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‘महान आर्य संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म एवं संस्कृति के उन्नयन में स्वामी श्रद्धानन्द जी का महान योगदान है। उन्होंने अपना सारा जीवन इस कार्य के लिए समर्पित किया। वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्तों को उन्होंने अपने जीवन में धारण किया था। देश भक्ति से सराबोर वह विश्व की प्रथम धर्म-संस्कृति के मूल आधार ईश्वरीय ज्ञान ‘‘वेद के अद्वितीय प्रचारकों में से एक थे। शिक्षा जगत, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन, समाज व जाति सुधार, बिछुड़े हुए धर्म बन्धुओं की शुद्धि, दलितों के प्रति दया से भरा हृदय रखने वाले तथा उनकी रक्षा में तत्पर, आर्यसमाज के महान नेताओं में से एक, आदर्श सद्गृहस्थी, कर्तव्य पालन में अपना सर्वस्व व प्राण समर्पित वाले अद्वितीय महापुरुष थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि जिसे जानकर प्रत्येक सात्विक हृदय वाला व्यक्ति उनका अनुयायी बन जाता है। महर्षि दयानन्द के बाद आर्यसमाज और देश में उनके समान गुणों वाला व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ। प्रसिद्ध आर्य वैदिक संन्यासी स्वामी डा. सत्य प्रकाश सरस्वती ने उनसे सम्बन्धित अपने कुछ संस्मरणों को प्रस्तुत करने के साथ उनके कार्यों पर अपनी राय भी दी है। इसी पर आधारित हमारा यह लेख है।

 

सन् 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अवसर पर लखनऊ में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने महात्मा मुंशीराम  के दर्शन किए थे। 1914-15 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे और जनता में गांधी जी की लोकप्रियता बढ़ रही थी। नरम दल के नेता कांग्रेस से अलग हो गए थे और उन्होंने अपनी आल इण्डिया लिबरल फैडरेशन संघटित करना आरम्भ कर दिया था। गरम दल के व्यक्तियों के हृदय सम्राट् लोकमान्य तिलक जी थे। 8 अप्रैल, 1915 को गुरुकुल कांगड़ी में महात्मा मुंशीराम के आश्रम में मिस्टर गांधी आये और ‘‘महात्मा गांधी बन करके वहां से निकले। महात्मा मुंशीराम जी ने ही गांधी जी को गुरुकुल में पधारने पर पहली बार उनको महात्मा शब्द से सम्बोधित किया था, यह महात्मा शब्द इसके बाद आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा। यही गांधी जी के महात्मा गांधी बनने का इतिहास है। सन् 1916 की कांग्रेस में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने गांधी जी और मंुशीराम जी दोनों को राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्बन्धी एक समारोह में देखा था। दोनों की वेशभूषा की रूपरेखा बराबर उनकी आंखों के समाने बनी रही, ऐसा उन्होंने अपने लेख में वर्णित किया है। तब वहां महात्मा मुंशीराम जी भव्य दाढ़ी, सुदृढ़ शरीर और गले के नीचे पीत वस्त्र तथा गांधी जी अपनी काठियावाड़ी पगड़ी, अंगरखा और नंगे पैर उपस्थित थे। इसके बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी प्रयाग आ गये। वहां आर्यकुमार सभा के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानन्द जी आये थे और तब स्वामी सत्यप्रकाश जी ने उन्हें निकट से देखा। स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रयाग में नयी सड़क के एक दुमंजिले मकान में ठहराया गया था।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यह भी वर्णन किया है कि 26 दिसम्बर 1919 को अमृतसर कांग्रेस में स्वामी श्रद्धानन्द स्वागताध्यक्ष थे और पं. मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष। किम्वदन्ती है कि दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना–दोनों सहपाठी थे बनारस, इलाहाबाद, आगरा या बरेली में से किसी स्थान पर। महात्मा मुंशीराम जी की प्रारम्भिक शिक्षा बरेली में हुई, 1873 में उच्च शिक्षा क्वीन्स कालेज बनारस में, 1880 और पुनः 1888 में कानूनी शिक्षा लाहौर में। महात्मा मुंशीराम जी का नाम श्रद्धानन्द संन्यास के बाद पड़ा। संन्यास उन्होंने 12 अप्रैल 1917 को मायापुर (कनखल) में लिया था। स्वामी सत्यप्रकाश जी सन् 1915-16 में इन्द्र विद्वद्यावाचस्पति और पौराणिकों की बातें सुना करते थे, क्योंकि 1912-16 तक सनातन धर्म सभाओं की बड़ी धूम थी–ये सनातन धर्म सभाएं धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गयीं।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने अपने संस्मरणों में बताया है कि सन् 1925 ई. में मथुरा में जो महर्षि दयानन्द जन्म शताब्दी मनायी गयी थी उसके अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द थे–तब तक उनका स्वास्थ्य गिर चुका था और महात्मा नारायण स्वामी जी वस्तुतः उस समारोह के कार्यकर्त्ता अध्यक्ष थे। आनन्द भवन में होने वाली कांगे्रस की बैठकों में 1922 ई. के बाद भी स्वामी जी इलाहाबाद कतिपय बार आये। 1921 ई. के अप्रैल मास में पं. मोतीलाल जी की पुत्री विजयलक्ष्मी के विवाह में भी स्वामी श्रद्धानन्द जी सम्मिलित हुए थे पर मोपला काण्ड (मालाबार, केरल) के बाद श्रद्धानन्द जी कांग्रेस से धीरे-धीरे अलग हो गये। स्वामी दयानन्द ने मृत्यु के समय आर्यसमाज का नेतृत्व किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं छोड़ा था। ईश्वर के भरोसे मानों वे चल दिये। 1883 ई. के बाद स्वयं ही आर्यसमाज में व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन व्यक्तियों में श्रद्धानन्द का इतिहास ही आर्यसमाज का इतिहास है। इस युग के अन्य लोगों में महात्मा हंसराज, पं. गुरुदत्त, पं. लेखराम, लाला लाजपतराय, स्वामी दर्शनानन्द और स्वामी नित्यानन्द का भी अभूतपूर्व व्यक्तित्व था।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने इस शती के प्रथम पाद में भारत के इतिहास में मार्मिक भूमिका निभायी। आर्यसमाज में दयानन्द के बाद श्रद्धानन्द-सा दूसरा व्यक्ति देखने में नहीं आया। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की 1924 ई. में प्रकाशित कल्याणमार्ग का पथिक आत्मकथा को पढ़ा, उनके पास उनका और गुरुकुल कांगड़ी में श्रद्धानन्द जी सहयोगी आचार्य रामदेव जी द्वारा सम्पादित आर्यसमाज एण्ड इट्स डिटैक्टर्स विण्डिकेशन प्रसिद्ध ग्रन्थ था। दुःखी दिल की पुरदर्द दास्तान उन्होंने नहीं पढ़ी। ( उर्दू में लिखित यह ग्रन्थ आर्यसमाज के आन्तरिक विग्रह की कष्ट कथा है।  इसका अनुवाद हरिद्वार निवासी हिन्दी कवि श्री सुमन्त सिंह आर्य ने किया है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। कुछ विद्वान इसमें समाहित आलोचनाओं के कारण इसके प्रकाशन की आवश्यकता नहीं समझते। हमारी अनुवादक महोदय से भेंट हुई है। उन्होंने बताया कि यह ग्रन्थ उन्होंने प्रकाशनार्थ आर्यविद्वान डा. महावीर अग्रवाल जी को दिया हुआ है।)। श्रद्धानन्द जी विषयक सबसे अधिक बातें स्वामी सत्यप्रकाश जी को स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आस्ट्रेलियाई प्रो. जे.टी.एफ. जार्डन्स की पुस्तक से ज्ञात हुईं।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी पर कई टिप्पणियां की हैं। वह लिखते हैं कि गुरुकुल के अनगिनत स्नातकों के कुलगुरु महात्मा मुंशीराम थे, न कि श्रद्धानन्द। मुंशीराम और श्रद्धानन्द तो दो अलग व्यक्तित्व हैं। मुंशीराम के रूप में वे महात्मा थे, गांधी के अत्यन्त निकट, गुरुकुलीय प्रणाली के उन्नायक, शिक्षा के क्षेत्र में अनन्य प्रयोगी तथा टैगोर की समकक्षता के शिक्षाशास्त्री। दूसरा उनका स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द का रहा–सम्प्रदायवादिता मिश्रित राष्ट्र-उलझनों में फंसे हुए–कभी मालवीय के साथ, कभी महासभा के साथ, कभी उनसे दूर भागते हुए अत्यन्त विवादास्पद व्यक्तित्व, कभी-कभी निर्वाचनों की उलझनों में फंस जाने वाले व्यक्ति। उसका उन्हें पुरस्कार मिला–23 दिसम्बर, 1926 ई. को सायंकाल 4 बजे दिल्ली में अब्दुल रशीद की गोलियों से बलिदान । वे सदा के लिए अमर हो गए। अंग्रेजों की संगीनों के सामने छाती खोलकर खड़ा होने वाला वीर राष्ट्रभक्त संन्यासी श्रद्धानन्द का एक यह तेजस्वी रूप था। (महर्षि दयानन्द के बाद वैदिक धर्म के 7 मार्च, 1897 को एक विधर्मी आततायी द्वारा प्रथम शहीद पण्डित) लेखराम की पंक्ति में खड़ा कर देने वाला ऋषि दयानन्द का असीम भक्त अमर शहीद श्रद्धानन्द।

 

स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की और उसे अपने खून से सींचा। आज यह संस्था अपने मूल उद्देश्य व गौरवपूर्ण अतीत से दूर हो चुकी है। यह स्थिति हमें कई बार पीड़ा देती है। 23 दिसम्बर को स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान दिवस है। अतः इस अवसर पर उनके पावन जीवन चरित्र का अध्ययन कर अपने जीवन को सुधारा व पुण्यकारी बनाया जा सकता है। धर्म की वेदी पर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन चरित्र व उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर ही उनको श्रद्धांजलि दी जा सकती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रायः सभी ग्रन्थों को श्रद्धानन्द ग्रन्थावली के नाम से लगभग 27 वर्ष पूर्व 11 खण्डों में प्रकाशित किया गया था। इसका नया भव्य एवं आकर्षक संस्करण दो खण्डों में विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली से इसी माह प्रकाशित किया गया है। हम पाठकों को इसे मंगाकर पढ़ने की संस्तुति करते हैं। आईये, स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन व कार्यों को जानकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करें और वैदिक धर्म व संस्कृति की सेवा कर अपने जीवन को कृतार्थ एवं सफल करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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फोनः09412985121

