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स्तुता मया वरदा वेदमाता-19

समानी प्रपा सहवोऽन्नभागः

घर में भोजन सब को आवश्यकता और स्वास्थ्य के अनुकूल मिलना चाहिए। घर में सौमनस्य का उपाय है भोजन में समानता। वास्तव में सुविधा व असुविधाओं को सयक् विभाजन तथा सयक् वितरण सुख-शान्ति का आधार है। साथ-साथ भोजन करने का बड़ा महत्त्व है, साथ-साथ भोजन करने से प्रसन्नता बढ़ती है, स्वास्थ्य का लाभ होता है। साथ भोजन करने से सबको समान भोजन मिलता है। जहाँ पर अकेले-अकेले भोजन किया जाता है, वहाँ शंका रहती है, स्वार्थ रहता है। परिवार में ही नहीं, समाज में भी सहभोज का आयोजन किया जाता है, इन आयोजनों को प्रीतिभोज भी कहते हैं। ये समाज में सहयोग और प्रेम बढ़ाने के साधन होते हैं।

घर में जो भी बनाया जाये, उसका कम है तो समान वितरण हो और पर्याप्त है तो यथेच्छ वितरण करना उचित होता है। भोजन में मनु महाराज ने खाने के क्रम में अतिथि, रोगी, बच्चे, गर्भिणी को प्रथम खिलाने का विधान किया गया है। भोजन का विधान करते हुए मनु ने गृहस्थ के लिये दो प्रकार से भोजन करने के लिये कहा है। गृहस्थ भुक्त शेष खा सकता है या हुत शेष खा सकता है। भुक्त शेष का अर्थ है- अतिथि को भोजन कराके भोजन करना तथा हुत शेष का अर्थ है यज्ञ में आहुती देने के पश्चात् गृहस्थ भोजन का अधिकारी होता है। भोजन की यह व्यवस्था बड़ी मनोवैज्ञानिक है। मनुष्य अकेला होता है तो भोजन व्यवस्थित नहीं कर पाता है। विशेष रूप से हम घरों में देखते हैं गृहणियाँ जब पति-बच्चे घर में होते हैं तो भोजन यथावत् बनाती हैं और यदि वे अकेली रह जाती हैं, तो वे भोजन बनाने में आलस्य करके जैसे-तैसे बनाकर खा लेती हैं। इसी कारण शास्त्र ने मनुष्य को उचित भोजन करने के लिये एक व्यवस्था बना दी, गृहस्थ हुत शेष खाये या भुक्त शेष खाये।

हुत शेष या भुक्त शेष खाने में जो रहस्य है, यदि वह समझ में आ जावे तो मनुष्य की कभी अतिथि को खिलाने में संकोच नहीं करेगा। किसी गृहस्थ के घर पर जब अतिथि आता है तो मनुष्य चाहे कितना भी निर्धन या गरीब क्यों न हो, वह यथाशक्ति यथा साव अतिथि को अच्छा भोजन कराना चाहता है, अतः अतिथि घर में आता है तो विशेष भोजन बनाया ही जाता है। इसी प्रकार मनुष्य मन्दिर के लिये कुछ बनाकर ले जाता है तब अच्छा बना कर ले जाना चाहता है। यज्ञ के लिए बनाना चाहता है तो अच्छा ही बनाया जाता है। इसी कारण हमारे ऋषियों ने हमारे लिये अपने लिये पकाने और अकेले अपने आप खाने का निषेध किया है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है जो केवल अपने लिये पकाता है और आप अकेले ही खाता है, वह पाप ही पकाता है और पाप ही खाता है। इसके विपरीत यज्ञ के लिये पकाता है और यज्ञ शेष खाता है, वह पुण्य ही पकाता है और पुण्य ही खाता है। हम हवन के लिये बनाते हैं, बनाते तो बहुत हैं, थोड़ा-सा देर यज्ञ में डालते हैं, शेष सबको वितरित करते हैं, प्रसाद के रूप में बांटते हैं। बनाया यज्ञ के निमित्त है, इसलिये इसे यज्ञ शेष कहते हैं। भगवान के निमित्त बनाते हैं, अतः बांटते समय उसे प्रसाद कहते हैं। मूल रूप से प्रसाद संस्कृत का शब्द है, इसका अर्थ प्रसन्नता है। प्रसन्नता से किया गया कार्य प्रसाद है।

हम समझते हैं अतिथि को भोजन कराने से हमारी हानि होती है। यज्ञ करने से व्यय होता है परन्तु व्यवहार यह बताता है कि इस नियम का पालन करने वाले सदा सुखी और प्रसन्न रहते हैं। जो इसको अन्यथा समझते हैं, उनको तो दुःख भोगना ही पड़ता है। मनुष्य विवशता में बाँटता नहीं है, उस समय उसकी वृत्ति समेटने की रहती है। जब मनुष्य प्रसन्न होता है तभी उदार भी होता है। इसीलिये आम भाषा में कहते हैं- खुले हाथों से बाँटना, अर्थात् खुले हाथों से वही बाँट सकता है जिसका दिल खुला हो, हृदय उदार हो। खिलाने के सुख का अनुभव करना दुनिया से भूख के दुःख को दूर करने का एक मात्र उपाय है और परिवार में साथ बैठकर खाना प्रसन्नता और सुख का आधार है।

वैदिक देवता पृथ्वी : मूर्तिपूजा की परिणति – देवर्षि कलानाथ शास्त्री

श्री कलानाथ शास्त्री एक भाषा शास्त्री, संस्कृत, हिन्दी भाषा के अधिकारी विद्वान्, इतिहास एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान् आप परोपकारी के पुराने पाठक हैं। शास्त्री जी कहते हैं- आर्यसमाजी मुझे पौराणिक समझते हैं तथा संगी-साथी पौराणिक समझते हैं कि परोपकारी पढ़ते शास्त्री जी आर्यसमाजी बन गये हैं।                  – सपादकीय

 

यह एक सुविदित तथ्य है कि भक्ति आन्दोलन के प्रभाव से पूर्व जिन वेदकालीन देवताओं की आराधना देश में की जाती थी, वे यथापि आज भी प्रत्येक धार्मिक कृत्य के अवसर पर पूजे जाते हैं जैसे- इन्द्र, वरुण, प्रजापति, अग्नि, सूर्य आदि, किन्तु भक्ति आन्दोलन ने जिन कृष्ण, राधा, राम, सीता आदि को जन-जन के हृदय में आसीन कर दिया, वे वेदकाल के देवता नहीं थे। अन्य कुछ ऐसे देवताओं की आराधना भी अत्यन्त लोकप्रिय हो गई जो वेदकाल में ज्ञात नहीं थे, जैसे हनुमान, भैरव आदि। कुछ ऐसे देवता भी हैं, जिनकी पूजा आज घर-घर में बड़ी अभिलाषाओं के साथ प्रत्येक व्यक्ति द्वारा की जाती है, विशेषकर दीवाली के अवसर पर, जो हैं तो वेदकालीन देवता, किन्तु उनकी वेदकालीन पहचान ने इतना रूप परिवर्तन कर लिया कि आज वह स्वरूप पूरी तरह अनजाना और अनचाहा हो गया। ये देवी हैं धन की अधिष्ठात्री लक्ष्मी, जिनकी पूजा का प्रमुख उत्सव दीपावली को माना जाता है। लक्ष्मी हैं तो वेदकालीन देवी, वे विष्णु की अर्धांगिनी हैं, नारायण की पत्नी हैं। लक्ष्मीनारायण की पूजा और लक्ष्मीनारायण के मन्दिर देशभर में सुविदित हैं, किन्तु वेदकालीन ऋषि जिसका अभिगम वैज्ञानिक था, उन्हें धन की देवी मात्र नहीं मानता था।

विष्णु विश्व के प्रतिपालक हैं। वे त्रिविक्रम हैं, विश्वरूप हैं। वेद उन्हें सूर्यमण्डल में देखकर प्रणत होता है। वे आकाश का रंग धारण किए हुए हैं, गगन-सदृश हैं, मेघवर्ण हैं। उनके तीन चरण हमारी समस्त काल यात्रा को, काल गणना को नाप लेते हैं। एक चरण से वे चौबीस घण्टे के रात-दिन बनाते हैं, दूसरे विक्रम से बारह महीनों का सवत्सर बनाते हैं, तीसरे विक्रम से युग मन्वन्तर और कल्प बनाते हैं। इस त्रैलोक्य पालक देवता (सूर्य, जो वेद के प्रमुख देव हैं) की सेविका है हमारी पृथ्वी, जो वेद काल की सबसे उपकारिणी देवी है। यही हमें जीवन दान देती है, लाखों वर्षों से हम इससे निकला जल पीकर जी रहे हैं, जो वर्ष में अनेक बार धान्यों की फसल देकर करोड़ों वर्षों से हमें जीवन दान दे रही है। यह ब्रह्माण्ड का सुन्दरतम ग्रह है। इससे बड़ी कौन-सी देवी हो सकती है? सबसे पहले और सबसे बढ़कर तो इसकी पूजा की जानी चाहिए। क्या हम इसे भूल गए हैं?

नहीं, वेद का ऋषि इसके लिए दीवाना था। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त के वे 63 मन्त्र, जो पृथ्वी की गरिमा का गान करते हैं, आज भी रोमांच पैदा कर देते हैं। इसकी पूजा तो हम आज भी करते हैं, पर किसी दूसरे रूप में। किस रूप में, इस प्रश्न का उत्तर सगुण भक्ति और मूर्तिपूजा की परपरा ही दे सकती है। हम देवनदी गंगा के ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकते, उसे देवी मानते हैं, पर मूर्तिपूजा की परपरा में हमारे हृदय तब तक सन्तुष्ट नहीं होते, जब हम उस जीती-जागती, बहती-खिलखिलाती नदी की मूर्ति मगर पर बैठी कलश लिए मानवाकृति के रूप में बनाकर उसकी आरती नहीं उतारते। यही हुआ है पृथ्वी के साथ। हम उसकी पूजा तो आज भी करते हैं, पर मूर्ति बनाकर। लक्ष्मी यही पृथ्वी है, मूर्ति के रूप में। इसके हाथ में कमल है, अभय है, चारों दिशाओं के गहरे बादल हाथी बनकर जलधारा के कलशों से इसे नहला रहे हैं। विष्णु सूर्य हैं, नारायण आकाश का रंग धारण किए लक्ष्मी के पति हैं, लक्ष्मी उनके चरण दबाती है। आज भी प्रातःकाल उठते समय हम विष्णु की पत्नी पृथ्वी से हाथ जोड़कर कहते हैं- ‘विष्णुपत्नि नमस्तुयं पादस्पर्शं क्षमस्व मे।’ यह पृथ्वी सूर्य के सुनहले प्रकाश में चमकती हुई हिरण्यवर्ण है, उसका रंग चमकदार पीला है, इसीलिए लक्ष्मी ‘कान्त्या कांचन संनिभा’ है। उसकी खानों में से सोना निकलता है- ‘यस्यां हिरण्यं विन्देयम्।’ वेद का ऋषि इसी सूर्य और भूदेवी के जोड़े का आराधक था। मूर्तिपूजा की परिकल्पना में वह हो गया लक्ष्मी और नारायण का जोड़ा। विज्ञान और तार्किक चिन्तन आराधना का लिबास पहनकर किस प्रकार ब्रह्माण्डीय तत्त्वों को देवता बना देता है, यह तथ्य क्या रोमांचकारी नहीं है?

बहुतों को शायद इस तथ्य को मानने में असुविधा हो कि लक्ष्मी अथवा श्री पूरी तरह हमारी माता पृथ्वी का मानवीकृत रूप है। उनके लिए केवल यह निवेदन ही पर्याप्त है कि वे वेद के उस सूक्त को देख लें, जिसका नाम श्रीसूक्त है, जिसे लक्ष्मी की आराधना का सर्वाधिक प्रभावी साधन माना जाता है और जिसके मन्त्र बोल-बोल कर पुरोहित लोग धन की कामना वाले यजमानों से खीर की सोलह आहुतियाँ दिलवाते हैं। इसके अर्थ की ओर सभवतः हम अधिक ध्यान नहीं दे पाते, किन्तु यदि इसका अर्थ समझना चाहें तो पृथ्वी की स्तुति माने बिना इसका अर्थ ही नहीं लगेगा। सारे मन्त्र पृथ्वी को स्पष्टतः अभिहित करते हैं। श्री और लक्ष्मी उसी के दो स्वरूप या दो अवस्थाएँ हैं, एक सूर्योन्मुख प्रकाशमान, दूसरी प्रकाशरहित। श्री सूक्त का सर्वाधिक प्रचलित मन्त्र बतलाता है कि वह शुद्ध गोबर से लिपी हुई है, गन्ध उसका गुण है, वह हर बार नई-नई फसलें पैदा कर सकती है, नित्य पुष्ट होकर समस्त प्राणियों का पोषण करती है-

‘गन्धशरां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तानिहोपह्वये श्रियम्।’ श्रीसूक्त ‘श्री’ को चन्द्रां, सूर्यां आदि तो कहता ही है, ‘‘आर्द्रां ज्वलन्तीं’’ आदि भी कहता है। वह गीली भी हो जाती है, गर्माी। उसके दो पुत्र बताए गए हैं- कर्दम, चिक्लीत। आनन्द, कर्दम चिक्लीत श्री सूक्त के ऋषि भी कहे जाते हैं। कर्दम है दलदल और चिक्लीत ‘नमी’ (मॉइस्चर)। ये ही पृथ्वी के उपजाऊ तत्त्व हैं। आनन्द है प्राणवायु। सूक्त में स्पष्ट कहा गया है कि आपकी वनस्पतियाँ और वृक्ष हमारे हितकारी हैं (तव वृक्षोऽध बिल्वः छठा मन्त्र)। ये सब पृथ्वी से सबन्धित हैं। लक्ष्मी की जो मूर्ति हमने परिकल्पित की है, उस पर इनकी संगति कैसे बैठेगी? प्रतीक अर्थ लेकर ही तो हम विष्णु (विश्व के स्वामी) और लक्ष्मी (हमारी मालकिन) की आराधना करते रहे हैं।

शास्त्रों ने विष्णु के आयुधों, वाहनों, अङ्गों आदि के जो विवरण दिये हैं, उनमें विज्ञान और आस्था दोनों का अद्भुत समन्वय स्पष्ट दिखलाई देता है। हम सदा बोलते हैं- ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ’, ये ही हैं ‘अहोरात्रे पार्श्वे’ जो विष्णु के आदित्य रूप के दो आयाम हैं, दोनों ओर हैं।  हमारी साधना पद्धति इसी दृष्टि से बुद्धि, तर्क, विज्ञान और ज्ञान तथा आस्था, विश्वास, अध्यात्म और भावना को भी आदर देती है। तभी तो यह सनातन परपरा सहस्रादियों से चली आ रही है, उसमें आचार का परिवर्तन होता रहता है, आधार का नहीं। युगानुरूप परिवर्तन को हमने काी नकारा नहीं, वह परिवर्तन ही तो हमारी सनातनता का रहस्य है। तभी तो अनेक वेदकालीन परपराएँ आज भी किसी-न-किसी रूप में हमारे जनजीवन में घुली मिली लगती हैं। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त की पृथ्वी या भूदेवी श्री सूक्त की श्री देवी बन गई, फिर यक्ष संस्कृति की कुबेर लक्ष्मी बनी, आज धनलक्ष्मी बनी हुई है, किन्तु आज भी गाँव-गाँव में दीपोत्सव के दिन लक्ष्मी पूजन में पृथ्वी से जुड़े हुए मिट्टी के बर्तनों (हटडी, कुल्हड़ आदि) में फसलों से उपजे धान्य (खील, लाई आदि) ही रखे जाते हैं। लक्ष्मी के ये सारे रूप हमारे पूज्य हैं। वह धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, सौभाग्यलक्ष्मी, सौन्दर्यलक्ष्मी आदि न जाने कितने रूपों में देश में पूजी जाती है। आजाी तिरुपति के वेंकेटेश्वर मन्दिर में श्रीपति के साथ भूदेवी देखी जा सकती है। यह क्रम न जाने कितनी सदियों से चल रहा है कि नये प्रयोग उभरते हैं, कुछ रूढ़ियाँ जन्म लेती हैं, कुछ युग के तकाजे में दबकर समाप्त हो जाती हैं, किन्तु परपरा सनातन रहती है, वह रूपान्तरित भले हो जाए, समाप्त नहीं होती। यही भारत की भारतीयता है।

– सी/8, पृथ्वीराज रोड, सी स्कीम, जयपुर-302001 (राज)

परोपकारिणी सभा का शोध कार्यःराजेन्द्र जिज्ञासु

– डॉ. वेदपाल जी सरीखे वेदज्ञ तथा कई अन्य विद्वान् हाथ पर हाथ धरे तो बैठे नहीं रहते। पूरा वर्ष शोध व धर्म प्रचार करते रहते हैं। सभा के इस सेवक की दिनचर्या ढाई तीन बजे प्रातः आरभ हो जाती है। शोध व लेखन कार्य छह और सात बजे के बीच आरा हो जाता है। सागर पार के देशों से महर्षि के जीवन सबन्धी पर्याप्त नई सामग्री पर परोपकारिणी सभा के लिए अपना नयी अनूठी परियोजना से कुछ लिखने की तैयारी करके बैठा ही था कि परमात्मा की कृपा वृष्टि से और नये-नये दस्तावेज पहुँच गये हैं। आर्य जगत् को क्या-क्या बातऊँ? क्या-क्या मिला है? यह तो आर्य जन नये ग्रन्थ में ही पढ़ेंगे।

