोड़, दिल्ली-११०००६

पञ्चमहाभूत्

गोविन्द घनश्याम मैंदरकर

(वैदिक, अवैदिक एवम् पाश्चात्य विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन)

संदर्भः-  १.  भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) ले.पं.द.वा. जोग

            प्रथमावृत्ति १९५८ चित्रशाला प्रकाशन, पुणे-२

२.        उपनिषद्-तैत्तिरीय, केन, प्रश्न, मुण्डक, श्वेताश्वतर

३.        सत्यार्थ प्रकाश-महर्षि दयानन्द सरस्वती

४.        अद्वैतमत-खण्डन-स्वामी विद्यानंद सरस्वती

५.        मराठी विश्वकोश-खण्ड ९

६.        भारतीय संस्कृति कोशः पञ्चमखण्ड

पं. महादेव शास्त्री जोशी

पंचमहाभूतों की उत्पत्तिः- सृष्टि के आंरम्भ से ही मनुष्य तत्वदर्शी रहा है।

ओं केनेषितं पतति प्रेषितं मनः केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।

केनेषितां वाचमिमां वदन्ति चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।।

                                                                                                – केनोपनिषद् प्रथम खण्ड-मंत्र १

            जड़रूप अंतः कारण, प्राण, वाणी आदि कर्मेन्द्रियों और चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को अपना-अपना कार्य करने की योग्यता प्रदान करने वाला और उन्हें अपने-अपने कार्य में प्रवृत्त करने वाला जो कोई एक सर्वशक्तिमान् चेतन है, वह कौन है? और कैसा है?

            भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।।

                                                                                                -प्रश्नोपनिषद्, प्रथम प्रश्न, मंत्र ३

            किस प्रसिद्ध और सुनिश्चित कारण विशेष से, यह सम्पूर्ण प्रजा नाना रूपों में उत्पन्न होती है? वह कौन है?

            भगतन्कत्येव देवाः प्रजां विधारयन्ते कतर

            एतत्प्रकाशयन्ते कः पुनरेषां वरिष्ठ इति।।

                                                                                    – प्रश्नोपनिषद् द्वितीय प्रश्न, मं. १

भगवन्। प्राणियों के शरीर को धारण करने वाले कुल कितने देवता हैं?

उनमें कौन-कौन इसको प्रकाशित करने वाले हैं? इन सबमें अत्यंत श्रेष्ठ कौन है ?

            वह म नही मन स्वयं को उपरिनिर्दिष्ट प्रश्नों जैसे अनेक प्रश्न पूछते रहता है। उत्तर तथा समाधान खोजने के प्रयास करते रहता है। इन्हीं प्रयासों के फल हैं दर्शन एवं उपनिषद्। भावात्मक तथा अभावात्मक, सभी प्रकार के अस्तित्वों के ज्ञान के ये ही मूल स्त्रोत हैं। खोज की यात्रा आगे बढ़ती है, तभी से आरंभ होता है मत-मतान्तरों का। इन विभिन्न विचारधाराओं का अध्ययन पंचमहाभूतों के संदर्भ में इसीलिये करना आवश्यक है।

            स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुज्र्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोञन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च।।                          -प्रश्नोपनिषद्, षष्ठ प्रश्न, मंत्र ४

            (सबसे पहले) उसने प्राण की रचना की, प्राण के बाद श्रद्धा को (उत्पन्न किया) उसके बाद क्रमशः आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी (ये पांच महाभूत प्रकट हुए, फिर) मन (अन्तः करण) और इन्द्रिय समुदाय (की उत्पत्ति हुई) अन्न हुआ, अन्न से वीर्य (की रचना हुई, फिर) तप, नाना प्रकार के मन्त्र, नाना प्रकार के कर्म उनके फलस्वरूप भिन्न-भिन्न लोकों (का निर्माण हुआ) और उन लोकों में नाम (की रचना हुई)।

            इन पांच महाभूतों का कार्य ही यह संपूर्ण दृश्यमान ब्रह्मांड है।

            अब संक्षेप में जगत् की उत्पत्ति का क्रम बनाते हैं-

            तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।

            अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसुचामृतम्।।

                                                                                                -मुण्डकोपनिषद्, खण्ड १, मंत्र ८

            परब्रह्म में विविध रूपोंवाली सृष्टि के निर्माण का संकल्प उठता है। उससे अन्न उत्पन्न होता है, अन्न से (क्रमशः) प्राण, मन सत्य (पांच महाभूत), समस्त लोक (और कर्म) तथा कर्मों से अवश्यम्भावी सुख-दुःखरूप फल उत्पन्न होता है।

            तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः।

            आकाशा द्वायुः। वायोरग्निः। अग्नेरापः। अद्भ्यः पृथिवी। पृथिव्या ओषधयः।

            ओषधिभ्योऽन्नम्। अन्नात्पुरूषः। स वा एष पुरूषोऽन्नरसमयः।

                                                            -तैत्तिरीयोपनिषद्, ब्रह्मनन्दवली, प्रथम अनुवाक।

            निश्चय ही उस परमात्मा ने (पहले-पहल) आकाश तत्व उत्पन्न किया। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल तत्व से पृथ्वी तत्व उत्पन्न हुआ। पृथ्वी से समस्त औषधियाँ उत्पन्न हुईं, ओषधियों से अन्न उत्पन्न हुआ। अन्न से ही (यह) मनुष्य शरीर उत्पन्न हुआ। वह यह मनुष्य शरीर निश्चय ही अन्न रसमय है।

            इस प्रकार उपनिषद् पंचमहाभूतों की उत्पत्ति बताते हैं।

           (१) पुरूष  (२) (प्रकृति) (३) महत (४) अहंकार (५) मनस् (६ता १०) ज्ञानेन्द्रियाँ  (११ ता १५)  कर्मेन्द्रियाँ (१६ ता २०) पंचतन्मात्रा

           सांख्य पच्चीस तत्व अथवा मुख्य पदार्थ हैं ऐसा मानते हैं, वे निम्र वृक्ष से बताए जाते हैं- (२१ ता २५) पंचमहाभूत भारतीय दर्शन संग्रह प्रथमावृत्ति, पृष्ठांक २७७

            इस वृक्ष में पंचमहाभूतों की उत्पत्ति तथा उनका अन्य तत्वों से या पदार्थों से संबंध बताया गया है। इन तत्वों के कार्यकारण भाव के अनुसार चार भाग होते हैं, उन्हें ही चार (अर्थ) कहा जाता है। वे चार अर्थ इस प्रकार हैं-

            (१) मूल प्रकृति (प्रधान) (२) प्रकृति विकृति (३) केवल विकृति (४) अनुभय- अर्थात् प्रकृति भी नहीं और विकृति भी नहीं। जो विशेष प्रकार से सृष्टि करती है वह प्रकृति कहलाती है। सत्व, रज व तम ये इसके माध्यम हैं। पंचमहाभूत और ग्यारह इंद्रिया मिलकर साहल विकार है।

            सत्वरजस्तमसां साम्यावस्थ प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहड्.कारोऽहड्.कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरूष इति पञ्चविंशतिर्गणः।। -सांख्य. सू. अ. १ सूक्त ६१                                                                    -स. प्र., अष्टम् समु.

            सत्व, रज, तम तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात होता है, उसका नाम ‘‘प्रकृति’’ है। उससे ‘‘महत्-तत्व’’ बुद्धि, उससे ‘‘अहंकार’’, उससे ‘‘पांच तन्मात्रा’’ सूक्ष्मभूत और दश इंद्रियां तथा ग्यारहवां ‘‘मन’’ , पांच तन्मात्राओं से  ‘‘पृथिव्यादि पांच भूत’’ ये चैबीस और पच्चीसवां पुरूष अर्थात् जीव-परमेश्वर है।

                                                                                                            (स. प्र., अष्टम समु.)

            इस प्रकार पंचमहाभूतों की उत्पत्ति का ज्ञान सांख्य देता है। इसे ही सृष्टि की या विश्व की उत्पत्ति का साधन बताता है।

            त्रैतमतवाद के उद्गाता, महान् दार्शनिक, महर्षि दयानन्द सरस्वती अपने सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम समुलास में श्वेताश्वतरोपनिषद् का (अ. ४ मं. ५) मं. उद्धृत करके कहते हैं-

अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां

बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः।

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते

हात्येनां भुक्तभोगामजोन्यः।।

-श्वेताश्वतरोपनिषद् अध्याय ४ मं. ५

            प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों ‘अज’अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते, अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। यहां प्रकृति अज, अनादि है। पंचमहाभूत इसके अंग हैं इसलिये वे भी अज-अनादि हैं।

            द्वैतमत के समर्थक प्रकृति को पुरूष के समान ही महत्व देते हैं। प्रकृति को पुरूष की अभिव्यक्ति का साधन या माध्यम मानते हैं। वे पृकृति को मिथ्या नहीं मानते। सब उपनिषदों में शीर्ष स्थान पर बैठा एक संदर्भ मिलता है जो इस प्रकार है-

            ओं पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

            (यह मंत्र बृहदारण्यकोपनिषद् के पांचवे अध्याय के प्रथम ब्राह्मण की प्रथम कंडिका पूर्वार्धरूप है।)

            ‘‘अदस्’’ और ‘‘इदम्’’ दो पद महत्व रखते हैं। ‘‘अदस्’’ चेतन है, ‘‘इदम्’’ अचेतम है, जड़ है। ‘‘अदस्’’ परोक्ष चेतन परब्रह्म, परमात्मा है, ‘‘इदम्’’ प्रत्यक्ष अचेतन (जड़) है। अपने-अपने रूप में अवस्थित दोनों पूर्ण हैं, किसी में कोई न्यूवता नहीं। इसलिए ‘‘आदस्’’ पूर्ण के अंतर्गत भी ‘‘इदम्’’ पूर्ण रूपेण उससे पृथक् है। दोनों के पूर्ण और स्वतंत्र होने से दोनों सत्य हैं, मिथ्या कोई नहीं।

            अर्थात् प्रकृति के सत्य होने से पंचमहाभूत भी सत्य हैं।

            अद्वैतमत के उद्गाता आचार्य शंकर प्रकृति को ‘‘मिथ्या’’ मानते हैं। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।। वे ब्रह्ममात्र का महत्व देते हैं, तथा प्रकृति को गौणत्व। प्रकृति के गौणत्व का पर्यायी अर्थ होता है पंचमहाभूत गौण हैं, मिथ्या हैं।

            सारांश रूप में यह स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक दार्शनिक मुण्डकोपनिषद् के दिये हुए सृष्टि के उत्पत्ति के क्रम से सहमत हैं जिसमें कहा गया है-

            परब्रह्म सब प्राणियों की उत्पत्ति और वृद्धि करनेवाला अन्न उत्पन्न करते हैं। फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन, कार्यरूप आकाशादि पंचमहाभूत, समस्त प्राणि आदि उत्पन्न होते हैं।

            अब अवैदिक दर्शनों की प्रकृति तथा पंचमहाभूतों के बारे में क्या विचारधाराएं हैं यह देखते हैं।

            अवैदिक दर्शनों में चार्वाक के विचार संदर्भ में उपलब्ध नहीं है। जहां ईश्वर का अस्तित्व ही उन्हें मान्य नहीं, जहां प्रलय पर भी विचार नहीं किया गया, वहां इस सृष्टि का विचार उनकी दृष्टि में गौणसा लगता होगा। इस विषय पर उपलब्ध बृहस्पति के विचार कुछ इस प्रकार है-

            न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः।

            नैव वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्व फलदायिकाः।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रह (मराठी) प्रथमावृत्ति पृष्ठांक ९५

            स्वर्ग नहीं, मोक्ष नहीं, परलोक में जाकर कर्मानुसार सुख या दुःख भोगनेवाला आत्मा अलग नहीं।……………

            चार्वाक की मान्यता के अनुसार मात्र चार ही मूलभूत तत्व हैं- पृथिवी, आप्त, तेज और वायु। चार्वाक आकाश को भूत मानते ही नहीं, क्योंकि वे  प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानते हैं जबकि आकाश, प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय हो नहीं सकता। क्योंकि उसका अस्तित्व अभावात्मक होता है, अवस्तु होता है।

-भारतीय-दर्शन-संग्रह प्रथमावृत्ति पृष्ठांक ११०

            बौद्धमत के अनुसार पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार भावभूत भूत और यही भूत कोटि है। इसमें पृथिवी के परमाणु खरस्वभाव अर्थात् कठिन, कठोर, परमाणु स्नेहस्वभाव, तेज के परमाणु उष्णस्वभाव तथा वायु के परमाणु ईरण अर्थात् चलस्वभाव के होते हैं। (यहां तेज के परमाणु का अस्तित्व माना गया है, यह विशेष)। इन सबका कर्त्ता -अधिष्ठाता कोई प्रतीत नहीं होता। जब पृथिव्यादि ये धातु (भूत) समर्थ तथा क्रियाशील होते हैं, तब सबके समवाय ये कर्मोत्पत्ति होती है।

            जैन मत भी प्रकारान्तर से इसी प्रकार की पृष्टि करता दिखाई देता है।

            आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, विशेषतः रसायनशास्त्रीयों की मान्यता इससे कुछ अलग ही है। विश्व के निर्माण में वे मूलतः ९२ मूलतत्वों (Elements) का अस्तित्व मानते हैं। उनमें से कुछ किरणोत्सर्जक (Radeoactive) होने से कुछ नये मूलतत्व (Elements) का निर्माण होता है। इसलिए मूलतत्वों की संख्या ९२ से बढ़कर १०५ के लगभग होती है। जहां पौर्वात्य दार्शनिक पृथ्वी, आप और वायु भिन्न-भिन्न मूलतत्व मानते हैं, वहां पाश्चात्य वैज्ञानिक इन्हें पदार्थों की अवस्था (States of matter) मानते हैं, यथा-पानी एक पदार्थ-बर्फ उसकी एक अवस्था (Stage) जो (Solid) स्थायु, ठोस, घन शब्द से जानी जाती है। भाप (Steem) उसकी वायु अवस्था (Gas Stage) से जानी जाती है। इन तीनों अवस्थाओं में पदार्थ की रचना, अणु, परमाणु में कोई परिवर्तन नहीं होता। सभी तीनों अवस्थाओं में रचना अणु-परमाणु से ही होती है। अतः पृथ्वी, भाप और वायु में ‘‘भूत” नहीं है, अपितु अवस्थाएं हैं ऐसा पाश्चात्य रसायन शास्त्रीयों का मानना है। वे तेज को पदार्थ नहीं मानते किंतु ऊर्जा (Energy) मानते हैं। तेज की रचना में अणु-परमाणु का विचार नहीं होता, क्योंकि वह पदार्थ नहीं हैं डॉ. अल्बर्ट आइन्सटाइन ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह स्थापित किया की ऊर्जा तथा पदार्थ परस्पर में परिवर्तनीय होते हैं। उसका सूत्र E=M c२ है, जहां E= ऊर्जा, M=Mass वस्तुमान, पदार्थ का भार, तथा C= प्रकाश की गति, ३ लाख किमी./सेकंण्ड है। यहां आश्चर्य इस बात का है कि वैदिक दार्शनिकों ने प्रयोग के साधनों के अभाव होते हुये भी वही निष्कर्ष निकाला है जो आइन्स्टाइन ने निकाला है। वे ऊर्जा = तेज को भी भूत = पदार्थ की श्रेणी मे रखते हैं, एवं ऊर्जा को अचेतन = जड़ मानते हैं। यह केवल चिंतन, तथा तर्क के आधार पर ही इस निष्कर्ष तक पहंचे यह आश्चर्य है।

            वैदिक दार्शनिक आकाश को एक भूत मानते हैं। चार्वाक, बौद्ध आकाश तत्व मानते नहीं। पर, शास्त्रार्थ में परास्त होने पर चार्वाकानुयायी आकाश को भी ‘‘तत्व’’ मानने पर विवश हुए।

            वस्तुतः आकाश का स्वरूप अभावात्मक है। न्याय वैशेषिक दर्शन यों बताता है-

            अभावश्वतुर्विधः। प्रागभाव, प्रध्वंसाभावोऽत्यवत्तभावोऽन्योनाभावश्वेति।।

            आकाश अज्ञेय परंतु अभिधेय अर्थात् शब्द का विषय तथा प्रमेय अर्थात् प्रमाण का विषय होने वाला है। अभावात्मक होते हुए भी वह नापा जा सकता है। दिशा, काल आदि भी अभावात्मक होते हुए भी अभिधेय तथा प्रमेय होते हैं।

            यहां वैदिक विद्वान् तथा आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिक, दोनों भी काल एवं आकाश (Time & Space) इनके विषय में समान विचार रखते हैं। डॉ. आइन्सटाइन ने समय (काल) को चतुर्थमिति (Fourth dimention) बताया है। इससे अभिप्राय यह कि हर जड़ अस्तित्व भौमितीय सिद्धान्त से भिमित होता ही है, पर उसके अस्तित्व के काल का निर्धारण भी आवश्यक होता है।

पंचमहाभूतों के लक्षण

(मुख्य संदर्भ -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथमावृत्ति लक्षण पृष्ठांक २२७ से २३७)

            अब इन पंचमहाभूतों के लक्षणों का विस्तार करते हैं। न्यायशास्त्र लक्षण ग्रंथ पंचमहाभूतों के संबंध में अपने विवेचन निम्न प्रकार करते हैं। न्याय वैशेषिक दर्शन में नित्य हैं और कार्यरूप से अनित्य। इन पांचों तत्वों का परस्पर संसर्ग होने से उनमें कार्यकारण भाव नहीं है। पर वेदांत शास्त्रों ने इनमें कार्यकारण भाव माना है। संसार की सृष्टि साक्षात् इन भूतों के परस्पर  संसर्ग से ही होती है। इस मिश्रण को पंचीकरण कहते हैं। प्रत्येक महाभूत में स्वतः १/२ तथ्य, अन्य चारों में प्रत्येक का १/८ भाग होता है। कुछ उपनिषद् मात्र तीन तत्व मानते हैं, इसीलिए उनके संसर्ग को ‘त्रिवृत्तकरण’ कहा जाता है। हर महाभूत में सब तन्मात्र के गुण होते हैं।

            पंचीकरण दर्शाने हेतु निम्न तालिका दी गयी है-

क्रम      तत्व (महाभूत)            आकाश            वायु                 तेज (अग्नि)       आप                 पृथिवी

१.        आकाश                        १/२                १/८                १/८                १/८                १/८

२.        वायु                             १/८                १/२०             १/८                १/८                १/८

३.        तेज (अग्नि)                   १/८                १/८                १/२                १/८                १/८