‘स्वामी श्रद्धानन्द का पावन चमत्कारिक व्यक्तित्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

 

स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926), पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम, महर्षि दयानन्द के प्रमुख शिष्यों में से एक थे जिन्हें अपने धर्मगुरू के शिक्षा सम्बन्धी स्वप्नों को साकार करने के लिए हरिद्वार के निकटवर्ती कांगड़ी ग्राम में आर्ष संस्कृत व्याकरण और समग्र वैदिक साहित्य के अध्ययनार्थ गुरूकुल खोलने का सौभाग्य प्राप्त है। आर्यसमाज के इतिहास में स्वामी श्रद्धानन्द और प्राचीन आदर्शों व मूल्यों पर आधारित शिक्षण संस्था ‘‘गुरुकुल कांगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान है। हम अनुमान करते हैं कि यदि स्वामी श्रद्धानन्द आर्यसमाज में न आये होते तो आर्यसमाज का इतिहास अपने उज्जवल स्वरुप से कुछ निम्नतर होता। स्वामीजी का 23 दिसम्बर 1926 को दिल्ली में बलिदान हुआ था। इस अवसर पर उनके महान व चमत्कारिक व्यक्तित्व को स्मरण करना प्रत्येक देशवासी, आर्य व ऋषिभक्त का पुनीत कर्तव्य है। आर्यजगत के विख्यात विप्र संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ तीन अवसरों पर स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आये और उनके महान व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक उनके संस्मरणों को प्रस्तुत कर हम स्वामी श्रद्धानन्द जी की महानता और उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व का परिचय इस लेख में दे रहें हैं। आशा है कि पाठकों को पसन्द आयेगा।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रथम दर्शन लगभग सन् 1910 में किये थे। उस समय वह महात्मा मुंशीराम जी के नाम से विख्यात थे। आर्यसमाज के महात्मा विभाग वा घासपार्टी के उस समय वह एकमात्र नेता थे। उन दिनों आर्यजगत में उनकी ख्याति पूर्ण यौवन पर थी। जब स्वामी वेदानन्द जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के दर्शन किये तो उनकी भव्यमूर्ति, विशालकाय, सुदीर्घ शरीर संस्थान, नग्न सिर, सुन्दर दाढ़ी तथा पीले दुपट्टे ने उनके चित्त पर विचित्र प्रभाव डाला। संकोचवश इस भेट से पूर्व स्वामी वेदानन्द जी उनके सामने न जाना चाहते थे। वह समझते थे कि वे बड़े आदमी हैं और स्वामी वेदानन्द जी एक नगण्य लघुव्यस्क बालक से हैं। भला महात्मा मुंशीराम उनसे क्यों कुछ बातें करेंगे? स्वामी वेदानन्द जी का अनुमान था कि वह तो उनके अभिवादन प्रणाम-नमस्ते का प्रत्युत्तर भी न देंगे। वेदानन्द जी असंजस में थे कि तभी एक माननीय वृद्ध आर्य सज्जन ने उनसे कहा–‘‘हे ब्रह्मचारी जी ! महात्मा जी के दर्शन किये। स्वामी वेदानन्द जी ने उनसे कहा-‘‘नहीं, उन्हें भय लगता है। वह वृद्ध आर्य सज्जन हंसकर बोले ‘‘बिना देखे डरने लगे हैं। आप मेरे साथ चलिये। डर की कोई बात होगी, तो हम रक्षा करेंगे। स्वामी वेदानन्दजी उन वृद्ध सज्जन के उपहास मिश्रित व्यंग्य को समझ गये और साहस करके उनके साथ महात्मा जी के सामने चले गये। ज्यों ही महात्मा जी के उनको दर्शन हुए, उन्होंने तत्काल उनको प्रणाम किया। महात्मा जी ने बहुत प्रीति से उन्हें नमस्ते कह कर अपने पास बिठा लिया और उनका कुशल पूछकर उनसे बातें करने लगे। महात्मा जी के व्यवहार ने स्वामी वेदानन्द जी को मन्त्रमुग्ध कर दिया। इस व्यवहार से वह हैरान थे। बाद में उनकी समझ में आया कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के नेतृत्व का रहस्य उनका यही गुण था। वह किसी भी मनुष्य को तुच्छ समझते थे। 

 

स्वामी वेदानन्द जी ने लिखा है कि वह उस समय आर्यसमाज में नवप्रविष्ट थे। वह अपना भावी कार्यक्रम सोचने की चिन्ता में थे। उन दिनों उन्हें उत्साह एवं भय दोनों घेरे रहते थे। महात्मा मुंशीराम जी के प्रेम भरे प्रथम दर्शन ने उन्हें उत्साहित किया। स्वामी वेदानन्द जी को दूसरी बार सन् 1914 में महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन करने का सौभाग्य गुरूकुल कांगड़ी में मिला जो उन दिनों गंगा पार कांगड़ी ग्राम में था। वह गुरुकुल कांगड़ी का वार्षिकोत्सव देखने वहां आये थे। गुंरूकुल पहुंच कर वह सीधे महात्मा जी की गंगा के तीर पर स्थित कुटिया जो उन दिनों बंगला कहलाती थे, गये। उस समय महात्मा जी कार्य में व्यस्त थे। वेदानन्द जी की आहट सुनकर उन्होंने उनके प्रणाम करने से पहले ही स्वयं उनको प्रेम से नमस्ते की। वेदानन्द जी उन दिनों संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो चुके थे। उनके काषाय वस्त्रों को देखकर उन्होंने पूछा ‘यह क्या?’ वेदानन्द जी ने उत्तर दिया, आप ऐसे बूढ़े जब संन्यासी हो तो अनुपात पूरा रखने के लिए मुझ जैसों को ही संन्यासी बनना पड़ता है। उनके इस वचन पर महात्मा जी खिलखिला कर हंस पड़े। बोले–भाई ! तुम्हारा उपालम्भ शीघ्र उतार देंगे। वेदानन्द जी लज्जावश चुप रहे। महात्मा जी ने उन्हें जलपान करा कर कहा-भोजन के समय जाना। मेरे साथ भोजन करना।

 

इस दूसरी भेंट पर टिप्पणी करते हुए स्वामी वेदानन्द जी ने लिखा है–मैं चकित था। मैं समझता था, तीनचार वर्ष पूर्व देखे हुए एक तुच्छ से व्यक्ति को ऐसा महान् महात्मा कैसे स्मरण रख सकता है। किन्तु देखते ही उनका मुझे मेरे पुरातन नाम से पुकारना, मेरा इतने दिनों का वृत्त पूछना, संन्यासी होने के हेतु की जिज्ञासाउनकी इन सारी बातों ने मुझे उनका भक्त बना डाला। वह आगे लिखते हैं कि ‘उस दिन मैं उनके आदेशानुसार भोजन के समय पहुंचा, मैं कुछ उलूलजुलूलसा आदमी हूं। मैं उत्सवमण्डप में जाकर गंगा तीर पर जिधर वह जा रही है, उधर ही चला गया। कुछ दूर जाकर मैं एक स्थान पर बैठ गया। मैं भोजन की बात भूल गया। मैं कोई चार बजे लौटा। मुझसे उनके सेवक ने कहा कि महात्मा जी को आज तुम्हारे कारण उपवास करना पड़ा है। मेरी आंखों में आंसू गये। साथ ही हृदय में भय का संचार भी हुआ। मैं चला उनसे क्षमा मांगने। जब सामने गया और हाथ जोड़ कर क्षमा मांगने लगा तो मेरे हाथ पकड़ कर कहने लगे–‘‘भाई ! उत्सव के दिनों में ऐसी गड़बड़ करो। मैं चुपचाप उनका मुख निहार रहा था। वहां मुझे क्रोध, क्षोभ दीखे। दिल ही दिल में मैंने उन्हें प्रणाम किया। अगले दिन उनका सेवक मुझे भोजन के समय पकड़ लाया। आज सोचता हूं, श्रद्धानन्द की महत्ता के हेतु की घटक ये छोटीछोटी घटनाएं ही है।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी भागलपुर में होने वाले हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति मनोनीत हुये थे। महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उस सम्बन्ध में स्वामी वेदानन्द जी को उनकी सेवा में गुरुकुल भेजा और कहा कि उन्हें साथ ले आना। वेदानन्द जी गुरुकुल आकर उनसे मिले। श्रद्धानन्द जी उस दिन किसी कारणवश उनके साथ न जा सके। वेदानन्द जी को वापिस भेज दिया और अगले दिन भागलपुर के लिए रवाना हुए। बनारस छावनी रेलवे स्टेशन पर कई महानुभाव उनके दर्शनों के लिये आये थे। भागलपुर सम्मेलन दो-तीन दिन बाद था, अतः उनको बनारस में उतार लिया गया। उनके आने की सूचना मिलने पर ऋषिकुल के अधिकारी उनसे मिले। उस समय वह कुछ अस्वस्थ थे। ऋषिकुल के अधिकारियों द्वारा प्रार्थना करने पर उन्होंने उनके उत्सव में उपदेश करना स्वीकार कर लिया। ऋषिकुल के अधिकारियों के चले जाने के बाद वहां उपस्थित प्रसिद्ध देशभक्त बाबू शिवप्रसाद गुप्त जी ने कहा, आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, वहां भी आपको अधिक कार्य करना पड़ेगा, आप कहें तो मैं उन्हें निषेध कर भेंजू। इसके उत्तर में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा–वचन कैसे तोड़ा जाये और बाबूजी मुझ पर तो ब्रह्मचर्य प्रचार का भूत सवार है। मरते हुए भी इसका प्रचार करना चाहता हूं। स्वामी जी का ़ऋषिकुल में व्याख्यान हुआ। इस व्याख्यान ने ऋषिकुल की बिगड़ी व्यवस्था को संभाल दिया। बनारस में स्वामी श्रद्धानन्द जी के आतिथ्य का भार स्वामी वेदानन्द जी पर था। उन्होंने लिखा है कि ‘‘स्वामी श्रद्धानन्द जी प्रातः चार बजे उठकर शौचस्नान से निवृत्त होकर घंटा डेढ़ घण्टा ईश्वरोपासना किया करते थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी को महान बनाने में नियमित देर तक सन्ध्योपासना करना भी उनका एक मुख्य गुण था।