अभी तो इतना ही बता सकता हूँ कि विदेशियों व विधर्मियों द्वारा महर्षि के व्यक्तित्व व उपलधियों पर प्राण वीर पं. लेाराम के पश्चात् प्रचुर सामग्री फिर हमारे हाथ ही लगी है। आर्य समाज की स्थापना सेाी पूर्व सन् 1870 में इंगलैण्ड के एक पत्र में यह छपा मिला है कि यह वेदज्ञ काशी में डंका बजा रहा है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। इसका सामना करने का किसी को साहस नहीं है। भारत में एक विदेशी बिशप के पत्र से पता चलता है कि स्वामी दयानन्द के प्रादुर्भाव से उसकी सभाओं में भीड़ घट गई है। स्वामी दयानन्द सबके  लिए आकर्षण का केन्द्र है।

जब सक्रिय समाजों की संख्या  मात्र 22-24 थी तब महर्षि रेवाड़ी पधारे। न जाने रेवाड़ी क्षेत्र यादवों में क्या चेतना का संचार हुआ कि सागर पार के देशों में ऋषि के मिशन व वैचारिक क्रान्ति पर लबे-लबे लेख छपने लगे। अदूरदर्शी हिन्दू समाज तो ऋषि मूल्याकंन न कर पाया। गोरी जातियों ने ताड़ लिया कि पाषाण पूजा के इस सबसे बड़े शत्रु, एकेश्वरवाद के महान् सन्देशवाहक स्वामी दयानन्द का यह मिशन सरकार के संरक्षण व सहयोग के बिना ही फूलेगा फलेगा। बंगाल, मद्रास के पश्चात् चर्च की, साम्राज्यवािदयों की गिद्ध की दृष्टि छत्रपति शिवाजी के प्रदेश पर के न्द्रित थी। दस्तावेज जो अभी-अभी हाथ लगे हैं, उनसे पता चलता है कि श्री महाराज के मुबई पहुँचते ही गोरों को प्रार्थना समाज व ब्राह्य समाज की चिन्ता सताने लगी। कारण? वे खुलकर यह स्वीकर करते थे कि ऋषि से पहले की ये संस्थायें व संगठन ईसाइयत की और पश्चिम की पैदावार (देन) हैं परन्तु, स्वामी दयानन्द न तो अंग्रेजी जाने और न कभी अमरीका और लंदन की यात्रा की। कोई विदेशी भाषा वह न जाने।

यह सुधारक विचारक तो वेदज्ञ है। वेद को ही स्वतः प्रमाण मानता है। यह विशुद्ध भारतीय हिन्दू आन्दोलन है। यह सार्वभौमिक धर्म को मानने वाला प्रखर राष्ट्रवादी निर्भीक, निर्भीड़ सत्यवक्ता है। अमरीका के ………….में सन् 1868 में मेरे ऋषि का भव्य फोटो छपा। यह आर्य समाज का शैशव काल था। तब तक किसी भारतीय सुधारक, विचारक का अमरीका में फोटो नहीं छपा था। ऋषि न तो शिकागो गया और न न्यूयार्क ही गया। अंगेजी वह जानता नहीं था।

जिस सामग्री (मत पंथों के बारे) में अस्सी वर्ष से हमारे पूर्वज खोज कर रहे थे, वह भी मेरे पास पहुँच गई है। इसमें हमारी क्या बड़ाई है यह तो पं. लेखराम, पं. गणपति शर्मा, स्वामी दर्शनानन्द, पं. रामचन्द्र देहलवी से लेकर पं. शान्तिप्रकाश तक की सतत साधना का प्रसाद है जो परोपकारिणी सभा आर्य जाति को परोसने वाली है।

गुजरात यात्रा में कई एक ने बड़ी श्रद्धा से मुझ पर दबाव बनाया कि ऋषि मेला तक इस ग्रन्थ का विमोचन हो जाना चाहिये। मैंने उत्तर में कहा कि मैं श्रद्धा से भरपूर हृदय से सोच विचार कर इस ग्रन्थ का सृजन करुँगा। दिन रात मेरे मस्तिष्क में यही ग्रन्थ अब घूमता है। हडबड़ी में, शीघ्रता से कुछ नहीं करुँगा। परोपकारिणी सभा इसके महत्त्व को समझती है। यदि ऋषि मेला तक इसका विमोचन न हो सका तो एक विशेष महोत्सव करके पं. लेखराम जी के 119 वें बलिदान पर्व पर इसका विमोचन करवाने की मैं आर्य जगत् से भिक्षा मागूँगा । लौकैषणा और वित्तैषणा से बहुत ऊपर उठकर जिस आर्यवीर ने अपने साथियों से मिलकेर इस सामग्री की खोज का ऐतिहासिक कार्य किया है उसका परिचय किसी अगले अंक में दिया जायेगा।

अंधविश्वास और महाविनाशःराजेन्द्र जिज्ञासु

अभी-अभी आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर अंधविश्वास की विनाश लीला का दुखद समाचार सुनकर कलेजा फटे जा रहा है । ऐसा कौनसा धर्म प्रेमी, जाति सेवक सहृदय व्यक्ति होगा जो प्रतिवर्ष अंधविश्वास की विनाश लीला से थोक के भाव हिन्दुओं की मौत पर रक्तरोदन न करता होगा? मीडिया इन मौतों के लिए उत्तरदायी कौन? इस प्रश्न का उत्तर पाने का कर्मकाण्ड करने में जुट जाता है। परोपकारी प्रत्येक ऐसी दुर्घटना पर अश्रुपात करते हुए हिन्दू जाति को अधंविश्वासों व भेड़चाल से सावधान करता चला आ रहा है। सस्ती मुक्ति पाने की होड़ में ये दुर्घटनायें होती हैं। अष्टांग योग का, श्रेष्ठाचरण का, स्वाध्याय, सत्संग, सत्कर्म, मन की शुद्धता का मार्ग अति कठिन है। नदी, पेड, जड़, स्थल व मुर्दों की पूजा यह पगडण्डी बड़ी सरल है। आर्य समाज की न सुनने से सस्ती मुक्ति तो मिलने से रही परन्तु, क्या हिन्दू जाति के शुभ चिन्तक सोचेंगे कि इससे हिन्दुओं के लिए मौत तो बहुत सस्ती हो गई।

जाति के लिए रो-रो कर हमारे नयनों में तो अब नीर भी नहीं रहे। अदूरदर्शी हिन्दू संस्थायें ऐसी सब यात्राओं के लिये लंगर लगवा कर इन्हें प्रोत्साहन देती हैं। कॉवड़िये दुर्घटना ग्रस्त होते हैं। अमरनाथ यात्री मरते हैं, कृपालु महाराज के भक्त मौत का ग्रास बने। हिन्दू नेताओं ने इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कभी कुछ सोचा? योग का शोर मचाने वालों ने कभी सोचा कि नदियों में डुबकी लगाने व पर्वत यात्रा का योग विद्या से दूर-दूर का भी सबन्ध नहीं। वेद, उपनिषद्, दर्शन साहित्य तथा गायत्री मन्त्र, प्रणव जप का इन यात्रियों को सन्देश, उपदेश तो कभी दिया नहीं जाता। बस भीड़ देखकर सब हिन्दू संस्थायें गद्गद् हो जाती है। आर्य समाज की तो सुनने से पूर्वाग्रह ग्रस्त तथा कथित नेता व गुरु कतराते हैं। ये लोग श्री कबीरजी, सन्त तुकाराम व गुरु गोविन्दसिंह की ही सुन लें तो बार-बार रोना न पड़े।

 

आत्मा का स्वाााविक गुण-एक नई खोजः- गुजरात यात्रा से लौटते ही फरीदाबाद के एक सज्जन ने प्रश्न पूछ लिया कि क्या धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है? इस प्रश्न को सुनकर मैं चौंक पड़ा। अपने को आर्य बताने वाला व्यक्ति यह क्या कह रहा है। प्रश्न क्या मेरे लिए तो यह बिजली का झटका सा था। उसी ने बताया कि यह कथन मेरा नहीं। किसी और ने ऐसा लिखा है। मैं तो इस पर आपका विचार जानना चाहता हूँ।

मैंने निवेदन किया कि मेरा विचार तो वही है जो वेद मन्त्रों में मिलता है। जो ऋषि मुनि कहते हैं, मैं वही मानता हूँ। उक्त कथन तो वैसा ही लगता है जैसे उफान में आई नदी किनारे तोड़कर बाढ का दृश्य उपस्थित कर दे। उसे कहा, अरे भाई यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो परमात्मा को वेद ज्ञान देने की क्या आवश्यकता थी? फिर गायत्री मन्त्र तथा शिव सङ्कल्प मन्त्रों, प्रार्थना मन्त्रों का प्रयोजन व महत्व ही समाप्त हो जाता है।

सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका तो पढ़िये। ऋषि एक सूक्ष्म सत्य का प्रकाश करते हैं, ‘‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि हठ दुराग्रह और अविद्या दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’’

ऋषि के इन मार्मिक शब्दों  को सुनकर प्रश्नकर्त्ता भाई तृप्त हो गया। इस विषय में और कु छ लिखने की आवश्यकता ही नहीं।

अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह: – चन्दराम आर्य

पिछले अंक का शेष भाग……

बरकत अली को उसकी नीचता का उचित दण्डः- बुवाना लाखू के पटवारी बरकत अली और गिरदावर को उनकी इस नीचता का दण्ड देने के लिए आपने अपने छोटे भाई चौधरी रिछुराम को अपने पास बुलाया और अपना सारा हिसाब किताब उनको समझा दिया। आप उन दोनों नराधमों को संसार से मिटाने के लिए उद्यत हो गये। उसी समय एक पत्रवाहक एक पत्र लेकर आपके सामने उपस्थित हुआ वह पत्र उसने आपको दिया। आपने उसे पढ़ा। वह एक आर्य समाजी जिलेदार का था, जिसमें उसने लिखा था आप अत्यावश्यक कार्य छोड़  कर मुझ से मिलें। वे तुरन्त उनसे मिलने चले गये। दोनों की परस्पर आवश्यक बातें हुई। बातों-बातों में आपने दोनों यवनों को मारने का अपना निश्चय भी बतलाया। जिलेदार ने पटवारी फूल सिंह को समझाते हुए कहा- पटवारी जी, शत्रु से प्रतिकार लेने का यह उत्तम उपाय नहीं है। आप एकदम पटवार का अवकाश स्थगित करा लीजिए। कागजात सभाल कर बरकत अली से ले लीजिए वह कहीं न कहीं गलती में अवश्य फंसा मिलेगा उस चोट से उस पर प्रहार कीजिये जिस चोट को वह जीवन भर स्मरण रखे। ऐसा करने पर आपको एक पत्र मिल गया जिसमें अदुल हक गिरदावर ने लिखा था कि पटवारी जी मुझे गाँव वालों से गाय दिलाओ, रूपये दिलाओ इत्यादि। उचित समय पाकर आपने उन पर मुकदमा दायर कर दिया और अपने पक्ष के सही कागजात अदालत में उपस्थित कर दिये। इसका परिणाम वही हुआ जो आप चाहते थे। अपराधी सिद्ध होने पर दोनों ही अपने-अपने पदों से नीचे गिरा दिये गये। अपने किये का फल पाकर वे दोनो बड़े लज्जित हुए।

महर्षि दयानन्द की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए पटवार से त्याग पत्रः- समाज सेवा व दुःखियों के दुःख दूर करना आपके जीवन का लक्ष्य हो गया था। सेवा करने में अब आपको पटवार की नौकरी भी रुकावट दिखाई देने लगी आपने अपने परिजनों से सर्विस छोड़ने का विचार बताया। सभी ने आपको समझाया की नौकरी बड़ी मुश्किल से मिलती है। आय का अन्य स्रोत भी नहीं है। परन्तु धुन के धनी ने किसी की बात न मानते हुए पटवार से त्याग पत्र दे ही दिया। आपके द्वारा 1918 में प्रेषित त्याग पत्र जब आपके महकमे के उच्च अधिकारियों के पास पहुँचा तो इस त्याग-पत्र से बहुत दुःखी हुए। उन्होंने आपका त्यागपत्र आपको वापिस भेज दिया। आपने पुनः उनके प्रेम के लिए धन्यवाद करते हुए अपने जीवन के लौकिक सुख के मार्ग को छोड़कर पारलौकिक मार्ग को अपनाने की इच्छा व्यक्त की। आध्यात्मिक जगत में ही मेरी प्रीति हो चली है। अतः आप मेरे त्यागपत्र को स्वीकार कर मुझे पटवार की सेवा से मुक्त करने का कष्ट करें। मुयाधिकारियों ने अनिच्छा होते हुए भी आपकी महान कार्य करनेकी अभिलाषा जानकर आपका त्याग-पत्र स्वीकार किया।

स्नेही भाई कूड़े राम का महाप्रयाणः- इन्हीं दिनों आपके बड़े भाई कूड़ेराम जी अस्वस्थ चल रहे थे। आप त्यागपत्र देकर अपने पैतृक गांव माहरा आ गये । बड़े भाई को रुग्न देखकर आप बहुत चिन्तित हुए आपने उनकी चिकित्सा कराने का पूरा प्रयत्न किया। अपना अन्तिम समय आया जानकर आपको अपने पास बुलाकर ये शब्द कहे- ‘‘भाई मेरा तो अब अन्तिम समय आ गया है। आप जैसे भाई के साथ अब मैं रह न सकूंगा। यदि मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे आप क्षमा कर देना। आपके जीवन का उद्देश्य महान है। मेरी प्रभु से बार-बार यही प्रार्थना है कि वह तुहारे जीवन के लक्ष्य को पूर्ण करे।’’ ये शब्द कहकर उन्होंने सदा के लिए आँख बन्दकर ली। आप भाई के असह्य वियोग को सहकर धैर्य धारण करके जीवन-मरण की गति को निश्चित मानकर सेवा के लिए उद्यत होकर आगे बढ़े।

गुरुकुल की स्थापनाः- पटवार के कार्य से मुक्त होकर सेवाव्रती बनकर विचारने लगे कि बालकों को युवाओं को धार्मिक ग्रन्थ पढ़ाये जायें जिससे उनको अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का बोध हो। इस सारे कार्य क ो पूर्ण कने के लिए ‘‘आर्य युवक विद्यालय’’ खोला जावे। इस महान उद्देश्य को पूर्ण करने केलिए अपने गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द जी के सामने अपने विचार रखे। स्वामी जी ने उनको समझाते हुए कहा, ‘‘कि आप गुरुकुल खोलिये और उसमें छोटे छोटे बालकों को प्रवेश दीजिए। छोटे बालक जब उत्तम शिक्षा से शिक्षित होकर संसार में काम करेंगे, वे अधिक सफल हो सकेंगे। छोटे बच्चों में ही उत्तम संस्कार डाले जा सकते हैं। उन्हें आप जैसा बनाना चाहेंगे वैसा बना भी सकेंगे। आप भी गुरुकुल कांगड़ी की तरह हरियाणा में आदर्श गुरुकुल खोलिये। इसी से आर्य जाति का कल्याण होगा। स्वामी जी के विचारों का भक्त जी पर बड़ा प्रभाव पड़ा। अब गुरुकुल खोलने के लिए उचित स्थान ढूढ़ने लगे। इस तरह घूमते-घूमते तीन वर्ष व्यतीत हो गये। इसी प्रकार घूमते हुए वे जिला रोहतक के ग्राम आवंली पहुँचे। आँवली ग्राम के प्रसिद्ध पंचायती आर्य पुरुष श्री गणेशी राम जी अपने भतीजे बलदेव का दसूटन धूम-धाम से कर रहे थे आप भी उस स्थान पर अन्य प्रतिष्ठित पुरुषों के साथ पहुँचे। आपने  देखा जिस स्थान पर लोग बैठे हैं वह स्थान बहुत मैला (गन्दा) है। आपने पास पड़ी झाडू उठाई और सफाई करने लगे। उसी समय श्री गणेशी राम की द़ृष्टि लबी काली दाढ़ी वाले उस तेजस्वी व्यक्ति पर पड़ी जो झाडू से सफाई कर रहा था। उन्होंने आप से झाडू लेकर स्वयं स्थान को साफ किया। तदन्तर उस तेजस्वी व्यक्ति से सभी ने पूछा आप कहाँ से आये हो? आपके आने का उद्देश्य क्या है? उन सबकी बातों को सुनकर आपने कहा- ‘‘भाइयों मैं हरियाणा की सेवा के लिये तथा बालकों को आर्य बनाने के लिए सकंल्प क रके घर से निकला हूँ। मैं तीन वर्ष से गुरुकुल खोलने के लिए उत्तम स्थान प्राप्त करने की इच्छा से सर्वत्र घूम रहा हूँ।’’

दसूटन की समाप्ति पर उपस्थित आर्यजन भैंसवाल ग्राम में आये। सब ग्राम वासियों को इकट्ठा कर आपने बड़े मार्मिक शब्दों  में अपनी भावना प्रकट की। आपने कहा कि मैंने आपके गांव का जंगल देखा है, वह गाँव से दूर है, रमणीक है, उस स्थान पर यदि गुरुकुल खुल जाये तो बड़ा भारी कल्याण हो सकता है। इस काम के लिए सब भाई मिलकर गुरुकुल केलिए भूमि दान करें। गा्रम के प्रायः सभी लोगों ने आपकी प्रार्थना स्वीकार की। परन्तु जो जन उस जंगल की भूमि का उपयोग कर रहे थे, वे उस भूमि को देने में आना-कानी करने लगे। उन विरोधियों को सहमत करने के लिए आप जेठ मास की कठोर गर्मी की धूप में अनशन पर बैठ गये। धूप तथा भूख से आप मरणासन्न हो गये।

