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ऋषि की एक ओर दिग्विजयःराजेन्द्र जिज्ञासु

सर सैयद अहमद खाँ को ऋषि का भक्त प्रशंसक बताकर उनका गुणगान कराना भी एक फैशन-सा हो गया । श्री रामगोपाल का पठनीय ग्रन्थ ‘इण्डियन मुस्लिम’ पढ़ें। सर सैयद का गुणकीर्तन करने से न तो देश का हित हो रहा है और न ऋषि मिशन को लाभ मिल रहा है। लाभ तो अलगाववादी तत्त्वों को मिल रहा है। हमारे विचार में सर सैयद ने ऋषि की संगत का लाभ उठाकर इस्लाम को लाभान्वित किया है। उस दिग्विजय पर हमारे विचारकों-प्रचारकों को बोलना चाहिये। हमारे पुराने विद्वानों व शास्त्रार्थ महारथियों ने 50-60 वर्ष पूर्व जितनी खोज कर दी, सो कर दी। अब इस विषय में क्या हो रहा है, ये सब जानते हैं। मैंने इस विषय में अब तक जो लिखा है उससे आगे कुछ और निवेदन किया जाता है। यह महर्षि का पुण्यप्रताप है कि सर सैयद अहमद ने मुसलमानों को यह सुझाया व समझायाः-

  1. 1. कुरान मजीद में बदर इत्यादि के युद्धों में फरिश्तों की सहायता का वर्णन मिलता है। इससे उन युद्धों में फरिश्तों का आना सिद्ध नहीं होता।
  2. 2. हजरत ईसा की बिना पिता के उत्पत्ति किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं होती।
  3. 3. नबी पर जो वही (ईश्वरीय ज्ञान-आयतें) नाजिल होती है, वह किसी सन्देशवाहक (फरिशता) के द्वारा नहीं उतरती। यह उसके हृदय में उतरती है।
  4. 4. कुरान से जिन्नों की सत्ता, उनमें भी नर व नारी का होना तथा आगे से उत्पन्न होना सिद्ध नहीं होता। जिन्न मनुष्य को हानि पहुँचा सकते हैं-ऐसी बातें जो कुरान में वर्णित हैं, सृष्टि नियम विरुद्ध हैं। कुरान के भाष्यकारों ने यहूदियों का अनुकरण करके ऐसी व्यायायें की हैं।
  5. 5. कुरान में पैगबर के किसी भी चमत्कार का उल्लेख नहीं मिलता। चमत्कार नबूअत की युक्ति नहीं हो सकती।

पाठकों को बता दें कि कुरान के एक भाष्यकार ने कुरान में आये ‘जिन्न’ शद के बहुवचन ‘जिन्नात’ का कतई कुछ भी अर्थ नहीं दिया। सर सैयद ने इनका अग्नि से उत्पन्न होना तो झुठलाया ही है, साथ ही इनमें नर व नारी का होना भी नहीं माना। इस्लामी विचारधारा में सर सैयद की सोच ने जो हड़कप मचाया, यह महर्षि दयानन्द की बहुत बड़ी दिग्विजय है।

यह भी स्मरण रहे कि कुरान में अल्लाह द्वारा धरती व आकाश को छह दिन में बनाने का उल्लेख मिलता है। सर सैयद ने इसका प्रयोजन भी यहूदियों के मत का प्रतिवाद करना ही बताया है।2 प्रश्न यह है कि सर सैयद को भी यह तभी सूझा, जब महर्षि ने ईसाई मत की इस मान्यता का खण्डन किया ।

सर सैयद ने भले ही सीधे वैदिक धर्म को ग्रहण नहीं किया, उसने कुरान को एवं इस्लाम को वैदिक विचारधारा के  रंग में रंग दिया।

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखःराजेन्द्र जिज्ञासु

श्री पं. भानुदत्त जी का वह ऐतिहासिक लेखः- आर्य समाज के निष्ठावान् कार्यकर्त्ताओं, उपदेशकों, प्रचारकों व संन्यासियों से हम एक बार फिर सानुरोध यह निवेदन करेंगे कि ‘समाचार प्रचार’ की बजाय सैद्धान्तिक प्रचार पर शक्ति लगाकर संगठन को सुदृढ़ करें। समाज में जन शक्ति होगी तो राजनीति वाले पूछेंगे। राजनेता वोट व नोट की शक्ति को महत्त्व देंगे। बिना शक्ति के राजनेताओं का पिछलग्गू बनना पड़ता है। आर्य समाज को अपने मूलभूत सिद्धान्तों की विश्वव्यापी दिग्विजय और मौलिकता के साथ-साथ अपने स्वर्णिम इतिहास को प्रतिष्ठापूर्वक प्रचारित करने पर अपनी शक्ति लगानी चाहिये।