 

इस लेख का समापन हम स्वामी वेदानन्द जी द्वारा श्रद्धानन्द जी को दी गई श्रद्धाजंलि के शब्दों से कर रहे हैं। वह कहते हैं कि श्रीयुत स्वामी श्रद्धानन्द जी उन महामना मनुष्यघुरीणों में से थे, जो समय की उपज नहीं होते, अपितु समय को बनाया करते हैं। साधारणतया नेता लोकरुचि का प्रवाह देखकर उसमें वेग या प्रचण्डता पैदा करके ख्याति प्राप्त किया करते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द इसका अपवाद हैं। उदाहरण के लिए गुरुकुल स्थापना को ले लीजिए। जिस समय महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी) ने इसकी स्थापना का संकल्प किया उस समय लोगों में इसके लिए कोई अनुकूल भावना थी, कदाचित् प्रतिकूल भावना भी जागृत थी। श्रद्धानन्द जी को सत्यार्थ प्रकाश से गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का एक माव मिला, उसको उन्होंने समय प्रवाह की परवाह करते हुए मूर्तरूप दे ही डाला। यह है उनकी काल निर्माण कुशलता, और इसी कारण वे असाधारण महापुरुषों की पंक्ति में समादृत हुए हैं और आचन्द्रदिवाकर होते रहेंगे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी के विलक्षण व्यक्तित्व पर आर्यजगत के विख्यात विद्वान डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने स्वामी श्रद्धानन्दःएक विलक्षण व्यक्तित्व ग्रन्थ की रचना व सम्पादन किया है। यह ग्रन्थ आर्य प्रकाशक श्रीघूड़़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोनसिंटी से प्रकाशित एवं उपलब्ध है। इस ग्रन्थ व उसमें अनेक महत्वपूर्ण लेखों सहित स्वामी वेदानन्द तीर्थ का संस्मरणात्मक लेख दने के लिए हम डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी का आभार व्यक्त करते हैं। स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में आर्यसमाज को नेतृत्व प्रदान करने के साथ विश्व विख्यात गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना व संचालन किया, वह महान देशभक्त एवं देश की आजादी के आन्दोलन के प्रमुख नेता थे, शुद्धि व जाति तोड़क आन्दोलन के प्रणेता सहित धर्मोपदेशक, समाज सुधारक, साहित्यकार, पत्रकार, लेखक और दलितों के मसीहा थे। उनको हमारा शत् शत् प्रमाण।

मनमोहन कुमार आर्य

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अतुल्य भारत से असहिष्णु भारत

असहिष्णुता के ठंडे पड़ चुके मुद्दे को हवा देने के लिए “आमिर हुसैन खान” आगे आये है

इनका कहना है की देश के माहौल को देखकर मेरी पत्नी बच्चों की चिंता करते हुए देश छोड़ने की बात कहने लगी थी

मौलाना आजाद आमिर के पूर्वजों में आते है ये वही मौलाना है जिन्होंने देश के साथ गद्दारी के लिए जिन्ना जैसों का साथ दिया था

सांप हमेशा सपौले को ही जन्म देता है इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है, तो जब मौलाना इस स्तर के थे तो उनका वंश कैसा होगा यह कहने की आवश्यकता नहीं है,
आमिर हुसैन खान को इस देश में 50 सालों तक असहिष्णुता नहीं दिखी

इन्हें कश्मीरी पंडितों की हत्या हो या पाकिस्तानी हिन्दुओं की दशा, असम में हो रहे दंगे हो या केरल में हो रही हिन्दुओं की निर्मम हत्या या मुंबई बम धमाके, इन्हें तब तक देश की असहिष्णुता नहीं दिखी परन्तु जब क्रिया की प्रतिक्रिया हुई इन्हें देश असहिष्णु लगने लगा

सत्यमेव जयते में छप्पर फाड़ती T.R.P. और 300 करोड़ रुपयों की बरसात करवाती pk जैसी फिल्मों पर अफ़सोस है की प्रतिक्रिया नहीं हुई अन्यथा वास्तविक असहिष्णुता के दर्शन तो तुम्हे पहले ही हो चुके होते

भारत में रहने वाले बहुसंख्यकों का तुम मजाक उड़ाते हो, और वही बहुसंख्यक मूर्खों की तरह तुम पैसे उड़ाते है क्या यही तुम्हे असहिष्णुता लगती है ?

“मियाँ आमिर हुसैन खान” तुम अपनी यह मजाक उड़ाने वाली करतूत (ईशनिंदा) यदि किसी इस्लामिक देश में कर चुके होते तो विशवास मानिए आपकी बोटियाँ गिद्ध चबा रहे होते

अपने भाई की जायदाद हडपने के लिए जो व्यक्ति भाई को ही पागल घोषित करने पर आमादा हो जाए

जो हिन्दू लड़की को अपने झांसे में लेकर फिर उसे तलाक देकर बेसहारा छोड़ दे

जो सत्यमेव जयते में लोगों को करोड़ों रूपये लेकर शिष्टता का पाठ पढ़ाकर खुद हिन्दू बाप की संतान को मुसलमान बनाता है वो व्यक्ति यह कहे की उसे भारत असहिष्णु लगने लगा है

यह शौभा नहीं देता है

असहिष्णुता देखनी है तो जाओ किसी इस्लामिक राष्ट्र में तुम्हे उसके दर्शन करने में दो दिन भी नहीं लगेंगे
तुम भारत को असहिष्णु कहते हो उस भारत को जिसमें एक अल्पसंख्यकों का नेता बहुसंख्यकों के आदर्शों को भरी सभा में गालियाँ देता है फिर भी जिन्दा घूम रहा है

जिस भारत में एक अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों को मारने की बात करता है फिर भी खुले आम घूम रहा है उस देश को असहिष्णु कहते हो

जिस देश में सन्नी लिओने जैसी वैश्याए भी सुरक्षित है उस देश को तुम असहिष्णु कहते हो

ऐसा है मियाँ तो तुम निकल ही लो क्यूंकि हमारी सहिष्णुता अब समाप्ति के दौर से गुजर रही है यदि यह देश सही मायनों में असहिष्णु हो गया तो तुम जैसे नाचने वालों का हश्र बहुत बुरा होगा

तुम्हारी पत्नी से कहना की अभी तक तो तुम सहिष्णु माहौल में जी रही थी परन्तु अब मेने एक शो में जाकर ऐसा रोंग नम्बर घुमाया है की सही असहिष्णु माहौल तुम्हे देखने को मिलेगा

तुम्हारे उलटे दिन अब आ गये है

जिस नौटंकी के बल पर तुमने यह शौहरत कमाई है अब हम भारतीय उसे मिटटी में दबा देंगे

मेरा निवेदन

आमिर खान की आने वाली सभी फिल्मों और अभी हालिया रिलीज होने वाली फिल्म “दंगल” का बहिष्कार किया जाए
इसके द्वारा जिन वस्तुओं का विज्ञापन किया जाता है उन सभी का बहिष्कार किया जाए
क्यूंकि आर्थिक बहिष्कार ही सबसे बड़ा हथियार है

और यकीन मानिए आमिर खुद आपके इस विरोध को समर्थन देता है क्यूंकि:-

आमिर कहता है की में हर उस विरोध को समर्थन देता हूँ जो अहिंसक हो और आर्थिक बहिष्कार किसी तरह से हिंसक नहीं हो सकता

तो बंधुओं प्रण लो की इस असहिष्णु आमिर हुसैन खान का आर्थिक बहिष्कार आज से ही शुरू कर दोगे

मनुष्य में संस्कार व गुणों का आधान ही समाज कल्याण है’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ (1892-1956) वेदों के शीर्षस्थ विद्वान थे। उन्होंने जो साहित्य़ सृजित किया, वह मनुष्य की उन्नति के लिए लाभकारी एवं उपादेय है। मनुष्य को शिक्षित, संस्कारित व गुणों से आपूरित करना ही उसको धार्मिक बनाना है। यदि मनुष्य विद्या व ज्ञान से युक्त नहीं होगा तो वह धर्म से विरत व पृथक ही कहा व माना जायेगा। धर्म व मत-मतान्तर पृथक पृथक हैं। धर्म मनुष्य के जीवन में सत्य गुणों अर्थात् सत्य विद्याओं व तदानुरुप आचरण के धारण को कहते है। मत व मतान्तर किसी मनुष्य वा महापुरूष की कुछ धार्मिक व कुछ निजी शिक्षाओं के मानने को कहते हैं जो उनके व उनके दिए हुए नाम पर चलते हैं। मनुष्य महापुरूषों की सभी शिक्षायें सत्य हों, यह आवश्यक नहीं है। महापुरूष भी मनुष्य होने से अल्पज्ञ होते हैं। सब का नैमित्तिक ज्ञान न्यून व अधिक होता है। अतः उनकी शिक्षायें भी अल्पज्ञता के कारण सत्य व असत्य दोनों श्रेणियों की हुआ करती हैं। ईश्वरीय ज्ञान, वर्तमान में चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, ही पूर्ण सत्य ज्ञान होता है। अतः शिक्षा विद्या को प्राप्त करते हुए यह ध्यान देना आवश्यकता है कि पढ़ा हुआ ज्ञान विद्या वेद सम्मत है अथवा नहीं? वेदसम्मत का ग्रहण व जो वेद सम्मत नहीं है, उसका त्याग करना ही मनुष्य का धर्म है। सत्य ज्ञान, विद्या व शिक्षा को पढ़कर व धारण कर ही मनुष्य धार्मिक बनता है और इसके विपरीत वह धर्म विहीन पशु के समान रहता है। स्वामी जी ने इसका अपनी ज्ञानप्रसूता लेखनी से बहुत ही प्रभावशाली वर्णन किया है जिसे पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