जब ग्राम वासियों ने देखा कि यह साधु प्राण त्याग देगा पर कठोर साधना नहीं छोड़ेगा। तब वे विरोध करने वाले भाई हाथ जोड़कर आपके सामने उपस्थित हुए और बोले – ‘‘भक्त जी छाया में बैठो, भोजन करो। अब हम भूमि के साथ आपक ो गुरुकुल के लिए रूपये भी देगें।’’ भक्त जी ने प्रेम भरे शब्द सुने। अपना कठोर अनशन व्रत तोड़ा। सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। गांव वालों ने 150 बीघा भूमि गुरुकुल खोलने क ो दी। सन् 1919 को गुरुकुल की आधार – शिला अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द जी से रखवाने का निश्चय किया। निश्चित तिथि को स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज देहली से सोनीपत के रेलवे स्टेशन पहुँच गये।  जब स्वामी जी रेलगाड़ी से नीचे उतरे तो आर्य बन्धुओं ने वैदिक धर्म की जय महर्षि दयानन्द की जय, स्वामी श्रद्धानन्द की जय के जयघोषों से आकाश गुंजायमान कर दिया।

सोनीपत से भैंसवाल तक का मार्ग 12 कोस का है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिए रथ की व्यवस्था आर्य जनों ने की परन्तु स्वामी जी रथ में एक बार बैठकर पैदल हीअपने प्रेमियों के साथ चल पड़े। गैरिक वस्त्रधारी विशालकाय स्वामी श्रद्धानन्द जनसमूह के साथचलते हुए देदीप्यमान दिखाई दे रहे थे। गुरुकुल भैंसवाल की भूमि पर पहुँचकर आधार शिला रखने के उपरान्त आर्यजनों को सबोधित करते हुए कहा हरियाणा की भूमि आर्य भूमि कहलाने की अधिकारिणी है। यहाँ के मनुष्य माँस-मदिरा आदि दुर्गुणों से सर्वथा दूर हैं। यहाँ का भोजन दूध, दही और घी पर आश्रित है। मैंने जो उत्साह यहाँ की आर्य जनता में देखा है, वैसा उत्साह दूसरे स्थानों में कम मिलता है। मैं आशा करता हूँ कि यह कुल-भूमि हरयाणा के आर्यों का नेतृत्व करेगी।

गुरुकुल का प्रथम महोत्सवः- सन् 1920 में ज्येष्ठ मास के गुरुकुल भैंसवाल का प्रथम वार्षिक उत्सव धूम-धाम से सपन्न हुआ । इस उत्सव में उत्तम विद्वान्, सन्यासी, भजनोपदेशक समिलित हुए थे। उत्सव में कई हजार नर-नारियों की उपस्थिति रही। जनता में अपार हर्ष था। इस अवसर पर भक्त फूल सिंह के महान् कार्य की प्रशंसाा करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने जनता से धन की अपील की। इस अपील से प्राावित होकर आर्य जनता ने बीस हजार रूपये की विशाल धन राशि प्रदान की। इससे गुरुकुल केावनों का निर्माण हुआ। इसी अवसर पर गुरुकुल में पचास छोटे-छोटे बालकों को प्रवेश दिया गया, जिनका वेदारभ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कराया। उनकी ओर से सब विधि स्वामी ब्रह्मानन्द जी कर रहे थे।

गुरुकुल भूमि के इन्तकाल के लिए घोर तपस्याः- गुरुकुल तो चालू हो गया था। परन्तु उसकी भूमि का इन्तकाल अभी तक नहीं चढ़ पाया था। इससे आप बहुत बेचैन रहते थे। जिन लोगों की वह भूमि थी उन में से कुछ व्यक्ति इन्तकाल चढ़ाने में बाधा उपस्थित कर रहे थे। आपने घोषणा की या तो मेरे भाई गुरुकुल के नाम भूमि का इन्तकाल करा देंगे नहीं तो ज्येष्ठ मास की इस कड़कडाती धूप में अन्न जल का सर्वथा त्याग कर अपने प्राणों को त्याग दूंगा। यह कहकर उस भंयकर धूप में गाँव के बाहर बैठ गये। उस भीषण गर्मी में अन्न तथा जल के स्वीकार न करने से आप मूर्च्छित होकर गिर पड़े। लबे-लबे श्वास चलने लगे, शरीर पसीने से तर-बतर हो गया, नाड़ी की गति मन्द पड़ गई। ऐसा प्रतीत होने लगा कि आप कुछ काल के ही मेहमान हैं।

जब गाँव के अग्रणी लोगों ने भक्त जी की यह अवस्था देखी तो विरोध करने वाले व्यक्तियों को समझाया और वे भी भक्त जी को मूर्च्छित अवस्था में देखकर अश्रु बहाते हुए आपसे बोले भक्त जी हमसे बड़ा पाप हुआ, आप हमें माफ करें, छाया में बैठिये। भोजन तथा जल पीकर स्वस्थ होकर हमें पाप से बचाइये। आप जो कहोगे हम वहीं करेंगे। आप ने उन्हें छाती से लगाया इस प्रकार भूमिका इन्तकाल भी चढ़ गया और साथ में भाईयों का प्रेम भी प्राप्त कर लिया।

पटवार काल में ली हुई रिश्वत का लौटानाः- प्रजा की सेवा करते-करते आपका मन निर्मल हो गया। पटवार काल में आपने जो रिश्वत ली थी वो सारी की सारी अक्षरों में अंकित थी। जब कभी आप इन रिश्वत के लिए हुए रूपयों को देखते तो आपको बहुत मानसिक कष्ट होता। अन्त में आपने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो यह ली हुई रिश्वत वापिस करनी है। यह संया में पाँच हजार थी। आपने बहुत सोच विचार कर निर्णय किया कि अपने हिस्से की जो जमीन पैतृक गाँव माहरा में है, उसको बेचकर रिश्वत वापिस की जावे। आपने अपने मन की यह इच्छा अपने छोटे भाई चौधरी रिच्छुराम व अन्य हितैषियों को बताई। आपके भाई ने कहा, ‘‘मैं आपके धार्मिक विचारों को बदलना नहीं चाहता हूँ। आप रिश्वत में लिया हुआ रूपया अवश्य वापिस करें परन्तु मेरा आपसे निवेदन है कि भूमि को बेचे नहीं, गिरवी रख दें और रूपये प्राप्त कर लें। जब कभी मेरे पास रूपयों का प्रबन्ध होगा तब मैं उस भूमि को छुड़ा लूंगा। आपकी इच्छा भी पूरी हो जायेगी और पैतृक जायदाद भी रह जायेगी। अपने भाई की बात मानकर आपने ग्राम माहरा की पंचायत बुलाई और उनसे कहा, ‘‘भाईयों कोई गांव वाला मेरे नाम की भूमि पांच हजार रूपये में गिरवी रख ले जिस रूपये को लेकर मैं ली हुई रिश्वत को वापिस करना चाहता हूँ। गाँव का कोई भी व्यक्ति उक्त राशि देने को तैयार नहीं हुआ। तब सबको चुप देखकर खानपुर गाँव के प्रसिद्ध पंचायती श्री जयराम जी ने हाथ उठा कर ‘‘कहा माहरा गाँव के भाईयों, सुनो अगर कोई बाहर का व्यक्ति जमीन लेगा तो गांव की निन्दा होगी और कहेंगे सारा गाँव कंगाल है।’’ जयराम जी की बात सुनकर गाँव के धनी-मानी प्रतिष्ठित चौ. सुण्डूराम जी ने पाँच हजार रूपये देकर वह भूमि ले ली। उसे रूपये से आपने जिस-जिस से रिश्वत ली थी वह सब वापिस कर दी। संसार के इतिहास में यह एक अद्भूत घटना है। वाह रे, भक्त जी आपने वो काम किया जो संसार में कोई नहीं कर सका।

वृद्ध चमार को अपने सिर पर जूता मारने को कहनाः- मानव जीवन में समय-समय पर सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी वृत्तियों का उदय होता है। सतोगुणी वृत्ति से कल्याण होता है रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तियाँ पाप का कारण बन जाती हैं। जिन दिनों आप पटवारी थे और युवा थे तथा नशे में आकर एक चमार के सिर पर आपने जूते मारे थे, जिसकी याद आपको सदा बनी रहती थी।

वानप्रस्थाश्रम में दीक्षित होकर गुरुकुल के काम से उसी गाँव में आपको आना हुआ। आप तेजी से चमार के घर की ओर बढ़े। अचानक आपकी नजर उस वृद्ध चमार पर पड़ी तो आप आगे बढ़कर उसके पांवों में लिपट कर पिता जी, पिताजी, आप मेरे पाप के अपराध को क्षमा करो। मैं बड़ा पापी हूँ। अपना जूता निकालकर उनके  हाथ में देते हुए कहा आप मेरे सिर पर मारकर मेरे सिर पर टिके हुए पाप के भार को उतार दो। वह चमार इस प्रकार रोते हुए देख कर घबराते हुए अपने पैर छुड़ाते हुए बोला, आप इतने बड़े साधु मुझ नाचीज के पाँव पकड़े हुए हो, मुझे इससे पाप चढ़ता है। तब आपने अपने पटवार काल की सारी घटना कह सुनाई। उस चमार ने यह सुनने के बाद कहा ‘‘उस समय आपने नहीं पटवार काल ने जूते मरवाये थे। अब आप महात्मा हैं। वह चमार आपसे लिपट कर बहुत समय तक रोता हुआ आपको भी रुलाता रहा। मन ही मन आपकी प्रशंसा करने के उपरान्त बोला आप तो ऋषि हैं देवता हैं जो अपने किये हुए पाप से दुःखी हैं। मैं प्रभु से बार-बार यही प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको सफल करे। जिससे आप मुझ जैसे अनेक दुःखियों का दुःख दूर कर सकें।’’

एक लाख रूपये का संग्रह करने का व्रतः- आचार्य युधिष्ठिर जी के गुरुकुल में आ जाने से गुरुकुल की पठन-पाठन की व्यवस्था सुचारु रूप से चलने लगी। आप गुरुकुल की आर्थिक स्थिति को सुधारने की सोचने लगे। उन्हीं दिनों आपके परम हितैषी गुमाना निवासी श्री थानसिंह जी आपसे मिलने गुरुकुल में पधारे। बातों-बातों में आपने उनसे कहा भाई- लोगों के  संस्कार बिगड़ गये हैं जब तक संस्कार ठीक नहीं होगे देश का कल्याण नहीं होगा। श्री थान सिंह जी ने अपने पोते का ‘‘मुण्डन संस्कार’’ गुरुकुल के अध्यापकों से करवाने की इच्छा व्यक्त की। आपने प्रसन्नता से इसकी स्वीकृति दी। गुरुकुल केआचार्य युधिष्ठिर जी के साथ आप गुमाना गाँव पहुँचे। वहाँ पर विधि पूर्वक मुण्डन संस्कार सपन्न हुआ। उत्तम प्रवचन तथा भजनोपदेश से प्रभावित होकर श्री थान सिंह जी ने एक हजार रूपये का विपुल दान गुरुकुल को दिया। अपने इस अवसर पर श्री थानसिंह जी को धन्यवाद एवं पोते को अपना शुभाशीर्वाद प्रदान किया।

श्री थानसिंह जी द्वारा एक सहस्त्र रूपये प्राप्त करने के उपरान्त आपने गुरुकुल के भली प्रकार संचालन हेतु एक लाख रूपये एकत्रित करने का दृढ़ संकल्प किया। साथ में यह भी प्रतिज्ञा की कि जब तक उक्त रूपया इकट्टा नहीं करुंगा । तब तक दिन भर खड़ा रहूंगा, सायंकाल पाव भर जौ के आटे की ही रोटियाँ खाऊँगा तथा गुरुकुल भूमि में भी प्रवेश नहीं करुंगा। उस समय हरियाणा में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। पशु चारे-पानी के अभाव में मर रहे थे, लोगों के पास खाने को कुछ भी नहीं था।फिर भी गांव वालों ने आपके इस प्रण को सामर्थ्यानुसार पूरा करने का प्रयास करके 55000 रूपये एकत्रित किये। शेष राशि 45000 रु. की रिवाड़े गाँव के व्यक्तियों ने मन्त्रणा करके 100 बीघा जमीन गुरुकुल को दान कर दी। इस प्रकार आपका यह कठोर व्रत लगभग 4 वर्ष में पूर्ण हुआ।

उपकार से विरोधी को अपनानाः- आवली गाँव के एक प्रतिष्ठित पुरुष नबरदार रतीराम जी किन्हीं लोगों के बहकावे में आकर आपको अपना शत्रु मान बैठे  परन्तु भक्त जी की तो शत्रु हो या मित्र सब पर समदृष्टि रहती थी। रात्रि में चोरों ने रतीराम जी का सहस्त्रों रूपये का धन निकाल लिया। आप इस घटना से अत्यन्त खिन्न हुए। आपने अपने सूत्रों के द्वारा चोरों का पता लगा लिया कि इस समय चोर जंगल में बैठकर धन का बंटवारा कर रहे हैं। आपने तुरन्त पुलिस को इसकी सूचना दी। पुलिस ने घटना स्थल पर पहुँचकर रंगे हाथों उन चोरों को पकड़ा और नबरदार को उसका सारा धन वापिस मिल गया। नबरदार को जब इस बात का पता चला तो वह आपके पास आया और आपके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। भक्त जी ने भी उनको उठाकर अपनी छाती से लगा लिया

गान्धरा में विशाल पंचायतः- गाँव वालों को अनेक निकृष्ट रिवाजों ने घेर लिया, उनसे छुडवाने के लिए आपने सन् 1925 में सब खापों की एक विशाल पंचायत बुलाई। जिसमें पंचायत का सारा व्यय का भार भी आपने आपने आप ही वहन किया। उसमें विवाह, मृत्युभोज आदि पर अनर्गल खर्च पर प्रतिबन्ध लगाया और पंचायत द्वारा निर्मित उत्तम रिवाजों का प्रचलन हुआ।

बीधल गाँव की परस्पर कलह के कारण रुकी हुई चौपाल का बनवानाः- बीधल गाँव की पार्टी बाजी के कारण चौपाल नहीं बनने दे रहे थे। चौपाल बनानेके इच्छुक व्यक्ति लड़ाई से बचना चाहते थे। कुछ व्यक्तियों ने गुरुकुल में जाकर अपनी कष्ट कथा सुनाई। उसको सुनकर आप उनसे बोले – ‘‘मैं कल समय पर आऊँगा, आप सब वहाँ उपस्थित रहना।’’ आपने ठीक समय पर जाकर उन भाईयों को बार-बार समझाने का प्रयास किया। परन्तु वे माने नहीं। अन्त में आपने कहा ‘‘अच्छा लो मैं नींव में घुसता हूँ और खोदना प्रारभ करता हूँ। तुम मुझे मार डालो या चौपाल बनने दो। यह कहकर वहाँ गर्दन झुका कर खड़े हो गये। विरोधी उस समय पिघल गये। सबने आपसे क्षमा मांगी और चौपाल बनाने की सहमति दी।’’

डबरपुर गाँव के नेकीराम और भरतसिंह का जमीन सबन्धी विवाद समाप्त कराना।

शेष भाग अगले अंक में……

 

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दासता के 66 वर्ष तिब्बत की दासता की व्यथा कथा निर्वासित सरकार के शब्दों में

तिब्बत परिचयःतिब्बत सामान्यतः ‘विश्व की छत’ के रूप में जाना जाता है। भारत के दो तिहाई आकार से अधिक यह पश्चिम से पूर्व तक 2,500 किलोमीटर तक फैला हुआ है। इस समय विश्व भर में लगभग 60 लाख तिबती हैं।

यह ऊँची बर्फ से ढ़की चोटियों से शुरु होकर पथरीली पहाड़ियों और जंगलों से घिरा है। एशिया की चार महानतम नदियाँ- ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, मीकांग और मछु- तिब्बत से निकलती हैं। भारी मात्रा में खनिज और अद्वितीय प्रकार के पौधे और जंगली जानवर यहाँ पाए जाते हैं।

सातवीं शतादी में यहाँ इसके पुरातन धर्म बौन के स्थान पर बौद्ध धर्म का प्रचलन आरभ हुआ। अब यह हमारी पहचान का अविभाज्य अंग बन चुका है। लगभग प्रत्येक परिवार के घर में बौद्ध देवताओं की प्रतिमाएँ हैं। कुछ तिबती अभी भी बौन धर्म को मानते हैं और कुछ मुस्लिम और ईसाई भी हैं।

अधिकतर तिबती लोग अपना जीवन-निर्वाह पशु-पालन और कृषि से करते थे। कुछ अन्य व्यापारी और कारीगर भी थे। सरकार, मठों धनाढ्यजनों के पास जो धरती थी, उन पर कृषक किराए पर खेती करते थे। कई तिबती लोगों के पास अपनी निजी कृषि योग्य भूमि भी थी।

सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं में नारी भी पुरुष के समान उत्तरदायित्वों का निर्वहन करती थी और कुछ महिलाएँ राजनीति में भी अपना प्रभाव रखती थीं। तिबतियों में एक प्राचीन कहावत है- ‘यदि वह देश में खुशहाली लाती है तो एक भिक्षुणी भी तिब्बत की शासक हो सकती है।’ यह कहावत हमारे पुरातन तिब्बत की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्वतन्त्रता की सामान्य भावना को चिह्नित करती है।

प्रबन्धकर्ता– शेवो लोसंग थारगे, तिब्बत में तिबती प्रशासन के पूर्वाधिकारी।

चीनी अधिकार से पहले तिबतःतिब्बत 2000 वर्षों से अधिक समय तक एक स्वतन्त्र देश रहा है। इसकी अपनी सरकार, नागरिक सेवाएँ, न्यायिक पद्धति, मुद्रा, सेना और पुलिस बल थे।

चीन के साथ हमारे सबन्धों को देखने के लिए बहुत पीछे जाना पड़ेगा। आठवीं शतादी में चीन की प्राचीन राजधानी ज़ियान पर तिबतियों का अधिकार था। कभी-कभी चीन का तिब्बत पर प्रभाव था और कभी-कभार दोनों ही विदेशी शासन के अधीन रहे। किसी भी प्रकार से कभी भी तिब्बत चीन का हिस्सा नहीं था।