‘परोपकारी’ के पाठकों को यह जानकारी दी जा चुकी है कि भारत सरकार ने पं. श्रद्धाराम फिलौरी की एक जीवनी छापी है। इसमें बिना सोचे-विचारे ऋषि दयानन्द पर निराधार प्रहार किये गये हैं। ‘इतिहास की साक्षी’ नाम की पुस्तक छपवाकर सभा ने पं. श्रद्धाराम के शदों में ऋषि की महानता व महिमा तो दर्शा ही दी है। साथ ही पं. श्रद्धाराम के साथी पं. गोपाल शास्त्री जमू एवं पं. भानुदत्त जी के ऋषि के प्रति उद्गार विचार भी दे दिये हैं।

यहाँ एक तथ्य का अनावरण करना आवश्यक व उपयोगी रहेगा। हम सबको पूरे दलबल से इसे प्रचारित करना होगा। परोपकारी में प्रकाशित काशी शास्त्रार्थ पर प्रतिक्रिया देते हुए एक सुयोग्य सज्जन ने एक प्रश्न पूछा तो उसे बताया गया कि इस घटना के 12 वर्ष पश्चात् देश के मूर्धन्य सैंकड़ों विद्वानों का जमघट वेद से मूर्तिपूजा का एक भी प्रमाण न दे सका। इससे बड़ी ऋषि की विजय और क्या होगी?

सत सभा लाहौर के प्रधान संस्कृतज्ञ पं. भानुदत्त मूर्तिपूजा के पक्ष में नहीं थे। पं. श्रद्धाराम आदि पण्डितों के दबाव में इन्होंने ऋषि का विरोध करने के लिए नवगठित मूर्तिपूजकों की सभा का सचिव बनना स्वीकार कर लिया। प्रतिमा पूजन के पक्ष में व्यायान भी दिये।

जब कलकत्ता की सन्मार्ग संदर्शिनी सभा ने महर्षि को बुलाये बिना और उनका पक्ष सुने बिना उनके विरुद्ध व्यवस्था (फतवा) दी तब पं. भानुदत्त जी ने बड़ी निडरता से महर्षि के पक्ष में एक स्मरणीय लेख दिया। इनकी आत्मा देश भर के दक्षिणा लोभी पण्डितों की इस धाँधली को सहन न कर सकी।

श्री पं. भानुदत्त जी का कड़ा व खरा लेख कलकत्ता के ही एक पत्र में उक्त सभा के 19 दिन पश्चात् प्रकाशित हुआ था। आपने लिखा, ‘‘हा नारायण! यह क्या हो रहा है? एक पुरुष है और 100 ओर से उसे घसीटता है (अर्थात् घसीटा जाता है)। राजा राममोहन राय उठे, उसके बाद देवेन्द्रनाथ ठाकुर आये, फिर केशवचन्द्र सेन आये, और उनके बाद स्वामी दयानन्द जाहिर हो रहे हैं। सपादक महाशय! जब यह दशा हमारे देश की है, तो फिर बिना तर्क और वादियों के ग्रन्थ देखे घर में ही फैसला कर देना किसी प्रकार से योग्य नहीं प्रतीत होता, और न तो इससे वादियों के मत का खण्डन और साधारण समाज की सन्तुष्टि ही हो सकती है। सब यही कहेंगे कि सब कोई अपने-अपने घर में अपनी स्त्री का नाम ‘महारानी’ रख सकते हैं। अवतार आदि के मानने वालों तथा वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा के स्थापन करने वालों को पूछो कि कभी दयानन्द कृत ‘सत्यार्थप्रकाश’ और ‘वेदभाष्य’ का प्रत्यक्ष विचार भी किया है? ………….प्रिय भ्राता! यदि कोई मन में दोख न करे तो ऐसी सभा के वादियों को इस बात के कहने का स्थान मिलता कि सरस्वती जी (ऋषि दयानन्द) के समुख होकर शास्त्रार्थ कोई नहीं करता, अपने-अपने घरों में जो-जो चाहे ध्रुपद गाते हैं।’’1

जिस पं. भानुदत्त को ऋषि के मन्तव्यों के खण्डन के लिए आगे किया गया, वही खुलकर लिख रहा है कि महर्षि के सामने खड़े होने का किसी में साहस ही नहीं। ऋषि जीवन के ऐसे-ऐसे प्रेरक प्रसंग तो वक्ता भजनोपदेशक सुनाते नहीं। ऋषि की वैचारिक मौलिकता व दिग्विजय की चर्चा नहीं होती। अज्ञात जीवनी की कपोल कल्पित कहानियाँ सुनाकर जनता को भ्रमित किया जाता है।

ईश्वर सबको हर क्षण देखता है और सभी कर्मों का यथोचित फल देता है’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