‘‘मनुष्य यतः समाजिक प्राणी है, अतः उसको उत्कृष्ट बनाने के यत्न को समाजहितकारी कर्तव्य या धर्म कहना न्यायसंगत है। इसी कारण गृह्ययज्ञ–संस्कार मनुष्य के साथ मनुष्य समाज के भी अत्यन्त उपकारक हैं। समाज मनुष्यों का समुदाय है। यदि किसी मकान में लगा सामान–ईंट, चूना, गारा, सीमेंट, काष्ठ, लोहा, निकृष्ट कोटि के हों तो वह मकान अवश्य निकृष्ट, घटिया होगा। इसी भांति यदि समाज के घटक अवयवमनुष्य घटिया होंगे तो समाज भी घटिया ही होगा, बढि़या नहीं हो सकेगा। अतः सिद्ध हुआ कि मनुष्य वा व्यक्ति के संस्कार करना, उसमें उत्कृष्ट गुणों का आधान करना वास्तव में समाज का कल्याण करना है।

 

मनुष्य और पशु चेतना के कारण भोजन, मैथुन, भय, निन्द्रा आदि में समान हैं। सत्य बात तो यह है कि इन बातों में मनुष्य पशुओं की समानता नहीं कर सकता। क्या कोई भोजन में हाथी की समता कर सकता है? मनुष्य में विशिष्टता धर्म के कारण है। कहा भी है–धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः=मनुष्य में धर्म ही पशुओं से अधिक विशेष है। धर्म से हीन मनुष्य श्रृंगपुच्छविहीन पशु है। धर्म का मूल विद्या एवं बुद्धि है। इसी वास्ते किसी ने कहा हैविद्याविहीनः पशुःविद्याविहीन मनुष्य मनुष्य नहीं, प्रत्युत पशु है।

 

मनुष्य मनुष्य बने, पशु रहे, इसके लिए, विद्या से उसे अवश्य सुभूषित करना चाहिए।

 

हम आशा करते हैं पाठक स्वामीजी के विचारों से सहमत होंगे व इसे स्वीकार कर वेदाध्ययन में प्रवृत्त होंगे। वेदाध्ययन में प्रवृत्त होने के लिए आरम्भ में सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन लाभकारी होता है। यह दोनों वेदाध्ययन के मार्गदर्शक ग्रन्थ हैं व भूमिका का कार्य करते हैं।

 

 –मनमोहन कुमार आर्य

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‘दया के सागर महर्षि दयानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

 

महर्षि दयानन्द के जीवन में अन्य अनेक गुणों के साथ दया नाम का गुण असाधारण रूप में विद्यमान था। उनमें विद्यमान इस गुण दया से सम्बन्धित कुछ उदाहरणों को आर्यजगत के महान संन्यासी और ऋषिभक्त स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने अपनी बहुत ही प्रभावशाली व मार्मिक भाषा में प्रस्तुत किया है। पाठकों को इसका रसास्वादन कराने के लिए हम इसे प्रस्तुत कर रहे हैं। यह उल्लेख स्वामी वेदानन्द जी ने स्वरचित ऋषि बोध कथा पुस्तक के जन्म तथा बालकाल अध्याय में किया है। स्वामी जी लिखते हैं कि ’’दयानन्द के आगमन से पूर्व गौ आदि पशुओं की अन्धाधुन्ध हत्या हो रही थी। (उनके समय तक किसी ने गोहत्या के विरोध में आवाज उठाई हो, इसका कहीं प्रमाण नहीं मिलता)। ऋषि ने उसको (गोहत्या को) बन्द कराने के लिए अनेक प्रयत्न किये। उनका लिखा ‘‘गोकरुणानिधि ग्रन्थ काय में लघु है किन्तु उपाय में अति महान् है। उसका एक-एक वाक्य ऋषि के हृदय में इन निरीह पशुओं के प्रति दया एवं करुणा का परिचय दे रहा है। हम प्रत्येक पाठक से अनुरोध करते हैं कि वे एक बार इसका अवश्य पाठ करें। ऋषि ने इसके समीक्षा प्रकरण को, भगवान् से प्रार्थना पर समाप्त किया है। उनके शब्द ये हैं-‘‘हे महाराजाधिराज जगदीश्वर ! जो इनको कोई न बचावे तो आप इनकी रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हूजिए।”

 

ऋषि ने सत्यार्थप्रकाश में प्रार्थना के सम्बन्ध में यह शब्द लिखे हैं-‘‘जो मनुष्य (ईश्वर से) जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्त्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है।” (सप्तम समुल्लास-सत्यार्थप्रकाश)

 

ऋषि ने तदनुसार अपनी यह प्रार्थना पुरुषार्थ के साथ की है। गोकरुणानिधि लिखने के अतिरिक्त वे अपने जीवन के अन्तिम दिनों में गोरक्षा के निमित्त एक आवेदन पत्र पर हस्ताक्षर करा रहे थे। उनकी कामना थी कि कम-से-कम दो करोड़ मनुष्यों के हस्ताक्षर कराके इंग्लैण्ड (की महारानी विक्टोरिया को) भेजे जाएं। इससे ऋषि की दयालुता का बोध सुस्पष्टतया हो जाता है। गौओं के जीवन की रक्षा अर्थात् हत्या बन्द कराने के निमित्त उन्होंने राज्याधिकारियों से भेंट करने में भी संकोच न किया। (इतिहास में गोरक्षा का यह अपूर्व उदाहरण है। सनातन धर्म के बन्धुओं में गोरक्षा की प्रवृत्ति महर्षि दयानन्द की इस घटना के बहुत बाद उत्पन्न हुई)।

 

अनूपशहर में ऋषि अपनी मधुरिमामयी वाणी से लोगों के हृदयों में धर्मप्रीति की भावनाएं भर रहे थे कि एक कपटी जन ने पान में विष डालकर दिया। वहां का तहसीलदार ऋषि का भक्त था। उसे जब इस वृत्तान्त का भान हुआ तो उसने उस पामर विषदाता को बंधवा दिया। दयालु दयानन्द ने यह सुनकर उससे कहा ‘‘सैयद अहमदजी ! आपने अच्छा नहीं किया। मैं संसार को बन्धनों से छुड़वाने के लिए यत्नवान् हूं, मैं इन्हें बंधवाने, कैद कराने नहीं आया।” अपने घातक के प्रति भी दया। अद्भुत है दयानन्द तेरी दया। धन्य हो तुम्हारी जननी, धन्य है तुम्हारे पिता और धन्य है आपश्री के गुरुदेव। धन्य ! धन्य !!

 

दयानन्द की दया का एक और उदाहरण सुन लीजिए। जोधपुर में मूर्ख पाचक ने उन्हें दूध के साथ कालकूट विष दिया। एक घूंट पीते ही उन्हें इसका ज्ञान हो गया तो दयालु दयानन्द ने उस जगन्नाथ को रुपये देकर नेपाल भाग जाने को कहा। ऋषि ने उसे कहा–‘‘जगन्नाथ ! शीघ्र यहां से भागकर नेपाल चले जाओ ! राठोरों को यदि तेरी करतूतों का पता चल गया तो तेरा एक-एक अंग काट लेंगे, अतः भाग जा।”

 

अपने प्राणघातक के प्राणों को बचाने की चिन्ता अतिशय दयालु के अतिरिक्त किसको हो सकती है? इस विषय में दयानन्द की समता का एक भी उदाहरण संसार के इतिहास में नहीं है। इस प्रकार दया के व्यवहारों के दृष्टान्त ऋषि के जीवन में अनेक हैं। चैदह बार उन्हें विष दिया गया किन्तु दयानन्द ने किसी को दण्ड दिलाने का यत्न नहीं किया।

 

दयानन्द ने अपने जन्म नाम (दयाल जी) तथा संन्यास नाम (दयानन्द) दोनों को यथार्थ कर दिखाया। यह दयानन्द के गौरव को चार चांद लगाता है।”

 

हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के जीवन में दया के उपर्युक्त उदाहरणों को पढ़कर उनके हृदय की भावनाओं से कुछ परिचित हो सकेंगे। हम पाठकों को महर्षि दयानन्द का स्वामी सत्यानन्द व अन्य विद्वानों द्वारा लिखित जीवनचरित पढ़ने का भी निवेदन करेंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ उपदेश देने से महर्षि दयानन्द विश्वगुरु हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

यह संसार वैज्ञानिकों के लिए आज भी एक अनबुझी पहेली ही है। आज भी वैज्ञानिक इस सृष्टि के स्रष्टा की वास्तविक सत्ता व स्वरुप से अपरिचित हैं। यदि उन्होंने महर्षि दयानन्द सरस्वती की तरह वेदों की शरण ली होती तो वह इस रहस्य को जान सकते थे। आज का संसार दोहरे मापदण्डों वाला संसार है। बिना जाने व समझे वेदों को भी अन्य मतों के धार्मिक ग्रन्थों के समान एक धार्मिक ग्रन्थ मान लिया गया है। इसके पीछे कुछ विदेशियों का अपना स्वार्थ दिखाई देता है जिससे उनके मतों की वास्तविकता समाज के सामने न आ जाये। सच्चाई यह है कि वेद अन्य मत-मतान्तरों की तरह, रूढ़ अर्थ में प्रयोग धर्म, की धार्मिक पुस्तक नहीं है अपितु यह सब सत्य ज्ञान व विद्या की पुस्तक हैं। वेद आज भी अपने मूल स्वरुप में विद्यमान हैं। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में इस सृष्टि के रचयिता सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमेश्वर के द्वारा हुई थी। उन्होंने सृष्टि और मनुष्य के कर्तव्यों आदि का विस्तृत ज्ञान आदि सृष्टि में वेदों के माध्यम से चार ऋषियों की हृदय गुहा में अन्तः प्रेरणा द्वारा दिया था। वेदों का ज्ञान मन्त्रों के रूप में दिया गया है जो कि संस्कृत में है। इन वेद मन्त्रों के अध्ययन से ही संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई है। पहले सृष्टि की आदि में ईश्वर ने चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया। फिर इन ऋषियों ने अन्य लोगों में वेदों का प्रचार किया। वेद ज्ञान दिये जाने से पूर्व किसी भाषा का अस्तित्व नहीं था। यह वेद ज्ञान व वेद मन्त्र ही भाषा के प्रथम आधार व संस्कृत भाषा के मूल स्रोत हैं। सृष्टि के आरम्भ के अग्नि, वायु, आदित्य, अंगिरा व ब्रह्मा आदि ऋषि ईश्वर के स्वरूप के साक्षात्कर्ता थे जिन्हें वेदों के सत्य अर्थों का यथार्थ ज्ञान था और उन्होंने इनका प्रचार कर संसार से अज्ञान व सभी भ्रान्तियों को दूर किया। महाभारतकाल तक यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही। महाभारत का युद्ध होने के बाद अध्ययन अध्यापन में बाधा उत्पन्न हुई। वेद मन्त्रों के अर्थ जानने की योग्यता संसार के लोगों में न रही, इस कारण वेदों के अनेक भ्रान्तिपूर्ण व मिथ्या अर्थ प्रचलित हो गये। इसी कारण संसार में अज्ञान का अन्धकार फैला और नाना मत-मतान्तर उत्पन्न हुए। समाज के कुछ प्रबुद्ध लोगों ने अपनी-अपनी बुद्धि व योग्यतानुसार शिक्षा का प्रचार किया। प्रायः उनके अनुयायियों ने उन्हें दिव्य मनुष्य या महापुरूष मानकर प्रचारित किया। यह दावा किया गया कि उन मतों की सभी शिक्षायें सत्य व यथार्थ हैं, जबकि ऐसा नहीं था। सभी मतों में सत्य व असत्य का मिश्रण है जिसका दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने अपने ग्रन्थों मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश के अन्तिम 4 अध्यायों में कराया है।