उन्नीसवीं शतादी के अन्त से अंग्रेजों और रूसी साम्राज्यों ने तिब्बत पर अपना प्रभाव जमाना चाहा। 1904 में अंग्रेजों ने तिब्बत पर आक्रमण किया। परिणाम-स्वरूप एक शान्ति समझौते पर हस्ताक्षर किए गए जिसने वास्तव में तिब्बत को एक पूर्ण स्वतन्त्र देश के रूप में स्वीकृत किया।

हमारी सरकार, गंदेन फोड़ं, सर्वप्रथम 1642 में स्थापित हुई। राजा सोंगत्वेन गापों द्वारा स्थापित व्यवस्था के अनुकूल हमारी सरकार की कार्य-पद्धति थी। इसके पास लौकिक और धार्मिक- दोनों अधिकार थे, जिनके मुखिया तिब्बत के आध्यात्मिक और लौकिक नेता दलाई लामा थे। शिष्टजन और भिक्षु- दोनों ही शासन प्रबन्ध में अधिकारी थे।

13वें दलाई लामा ने हमारे देश और सरकार में सुधार लाने का प्रयत्न किया। उन्होंने एक तार सेवा और आधुनिक सो की स्थापना की तथा तिब्बत की प्रथम अंग्रेजी पाठशाला की स्थापना का समर्थन किया।

अपने जीवन काल में 13वें दलाई लामा ने सायवाद के प्रसार से हमारे देश को होने वाले खतरे से सावधन करने के लिए घोषणा पत्र जारी किया। 1950 में 14वें दलाई लामा मात्र 15 वर्ष के थे जब उनके पूर्ववर्ती दलाई लामा की चेावनी सत्य सिद्ध हो गयी।

प्रबन्धकर्ता– रिचेन डोल्मा ठरिंग, तिबती होस फाउंडेशन मसूरी के संस्थापक।

एक पैनी दृष्टि घर की ओरः1949 में चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया। आक्रमण के साथ-साथ ही ऐसी नीतियाँ और कार्य आरभ हो गए जिनका लक्ष्य था तिब्बत की पहचान तथा उसकी पारपरिक जीवन पद्धति को मिटा देना। इसी कजे के परिणामस्वरूप युद्ध, भुखमरी, फाँसी तथा श्रम शिविरों का शिकार हो कर 10 लाख से ऊपर तिबती मृत्यु का ग्रास बन गए। बहुमूल्य आध्यात्मिक तथा भौतिक वस्तुऐं लूट ली गई, जला दी गई, ध्वस्त कर दी गई और वे सदा-सदा के लिये लुप्त हो गईं। तिब्बत के वन काट दिये गए और उनकी पवित्र झीलें दूषित की गई। तिब्बत एक विशाल सैनिक आधार- शिविर तथा आणविक कचरे का ढेर बन गया।

चीनी प्रवासियों को तिब्बत में बसाने की नीति ने तिबतियों को अपने ही देश में अल्पसंयक बना दिया है। अब तो तिबती संस्कृति तथा उसकी पहचान को बचाए रखना भी खतरे में है।

जबर्दस्ती कब्जे  के भय ने अनेकों तिबतियों को अपनी जन्मभूमि छोड़ कर पलायन करने पर बाध्य किया। अधिकांश शरणार्थियों को इस भयावह पलायन में पैदल हिमालय की पर्वत शृंखलाओं से जाना पड़ा और कटु स्मृतियों के सिवाय वे कुछ भी साथ न ले जा पाए।

इन्हीं स्मृतियों पर आधारित है ‘एक पैनी दृष्टि घर की ओर’। निष्कासन में रह रहे तिबती समाज के प्रतिनिध इसके 11 संग्रहाध्यक्ष हैं। राष्ट्र गाथा से गुथीं उन्होंने अपनी व्यक्तिगत कथाओं का वर्णन किया है तथा अपनी स्मृतियों को दृश्य रूप दिया है।

यह प्रदर्शनी बिबों तथा गाथाओं का एक ताना-बाना है, जिसमें एक साथ समष्टि की स्मृति- चेतना, स्मरण तथा आशाएँ बुनी गई हैं। ये गाथाऐं आपको, हर आगन्तुक को ले जाती है एक यात्रा पर, जिसमें चित्रित हैं आक्रमण की क्रूर कालिमा, विध्वंस और दमन, यह तिब्बत के गौरवमय भूत पर रोशनी डालती है तथा भविष्य की आशाओं की अभिव्यक्ति करती है।

विश्व-व्यापी तिबती संस्थाओं तथा समाज और तिब्बत के मित्रों के सहयोग से केन्द्रीय तिबती, प्रशासन द्वारा इस संग्रहालय एवं प्रदर्शनी को मूर्तरूप देना सभव हुआ।

आक्रमणः1949 में नवस्थापित चीनी लोक गणराज्य का प्रथम कार्य तिब्बत की मुक्ति था। कुछ महिनों के बाद उन्होंने आक्रमण कर दिया।

7 अक्टूबर 1950 में 40,000के लगभग चीनी सैनिकों ने देरगे, रिवोछे और सिदा की ओरस से त्रिकोणीय आक्रमण किया। 6,000 सेाी कम सैनिकों की हमारी सेना पराजित हो गयी और आक्रमणकारी छादो की ओर बढ़ गए।

छदो में तत्काल बैठक बुलाई गयी और निर्णय लिया गया कि राज्यपाल न्गाबो को छादो से भाग जाना चाहिए। हमारी सेना के पास आत्मसमर्पण के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। नगर में अफरा-तफरी मच गई और दो दिन तक शस्त्र और बारुद की आतिशबाजी चलती रही।

उधर ल्हासा में छादो का पतन एक दुःस्वप्न की भांति था। भिक्षु सैनिकों और सेना अधिकारियों द्वारा चीनी आक्रमणकारियों को रोकना असफल होगया और तिबती सरकार आक्रमण को रोकने केलिए राजनैतिक वार्तालाप का रास्ता ढूंढती रही।

23 मई 1951 को बीजिंग में चीनी सरकार के साथ बातचीत के लिए गए हुए दल को 17 सूत्री अनुबंध पर हस्ताक्षर करने पड़े जिसमें तिब्बत की ‘शांतिपूर्ण मुक्ति’ तथा चीन में विलय की घोषणा की गई।

समस्ताम चीनी आक्रमणकारियों के लिए कूच का मैदान हो गया, वे जल्दी ही ल्हासा पहुँच गए।

प्रबन्धकर्ता– स्वर्गीय सोनम टाशी, तिबती सेना के अंग-रक्षक तथा सैन्य बल के पूर्व अधिकारी।

प्रतिरोधःचीन आधिपत्य के विरोध में आक्रमण के समय से खम और आदो में आरंभ हुआ विद्रोह 1956 तक पूर्वी तिब्बत में बड़े पैमाने के छापामार (गोरीला) युद्ध के रूप में विकसित हो गया। 1958 के प्रारभ में खम के प्रतिरोधी नेताओं ने ल्हासा में छु-शी-गंगडुक (चार नदी छह पहाड़) के नाम से गोरीला आन्दोलन का गठन किया।

16 जून 1958 को सर्वप्रथम द्रिगुथांग ल्होखा में संगठित तिबती विरोधी आन्दोलन तेन्सुंग दंगलंग मग्गर (तिब्बत के स्वयंसेवी स्वतन्त्रता सेनानी) का घ्वजारोहण हुआ। अंडुग गोपो टाशी इसके मुय सेनापति मनोनीत हुए। तिब्बत के सभी भागों से अनेक रंगरूट हमारे साथ समिलित हुए और शीघ्र ही हमारे 5,000 से अधिक सदस्य हो गए।

इसके बाद शीघ्र ही लड़ार्ई शुरु हो गयी। ञेमो में हमने सबसे बड़ी लड़ाई का सामना किया। हमारे एक हजार से कम सिपाहियों ने हमसे कहीं बड़ी चीनी सेना का सफलतापूर्वक सामना किया।

10 मार्च 1959 को ल्हासा में एक जनविद्रोह हुआ। जिसके फल-स्वरूप हजारों तिबती मारे गए। अब परम पावन दलाई लामा तिब्बत में बिल्कुल सुरक्षित नहीं थे और उन्होंने अपना देश छोड़ कर भाग जाने का निश्चय किया। हमने भारतीय सीमा तक सारे रास्ते उनके सुरक्षित निकलने के लिए पहरा दिया। यह मेरे लिए सबसे बड़ी उपलधि थी।

हमने चीनियों के साथ लगभग 103 लड़ाईयाँ लड़ीं। कुछ समय तक दक्षिणी और पूर्वी तिबती भागों पर नियंत्रण रखा पर साधनों और प्रशिक्षण के अभाव में अन्ततः हमें अपने से कहीं अधिक बड़ी चीनी फौज से परास्त होकर भागना पड़ा।

शीघ्र ही प्रतिरोधी गतिविधियाँ नेपाल में मुस्तांग से पुनः प्रारभ हुई और ये 1970 के दशक तक जारी रहीं।

प्रबन्धकर्ता– नटू नवांग- छु-शी-गंगडुक के पूर्व सदस्य और तेन्सुंग दंगलंग मग्गर के उप-सेनापति।

विनाशः- चीन के तिब्बत पर नियन्त्रण की कार्यवाही जो तिबती संस्कृति, धर्म और अन्ततः इसकी पहचान को मिटा देने वाली नीतियों को लक्ष्य करके की जा रही थी, ने बड़े पैमाने पर इसका भौतिक विनाश किया है।

तिब्बत संस्कृति और धर्म के योजना-बद्ध ध्वंस ने 6,000 से अधिक मठों और मन्दिरों का विनाश देखा। जो थोड़े बहुत आज बचे भी हैं, वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण के बजाय उनका उपयोग मात्र पर्यटकों को आकर्षित करने का केन्द्र बना है। मूल्यवान धर्मपुस्तकों और प्रतिमाओं को नष्ट किया गया है। सोना, चाँदी आदि से निर्मित प्रतिमाओं को पिघलाकर उपयोग में लाया गया है अथवा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बेच दिया गया है। चीनियों ने धर्मपुस्तकों का जूते के तलें के रूप में प्रयोग किया है।

कारावास तथा पूछताछ के दौरान जो तकलीफ और शारीरिक यंत्रणा तिबतियों ने भोगी, उसकी कल्पना भी मानव की बुद्धि से परे है। लगभग 1.2 लाख तिबती श्रम शिविरों में यंत्रणा और भूख के कारण चीनी निर्दयता के क्रू र उत्पीड़न के परिणाम-स्वरूप मृत्यु को प्राप्त हुए।

अब भी तिबतियों की आत्मा का क्रूरता से विनाश किया जा रहा है। हमारे घरों पर अनाधिकृत कजा, हमारे धर्म को मिटा देने की कोशिशें तथा तिबतियों के मध्य अविश्वास और परस्पर विरोध पैदा करने के प्रयत्न तिबतियों की सोच और जीवन के प्रति दृष्टिकोण को दीर्घ-कालीन नुकसान पहुँचाने का कारण बनी हैं।

चीनी सरकार द्वारा तिबती प्राकृतिक स्रोतों का दोहन, अत्यधिक वन-विनाश और अनियंत्रित शिकार ने तिब्बत के कोमल पर्यावरण को भारी नुकसान पहुँचाया। तिब्बत के कुछ भू-भाग को परमाणु परीक्षण और परमाणु कचरा दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। तिब्बत के पर्यावरण विनाश के प्रभाव मात्र तिब्बत के पठार पर ही नहीं अपितु चीन के साथ अन्य एशिया देशों में भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।

होरछड़ जिमे पूर्व-निदेशक, सांस्कृतिक और साहित्यिक शोधकेन्द्र नोरवूलिंका संस्थान।

पलायनः- 1959 से लगभग एक लाख तिबती पड़ोसी देशों में भाग गए। चीनी आक्रमण और कठिन परिस्थितियों के कारण अनेक रास्ते में ही काल के ग्रास बन गए। प्रतिवर्ष तिब्बत में उत्पीड़न और उपद्रव के कारण हजारों तिबती पलायन करते हैं।

1993 की शरद ऋतु में चीन का ‘पुनर्शिक्षण’ दल हमारे मठ में आया। मैंने उनके दलाई लामा को दोषी करार देने की आज्ञा को मानने से इन्कार किया और मुझे लगा कि मेरे पास यह स्थान छोड़ने के सिवा कोई रास्ता नहीं, मैंने भारत में आने का निश्चय किया।

कुछ सप्ताह बाद मैंने तीन अन्य तिबतियों के साथ अपनी यात्रा आरभ की। हम चीनी सैनिक बलों के मुठभेड़ से बचने के लिए ऊंचाई पर जा रहे थे। हमें भारी बर्फानी तूफान का सामना करना पड़ा, हम रास्ता भूल गए। हमारे कबल आन्धी ले गई और हिम-दंश से पीड़ित थे पर हमारे पास चलते रहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था।

तीन दिनों के पश्चात् हम सिक्किम में तिबती बंजारों के शिविर तक पहुँचे। हम बुरी तरह से थक चुके थे और हमारे शरीर में तुषार के दिए घावों में भयंकर पीड़ा हो रही थी। बंजारे हमें भारतीय सेना चौकी में उपचार के लिए ले गए। मुझे अपने स्वास्थ्य से अधिक इस बात की चिन्ता थी कि कहीं चीनियों को मेरी सूचना न मिल जाए।

हमें गंगटोक अस्पताल में भरती किया गया पर मेरी हालत में कोई सुधार नहीं आया। छः महीनों के बाद मेरी टांगों और मेरी कुछ अंगलियों  को मेरी शरीर से अलग कर दिया गया।

अन्ततः हममें से दो को धर्मशाला जाने की अनुमति दे दी गयी पर अन्य दो, जिनकी शारीरिक हालत कुछ अच्छी थी, उनको वापिस तिब्बत भेज दिया गया।

जब हम धर्मशाला पहुँचे तो हमें दलाई लामा के पास साक्षात्कार के लिए ले जाया गया। वहाँ क्या हुआ, मैं कुछ याद नहीं कर सकता। मैं मात्र रो पड़ा।

प्रबन्धकर्ता– मिमार छिरिंग, तिब्बत के धारगेलींग मठ के पूर्व भिक्षु।

चीनीकरणःजबसे तिब्बत पर चीन ने अधिकार किया उनके मुय उद्देश्यों में सर्वप्रथम तिबती राष्ट्रीय पहचान, संस्कृति तथा धार्मिक विश्वासों का क्रमिक ह्रास करके तिब्बत को चीनी राष्ट्रीय राज्यों में एक-जातीय मज्जित करना है।

सर्वप्रथम चीनी नेताओं द्वारा बड़े पैमाने पर लोकतान्त्रिक सुधारों की घोषणा तिब्बत के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रभुत्व को समाप्त करने का लक्ष्य करके की गयी। सितबर 1965 में तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के निर्माण के साथ यह प्रक्रिया अपनी चरम पर पहुँच गयी।

1966 में ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ की ध्वजा तले ‘लाल पहरेदारों’ ने तिबती सयता के विशिष्ट चिह्नों को निर्मूल कर दिया, जैसे मठ और पवित्र ग्रन्थ। अपेक्षाकृत थोड़े से समय में हमारी पुरातन सयता का तीन चौथाई हिस्सा विनष्ट हो गया।

80 के दशक में जो सुधार नीतियाँ घोषित की गयीं, उन्होंने कुछ आर्थिक परिवर्तन किए परन्तु अतिसूक्ष्म धूर्त सांस्कृतिक चीनीकरण की नीति जारी रही। आज हमारा धर्म और हमारे संस्थान समाजवादीकरण की प्रवृत्ति के लिए बाध्य हैं। शिक्षा और प्रबन्धन में चीनी भाषा को प्रधानता दिया जाना जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में तिबतियों को हाशिए पर रख देता है। सर्वाधिक चिन्ता का विषय यह भी है कि हमारे अपने ही देश में जनसंया का स्थानान्तरण करके तिबतियों को अल्पसंयक रूप में परिवर्तित करना हैं।

निःसन्देह हमारी सयता के लिए समय हाथ से निकलता जा रहा है। तिब्बत का प्रश्न इसके सांस्कृतिक और राजनैतिक अस्तित्व का प्रश्न है। इससे पहले कि देर हो जाए, एक सांस्कृतिक नव जागरण ही तिब्बत में और निर्वासन में इसकी गति को बरकरार रख सकता है।

प्रबन्धकर्ता : कुन्छोग चुन्डू, प्रोजेक्ट अधिकारी, योजना परिषद, केन्द्रीय तिबती प्रशासन।

मानवाधिकार हननः चीन के द्वारा तिब्बत में मानवाधिकार हनन उसके अवैध कजे के साथ शुरू होने के पश्चात् आज तक जारी है। यह वैयक्तिक मानवाधिकार के हनन के साथ-साथ तिबती लोगों के सामूहिक अधिकारों पर भी संस्थागत एवं योजना-बद्ध आक्रमण है।

22 नवबर 1989 को मैंने अपने मठ की पाँच अन्य भिक्षुणियों के साथ ल्हासा में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन में भाग लिया। हमें उसी समय गिरतार करके कारागार में भेज दिया गया।

दो महीने तक मुझसे पूछताछ जारी रही। मुझे छत से टांग दिया गया और मेरे शरीर पर सिगरेट दागे गए। मुझे धातु की तारों से बूरी तरह पीटा गया और मेरे अन्य साथियों को बिजली के छड़ी उनके आन्तरिक अंगों में ठूंसे गए थे।