बहुत से अज्ञानियों के लिए यह संसार एक पहेली है। संसार की जनसंख्या लगभग 7 अरब बताई जाती है परन्तु इनमें से अधिकांश लोगों को न तो अपने स्वरुप का और न हि अपने जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य का ज्ञान है। उन्हें इस संसार को बनाने वाले व हमें व अन्य सभी प्राणियों को जन्म देने वाले ईश्वर के स्वरुप व कर्मों का भी ज्ञान नहीं है। जब अपना, ईश्वर तथा सृष्टि के सत्य स्वरुप का ज्ञान ही नहीं है, तो वह अपने जीवन को सही मार्ग पर चला भी कैसे सकते हैं? अर्थात् नहीं चला सकते। महर्षि दयानन्द अपने बाल जीवन में इनसे मिलते-जुलते अनेक प्रश्नों से परिचित हुए थे परन्तु तब उन्हें अपने पिता व आचार्यों से इन प्रश्नों का समाधान नहीं मिला था। इस कारण उन्हें स्वयं ही इन प्रश्नों के उत्तर व समाधानों की खोज करनी पड़ी जिसकी परिणति उनके समाधि सिद्ध योगी बनने व वेद ज्ञान अर्जित करने पर समाप्त हुई। यह अवस्था उन्हें सन् 1863 में तब प्राप्त हुई जब मथुरा के दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी के यहां उनका अध्ययन समाप्त हुआ था। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी के सामने एक ही कार्य था कि वह एक गुरुकुल रूपी विद्यालय खोलकर वहां विद्यार्थियों को योग व संस्कृत व्याकरण सहित वैदिक साहित्य और वेद की शिक्षा देते। स्वामीजी ने अभी अपने भावी जीवन में किये जाने वाले कार्य की योजना तय नहीं की थी। गुरु-दक्षिणा के अवसर पर उनके गुरुजी ने उन्हें संसार में फैले अविद्यान्धकार का परिचय कराकर उसे दूर करने का अनुरोध किया। उनका कहना था कि संसार में जितने भी मत-मतान्तर प्रचलित हैं, वह सभी अज्ञान व मिथ्या-विश्वासों से पूर्ण है। इन मत-मतान्तरों के कारण ही मनुष्य ईश्वर, जीवात्मा तथा सृष्टि-प्रकृति के सत्यस्वरुप से परिचित नहीं हो पा रहे थे और अपना अमृतमय पावन दुर्लभ जीवन बर्बाद कर रहे थे। उन्होंने ऋषि को आज्ञापूर्ण निवेदन किया कि वह संसार से मत-मतान्तरों का अज्ञान, मिथ्या-विश्वासों, अवैदिक कुरीतियों व नाना सामाजिक विषमताओं व विसंगतियों को मिटाकर इसके साथ हि सत्य ईश्वरीय ज्ञान वेदों का प्रकाश कर लोगों को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सच्चे स्वरुप, जो कि चेतन व जड़ के रूप में हैं, उसको विश्व में फैलायें, उसका प्रकाश व प्रचार करें।

 

महर्षि दयानन्द जी ने गुरुजी की बात के एक-एक शब्द को स्वीकार किया और उन्हें वचन दिया कि वह अपने भावी जीवन में ऐसा ही करेंगे। गुरुजी दयानन्द जी के व्यक्तित्व व व्रतपालन के व्यवहार से परिचित थे। उन्हें विश्वास हो गया कि जो कार्य वह करना चाहते थे परन्तु प्रज्ञाचक्षु वा नेत्रान्ध होने के कारण नहीं कर पाये थे, वह उनका शिष्य अवश्य करेगा। इस विश्वास से उनको अत्यन्त हर्ष हुआ था। महर्षि दयानन्द जी ने अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को मिटाने व समाज का सुधार करने के लिए अपूर्व रीति से वेदों का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। जो महत्वपूर्ण घटनायें उनके प्रचार कार्यों से जुड़ी हैं उनमें 16 नवम्बर, 1869 को हुआ काशी के लगभग 30 शीर्षस्थ पौराणिक पण्डितों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ, उसके बाद 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई नगरी में आर्यसमाज की स्थापना, सन् 1874 में सत्यार्थ-प्रकाश का लेखन और प्रकाशन, उसके बाद ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका सहित वेदभाष्य एवं संस्कार-विधि, आर्याभिविनय, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, आर्योद्देश्यरत्नमाला, संस्कृत की वर्णोच्चरणशिक्षा से लेकर 14 व्याकरण ग्रन्थों की रचना आदि कुछ प्रमुख कार्य भी थे। उन्होंने जीवन में अनेक शास्त्रार्थ किये, सभी मतों के विद्वानों की शंकाओं का उत्तर व समाधान किया, लाहौर, बिहार के आरा आदि अनेक स्थानों पर आर्यसमाजों की स्थापना की तथा परोपकारिणी सभा की स्थापना आदि प्रमुख कार्य किये।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों के आधार पर ईश्वर के जिस सत्यस्वरुप का प्रचार किया उसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। यह भी सिद्ध किया कि संसार में केवल ईश्वर ही उपासनीय हमारी स्तुति प्रार्थानाओं के योग्य अर्थात इनका पात्र है। स्वामीजी के अनुसार ईश्वर के गुणकर्मस्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, वह केवल चेतनमात्र वस्तु है जो एक अद्वितीय, सर्वत्र व्यापक अर्थात संसार के भीतर बाहर विद्यमान उपस्थित है, सत्य गुणवाला है, जिसका स्वभाव अविनाशी है, वह ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध  और अजन्मा आदि है। ईश्वर का कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को उनके पापपुण्य के फल ठीकठीक पहुंचाना है। ओ३म्, ब्रह्म, परमात्मा आदि नाम ईश्वर के ही हैं और इस सृष्टि को बनाकर इसका पालन संहार करने का कार्य भी ईश्वर ही करता है। ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरुप वाली सत्ता ही ईश्वर संज्ञक नाम वाली है। जिसका जन्म हुआ व होता है तथा जिसकी मृत्यु हुई व होती है, वह ईश्वर कदापि नहीं हो सकता। उनके अनुसार ईश्वर का कभी अवतार भी नहीं होता क्योंकि ईश्वर निराकार-स्वरुप से ही अपने समस्त कार्यों को करने में सक्षम व समर्थ है। महर्षि दयानन्द ने जीवात्मा का स्वरुप बताते हुए कहा है कि जीवात्मा सूक्ष्म, चेतन, एकदेशी, अल्प शक्ति व सामर्थ्य वाली, अल्पज्ञ, अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, जन्म-मरण को प्राप्त होने वाली, योग द्वारा उपासना कर समाधि में ईश्वर का साक्षात्कर कर तथा वेदों के ज्ञान व उसके प्रचार-प्रसार से मोक्ष को प्राप्त होने वाली सत्ता है। जीवात्मा के स्वरुप तथा विभिन्न व्यवहारों पर उन्होंने अपने ग्रन्थ सत्यार्थ-प्रकाश में व्यापक रुप से प्रकाश डाला हे। इसी प्रकार से प्रकृति के जड़ स्वरुप व सृष्टि के रुप में इसकी रचना पर भी उन्होंने यथावश्यक प्रकाश डाला है।