 

महर्षि दयानन्द के समय में सभी मत मतान्तरों में ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के स्वरुप को लेकर भ्रम की स्थिति थी। उन्होंने भ्रम निवारण करते हुए ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति, इन तीन सत्ताओं के त्रैतवाद का सिद्धान्त संसार के सम्मुख रखा। ईश्वर सहित तीनों पदार्थों का सत्यस्वरूप सामने रखते हुए उन्होंने इन तीनों सत्ताओं को अनादि व नित्य बताया। उनका मानना था कि ईश्वर, जीवात्मा व मूल-कारण प्रकृति अनुत्पन्न, अनादि व नित्य है। इस कारण यह तीनों सत्तायें अविनाशी व अमर भी हैं अर्थात् इनका नाश अथवा अभाव कभी नहीं होता। उनके समय में ईश्वर के विषय में बहुत सी मिथ्या मान्तयायें प्रचलित थी जो आज भी प्रचलित ने केवल प्रचलित हैं अपितु इनमें वृद्धि हुई है। स्वामीजी ने उन सभी का खण्डन व आलोचना की और ईश्वर के सत्यस्वरूप का उल्लेख करते हुए कहा कि ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता-हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है। इन लक्षणोवाली सत्ता को ही परमेश्वर मानना और उसी की उपासना करना सबके लिए लाभकारी व श्रेयस्कर है। ईश्वर के इन लक्षणों से अवतारवाद व मूर्तिपूजा सहित इनके विपरीत ईश्वर विषयक सभी मान्यताओं का खण्डन हो जाता है। ईश्वर की उपासना का सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ महर्षि पतंजलि का योग दर्शन है। उसका अध्ययन कर ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अपने व्यापक वेद और वैदिक साहित्य के अध्ययन व ज्ञान के आधार पर उपासना की सरलतम विधि वैदिक सन्ध्या लिखी है। इसी के आधार पर आज संसार के करोड़ों लोग उपासना करते हैं। इस सन्ध्या की विधि में योगदर्शन की उपासना पद्धति का निचोड़ वा सार प्रस्तुत किया गया है जिसका अभ्यास करके मनुष्य ईश्वर व अपनी आत्मा दोनों का साक्षात्कार कर सकता है। ईश्वर सहित अन्य सभी विषयों व विद्याओं का अध्ययन करने के लिए मनुष्यों को सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका से अध्ययन का आरम्भ कर उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति व वेदों का अध्ययन करना चाहिये जिससे सभी शंकायें व भ्रान्तियां दूर होती हैं। इसके साथ हि साधना के सरल व प्रभावशाली उपायों का ज्ञान होने से मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य, ईश्वर का साक्षात्कार, की प्राप्ति होकर जीवन को सफल बनाया जा सकता है।

 

महर्षि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थों में जीवात्मा के सत्य स्वरुप पर भी प्रकाश डाला है। अपने लघु ग्रन्थ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में जीव विषयक अपनी मान्यता लिखते हुए वह बताते हैं कि जीवात्मा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य व चेतन सत्ता है। नित्य का अर्थ है कि यह जीव हमेशा से है और हमेशा रहेगा अर्थात् यह अनुत्पन्न और अविनाशी सत्ता है। जीवात्मा को अपने पूर्व जन्मों के कर्मानुसार जीवन व योनि मिलती है जिसमें वह अपने प्रारब्ध के अनुसार फल भोग कर व नये कर्मों को करके मृत्यु को प्राप्त होती है और मृत्यु के पश्चात प्रारब्ध के अनुसार पुनः नया जन्म धारण करती है। जन्म-मरण का यह चक्र अनादि काल से चला आ रहा है और इसी प्रकार सदा चलता रहेगा जब तक कि वेदानुसार सद्कर्मों को करके जीवात्मा की मुक्ति न हो जाये। मनुष्य यदि अच्छे कर्म करता है तो उसकी उन्नति होती है जिससे वह मृत्यु के बाद श्रेष्ठ उन्नत योनि व अवस्थाओं में जन्म ग्रहण करता है और यदि उसके अच्छे कर्म कम व बुरे कर्म अधिक होते हैं तो वह अवनति को प्राप्त होकर निम्न योनियों में जन्म ग्रहण करता है जहां उसे अपने बुरे कर्मों के फलों को भोगना होता है। महर्षि दयानन्द के यह विचार भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं कि जीव और ईश्वर स्वरूप और वैधम्र्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधम्र्य से अभिन्न हैं। अर्थात् जैसे आकाश से मूर्तिमान द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, न है और न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव का व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध है।

 

कारण व कार्य प्रकृति जड़ है। कारण प्रकृति अनुत्पन्न तथा त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्व, रज व तमोगुण वाली है। यही परमाणु व अणुरूप होकर स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है अर्थात् यह प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तर अर्थात् परिवर्तनों को प्राप्त होकर नाना स्वरूप व आकारवाली हो जाती है। पृथिवी, चन्द्र, ग्रह-उपग्रह, सूर्य, नक्षत्र आदि सभी इस त्रिगुणात्मक प्रकृति के विकार वा कार्य हैं। इसको विस्तार से जानने के लिए सांख्य दर्शन सहित वेदों के नासदीय सूक्त आदि का अध्ययन करना चाहिये। यह भी जानने योग्य है कि यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है अर्थात् इस प्रकृति से सृष्टि का निर्माण होता है, सृष्टि निर्धारित अवधि तक बनी रहती है, फिर प्रलय होती है और प्रलय में यह पुनः अपने मूल स्वरूप में आ जाती है। प्रलयकाल समाप्त होने पर ईश्वर सृष्टि की रचना कर इसे पुनः उत्पन्न करता है व चलाता है तथा यथासमय प्रलय करता है। इस प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति व प्रलय का क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और भविष्य में भी चलता रहेगा।

 

महर्षि दयानन्द ने न केवल तीन अनादि पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य सिद्धान्त त्रैतवाद व इनके स्वरूप का ही प्रचार किया अपितु वेदों का पुनरुद्धार भी किया। वेद ही मानव मात्र का सबसे बड़ा धन व पूंजी है। वेद से ही कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होता है जिसे धर्माधर्म कहते हैं। इस धर्माधर्म से ही मनुष्य को बन्ध व मुक्ति होती है। महर्षि दयानन्द के सम्पूर्ण कार्यों को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि सहित उनके समस्त ग्रन्थ, उनके जीवन चरितों और पत्रव्यवहार आदि का अध्ययन करना चाहिये। उन्होंने ईश्वर की सच्ची उपासना के साथ अन्य महायज्ञों देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ एवं बलिवैश्वदेवयज्ञ का भी पुनरुद्धार किया। इसका अवलम्बन कर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। इस संक्षिप्त लेख में हम पाठकों को महर्षि दयानन्द को परा विद्या के क्षेत्र में संसार को ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य व यथार्थ स्वरूप से परिचित कराने व मनुष्यों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के मार्ग का ज्ञान कराकर मोक्ष तक पहुंचाने के लिए संसार का सबसे बड़ा हितैषी व पुरोधा मानते हैं। महाभारत काल के बाद अन्य कोई महापुरूष ऐसा नहीं हुआ जिसने मनुष्य को संसार विषयक समस्त ‘‘सत्य ज्ञान से परिचित कराया हो जैसा महर्षि दयानन्द ने कराया है। महर्षि दयानन्द भूतो भविष्यति महापुरूष थे। उनके मनुष्य जीवन की इहलौकिक व पारलौकिक उन्नति में योगदान को स्मरण कर संसार के सभी मनुष्यों को लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महर्षि दयानन्द प्रोक्त वेद सम्मत ब्राह्मण वर्ण के गुण-कर्म-स्वभाव’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

वैदिक वर्ण व्यवस्था के सन्दर्भ में

 

यह जड़-चेतन संसार ईश्वर से उत्पन्न हुआ है। ईश्वर, जीवात्मायें और प्रकृति, तीन  नित्य सत्तायें हैं जिनमें ईश्वर व जीवात्मा चेतन एवं प्रकृति जड़ पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा संवेदनाओं से युक्त व प्रकृति संवेदनारहित है। जीवात्माओं के पूर्व जन्म में अर्जित प्रारब्ध वा कर्मों के फलों एवं सुख-दुःख रुपी भोग प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने इस संसार को रच कर जीवात्मा को विभिन्न योनियों में उत्पन्न किया है। हमें मनुष्य योनि वा इसमें माता-पिता, भाई व बहिन सहित जो परिवेश मिला है वह सब हमारे प्रारब्ध पर आधारित है। मनुष्यों की उत्पत्ति एक प्रकार से होने के कारण संसार के सभी मनुष्यों की जाति एक है। जन्मना जाति का सिद्धान्त अनावश्यक है जिससे सामाजिक विषमता उत्पन्न हाती है, अतः इसे समाप्त किया जाना चाहिये। मनुष्यों के गुण-कर्म-स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं जिसमें बहुत बड़ा कारण हमारे पूर्व जन्म का प्रारब्ध और इस जन्म के विद्यादि गुणों पर आधारित कर्म व संस्कार होते हैं। मनुष्यों के इन गुण-कर्म व स्वभाव में भिन्नता व समाज की आवश्यकता के अनुरुप उनका वर्गीकरण कर वेदानुसार चार वर्णों यथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र का विधान हमारे प्राचीन ऋषियों ने किया जो ईश्वरीय ज्ञान वेद पर आधारित है। इससे सम्बन्धित यजुर्वेद का मन्. 31/11 हैः