तत्पश्चात् मुझे सात वर्ष की कैद का दण्ड दिया गया और द्राप्ची जेल में भेज दिया गया। वहाँ परिस्थितियाँ बहुत कठोर थीं। वहाँ कभीाी पर्याप्त खाना और मूल-भूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं थी तथा सभी कैदियों से काम करवाया जाता। अपने हिस्से के कार्य को समाप्त न करने की स्थिति में कारावास की अवधि बढ़ा दी जाती।

हमें अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं करने दिया जाता। फिर भी हमने छिप-छिप कर रोटी से जप-मालाएँ बनायीं, मिलकर प्रार्थना की और हम में से कुछ ने स्वतन्त्रता के गीतों की कैसेट भी रिकॉर्ड करवाई। उनके पकड़े जाने पर हमें सत दण्ड भी दिया गया।

जब मुझे जेल से रिहा कर दिया गया तो मुझे अपने मठ में नहीं जाने दिया गया और मेरी गतिविधियों पर रोक लगा दी गयी। मेरे अधिकतर रिश्तेदार और मित्र डरके मारे मेरे साथ सबन्ध रखने से कतराने लगे, तभी मैंने भागकर भारत जाने का निश्चय कर लिया।

– भिक्षुणी रिजिंन छुत्री, तिब्बत की पूर्व-शुग्सेव भिक्षुणी-मठ से।

एक ज्वलन्त प्रश्न-तिबती आत्मदाह की ओर रुख क्यों कर रहे हैं?ः- चीनी दमन के अधीन सपूर्ण तिब्बत में सन 2008 के शान्तिपूर्ण जनविरोध के बाद लगभग सैन्य शासन लागू हो गया है। गत 60 वर्ष के चीनी दमन और सतत कठोर नीतियों के कारण तिब्बत में तिबतियों ने आत्मदाह के द्वारा विरोध शुरू किया है।

फरवरी 2009 से अप्रैल 2015 तक कुल 138 तिबतियों द्वारा आत्मदाह किया जा चुका है। जिसमें 119 लोगों का देहान्त हो चुका है और बाकी बचे लोगों के हालत का कुछ पता नहीं चल पाया है। आत्मदाह करने वाले जिनमें अधिकतम युवा या पूर्ण स्वस्थ लोग हैं। वे तिबतियों की आजादी और दलाई लामा जी की तिब्बत वापसी की माँगों की नारे लगाते हुए अपने आप को अग्नि के हवाले कर रहे हैं।

अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया वा पर्यटकों से कट जाने के कारण बहुत कम लोग ही तिब्बत में हो रहे इन घटनाओं को जान पा रहे हैं।

साठ साल के चीनी अधिपत्य और शासन तिबतियों की पीड़ा को सबोधित करने में असफल रहा है। तिबतियों की मूल आजादी और संस्कृति वा पहचान का संरक्षण के जायज चाह को दमनकारी तारीकों से चुनौती दी जिनसे तिब्बत में राजनैतिक दमन, आर्थिक हशियापन, सांस्कृतिक विलयन और पर्यावरण का विनाश हुआ। अतः पारंपरिक विरोध प्रदर्शन के लिए कोई जगह ना पाने के कारण तिबतियों की पीड़ा की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए तिबतियों ने आत्मदाह को एकमात्र तरीके के रूप में देखा।

राजनैतिक दमनःतिब्बत में राजनैतिक दमन का सबसे दृष्टिगत रूप धार्मिक आस्था के स्वतन्त्रता पर कड़ा अंकुश और राष्ट्रभक्ति शिक्षा की तीव्रता है, जिसके तहत भिक्षु और भिक्षुणियों से बलपूर्वक दलाई लामा की निन्दा करवाना और चीनी सायवादी दल के प्रति निष्ठा दिलाना है।

लोकतान्त्रिक प्रबन्धक समिति जो सायवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं से बना है वह तिब्बत की धार्मिक प्रतिष्ठानों की दैनिक गतिविधियों का संचालन करता है। राज्य नियन्त्रित मठ व्यवस्था बौद्ध धर्म की शिक्षा की अपेक्षा मातृभूमि चीन की प्रति वफादारी वा प्रेम को दोहराता है क्योंकि भिक्षुगण को आधा दिन पार्टी के प्रचार को याद करना पड़ता है। नवबर 2011 के बाद सभी मठों में चीनी सायवादी नेतृत्व के चित्र रखना और चीनी राष्ट्र ध्वज को लहराना अनिवार्य हो गया है तथा मठ और भिक्षुओं के कमरों पर निरन्तर रात्रि छापे पड़ते हैं।

पर्यावरण का विनाशःगत 60 वर्षों में चीनी सरकार ने तिब्बत की नाजुक पर्यावरण को नजरअंदाज कर तिब्बत में कई परियोजना और नीतियों को लागू किया है। तिब्बत में अनियन्त्रित खनन हो रहा है।

सन् 2009 से तिब्बत में खनन से सबन्धित जन विरोध की 20 घटनाएँ दर्ज हुए हैं। खनन और पर्यावरण प्रदूषण के मुद्दे आत्मदाह के मुय कारणों में रहे हैं। नवबर 2012 में छेरिड दोनडुब और कोनछोग छेरिड ने तिब्बत में यागर-थड़ में सोने की खदान के द्वार पर आत्मदाह किया। उसी तरह दो बच्चों की माँ चकमो  क्वीद भी रेवगोड में आत्मदाह से पूर्व जातीय समानता और पर्यावरण संरक्षण की आजादी के नारे लगाये। पुश्तैनी जमीन हथियाना, पवित्र स्थलों का विनाश, रोजगार अवसरों की कमी और पर्यावरण प्रदूषण के कारण तिब्बत में बहुत आक्रोश है।

आज चीनी सरकार पर्यावरण सुरक्षा और पारिस्थितिक प्रवासन के नाम पर पशुपालकों को बलपूर्वक उनकी पुश्तैनी जीवनशैली से बेदखल कर रहे हैं। उनकी सदियों पुरानी जीवन शैली से उन्हें हटा कर कंक्रीट के बने कैपों में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसके कारण गरीबी, पर्यावरण घटान और सामाजिक विघटन हो रहे हैं। आत्मदाह करने वालों में बीस से अधिक लोग पशुपालक परिवार से थे।

आर्थिक हाशियोपरः– तिब्बत की राजधानी ल्हासा के 70 फीसदी व्यवसाय चीनियों के हाथ में है।

– उच्च विद्यालय से शिक्षा प्राप्त 40 फीसदी तिबती बेरोजगार हैं।

चीनी सरकार ने विकास की नई रणनीति अपनाई जो कि आँकड़ों में बढ़त हासिल करने पर केन्द्रित है ना कि अत्पसंयकों के सशक्तिकरण और गुणवत्ता को प्राप्त करने पर। किसी विशेष अभिरुचि को लेकर केन्द्रीय सरकार की सारा निवेश शहरी उद्योग क्षेत्र को जाता है जब कि ज्यादातर तिबतियों की आजीविका ग्रामीण क्षेत्र में है।

ज्यादातर व्यापार पर चीनियों का कजा है। वे रोजगार देने में प्रवासी चीनियों को ही प्राथमिकता देते हैं जो चीनी कार्य शैली से वाकिफ है और बेशक चीनी भाषा से भी। तिब्बत में आर्थिक गतिविधि के लगभग सभी पहलुओं पर भेदभाव पाया जाता है। यहाँ तक कि तिबती और गैर तिबती कामगारों के वेतन में भी फर्क है। तिबती का क्षेत्र चीनी गणतन्त्र के सबसे गरीब क्षेत्रों में एक और तिब्बत के गरीबी का स्तर चीन के सबसे गरीब क्षेत्र से भी बदतर है।

सांस्कृतिक विलयनःतिबती संस्कृति और पृथक् तिबती पहचान को बचाए रखने में तिबती भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। तिबतियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूल जिसका उद्देश्य तिबती युवाओं में तिबती संस्कृति और भाषा को सिखाना और बढ़ावा देना है, उन पर कठोर अंकुश है। तिबती छात्रों द्वारा आधुनिक विषय की पढ़ाई अपनी मातृभाषा में बेहतर रूप से कर पाने के बावजूद चीनी सरकार द्वारा पाठ्यपुस्तकों को तिबती भाषा के बजाए चीनी भाषा में पढ़ाया जा रहा है। परिणामस्वरूप तथाकथित तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में छात्रों को अपनी भाषा और सयता का केवल सतही ज्ञान ही उपलध हो रहा है।

बहुतायत प्रवासी चीनियों के तिब्बत में बस जाने से तिब्बत में ही तिबतियों की पहचान की संकट और बढ़ गया है।

निर्वासन में तिबती समुदायःसन् 1959, ल्हासा में तिबती राष्ट्रीय विद्रोह हुआ था और परम पावन दलाई लामा जी के निर्वासन में आते समय उनके साथ हजारों तिबती पड़ौस के देशों में पलायन कर पहुँचे। आरभ में तिबतियों को शरणार्थी शिविरों में टेंट के अन्दर रखा गया। इस प्रकार उत्तरी भारत में सड़क बनाने का कार्य दिया गया। इसके बाद भारत में रह रहे तिबती समुदाय को भारत, नेपाल तथा भूटान आदि में धीरे-धीरे लगभग 50 बस्तियों में बसाने का कार्य हुआ। परम पावन जी ने निर्वासन में आने के बाद जल्द ही तिब्बत तथा तिब्बत से बाहर रहने वालों की पहचान बनाये रखने के लिये तिबती प्रशासन तथा संसद स्थापित की।

निर्वासन में तिबती समुदाय के प्रशासन के कार्यालयों तथा संस्थानों के माध्यम से अपनी विरासत को जीवित रखने हेतु संरक्षण व संवर्द्धन में संघर्षरत है। निर्वासन में 80 से अधिक विद्यालय, साथ ही भिक्षु-भिक्षुणियों के लिये लगभग 190 मठ व विहारों का निर्माण किया गया है। केन्द्रीय तिबती प्रशासन ने अपनी अलग-अलग विभागों के माध्यम से तिबतियों के कल्याण में लगे और विश्वभर के 12 देशों के अन्दर प्रतिनिधित्व के रूप में यूरो ऑफिस स्थापित किया गया है। तिबती शरणार्थियों के वर्तमान संया मात्र 130,000 है। इनसे अधिकतर भारत, नेपाल और भूटान में हैं। इसके अतिरिक्त अमेरिका, सुईजरलैण्ड, केनाडा, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस इत्यादि अन्य देशों में भी काफी संया में तिबती रहते हैं।

60 के दशक के प्रारभ में, मैं एक शरणार्थी के रूप में भारत पहुँचा था। उस समय वास्तव में एक शिशु के रूप में अपने दादी के पीठ पर नेपाल के रास्ते से भारत में शरण लीया और मैं अपने बड़ों के उस समय की परेशानी व निराशा की अवस्था को नहीं जान सकता था। हालांकि परम पावन दलाई लामा जी के दर्शन और अपने बच्चे को उनके चरणों में अर्पित कर देने मात्र से ही अपने आगे की कठिनाइयों का सामना करने का उत्साह दिखाते हुये, वह अपने सड़क बनाने की कार्य के लिये गाना गाते हुये निकल जाते थे।

इसके पश्चात् धीरे-धीरे तिबती प्रशासन के कार्यालयों एवं तिबती संसद का गठन करते हुए, इतिहास में पहली बार पहला तिबती लोकतान्त्रिक संविधान का मसौदा तैयार किया गया। उसी समय पहला तिबती स्कूल भी खोला गया था। मेरे स्कूली जीवन के भी प्रारभ ऊपर धर्मशाला के तिबती नर्सरी में हुआ था।

हमारे कठिन परिस्थितियों में भारत सरकार ने अपनी कठिनाइयों के बावजूद हम तिबती शरणार्थियों को बहुत मदद की है। प्रारभ में अधिकतर तिबती उत्तरी भारत में सड़क श्रमिकों के रूप में कार्यरत थे। परन्तु जब हमें जल्द ही अहसास हुआ कि निर्वासन में हमें धर्म तथा संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये संघर्ष के क्रम में अधिक ठोस संरचना की जरूरत है। तब हमने भारत सरकार से अपनी समुदाय के लिये बस्तियों के निर्माण हेतु अनुमति के लिये अनुरोध किया था और सरकार ने भी सहयोग व स्वीकृति प्रदान की थी।

सन् 1960 में तिबती बस्तियों में पहला माइलाकुप्पे, कर्नाटक में स्थापित किया गया था। उसी क्रम में भारत, नेपाल तथा भूटान आदि में कई बस्तियों को स्थापित किया गया। शुरूआत में अधिकतर बस्तियों की स्थिति बहुत दयनीय थी, फिर भी हम धीरे-धीरे कृषि कार्य एवं अन्य आय के स्रोतों को विकसित करते गये। इसी के साथ एक के बाद एक अधिकतर बस्तियों में स्कूल और मठों को बनाया जा सका।

निर्वासन में हमें बहुत कठिन परिस्थितियों में भी अच्छी सफलता मिली है। आज यह बात यकीन के साथ कह सकते हैं कि शरणार्थी तिबती समुदाय एक प्रगतिशील समुदाय बना है। परम पावन दलाई लामा जी ने राजनीतिक सत्ता को जनता द्वारा निर्वाचित सिक्योड को पूर्णरूपेन हस्तांतरण कर, मात्र तिब्बत के आदर्श लोकतान्त्रिक प्रणाली को ही नहीं बल्कि तिब्बत के स्वशासन (स्वायत्त क्षेत्र) के बहाली के लिये मध्यम मार्ग के रास्ते पर प्रतिबद्धता ही हमारे लिये सबसे बड़ी उपलधि है।

प्रबन्धकर्ता– श्री टाशी फुन्छोग, सचिव, सूचना एवं अन्तर्राष्ट्रीय सबन्ध विभाग, केन्द्रीय तिबती प्रशासन, धर्मशाला।

वर्तमान तिबतःतिब्बत आज भी निरन्तर डराने, धमकाने तथा यातनाओं का सामना कर रहा है। जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य अपने मानवाधिकारों का प्रयोगकरते हुए राजनीतिक विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं, उन्हें राष्ट्र को अस्थिर करने के लिये कठोर दण्ड मिलता है, जैसे कि गिरितारियाँ, यातनाएँ और कारावास।

तिब्बत के भिक्षु तथा भिक्षुणी मठों में बड़े पैमाने पर चीनी सरकार देशभक्ति पुनर्शिक्षण नामक कार्यक्रम चलाती है। इसका विरोध करने वालों को गिरतार कर लिया जाता है, कारावासों में ठोंस दिया जाता है, यातनाएँ दी जाती हैं, तथा उनके मठों से निष्कासित कर दिया जाता है।

अधिकतर तिबती बच्चों को अनुकूल शिक्षा उपलध नहीं है। सर्वोत्तम विद्यालय चीनी विद्यार्थियों के लिये आरक्षित है तथा ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित अनेक विद्यालयों में प्रायः सुविधाएँ विशेषकर नगण्य हैं। अधिकांश विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम चीनी भाषा है और तिबतियों का उनमें प्रवेश अत्यन्त कठिन है। चीनी प्रवासियों को तिब्बत में बसने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है और अपने ही देश में हम लोग अल्पसंयक हो गए हैं। 60 लाख तिबतियों की तुलना में अब वहाँ 75 लाख चीनी हैं।

तिब्बत के विशिष्ट धर्म तथा उसकी संस्कृति को नष्ट करने के अतिरिक्त चीनी प्रवासियों की बाढ़ के कारण तिबतियों के पारपरिक रोजी-रोटी के साधनों पर बड़ा कुप्रभाव पड़ रहा है। कृषि उत्पादनों तथा तिबतियों द्वारा बनाई जाने वाली कलात्मक चीजों के मूल्य घटा दिये गए हैं तथा किसानों और व्यापारियों पर बोझिल कर थोपे गऐ हैं। अधिकांश तिबती नौकरी से वंचित रहने पर बिल्कुल असहाय और बेसहारा बन कर रह जाते हैं।

आर्थिक उदारी-करण तथा खुले बाजार की नीति से तिब्बत के प्राकृतिक साधनों पर बड़ा दबाव पड़ रहा है। चीन के हित में तिब्बत के वनों, खजिनों तथा जल-ऊर्जा संसाधनों का दोहन हो रहा है जिसके परिणाम-स्वरूप तिब्बत के कोमल पर्यावरण को खतरा पैदा हो गया है।

प्रबन्धकर्ता– जेद गोदम पूर्व राजनीतिक बन्दी, मियार प्रेरिंग ……. हस्पताल के चिकित्सक

तिब्बत का भविष्य– एक परिचय, परम पावन 14वें दलाई लामाः- यदि आध्यात्मिक दृष्टि से उल्लेख करें तो हमारे हिम देश तिब्बत के बारे में भगवान बुद्ध ने भविष्यवाणी की थी। यह एक आशीर्वादित पुण्य भूमि है। स्वभावतः यहाँ के लोग करुणाशील तथा धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। हमारी अपने प्रति यही धारणा है और दुनिया का हमारे प्रति दृष्टिकोण भी ऐसा ही है।

सांसारिक दृष्टि से हमारे देश का बड़ा लबा इतिहास है। पुरातात्विक खोजों से पता चला है कि हमारा इतिहास छः से आठ हजार वर्ष पुराना है। तिबती लोग विश्व के सब से ऊँचे पठार के निवासी हैं।

भूत में हमारे लोग बड़ी कठिनाइयों से गुजरे परन्तु एक कौम के तौर पर जीवित रहने में हम सफल रहे हैं। न केवल तिब्बत के प्रति बल्कि किसी भी उद्देश्य के प्रति यदि तिबती लोगों को अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने का अवसर दिया जाए तो भी वे उस पर खरे उतरेंगे। हम ने अपनी संस्कृति का संरक्षण किया है। विशेषतः बौद्ध संस्कृति का जो कि तिब्बत तथा विश्व दोनों के लिए लाभदायक है। मंगोलिया तथा हिमालयी क्षेत्रों में हमारी बौद्ध संस्कृति फैली है। तिबती बौद्ध संस्कृति मंगोलिया तथा हिमालयी क्षेत्रों में प्रसारित हुई है। तिब्बत के बौद्ध धर्म को एक विश्वसनीय एवं सफल परपरा के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है।