४.        आप                             १/८                १/८                १/८                १/२                १/८

५.        पृथिवी                 १/८                १/८                १/८                १/८                १/२

            ये महाभूत संसार की सृष्टि के कारण होते हैं। उनसे बहुत बड़ी मात्रा में ऊर्जा (Energy) का निर्माण होने के कारण कभी-कभी वह ऊर्जा संहार-प्रलय का भी कारण होती है। इन महाभूतों को अपने वश में लाकर उनकी ऊर्जा का प्रयोग मानव-कल्याण में करने के प्रयास करना यह आधुनिक विज्ञान का लक्ष्य होता है। इन्हें संतुष्ट कर, और उससे मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक मानवमात्र का कल्याण करने हेतु प्राचीन काल में इनकी स्तुति में अनेक प्रार्थनाएं रची गयी हैं।

            अब एक-एक ‘‘भूत” पर विचार करते हैं-

            तत्र गन्धवती पृथ्वी। सा द्विविधा। नित्यानित्या च। नित्या परमाणुरूपा।

            अनित्य कार्यरूपा। पुनस्त्रिविधा। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरमस्मदादीनाम्।

            इन्द्रियं गन्धग्राहकं घ्राणं नासाप्रवृत्ति। विषयों मृत्पाषाणादिः।।९

                                                                        -भारतीय-दर्शन-संग्रहः प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २२७

            पृथ्वीद्रव्य का लक्षण गंधत्व है। इसका अभिप्राय यह है कि गंध का नित्य संबंध पृथिवी से रहना। यहां गंध आधेय व पृथ्वी आधार है। इससे आधेयता का धर्म गंधनिष्ठ है और आधारता या अधिकरणता पृथ्विनिष्ठ है। फलस्वरूप ‘‘गन्धनिष्ठाधेयतानिरूपिताधिकरणताश्रयत्वं पृथिव्याः लक्षणं’’, अर्थात् गंधनिष्ठ जो आधेयता, उस आधेयता से निरूपित, अर्थात् ज्ञान अथवा सूचित होने वाली जो अधिक लाता है उसका आश्रयत्व ही पृथ्वी का लक्षण है। आधेय शब्द के उच्चारण के साथ ही अधिकरण की कल्पना आती है। इसलिए अधिकरण आधेयनिरूपित होता है, ऐसा माना जाता है। गंध आधेय है यह समझ में आते ही उसका अधिकरण क्या है, यह सवाल उठता है, जिसका उत्तर है अधिकरणत्व का आश्रय पृथिवी है। यहां पृथ्वी लक्ष्य तथा गंध लक्षण है। लक्ष्यत्व का धर्म पृथ्वी में है, जिससे पृथ्वित्व लक्ष्यतावच्छेद है। पृथ्वी लक्ष्यतानच्छेदकावच्छिन्न है और पृथ्वी में गंधत्वलक्षण का समन्वय होता है।

            यह पृथिवी दो प्रकार की होती है-नित्य और अनित्य। नित्य पृथ्वी परमाणुरूप है तो अनित्य पृथ्वी कार्यरूप होती है। अनित्य पृथ्वी पुनः तीन प्रकार की होती है। शरीर, इंद्रियां व विषय यही वे तीन प्रकार हैं। मनुष्यादि प्राणियों के शरीर स्वतः सिद्ध हैं। गंध का ग्रहण करने वाला घ्राण पार्थिव इंद्रिय नासिका के अग्रभाग में स्थित होता है। आत्मा मन से संयुक्त होता है, मन इन्द्रियों से संयुक्त होता है, इन्द्रियां विषय से संयुक्त होती हैं, तभी प्रत्यक्ष ज्ञान का उद्भव होता है।

            गंधयुक्त शरीर को पार्थिव शरीर कहते हैं। इसमें पृथिवी तत्व जलादि अन्य तत्वों से अधिक मात्रा में होता है, इसलिए इसे पार्थिव कहते हैं। वास्तव में पार्थिव शरीर भी पंचभौतिक होता है। पर पार्थिव इंद्रिय का नाम घ्राण होता है जो पृथ्वी के गंध गुण का ग्रहण करता है। गंध के अभाव का ज्ञान भी उसी से होता है।

            शीतस्पर्शवत्य आपः। ता द्विविधाः। नित्या अनित्याश्व। नित्याः परमाणुरूपाः।

अनित्याः कार्यरूपाः। पुनस्त्रिविधाः। शरीरेन्द्रियविषयभेदात्। शरीरं वरूण लोके।

इन्द्रियं रसग्राहकं रसनं जिव्हाप्रवृत्ति। विषयः सरित्समुद्रादिः।।

                                                -भारतीय-दर्शन-संग्रह, प्रथम संस्करण पृष्ठांक २३१

            आप शीतस्पर्शयुक्त होता है। उसके भी नित्य तथा अनित्य ऐसे दो प्रकार हैं। नित्य आप परमाणुरूप होता है और अनित्य आप कार्यरूप होता है। अनित्य आपों के शरीर, इंद्रियां व विशय ऐसे और तीन भेद होते हैं। आप्य शरीर वरूणालोक में होता है। इंद्रिय अपनी जिव्हा के (जिह्वा) अग्र पर रहता है। वह रसों का ग्रहण करता है, इसलिए उसे ‘‘रसन” कहा जाता है।

            परमाणुरूप जल नित्य और व्घेणुकादि सर्व कार्यरूपजल अनित्य होता है। जिस प्रकार पार्थिव शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना होती है वैसे जलीय शरीर पृथिवी पर दिखने की संभावना नहीं होती। वह वरूण के जलप्रधान लोक में ही दिखने की संभावना होती है। हाँ! जलीय इंद्रिय मानवी शरीर में जिह्वा में अग्र पर स्थित होता है। वह गंधादि पांच विषयों में से केवल रस का ही ग्रहण कर सकता है।

            उष्णस्पर्शवत्तेजः। तद्द्विविधं। नित्यमनित्यं च। नित्यं परमाणुरूपम्। अनित्यं कार्यरूपम्। पुनस्त्रिविधम्। शरीरेंद्रियविषयभेदात्। शरीरमादित्यलोके। इन्द्रियं रूपग्राहकं चक्षुः कृष्णताराग्रवृत्ति। विषयश्वतुर्विधः। भौमदिव्यौदर्याकरजभेदात्। भौमं वन्हयादिकं। अबिन्धनं दिव्यं, विधुदादि। भुक्तस्य परिणामहेतुरौदर्यम्। आकरजं सुवर्णादि।।

                                                                        -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३२

            तेज उष्णस्पर्शवत् है। उष्णस्पर्श यह तेज का असाधारण धर्म अर्थात् लक्षण है। वह तेज नित्य और अनित्य, ऐसे दो प्रकार का होता है। नित्य तेज परमाणुरूप तथा अनित्य तेज कार्यरूप होता है। इसके भी और तीन प्रकार होते हैं। तेजस् शरीर आदित्य लोक में होता है। चक्षु नाम का रूप का ग्रहण करने वाला तैजस् इंद्रिय आंखों की कनीनिका के अग्र भाग में होता है।

            तैजस विषय चार प्रकार का है। १. भौम, २. दिव्य, ३. औदर्य व ४. आकरज। इनका विस्तार यहां करना लेख की मर्यादा से बाहर है।

            रूपरहितस्पर्शवान् वायुः। सद्विविधं। नित्योऽनित्य्श्व। नित्यः परमाणुरूपः।

            अनित्यः कार्यरूपः। पुनास्त्रिविधः। शरीरेन्द्रिय विषय भेदात्। शरीरं वायुलोके।

            इन्द्रियं स्पर्शग्राहकं त्वक् सर्वशरीर वृत्ति। विषयोवृक्षादिकम्पन हेतुः। शरीरान्तः

            संचारी वायुः प्राणः। स चैकोप्युपाधिभेदात् प्राणापानादिसंज्ञा लभते।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३४

            वायु रूपरहित स्पर्शवान् होता है। वह भी नित्य और अनित्य इन दो प्रकार का होता है। नित्यवायु परमाणुरूप और अनित्यवायु कार्यरूप होता है। अनित्य वायु के शरीर, इंद्रिय और विषय ऐसे तीन प्रकार होते हैं। इनमें शरीर वायुलोक में होता है। त्वक् नामक वायवीय इंद्रिय सारे शरीर में व्याप्त होता है। वह स्पर्श गुण का ग्राहक होता है। शरीर में संचार करने वाला वायु ही प्राण है। वस्तुतः वह यदि एक ही है, फिर भी भिन्न-भिन्न उपाधियों के कारण प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन नामों से जाना जाता है।

            शब्दगुणकमाकाशं। तच्चैकं विभु नित्यं च।।

                                                            -भारतीय-दर्शन-संग्रहः, प्रथमावृत्ति पृष्ठांक २३९

            शब्द जिसका गुण है, वह आकाश है। वह एक विभु व नित्य है। मीमांसक आकाश, शब्दवान् होता है, ऐसा आकाश का लक्षण बताते हैं, परन्तु वह उचित नहीं। शब्द आकाश का गुण है ऐसा बताने के लिए नैयायिक ‘शब्द गुणकं’ ऐसा लक्षण करते हैं। पृथिव्यादि की भांति आकाश के अनेक प्रकार का अनुभव नहीं होता, इसलिए वह एक ही है। आकाश का शब्द यह गुण सर्वत्र उपलब्ध होता है। इसीलिए उसे विभु मानना अपरिहार्य होता है। तथा विभु होने से ही वह नित्य है। ‘‘आत्मन आकाशः सम्भतः’’ (तैत्तिरीयोपनिषद् ब्रह्मनंदवली प्रथम अनुवाक्)

            परमात्मा ने पहले आकाश उत्पन्न किया। यदि आकाश ‘‘जन्य’’ है तो वह नित्य हो नहीं सकता, ऐसी शंका होती है। उसका समाधान यह कि श्रुति के ‘‘सम्भतः’’ शब्द का अर्थ ब्रह्मांडरूप उपाधि के कारण अभिव्यक्त हुआ, ऐसा होता है, क्योंकि ऐसा न होने  पर परमाणु भी अनित्य मानना पडे़गा। किंतु आत्मा जनक व आकाश (उससे) जन्य-उत्पन्न होने वाला यह अनुमान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसकी उत्पत्ति के लिए आवश्यक कारण सामग्री का अभाव है, इसलिए उपरिनिर्दिष्ट वेदवाक्य अर्थवादरूप है ऐसा मानना पडे़गा। आकाश के परमाणु नहीं हैं, इसलिए उसका अनित्य कार्य असंभव, अर्थात् उसका शरीर, इंद्रिय व विषय ये तीन भेद नहीं हैं। श्रोत यह इंद्रिय मात्र आकाश का होता है, जो शब्द का ग्रहण करता है।

            पृथ्वी, आप, तेज, वायु व आकाश, जो प्रकृति के मुख्य अंग हैं, उनके संबंध में वैदिक एवम, अवैदिक विचार, आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों के विचारों से मेल नहीं खाते, यह आरम्भ में देखा गया है। पुनरूक्तिदोष टालने हेतु उन्हें यहीं विराम देते हैं। हां! आकाश को विशेष गुण, जिसे आकाश का लक्षण मानते हैं, वह है शब्द। इस विषय में भी पाश्चात्य भौतिक शास्त्री वैदिक विद्वानों से सहमत नहीं हैं। उनकी दृष्टि से शब्द-अर्थात् ध्वनि के वहन का माध्यम आकाश नहीं है। या आकाश का लक्षण ध्वनि नहीं है। एक प्रयोग (Experiment) से इसे समझ लेंगे। एक निर्वात पंप (Vacum Pump) होता है। किसी बर्तन को उसकी सहायता से निर्वात किया जा सकता है। उस पर कांच की एक हंडी रखते हैं, जिसमें एक विद्युत घंटी (Electeic Bell) लगी रहती है। घंटी बजाना आरंभ करते हैं। वह घंटी बजती हुई सुनाई भी देती है और दिखाई भी। अब निर्वात पंप की सहायता से वह हंडी शनै-वैसे घंटी की ध्वनि क्षीण होती जाएगी। जब हंडी निर्वात होगी, तब घंटी बजती हुई दिखाई तो देती है पर सुनाई नहीं देती। निष्कर्ष यह कि ध्वनि (शब्द) के वहन के लिए वायु या अन्य माध्यम आवश्यक होता है-

आकाश या निर्वातता नहीं। अर्थात् आकाश का लक्षण ‘शब्द’ यहां खरा नहीं उतरा, ऐसा भौतिक शास्त्री मानते हैं।

            परंतु, आकाश केवल अभावात्मक नहीं, अपितु उसमें पूर्ण रूप से ईथर नामक काल्पनिक पदार्थ का अस्तित्व भौतिक शास्त्री मानते हैं। यही ईथर प्रकाशादि विद्युत्-चंुबकीय लहरों के वहन का माध्यम वे मानते हैं।

            यदि काल्पनिक ईथर का अस्तित्व न माना जाय तो विद्युत्- चुंबकीय लहरों का वहन विशद् करना असंभव हो जाता है।

            इस दृष्टि से भी आकाश का जो लक्षण ‘‘शब्द” वैदिक शास्त्रीयों ने माना है वह ठीक ही लगता है।

            इस प्रकार हमने आकाशादि पंचमहाभूत जो सृष्टि के कारण होते हैं, उनके निर्माण, स्थिति तथा लक्षणों के संदर्भ में वैदिक, अवैदिक एवम् आधुनिक पाश्चात्य वैज्ञानिकों की विचारधाराओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

            पंचमहाभूत इस प्रदीर्घ विषय पर उतने ही विस्तार से एवम् गंभीरता से चिंतन करने वाले उन महान दार्शनिक ऋषियों की दिव्य स्मृति को शतशः अभिवादन।

नेहरू चैक, धाराशीव (उस्मानाबाद)-४१३५०१ दूरभाष – (०२४७२) २२२१९, २४५७१

ऋग्वेद में वायु का स्वरूप :- श्रीमती माला प्यासी

            वेद वस्तुतः एक ही हैं, स्वरूप भेद के कारण त्रयी नाम से जाना जाता है; ऋक्, यजु और साम। जिन मन्त्रों में अर्थवशात् पादों की व्यवस्था है उन छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋचा या ऋक् कहते हैं। जैसा कि जैमिनी सूत्र में कहा गया है- ‘‘तेषामृगयत्रार्थवशेन पादव्यवस्था” और ऋचाओं के समूहों को संहिता कहा जाता है।

            ऋक् संहिता या ऋग्वेद का गौरव या उसका महत्व सर्वाधिक माना जाता है। पाश्चात्य विद्वानों ने भाषा एवं भाव की दृष्टि से ऋग्वेद को अन्य वेदों की तुलना में प्राचीन माना है। अतएव उनकी दृष्टि से ऋग्वेद विशेष उपयोगी हैं। भारतीय विद्वान् भी ऋग्वेद को प्राचीन मानते है। तैत्तरीय संहिता के अनुसार साम तथा यजु के द्वारा जो विधान किया जाता है वह शिथिल होता है परन्तु ऋक् के द्वारा विहित अनुष्ठान ही दृढ़ होता है। यह प्रमाण ऋग्वेद की प्राचीनता को स्पष्ट कर रहा है। पुरूष सूक्त में भी सहस्त्रशीर्षा यज्ञरूपी परमेश्वर से ऋचाओं का आविर्भाव सर्वप्रथम बताया गया है।

            ऋग्वेद स्तोत्रों की एक विशाल राशि है; जो यज्ञीय अनुष्ठानों पर आहूत देवों की प्रार्थनाओं और उपदेशों से भरा हुआ है, सराबोर है। नाना देवताओं की भिन्न-भिन्न ऋषियों ने बड़े ही सुंदर तथा भावाभिव्यंजक शब्दों में स्तुतियाँ की हैं साथ ही अपने अभीष्ट सिद्धि के निमित्त से प्रार्थनायें की हैं। उन प्रार्थनाओं में देवों की शक्ति और स्थिति, उनके कार्य और विशेषताओं को भिन्न-भिन्न विशेषणों से आभूषित किया है, व्यक्त किया है। ये विशेषण ही देवों की स्वरूप भिन्नता को व्यक्त करते हैं।

            प्रस्तुत आलेख में प्रयास किया गया है ‘‘ऋग्वेद में वायु के स्वरूप पर’’ दृष्टि डालने का। स्वरूप तीन दृष्टिकोणों पर आधारित हैं- आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक।

            आधिदैविक शब्द अधि उपसर्ग पूर्वक दिव् धातु से निष्पन्न हैं। दिव् का अर्थ है प्रकाशित करना या चमकना। अधि उपसर्ग अधिकृत का बोधक है। अतः स्वीर्गीय, आकाशीय, अलौकिक दिव्यगुण को प्रकाशित करने की क्षमता जिनमें हो, वे देव हैं। उपरोक्त गुणों को अभिव्यक्त करने का अधिकार जिनके पास हो या जो अधिकृत हों वह उनका आधिदैविक स्वरूप है।

            ऋग्वेद में वायु शब्द देवता का बोधक है। भौतिक वात से भिन्न वायु की देव के रूप में भी स्थिति है। वायु को ‘‘आदेवासोवाताय’’ देवयुक्त अर्थात् दिव्य गुणों से युक्त कहा गया है। ऐसे दैवीय गुण सम्पन्न वायु देव का यज्ञों में बारम्बार आह्नान किया गया है कि- हे वायु देव तुम सोम पान के लिये आयो। यहाँ तक कि अनेक स्थानों पर अन्य देवों की तुलना में सोमपान का प्रथम अधिकार वायु को ही दिया गया है। ‘‘देवदधिषेपूर्वपेयम्’’ हे वायु सोमपान के तुम प्रथम अधिकारी हो। इतना ही नहीं वायु देव उस सोम के रक्षक भी हैं। अपने इष्ट को सोम की रक्षा का दायित्व देकर उसको सर्वप्रथम सोम का पान करवाकर यजमान तो आनन्दित होता है, वायु देव भी उस शुद्ध और मधुर सोम का पान कर आनन्दित होते हैं।

            आहूत वायु देव की व्यक्तिगत विशेषतायें अनिश्चित हैं। इन विशेषताओं में ही वायु में पाये जाने वाले दैवीगुण स्पष्ट दिखाई देते हैं। वायु देव को त्वष्टा का जामाता कहा गया है। वायु ने ही मरूत् को जन्म दिया है। वह मरूत् जो गणों में रहते हैं, जिनकी अन्तरिक्ष में द्युतिमान, अयोदंष्ट्रान के रूप में स्थिति है, जो अद्भुत शक्ति संपन्न हैं, जिनमें वर्षा, विद्युत्, मेघ एवं संसार के नियमन जैसे गुण विद्यमान हैं। प्रकाश देना तथा मरना और मारना ये मरूत् के कार्य हैं। ऐसे मरूतों के रथ पर वायु देव अश्व रूप में जुड़े सम्राट हैं। ऐसे इन्द्र के वायु देव सारथि भी बने हुए हैं।