 

ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रौ अजायत।।

 

इस मन्त्र का अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सब में मुख्य उत्तम हो, वह (ब्राह्मण) ब्राह्मण, (बाहू) बाहुर्वै बलं बाहुर्वै वीर्यम् (शतपथ ब्राह्मण) बल वीर्य का नाम बाहु है, वह जिसमें अधिक हो, सो (राजन्यः) क्षत्रिय, (ऊरू) कटि के अधो और जानु के ऊपर के भाग का नाम है। जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरू के बल से जावे, आवे, प्रवेश करे, वह (वैश्यः) वैश्य और (पद्भ्याम्) जो पग के अर्थात् नीचे अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुण वाला हो, वह शूद्र है। यह वेद मन्त्र का सत्यार्थ है। इसमें कहीं नहीं कहा कि ब्राह्मण माता-पिता से ब्राह्मण, क्षत्रियों से क्षत्रिय आदि उत्पन्न होते हैं। मुख के सदृश से तात्पर्य यह है कि जैसा मुख सब अंगों में श्रेष्ठ है, वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राह्मण कहाता है। जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं है तो मुख से उत्पन्न होना असंभव है। अतः ब्राह्मण श्रेष्ठ गुणों, कर्मों व स्वभाव को धारण कर आचरण करने से होता है, यह वेद का विधान है।

 

ब्राह्मण के लिए धारण व आचरण करने योग्य कौन-कौन से गुण कर्म व स्वभाव का वेद एवं वैदिक साहित्य में विधान है, इसका वर्णन महर्षि दयानन्द ने स्वरचित ग्रन्थ संस्कार विधि में किया है और अपने अन्य ग्रन्थों में भी इस पर प्रसंगानुसार प्रकाश डाला है। संस्कार विधि में वह वेदानुकूल मनुस्मृति व गीता के श्लोकों को उद्धृत करते हैं। यह श्लोक निम्न हैः

 

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।।1।। मनुस्मृति।।

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमस्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।2।। गीता।।

 

अर्थ–एक-निष्कपट होके प्रीति से पुरुष पुरुषों को और स्त्री स्त्रियों को पढ़ावे। दो-पूर्ण विद्या पढ़ें। तीन-अग्निहोत्रादि यज्ञ करें। चैथा-यज्ञ करावें। पांच-विद्या अथवा सुवर्ण आदि का सुपात्रों को दान देवें। छठा-न्याय से धनोपार्जन करनेवाले गृहस्थों से दान लेवें भी। इनमें से तीन कर्म-पढ़ना, यंज्ञ करना, दान देना धर्म हैं और तीन कर्म-पढ़ाना, यज्ञ कराना, दान लेना, जीविका हैं। परन्तु–प्रतिग्रहः प्रत्यवरः।। (मनुस्मृति) जो दान लेना है वह नीच (बुरा) कर्म है, किन्तु पढ़ा कर और यज्ञ करा कर जीविका करनी उत्तम है।।1।।

 

(शमः) मन को अधर्म में न जाने दें, किन्तु अधर्म करने की इच्छा भी न उठने देंवे। (दमः) श्रोत्रादि इन्द्रियों को अधर्माचरण से सदा दूर रक्खे, दूर रखके धर्म ही के बीच में प्रवृत्त रक्खे। (तपः) ब्रह्मचर्य, विद्या, योगाभ्यास की सिद्धि के लिए शीत उष्ण, निन्दा-स्तुति, श्रुधा-तृषा, मानापमान आदि द्वन्द्वों को सहना। (शौचम्)  राग-द्वेष-मोहादि से मन और आत्मा को तथा जलादि से शरीर को सदा पवित्र रखना। (क्षान्तिः) क्षमा, अर्थात् कोई निन्दा-स्तुति आदि से सतावें तो भी उन पर कृपालु रहकर क्रोधादि का न करना। (आर्जवम्) निरभिमान रहना, दम्भ, स्वात्मश्लाघा, अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा न करके नम्र सरल, शुद्ध, पवित्रभाव रखना। (ज्ञानम्) सब शास्त्रों को पढ़के, विचारकर उनके शब्दार्थ-सम्बन्धों को यथावत् जानकर पढ़ाने का पूर्ण सामर्थ्य करना। (विज्ञानम्) पृथिवी से लेके परमेश्वर-पर्यन्त पदार्थों को जान और क्रियाकुशलता तथा योगाभ्यास से साक्षात् करके यथावत् उपकार ग्रहण करना-कराना। (आस्तिक्यम्) परमेश्वर, वेद, धर्म, परलोक, परजन्म, पूर्वजन्म, कर्मफल और मुक्ति से विमुख कभी न होना। ये नव कर्म और गुण, धर्म में समझना। सबसे उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना। यह गुण-कर्म जिन व्यक्तियों में हों वे ब्राह्मण और ब्राह्मणी होवें। विवाह भी इन्हीं वर्ण के गुण-कर्म-स्वभावों को मिलाकर ही करें। मनुष्यमात्र में से इन्हीं (गुण, कर्म व स्वभावों से युक्त मनुष्यों को ही, अन्य इन गुणों से रहित मनुष्यों को नहीं) को ब्राह्मण वर्ण का अधिकार होवे।।2।। यह ध्यान देने योग्य बात है कि महर्षि दयानन्द स्वयं जन्मना उच्च कुलीन ब्राह्मण थे तथापि वेदाध्ययन कर व वेदों का सत्य तात्पर्य जानकर उन्होंने पक्षपात से मुक्त होकर ब्राह्मण वर्ण का होने व कहलाने के सत्य, यथार्थ व वास्तविक तात्पर्य को प्रस्तुत किया है। प्रत्येक बुद्धिमान यह बात स्वीकार करेगा कि जब हमारे देश व समाज में ऐसे बुद्धिमान ब्राह्मण होंगे तभी देश व समाज की उन्नति होगी अन्यथा सामाजिक समरसता व देश व समाजोन्नति की बात करना अन्धेरे में तीर चलाने जैसा निरर्थक कार्य है। इन वैदिक विचारों से जन्मना जातिवाद का भी खण्डन हो रहा है क्योंकि ब्राह्मण परिवार में सभी सन्तानें इन गुणों वाली नहीं होती हैं। जो नहीं हों, उनका वर्ण गुण-कर्म-स्वभावानुसार इतर तीन वर्णों में से किसी एक में निर्धारित किया जाना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने इससे आगे क्षत्रिय, वैश्य व शूद्रों के लक्षण वा गुण-कर्म-स्वभावों का भी वर्णन किया है जो श्रेष्ठ समाज का आधार है। पाठकों से निवेदन है कि वह संस्कार विधि का अध्ययन कर उन्हें वहीं देखने का कष्ट करें।

 

हम आशा करते हैं कि वैदिक व सनातन धर्म के बुद्धिमान एवं विवेकी लोग महर्षि दयानन्द के विचारों पर सद्भावना पूर्वक विचार करेंगे और इसे समाज में प्रतिष्ठा देने के अपनी ओर से हर सम्भव उपाय करेंगे जिससे भविष्य का समाज श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव सम्पन्न समाज बन सके।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद सरल च सुबोध हैं’ -मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आदि में मनुष्यों को ज्ञानयुक्त करने के लिए सर्वव्यापक निराकार ईश्वर ने चार आदि ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का ज्ञान दिया था। महर्षि दयानन्द की घोषणा है कि यह चार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं और इनका पढ़़ना,  दूसरों को पढ़ाना, स्वयं सुनना व अन्यों को सुनाना संसार के सभी मनुष्यों का परम धर्म है। वेद संस्कृत में हैं और संस्कृत भाषा सबको आती नहीं है। हिन्दी भाषी लोग भी संस्कृत को एक कठिन भाषा समझते हैं। ऐसी स्थिति में यदि कोई कहे कि संस्कृत भाषा के ग्रन्थ चारों वेद सरल हैं तो सम्भवतः सभी आश्चर्य करेंगे। आर्यसमाज में दूसरी व तीसरी पीढ़ी के वेद के प्रमुख विद्वानों में स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी का नाम अन्यतम है। आपका जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन नगरी में सन् 1892 में हुआ था। आप एक सम्पन्न, उच्च शिक्षित व प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में जन्मे थे। आपके छोटे भाई जज थे। आपने जीवन की भूलें नाम से अपनी आत्मकथा लिखी है जो मरणोपरान्त प्रकाशित हुई। आपकी दिल्ली में सन् 1956 में मृत्यु के बाद आपके सहयोगी आर्यविद्वान मेहता जैमिनी और पं. शान्तिप्रकाशजी ने आपके जन्म स्थान व कुल की चर्चा करते हुए यह लिखा था कि आप मुलतान के एक अरोड़ा घराने में पैदा हुये। आपने वेद परिचय नाम से एक लघु ग्रन्थ लिखा है। इस पुस्तक में आपने वेद सरल हैं, कठिन नहीं शीर्षक से अपने विचारों को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि ‘आर्यों-अनार्यों सभी में यह भ्रम फैला हुआ है कि वेद बहुत कठिन हैं। ऐसा भासता है कि जब ब्राह्मणों द्वारा ब्राह्मणेतरों को वेद पढ़ाना बन्द किया गया, उस समय वेद के जिज्ञासु न रहने से स्वयं ब्राह्मणों में भी वेद के प्रति उदासीनता उत्पन्न हो गई। उस समय यदि कोई तथाकथित ब्र्राह्मण भी वेदार्थ की जिज्ञासा करता तो अपना अज्ञान छिपाने के लिए वेद कठिन है ऐसा कहकर उस जिज्ञासु को हतोत्साहित कर दिया जाता था।

 