बौद्ध शिक्षाओं ने तिबती लोगों के स्वभाव को प्रभावित किया है। करुणा हमारी संस्कृति का सार है। हमारे लोग दयालु तथा सरल हैं। आज के संसार में ये महत्वपूर्ण एवं अमूल्य गुण हैं। करुणा तथा दया के सार से युक्त तथा सरलता एवं नैतिकता से सबद्ध हमारी संस्कृति न केवल तिबतियों बल्कि समस्त विश्व के हित में लाभकारी होने की क्षमता रखती हैं। न केवल मानवों अपितु पशुओं के लिए भी सहृदयता हमारी संस्कृति (का अंग) है। हम अकारण ही जीवों का उपयोग, हनन तथा उनकी हानि नहीं करते। ये गुण समस्त विश्व के लिए हितकर है।

हमारी संस्कृति सन्तोष की (संस्कृति) भी है और हम प्रकृति का अत्याधिक दोहन नहीं करते। आज हम देख रहे हैं कि मनुष्य के लालच और असीम आकांक्षाओं के कारण विश्व में अत्यधिक समस्याएँ पैदा हुई हैं तथा पशु जगत् की अथाह क्षति हुई है। अतः भविष्य में तिब्बत में आर्थिक विकास का आधार होना चाहिए अहिंसा और शान्ति। जैसे कि हमारे पहाड़ों का पर्यावरण सुन्दर एवं शीतल है, वैसे ही हमें बौद्ध धर्म की करुणाचर्य्या द्वारा अपने मन को नियन्त्रित तथा शान्त बनाना चाहिए। इस प्रकार हम तिब्बत में शान्ति का वातावरण तैयार कर सकते हैं। तिब्बत के लिए अपनी पाँच-सूत्री योजना में मैंने प्रस्तावित किया था कि तिब्बत एक विसैन्यीकृत, शान्त आयारण्य बने।

भविष्य में तिब्बत का राजनीतिक ढाँचा लोकतान्त्रिक होना चाहिए। राजनीतिक प्रणलियाँ अनेक हैं परन्तु सब से व्यावहारिक प्रणाली वह है जो लोगों को सामूहिक उत्तरदायित्व प्रदान करती है और उन्हें अपने नेताओं को चुनने का अधिकार देती है। यही सर्वोत्तम एवं स्थायी राजनीतिक प्रणाली है। अतः हमें भावी तिब्बत को एक स्वतन्त्र लोकतन्त्र बनाने का प्रयास करना चाहिए। यदि हम ऐसा कर पांऐ तो हमारा देश एक ऐसा देश बन जाएगा कि जहाँ मनुष्य तथा अन्य प्राणी अपने सुन्दर पर्वतीय वातावरण में शान्तिपूर्वक रह सकेंगे। इस प्रकार हम सारी दुनिया के लिए एक उदाहरण बन सकते हैं। यह सभव भी है और प्राप्य भी। मैं सदैव इस की कामना करता हूँ तथा एतदर्थ प्रार्थना करता हूँ।

तिब्बत के प्रश्न पर चीनी समर्थकों की संया बढ़ रही है। चीन तथा आर्य देश भारत हमारे सब से महत्वपूर्ण पड़ौसी हैं। इन दोनों देशों तथा तिबती सीमा स्थित हिमालयी राज्यों में तिब्बत के समर्थक विद्यमान हैं। विश्वभर में तिब्बत के समर्थकों की बड़ी संया है। यदि वे सब हमारे लक्ष्य की प्रगति में हमारी सहायता करें तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी।

परम पावन के तीन प्रमुख प्रतिबद्धताएँः परम पावन चौदहवें दलाई लामा जी के जीवन की तीन अपरिहार्य प्रतिबद्धताएँ इस प्रकार हैं-

  1. उन्होंने एक मानव जीवन के स्तर पर, उन मानवीय मूल्यों जैसे करुणा, क्षमा, संतोष, शील आदि आत्म-अनुशासन का विकास करना है। सभी मानव जीव समान हैं। हम साी सुख चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। ऐसे व्यक्ति जो धर्म पर विश्वास नहीं करते, वे भी अपने जीवन को और सुखी बनाने में इन मानवीय मूल्यों के महत्त्व को पहचानते हैं। इस प्रकार के मानवीय मूल्यों को परम पावन धर्म निरपेक्ष नैतिकता के नाम से सबोधित करते हैं।
  2. धार्मिक अयासी के स्तर पर, धार्मिक सौहार्द की भावना और विश्व के प्रमुख धार्मिक परपरा की आपसी समझ को बढ़ावा देना है। दार्शनिक स्तर पर अन्तर होने के बावजूद सभी प्रमुख धर्मों में अच्छे मानव बनाने की एक समान क्षमता है। अतः सभी धार्मिक परपराओं के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे एक दूसरे का समान करें तथा एक दूसरे की परपराओं के मूल्य को पहचानें। जहाँ तक एक सत्य, एक धर्म का सबन्ध है, इसका एक वैयक्तिक स्तर पर महत्त्व है। परन्तु एक विशाल समुदाय के लिये कई सत्यों, कई धर्मों की आवश्यकता है।
  3. परम पावन एक तिबती हैं तथा दलाई लामा का नाम धारण किये हैं। विशेषकर तिब्बत में तथा तिब्बत से बाहर रहने वाले तिबती लोगों द्वारा उन पर अत्यधिक विश्वास है। इसलिये उनकी प्रतिबद्धता तिब्बत की प्रश्न को लेकर है। उन पर न्यायिक संघर्ष के प्रवक्ता का उत्तरदायित्व है। बौद्ध संस्कृति, शान्ति एवं अहिंसा शिक्षा की रक्षा के लिये प्रयास करना, दमन के नीचे जीवन व्यतीत करने वो उन तिबतियों की एक स्वतन्त्र रूप में प्रतिनिधित्व करना है।

– धर्मवीर

 

क्या बिस्मिल्लाह कुरान में पारसियों की नकल से लिखा गया ?

मुस्लमान कुरान के बारे में दावा करते हैं की कुरआन मुहम्मद साहब पर नाजिल हुआ (उतरा ). ये खुदा का नवीनतम ज्ञान है जो खुदा ने अपनी पुरानी किताबों को निरस्त कर मुहम्मद साहब को दिया .

कुरआन की शुरुआत बिस्मिल्लाह से की जाती है . कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत बिस्मिल्लाह से ही हुयी है . इस लिहाज़ से ये कुछ खास हो जाता है . अधिकतर कार्यों को करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढ़ना शुभ माना जाता है यहाँ तक की सम्भोग करते हुए भी बिस्मिल्लाह पढने की रिवायतें हदीसों में मिलती हैं.

व्यक्ति कुछ लिखना आरम्भ करने से पहले सामान्यतया कुछ न कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं . जैसे भारतवर्ष में जब कोई व्यकित किताब या कोई लेख इत्यादि लिखते हैं तो ॐ, जय श्री राम इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं .इसी प्रकार के शब्दों का प्रयोग अरब और उसके आसपास के इलाकों में होता था .

इसी प्रकार पारसी भी अपनी किताबों के साथ ऐसे ही कुछ शब्दों का प्रयोग किया करते थे . जिसके अर्थ बिस्मिल्लाह होते थे . अनेकों विद्वानों का यह मानना है कि बिस्मिल्लाह आयत कुरान के लेखक ने पारसियों की किताबों से लिया है .

क्या बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया है ?

ये देखिये सेल साहब क्या लिखते हैं :-

प्रत्येक अध्याय के शीर्षक के बाद , केवल नवें अध्याय को छोड़कर , मुसलमान बिस्मिल्लाह लिखते हैं जिसका अर्थ है महानतम दयावान के नाम पर .यह उनकी सामान्य प्रचलित पद्धिति है जिसे जो हर लेख या किताब के प्रारंभ में लिखते हैं . JEWS भी इसी तरह के शब्दों का प्रयोग करते हैं जैसे –भगवान के नाम पर , महान  भगवान् के नाम पर , इसी तरह इसाई महान भगवान् और उसके पुत्र के नाम पर लिखते हैं . लेकिन मुझे लगता है कि ये तरीका मुसलामानों ने पारसीयों से लिया है जैसे कि उन्होंने दूसरी बहुत सी चीजें पारसियों से ली हैं . पारसी अपनी किताबों के आरम्भ में “ BENAM YEZDAN BAKHSHAISHGHER DADAR” लिखते थे जिसका अर्थ बिस्मिल्लाह अर्थात “महानतम दयावान के नाम पर” पर ही होता है .

अब जरा तफसीर जलालैन के लेखक के विचार इस बारे में जानते हैं .

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क्या बिस्मिल्लाह के बाब ( अध्याय ) में आप ने दुसरे मजहब की (तकलीद नक़ल ) की है ?

पारसियों और मज़ुसियों के दसातीर में हर नामह ( किताब ) की शुरुआत भी कुछ इसी किस्म के अलफ़ाज़ से होती है .मसलन मौजूदा इन्जील के बाज ( कुछ ) इफ्ताताई ( प्राकत्थन लिखना ) अलफ़ाज़ भी कुछ इसी तरह के हैं जिससे यह साबित हो सकता है कि आं हजरत ने इन्हीं या दसातीर से استفاده (सुना होगा ) और बिस्मिल्लाह से कुरान ए करीम की इब्तदाई करने में में इनकी तकलीद और इक्त्दा (नक़ल ) की होगी . लेकिन अव्वल तो इन्जील के कदीम (पुराने ) और सहीह नुस्खों में नहीं है जिससे बरअक्स ये साबित होता है कि ईसाईयों ने मुसलामानों की देखा देखी कुरान की तकलीद की है . अलबत्ता पारसियों की दसातीर का जहाँ तक ताल्लुक है तो नहीं कभी आप (हजरत मुहम्मद साहब ) यूनान तशरीफ़ ले गए और  न ही अरब में किसे मजूसी (पारसियों से सम्बंधित ) आलिम या किताब खाना और मदरसा का नामोनिशान था .

इस जमाने में तो मजूस की मजहबी किताबों का अपनी कौम और मुल्क में पूरी तरह ईसायत और रिवाज़ भी नहीं था . खास खास लोग बतौर तबरक (आशीर्वाद ) दूसरों की नज़रों से अपनी मजहबी किताबों को छुपा कर रखते थे ताकि दुसरे लोग नहीं देख लें . मुल्क अरब तक इसकी नौबत कहाँ पहुँचती और फिर आप ( मुहम्मद साहब ) खुद अपनी जुबान के लिखने पढने तक से वाकिफ नहीं थी की नौबत यहाँ तक पहुँचती .

रहा हजरत सलमान फ़ारसी का मामला सुरा एक गुलाम में कोइ मजहबी आलम नहीं थे . अगर आप इनसे (इस्तफादः استفاده) फायदा लेते करते तो वो उलटे वो खुद आप के मोताकित ( भाग , विश्वास करने वाले ) कैसे हो जाते और अपने मुल्क की हर तरह की नाकाबिल बर्दाश्त तकलीफ सहह कर आपकी खिदमत में باعش अनुकूल फखर क्यों समझते .

अलावा इसके दूसरी बात यह कि अगर आप आं हजरत ने दूसरों की तकलीद में ऐसा किया भी है तो इससे आप आं हजरत की محاسن माहानता  अच्छे कार्य में इजाफा होता है और इससे आप आं हजरत की इन्साफ पसंदी   बुलंदी फक्र का अंदाजा होता है कि आप आं हजरत में दूसरों की अच्छाइयों और भलाइयों से किनाराकशी न की जाए   और   उनको अपनाने का जज्बा मौजूद थाबूल . और खुले दिल दिमाग से उनको करने का दूसरों को भी मशवरा देते थे . मुतासिब ( किसी की सहायता करना ) मुआनिद ( बात न मनाने वाला )  शख्स से कभी इस किस्म की तौकह (शर्म) नहीं की   जा सकती है  नहीं इस्लाम ने कभी अछूते और नए होने का ऐलान नहीं किया बल्कि हमेशा आपने पुराने और करीम होने पर फक्र किया है . यानी यह कह इसके तमाम उसूल करीम और पुराने हैं जिनकी तबलीक ( उपदेश ) अलैह्म करते चले आ रहे हैं .इस में कोई नई बात नहीं है बजूज (सिवाय ) इसके कि नादानों ने गलत रस्मों रिवाज की तहों और परतों में छिपा कर असल हकीकत को गम कर दिया था इसने फिर परदे हटा दिए और असल हकीकत को चमका दिया. पस इस तरह खुदा के नाम इफ्तताह करीम ज़माना और करीम मज़हब से चला आ रहा हो और इस्लाम ने भी इस की तकलीद की  हो तो काबिल ऐतराज ब्बत्त क्या रहा जाती है ?

तफसीर जलालैन के लेखक यह स्वीकार करते हैं कि हो सकता है कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो और यदि ले लिया तो फिर परेशानी क्या है ये तो मुहम्मद साहब का बढ़प्पन था .

लेकिन कुरान कहता है की कुरान की तरह दूसरी आयत कोई नहीं बना सकता . बिस्मिल्लाह भी कुरान का हिस्सा है . यदि तफसीर ए जलालैन के लेखक के मुताबिक़ यह मान लिया जाये कि बिस्मिल्लाह पारसियों से लिया गया हो सकता है तो यह तो कुरान की तरह की आयत हो गयी जो पारसियों ने खुद बना ली थी . यह आयत को पारसियों को अल्लाह ने नहीं दी थी .

जब पारसी कुरान की तरह की एक आयत बना सकते हैं तो फिर कुरान की तरह की दूसरी आयते क्यों नहीं बनायी जा सकती .

और काफिरों द्वारा बनाई गयी इस आयत का महत्व तो देखिये कि कुरान के अधिकतर सुरों की शुरुआत ही इसी से होती है

मुसलमानों का इस बात को मानना कि यह आयत पारसियों से ली गयी हो सकती है , मुसलमानों के कुरान के खुदाई किताब होने के दावे की धज्जियाँ  उड़ा देती है .

अहिंसक होने का दण्ड: डॉ धर्मवीर

एक दिन चीनी गणराज्य ने अपने आपको राजशाही से मुक्त कर साम्यवादी  शासन घोषित कर दिया। साम्यवादी की विचारधारा ने भले ही इंग्लैण्ड में जन्म लिया हो परन्तु विचारधरा फलित हुई चीन और रूस में। चीन ने 1949 में साम्यवादी शासन का प्रारभ किया। पूंजीवाद के विरोध में संसार का सबसे मुखर स्वर बन कर उभरा। साम्यवादी आक्रमकता ने सभी देशों में पुरानी परपरा और संस्कृति को नष्ट कर साम्यवादी के झण्डे के नीचे लाना अपना कर्त्तव्य माना। चीन ने अपनी विस्तारवादी नीति के माध्यम से पड़ोसी देशों पर बलपूर्वक अधिकार करना प्रारभ किया।

चीन ने 1947 के बाद अपना विस्तार करते हुए 7 अक्टूबर 1950 में 40 हजार चीनी सैनिकों के साथ तिब्बत पर आक्रमण कर दिया। यह आक्रमण तीन ओर से किया गया। तिब्बत एक शान्तिपूर्ण देश था। जहाँ दलाई लामा सन्त का शासन था। छः हजार सैनिकों की छोटी-सी सेना  थी, जो की विशाल चीनी से परास्त हो गई और उसने चीनी सेना के सामने आत्म समर्पण कर दिया। 23 मई 1951 को तिबती सरकार ने बीजिंग में चीनी सरकार से शान्तिवार्ता की और 17 सूत्री अनुबन्ध पर हस्ताक्षर कर दिये और तिब्बत ने अपनी दासता का पट्टा लिख दिया। चीन ने इस को तिब्बत की शान्तिपूर्ण मुक्ति बताते हुए तिब्बत के चीन में विलय की घोषणा कर दी। इस प्रकार चीनी आक्रमणकारी तिब्बत के मार्ग से भारत की सीमा पर पहुँच गये।

यह समय भारत की स्वतन्त्रता का समय था। भारत की सरकार एक ऐसे व्यक्ति के नेतृत्व में थी, जिसमें एक साहित्यकार की योग्यता तो थी परन्तु राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञ की दृष्टि का अभाव था। जो समझता था भारत ने अहिंसा के मार्ग से स्वतन्त्रता प्राप्त की है। जो सेना को व्यर्थ मानता था। संसार में शान्ति और सह अस्तित्व की बात करता था और चीन को अपना मानकर पंचशील के सिद्धान्त का पालन करने के लिये तत्पर था और हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारों से देश गुंजा रहा था। तिब्बत में दमन हो रहा था, भारत में चाऊ एन लाई जिन्दाबाद का घोष गूंज रहा था। हमारी सरकार और प्रधानमन्त्री ने अपने पैरों पर स्वयं कुठाराघात करते हुए चीन के इस कदम को उचित बताया और तिब्बत को चीन का भाग स्वीकार किया। पं. नेहरू के इस कदम का गृहमन्त्री सरदार पटेल ने विरोध किया था। पटेल ने कहा था- यह चीन का कार्य अनुचित और एक देश की स्वतन्त्रता का अपहरण है परन्तु पं. नेहरू ने अपने को अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बनाने की धुन में पटेल की बात को अनसुना कर दिया। पटेल ने अपने जीवन के अन्तिम भाषण में भी इस भय की चर्चा की थी। तिब्बत पर चीन का समर्थन करना एक आत्मघाती कदम था। ऐसा करना न केवल तिब्बत के लिये हानिकर था अपितु एक शक्तिशाली शत्रु को अपने घर पर निमन्त्रण देने जैसा था, पटेल की भविष्यवाणी सच हुई। परिणामस्वरूप भारत को 1962 के युद्ध में पराजय का मुख देखना पड़ा और हजारों वर्गमील भूमि भी गंवानी पड़ी।