            वायु देव समस्त देवों के जीवन रूप हैं, आत्मरूप प्राण हैं, और भुवनों की संतान हैं। वायु समस्त देवताओं में मुख्य देव हैं ‘‘वायोमन्दानो अग्रिमः।’’ इतना ही नहीं एकेश्वरवाद की स्थापना करते हुए वायु को ही ईश्वर मान लिया गया है। ‘‘ईशानाय प्रहुर्तियस्त।’’ वायु मुख्य देव हैं संभवतः इसीलिये उनका रूप भी अतीव सुन्दर है। सम्पूर्ण अग विशिष्ट महिमा मण्डित हैं।

            वायु देव सम्राज्य करने वाले राजा भी हैं तभ कहा गया है कि वायु ने उचश्य और वपु नाम के राजाओं से अधिक राज्य किया है। वायु शत्रुओं को कँपाने वाले राजा के समान हैं। ये युद्ध कार्य में भी निपुण हैं। विशुद्ध सोम का पान करके वायु देव युद्ध के लिये उपस्थित रहते हैं। शत्रुओं के विनाश में भी समर्थ हैं अतः शत्रु हन्ता भी हैं । समाज के विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के उद्धारक भी हैं। प्रार्थना के साथ-साथ ऋषि वायु देव को उपदेश भी दे रहा है, उससे अपेक्षा भी कर रहा है कि हे वायु देव तुम विपत्तियों से हमारा उद्धार भी करते हो अतः हमारे रक्षक हो इसलिये कभी तुम हिंसा नहीं करना। पाप विमोचक वायु समस्त पापों से मुक्ति दिलाने वाले हैं ‘‘विमुमुक्तमस्मे।’’

            द्यावा पृथिवी ने धन के लिये वायु को उत्तम किया है, श्रेष्ठ किया है। अतः ऐसे उत्तम धन एवं अन्न, गौ, पुत्र समस्त कार्यों को सम्पन्न करने के लिये वायु देव स्वर्णमय रथ का उपयोग करते हैं। वह रथ बड़ा उज्जवल है, आकाश का स्पर्श करने वाला है। रथ में जोते जाने वाले अश्वों की संख्या अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न है। कहीं यह संख्या नवतिनव है ‘‘युक्तासो नवतिनव”, कहीं शत और कहीं सहस्त्र है। ‘‘शतीनिभिरह वरं सहस्त्रिणीभिः’’ कहीं-कहीं यह संख्या दो भी कही गई है। रथसहा (रथसहौ) वायु के ये जो अश्व हैं वे बड़े बलशाली हैं, शीघ्रगामी हैं। उनकी गति को रोकना उतना ही कठिन है जितना सूर्य की किरणों को रोकना।

            असीम शक्तियों के अधिपति होने के साथ-साथ वायु अमृत तुल्य भी हैं अतः वायु से प्रार्थना की गई है कि तुम्हारी जो अमरण की शक्ति है वह हमारे जीवन के लिये दो क्योंकि, तुम हमारे पिता, भ्राता और बन्धु हो। इस अमरण शक्ति के कारण ही हे वायु देव तुम लोक कल्याण कारी कर्म में नियुक्त किये गये हो।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त देवों के प्राण रूप, सर्वशक्तिमान ईश्वर, अमृत शक्तिसंपन्न, लोक का कल्याण करने वाले, पापों से मुक्ति दिलाने वाले समृद्धि दाता वायु दैवी गुण सम्पन्न देव हैं; जो सैंकडों हजारों घोड़ों से जुते स्वर्णमय रथ पर सवारी करते हैं।

            देव रहित भौतिक जगत की पृथक सत्ता संभव ही नहीं है। भौतिक सृष्टि के लिये वही दिव्य गुण नाना भाव में परिवर्तित होता है। देवों की स्तुति में ही उनका भौतिक रूप स्पष्ट हो जाता है। कई विशेषणों के द्वारा इन देवताओं का वैज्ञानिक रूप भी संकेतित है। आधिभौतिक शब्द अधि और भौतिक तथ्यों को बताने वाला भूत जगत, जहाँ स्वभाविक घटनायें घटित होती हों ऐसा भूत जगत ही भौतिक है। भौतिक घटनाओं और तथ्यों को व्यक्त करने में जो अधिकृत है वह आधिभौतिक है।

            ऋग्वेद में वायु को वात भी कहा गया है। संभवतः यह भौतिक वायु का बोधक है। कहीं-कहीं एक ही मन्त्र में दोनों नाम आते हैं। वायु स्वशक्ति से, अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं से इस भौतिक जगत् में तो विद्यमान है ही साथ ही में इन्द्र, मरूत् पर्जन्य के साथ मिलकर भी अनेक प्राकृतिक घटनाओं को, कार्यों को सिद्ध करते हैं।

            ळमारी पृथिवी के चारों ओर जो गैस युक्त वायु मंडल व्याप्त है वह चाक्षुज नहीं है अपितु अनुभूत है केवल स्पर्श द्वारा। वेदों में भी यही कहा गया है कि वायु का रूप दिखाई नहीं देता पर वह गतिशील है। वायु में जा गतिशीलता है उसका कारण सूर्य है। सूर्य किरणों की प्रेरणा से ही वायु में क्रिया होती है। वायु स्थान घेरती है और उस स्थान में वह निरन्तर चलायमान है, गतिशील है। गति इतनी तीव्र है कि पर्वत तक काँप जाते हैं, पृथिवी की धूल बिखर जाती है यहाँ तक कि प्रकृति का सारा रूप विकृत हो जाता है वात की क्रियाओं का उल्लेख मुख्यतः स्तनयित्नु तूफान के संबंध में आता है। झंझा के झोंके विद्युत की दमक के साथ अपृथक रूप से संबद्ध हैं और वे सूर्य के पुनरावर्तन के पूर्व ही आ जाते हैं। फलतः कहा गया है कि वात, लोहित रंग की विद्युत् को प्रकट करते हैं और उषाओं को प्रतिभासित करते हैं।

            वायु मंडल का विस्तार धरातल से सैंकड़ों किलोमीटर की ऊँचाई तक है जिसे अन्तरिक्ष कहते हैं। अन्तरिक्ष अर्थात् मध्यम स्थान। वैदिक ऋषि वात को अन्तरिक्ष का देवता मानता है। अतः वह प्रार्थना करता है कि वात अन्तरिक्ष से हमारी रक्षा करे। मध्यम स्थान में होने वाले जितनी बाधायें हैं जो जनजीवन को अस्तव्यस्त कर सकती हैं उनसे वात हमारी रक्षा करे। अतः प्रकृति का वह तत्व जो मध्यम स्थान का रक्षक है वह हमारे लिये पूजनीय है-

            सूर्यः नः पातु दिवः वातः अन्तरिक्षात्।

            अग्निः नः पार्थिवेभ्यः।।

            वायुमण्डल में नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, ऑर्गन, कार्बनडाइऑक्साइड, नीऑन, हीलियम, क्रिप्अन, जीनन अनेक गैसें भिन्न-भिन्न मात्रा में विद्यमान हैं पर मुख्य रूप से नाइट्रोजन एवं ऑक्सीजन हैं। ऋग्वेद में नाइट्रोजन का वर्णन नियुत शब्द के द्वारा किया गया है। वायु के लिये ‘‘नियुत्वन्ता’’ ‘‘नियुत्वान’’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऋषि नियुत गणों से युक्त वायु को ही आमन्त्रित करता है। ‘‘नि’’ अर्थात् निंश्चित रूप से युत जो वायु के साथ रहता है वह नियुत है। यहाँ नियुत शब्द नाइट्रोजन का ही बोधक है क्योंकि वायु में नाइट्रोजन ही मुख्य रूप से है, अधिक मात्रा में है। इसी लिये नियुत शक्ति को सैकड़ों हजारों शक्तियों से युक्त कहा गया है।

            वायु के गुणों का वर्णन करते हुये कहा गया है कि उसमें प्राण शक्ति है अर्थात् ऑक्सीजन है। वायु में अमृत का खजाना है अर्थात् उसमें भेषज शक्ति है इसीलिये वह औषधि का काम करता है। रक्त को शुद्ध कर हृदय रोगों को दूर करता है। आयु का विस्तार कर दीर्घ आयुष प्रदान करता है। वह प्राण शक्ति का हेतु है इसी कारण वह हमारा पिता, भ्राता और बन्धु है। वह जीवन शक्ति प्रदाता है। इन गुणों से निस्संदेह वायु की शोधक शक्ति ही अभिप्रेत हो सकती है।

            वायु इस जगत् का रक्षक भी है इसीलिये उत्तम रक्षा के निमित्त से ही वायु को आमन्त्रित कर रक्षा की प्रार्थना की गई है। वायु मंडल में स्थित ओजोन वायु रक्षक वायु है जो पूरे वायुमंडल को सुरक्षित करती है। वेदों में वायु की उत्पत्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा है। वायु कहां जन्मा कहां से आया कोई नहीं जानता। ऑक्सीजन एवं ओजोन की उत्पत्ति का पता आज भी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये हैं।

            वर्षा देने वाले मेघ पर्जन्य हैं। पर्जन्य और वायु दोनोंसे एक साथ प्रार्थना की गई है कि ये दोनों हमारे अन्न को बढ़ायें। वृष्टि के द्वारा वायु अन्न का कारण होता है। सब प्राणियों को बल भी वायु से मिलता है। वायु जब मरूतों के साथ जाते हैं जब मेघ जल देते हैं। जल ही जीवन है जल से ही वनस्पतियों में प्रस्फुटन और वर्धन होता है। उस जीवन रूपी जल को वहन कर लाने का कार्य वायु का होता है। प्रकारान्तर से यह कह सकते हैं कि वायु में ऐसे तत्व हैं जो एक निश्चित प्रक्रिया एवं तापमान से जल में परिवर्तित हो जाते हैं इसीलिये वायु को जल का बन्धु कहा गया है। अन्तरिक्ष से नीला दिखाई देने के कारण पृथ्वी को अक्सर नील ग्रह कहते हैं। धरातल का प्रमुख नीला रंग तथा वायुमंडल के सफेद बादल दोनों ही जल हैं। वायु मंडल में जल गैसीय अवस्था में अर्थात् जल वाष्प के रूप में पाया जाता है। जल अपना रूप बदल सकता है। यह द्रव से ठोस या गैस में बदल जाता है। जल में निहित गैस के कारण वायु मंडल में कई मौसमी घटनायें घटित होती हैं जैसे बादल बनना, वर्षा होना, हितपात होना, कुहरा छाना आदि। इसीलिये कहा है कि मरूत जब हवा के साथ भागते हैं तब कुहरा बिछा देते हैं।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि वायु में जलीय शक्ति है, शोधक शक्ति है भैषज शक्ति है तभी वायु से प्रार्थना की गई है कि अपनी इन समस्त शक्तियों के साथ द्युलोक में कल्याण ले जाओ।

            वायु में ध्वनि की भी शक्ति है। तभी कहा गया है कि वायु का शब्द (ध्वनि) वज्र के समान है और वह शब्द अनेक प्रकार से सुनाई देता है। वायु जब जाते हैं तब गर्जन होता है।

            वायु के कुछ गुण मरूतों में होने के कारण मरूत को ही वायु समझ लेना भ्रान्ति है। अनेक उदाहरण ऐसे मिलते हैं जिनसे वायु और मरूत् का उपमानोपमेय भाव लक्षित होता है। जैसे मरूत वायु के समान वेगशाली हैं, मरूतों का घोष वायु के समान है, मरूत् वायु के समान शत्रुओं को कँपाने वाले और गतिशील, हैं अतः इस भौतिक जगत के दोनों पदार्थ भिन्न-भिन्न तत्व हैं। मरूतों को अरेणवः मरूतः भी कहा गया है। अर्थात् मरूत गणों में रेणु या धूलि के कण नहीं हैं। आधुनिक विज्ञान का कथन है कि सूर्य के चारों ओर धूल के कण नहीं हैं क्योंकि सूर्य अपनी ऊष्मा के द्वारा सभी ठोस कणों को वाष्प के रूप में परिणात कर देता है। मरूत् अन्तरिक्ष स्थानीय है जबकि वायु का स्थान पृथिवी के चारों ओर का वातावरण है, अन्तरिक्ष और द्युलोक के बीच का मध्य स्थान है। वायु में धूल के कण भी व्याप्त रहते हैं अतः मरूत् और वायु दोनों भिन्न तत्व हैं।

            जो देव, जो शक्ति आत्म कहे जाने के लिये, प्राण माने जाने के लिये अधिकृत हो वह उसका आध्यात्मिक रूप है। वायु का एक स्वरूप आध्यात्मिक भी है। ऋग्वेद में वायु की उत्पत्ति विराट् पुरूष के प्राणों से कही गई है-

            चन्द्रमा ममनसो जातश्वक्षोः सूर्यो अजायत।

            मुखादिन्दुश्वाग्निश्वा प्राणाद्वायुरजायत।

            अर्थात् उस विश्व पुरूष वा विराट पुरूष का जो प्राण है वह वायु है। अतः वायु का आध्यात्मिक रूप प्राणात्मक है। यह प्रणों के रूप में प्रत्येक शरीरधारी में रहता हुआ उनकी आयु का निर्धारण करता है। अतः उपनिषदों में कहा गया है कि प्राणो ही भूतानामायुः। सर्वमेव ते आयुर्यन्ति ये प्राणं ब्रह्मोपासते।

            छान्दोग्य उपनिषद् में भी वायु को प्राण के रूप में ब्रह्म का चतुर्थ पाद कहा गया है।

            ‘‘प्राण एव ब्रह्मणश्वतुर्थः पादः स वायुना ज्योतिषाभाति च तपति च।”

            अतः उस प्राणरूपी सत की ही एकमात्र सत्ता है। उसकी शक्तियों की प्रवृत्तियाँ भिन्न-भिन्न हैं। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।

            इस प्रकार हम देखते हैं कि त्रिविध स्वरूपा वायु शरीर धारियों की आत्मा के रूप में स्थित होकर, भौतिक जगत् का विस्तार करते हुये सर्वशक्तिमान ईश्वर के रूप में विद्यमान है।

                                                                                    इति

                                                                                                            सहात्र प्राध्यापक संस्कृत

                                                                                                शास. महाकोशल कला एवं वाणि.,

                                                                                                म्हाविद्यालय, जबलपुर (म. प्र.)

।। पादटिप्पण्यिां।।

            १. जै. सू. २-१-३५                                         २.  तैन्त. सं. ६-५-१०-३

            ३. ऋ. १०-९०-९                                           ४. ऋग् ७-९२-४

            ५. ऋग् ७-९२-१                                            ६. ऋग् १०-८५-५

            ७. ऋग् ७-९०-१                                            ८. ऋग् ८-२६-२१, २२

            ९. ऋग् १-१३४-४                                         १०. ऋग् ५-५८-७

            ११. ऋग् ४-४६-२, ४-४८-२                                    १२. ऋग् १०-१०८-४

            १३. ऋग् ८-२६-२५                                      १४. ऋग् ७-९०-२

            १५. ऋग् ८-२६-२४                                      १६. ऋग् ८-४६-२८

            १७. ऋग् ४-४८-१                                         १८. ऋग् ७-९२-४१

            १९. ऋग् ७-९१-१                                         २०. ऋग् ७-९१-२

            २१. ऋग् ७-९१-५                                         २२. ऋग् ७-९०-३

            २३. ऋग् ७-९२-३                                         २४. ऋग् ४-४६-, ४-४८-२

            २५. ऋग् ४-४८-४                                         २६. ऋग् ७-९२-५

            २७. ऋग् ८-२६-२०                                      २८. ऋग् १-१३५-९

            २९. ऋग् १०-१८६-३                                               ३०. ऋग् १०-१८६-२

            ३१. ऋग् ४-४६-२                                         ३२. ऋग् १०-१६८-१

            ३३. ऋग् ६-५०-१२                                      ३४. ऋग् १-१६४-४४

            ३५. ऋग् १०-१६८-४                                               ३६. ऋग् १-१६८-२

            ३७. ऋग् ४-१७-१२                                      ३८. ऋग् ५-८३-४, १-९७-५२, १०,१८६-३

            ३९. ऋग् १०-१५८-१                                               ४०. ऋग् ४-४७-३

            ४१. ऋग् १-१३५-१ से ८ तक                                   ४२. ऋग् २-४१-१

            ४३. ऋग् १-१३५-१ से आठ                          ४४. ऋग् १०-१८६-१ से ३ तक

            ४५. ऋग् ७-९०-७                                         ४६. ऋग् १०-१६८-३

            ४७. ऋग् ६-५०-१२                                      ४८. ऋग् ८-७-४

            ४९. ऋग् ८-७-४                                            ५०. ऋग् ८-२६-२३

            ५१. ऋग् १-१६८-१                                      ५२. ऋग् १०-१६८-४

            ५३. ऋग् ७-५६-३                                         ५४. ऋग् ९-५७-५२

            ५५. ऋग् ७-५६-३                                         ५६. ऋग् ७-५६-३

            ५७. ऋग् १-१६८-४                                      ५८. ऋग् १०-९०-१३

            ५९. तै. उप. २/३                                           ६०. छान्दो उप. ३/१८/४

व्रुपासि वास्त्रा वैदिक वाड्.मय में पृथिवी – प्रो.-छाया ठाकुर

            लैटिन भाष के शब्द साइंटिया (Scientia) जिसका अर्थ ज्ञान है से व्युत्पन्न साइंस अर्थात् विज्ञान (विशिष्ट ज्ञानं विज्ञानमिति) प्रयोग और परीक्षण द्वारा सत्यापित ज्ञान है। विज्ञान की दो शाखायें हैं (१) प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) (२) सामाजिक विज्ञान (Human Science)। प्राकृतिक विज्ञान ही वह आधारभूत विज्ञान है जिसमें प्रकृति और पदार्थ का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। प्राकृतिक विज्ञान की एक शाखा भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत हम ब्रह्माण्ड में स्थित वस्तुओं, क्रियाओं और उन्हें प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करते हैं। पदार्थ का अध्ययन करनेवाले समस्त विज्ञानों को भौतिक विज्ञान (Matarial Science) कहते हैं। पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत ही हम ब्रह्माण्ड में स्थित विभिन्न तत्वों जैसे सूर्य, वायु, मेघ, पृथिवी, प्रकाश आदि का अध्ययन करते हैं।