वास्तविकता इसके विपरीत है। जगदीश्वर ने मनुष्य को सृष्टि के पदार्थों एवं अपने विषय में ज्ञान कराने के लिए वेद प्रदान किया है। उसे वह कठिन कैसे बना सकता है? हम इसको ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र द्वारा स्पष्ट करते हैं। ऋग्वेद का प्रथम मन्त्र है-अग्निमीले पुरोहितम् यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्।। इस मन्त्र के पदों पर दृष्टि दीजिए–अग्निम्, इडे, पुरोहितं, यज्ञस्य, देवम्, ़ऋत्विजम्, होतारं, रत्नधातमम्। इतने पद (शब्द) इस मन्त्र में हैं। हमारा विचार है कि यदि ईडे का अर्थ आपको बता दिया जाए, तो शेष पदों का अर्थ आपमें से प्रायः सभी जानते हैं। अग्नि-शब्द से आप परिचित हैं। इसी भांति पुरोहित-शब्द भी आपको ज्ञात है, यज्ञ, देव तथा ऋत्विक् भी आपसे अज्ञात नहीं है। ऋत्विजों में एक होता भी होता है, इसे भी आप जानते हैं। रत्न को सभी समझते हैं, रत्न के साथ लगे धातमम् का अर्थ निर्माण करनेवाला आपको अविदित नहीं है।

 

ईड का अर्थ है–स्तुति करना, पूजा करना, वर्णन करना (अरबी भाषा का ईद इस ईड धातु का रूप है, अरबी में वर्ग है ही नहीं) अग्नि-शब्द का अर्थ लोक प्रसिद्ध आग कर दिया जाए, तो अर्थ बनता है–मैं अग्नि का वर्णन करता हूं जो पुरोहित=पहले रखा गया है, सभी जानते हैं कि सूर्यरूपी अग्नि सभी वृक्ष, पशु, पक्षी, मनुष्यादि से पूर्व बनाया गया। जीवन-यज्ञ को अग्नि प्रकाशित करता है। शरीर की अग्नि शान्त हो जाए तो जीवन की समाप्ति हो जाती है। ऋत्विज ऋतुओं की व्यवस्था अग्नि-सूर्य द्वारा होती है। होता हवन का साधन। रत्नधातमम्=रत्नों=रमणसाधनों का निर्माण करनेवाला। जीवन के सभी उपयोगी पदार्थों को रत्न कहते हैं। उनके निर्माण में अग्नि का कितना उपयोग है, यह बात आज बताने की आवश्यकता नहीं है।

 

भूगर्भविज्ञान तथा रत्नविज्ञान का एक विद्वान् इसे सुनकर कहता है कि यह तो भूगर्भस्थ अग्नि का वर्णन है। रत्न वास्तव में पत्थर का कोयला ही है। एक विशेष समय तक विशेष ताप के संयोग से वह कोयला रत्न बन जाता है, अतः उसको रत्न बनानेवाले अग्नि को लक्ष्य करके मन्त्र में रत्नधातमम् कहा है। आत्मवित् कहता है, अग्नि का अर्थ आगे ले-जानेवाला। सभी जानते हैं कि आत्मसंयोग से ही शरीर की वृद्धि-पुष्टि होती है, अतः इस मन्त्र में आत्मा का निरूपण है। मन्त्र का अर्थ उनके अनुसार यह है-मैं आत्मा का वर्णन करता हूं, जो पुरोहित है, शरीर-निर्माण के लिए प्रथम आता है। जीवन यज्ञ का प्रकाशक है, होता=लेने-देनेवाला, खानेवाला है। आत्मा न हो तो शरीर द्वारा भोजनादि भी नहीं हो सकता। आत्मा ऋत्विक् है शरीर को व्यवस्थित रखता है। समस्त उत्तम पदार्थों की रचना जीवन के लिए हुई है, यह सबको मान्य है।

 

एक अन्य कहता है–अग्नि का वास्तविक अर्थ ब्रह्म है। ये सारे विशेषण उसी पर घटते हैं। वह पुरोहित है। इस जगत् से पूर्व भी वह था, संसार-यज्ञ का प्रकाशक एवं व्यवस्थापक वही है, वही सबका दाता तथा सब पदार्थों (सभी पदार्थ भोग्य होने से रत्न हैं) का धाता=विधाता है।

यह तो विचार की गम्भीरता है। शब्दों की दृष्टि से वेद अत्यन्त सरल है।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी ने अपनी इसी पुस्तक में बुराई से भलाई शीर्षक से भी वेदों के विषय में कुछ महत्वपूर्ण विचारों को प्रस्तुत किया है। उपयोगी होने से उन्हें भी यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि येन केनापि प्रकारेण वेद की हेयता व तुच्छता सिद्ध करने के लिए योरुपियन विद्वानों ने अदम्य उत्साह एवं अविश्रान्त परिश्रम से वेद एवं वैदिक साहित्य का आलोडन, आलोचन, मन्थन किया। इसके लिए उन्होंने वैदिक ग्रन्थों के सुपरिष्कृत संस्करण भी निकाले। वेद पुस्तक सर्वप्रथम योरुप में ही मुद्रित हुए। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जर्मनी से वेद मंगवाये थे। वेद तो भारत में सहस्रों नहीं लाखों घरों में हस्तलेखों के रूप् में विद्यमान थे। सहस्रों ब्राह्मण इनको कण्ठस्थ करने में दिनरात निष्कामभाव से अनवरत परिश्रम करते थे, किन्तु स्वामीजी के समय तक भारत में वेद मुद्रित नहीं हुए थे। हम पाठको के लाभार्थ स्वामी वेदानन्द जी की विनम्रता का एक उदाहरण भी प्रस्तुत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि एक बार आप उपदेशकों से घिरे बैठे थे तो नवयुवक भजनोपदेशक श्री ओम्प्रकाश वर्म्मा ने कहा, ‘‘आप ऋषि दयानन्द जी के काल में होते तो ऋषि आप सरीखा प्रकाण्ड विद्वान् शिष्य के रूप में पाकर अभिमान करते। इस पर आपने झट से कहा, ‘‘अभिमान या गौरव तो नहीं करते। पास बैठने का अधिकार दे देते। इतना कहते कि यह कुछ जानता है। यह भी बता दें कि स्वामी वेदानन्द जी बहुभाषा विद थे। वह संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, अरबी, उर्दू, फारसी सहित बंगला, गुजराती, मराठी, सिंधी आदि भाषायें भी जानते थे। उनका बहुत सा साहित्य सम्प्रति अनुपलब्ध है, जिसे आर्य प्रकाशकों द्वारा संग्रहित कर एक या दो जिल्दों में प्रकाशित किया जाना उत्तम होगा अन्यथा यह सदा सर्वदा के लिए विलुप्त होकर नष्ट हो जायेगा।

 

वेद सरल हैं अवश्य परन्तु वेदार्थ के लिए संस्कृत व्याकरण का ज्ञान अपरिहार्य है। संस्कृत विख्यात विद्वानों में ऋषि दयानन्दभक्त पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी का नाम अन्यतम है। आपने संस्कृत आर्ष व्याकरण के प्रचार प्रसार का महनीय कार्य किया। आपने दो खण्डों में बिना रटे संस्कृत पठन पाठन की अनुभूत सरलतम विधि पुस्तक भी लिखी है जिससे अनेक लोगों ने लाभ उठाया है। सम्प्रति रामलालकपूर ट्रस्ट, रेवली इस ग्रन्थ का प्रकाशन करता है। जिज्ञासुजन इस ग्रन्थ को पढ़ने व समझने में होनी वाली कठिनाईयों और अपनी शंकाओं के निवारण के लिए आर्यसमाज व इसके गुरुकुलों के संस्कृत विद्वानों की सहायता ले सकते हैं। महर्षि दयानन्द और उनके अनुवर्ती विद्वानों ने हिन्दी भाषी लोगों के लिए वेदाध्ययन को अधिक सरल सुगम बना दिया है। महर्षि दयानन्द यजुर्वेद का सम्पूर्ण तथा ऋग्वेद का आंशिक भाष्य किया है जिसमें उन्होंने भाष्य किये गए सभी मन्त्रों का पदच्छेद कर उनका अन्वय और प्रत्येक पद के संस्कृत हिन्दी में अर्थों को प्रस्तुत कर उनकी व्याख्या करने के साथ मन्त्र का भावार्थ भी दिया है। इससे वेदाध्ययन बहुत ही सरल हो गया है। सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका को पढ़कर वेदों के महत्व को जाना जा सकता है। हम आशा करते हैं कि लेख से पाठक इस लेख से लाभान्वित होंगे।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘गृहस्थ जीवन की उन्नति के 16 स्वर्णिम सूत्र’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

मनुष्य के वैदिक जीवन के चार सोपान है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास  आश्रम। ब्रह्मचर्य आश्रम का काल आरम्भ के 25 वर्षों का होता है जिसमें 8 वर्ष की आयु तक गुरूकुल में जाकर वर्णोच्चारण शिक्षा से आरम्भ कर सम्पूर्ण वेद वा सम्पूर्ण विद्याओं का अध्ययन करना होता है। अध्ययन पूरा करने पर गृहस्थ जीवन धारण करने का विधान है जो विवाह संस्कार से आरम्भ होता हे। गृहस्थ जीवन के अपने कर्तव्य हैं जिनमें पंचमहायज्ञों का महत्वपूर्ण स्थान है। ये पंच महायज्ञ प्रातः व सायं वैदिक योग विधि से ईश्वरोपासना जिसमें सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय भी सम्मिलित है, प्रातः व सायं अग्निहोत्र यज्ञ का अनुष्ठान, पितृ यज्ञ जिसमें माता-पिता की सेवा श्रुशुषा कर उन्हें सन्तुष्ट व प्रसन्न करना होता है, चैथे कर्तव्य अतिथि यज्ञ में आचार्य, गुरूओं व आप्त संन्यासियों विद्वानों का सेवा सत्कार कर उन्हें प्रसन्न व सन्तुष्ट करना होता है। अन्तिम गृहस्थ का कर्तव्य पालतू पशुओं, कीट-पंतग व पक्षियों आदि के लिए होता है जिसमें अपने आहार के पदार्थों में से कुछ भाग उनके पोषण के लिए दिया जाता है। 50 से 75 वर्ष की आयु के बीच वानप्रस्थ तथा 75 वर्ष व उससे आगे संन्यास लेकर वेद व वैदिक शिक्षाओं व मान्यताओं का समाज व गृहस्थियों में प्रचार प्रसार करना होता है जिससे समाज में अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां आदि जन्म न ले सकें व यदि यह बुराईयां समाज में आ गई हों तो वह दूर हो जाएँ। गृहस्थ आश्रम अन्य तीन आश्रमों का मुख्य आधार है। यदि यह सुधर जाये तो सभी आश्रम अपनी उन्नत अवस्था में रहते हैं। इसके लिए वेद एवं वैदिक साहित्य में आवश्यक ज्ञान भरा हुआ है। उसका स्वाध्याय करने से मनुष्य अज्ञान तिमिर से दूर होकर सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति में सफल हो सकता है।