 

ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व जीवों के पाप-पुण्य रुपी फलों को देने वाला है। इसका अर्थ है कि ईश्वर हमारे प्रत्येक कर्म का साक्षी है और वह अपने कर्म-फल विज्ञान के अनुसार हमारे सभी कर्मों के सुख-दुःख भोग रूपी फल हमें प्रदान करता है। कर्म-फलों को प्रदान करने के लिए ईश्वर का सर्वव्यापक, साक्षी, व सर्वशक्तिमान होना आवश्यक है। ईश्वर हमारे सभी कर्मों का निराकार, सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी रूपी से हर क्षण का साक्षी है। इसका प्रमाण हमारा और अन्य प्राणियों का मनुष्य व अन्य प्राणी योनियों में जन्म है तथा हम सभी प्राणियों को नित्य प्रति सुख-दुख का भोग करते हुए देख रहे हैं। मृत्यु का समय आने पर जीवात्मा को शरीर से पृथक करने का कार्य भी ईश्वर द्वारा ही सम्पन्न होता है। न चाहकर भी जीव को संसार व शरीर को छोड़कर जाना पड़ता है। पूर्व जन्मों में जिन्होंने वेदानुसार अच्छे शुभ कर्म किये थे, ईश्वर द्वारा इस जन्म में वह मनुष्य बनाये गये और मनुष्यों में भी सुख विशेष की सम्पत्ति उन्हें प्रदान हुई है। कर्मों के न्यूनाधिक होने से ही हमारे परस्पर के सुख व दुःखों में अन्तर होता है। जैसे-जैसे मनुष्य विद्यादि का ग्रहण व तदनुरुप आचरण करता है उसके दुःखों में कमी व सुखों में वृद्धि होती जाती है। कुछ कर्मों के फल इस जन्म के होते हैं व कुछ भोग पूर्व जन्मों व भूतकाल के कर्मों के होते हैं। कुछ कर्मों के फलों का ज्ञान मनुष्य अपनी बुद्धि व विवेक से जान पाता है और कुछ का नहीं जान पाता क्योंकि मनुष्य अल्पज्ञ व अल्पशक्तिवाला है।

 

कर्मफल व्यवस्था पर एक प्रचलित श्लोक है-अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुंभाशुभं। अर्थात् मनुष्य को अपने किये शुभ अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। यह इस कारण है कि ईश्वर हमारे कर्मों पर अपनी दृष्टि जमाये हुए है और उनका साक्षी है। अतः हमें स्वस्थ रहने हेतु जहां व्यायाम व योगासनों को करना है, स्वास्थ्यवर्धक सुपाच्य भोजन करना है, वहीं वेदों का स्वाध्याय व प्रचार करने के साथ हमें सन्ध्या-योग-समाधि का भी अभ्यास भी करना चाहिये और वेद-निर्दिष्ट यज्ञ आदि कर्मों को करके हम पापों से बचकर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का लाभ प्राप्त करें। यही ईश्वर-वेदों, ऋषियों व महर्षि दयानन्द का सन्देश है और यही विवेक से भी सिद्ध होता है। यह भी विशेष रुप से हमें सदैव ध्यान रखना है कि ईश्वर हमारे सभी कर्मों का साक्षी है, हम कर्म करने में स्वतन्त्र है, वह हमें शुभ व अशुभ कर्म करने से रोकता नहीं परन्तु साक्षी होने से असत्य व बुरे कर्मों में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करके उसे न करने की प्रेरणा देता है और जब हम शुभ कर्म करते हैं तो वह हमें अपना समर्थन उत्साह, सुख एवं आनन्द की उत्पत्ति करके करता है। यह भी जानने योग्य है मनुष्यों की ही तरह ईश्वर के पास भी देखने, सुनने, चखने, सूंघने व वाणी आदि जैसी सभी शक्तियां व सामथ्र्य चरम रूप में है। भौतिक आंख न होने पर भी वह हमसे अधिक स्पष्ट देखता है, कान न होने पर भी सुनता है, मुख न होने पर भी उसके पास वेद-वाणी आदि है और अन्य सभी शक्तियों से युक्त वह सर्वशक्तिमान है। ईश्वर सब जीवों के सभी अच्छे व बुरे कर्मों को हर क्षण देखता है वा उनका साक्षी है, यह जानकर उसके कर्म फल विधान को समझकर आईये वेदाध्ययन, वेदाचरण, वेदप्रचार, सन्ध्या व यज्ञ आदि करने का व्रत लें। हमें लगता है कि राजनीति से जुड़े लोगों को ईश्वर के सर्वदर्शी व न्यायकारी दण्ड देने वाले स्वरुप को जानने की अधिक आवश्यकता है। उन्हें वेदाध्ययन कर ईश्वर के कर्म-फल विधान को जानना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्तुता मया वरदा वेदमाता- डॉ धर्मवीर जी