            वैदिक साहित्य ही ज्ञान विज्ञान की परम्परा का वह उत्स है जो उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध होता गया। धातु विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, औषधि विज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, गणित, ज्यामितीय, परमाणु विज्ञान और ज्योतिष आदि समस्त विज्ञानों का मूल वैदिक संहिताओं में ही खोजा जा सकता है। आधुनिक विज्ञान के मूलभूत तत्व हमें वैदिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं। आवश्यकता है, उन्हें ढूँढने की, उस गुह्य-ज्ञान को अनावृत करने की। इस संगोष्ठी पदार्थ-विज्ञान के अन्तर्गत आनेवाले विभिन्न ब्रह्माण्डकीय प्राकृतिक तत्वों के वैदिक स्वरूपों के अध्ययन पर केन्द्रित है। इस संगोष्ठी के लिये निर्धारित विषयों में से मैंने ‘‘वेदों में पृथिवी का स्वरूप’’ इस विषय पर अपना आलेख लिखने का प्रयास किया है।

            प्रस्तुत आलेख में पृथिवी के स्वरूप का अध्ययन तीन दृष्टियों से किया गया है-

            (१) आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूप

            (२) ऋग्वेद में पृथिवी का स्वरूप

            (३) अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूप

१         आधुनिक विज्ञान में पृथिवी का स्वरूपः

            ब्रह्माण्ड तीन भागों में विभाजित है- (१) पृथ्वी (२) अन्तरिक्ष (३) द्यौः। द्यौः और पृथ्वी के बीच का भाग अन्तरिक्ष कहलाता है। इस ब्रह्माण्ड का एक छोटा सा हिस्सा है। हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य है। इस सौर परिवार में पृथिवी सहित नौ ग्रह, उपग्रह ग्रहिकायें और पुच्छल तारे हैं। ये सभी सूर्य की परिक्रमा करते हैं। सूर्य के निकटतम बुध (Mercury) है, उसके बाद क्रमशः शुक्र, पृथिवी मंगल, बृहस्पति, शनि, अरूण, वरूण और यम हैं। पृथिवी को अन्य ग्रहों से पृथक् करनेवाली विशेषता यह है कि पृथ्वी पर जीवन है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            सौरमंण्डल में सर्वाधिक प्रसिद्ध और मानव तथा जैव जगत् के लिये सर्वाधिक उपादेय ग्रह पृथ्वी ही है। यह बुध, शुक्र, मंगल और कुबेर (यम) से बड़ा और अन्य ग्रहों से छोटा ग्रह है। इसका व्यास १२७६० कि. मी. है। यह सूर्य से १४ करोड़ ८८ लाख कि. मी. की दूरी पर स्थित है। यह अपनी धुरा पर चैबीस घंटों में एक बार घूम जाती है। सूर्य की परिक्रमा करने में इसे ३६५ दिन ६ घंटे लगते हैं। यह अपनी धुरा पर २३ १/२ झुकी हुई है और इस झुकाव के कारण पृथिवी पर सौर ताप की प्राप्ति, वर्षा तथा ऋतुओं पर विशेष प्रभाव पड़ता है।

पृथिवी की उत्पत्तिः

            पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त पर आधुनिक वैज्ञानिकों में मतवैभिन्य है। कुछ वैज्ञानिकों को कथन है कि केवल सूर्य से ही पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई है। कुछ कहते हैं कि एक तारा सूर्य से टकराया और इससे होनेवाले बिखराव से पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुई। आधुनिक काल में सर्वप्रथम १७४५ में बफन ने, १७५५ में काण्ट और १७९६ में लाप्लास ने पृथ्वी और सौरमण्डल की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान सम्मत सिद्धान्त किये। पृथ्वी की उत्पत्ति के सिद्धान्त को तीन वर्गों में रखा जा सकता है-

            (१) एक तारक या अद्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त बफन, काण्ट लाप्लास, हर्शल एवं रोशे (फ्रांसीसी) ने प्रस्तुत किया।

            (२) द्वैतारक या द्वैतवादी सिद्धान्त- यह सिद्धान्त गोल्टन और चेम्बरलीन (अमेरिकी) जीन्स, जैफ्रे और रसैल नामक विद्वानों ने प्रस्तुत किया।

            (३) आधुनिक सिद्धान्त- द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अत्याधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों और ब्रह्माण्ड के संबंध में एकत्रित की गई जानकारी पर ये सिद्धान्त आधारित हैं। इनमें मुख्यतः डॉ. ऑफवन, प्रो. होयल, एवं लिटिलटन (ब्रिटिश) का नोवा तारा सिद्धान्त, राजसन का आवर्तन एवं ज्वारीय सिद्धान्त तथा डॉ. बैनर्जी का सीफिड सिद्धान्त उल्लेखनीय है।

पृथिवी की उत्पत्ति की वैदिक अवधारणाः

            ऋग्वेद में परमेश्वर से ही सृष्टि का विकास माना गया है। स्वयंभू परमेश्वर (पुरूष) ने पहले महान अर्णव में गर्भ धारण किया जिससे प्रजापति उत्पन्न हुआ। ये महदण्ड संख्यातीत थे। इन्हीं अण्डों से अतिदूरस्थं सृष्टियाँ (Galaxy) उत्पन्न हुई। मानवधर्मशास्त्र के अनुसार हिरण्याण्ड के दो शकलों से दिव के और भूमि की उत्पत्ति हुई। तदनुसार पहले भूमि बनी और बाद में दिव के सूर्य आदि अस्तित्व में आये। यही बात शतपथ बाह्मण में भी कही गई है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि प्रजापति ने भू शब्द उच्चारा और उसने भूति उत्पन्न की। प्रजापति अथवा ईश्वर के इस उच्चारण से भूमि आदि सृष्टियाँ बनीं, इस बात की प्रतिध्वनि बाईबिल में भी देखी जा सकती है। त्वष्टा जो जो बोला वही हुआ। बाईबिल का ईश्वर और ब्राह्मण ग्रंथों का त्वष्टा ही प्रजापति है-

१. And God said, Let there be light; ans there was light.

६.  And God said, Let there be a Hrmament (Heaven)

९. And God said, Let the dry land appear

१४. And God said, Let there be lights (Sun, Moon) in the firmament-Ch. १.३ (Old Testament)

यही भाव ऋग्वेद, कठोपनिषद् और गीता में भी व्यक्त हुआ है। यही बात पुराणों में भी दुहरायी गई है-भूरिति व्याहृते पूर्वं भूलोकश्व ततो भवत्।

            उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहंचते हैं कि हिरण्यगर्भ से ही भौतिक पदार्थों और सृष्टि (Galaxy) का विकास हुआ। वर्तमान सृष्टि का विकास आज से लगभग १९७.३ करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ, ऐसी प्राचीन ग्रंथों की मान्यता है। पृथ्वी और ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की आयु तो इससे भी अधिक है। वर्तमान वैज्ञानिक भी विभिन्न प्रमाणों के आधार पर पृथ्वी की उत्पत्ति को २०० करोड़ वर्ष पूर्व की मानते हैं।

पृथ्वी के स्वरूप की वैदिक धारणाः

बौद्ध दर्शन की मान्यता है कि जिस तरह अन्य ग्रह आधारशून्य होकर भ्रमणशील हैं उसी तरह पृथ्वी भी है और उसमें गुरूत्व भी है जिससे वह निरन्तर नीचे की ओर गतिमान है। उपनिषदों को प्रामाणिक मानकर वेदान्त दर्शन में कहा गया है। कि जल से पृथिवी की उत्पत्ति हुई है। अथर्ववेद में कहा गया है कि जल का आधार पृथिवी है। प्रसिद्ध खगोलशास्त्री आर्यभट्ट  (४७६ ई.) की धारणा है कि पृथ्वी आकाश में निराधार अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है जिससे रात-दिन होते हैं। तत्पश्चात् दूसरे खगोलवैज्ञानिक वराहमिहिर  (५०५ ई.) ने कहा कि पञ्चमहाभूतमयी यह पृथिवी चुम्बक से घिरी होकर आकाश में टिकी है। ११५० ई. में वैज्ञानिक भास्कराचार्य ने भी कहा कि पृथ्वी का कोई आधार नहीं है। यह अपनी शक्ति से ही स्वभाववश आकाश में स्थित है। और सभी प्राणियों का आधार है।

पञ्चमहाभूतमयी पृथिवी में पांच विशिष्ट गुण पाये जाते हैं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। गन्ध पृथिवी का अतिविशिष्ट गुण है जो अन्य किसी द्रव में नहीं पाया जाता।

२. ऋग्वेद में द्यावापृथिवी का स्वरूपः

ऋग्वेद के अध्ययन से द्यावा-पृथिवी के संबंध में निम्नलिखित वैज्ञानिक तथ्य सामने आते हैं-

(१) द्यावा-पृथिवी की उत्पत्तिः

१.        परमात्मा से ही द्यावापृथिवी की उत्पत्ति हुई है और वह इन दोनों में व्याप्त है।

२.        सूर्य को द्यावापृथिवी का जन्मदाता कहा गया है।

३.        इसके विपरीत एक स्थान पर सूर्य को द्यावापृथिवी का पुत्र कहा गया है।

(२) सूर्य से ही पृथिवी प्रकाशित होती हैः- द्यावापृथिवी के बीच से सूर्य प्रकाश आदि धारण करने के धर्म से गतिशील है।

(३) पृथिवी अत्यधिक विस्तृत हैः- इसके लिये महिनी, अरूव्यचसा (१.१६०.२), उर्वी (विस्तीर्ण) पृथ्वी (फैली हुई) (६.७०.६) ज्येष्ठे मही रूचा द्यावापृथिवी (४.५६.१) कहा गया है।

(४) पृथिवी अपनी धुरी पर घुमती हैः

            ऋग्वेद के एक मंत्र में कहा है कि पृथिवी अनेक तरह से विचरण करने वाली है (विचारिणी ५.७०.२) ऋतावरी (४.५६.२), घृतवती (६.७०.१) है। वह जल से युक्त, जल की शोभा से युक्त (घृतश्रिया) जल से संबंध रखनेवाली (घृतपृचा), जल का संवर्धन करने वाली है।

३. अथर्ववेद में पृथिवी का स्वरूपः

            वेदों में पृथिवी का कोई मूर्त रूप नहीं है। आधुनिक भूगोल विज्ञान, भूविज्ञान आदि में जो स्वरूप पृथिवी का है, मुख्यतया वही भौतिक स्वरूप हम अथर्ववेद में भी पाते हैं, यद्यपि कुछ वैज्ञानिक तथ्यों को भी उसमें खोजा जा सकता है।?

            अथर्ववेद के १२ वें काण्ड का प्रथम सूक्त, जिसमें ६३ मंत्र हैं, पृथिवी को समर्पित है। यह पृथिवी सूक्त केनाम से विख्यात है। इसे भूमि सूक्त भी कहा जाता है। सभी प्राणी इस पृथिवी की सन्तान है अतः इसे मातृभूमि सूक्त भी कहते हैं। इसमें न केवल पृथिवी के स्वरूप का तथा पृथिवी द्वारा धनधान्य, बल और यश प्रदान करने का उल्लेख है अपितु इसमें मातृभूमि के प्रति कर्त्तव्यपालन करनेवालें के लिये सत्यनिष्ठा, यथार्थबोध, दक्षता, क्षात्रतेज, ब्रह्मज्ञान और त्यागादि गुणों, प्रवृत्तियों और मर्यादाओं का भी उल्लेख है। राष्ट्रीय अवधारणा तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित और पुष्ट करने के लिये आवश्यक महनीय गुणों का भी समावेश, इसकी उपयोगिता को बढ़ाता है।

            अथर्ववेद में वर्णित पृथिवी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप-इसके आधार से अध्ययन किया जा सकता है- (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप-इसके आधार पर हम पृथ्वी और सौरमण्डल संबंधी अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का अध्ययन कर सकते हैं। (२) पृथ्वी का भौतिक स्वरूप-इसके आधार पर हम भूगोल विज्ञान से संबंधित तथ्यों की पुष्टि कर सकते हैं।

            (१) पृथ्वी का वैज्ञानिक स्वरूप- इसके आधार पर अनेक वैज्ञानिक तथ्य उभरकर सामने आते हैं-

            (क) पृथिवी की उत्पत्ति-‘‘अथर्वा” विश्व के प्रथम वैज्ञानिक हैं जिन्होंने अनेक वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख अथर्ववेद में किया है। पृथिवी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है, इस तथ्य का उल्लेख १८वें अध्याय के तीसरे सूक्त में किया गया है। इस सूक्त के ग्यारह मन्त्रों में यह कहा गया है कि पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य के हाथों से हुई है। प्रत्येक मन्त्र में इसे बाहुच्युता कहा गया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर यह कहा गया है कि वरूण ने सूर्य द्वारा पृथिवी को बनाया या नापा।

            (ख) पृथिवी का केन्द्र बिन्दु सूर्य- हमारे सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य ही है और सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है जिसे अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व ही कह दिया था कि पृथिवी का केन्द्रबिन्दु (हृदय) आकाश में है- यस्य हृदयं परमे व्योमन्। आकाश में सूर्य के रूप में अग्नि है और अन्तरिक्ष उसी से प्र्रकाशित होता है- अग्निर्दिव आ तपत्यग्नेर्देवस्योर्वऽन्तरिक्षम्।

            (ग) पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है- पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने का वैज्ञानिक सिद्धान्त अथर्ववेद के इस मंत्र में भी दृष्टिगत होता है-

पृथिवी सूकराय वि जिहीते मृगाय।

            अथर्ववेद में कहा गया है कि पृथिवी काँपते हुए चलती है। काँपते हुए चलने से तात्पर्य लट्टू की तरह अपने ही चारों ओर घूमते हुए चलने से है। पृथिवी की इस दैनिक गति से दिन और रात होते हैं यह बात भूगोलवत्ता भी जानते हैं। यही तथ्य हजारों वर्ष पूर्व अथर्ववेद में उद्घाटित किया गया है- याऽप् सर्पं विजयमाना विमृग्वरी। रात और दिन का उल्लेख ऋषि ने अहोरात्रे कहकर किया है।

(घ) पृथिवी पञ्चतन्मात्राओं से यूक्त है- पंचमहाभूतमय पदार्थों में पृथिवी ही ऐसा द्रव्य है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध पाये जाते हैं। पृथिवी का प्रधान गुण गंध है जो अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता अतः उसे गन्धवती पृथिवी कहा गया है-

            यस्ते गंधः पृथिवी सम्बभूव यं बिभ्रत्योषधयो यमाषः

            यं गन्धर्वा अप्सरश्व भेजिरे तेन मा सुरभिं कृणु।।

            पृथिवी सूक्त के १२.१.२४ और २५वें मंत्र में भी पृथिवी के गंधयुक्त होने की बात कही गई है।

(ड.) गुरूत्वाकर्षण शक्ति- महान वैज्ञानिक न्यूटन ने पृथिवी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त को फल के पृथ्वी पर गिरने के प्रयेाग से सिद्ध किया। इस गुरूत्वाकर्षण शक्ति के सिद्धान्त का अथर्वा ऋषि ने हजारों वर्ष पूर्व उद्घाटित किया है- मल्बं बिभ्रती गुरूभृत् कहकर। अर्थात् पृथ्वी में गुरू पदार्थ को अपनी ओर खींचने और धारण करने की शक्ति है।

            पृथिवी की आकर्षण शक्ति का वर्णन पातजंलि (१५०ई. पू.) भास्कराचार्य द्वितीय (१११४ ई.) वराहमिहिर (४७० ई.) और श्रीपति (१०३९ ई.) ने भी किया है, प्रत्येक परमाणु में आकर्षण शक्ति है और इसी शक्ति के कारण पृथिवी सूर्य और चन्द्रमा तीनों एक दूसरे को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। सभी ग्रह एक-दूसरे के आकर्षण से बंधे हैं, यही कारण है कि वे आकाश में निराधार टिके हैं और नीचे नहीं गिरते।

            (च) पृथिवी का स्वरूप एवं आकार- पृथ्वी सूक्त में पृथिवी के स्वरूप एवं आकार का वर्णन अनेक मंत्रों में मिलता है। पृथिवी लंबी, चौड़ी, विस्तीर्ण, गोल ओर स्थिर है।

            (छ) पृथिवी पहले जलमग्न थी- आधुनिक वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी पहले जलमग्न थी। प्राचीनकाल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। धीरे-धीरे समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यही बात अथर्ववेद में भी कही गई है कि पृथिवी पहले समुद्र में मग्न थी और धीरे-धीरे ऊपर आई-यार्णवेऽधि सलिलमग्र आसीत्।

            पृथ्वी संबंधी उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त कुछ सामान्य वैज्ञानिक अवधारणाओं की पुष्टि भी पृथिवी सूक्त करता है-

            (१) ब्रह्माण्ड तीन लोकों में विभाजित है- सभी धर्मशास्त्र और वैज्ञानिकों (खगोल विज्ञान, भूविज्ञान, ज्योतिष्, भूगोल आदि) ने माना है कि यह ब्रह्माण्ड द्यौ, अन्तरिक्ष और पृथ्वी इन तीन लोकों में विभाजित है। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त में हजारों वर्ष पूर्व यही बात कही गई है- द्यौश्व म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं च मे व्यचः।

            (२) तीन प्रकार की अग्नि- अथर्वा ऋषि ने तीन प्रकार से अग्नि की उत्पत्ति का वर्णन किया है- १. वृक्ष से अग्नि २. जल के मन्थन से अग्नि ३. भूगर्भीय अग्नि उपर्युक्त तीनों प्रकार की अग्नियों का वर्णन करते हुए वे कहते हैं- अग्निर्भूम्यामोषधीष्वग्निमापो बिभ्रत्यग्निरश्मसु। अर्थात् अग्नि भूमि में, विद्युत् रूप में मेघ अर्थात् जल में, ओषधियों में तथा पत्थरों में विद्यमान है।

            पृथ्वी अग्निमयी है- अग्निवासाः पृथिवीः अथर्ववेद में ही अन्यत्र अगिन के आविष्कार के तीन चरणों का उल्लेख है, वहां कहा गया है कि अग्नि पत्थर के घर्षण लकड़ी के घर्षण से और जल के घर्षण से उत्पन्न होती है। एक स्थान पर कहा गया है- यत् ते मध्यं पृथिवी यच्च नभ्यं यास्त ऊर्जस्तन्वः संबभूवः। यहाँ पृथ्वी के गर्भ में स्थित ऊर्जा से तात्पर्य अग्नि से है जो आज की पृथिवी के गर्भ में लावे के रूप में स्थित है। इसके अतिरिक्त प्राणियों में स्थित जठराग्नि का भी उल्लेख किया गया है-अग्निरन्तुः पुरूषेषु गोष्वश्वेष्वग्नयः।