 

आर्य समाज में स्वामी विद्यानन्द सरस्वती नाम से एक विद्वान संन्यासी हुए हैं जिन्होंने तत्वमसि, वेद  मीमांसा, अनादि तत्व दर्शन, मैं ब्रह्म हूं, सृष्टि विज्ञान और विकासवाद, आर्यों का आदि देश और उनकी सभ्यता, आर्ष दृष्टि, आर्य सिद्धान्त विमर्श, अद्वैतमत-खण्डन, सत्यार्थ भास्कर, भूमिका भास्कर, संस्कार भाष्कर, स्वराज्य दर्शन आदि बड़ी संख्या में अनेक महत्वपूर्ण व विद्वतापूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन व रचना की है। उनका समस्त जीवन वेदों की शिक्षाओं पर आधारित था। वह आदर्श शिक्षक, आदर्श गृहस्थी, आदर्श विद्वान और आदर्श संन्यासी रहे और उन्होंने समाज को श्रेयस्कर मार्गदर्शन एवं नेतृत्व प्रदान किया। हमारा यह सौभाग्य था कि हमें उनके दर्शन, वार्ता एवं संक्षिप्त संगति का अवसर मिला। सत्यार्थ प्रकाश महोत्सव में उनका अभिनन्दन कर 31 लाख रूपये की धनराशि समर्पित करने के अवसर पर उनका अभिनन्दन-पत्र तैयार करने का दायित्व महोत्सव के स्वागताध्यक्ष व स्त्यार्थ प्रकाश न्यास के न्यासी यशस्वी कैप्टेन देवरत्न आर्य द्वारा हमें दिया गया था जिसे हमने सामवेदभाष्यकार श्रद्धेय आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सहयोग से पूरा किया था। अपने ज्ञान व अनुभव के आधार पर वर्तमान आधुनिक समय में गृहस्थ जीवन को सफल व उन्नत करने के लिए स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने सोलह उपदेश व प्रमुख सूत्रों का संकलन किया। आज हम उनके द्वारा वैदिक ज्ञान का मन्थन कर दिये गये उपदेशों को पाठकों के लाभार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

1             ईश्वर को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् जानो और अपने समस्त कर्तव्य-कर्मों को करना ईश्वर की आज्ञाएं पालन करना समझो।

2             अपने कर्तव्यपालन में भी प्रमाद और आलस्य मत करो, प्रत्येक कर्म को समझ कर सचाई के साथ करो।

3             अपनी जीवनचर्या को नियमबद्ध बनाओं जिसमें सूर्योदय से पहले उठना आवश्यक नियम हो।

4             प्रत्येक कार्य के लिए समय नियत करो और प्रत्येक कार्य को उसके नियत समय पर करो।

5             प्रत्येक वस्तु के लिए स्थान नियत करो और प्रत्येक वस्तु को नियत स्थान पर रखो।

6             सबसे मीठे वचन बोलो, प्रेम रखो, ईष्र्या और द्वेष कभी मत करो।

7             दूसरों के सुख में सुखी तथा दुःख में दुःखी होने की भावना दृढ़ करो।

8             कभी किसी दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा मत करो।

9             अपनी योग्यता का कभी अभिमान मत करो, उसको बढ़ाने का सदैव प्रयत्न करो।

10           बच्चों को विनम्र, सुयोग्य, सदाचारी और कर्मशील बनाने के लिए बचपन में ही शिक्षा देना आवश्यक है और उसके लिए अपने-आपको उदाहरण बनाना अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।

11           अपने व्यय को आय से कभी अधिक मत बढ़ने दो।

12           शुद्ध, सरल, पवित्र और सादा जीवन निर्वाह करो, बनावट और दिखावट से बचे रहो।

13           स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए आहार-विहार आदि में संयम रखो और व्यायाम अथवा आसन-प्राणायाम आदि नियमपूर्वक करते रहो।

14           गुरुजनों का आदर करो।

15           दुःखों और कठिनाइयों को धीरतापूर्वक सहन करो, कभी घबराओ नहीं, सदैव प्रफुल्लित रहो।

16           अपनी और कुटुम्ब की सेवा के साथ समाज की सेवा करना भी जीवन का उद्देश्य बनाओं।

 

इन उपदेशों को लिखकर स्वामीजी ने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा है कि वह हमको ऐसी बुद्धि और शक्ति प्रदान करे कि हम इन नियमों को अपने आचरण में परिणत करके अपना जीवन सफल बनावें। हम अनुमान करते हैं कि यदि सभी मनुष्य इन सार्वदेशिक नियमों को अपना आदर्श बना लें तो इससे समाज व देश की उन्नति सहित मनुष्य जीवन उन्नत व सफल हो सकता है। हम आशा करते हैं कि पाठक इन शिक्षाओं को अपने लिए उपयोगी पायेंगे और इससे लाभ उठायेंगे। हमारा निवेदन और सलाह है कि सभी गृहस्थियों को महर्षि दयानन्द लिखित सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ समुल्लासों सहित सप्तम् से दशम् समुल्लास भी अवश्य पढ़ने चाहियें और साथ हि संस्कार विधि में गृहस्थाश्रम प्रकरण को पढ़कर उससे गृहस्थ जीवन में सुख-शान्ति का लाभ लेना चाहिये।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता-21

सपञ्चोऽग्नि सपर्यत

प्रसंग है परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखने के क्या उपाय हैं। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग कहीं तो मिलकर बैठे। मिलकर बैठने का एक मात्र स्थान है- यज्ञ वेदि। यज्ञ जब भी करेंगे तब मिलकर बैठेंगे। यज्ञ करते हुए दोनों लोग परस्पर मिलकर कार्य सपादित करते हैं। इस समय ऋत्विज यज्ञ कराने वाले तथा यजमान यज्ञ करने वाले दोनों एक मत होकर यज्ञ करते हैं। ऋत्विज् यजमान का मार्गदर्शन करते हैं और यजमान ऋत्विज् के निर्देशों का पालन करते हैं। मन्त्र में निर्देश है। परिवार के लोग अग्नि की उपासना करो और कैसे करने चाहिये तो कहा गया – सयञ्च अर्थात् भलीप्रकार मिलकर सब लोग अग्नि की उपासना करें।

यज्ञ का स्थान विद्वानों का, बड़ों के निर्देश का पालन प्राप्त करने का स्थान है, यज्ञ की सफलता यज्ञ को श्रद्धापूर्वक सपन्न करने में है। यजमान आदरपूर्वक निर्देशों का पालन करते हुए यज्ञ सपादित करते हैं। जिस परिवार में प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक यज्ञ किया जाता है, वहाँ परस्पर प्रेमभाव बना रहता है। बड़ों व विद्वानों के प्रति आदर का भाव रहता है। यज्ञ करने से मनुष्य में उदारता का भाव उत्पन्न होता है। यज्ञ में मनुष्य देने का दान करने का सहयोग करने का भाव रखता है। यज्ञ से मन की संकीर्णता और स्वार्थ की वृत्ति समाप्त होती है। मनुष्य जब यज्ञ करने का विचार करता है, उसी समय उसके अन्दर सात्विक भाव उत्पन्न होते हैं। सात्विक विचारों का लक्षण यही बताया गया है। मनुष्य दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, परोपकार करना आदि विचार करता है, उस समय उसके मन में सतोगुण का उदय होता है। यज्ञ करने से मनुष्य की सात्विक वृत्ति का विस्तार होता है। यज्ञ से मन का विस्तार होता है। विस्तार खुलेपन का प्रतिक है। बन्धन है परोपकार मुक्ति है।

इसीलिये यज्ञ की भावना से कार्य करने का निर्देश किया है, श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं- इस संसार में यज्ञ भावना से रहित होकर कोई व्यक्ति बन्धन से  मुक्ति नहीं हो सकता। इसलिये मनुष्य को कोई भी कार्य यज्ञ भावना से युक्त होकर करना चाहिए। यज्ञ में समर्पण है, साथ है, साथ से संग को लाभ मिलता है तथा संवाद का अवसर भी प्राप्त होता है। समर्पण भी होता है, यही भाव परिवार में सब को एक साथ रखने के लिये आवश्यक है, उपयोगी है। मन्त्र कहता है- परिवार के लोग मिलकर यज्ञ करें, आदरपूर्वक यज्ञीय भावना से करें, इससे परिवार के सदस्यों के मन पवित्र और आदर की भावना से युक्त होते हैं। इसका परिणाम सब  परस्पर जुड़े रहते हैं।

मन्त्र का अन्तिम वाक्य है- आरा नाभिभिवामितः। जैसे यज्ञ करने वाले यज्ञ रूप नाभि से सभी बन्धे रहते हैं, उसी प्रकार परिवार के सदस्य भी केन्द्र से जुड़े रहते हैं। मन्त्र में उपमा दी गई है। जिस प्रकार गाड़ी आरे अक्ष से जुड़े रहते हैं और अपना-अपना कार्य करते हुए केन्द्र से बंधे रहते हैं। उसी प्रकार परिवार के सदस्यों का भी एक केन्द्र होना चाहिए, जिससे सभी सदस्य जुड़े रहें। जहाँ एक व्यक्ति के निर्देशन में परिवार चलता है, वहाँ सभी कार्य व्यवस्थित होते हैं, सभी एक दूसरे का ध्यान रखते हैं। जहाँ यज्ञीय भावना नहीं होती, वहां सब अपने-अपने बारे में ही सोचते हैं, वहां स्वार्थ बुद्धि होती है। स्वार्थ से मन में द्वेष भाव और अन्याय उत्पन्न होता है। अतः मन्त्र में दो बातों को एक साथ बताया है, घर में यज्ञ होना चाहिए, सभी लोग मिलकर श्रद्धा से यज्ञ करेंगे तो परिवार के लोग परस्पर आरे की भांति केन्द्र से जुडेंगे, बड़ों से सबन्ध बनाकर रखेंगे तभी परिवार एक होकर रह सकता है, परिवार में सुख, शान्ति बनी रह सकती है।