 

देवा इवामृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौयसो वोस्त।

संज्ञान सूक्त के अन्तिम मन्त्र की दूसरी पंक्ति में दो बातों पर बल दिया गया है। एक में कहा है कि परिवार में प्रेम का वातावरण सदा ही रहना चाहिए। यहाँ दो पद पढ़े गये हैं, सायं प्रातः, अर्थात् हमारे परिवारिक वातावरण में प्रेम का प्रवाह प्रातः से सायं तक और सायं से प्रातः तक प्रवाहित होते रहना चाहिए। यह प्रेम सौमनस्य से प्रकाशित होता है। हमारे मन में सद्भाव का प्रवाह होगा, सद्विचारों की गति होगी तो सौमनस्य का भाव बनेगा। प्रेम के लिये शारीरिक पुरुषार्थ तो होता ही है। जब हम किसी की सहायता करते हैं, सेवा करते हैं, छोटों से स्नेह और बड़ों का आदर करते हैं, तब हमारे परिवार में सौमनस्य का स्वरूप दिखाई पड़ता है।

हम यदि सोचते हैं कि प्रेम हमारे परिवार के सदस्यों में स्वतः बना रहेगा, कोई हमारा भाई है, बेटा है, पिता या पुत्र है, इतने मात्र से परस्पर प्रेम उत्पन्न हो जायेगा, यह अनिवार्य नहीं है। हम पारिवारिक सबन्धों में प्रेम की सहज कल्पना करते हैं, परन्तु परिवार का प्राकृतिक सबन्ध प्रेम उत्पन्न करने की सहज परिस्थिति है। इसमें प्रेम के अंकुर निकलते हैं, जिन्हें विकसित किया जा सकता है।

प्रेम का अंकुरण विचारों से होता है, मनुष्य अपनी सेवा सहायता चाहता है, अपना आदर, समान चाहता है, अपनी प्रशंसा की इच्छा करता है। यह विचार हमें सुख देता है, कोई व्यक्ति दृष्टि सेवा सहायता करता है, समान देता है। ऐसे सुख की कामना सभी में होती है, अतः जो भी किसी के प्रति ऐसा करने का भाव रखेगा, उसके मन में इसी प्रकार आदर के भाव उत्पन्न होंगे। आप किसी का आदर करते हैं, दूसरा व्यक्ति भी आपका आदर करता है। आप किसी की सहायता करते हैं, दूसरे व्यक्ति के मन में भी आपके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। आवश्यकता पड़ने पर वह भी आपकी सेवा के लिये तत्पर रहता है।

मनुष्य के मन में स्वार्थ की पूर्ति की इच्छा स्वाभाविक होती है। स्वार्थ पूर्ण करने के लिये उपदेश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परोपकार, धर्म, सेवा, आदर आदि में कार्य बुद्धिपूर्वक सोच-विचार कर ही किये जा सकते हैं, अतः ये विचार हमारे हृदय में सदा बने रहें, इसका प्रयत्न करना पड़ता है। इसी के उपाय के रूप में कहा गया है कि हमें सौमनस्य की निरन्तर रक्षा करनी होती है, तभी सौमनस्य सपूर्ण समय बना रह सकता है।