            (३) खनिज संपदा-  यह पृथिवी खनिज सम्पदा से परिपूर्ण है। इसमें सोना, चाँदी, हीरा आदि बहुमूल्य पदार्थ पाये जाते हैं, जिनका उल्लेख भूमिसूक्त में मिलता है- विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षाः। इस मन्त्र में वसुधानी का तात्पर्य खनिजों की खान और हिरण्यवक्षा का तात्पर्य सुवर्ण, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं से है। अन्यत्र भी वे सुवर्णमयी पृथ्वी को नमस्कार करते हैं- तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः। एक स्थल पर कहा गया है कि बहुत तरह की खानों में (बहुधा गुहा) ए (वसु) ए रत्न पन्नां, हीरादि (मणि), सोना, चाँदी आदि (हिरण्यं) की खान (निधिं) को धारण करने वाली पृथिवी हमें धन दे निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी ददातु में वसूनि नो वसुदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना।

            (४) भूकंप- भूगोल विज्ञान में वर्णित भूकंप का विवरण भी पृथिवी सूक्त में मिलता है- महान् वेग एजथु र्वेपथुष्ते। अर्थात् हे पृथिवी आपका हिलना डुलना अत्यन्त वेगवान होता है। यहाँ पृथ्वी के कंपन से भूकंप का संकेत मिलता है। इसका अन्य अर्थ यह भी है कि पृथ्वी जिस गति से आकाश में कंपित होकर जाती है, वह वेग अत्यन्त तीव्र है अर्थात् वह अपनी धुरा पर तेजी से घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है।

            (५) विभिन्न दिशाओें का विवरण- भूमिसूक्त के इस मंत्र में दसों दिशाओं का विवरण मिलता है-

            ‘‘यास्ते प्राचीः प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधरात्” याश्व पश्चात्। आगे वे कहते हैं- हे भूमि पूर्व पश्चिम, उत्तर दक्षिण चारों दिशाओं में प्रहरी बनकर हमारा संरक्षण करें- ‘‘मा नः पश्चान्या पुरस्तान्नुदिष्ठा मोत्तरादधरादुत।

            (६) जलप्रवाहों का संकेत- एक स्थल पर कहा गया है कि पृथिवी अनेक जलधाराओं से युक्त है- भूरिधारे पयस्वती।

            आधुनिक भूगोल में जिन शीत और उष्णजलधाराओं का वर्णन है, संभवतः उन्हीं जलधाराओं की ओर ऋषि का संकेत है। ये जलधारायें पृथिवी की गति, वायु के दबाव और वेग, भूसंरचना आदि के कारण उत्पन्न होती हैं जो तब भी थीं।

            अभी तक हमने पृथिवी सूक्त में पाये जाने वाले वैज्ञानिक तथ्यों का उल्लेख किया है। अब हम पृथ्वी के भौतिक स्वरूप पर दृष्टिपात करेंगे।

            ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वैदिक वाड्.मय में यत्र तत्र पृथिवी सम्बन्धी कुछ वैज्ञानिक तथ्य हमारे सम्मुख आते हैं जो नियमानुसार हैं-

            (१) आद्र्रा शिथिला पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों की भी यह धारणा है कि पृथिवी पहले जलमग्न थी। प्राचीन काल में पूरा यूरोप और एशिया जलमग्न था। शनैः शनै समुद्र हटता गया और कालान्तर में पृथिवी ऊपर आ गई। यह तथ्य अथर्ववेद में वर्णित है- ‘‘यार्णवेऽधिसलिलमग्र आसीत्।’’ काठक तथा मैत्रायणी संहिता में भी पृथिवी को जलप्रधान, आद्र्रा और शिथिला कहा गया है। वात कभी उसे ऊपर और कभी नीचे ले जाती थी। उत्तर की ओर देवताओं का निवास था और दक्षिण में असुरों का। उत्तर की ओर ले जाने पर देवताओं ने इसे दृढ़ किया। यही कारण है कि पृथिवी का अधिकांश भाग उत्तर दिशा में है और दक्षिण में जलाधिक्य है।

            शतपथ ब्राह्मण (६.१.१) में आगे कहा गया है कि इस आधि पृथिवी पर प्रजापति ने क्रमशः १ फेन २ मृद् ३ शुष्काप ४ ऊष ५ सिकता ६ शर्करा ७ अश्मा ८ अयः और हिरण्य तथा ९ ओषधि और वनस्पति को उत्पन्न किया और वनस्पति से पृथ्वी को आच्छादित कर दिया।

            यह पृथिवी के क्रमशः ठोस व शीतल होने तथा उसमें जीवन के संचार का वैज्ञानिक क्रम है। शीतल होने की प्रक्रिया में अग्नि और जल के मेल से फेन उत्पन्न हुआ, जो न सूखा था न गीला।

            अग्नि और मरूत के संयोग से यह फेन सघन हुआ और पृथिवी का निर्माण हुआ। यही सघन फेन मृत में परिवर्तित होकर पृथिवी के रूप में परिणित हो गया।

            तृतीय अवस्था में सूर्य की भयंकर ऊष्मा से पृथ्वी पर स्थित जल सूखने लगा और वह शुष्कय हो गई। जल के शुष्क हो जाने के फलस्वरूप वह ऊसर अर्थात् ऊष, इस चतुर्थ अवस्था को प्राप्त हुई। तत्पश्चात् पृथिवी में सिकता की उत्पत्ति हुई। सिकता ही अंग्रेजी में सिलिका कहलाती है जिसमें सिलिकोन और ऑक्सीजन होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी पृथ्वी की भीतरी परतों में सिलिका एल्यूमीनियम तथा ऑक्सीजन होने की पुष्टि की है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (भाग २०,पृ. ५५) में भी ग्रहों के विभिन्न भागों में सिलिका के पाये जानेका उल्लेख है। सिकता से शर्करा की उत्पत्ति हुई। शर्करा का अर्थ है कंकर। शर्करा से पृथ्वी का आन्तरिक भाग भी दृढ़ हो गया। शर्करा के पश्चात् अश्मा (पाषाण) की उत्पत्ति हुई। शर्करा के छोटे-बड़े कण एकत्र हुए और संपीडन द्वारा संहत होकर अश्मा बने। अश्मा के पश्चात् अयः की उत्पत्ति हुई। ‘‘अश्मनो लोहमुत्थितम्” ऐसा उल्लेख महाभारत के उद्योगपर्व में मिलता है। लोहे के पश्चात् रांगा, सीसा सुवर्ण आदि की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् इस ऊसर पृथ्वी पर देवों ने वनस्पति, ओषधियों को उत्पन्न किया। यह पृथिवी वनस्पति व ओषधियों से आवृत्त हो गई।

            (२) अल्पा पृथिवी- तै. संहिता में ऐसा उल्लेख मिलता है कि आरंभ में पृथिवी अल्पा थी और बाद में धीरे-धीरे विस्तृत हुई। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मत है कि प्रारंभ में ग्रह छोटे थे और आज भी अपनी आकर्षण शक्ति से अन्तरिक्ष के धूलिकणों को अपनी ओर खींच रहे हैं जिससे अनमें विस्तार हुआ होगा।

            (३) अग्निगर्भा पृथिवी- आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि यह पृथिवी प्रारंभ में पिघली चट्टानों का एक गोला था। धीरे-धीरे पृथिवी की ऊपरी सतह ठंडी होकर ठोस हो गई। यह सतह दूध में मलाई की तरह अत्यन्त पतली है। पृथिवी का भीतरी भाग तो अभी भी गर्म पिघली दशा में है। पृथिवी के गर्भ में अभी भी गर्म लावा, उष्ण गैसें और वाष्प हैं। तापमान भी बहुत अधिक है। जितनी गहराई में जाओ उतना अधिक तापमान बढ़ता जाता है।

            संस्कृत वाड्.मय में भी पृथिवी को आग्नेयी कहा गया है। पृथिवी का ९७ प्रतिशत अंश पिघली दशा में है। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि प्रवेश हुआ। अध्ययन से ही आग्नेयी थी अथवा उत्तर काल में उसमें अग्नि का प्रवेश हुआ। अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रारंभ में पृथिवी आग्नेयी नहीं थी। यदि आग्नेयी होती तो आद्र्रा न होती। प्रजापति ने इस पर अग्नि का चयन किया और उसे अग्निदाह से बचाने के लिये वनस्पतियाँ व ओषधियाँ उत्पन्न कीं। अश्वस्थ, शमी, वंश आदि वनस्पतियों ने पृथ्वी की अग्नि को अपने में धारण किया। औषधि पद का अर्थ ही है- ‘‘ओषं धय’’ अर्थात् दाहशक्ति को धारण कर। अर्थात् औषधियाँ पृथ्वीगत आग्नेय परमाणुओं को ग्रहण करती रहती हैं। बाद में यह अग्नि पृथिवी में प्रविष्ट हुई।

            तैत्तरीय ब्राह्मण में लिखा है- अग्नि देवेभ्यो निलायन (छिपा) आखरूपं कृत्वा। स पृथिवीं प्राविशत्। यहाँ आखू का तात्पर्य पृथ्वी पर रहनेवाले चूहे से नहीं अपितु अन्तरिक्ष स्थानीय पशु से है जिसका सूक्ष्म अर्थ अग्नि और अपः की अवस्था विशेष है। यह आखु रूद्र का पशु कहा गया है। रूद्र स्वयं अन्तरिक्ष स्थित अग्नि का स्वरूप है। इस प्रकार यह आखु अन्तरिक्षस्थ आग्नेय पशु अथवा विशेष प्रकार के अग्नि के परमाणु हैं जो जंगली चूहे की भाँति पृथ्वी के अन्दर-अन्दर धंसते जाते हैं।

            यह विवेचन अत्यन्त स्पष्ट तो नहीं है किन्तु इससेइतना स्पष्ट है कि आधुनिक विज्ञान की तुलना में यह अतिसूक्ष्म विज्ञान सहस्त्रों गुना गंभीर है।

            (४) परिमण्डला पृथिवी- पृथिवी गोलाकृति है, इसका विवरण भी वैदिक वाड्.मय में उपलब्ध होता है। जैमिनीय ब्राह्मण में लिखा है- ‘‘स एष प्रजापतिः अग्निष्टोमः परिमण्डलो भूत्वा अनन्तो भूत्वा शये। तदनुकृतीदम् अपि अन्या देवताः परिमण्डलाः। परिमण्डल आदित्यः परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डल आदित्यः, परिमण्डलः चन्द्रमाः, परिमण्डला द्यौः, परिमण्डलमन्तरिक्षम् परिमण्डला इयं पृथिवी।”

            परिमण्डल का अर्थ है जिसके सब ओर मण्डल अथवा घेरा (Atmosphare) है। दूसरा अर्थ यह है- जो गोल घेरे में अथवा गोल आवृत्त हो।

            आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों से भी यह सिद्ध है कि पृथिवी गोल है और चारों ओर से वायुमण्डल से आवृत्त है।

            (५) अयस्मयी पृथिवी- यह पृथिवी लोह धातु से परिपूर्ण है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है-ते (असुरा) वा अयस्मयीं एवेमां (पृथिवीं) अकुर्वन्। कौषितकि ब्राह्मण में भी ऐसा ही उल्लेख मिलता है। इस विवरण से आधुनिक विज्ञान में वर्णित पृथ्वी के चुम्बकीय शक्ति संपन्न होने का संकेत मिलता है। लोहे के अतिरिक्त अन्य खनिज संपदा (सोना, चांदी आदि) का उल्लेख भी अथर्ववेद में मिलता है।

            (६) धरित्री पृथिवी- प्राणियों को धारण करनेवाली के रूप में विख्यात यह धरित्री, धरा, धरिणी, पूरे सौरमण्डल में एक ही ऐसा ग्रह है जहाँ असंख्य विविध प्राणियों का निवास है। इसके अनेक कारण हैं-

            (क) बुध और चन्द्रमा में सूर्य के सामनेवाल भागों में जहाँ तापमान ८०० सेन्टी. और २०० सेन्टी. तक पहुँच जाता है तो रात्रि में इन ग्रहों में तापमान शून्य से भी १५० सेन्टी. नीचे चला जाता है। इन दोनों ही अवस्थाओं में वहाँ जीवन असंभव है।

            (ख) शुक्र में भूमि पर स्थित वायु की अपेक्षा कई गुना घनी जहरीली गैसें हैं, वनस्पतियों का नितान्त अभाव है और ४७० सेन्टी. की भयंकर ऊष्मा है। अतः ऐसी परिस्थितियों में वहाँ भी जीवन असंभव है।

            (ग) बृहस्पति में पृथ्वी की तुलना में तीन गुनी अधिक गुरूत्वाकर्षण शक्ति है जिससे वहां सीधे खडे़ रहना भी असंभव है। फिर वनज आदि उठाना तो दूर की बात है।

            (घ) प्लूटो और नेपच्यून सूर्य से दूर होने के कारण अत्यन्त शीत हैं। वहाँ मिथेन और अमोनिया जैसी प्राणघातक गैसें हैं। अतः वहाँ भी जीवन असंभव है।

            ठसके विपरीत पृथिवी पर जीवन धारण के लिये आवश्यक ऊष्मा, गुरूत्वाकर्षण प्रभूत जल, वनस्पतियों तथा प्राणवायु है। अतः इस धरा पर ही जीवन संभव है, अन्य ग्रहों में नहीं।

            (७) भूरेखा का उल्लेख- विष्णु पुराण में भूरेखा और उसके चलने का उल्लेख है।

            यदा विजृम्भतेऽनन्तो युदा घुर्णित लोचनः।

            त्दा चलति भूरेखा साद्रिद्वीपब्धिकानना। संभवतः यहाँ भूरेखा से, भूमध्यरेखा कर्क और मकररेखा से तात्पर्य है। इससे अधिक खोज और विश्लेषण की आवश्यकता है।

            निष्कर्ष- उपर्युक्त अध्ययन से, ऋग्वेद के द्यावापृथिवी के छह सूक्तों तथा अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त से, आधुनिक विज्ञान सम्मत जो तथ्य सामने आते हैं,

            वे इस प्रकार हैं-

(१) पृथ्वी सौरमण्डल के नवग्रहों में से एक हैं।

(२) पृथ्वी की उत्पत्ति सूर्य से हुई है और वह सूर्य से ही प्रकाश पाती है। पृथिवी का केन्द्रबिन्दु सूर्य है और वह गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर ब्रह्माण्ड में स्थित है।

(३) पृथ्वी स्थिर नहीं है। वह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा करती है। वह अपनी धुरा पर घूमती है जिससे दिन और रात होते है।

(४) पृथ्वी में गुरूत्वाकर्षण शक्ति है।

(५) पृथ्वी गोल है।

(६) वह पहले जलमग्न थी।

(७) वह प्रारंभ में अल्पा थी, बाद में विस्तृत हुई।

(८) पृथ्वी आग्नेयी है। उसमें ९८ प्रतिशत लोहा व अन्य भारी पदार्थ है।

(९) वह अपार खनिज संपदा की स्वामिनी है।

(१०) एकमात्रा पृथिवी पर ही जीवन है।

(११) पृथिवी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध है। गन्ध उसका विशिष्ट गुण है।

(१२) पृथिवी का भौतिक स्वरूप ही प्रधान है, दैवी रूप नहीं।

   इसके अतिरिक्त पृथिवी विश्व का कल्याण करने वाली अन्न, कीर्त्ति, धन और बलप्रदायिनी है। इस प्रकार यह पावन धरा अपने भूमि, क्ष्मा, मही, पृथिवी, उर्वी, उत्ताना, अपारा, धरित्री, विश्वंभरा, वसुधानी, हिरण्यवक्षा, धरिणी, धरती, वसुन्धरा, माता, सुक्षिति और सुक्षेमा सभी नामों को सार्थक करती हुई जगत् का कल्याण करती है अतः संक्षेप में हम सकते हैं-

‘‘विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी’’

संदर्भ- ग्रन्थ

(१) अथर्ववेद संहिता; भाग २, संपा, वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं भगवती देवी शर्मा

(२) अथर्ववेद का सुबोध भाष्य, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(३) अथर्ववेद संहिता-संपा. रामस्वरूप शर्मा गौड़

(४) ऋग्वेद का सुबोध भाष्य, भाग १, २, ३, ४ श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

(५) ऋक्-सूक्त-संग्रह, व्याख्याकार डॉ. हरिदत्त शास्त्री, डॉ. कृष्णकुमार।

(६) न्यू वैदिक सिलेक्शन, भाग १, डॉ. ब्रजबिहारी चैबे।

(७) भारत और विज्ञान, संपा. डॉ. एस.पी.कोष्ठा।

(८) भारतीय दर्शन तथा आधुनिक विज्ञान, डॉ. सुद्युम्न आचार्य

(९) यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, डॉ. एस.एम. जैन

(१०) वैदिक माइथोलॉजी, डॉ. ए.ए. मैक्डॉनल, अनु. रामकुमार राय

(११) वेद-विद्या-निदर्शन, भगवद्दत्त

(१२) वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव  द्विवेदी

शब्द संकेत-

यजु. – यजुर्वेद

तै. ब्रा. -तैत्तरीय ब्राह्मण

ऋ. – ऋग्वेद

तै. उप. – तैत्तरीय उपनिषद्

अथ. वे. – अथर्ववेद

पाद-टिप्पणी

१.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भु ज मामोरिया, एस.एम.जैन, पृष्ठ ८

२.        सुभुः स्वयंभूः प्रथमोऽन्तर्महत्यर्णवे

            दधे गर्भभृत्वियं यतो जातः प्रजापतिः- यजु. २३/६३

३.        अण्डानां तु सहस्त्राणां सहस्त्राण्य युतानि च

            ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि शतानि च द्वितीयांश-विष्णु पुराण अध्याय ७

            अण्डानां ईदृशानां तु कोट्यो ज्ञेया सहस्त्रशः

            तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्च कारणाव्ययात्मनः।। वायु पुराण ४९/१५१

४.        भूतस्य प्रथमजा – यजु. ३७.४

            इयं वै पृथिवी भूतस्य प्रथमजा – मा.शत.ब्रा. १४.१.२.१०

५.        स भूरिति व्याहरत। स भूमिमसृजत्- तै. ब्रा. २.२.।४.२

६.        पदभ्यां भूमिः – ऋ. १०.९०.१४

            भूर्जज्ञ उत्तानंपादो भुव आशा अजायन्त – ऋ. १०.७२.४

            ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख एषोऽश्वत्थ सनातनः – कठो. २.३.१

            ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुख्ययम् – गीता १४.१

७.        वायु पुराण १०१.१८

८.        यूनीफाइड भूगोल, डॉ. चतुर्भुज मामोरिया, एस.एम. जैन, पृ. १८

८.        भपञ्जरस्य भ्रमणावलोकादाधारशून्य कुरिति प्रतीतिः

            स्वस्थं न दृष्टं गुरू च क्षमातः खेऽधः प्रयातिति बौद्धः।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसरा अध्याय श्लोक ७)

९.        अग्नेरापः अद्भ्यः पृथिवी-तैत्त. उप. २.१.१

१०.     यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामंत्र कृष्टयः संबभूबुः। अथर्व. १२.१.३

११.     वृत्तभपञ्जरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टित खमध्यगतः

            मृज्जलशिखिवायुमयो भूगोलः सर्वतो वृत्तः।

            (आर्यभट्टीय, गोलपाद श्लोक ६)

१२.     पञ्चभूतमयस्य तारागणपञ्जरे महीगोलः

            खेऽयस्कान्तान्तस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः।

            (पञ्सिद्धान्तिका, त्रैलोक्य संस्थान नामक १३ अ. श्लोक १)

१३.     नान्याधारः स्वशक्त्या वियति च नियतं तिष्ठतीहास्य पृष्ठे

            निष्ठं विश्वञ्च शाश्वत् सदनुजमनुजादित्यदैत्यं समन्तात्।

            (सिद्धान्तशिरोमणि, भुवनकोश नामक दूसारा अ. श्लोक २)

१४.     ऋग्वेद ४.५६,३

१५.     यो जजान रोदसी विश्वशंभुवा – ऋग्वेद १.१६०.४

१६.     स वह्मिः पुत्रः पुत्र्योः – ऋग्वेद १.१६०.३

१७.     धिषणे अन्तरीयते देवो देवी धर्मणाः सूर्यः शुचिः – ऋग्वेद १.१६०.१

१८.     उत मन्ये पितुरदु्रहोमनो मातुर्महिस्वत स्तद्धवीमहि – ऋग्वेद १.२२.१५९.२

१९.     घृतेन द्यावापृथिवी अभीवृत्ते, पृतश्रियां, धृतपृचा घृतवृधा – ऋग्वेद ६.७०.४-५

२०.     बाहुच्युता पृथिवी द्यामिव उपरि – अथर्व. १८.३.२५-३५

२१.     वि यो ममे पृथिवी सूर्येण- ऋग्वेद ५.८५.५

२२.     अथर्ववेद १२.१.८

२३.     -वही- १२.१.२०

२४.     -वही- १२.१.४८

२५.     -वही- १२.१.३७

२६.     -वही- १२.१.३६ अहोरात्रे पृथिवी नो दुहाताम्

            १२.१.५२ अहोरात्रे विहिते भूम्यामधि

२७.     अथर्ववेद १२.१.२३, २४, २५

            तुलना कीजिये – तत्र गंधवती पृथिवी – तर्क संग्रह, द्रव्य लक्षण प्रकरण पृथिवी इतरेभ्यो भिद्यते गन्धवत्वात् – तर्कसंग्रह अनुमान खण्ड

२८.     अथर्ववेद १२.१.४८

२९.     वेदों में विज्ञान, डॉ. कपिलदेव शास्त्री, पृष्ठ २७

३०.     ध्रुवां भूमिं – अथर्व. १२.१.१७, महती बभूविथ १२.१.१८

३१.     अथर्ववेद – १२.१.८

३२.     -वही- १२.१.५३

३३.     -वही- १२.१.१९

३४.     अथर्ववेद १२.१.२१

३५.     यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान अथर्व. २०.३४.३

३६.     अरणी यभ्यां निर्मश्यते वसु – अथर्व. १०.८.२०

३७.     अग्ने पित्तमपामसि – अथर्व. १०.८.२०

३८.     अथर्ववेद १२.१.१२

३९.     -वही- १२.१.१९

४०.     -वही- १२.१.६

४१.     -वही- १२.१.२६

४२.     -वही- १२.१.४४

४३.     अथर्ववेद १२.१.१८

४४.     -वही- १२.१.३१ प्रदिशः का अर्थ आग्नेय, नैर्ऋत्य, वायव्य और ईशान है।

४५.     -वही- १२.१.३२

४६.     ऋग्वेद ६.७०.२

४७.     अथर्ववेद १२.१.८

४८.     इयं तर्हि शिथिरासीत् – काठक संहिता ३६.७, मै.सं. १.१०.१३

            शिथिरा वा इयमग्र आसीत् – मैत्रा.सं. १.६.३

४९.     सा हेयं पृथिवी अलेयद् यथा पर्णमेव। तां ह स्म वातः संवहति – शत. ब्राह्मण

            तां दिशोऽनुवातः समवहत् – तै. ब्रा. १.१.३

            अलेलेद वा इयं पृथिवी – काठक संहिता ८.२

५०.     ताः (आपः) अतप्यन्त। ताः फेनमसृजन्त। तस्माद् अपां तप्तानां फेनो जायते-

            शत. ब्राह्मण ६.१.३.२

५१.     न वा एष शुष्को नाद्र्रो व्युष्टासीत् – तै. ब्रा. १.७.१.६-७

            शत. ब्रा. १०.७.३.२

५२.     स (फेनः) यदोपहन्यते मृदेव भवति – शत. ब्रा. ६.१.३.३

            यन्मृद् इयं तत् (पृथिवी) शत. ब्रा. १४.१.२.९

५३.     एता वै शुष्का आपः – मै. सं. ३.६.३

५४.     स (मृद्) अतप्यत सा सिकता असृज्यत- शत. ब्रा. ६.१.३.४

५५.     सिकताभ्यः शर्करा – शत. ब्रा. ६.१.३, ५

५६.     शिथिरा वा इयमग्र आसीत्। तां प्रजापतिः शर्कराभिरहहंत्। मैत्रा. सं. १.६.३

५७.     शर्कराया अश्मानम् (असृजत) तस्मात् शर्कराश्मैव अन्ततो भवति- शत. ब्रा. ६.१.३.३

५८.     ऋक ह वा इयमग्र आसीत्। तस्यां देवा रोहिण्यां वीरूधोऽरोहयत् – मै. सं. १.६.७.२

            इयं वा अलोमिकोवाग्र आसीत् – ऐ. ब्रा. २४.२२। ओषधिवनस्पतयो वै लोमानि।

            जै. ब्रा.२.५४

५९.     वै तर्हि अल्पा पृथिव्यासीद् अजाता ओषधयः – तै. सं. २.१.२

६०.     आग्नेयी पृथिवी – ता. ब्रा. १५.४.८ अग्निवासाः पृथिवी – अथ. १२.१.२१

            आग्नेयो अयं लोकः जै. उप. १.३७.२, अग्निगर्भा पृथिवी – शत. ब्रा. १४.९कृ४.२१

६१.     शत. ब्राह्मण – २.२.४.५

६२.     तै. ब्रा. १.१.३.३

६३.     आखुस्ते रूद्रस्य पशुः – तै. ब्रा. १.६.१०.२

६४.     जैमिनीय ब्राह्मण १.१५७

६५.     परिमण्डल उ वा अयं (पृथिवी) लोकः – शत. ब्रा. ७.१.१.३७

६६.     ऐतरेय ब्राह्मण – १.२३

६७.     (असुराः) अयस्मयीं (पुरीम्) अस्मिन् (अकुर्वत) कौ.ब्रा. ८.८

६८.     २/५/२३ अद्भुद्सागर, पृ. ३८३

६९.     अथर्ववेद १९.३८.१

वेदोक्त सूर्य का स्वरूप और कार्य -वेदपाल वर्मा

            वेद कहता है कि पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थ विद्या का ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य का परम कर्त्तव्य है। पदार्थ विज्ञान के ज्ञाता इधर-उधर नहीं घूमते। पदार्थ विज्ञान से विद्या की वृद्धि-शुभकर्मों में प्रवृत्ति तथा निरन्तर सुख एंव ऐश्वर्यानन्द की प्राप्ति होती है १ ४/३ ऋक्।। 

मनुष्यों को चाहिये वे भू-जल-सूर्य-पवन -विद्युत् आदि पदार्थों के विशेष ज्ञान से शिल्प विद्या द्वारा उत्तम-उत्तम क्रियाएं प्रकाश में लाएं और उनका प्रयोग करें १ १/२ ऋक्।। 

इसीलिए विद्वानों को पदार्थ विद्या की खोज करनी चाहिए ५ २२/३ ऋक्।।

वेद यह भी कहता है कि सूर्यरूप पदार्थ विद्या के ज्ञाता सदा श्रीमान् व सुखी होते हैं ५ ४५/२ ऋक्।।  सूर्यो भूतस्यैकं चक्षुः- सूर्य जगत् का एकमात्र चक्षु है १३ १/४५ अथर्व. ।। सूर्यो वै सर्वेषां देवानात्मा- सूर्य सब देवों की आत्मा है शत. १४-३-२-९।। युवा कविः तिग्मेन ज्योतिषा विभाति- यह सदा तरूण रहता है- इसका तेज प्रखर है १३ १/११ अथर्व. ।।  ‘‘इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरूत्तम विश्वजित्- सूर्य संसार की श्रेष्ठतम-पवित्र-विश्व-विजेता -सभी दिव्य तेजों की ज्योति है- उषः काल में यज्ञ कराने वाली दीप्ति है १० १७०/३ ऋक्।।’’ अतन्द्रः यास्यन् हिरतः यदा आस्थात्-यह आलस्य न करने वाला दीर्घव्रत का पालन करने वाला है १३ २/२२ अथर्व.।।

सूर्यः आत्मा जगतस्तरथुषश्व- सूर्य स्थावर और जंगम पदार्थों का जीवन है १३ २/३४ अथर्व.।।  उत्तम किरणों वाला-निर्भय-उग्र एवं अलौकिक तेज का भण्डार-द्युलोक वासी है १९ ६५/१ अथर्व.।।  अदृशत्रस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा- सूर्य की किरणें दहकते हुए अंगारों के समान दिखाई देती हैं साम. ६३४।। सूर्य राष्ट्र का भरण-पोषण करने वाला है १३ १/३४ अथर्व.।।  इसमें बढ़ाने की शक्ति है १३ १/२२ अथर्व.।।  इससे ही जगत् को सुन्दर रूप मिला है तथा राष्ट्र को घी-दूध से भरपूर करता है १३ १/८ अथर्व.।।  सूर्य को कोई लांघ नहीं सकता है १० ६२/९ ऋक्।।  शरीर में प्राण-अपान को जोड़ने वाला भी सूर्य ही है १० २७/२० ऋक्।।

पृथिवी पर द्युलोक का प्राण सूर्य किरणों द्वारा ही आता है। अन्तरिक्ष का प्राण वृष्टि द्वारा पृथिवी पर पहुंचता है वृष्टि का कारण सूर्य ही है ११-४ अथर्व.।। सूर्य ही दृढ़ता व आर्यत्व का प्रतीक है सविता इव आर्यः च ध्रुवः तिष्ठसि १९ ४६/४ अथर्व।। इसी हेतु प्रलयावस्था में परमात्मा ने ईक्षण (तप) किया तो सर्वप्रथम सूर्यलोक को ही बनाया। सः इमालोकानसृजत। अम्भोमरीचीमरमापो। अर्थात् ईश्वार ने अम्भस्-मरीची-मर और आप-इन (४) लोकों को रचा-ऐतरेयोपनिषद् प्रथमखण्ड।। सूर्य अपनी किरणों से जलों को खींचता है इसलिए वही अम्भस् है। मरीचि=किरणों को कहते हैं उनका आना जाना आकाश द्वारा ही होता है इसलिए मरीचि से अन्तरिक्ष अभिप्रेत है। मर-मरणधर्मा प्राणियों के रहने से ‘‘मर” नाम पृथिवी का है। आपः-नीचे की ओर बहने की प्रवृत्ति होने से जल को पृथिवी के नीचे होने की बात कही गई है। पृथिवी और सूर्य के मध्य में अन्तरिक्ष का होना स्वाभाविक है।

            तैत्तिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वली प्रथमाध्याय के छठे अनुवाक में सूर्य को अनिलयन (निराश्रित) तथान्यग्रहों को निलयन (आश्रित) कहा है। सूर्य को किसी अन्य ग्रह के आधार की अपेक्षा नहीं है क्योंकि वह अनिलयन है। चन्द्रादिक-पृथिवी आदि दूसरे ग्रह सूर्य के आधार व आकर्षण से ही अन्तरिक्ष में ठहरे हुए हैं इसलिए वे निलयन कहे गये हैं।

            ईश्वर ने ही अपनी व्याप्ति और सत्ता से सूर्यादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं- इनमें सूर्य मुख्य है क्योंकि इसके धारण आकर्षण और प्रकाश के योग से सब पदार्थ सुशोभित होते हैं १ ६/७ ऋक्।। ततो विराडजायत विराजोऽधिपूरूषः साम. ६२२ वें मंत्र में भी सौरमण्डल के जन्म वर्णन में पृथिवी-सूर्य-मंगल-बुध-बृहस्पति आदि की उत्पत्ति प्रभु के अधिष्ठातृत्व में ही सम्पन्न हुई। अयं विश्वानि तिष्ठति पुनानो भुवनोपरि। सोमो देवो न सूर्यः-निर्दोष किरणों वाला सूर्य सौरमण्डल का अधिष्ठाता है साम. ७५७।। यह सब लोकों से बड़ा है ३ २/१४ ऋक्।। आज के वैज्ञानिक सूर्य का व्यास १,३९,९६० कि.मी. बताते हैं। यह प्रकाशमान सूर्य ब्रह्माण्ड के मध्य में विराजित है, इसके चारों ओर बहुत भूगोल सम्बन्धयुक्त हैं। पृथ्वी और चन्द्रमा एक साथ चारों ओर घूमते हैं ४ ४५/१ ऋक्।। यह अपने चक्र को छोड़कर इधर-उधर नहीं जाता है, अपनी कक्षा में स्थिर रहता है इसी के आधार से पृथिवी आदि लोक सूर्य के चारों तरफ लगाते हैं २ २७/११ ऋक्।। यह अपनी परिधि में स्थिर व दिखाने वाला न हो तो तुल्य आकर्षण तथा किसी को कुछ भी देखना न बने २ ४१/१० ऋक्।। बण्महाँ असि सूर्यः बडादित्य महाँ असि। महस्ते सतो महिमा पनिष्टम मन्हा देव महाँ असि-सूर्यमहान् है, परिणाम में महान् है क्योंकि उसकी परिधि ८ कोस की लम्बाई से अधिक है। कर्म में भी महान् है क्योंकि सब ग्रहों-उपग्रहों का प्रकाशक और जीवनाधार है। गुरूत्वाकर्षण में भी महान् है क्योंकि सब आकाशीय पिण्डों को अपने आकर्षण से धारण किये हुए है। ज्योति में महान् है क्योंकि ज्योति का पुंज है साम,  १७८८, १७८९+अथर्व १३ २/२९।। सूर्यलोक प्रकाशलोक है, पृथिवी प्रकाशरहित लोक है, तीसरा परमाणु आदि अदृश्य जगत्, इन्हें आकाश में स्थापित किया है ५-१५ यजु.।।

            सूर्यलोक समुद्र में भी प्रकाशता है १३२/३० अथर्व।। इसकी सुषुम्णा नामक रश्मियाँ चन्द्रमा में प्रकाश धारण कराने वाली हैं साम १४७+यजु. १८-४०।। सूर्य ईश्वर की भी आंख है इसी के द्वारा वह ब्रह्माण्ड को देखता रहता है १० ७/३३ अथर्व।। द्युलोक में अग्नि से उत्पन्न होने वाली ‘नवग्व और दशग्व’ नामक अग्नि की लहरें समस्त किरणों के साथ रहकर उन्हें शक्ति प्रदान करती हैं। ये अग्नि की शक्तियां अथवा आग्नेय आगार द्युलोक में सूर्य सृष्टि नियमानुसार स्थापित करते हैं। सब भूतों की माता पृथिवी को फैलाते हैं। ये यज्ञीय हवि को भी ग्रहण करते है १० ६२/३६ ऋक्।। इसलिए आग्नेय पदार्थों का मुख्य केन्द्र सूर्य को माना है। अपनी पृथिवी पर जो भौतिक अग्नि है वह सूर्य का पोता है। विद्युत्सूर्य का पुत्र है क्योंकि सूर्य की उष्णता से मेघमण्डल में विद्युत् बनती है, यह विद्युत् सूखे घास पर या वृक्ष पर गिरकर अग्नि उत्पन्न करती है। अतः यह अग्नि का ही अंश है। अग्नि तत्व में जो उष्णता है, वह सूर्य के ही सम्बन्ध से है। वृक्षादि में उष्णता सूर्य किरणों से ही तो प्राप्त है इसलिए सब आग्नेय पदार्थ सूर्य के ही विभिन्न रूप हैं। सूर्य के अतिरिक्त कोई भिन्न पदार्थ नहीं है जो उष्णता दे सके।  सूर्य ही रूपान्तरित होकर अग्नि और विद्युत है। एक ही सूर्य ३ रूपों में दिखाई देता है-सः एव सविता.। सोऽअग्निः। सः इन्द्रः ४ २/५ अथर्व।। अग्नि-विद्युत्-आदि विभिन्न देव सूर्य के ही एक रूप होकर रहते हैं सर्वे देवा अस्मिन् एकवृत्तो भवन्ति १३ ५/२१ अथर्व।।

            सूर्य कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता है उसी के साथ चन्द्रमा-ग्रह-नक्षत्र-दिनरात-ऋतु-संवत्सर सभी मर्यादा पर चल रहे हैं। इन सबको मर्यादित करने वाला सूर्य ही है १३ २/४-५ अथर्व।। इसका मुख सर्वत्र है, वैसे ही इसके हाथ-पांव और भुजाएं सर्वत्र हैं। सबका पोषक यही एक देव पृथिवी से द्युलोक तक के सब पदार्थमात्र का उत्पत्तिकर्ता है १३ २/२६ अथर्व।। यह दुःखी मनुष्य का मार्गदर्शक है- सामथ्र्यशाली है। सुख का मार्ग बताता है। पृथिवीपालक है १३ ३/४४ अथर्व।। सूर्य लोक के समान कोई दूसरा श्रेष्ठ लोक नहीं है क्योंकि सूर्य की ही कृपा से चोर-डाकू अपनी क्रियाओं से निवृत्त हो जाते हैं। इसे पाकर प्राणिजगत निशक-निडर होकर सुख का अनुभव करते हैं तथा प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने व्यापार में लग जाते हैं ४-३५, ३६ यजु.।।