इस युद्ध से पूर्व में अनेक राजनीतिक समझ रखने वाले नेताओं ने पं. नेहरू को समझाने का यत्न किया कि चीन की कुदृष्टि तिब्बत के बाद भारत पर है परन्तु पं. नेहरू ने इन बातों की उपेक्षा की समाजवादी नेता और प्रखर राजनीतिज्ञ राम मनोहर लोहिया ने अपने लेखों अपने और व्यक्तव्यों द्वारा भारत सरकार को चेताया था- चीन तिब्बत में जो कुछ कर रहा है, उससे तिब्बत की तो हानि है ही परन्तु भारत का भविष्य संकटमय हो रहा है। लोहिया ने तिब्बत में बनाई जा रही सड़कों, नदियों पर बन रहे, बांधों की चर्चा की थी परन्तु पं. नेहरू ने किसी की न सुनी और न मानी।

जब चीन ने भारत पर आक्रमण करके विशाल भारतीय भूमि पर आक्रमण कर दिया तब भारत की संसद में प्रश्न उठाया गया कि चीन ने भारत की सीमा में घुसकर भारत के विशाल भूभाग पर अधिकार कर लिया है तब प्रधानमन्त्री ने संसद में कहा था- वह भूमि तो बंजर है। वहाँ तिनका भी नहीं उगता, उस समय संसद सदस्य महावीर त्यागी ने पं. नेहरू को उत्तर देते हुए अपनी टोपी सिर से उतार कर कहा था- क्या मेरे सिर पर बाल नहीं उगते तो क्या इसे दूसरे को दे दूँ।

चीनी आक्रमण से पहले तिब्बत भारत के लिये घर आंगन जैसा था। लोहिया ने लिखा था- तिब्बत की डाक व्यवस्था भारत के पास थी। चीनी आक्रमण के बाद हमने अपने कर्मचारियों को वहाँ से बुला लिया। तिब्बत का भारतीय सबन्ध सृष्टि के आदिकाल से रहा है। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार सृष्टि के प्रारभ में जल से जो भू भाग ऊपर आया वह तिब्बत ही था। प्राणी जगत् और मानव की सृष्टि का आदि स्थान तिब्बत ही है। तिब्बत को भारतीय ग्रन्थों में त्रिविष्टप् नाम से जाना जाता है। ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है, आर्य बाहर से नहीं आये हैं। सर्वप्रथम तिब्बत में सृष्टि का प्रारभ हुआ। वहाँ से प्रथम भारत में आकर बसने वाले आर्य मूल भारतीय हैं, विदेशी नहीं। तिब्बत संसार का सबसे ऊँचा पठार है, इसी कारण इसे संसार की छत कहा जाता है। तिब्बत में जहाँ हिमाच्छादित बड़े शिखर हैं, वहाँ पत्थरों के पहाड़ के साथ घने जंगल हैं। एशिया खण्ड की चार बड़ी नदियों का तिब्बत उद्गम स्थान है। इन चार प्रमुख नदियों के नाम हैं- ब्रह्मपुत्र, सिन्धु, मीकांग और मछु। प्रथम दो नदियाँ भारत के पूर्व-पश्चिम में प्रवाहित होती हैं, जो भारत के जल संसाधन का बड़ा स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त सैंकड़ों छोटी-बड़ी नदियाँ तिब्बत से होकर भारत की ओर आती हैं। तिब्बत का विशाल मानसरोवर भारतीय संस्कृति की आस्था का केन्द्र है। हिमालय से निकलने वाली सभी नदियों का यह उद्गम स्थल है। भारत का प्राण कहे जाने वाले ये स्रोत तिब्बत की दासता के कारण भारत के शत्रु के हाथ में चल गये हैं। आज मोदी सरकार को मानसरोवर जाने के लिए चीन की सरकार से मार्ग की याचना करनी पड़ रही है। सारे तिब्बत के संसाधनों के साथ जल स्रोतों का दोहन चीन अपने पक्ष में कर रहा है। वर्षों से समाचार आ रहे हैं, ब्रह्मपुत्र नदी पर बड़े बांध बनाकर चीन ने नदी का स्रोत चीन की ओर कर लियाा है।

तिब्बत की दासता का परिणाम है-चीन और पाकिस्तान की मैत्री। इसी आक्रमण के कारण पाकिस्तान ने कश्मीर का भूभाग चीन को दे दिया और चीन ने बड़ी सड़कों का निर्माण करके पाकिस्तानी बन्दरगाह तक अपनी पहुँच बना ली। सीमा पर हमारी सेना का बड़ा भाग पाकिस्तान और चीन के आक्रमण को रोकने में लगता है, यह हमारी अदूरदर्शिता पूर्ण तिब्बत नीति का परिणाम है। रक्षामन्त्री जार्ज फर्नान्डीज ने भारतीय संसद में कहा था- पाकिस्तान से भी अधिक खतरा भारत को चीन से है। हम ने तिब्बत पर चीन आक्रमण का समर्थन न किया होता तो न चीन हमारे दरवाजे पर होता न चीन को पाकिस्तान की निकटता का ऐसा अवसर मिलता।

चीन तिब्बत को लेकर ही सन्तुष्ट नहीं है वह पूरे हिमालय क्षेत्र पर अपना अधिकार जताता है। चीन का कहना है- तिब्बत उसकी हथेली है, उससे लगे भारतीय भू-भाग हाथ की अंगुलियाँ हैं, हाथ मेरा है तो अंगुलिया भी मेरी ही हैं। वह भारत के सिक्किम को अपना भाग मानता है, वहाँ के लोगों को चीन में जाने के लिए वीजा की आवश्यकता नहीं मानता। भारत सरकार के मन्त्री प्रधानमन्त्री की सिक्कम यात्रा पर वह आपत्ति करता है। सिक्किम में भारत सरकार द्वारा किये जाने वाले कार्यों को अवैध और चीनी अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप बताता है। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने चीन को लेकर सीमा पर कठोर दृष्टिकोण अपनाया है जिससे कुछ सुधार की सभावना बनी है परन्तु हानि तो बहुत हो चुकी है।

तिब्बत पर चीनी आक्रमण और अधिकार वह भारत के लिये घातक है, वहीं मानवता के लिये तिब्बत की जनता के साथ घोर अन्याय है। दासता का भारत ने सैंकड़ों वर्षों तक अनुभव किया है। विगत साठ वर्षों से चीन तिब्बत में वे सब अत्याचार कर रहा है, जो एक क्रूर शासक अपने आधीन के साथ कर सकता है। चीन तिब्बत में विकास के नाम पर तिब्बत में सड़कों का जाल बिछा रहा है, दुर्गम पहाड़ियों पर रेल पहुँचाने का काम चल रहा है। यह कार्य कोई तिबती जनता के लिये नहीं किये जा रहे हैं अपितु भारत की सीमा पर सेना की पहुँच के लिये तथा विदेशों से व्यापार की सुविधा के लिये आवागमन को सरल बनाया जा रहा है। जैसे हमारे देश में अंग्रेज सरकार ने रेल व सड़क का निर्माण भारतीय जनता की सुविधा के लिए नहीं किया था, उसने भी सेना को युद्ध क्षेत्र तक पहुँचाने और सामान को बन्दरगाहों तक भेजने के लिए सड़क और रेल का जाल बिछाया था, भोली-भाली जनता समझती है, अंग्रेज सरकार ने भारत का बड़ा विकास किया है और भारतीयों का कितना उपकार किया है। जब कोई देश दूसरे देश पर अधिकार करता है तो वह वहाँ के चिह्न मिटाने का प्रयास करता है। उस देश के अस्तित्व को मिटाता है। इसमें वहाँ की भाषा, शिक्षा, वेशभूषा, भोजन, संस्कृति, परपरा इन सबको नष्ट करने का काम प्रत्येक शासक अपने आधीन देश के साथ करता है। जो तिब्बत तीन भागों में विभक्त था, उसे चीन ने प्रशासनिक सुविधा के लिये छः भागों में बाँट दिया और तिब्बत में वहाँ के धर्म को समाप्त किया, वहाँ चीनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया। तिब्बत की प्राचीन भाषा, लिपि, शिक्षा, शिक्षण सबको प्रतिबन्धित कर दिया। अलगाववाद क्षेत्रवाद के संघर्ष का बीजारोपण किया। तिबतियों को तिब्बत में द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना दिया। वहाँ के छः हजार से अधिक मठ-मन्दिरों का विनाश कर दिया, सपत्ति लूट ली गई। मठ जला दिये गये। भिक्षु, भिक्षुणियों को मार दिया गया या बन्दी बना लिया गया। तिब्बत के भाग को परमाणु परीक्षण का स्थल बनाकर परमाणु कचरे का ढेर बना दिया। किसी भी देश को कितना भी पद दलित किया जाये परन्तु वहाँ की आत्मा प्रतिक्रिया करती है। तिबती जनता ने भी चीनी अत्याचारों के विरोध में आन्दोलन किये हैं। सामूहिक रूप से विरोध प्रदर्शन किया है। एक सौ के लगभग तिबतियों ने चीनी अत्याचारों के विरोध में आत्मदाह किया है, बलिदान हुए हैं। चीनी सरकार का विरोध तिबती जनता में निरन्तर चल रहा है। अभी तक साड़े बारह लाख तिबती चीनी अत्याचारों के कारण मृत्यु के ग्रास बन चुके हैं। आज तिबतियों से अधिक संया तिब्बत में चीनियों की है, जहाँ तिब्बत में साठ लाख तिबती हैं, वहाँ पिचहत्तर लाख चीनियों को चीन सरकार ने लाकर बसा दिया है और तिबती नागरिक अपने देश में अल्पसंयक होने के लिये विवश हैं।

यह एक दुर्योग है जब हम स्वतन्त्रता की वर्षगाँठ मनाते हैं तभी तिब्बत अपनी दासता की अवधि पर आँसू बहाता है।

आज इस तिब्बत के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीयों द्वारा समर्थन किया जाना चाहिए। यह एक राष्ट्रहित के साथ अन्तर्राष्ट्रीय और मानवीय कर्त्तव्य है।

जैसी स्वतन्त्रता की बात का समर्थन फिलीस्तीन आदि के लिए करते हैं, उसी प्रकार भारत सरकार को तिब्बत की स्वतन्त्रता का समर्थन करना चाहिए।

तिब्बत की निर्वासित सरकार का केन्द्र भारत में है। तिब्बत की सरकार और उसकी संसद के अधिवेशन हिमाचल प्रदेश के मेक्डोलगंज में होते हैं। यहाँ तिब्बत के वैध शासक दलाई लामा का स्थान है। जहाँ से वे निर्वासित सरकार का संचालन करते हैं। उनका स्वराज्य के लिये मन्त्र है-           यते महि स्वाराज्ये।

वैदिक धर्म प्रेमी एवं दयानन्दभक्त श्री शिवनाथ आर्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

यस्य कीर्ति सः जीवति

श्री शिवनाथ आर्य हमारी युवावस्था के दिनों के निकटस्थ मित्र थे। उनसे हमारा परिचय आर्यसमाज धामावाला देहरादून में सन् 1970 से 1975 के बीच हुआ था। दोनों की उम्र में अधिक अन्तर नहीं था। वह अद्भुत प्रकृति वाले आर्यसमाजी थे। उनके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण मैं उनकी ओर खिंचा और हम दोनों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बन गये जो समय के साथ साथ निकटतर व निकटतम होते गये। श्री शिवनाथ जी हमारे ही मोहल्ले में हमारे घर से लगभग 500 मीटर की दूरी पर एक किराये के भवन में रहते थे। पांच पुत्रों और दो पुत्रियों का आपका भरापूरा परिवार था। आप देहरादून के कपड़ों के प्रसिद्ध बाजार रामा मार्किट में एक दर्जी की दुकान पर कपड़े सिलने का काम करते थे। आप पुरूषों की कमीजें सिलते थे और आपको प्रति कमीज के हिसाब से पारिश्रमिक मिलता था। रात दिन आपको आर्यसमाज के प्रचार की धुन रहती थी। दुकान के मालिक आपकी प्रकृति व प्रवृत्ति से भलीभांति परिचित थे। जब आपको कोई बात सूझती तो आप दुकान से निकल पड़ते और घंटे दो घंटे बाद दुकान पर आ जाते और काम करने लगते। हम भी यदा कदा आपकी दुकान पर जाते आते थे और दुकान के स्वामी से बातें करते थे जो बहुत सज्जन व व्यवहार कुशल थे। शिवनाथ जी अच्छी बातें सीखने की प्रवृत्ति भी थी। यही कारण था कि आपने अपने बच्चों से कामचलाऊ हिन्दी पढ़ना व लिखना सीख लिया था। आप आर्यसमाज की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं को पढ़ते थे और अपनी प्रतिक्रियायें भी भेजते थे जो यदाकदा पत्रों में छप जाती थीं। हमने भी ऐसी कई प्रतिक्रियायें पढ़़ी थी।

 

कुछ समय बाद आपने एक किराये की दुकान ली और स्वतन्त्र रूप से वस्त्र सिलने का काम आरम्भ कर दिया। हमने भी एक बार पैण्ट शर्ट सिलवाया परन्तु हमारा अनुभव अच्छा नहीं रहा क्योंकि फिटिंग में कमियां थी। हमारे मोहल्ले में अन्य कई मित्र भी रहते थे जो आर्यसमाज से संबंधित थे। प्रमुख व्यक्ति इंजीनियर सत्यदेव सैनी थे। इनका निवास हमारे और श्री शिवनाथ जी के निवास के मध्य में था। सैनी जी आवास विकास परिषद में अवर अभियंता-जेई के रूप में सर्विस करते थे। देहरादून में जब हरिद्वार रोड़ पर नेहरू कालोनी के नाम से आवासीय भवनों का निर्माण हुआ तो, श्री सैनी जी ने मार्गदर्शन कर शिवनाथ जी के लिये भी एक आवास बुक करा दिया था जो उन्हें आवास बन जाने व उनको अलाट होने पर किस्तों में लिया था। आज भी आपका परिवार इसी मकान में रहता है। हमारे मोहल्ले के एक अन्य महत्वपूर्ण आर्यसमाजी बन्धु श्री धर्मपाल सिंह थे जो पहले पोस्टमैन बने, फिर केन्द्रीय जल संसाधन कार्यालय में नियुक्त हुए और बाद में उत्तर प्रदेश लेखकीय सेवा में नियुक्त हुए थे। आपका निवास हमारे निवास से कुछ मकानों के अन्तर पर ही था। हम दोनों एक ही स्कूल श्री गुरूनानक इण्टर कालेज में पढ़े थे। घर्मपाल जी कला विषय पढ़ते थे और मैं विज्ञान व गणित का विद्यार्थी था, अतः दोनों की कक्षायें अलग अलग थी। पता नहीं कैसे, हम दोनों में निकटता हो गई और उन्हीं की निकटता, मित्रता, व्यवहार एवं प्रेरणा से मैं भी आर्यसमाजी बन गया। धर्मपाल जी को आर्यसमाज की पुस्तके पढ़ने का बहुत शौक था और सैकड़ों की संख्या में उनके यहां साहित्य था। मैं भी उनसे प्रेरित होकर पुस्तके खरीदने और पढ़ने लगा था और पढ़ने का मेरी प्रवृत्ति, रूचि वा शौक आज भी पूर्ववत जारी है। उनके व अन्य मित्रों के साथ अनेक बार दिल्ली व अन्यत्र अनेक कार्यकर्मो में जाने का अवसर मिला था। 31 अक्तूबर सन् 2000 को वह अपने विभागीय कार्य से ट्रैकर से पौडी जा रहे थे जो ऋषिकेश पास दुर्घटनाग्रस्थ हो गया था जिससे उनकी मृत्यु हो गई और वह हमसे सदा सदा के लिए बिछुड़ गये।

 

श्री शिवनाथ जी ने अपने आर्य एवं आर्यसमाजी बनने की घटना हमें दो या तीन अवसरों पर सुनाई थी जो अत्यन्त मार्मिक एवं प्रभावकारी है। उन्होंने बताया था कि एक बार वह किसी आर्यसमाज के सत्संग में जा पहुंचे। वहां एक विद्वान का प्रवचन चल रहा था। उन्होंने प्रवचन सुना। वक्ता महोदय ने एक घटना सुनाते हुए कहा था कि एक पिता अपने किशोर अवस्था वाले पुत्र को पढ़ाई करने के लिए बहुत ताड़ना किया करते थे। वह पुत्र इससे उनका विरोधी हो गया और उसने उन्हें समाप्त करने की योजना बना डाली। एक दिन वह बालक स्कूल जाने के बजाये एक बड़ा पत्थर लेकर घर की छत पर जा पहुंचा। वहां एक ऐसा स्थान बना था कि यदि वह उसे छोड़ता तो वह सीधा कार्यालय जाने से पूर्व नाश्ता कर रहे पिता के सिर पर गिरता और इससे उनकी मृत्यु हो जाती। इससे पूर्व कि बालक अपनी योजना को अंजाम देता, नाश्ता करने से पूर्व उस बालक की मां ने पिता को पुत्र की ताड़ना करने वा डांटने का विरोध करते हुए उन्हें उससे प्रेम पूर्वक व्यवहार करने की विनती की। इस पर पिता ने अपनी धर्मपत्नी को बताया कि वह अपने पुत्र उससे कम प्यार नहीं करते अपितु सभी पिताओं से कुछ अधिक प्यार करते हैं। वह चाहते हैं कि उनका पुत्र बड़ा होकर बहुत योग्य मनुष्य बने। ऐसा न हो कि बड़ा होकर वह अपने मित्रों से पिछड़ जाये और उसे सारा जीवन पछताना पड़े। यही कारण है कि वह पढ़ाई में उससे सख्ती करते हैं क्योंकि इसी से उसका जीवन बनेगा। बालक ने पिता की बातें ध्यान से सुनी तो उसके मन से उनके प्रति घृणा व ईर्ष्या दूर हो गई। वह नीचे उतरा और पिता के पास गया और उन्हें अपनी योजना के बारे में बताकर क्षमा याचना की और भविष्य में अपनी पूरी क्षमता से पढ़ाई करने का उन्हें आश्वासन दिया। सत्संग में व्याख्यान दे रहे वक्ता ने बताया कि बाद में यह बच्चा अपने सभी मित्रों से आगे निकल गया और विद्वान व धनी व्यक्ति बना। शिवनाथ जी जब इस घटना को सुनाते थे तो उनकी व सुनने वालों की आंखों में अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती थी। इस प्रवचन वा घटना से प्रभावित होकर वह आर्य समाजी बने थे और उन्होंने सच्चा धार्मिक व सामाजिक जीवन व्यतीत किया।