सौमनस्य बनाना पड़ता है, उसके लिये बहुत सावधानी सतर्कता की आवश्यकता होती है। मनुष्य में स्वार्थ की वृत्तियाँ सदा सक्रिय रहती हैं। उनपर नियन्त्रण रखने के लिये सदा सजग रहने की आवश्यकता है। इसके लिये वेद में उदाहरण दिया गया है, जैसे देवता लोग अमृत की रक्षा में तत्पर रहते हैं, वैसे मनुष्य को भी अपने वातावरण में सदाव सौमनस्य की रक्षा करने के लिये तत्पर रहना चाहिए। पुराणों में कथा आती है- देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मन्थन किया और सोलह पदार्थ प्राप्त किये। जब समुद्र से अमृत निकला तो देवताओं ने उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस बात का जैसे ही असुरों को ज्ञान हुआ, वे अमृत प्राप्त करने के लिये देवताओं से संघर्ष करने लगे। जहाँ-जहाँ इस संघर्ष के कारण अमृत के बिन्दु गिरे, वहाँ-वहाँ अच्छी-अच्छी चीजें बनीं, उत्पन्न हुईं उन पदार्थों में कोई न्यूनता है तो असुरों के स्पर्श के कारण, जैसे लशुन की अमृत से उत्पत्ति मानी गई है, परन्तु इसमें दुर्गन्ध का कारण इससे असुरों का स्पर्श कहा गया है।

प्रकृति में देवता निरन्तर नियमपूर्वक कार्य करते हैं, तभी संसार नियमित रूप से चल रहा है। यदि एक क्षण के लिये भी देवता अपना काम छोड़ दें तो संसार में प्रलय उत्पन्न हो जायेगी। हम सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, वायु आदि को देखकर इस बात का निश्चय भली प्रकार कर सकते हैं। इसी कारण व्रत धारण करते समय देवताओं के व्रत धारण को उदाहरण के रूप में स्मरण किया जाता है, ‘अग्ने व्रतपते’ हे अग्नि! तू व्रत पति है तेरा व्रत भी नहीं टूटता मैं भी तेरे समान व्रत पति बनूँ कहा गया है।

देवताओं का एक नाम अनिमेष है। वे कभी पलक भी नहीं झपकाते, सदा सतर्क, सावधान रहते हैं। वैसे भी परिवार समाज में सौमस्य बनाये रखने के लिये मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए, सौमनस्य बना रह सकता है। देवताओं का देवत्व अमृत से ही है, अमृत नहीं है तो उनका देवत्व ही समाप्त हो जाता है। और अमरता है- व्रत न टूटना। व्रत टूटते ही मृत्यु है…….. हमें देवताओं के समान अपने सदविचारों की सदा रक्षा करनी चाहिये, तभी सौमनस्य की प्राप्ति सभव है।

ब्रह्मकुमारियों के षड़यंत्र से सावधान – स्वामी पूर्णानन्द

ब्रह्मकुमारियों के षड़यंत्र से सावधान

– स्वामी पूर्णानन्द

लगभग 58 वर्ष पहले स्वामी पूर्णानन्दजी द्वारा लिखा गया यह आलेख आज भी हमें सावधान करता है।

-सपादक

सब हिन्दू धर्मावलबी सज्जनों की सेवा में निवेदन किया जाता है कि लगभग 2 वर्ष से मेरठ में ब्रह्माकुमारियों का एक गुप्त आंदोलन चल रहा है जो हिन्दू धर्म और हमारी संस्कृति के मौलिक सिद्धान्तों को जड़-मूल से उखाड़ कर फैंकने में प्रयत्नशील है, आर्य समाज इसको आशंका की दृष्टि से देखता है। दैवयोग से दिनांक 11.12.56 को हमें ब्रह्माकुमारियों की ओर से उनके एक उत्सव में समिलित होने का निमंत्रण मिला और साथ ही हमें यह आश्वासन भी मिला कि ब्रह्माक़ुमारियों के उपदेश के पश्चात् आप लोगों को शंका-समाधान के लिये समय दिया जायेगा।

हम सांय 6 बजे शर्मा स्मारक में पहुँच गये, जहाँ उनका उत्सव हो रहा था। हमने 2 घंटे तक उनके व्यायानों को सुना और व्यायान की समाप्ति पर शंका-समाधान के लिये समय माँगा, परन्तु उन्होंने उत्तर देना स्वीकार न किया और टाल दिया कि हमारा नियम बहस करने का नहीं। उनके इस व्यवहार से हमें निश्चय हो गया कि यह केवल एक षड़यत्र है, जिसके द्वारा हिन्दू देवियों को अपने पाखण्ड़ के जाल में फँसाना है, इसलिये हम हिन्दू भाई-बहनों को सावधान करते हैं कि वह इनके भुलावे में न आवें।

पोल खोलने हेतु उनकी पुस्तकों के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं-

20 वर्ष पूर्व सिंध के एक व्यक्ति लेखराज नेएक कीर्तन मण्डली बनाई, जिसमें केवल स्त्रियाँ ही जाती थी। वह कीर्तन मण्डली लेखराज के घर पर ही लगती थी। रात्रिभर कीर्तन और रासलीला होती थी। अपने पाखण्ड पर पर्दा डालने के लिये इस मण्डली का नाम ‘ओ3म् मण्डली’ रखा गया। जब लेखराज के पास पर्याप्त संया में कुँआरी कन्याएँ और विवाहिता स्त्रियाँ आने-जाने लगीं तो उसने कहना प्रारभ किया कि भगवान चतुर्भुज विष्णु ने मेरे अंदर प्रवेश किया है, मैं गोपीवल्लभ भगवान कृष्ण हूँ। इस महाघोर कलिकाल में पाप बहुत बढ़ रहे हैं, उनको मिटाने के लिये मेरे शरीर में भगवान का अवतरण हुआ है। अपने पास आने वाली कन्याओं और स्त्रियों को कहा कि तुम पूर्व जन्म की गोपियाँ हो, उनमें से एक को राधा बतलाया।