            सूर्य अपनी आकर्षण शक्ति से पृथिवी आदि लोक लोकान्तरों को धारण किये है १२-२१ यजु.।। सः वरूणः सायं अग्निः भवति, सः इन्द्रः भूत्वा मध्यतः दिवं तपति। वह वरूण है सायंकाल में अग्नि, प्रातः उदय होने के समय सबका मित्र, सविता बनकर अन्तरिक्ष में भी संचार करता हुआ-इन्द्र होकर द्युलोक के मध्य में तपता है १३ ३/१३ अथर्व, सूर्य के रूद्र-इन्द्र-चन्द्र-महेन्द्र-सविता-आदित्य-धाता-विधाता-पतग-अर्यमा-वरूण-यम-महायम-देव-महादेव-एक-एकवृत्त-रोहित-सुपर्ण-अरूण-केशी-हरिकेश-सप्ताश्रव्-सप्तरश्मि आदि नाम गिनाये है अथर्व काण्ड १३।। श्रीमद्भागवत में भी प्रातः काल के सूर्य का नाम ब्रह्मा, मध्याह्न के सूर्य का नाम विष्णु और रात्री के समय का नाम शिव कहकर त्रिमूर्ति को सूर्य में ही बताया है। सूर्य की महान् शक्ति का वर्णन ‘‘अन्तश्रव्रति रोचनास्यं प्राणदयानती व्यख्यन्महिषो दिवम्’’ अर्थात् सूर्य की रोचमान दीप्ति से शरीरों में प्राणवायु के ऊपर-नीचे-आने-जाने आदि का व्यवहार होता है १० १८९/२ ऋक्।। सूर्य में तप-हर-अर्चि-शोचि एवं तेज जो क्रमशः प्रतापशक्ति-नाशशक्ति-दीपनशक्ति-शोधनशक्ति व तेजनशक्ति के नाम से पुकारी जाती है काण्ड-२ अथर्व।। सूर्य ही काल है समय है क्योंकि दिन-रात उसी से होते हैं १३ १/२२ अथर्व।। सूर्य जिस समय जिस भूभाग के सम्मुख होता है वहाँ दिन होता है दूसरे भूभाग में रात्रि होती है १३ ३/४३ अथर्व।।

            योगीजन मरण से ऊपर उठकर सूर्य की तेजोमय रश्मियों पर आरूढ़ होकर जाते हैं और अमृतमय मोक्षधाम को प्राप्त हो जाते हैं साम. ९२।। मुण्डकोपनिषद् में भी ‘सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति’- अर्थात् सूर्य की किरणें उन्हें अमर-अविनाशी पुरूष के पास ले जाती हैं १-२-११।।

            इसी सूर्य की एक प्रकार की किरणें ‘‘आपः” नामकी हैं जिनमें जलीय तत्वों का समूह वेग से चमकता है १० ४३/४ ऋक्-जल रस को पीकर मेघ के अंकरूप जल बिन्दुओं को बरसा कर सब औषधि आदि पदार्थों को भिन्न-भिन्न करके बहुत छोटे-छोटे कर देती हैं, इसी से वे पदार्थ पवन के साथ ऊपर को चढ़ जाते हैं क्योंकि सूर्य क्षण-क्षण में जल को ऊपर खींचकर संसार में बरसाता है इसी से यह वर्षा का कारण है १ ६/१० ऋक्।। यह अपनी कक्षा में स्थिर रहता हुआ, अपने समीप के लोकों को चुम्बक-पत्थर और लोहे के समान खींचने को समर्थ रहता है २ ७/६८ ऋक्।। इसी से समय के विभाग उत्तरायण-दक्षिणायन तथा ऋतु-मास-पक्ष-दिन-घड़ी और पल आदि हो जाते हैं १ ११/५ ऋक्।। रात्रि में ग्रह-नक्षत्र-चन्द्रादि लोक इनमें अपना प्रकाश नहीं है-ये सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान होते हैं। न ये कहीं जाते हैं किन्तु ढके हुए दीखते नहीं हैं। रात्रि में सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होकर दीखते हैं १ २४/१० ऋक्।।

सूर्य की ऊपरी अथवा बीच की किरणों मेघ की निमित्त हैं उनमें जो जल के परमाणु रहते हैं वे अति सूक्ष्मता के कारण दृष्टिगोचर नहीं होते हैं १ २४/७ ऋक्।। यह अग्निमय सूर्य लोक अपने स्वाभाविक गुणों से वर्षा की उत्पत्ति के निमित्त काम दिनरात करता है। और जगत् को जीवन देता है सूर्य निर्मित मेघ के जल से नदियां वहती हैं जिनके जल प्रवाहों में औषध भरा पड़ा है। यह सूर्य मेघ को पिता है। मेघ की उत्पत्ति को सूर्य से भिन्न कोई निमित्त नहीं है। मेघ के बिजली और गर्जना आदि गुणों से भय होता है, उस भय को भी दूर करने वाला भी सूर्य है। पृथिवी और अन्तरिक्ष सूर्य की दो स्त्री के समान हैं। वह पदार्थों से जल को वायु के द्वारा खींचकर जब अन्तरिक्ष में फेंकता है, तब वह पुत्र रूप मेघ प्रमत्त के सदृश बढ़कर उठता है और सूर्य के प्रकाश को ढक लेता है, तब सूर्य उसको मारकर भूमि में जल के रूप में गिरा देता है। जल की रूकावट को तोड़कर उसे अच्छी प्रकार बरसाता है। इसी से यह सूर्य समुद्रों के रचने को भी हेतु होता है तथा इस चराचर शान्त-अशान्त संसार में प्रकाशमान होकर, सब लोकों को अपनी-अपनी कक्षा में चलाता है।

सूर्य के बिना अति निकट मूर्तिमान लोक की धारणा-आकर्षक-प्रकाश और मेघ की वर्षा आदि कार्य किसी से नहीं हो सकते हैं १-३२ वां सूक्त ऋक्।। यह पृथिवी सूर्य के ऊपर-नीचे और उत्तर-दक्षिण को जाती है इसीलिये इसके परले आधे भाग में सदा अन्धकार और उरले आधे भाग में प्रकाश वर्तमान रहता है १ १६४/२ ऋक्।। उषा का निमित्त भी सूर्य है ४ ४०/१ ऋक्।। पृथिवी सूर्य के भय से ही चलती है ५ ५९/२ ऋक्।। सूर्य पृथिवी और द्युलोक से रस लेता है ६ ५७/२ ऋक्। सूर्य पदार्थों से ८ मास रस ग्रहण करके-मेघमण्डल में स्थापित करके, वर्षा ऋतु में बरसा के प्रजा को सुखी करता है। पृथिवी और पृथिवीस्थ पदार्थों को नष्ट नहीं करता-रक्षा करता है ६ ३०/२३ ऋक्।। सूर्यताप से अन्तरिक्ष स्थित वायु उत्तप्त होती है और वह ताप दूर भूमि तक पहुंचकर जहाँ-तहाँ की आर्द्रता को वाष्प को बदलकर मेघ रूप में एकत्र करता है और फिर वही बादल छिन्न-भिन्न हो वर्षा में परिणित होकर अन्न उत्पादन का कारण बनता है इसीलिए अन्तरिक्षस्थ अग्नि ‘वयोधा’ अन्न प्रदाता है ८ ७२/४ ऋक्।। सूर्य हमें विद्युत् प्रदान करता है जो अन्न-जल देने वाली एवं सब रोगों को दूर करने वाली है, जलवृष्टि में भी सहयोगी है। उस वृष्टि से शान्ति-सुख एवं कल्याण प्राप्त होते हैं क्योंकि वर्षा से ही अन्नादि उपजते हैं। यज्ञों में ऐसी समिधाएं समर्पित करनी चाहिए जो जल को ग्रहण करें। मेघविद्या मेंपारगत यज्ञों आदि के द्वारा भूमि पर बरसाने में सहायक होते हैं।

यज्ञकर्म मेघ को विद्युत् रूपी वाणी देता है। देव विज्ञान का ज्ञाता वृष्टिज्ञानी पुरूष जब यज्ञ करे-तो सर्वदिव्य गुणों से समपुष्ट होकर अग्नि तथा सूर्य जलप्रद मेघ को पुकारता है १०-९८ वां सूक्त ऋक्।। अनावृष्टि काल में बादल सूर्य के प्रकाश और जल को नीचे से रोककर भूमि पर अन्धकार और अवर्षण उत्पन्न कर देता है, तब इस मेघरूप वृत्र को मारकर यह सूर्य अपने प्रकाश तथा वर्षा जल को निर्बाध गति से भूमि के प्रति प्रवाहित करता है ११९ साम.।। सूर्य की स्थानान्तर गति नहीं है वह अपनी धुरी पर ही घूमता है। पृथिवी की २ प्रकार की गति है- पहली वह अपनी धुरी पर, जिससे अहोरात्र बनते हैं, दूसरी अपनी नियत कक्षा में सूर्य के चारों ओर, जिससे संवत्सर चक्र चलता है ६२० साम.।।

            यह पृथिवी अण्डाकृति मार्ग से सूर्य की परिक्रमा करती है और चन्द्रमा पृथिवी की परिक्रमा करता हुआ, पृथिवी के साथ-साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता है। सूर्य और चन्द्रमा के बीच में पृथिवी के आ जाने से प्रतिदिन चन्द्रमा के सम्पूर्ण गोलार्ध पर सूर्य का प्रकाश नहीं पड़ता। चन्द्रमा का जितना अंश पृथिवी की ओट में आ जाता है उतने अंश में सूर्य का प्रकाश न पड़ने से वह अंश अन्धकार से आच्छन्न ही रहता है। चन्द्रमा की ह्नास-वृद्धि का यही रहस्य है। अमावस्या को सम्पूर्ण चन्द्र के पृथिवी से ढ़क जाने के कारण पूरा ही चन्द्रमा अन्धकार से आवृत्त रहता है और पूर्णिमा को सम्पूर्ण चन्द्रमा के पृथिवी से छूटे रहने के कारण पूरा ही चन्द्रमा प्रकाशित रहता है साम. ९१५।।

            सूर्य जलों को आदान करता है अतः वह आदित्य कहलाता है। वह आंख से प्रत्यक्ष दिखाई देता है अतः वह विश्वदृष्ट कहलाता है। वह अदृष्ट दोषों का नाश करता है। जगत् में जो रोग बीज, हारिकारक रोगमूल हैं सूर्य किरण उन्हें नष्ट करती हैं अतः वह अदृष्टा कहलाता है। नंगा शरीर सूर्य प्रकाश में रखने से शरीर के रोग क्रीमी दूर होंगी-अतः वह विश्वभेषजी कहलाता है। सूर्य किरणों में भ्रमण करने वाली गौ का दूध पीने से लाभ होता है। सूर्य किरणें जिन वनस्पतियों पर गिरती हैं उनके खाने से भी आरोग्य लाभ होता है ६ ५२/३ अथर्व।। अथर्ववेद के २२वें काण्ड के मंत्र ३ के अनुसार ‘‘रोहिणीगाव’’ गौवें श्वेत-काले-लाल-भूरे-बादामी तथा विविध रंग के धब्बेवाली होती हैं। सूर्य किरणें उनकी पीठ पर पड़ती है। किरणों के रंगभेद के अनुसार दूध पर भी भिन्न-भिन्न परिणाम होता है। श्वेत गौ के दूध का गुणधर्म भिन्न होगा, काले रंग वाली गाय के दूध का गुणधर्म भिन्न तथा लाल रंग वाली गाय के दूध का गुणधर्म भिन्न होगा। लाल गौवों के दूध का तथान्य गोरसों का उपयोग हृदयरोग और ह्नमिला पीलिया रोग की चिकित्सा का विधान है। ते ह्नदद्योतः च हरिमा सूर्यमनु उदयताम् १-२२-१ अथर्व।।

            सूर्य की लाल किरण दीर्घायु-सौन्दर्य और बल को भी देने वाली होती है। मनुष्य का पीलियारोग और ह्नदयरोग बड़ा कष्टदायक होता है। पेट के अपचन-मद्यपान आदि से ह्नदय के दोष पैदा होते हैं। जवानी में वीर्य के दोष के कारण भी ह्नदय में विकार पैदा होते हैं। जिनसे मनुष्य कृश-निस्तेज-फीका-दुर्बल और दीन होता है। सूर्य किरणों द्वारा चिकित्सा करने से ये दोष दूर होते हैं। उत्तम स्वास्थ्य मिलता है। सूर्य किरणों में शुक्ल-नील-पीत-रक्त-हरित-कपिश-चित्र ७ रंग होते हैं। सूर्य किरण चिकित्सा में परिधारण विधि का बड़ा महत्व है रोहितैः वर्णैः त्वा दीर्घायुत्वाय परिदध्मसि १-२२-२ अथर्व।। अथर्ववेद के २२ वें सूक्त में परिदध्मसि शब्द ४ बार तथा निदध्मसि शब्द १ बार, दध्मसि शब्द एक बार आया है, जिसका अर्थ है चारों ओर से धारण करना। सूर्य की रक्तवर्ण की किरणों का स्नान शरीर का सौन्दर्य-शरीर का रंग तथा शरीर की सुकुमारता का दायक है। किरण स्नान रोगी के रंग-रोगी की आयु-रोगी का पेशा तथा शरीर के बल के अनुसार होना चाहिए।

            सूर्य-किरणों में पित्त बढ़ाने की शक्ति है। सूर्य किरणों द्वारा यह पित्त वनस्पतियों में संचित होता है। ये वनस्पतियां रूप रंग का सुधार करने में सहायक हैं १-२४-१ अथर्व।। ये वनस्पतियां कुष्ठ रोग के लिये उत्तम औषध हैं। इससे शरीर की त्वचा समान रूपरंगवाली बनती हैं। श्यामा वनस्पति शरीर की चमड़ी शरीर का रंग ठीक करने वाली है १ २२/४ अथर्व।।

            सूर्य में नाना प्रकार के वीर्य हैं। ये वीर्य किरणों द्वारा वनस्पतियों में जाते हैं। वनस्पतियों से वीर्य प्राप्त होते हैं। सूर्य भेदन व्यायाम तथा सूर्यभेदी प्राणायाम द्वारा पेट के स्थान में रहने वाली आदित्य शक्ति जागृत हो जाती है। सूर्य किरणों से तपी हुई वायु प्राणायाम से अन्दर लेने के अभ्यास से क्षयरोग में भी बड़ा भारी लाभ पहुंचता है १-३०-१ अथर्व।। सूर्य की किरणों से सिरदर्द-अंगों के रोग-कर्णरोग आदि रोग दूर होते हैं ९ ८/२२ अथर्व।।

            मेघाच्छादित आकाश के पश्चात् जब सूर्य दर्शन होता है, हवा साफ हो जाती है तब मनुष्यों को अत्यन्त आनन्द होता है। वह सूर्य अपनी सीधी गति से रोगों को दूर करता हुआ शरीर का आरोग्य बढ़ाता है। सूर्य का १ तेज तीन प्रकार से कार्य करता है। मस्तिष्क में मज्जारूप में, ह्नदय में पाचन शक्ति के रूप में तथा सब शरीर में उष्णता के रूप में सूर्य का तेज प्रकाशता है १ १२/१ अथर्व।।

            अंगे-अंगे शिश्रियमाणं शोचिषा- शरीर के प्रत्येक अंग में तेज के अंश से सूर्य रहता है १ १२/२ अथर्व।। सूर्य के इस तेज से अपना तेज बढ़ाना चाहिये। चर्मरोग-दमा-खांसी तथा क्षयरोग उन्हीं को होते हैं जो नंगे शरीर पर सूर्य किरण नहीं लेते तथा तंग मकानों में जो लोग वस्त्रों से वेष्टित रहते हैं। पर्वतों पर औषधियों का सेवन निरोग रहकर दीर्घायु जीवन का कारण है १ १२/४ अथर्व।।

कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति ६-२२-१ अथर्व। सूर्य की किरणें पृथिवी से जल लेकर आकाश में हरण करती हैं इसी से इनका नाम ‘‘हरिः” ‘‘हरयः” मिला है। ये किरणें सब स्थानों को पूर्ण करती हैं इसलिए इन्हें ‘‘सुपर्णाः” ‘‘सुपूर्णाः” कहते हैं। जल के स्थान अन्तरिक्ष में रहकर, वहाँ मेघ रूप में परिणित होकर उन मेघों से पृथिवी पर फिर वही जल आता है। यह कार्य सूर्य किरणों का सदा होता रहता है। वे समुद्र से पानी ऊपर खींचते हैं, मेघ बनाते हैं और वृष्टि होती है। इस प्रकार जल की शुद्धि होती है। पृथिवी पर का जल फिर अन्तरिक्ष में वाष्परूप से खींचा जाता है। वह वहाँ से शुद्ध बनकर फिर वृष्टिरूप में पृथिवी पर गिरता है-मानो मीठे शहद की वर्षा होती है। इस वृष्टि से औषधियाँ बनती हैं। जो रोगों को धोती हैं और दोषः धीः कहलाती हैं। वृष्टि के बिना पदार्थों की उत्पत्ति नहीं होती है और अकाल होता है। सूर्य ही इस अकाल व भुखमरी को दूर करता है व भोग्य पदार्थों का स्वामी है १० ४३/३ ऋक्।।

पर्जन्य का स्वातिजल मध्य नक्षत्रों से प्राप्त किया जा सकता है जो बड़ा आरोग्यप्रद है। वृष्टिजल से शरीर के शुष्क खुजली आदि का निवारण होता है। अन्तरिक्ष में शुद्ध प्राणवायु विराजमान है वह वृष्टि जल के साथ भूमि पर आता है ११-४ अथर्व सूक्त।। वृष्टि जल का स्नान आरोग्यवर्धक है इस जल के पान करने से मूत्र द्वारा शरीर के दोष बाहर हो जाते हैं १ ३/१५ अथर्व।। जो मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करना चाहता है वह सूर्य के प्रकाश में रहे क्योंकि वहाँ अमृत रहता है- इहायमस्तु पुरूषः सहासुना सूर्यस्य भागे अमृतस्य लोके ८ १/१ अथर्व।। सूर्य तेरे कल्याण के लिये तपता है इसके प्रकाश को न छोड़ो-सूर्यस्ते शं तपाति ८ १/५ अथर्व।।

            सूर्य की ‘‘वृष्टिवनि’’ नामक किरणों से वर्षा होती है १० ४३/५ ऋक्।। इसकी ‘‘अरूण’’ नामक किरण दिन की उत्पत्ति करता है। इसका तेज द्युलोक में भरा पड़ा है। इस किरण से वास्तोष्पति नामक अग्नि की उत्पत्ति होती है। यह वास्तोपति अग्नि यज्ञहवि को देवों की तरफ फेंकता है। पदार्थों के संयोग-वियोग का कारण यही अग्नि है १० ६१/६ ऋक्।।