 

श्री शिवनाथ आर्य की प्ररेणा पर हमने वेदों व आर्यसमाज का प्रचार करने के लिए एक वेद प्रचार समिति, देहरादून का गठन भी किया जिसके प्रधान श्री सत्यदेव सैनी बनाये गये थे। मैं भी कुछ कार्य देखता था। श्री शिवनाथ आर्य, श्री धर्मपाल सिंह एवं एलआईसी में कार्यरत बहिन श्रीमति फूलवती जी, उनके पति शर्मा जी, माता सुभद्रा जी आदि इसके सक्रिय सदस्य थे। हम सब लोग मिल कर प्रत्येक रविवार को पारिवारिक वैदिक सत्संग करते थे। आरम्भ में यज्ञ, फिर भजन और अन्त में प्रवचन होता था। इस समिति के अन्तर्गत एक बार देहरादून के प्रमख सरकारी अस्पताल दून चिकित्सालय में वृहत यज्ञ व सत्संग का आयोजन किया गया था। देहरादून में एलआईसी का जब भव्य नवीन भवन बना तो उसका उदघाटन भी यज्ञ व सत्संग से ही किया गया था। एक वृहत योग शिविर एवं वेद विद्या पर स्वामी सम्बुद्धानन्द जी के आर्यसमाज धामावाला देहरादून में एक सप्ताह तक योग प्रशिक्षण एवं प्रवचन आदि सम्पन्न किये गये थे। ऐसी अनेक गतिविधियां श्री शिवनाथ जी के साथ मिलकर हमने 1990 व 2000 के दशक में की थी। एक बार आर्यजगत के विख्यात विद्वान, नेता और संन्यासी स्वामी नारायण स्वामी जी की कर्मस्थली नैनीताल से कुछ दूरी पर स्थित रामगढ़़ तल्ला में एक तीन दिवसीय आयोजन हुआ। हमने अपने और कुछ मित्रों के रेल टिकट बुक करा लिये थे और शिवनाथ जी को कार्यक्रम के बारे में सूचित कर दिया था। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब हमारे वहां पहुंचने के कुछ समय बाद वह भी अनेक असुविधायें झेलते हुए पहुंच गये थे। आर्यसमाज व वैदिक धर्म में उनकी आस्था व श्रद्धा निःसन्देह प्रशंसनीय थी। श्री शिवनाथ जी की कमजोर आर्थिक स्थिति व बड़े परिवार को देखते हुए उनके लिए यह जोखिम का कार्य था। इससे उनको कार्य करके मिलने वाले धन की क्षति होने के साथ व्यय भी करना पड़ा था। मित्रता के नाते उन्होंने वहां पहुंच कर हमें अनेक उलाहने दिये। कहा कि आप मुझे अपने साथ नहीं लाये आदि। एक बार एक सन्यासी देहरादून में उन्हें मिल गये और वह उनके साथ अपने परिवार वालों को बिना बताये उत्तराखण्ड के पर्वतों की ओर भ्रमण पर निकल गये। घरवाले व हम परेशान थे। अनिष्ट की आंशका भी हुई। मोबाइल फोन उन्होंने कभी रखा नहीं था। हमने देहरादून के सरकारी अस्पतालों व पुलिस स्टेशन आदि जाकर पता किया परन्तु कुछ पता नहीं चला। लगभग 1 सप्ताह बाद वह घर आ गये तब पूरी बात का पता चल सका। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं थी कि उनकी अनुपस्थिति में घर वालों पर क्या बीती थी। इससे यह पता चलता है कि वह अपनी घुन के धुनी थे और परिवार के मोहपाश में कम ही बंधे हुए थे।

 

श्री शिवनाथ जी को प्रवचन करने का अभ्यास भी हो गया था। हम जहां सत्संग करते थे वहां अन्य विद्वानों के साथ श्री शिवनाथ जी प्रायः प्रवचन भी किया करते थे। इन पंक्तियों को टाइप करते हुए सन् 1995 के देहरादून के कुछ समाचार पत्रों की कतरने हमारे सम्मुख आ गईं हैं जिनमें श्री शिवनाथ जी के प्रवचन प्रकाशित हुए हैं। एक समाचार का शीर्षक है श्रेष्ठ कर्म मनुष्य को द्विज बनाते हैं: आर्य’, अन्य समाचारों के शीर्षक हैंजन्म से सभी शूद्र होते हैं: शिवनाथ आर्य,  ‘कायर लोग ही धर्मान्तरण करते हैं: शिवनाथ तथाराम, कृष्ण एवं दयानन्द गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की देन थे: शिवनाथ आदि।

 

श्री शिवनाथ जी स्वयं को राजनीति से भी जोड़कर रखते थे। जब भी देहरादून नगर पालिका के सभासदों वा पाषर्दों के चुनाव होते थे तो वह भी चुनाव में खड़े होते थे। उन्हें कोई वोट मिलेगा या नहीं, इसकी चिन्ता उन्हें नहीं थी। इसी बहाने वह अपना चुनाव प्रचार करते थे और साथ में आर्यसमाज का भी प्रचार उसमें शामिल कर लेते थे। उनकी एक दो सभाओं में हम भी गये और उन्होंने वहां हमसे भी भाषण दिलवाया था। इसी प्रकार से वह दलित समाज के भी अनेक कार्यक्रमों में जाते थे। हमें प्रायः साथ रखते थे और वहां वह प्रवचन भी करते थे। लोगों को हमारा परिचय देते हुए हमारी दिल खोल कर प्रशंसा करते थे। एक बार कृष्ण जन्माष्टी के पर्व पर उन्होंने हमें भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए विवश किया था। हमने उस समय श्री कृष्णजी के बारे में आर्यसमाज का दृष्टिकोण रख दिया था। इसके साथ ही हमने वहां लोगों को अपने बच्चों को शिक्षित करने तथा अपने परिवारों को शराब व मांस के रोग से मुक्त रखने व शुद्ध शाकाहारी भोजन करने के लिए समझाया था। अनेक अवसरों पर अनेक दलित परिवारों में भी उन्होंने पारिवारिक यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन किया और सभी जगह वह हमें अपने साथ ले जाते थे। इससे हमें दलित बन्धुओं से मिल कर उनकी कुछ समस्याओं का ज्ञान भी होता था। हिन्दू समाज का यह दुर्भाग्य है कि यह परमात्मा की सन्तानों, अपने भाईयों से छुआ-छूत, ऊंच-नीच जैसा अमानवीय व्यवहार करते हैं। आर्यजगत के प्रसिद्ध गीतकार एवं गायक कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर ने गुलामी के दिनों में एक बार पेशावर में कहा था कि हिन्दू कुत्ते व बिल्ली के बच्चों को तो प्यार करते हैं, अपनी गोद में उठा लेते हैं परन्तु अपने ही भाईयों को दुतकारते व अपने से दूर रखते हैं। इस पर पेशावर में कुंवर सुखलाल जी पर अंग्रेज सरकार द्वारा अभियोग भी चलाया गया था।

 

श्री शिवनाथ जी बहुत पुरूषार्थ करते थे तथा इसके विपरीत उन्हें पौष्टिक भोजन, अन्न, दुग्ध, फल व मेवे आदि शायद ही कभी भली प्रकार से प्राप्त हुए हों। इसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक था। इससे सम्बन्धित भी हमारी स्मृति में कुछ घटनायें हैं। सन् 2001 में देहरादून में आर्यसमाज के प्रमुख विद्वान श्री अनूप सिंह जी कैंन्सर रोग से पीडि़त थे। श्री अनूपसिंह जी का हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में बहुत मनोवैज्ञानिक प्रभाव रहा है। उनसे व उनके परिवार से हमारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। 21 जून, 2001 को उनकी दिल्ली के पन्त हास्पीटल में मृत्यु हुई थी। उन्हें देहरादून लाया गया और उसके अगले दिन हरिद्वार में गंगा के तट पर उनका वैदिक रीति से अन्तिम संस्कार किया गया था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्होंने हरिद्वार में गंगा के तट पर साधारण तरीके से अन्त्येष्टि की हमसे इच्छा भी व्यक्त की थी। मृत्यु का समाचार मिलने पर श्री शिवनाथ जी उनकी शवयात्रा में भाग लेने के लिए उनके घर साइकिल चलाकर आ रहे थे। तभी रास्ते में उनके सीने में दर्द हुआ। शायद यह हल्का हृदयाघात था। उन्होंने सड़क के किनारे लेट कर कुछ क्षण आराम किया और उसके कुछ समय बाद अनूपसिंह जी के घर पहुंच गये। वह शवयात्रा के साथ हरिद्वार गये और अन्त्येष्टि में शामिल हुए। वहां उन्होंने हमसे कभी कभी होने वाले अपनी पीठ के दर्द की चर्चा की थी और किसी अच्छे डाक्टर के बारे में पूछा था। हमने सरकारी अस्पताल दून चिकित्सालय का नाम उन्हें बताया था। हरिद्वार से देहरादून की वापिसी में वह हरिद्वार ही छूट गये। कारण यह था उन्हें पुनः हृदय में दर्द उठा। उन्होंने एक दर्द की गोली ली और उसे खा कर सड़क पर ही आराम किया। हम सभी मित्रों में किसी का भी उनकी ओर ध्यान नहीं गया। उनके रोग से भी हम अपरिचित थे। किसी तरह रात्रि को वह घर पहुंचे और मेहमानों से बातें कर रहे थे। तभी उन्हें पुनः हृदयाघात हुआ। बच्चे उन्हें तुरन्त कारोनेशन चिकित्सालय ले गये जहां परीक्षा के दौरान ही डाक्टर की बाहों में ही उनका प्राणान्त हो गया। यह दिन 22 जून, सन् 2001 था। इस प्रकार से हमारा यह पुराना व सुख दुख का साथी व सहयोगी हमसे दूर चला गया। उनके जाने के बाद हमारे अनेक मित्र एक एक करके संसार से चले गये परन्तु उनका स्थान लेने वाला उन जैसा मित्र हमें नहीं मिला। आज भी हमें उनका अभाव अनुभव होता है। अपनी श्रद्धाजंलि के रूप में हमने यह कुछ शब्द लिखे हैं। श्री शिवनाथ आर्य जी को हम विनम्र श्रद्धाजंली अर्पित करते हैं।

 

                        ‘‘पत्ता  टूटा  पेड़ सेले  गई  पवन उड़ाये।

            अबके बिछड़े कभी मिलेंगे दूर पड़ेगें जाये।।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

इस्लाम शान्ति का मज़हब!

आज विश्व आतंकवाद से लड़ रहा है. विश्व का प्रत्येक देश किसी न किसी रूप में इस समस्या से ग्रस्त है. आतंकवाद का भयानक रूप आज मुस्लिम देशों में देखने को मिल रहा है . पाकिस्तान अफगानिस्तान इरान ईराक सीरिया इत्यादि देश आतंकवाद के प्रजनन की धुरी बने हुए हैं .ये  सभी देश इस्लामिक मान्यताओं से ताल्लुक रखते हैं और इनमें पनप रहे आतंकवादी संगठन भी इस्लाम को विश्व भर में फैलाने का सपना संजोये हुए तहे दिलो जान से आतंकवाद के माध्यम से विश्व के इस्लामीकरण के सपने को संजोये बेकसूरों के रक्त से होली खेल रहे हैं .

मुस्लिम विद्वानो और प्रचारकों के अनुसार इस्लाम शान्ति का सन्देश देता है और इस्लाम का शाब्दिक अर्थ भी शांती ही है . मुहम्मद साहब इस्लाम के आखिरी नबी ( हालांकि  नबी होने का  दावा मुहम्मद साहब के बाद भी कई लोगों ने किया है ) हैं . और मुहम्मद साहब अल्लाह द्वारा दिए गए शांति के सन्देश के प्रचारक थे . लेकिन इस्लाम की यह शाब्दिक शान्ति व्यावहारिक रूप में कितनी परिवर्तित हो पाई है या केवल एक छलावा है यह एक विचारणीय विषय है .

किसी भी मत की मान्यताएं उसके इतिहास से प्रदर्शित होती हैं . इस्लाम का मूल मुहम्मद साहब और उनका आचरण है. आइये इस्लामिक इतिहास के इस तथ्य पर नज़र डालते हैं कि क्या वास्तव में मुहम्मद साहब का आचरण शान्ति के प्रचार प्रसार को फलीभूत करने वाला था ?

सुरा अल सफ्फात ३३ की आयात १७७ :

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“फिर जब अजाब उनके आँगन में उतरेगा तो उन लोगों को की सजा बड़ी होगी जिन्हें डराया गया था “

सहीह मुल्सिम की व्याख्या में अब्दुल हामिद सिद्दकी साहब ने कुरान की इस आयत को नीचे दी हुयी हदीस के साथ जोड़ा है :

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अनास से रिवायत है कि मुहम्मद साहब ने एक अभियान खैबर की तरफ रवाना किया. हमने सुबह की नमाज अदा की . मुहम्मद साहब और अबु ताल्हा घोड़े पर सवार हो गए. मैं ( अनास ) अबू ताल्हा के पीछे बैठा था. हम  खैबर की तंग गलियों में घुस गए .जैसे ही वो निवास स्थान पर पहुंचे जो अल्लाह हु अबकर जोर बोला. खैबर तबाह हो चूका था .हम लोगों के मध्य में थे जिनको पहले सचेत किया जा चूका था.  लोग जब दैनिक कर्म के लिए बाहर निकले तो पता चला कि मुहम्मद साहब ने अपनी सेना के साथ कब्ज़ा कर लिया है .मुहम्मद साहब ने कहा की खैबर की भूमि अब हमारे स्वामित्व में है हमने बलपूर्वक इसे ले लिया है . लोग अब युद्ध बंदी थे .

हदीस आगे कहती है कि दिह्या मुहम्मद साहब के पास आकर बोला कि अल्लाह के रसूल मुझे बंदियों की लड़कियों में से एक लड़की दे दीजिये. मुहम्मद साहब ने कहा कि जाओ और किसी को भी ले लो . उसने हुयायाय की लड़की साफिया को पसंद किया .

एक व्यक्ति ने मुहम्मद साहब के पास आकर कहा की आपने दिह्या को दे दिया वो केवल आपके लिए है . मुहम्मद साहब ने कहा की साफिया को दिह्या के साथ बुलाया जाए . मुहम्मद साहब के साफिया को देखकर कहा कि दिह्या कोई दूसरी लड़की ले लो और मुहम्मद साहब ने साफिया को मुक्त कर उससे निकाह कर कर लिया .

 

सहीह मुल्सिम की व्याख्या में अब्दुल हामिद सिद्दकी साहब लिखते हैं कि इस्लाम में  युद्ध बंदियों को गुलाम बना के रखा जा सकता है. इन लोगों को फिरोती लेकर  मुक्त किया  जा सकता है.

 

घटना इस  प्रकार है कि खैबर के लोगों को मुहम्मद साहब ने उनके द्वारा पोषित दीन अर्थात इस्लाम कबूल करने की राय दी थी और जब उन लोगों ने इस्लाम नहीं कबूला मुहम्मद साहब को आखिरी नबी मानने से इनकार कर दिया तो मुहम्मद साहब अपनी सेना लेकर उनके घरों  में घुस गए और खैबर पर कब्ज़ा कर लिया . यह है इस्लाम के संस्थापक का शान्ति का पैगाम.

उपर्युक्त घटना के निम्न मुख्य पहलू हैं:

  • मुहम्मद साहब ने खैबर के jews को इस्लाम कबूल करने के लिए परामर्श दिया और एक अवधि निर्धारित कर दी .
  • निर्धारित अवधी में इस्लाम न कबूलने पर ये आयात उतार दी गयी की इस्लाम न कबूलने पर अज़ाब उतारा जायेगा (“फिर जब अजाब उनके आँगन में उतरेगा तो उन लोगों को की सजा बड़ी होगी जिन्हें डराया गया था “सुरा अल सफ्फात ३३ की आयात १७७
  • जब खैबर के लोगों ने इस्लाम नहीं कबूला तो उन पर अचानक आक्रमण कर दिया गया और उन्हें संभलने का मौक़ा तक नहीं दिया गया
  • औरतों को बंदी बना लिया गया और लुट के माल के तरह उनको भी बाँट लिया गया .
  • खैबर की सम्पदा लूट ली गयी

इस्लाम के इतिहास की ये केवल एक घटना है. इतिहास में  अनेकों ऐसी घटनायें हैं.

अपने मत से सहमत न होने पर किसी व्यक्ति या समूह या देश पर आक्रमण कर उसे तबाह कर देना सम्पदा को लूट लेना औरतों को लूट के माल की तरह बाँट लेना और इसको शान्ति का सन्देश करार देना कहाँ तक तर्कसंगत है ?

पाठक गण विचार करें !