स्त्रियों को कहा कि तुहारे सबंधी (भाई, पति, माता, पिता इत्यादि) तुहारे विकारी सबंधी हैं, वे तुहारे वास्तविक सबंधी नहीं, वे तो तुहारे शत्रु हैं। वे कंस और जरासंध हैं जो तुहें गृहस्थ रूपी जेल में रखना चाहते हैं। तुहारा नित्य सबंध तुहें मेरे पास आने से रोकें तो मत मानों। लेखराज के इस प्रचार का यहा प्रभाव हुआ कि बहुत सारी कुँआरी कन्याओं और स्त्रियों ने अपने सबंधियों की मार्यादाओं के अंदर रहने से इंकार कर दिया। इससे सिंध की हिन्दू जनता कुलबुला उठी।

उन कन्याओं के वारिसों ने लेखराज के ऊपर मुकदमा चलाया, जिसके फलस्वरूप न्यायालय ने लेखराज को अपराधी ठहरा कर जेल भेज दिया और सरकार ने ओ3म् मण्डली पर प्रतिबंध लगा दिया। जेल से छूटने के पश्चात् लेखराज कराँची से भागकर भारत में आ गया और माउंटआबू पर अपना अड्डा बनाकर उसी मण्डली का नाम बदल कर राजस्व अश्वमेघ अविनाशी ज्ञानयज्ञ रखा।

इस मण्डली में इस समय 55 स्त्रियाँ और 68 कन्याएँ हैं जो अपने माता-पिता और भाई-बंधुओं को छोड़कर अपने घरों से भाग आई हैं। इन्होंने 14 बड़े-बड़े नगरों में अपने केन्द्र खोले हुए हैं। एक-एक केन्द्र में कई-कई स्त्रियाँ रहती हैं। हिन्दुओं को धोखें में डालने के लिये इन स्त्रियों का नाम ब्रह्माकुमारियाँ रखा हुआ है। वे लोगों के घरों में जाती हैं और नौजवान स्त्रियों को सजबाग दिखा कर अपने काबू में कर लेती हैं।

शुरू-शुरू में भगवान कृष्ण आदि हिन्दू देवताओं का नाम लेकर और श्रीमद्भगवद्गीता की बातें सुना कर उन पर यह प्रभाव डालती हैं कि हम भी हिन्दू ही हैं और हम तुम लोगों को सहज योग सिखाती हैं। परंतु आहिस्ता-आहिस्ता जब स्त्रियाँ इनके जाल में फँस जाती हैं तो हिन्दू धर्म और उसके धार्मिक ग्रंथों-यथा वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, स्मृतियाँ, पुराण, इतिहास और दर्शन शास्त्रों की निंदा करने लगती हैं। वे हिन्दुओं की भक्ति, पूजा-पाठ, जप-तप, यम-नियम, संध्या और गायत्री को झूठा बतलाती हैं और कहती हैं कि लेखराज का ध्यान करने से ही इस लोक और परलोक की सिद्धि हो सकती है और यह कि लेखराज ही परम पिता परमात्मा त्रिमूर्ति भगवान शिव हैं।