            सूर्य के बिना भूमण्डलों में अनेक व्याधियां पैदा हो जाती हैं। सारा भूमण्डल शुष्क एवं वृक्ष-औषधि-लता आदि से विहीन हो जाता साम. ९१३।। ये सूर्य की किरणें समुद्र व भूगर्भ में पहुंचकर अपने तेजस्वी ताप से स्वर्णादिधातु हीरे-रत्न उत्पन्न कर देती हैं ये अद्भुत शक्ति की राशि होती हैं सा. १०१४+ अथर्व १९ २६/१ + १३ २/१४।। सूर्य अपने वृष्टिजल से फलों में मिठास प्राप्त कराता है २१ २/१८ अथर्व-लिखकर निरन्तर सूर्य दर्शन होने की प्रार्थना की है।

            वैदिक भाषा व साहित्य के मर्मज्ञ महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश के प्रथम सूर्य की महत्ता और जीवन दर्शन का रूप स्वीकारते हुए कहा है ‘‘सहस्त्र गुणमुत्सृष्टु मादत्ते हि रसं रविः” – सूर्य हजारों गुणा अधिक बरसाने के लिये पृथिवी से जल ग्रहण करता है।

            इसीलिए सूर्यादि पदार्थ विद्याओं के यथार्थज्ञाता शिल्पविद्या के ज्ञाता होकर विमानादि शीघ्रगामी पदार्थों की रचना कर विश्व विजयी होते हैं ५ १०/६ + ५ ३२/५ ऋक्।। सूर्य की श्रेष्ठता के कारण ही और इसीलिए दिव्य पदार्थों की माता द्योतमान प्रकृति भी इस प्राणदाता सूर्य को पृथक् उत्पन्न करती है = असावन्यो असुर सूयत द्यौः १० १३२/४ ऋक्।।

                                                                                  शाहपुर, मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश

वेदों की विद्याओं में लगने वाले कर्मभेद (वाम प्रशस्य कर्म) -छैलबिहारी लाल

वेदों में मूर्तमान संसार को बनाने में जो कर्म लगे उनको कभी सूचीकृत करके दस प्रशस्य नाम भेदों में वर्गीकृत किया गया है। यह कर्म प्रसार (प्रैशर) देने वाले कर्मों के रूप में है। अस्त्रेमा। अनैमा। अनेद्यः। अनेभि-शस्त्यः। उक्थ्य। सुनीथः। पाकः। वामः। वयुनम। यहाँ पर हम वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्म का विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

            इन्दवा वामुशान्ति हि (ऋ. १।२।४) मधुछन्दा ऋषि, इन्द्र वायु देवता, गायत्री छनद, इस कर्म को महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपनी चतुर्वेद विषय सूची में मित्र लक्षण में कार्य करने वाला कर्म बतलाया है और विद्युत एवं वायु की मित्रता द्वारा उशान्ति रूपी कान्ति कर्मों को प्रसारित करने वाला वाम कर्म सिद्धान्त दिया है। हमारे वैदिक ग्रन्थों में इस स्थल का बहुत अधिक तरह-तरह से वर्णन किया गया है। तैत्तरीय संहिता १।४।४।१, शतपथ ब्राह्मण ४।१।३।१९, एतरेय ब्राह्मण २।४।२, ३।१।१, आदि में भी बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में शुक्ल नामक अन्न और अश्वनी उशमसि नामक क्रान्ति कर्म के १०९ भेदों में से एक भेद के साथ इसका प्रयोग दर्शाया गया है।

            ऋ. १।१७।३ में काण्डवो मेधातिथि ऋषि इन्दिरा वरूणो विज्ञान में गायत्री छनद भेद द्वारा विद्युत अग्नि और जल के मित्र लक्षणों में ‘‘ईम’’ नामक ज्वलनशील द्रव्य पदार्थ को वाम नामक प्रशस्य कर्म के द्वारा राये नामक धन को प्राप्त करने सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी सूक्त के ७ से ९ वाले तीन मंत्रों में भी तरह-तरह से प्रयोग करने के सिद्धान्तों का वर्णन किया गया है।

            ऋ. १।२२।३।४ में विमान विद्या के साथ शून्यता वृत्ति नामक ऊषा किरणों के रूप में वाम नामक प्रशस्य कर्मों के द्वारा आकाश में गमन आदि और हिरण्य-पाणिन नामक सुवर्ण आदि रत्न आदि को प्राप्त कराने में प्रयोग दर्शाया गया हैं। ऋ. १।३०।१८ में शुनशेप ऋषि के अश्विनो विज्ञान में समुद्र और अन्तरिक्ष में दस्त्रा अश्विनी द्वारा ऐसे अश्वों को खींचने में वाम कर्म सिद्धान्तों को दिया है जिसमें मनुष्य आदि प्राणी न लगे हों। इस प्रकरण को एतरेय ब्राह्मण ७।३।४ में भी दिया गया है। ऋ. १।३४।१, ५, १२ हिरण्य स्तूप ऋषि आगिरस सिद्धान्त के अश्विनों विज्ञान के युवम भेद द्वारा तीन बार (गेज प्रणाली) मे वाम कर्म का शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के साथ प्रयोग सिद्धान्त दिया गया है। इस सूक्त में विमान विद्या की शिल्प क्रियाओं के लिए १२ मंत्रों में बहुत ही विस्तृत वर्णन किया गया है। इन विमान आदि को बनाने में कौन-कौन सी धातु लगेंगी इन सब के साथ तरह-तरह के ईंधन वलों और उनके साथ प्रयोग होने वाले अन्य वल लक्षणों का वर्णन करते हुए अन्तरिक्ष यानों के द्वारा ११ दिन में भूगोल पृथ्वी के अन्त को पहुंचाने वाले विमानों का भी वर्णन किया गया है। इस प्रकरण को आजकल के अन्तरिक्ष वैज्ञानिकों के साथ आधुनिक विज्ञान से समन्वय करके आगे का ज्ञान बड़ी अति सहजता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। ऋ. १।४६।१, ३, ५, ८, में प्रकण्व ऋषि सिद्धान्तों में दिव और उषा नामक प्रकाश और किरणों को मित्र गुणों द्वारा वाम कर्म द्वारा प्रयोग करने का विमान आदि सवारियों में प्रयोग करने के सिद्धान्त दिये गये हैं। इसी प्रकरण से सम्बन्धित ऊषा और प्रकाश को विमान विज्ञान में प्रयोग करने में वाम नामक प्रसारित करने वाले कर्मों के सिद्धान्त ४७ वें सूक्त में भी दिये गये हुए हैं। इन स्थलों को भिन्न-भिन्न वेद भाष्यकारों के भाष्यों से एवं चतुर्वेद व्याकरण पदसूचियों के माध्यम से प्राप्त करके संसार के विमान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ाया जा सकता है। ऋ. १।९३।२, ३, ४ में रहुगणपुत्रों गौतम ऋषि के अग्नि सोम सिद्धान्तों में भूरिक उष्णिक, विराट, अनुष्टुप और स्वराट पंक्ति छनद भेद द्वारा अग्नि और सोम के मित्र लक्षणों में वाम नामक प्रेशर देने वाले कर्म सिद्धान्तों को वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में भी विमान विद्या आदि में अग्नि के सोम से मित्र लक्षणों को विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। ऋ. १।१०८।१, ५, ६ में भी आगिरसकुत्स ऋषि के इन्द्राग्नि विज्ञान में त्रिष्टुप पंक्ति और विराट त्रिष्टुप छनद भेद द्वारा विमान विद्या में तरह-तरह के सिद्धान्तों का शिला सिद्धान्तों का शिल्प क्रियाओं के साथ वाम प्रशस्य कर्म के सिद्धान्त दिये हुए हैं। १०९ वाले सूक्त में भी इस विद्या का और अधिक विस्तार किया गया है। वहां पर अग्नि और विद्युत् के मित्र लक्षण द्वारा यवत अश्विनियों के साथ सूर्य और पवन का संयोग वाम नामक प्रशस्य कर्म में लगाने का सिद्धान्त दिया गया है।

            ऋ. १।११९।९ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनी विज्ञान सिद्धान्त में यम वायु और श्वेत प्रकाश के साथ वाम नामक प्रशस्य कर्म को विमान विज्ञान की शिल्प क्रियाओं के प्रयोग करने का सिद्धान्त दिया गया है। इसी सूक्त में ११ से १३ वाले मंत्रों में नश, नासत्या और पुम भुजा नामक अश्विनी के साथ वाम प्रशस्य कर्म का प्रयोग दर्शाया गया है। २१-२८वें मंत्र में भी इसको विमान विद्या के साथ दर्शाया गया है। इससे अगले सूक्त में छंद भेद से ५, २, ४, ९, १०, १५, १८, २२, २३, २५ (२। ३९।८) में भी वाम नामक प्रशस्य कर्म की विद्याओं का भिन्न-भिन्न प्रयोग सिद्धान्त दर्शाया गया है। ऋ. १।११८।१ (२।५८।३) ४, ५। १०। ११ में कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में (श्येनपत्या) बाज के समान उड़ने वाला, पवन के समान वेगवाला, मन के समान गति वाला रथ या यान ऊपर से नीचे  उतरने का वाम सिद्धान्त दिया है। भिन्न-भिन्न मंत्रों में त्रिष्टुप छन्दों के माध्यम से जलयानों की गति वायुयानों का ऊपर-नीचे आने जाने का सिद्धान्त दिया है। जैसे ऊषा धीरे-धीरे प्रकाशित होती है उसी प्रकार क्रम से गति को बढ़ाया घटाया जाने को दर्शाया है। इन मंत्रों में जवसा गति का सिद्धान्त महत्व रखता है।

            ऋ. १।११९।१; २; ४;५; ७; ९ में दीर्घतमसः कक्षीवान ऋषि के अश्विनौ विज्ञान में जगती तथा त्रिष्टुप छन्दों द्वारा विमान विद्या की भिन्न-भिन्न कार्य प्रणलियों को प्रकाश्ति किया गया है। प्रथम मंत्र में (जीराश्वम्) गति वाले अश्व (इंजन) का वर्णन है। अश्विनौ विद्या में प्रशस्य कर्म से एक ऐसे विशाल यान को दर्शाया गया है जिसमें सैकड़ों भंडारण हों, हजारों पताकाएँ लगी हों। यह जलयान का वर्णन है। (ऊध्र्वाधीतिः) समुद्र लहरों पर ऊपर-नीचे करने का सिद्धान्त है। यहाँ (धर्मं) और (ऊर्जानी) पदों से सौर ऊर्जा सिद्धान्त दिया गया है जिससे प्रकाश के लिए यानों में दूसरा प्रयोग हो सके।

            ऋ. १।१२०।१; ३; ५; में उशिक पुत्रः कक्षीवान ऋषि तथा अश्विनौ देवता हैं। छनद गायत्री व उष्णिक छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म सिद्धान्त दिए हैं। यानादि में प्रकाश की आवश्यकता होती है। यहाँ इन मंत्रों में प्रकाश विद्या का वर्णन है। (जोषे) कान्ति या प्रकाश के लिए विद्या-विज्ञान का विधान करने को कहा है। ऋ. १।१२२।७; ९; १५ मंत्रों के कक्षीवान ऋषि विश्वेदेवा हैं। इन मंत्रों में त्रिष्टुप, पंक्ति छन्दों द्वारा प्रशस्य कर्म का सिद्धान्त दिया है एवं मित्र-वरूण क्रिया (उठाने गिराने की क्रिया) से चलने वाले यन्त्र विशेषों का सिद्धान्त है। चार के स्थान पर तीन व्यवधानों को नष्ट करना चाहिए अर्थात् क्रम से ही यन्त्रों की कमी दूर करनी चाहिए। ऋ. १।१३५।४, ५; ६; मन्त्रों के परूच्छेय ऋषि दृष्टा, वायुदेवता व अष्टि छनद हैं। प्रशस्य कर्म के लिए इन्द्र + वायु के प्रयोग से वाम क्रिया का दिग्दर्शन कराया है। विद्युत् वायु के योग से अनेक शिल्प क्रियाऐं हुआ करती है। अतः विमान विद्या में इनके प्रयोग का सिद्धान्त दिया है।

            ऋ. १।१३७। १-३ मंत्रों के परूच्छेप ऋषि, मित्रावरूणौ देवते, शक्चरी छनद हैं। मित्र + वरूण विज्ञान से वाम् क्रिया द्वारा यन्त्रों की क्रियाशीलता प्रकट हो रही है। (इन्दवः) द्रव का बूंद-बूंद होकर टपकने से यंत्र में गति प्रदान होती है यह गति ही समस्त जगत के कार्यों का सम्पादन करती है। ‘अद्रिभि’ क्रिया से यन्त्रों में स्निग्ध अर्थात् चिकनाई पहुँचाने की विधि या सिद्धान्त दिया गया है। आगे सूक्त १३९ के मंत्र ३, ४, ५ के परूच्छेप ऋषि, अश्विनौ देवता। अष्टी, व जगती छनद हैं। ‘‘स्वर्ण-यान’’ भारत के प्राचीन वैभव को उजागर कर रहे हैं। अश्विनौ विज्ञान-विमान विद्या की अंगभूत इकाई है जो विमानों की गति को नियंत्रण में रखती है। (पवयः) पहियों को घूमने की दिशा व दशा को प्रदान करने की क्रिया विशेष जिससे यान दिशा परिवर्तन व गति परिवर्तन कर सकें। (दिविष्टषु) आकश मार्ग में ही अग्नि आदि पदार्थों को प्रयुक्त करके नीचे न गिरने वाले सिद्धान्त को दर्शाया गया है। अर्थात् ऊपर की ही ओर उड़ान भरने का सिद्धान्त जैसे (राकेट) ऊर्ध्वयान। इन यानों के विषय में पांचवें मंत्र में कहा कि ये यान दिन रात चलते रहें तो भी ये नष्ट नहीं हो सकते। ये रहस्यमयी वेदविज्ञान-विद्याएं मंत्रों में छिपी पड़ी हैं। इन्हें उजागर कर हम आर्यावर्त्त के प्राचीन गौरव को पुनः प्रतिष्ठित करें, भगवान से यही प्रार्थना है।

            ऋ. १।१५१।२; ३; ६-९; मंत्रों के दीर्घतमा ऋषि, मित्रा वरूणौ देवता तथा जगती छनद भेद हैं। शिल्प क्रियाओं में प्रशस्य कर्म भेद से वाम क्रिया द्वारा ऋषि ने विज्ञान के सिद्धान्त निरूपित किए हैं। यहाँ पृथ्वीस्थ कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिए मिस्त्रावरूणौ विज्ञान का समावेश है। ऋ. ६।१५२।३; ७ (३।६२।१६) प्रथम मंडल के सूक्त १५२ में दीर्घतमा ऋषि, मित्रावरूणौ देवते तथा त्रिष्टुप छनद भेद है। इन मंत्रों में वेद-विद्या के विभाग करने को कहा है जिससे विद्याओं को वर्गीकरण होकर उन-उन पर अलग-अलग क्रियाएँ की जा सकेंगे। अगले सूक्त के मंत्र १-४ तक मित्रा वरूणौ विज्ञान है। ऋषि दीर्घतमा, देवता मित्रावरूणौ छनद त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। १।१५४।२ के दीर्घतमा ऋषि, विष्णु देवता निचृत जगती छन्द हैं। मंत्र में इन्द्र विष्णु विद्या दी गई है। विद्युत् किसी कार्य-क्रिया को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाती है। ऋ. १।१५७।६ दीर्घतमा ऋषि, अश्विनौ देवते, विराट् त्रिष्टुप छन्द विमानों में चिकित्सा आदि का प्रबन्ध का होना अनिवार्य हो।

            ऋ. १।१५८। १-४ दीर्घतमा ऋषि अश्विनौ देवता, त्रिष्टुप, पंक्ति छन्द भेद हैं। सूर्य और पवन के योग से जो कार्य सिद्ध होते हैं वह विद्या दर्शाई गई है। अगले सूक्त १।१८०।१; २-५; ७, १० के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते। त्रिष्टुप, पंक्ति छंद भेद। अश्विनौ विद्या एवं प्रशस्य कर्म से (द्याम् परि इयानम्) आकाश को सब ओर से जाते हुए रथ (विमान) को स्वीकार करें। अगले सूक्त १।१८१।१७-८९ के अगस्त्य ऋषि अश्विनौ देवते, त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। पूरा सूक्त वाम् क्रिया से संबंधित है यहाँ पूरे सूक्त में वाम कर्म द्वारा अश्विनौ-विज्ञान को सिद्ध किया है। ऐश्वर्य के लिए मन के समान वेगवाले यानों का होना दिखाया है। १।१८२।८ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता हैं, स्वराट् पंक्ति छन्द हैं। अश्विनौ विज्ञान से यंत्रों में बल (शक्ति) को किस प्रकार बढ़ाया जाता है इसके विषय में कहा गया है। ऋ. १।१८३।३, ४ के अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवते त्रिष्टुप छन्द भेद हैं। यहाँ सर्वाग सुन्दर रथ (विमान) विद्या को दर्शाया है और ऐसा विमान बनाने का वर्णन है जिसे कोई चोर, ठग अपहरण न कर सके।

अर्थात् अपहरणकत्र्ता का जिसमें प्रवेश ही न होने पाये। ऋ. १।१८४।१; ३; ४; ५; ६; अगस्त्य ऋषि, अश्विनौ देवता। पंक्ति और त्रिष्टुप छन्द भेद् द्वारा अश्विनौ विद्या का विधान है। वाम कर्म द्वाराशिल्प क्रियाओं के सिद्धान्त दिये हैं। अन्तरिक्ष में दिशाओं का ज्ञान करके विमान चालन की क्रिया को दर्शाया गया है। ऋ. १।१८५।४ के अगस्त्य ऋषि द्यावा पृथिव्यौदेवते निचृत् त्रिष्टुप छंद हैं। पृथ्वी से सूर्यादि प्रकाशित लोकों तक का विज्ञान प्रशस्य कर्मों द्वारा कैसे सिद्ध किया जा सकता है इसके लिए अगस्त्य ऋषि ने मंत्र में कहा है कि यानों को किस प्रकार संतापरहित करके सुख पूर्वक विचरण कर सकते हैं। और भी वाम् नामक प्रशस्य कर्म के चारों वेदों में अनेक स्थल उपलब्ध हैं।

वेद विद्या अनुसंधान, बारहद्वारी,

पसरट्टा हाथरस (अलीगढ़)-२०४१०१

आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