उनकी पुस्तकों के कुछ उदाहरण पाठकों की जानकारी के लिये नीचे दिये जाते हैंः-

  1. 1. ‘घोरकलहयुग विनाश’ नाम की पुस्तक के पृष्ठ-12 पर लिखा है कि ‘‘बुतपरस्त हिन्दू कहलाने वाली कौम व्याभिचारी भक्तिमार्ग में फंस कर इतनी बुतपरस्त बन गई है कि अपने शास्त्रों में अपने देवताओं के अनेक मनोमय चित्र बनाकर उन्हें कलंकित किया है। वे अपने शास्त्रों में लिखते हैं कि ब्रह्मा अपनी बेटी सरस्वती पर मोहित हुआ, शिव मोहनी के ऊपर मोहित होकर उसके पीछे पड़ा।’’
  2. 2. इसी पुस्तक के पृष्ठ – 13 पर लिखा है- ‘‘वास्तव में परमात्मा का अवतार एक ही है, जो कल्प-कल्प के संगम पर एक ही बार भारतवर्ष में साधारण स्वरूप में बूढ़े तन (लेखराज के बूढ़े शरीर) में गुरु ब्रह्मा नाम से प्रत्यक्ष होता है, न कि अनेक रूपों से अनेक बार, जैसा कि मूढ़मति हिन्दू लोग शास्त्रों में दिखाते हैं।’’
  3. 3. फिर उसी पृष्ठ पर लिखा है- ‘‘हिन्दू लोगों के बड़े-बड़े गुरु, विद्वान, आचार्य, पण्डित इत्यादि इतना भी नहीं जानते कि गीता में जो महावाक्य नूधे हैं, वे किसके हैं और भागवत में किसका चरित्र गाया गया है। वे समझते हैं कि गीता श्रीकृष्ण ने उच्चरण की है और भागवत मेंाी श्री कृष्ण का जीवन चरित्र नूधा हुआ है, जिस कारण ‘कृष्णम् वंदे जगत् गुरूम्’ गाते हैं, यह इनकी बड़ीाारी भूल है।’’………श्रोमणी भगवद्गीता से हम सिद्ध कर सकते हैं कि गीता में श्रीकृष्ण के महावाक्य नहीं हैं, बल्कि परमात्मा त्रिमूर्ति गुरु ब्रह्मा (लेखराज) के महावाक्य हैं।
  4. 4. ‘‘रामायण भी श्रीरामचन्द्र का जीवन-चरित्र सिद्ध नहीं करती।…. वास्तव में रामायण तो एक नावल (उपन्यास) है, जिसमें तो एक सौ एक प्रतिशत मनोमय गपशप डाला गया है।’’-उसी पुस्तक का पृष्ठ-14
  5. 5. फिर उसी पुस्तक के पृष्ठ-16 पर लिखा है-‘‘पिता श्री परमात्मा गुरु ब्रह्मा की कल्प पहले वाली गाई गीता में महावाक्य है कि भक्तिमार्ग के अनेक प्रयत्न जैसे कि वेद अध्ययन,यज्ञ, जप, तप, तीर्थ, व्रत, नियम, दान, पुण्य,संध्या, गायत्री, मूर्तिपूजा, प्रार्थना इत्यादि करने से मैं नहीं मिलता।’’
  6. 6. ‘ब्रह्माकुमारियों की संस्था का परिचय’ नाम की पुस्तक में लिखा है- ‘‘भागवत प्रसिद्ध गोपियाँ श्री ब्रह्मा की हैं न कि श्रीकृष्ण की।’’-पृष्ठ 4
  7. 7. श्रीकृष्ण को योगीराज अथवा जगत्गुरु अथवा जगत्पिता नहीं कहा जा सकता…श्री कृष्ण सृष्टि को ज्ञान नहीं देते।’’-पृष्ठ-6
  8. 8. ‘घोर कलहयुग विनाश’ में लिखते हैं -‘‘हर एक नर-नारी अपने से पूछे कि मैं अपने परमपिता निराकार परमात्मा और साकार ईश्वर पिता गुरु ब्रह्मा और मातेश्वरी श्री सरस्वती आदम और बीवी (हव्वा) के नाम, रूप निवास-स्थान और अवतार धारण करने के समय को जानता हूँ।’’-पृष्ठ – 1
  9. 9. उसी में लिखा है -‘‘जो साकार विश्वपिता आदिदेव त्रिमूर्ति गुरु ब्रह्मा, दैवी पिता इब्राहिम, बुद्ध और क्राइस्ट हैं जो हर एक कल्प-कल्प अपने-अपने समय पर अपने-अपने वारिसों सहित अपना-अपना देवी-देवता इस्लामी, बौद्ध और क्रिश्चियन घराना स्थापन करने अर्थ निमित बने हुए हैं।’’- पृष्ठ -2

पाठक इस थोड़े से लेख से समझ सकते हैं कि हिन्दुओं को अपने स्वधर्म से भ्रष्ट करने के लिये ब्रह्माकुमारियों का यह कितना भयंकर षड़यंत्र रचा हुआ है, इसलिये हिन्दुमात्र से सानुरोध निवेदन है कि आगामी विनाश को दृष्टि में रखकर भेड़ों की खाल में ढकी हुई इन भेड़िनों को अपने घरों में आने से सर्वथा रोक दें और अपने स्त्री-बच्चों को इनकी काली करतूतों से परिचित करा देवें। इनके विशेष परिचय के लिये शीघ्र ही और साहित्य आपकी सेवा में प्रस्तुत किया जायेगा।

संकलन – डॉ. वीरोत्तम तोमर,

सौजन्य से-आर्यशिखा स्मारिका, नवबर-2014 मेरठ शहर

जिज्ञासा समाधान – आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा: – 

पौराणिक कहे जाने वाले भाइयों में मृतक-भोज 10वाँ या तेरहवीं का रिवाज है, जिसमें लोगों को आमन्त्रित कर भोजन खिलाया जाता है तथा ब्राह्मण को दान देकर पूजा-पाठ आदि भी कराया जाता है।

उक्त हवन के लिये आर्य समाज के पुरोहित या अन्य लोगों को भी बुलाया जाता है।

तो क्या हवन आदि कराने हेतु जाना चाहिये अथवा नहीं।

समाधान-

समस्त मत-सप्रदायों में कहीं-न-कहीं पाखण्ड अंधविश्वास मिल ही जाता है अथवा उनमें पाखण्ड अंधविश्वास है। हमें हिन्दुओं में कुछ अधिक दिखता है। ये लोग बिना विचारे-समझे ही किसी भी पाखण्ड की ओर अग्रसर हो जाते हैं। यहाँ पत्थर, पहाड़, पेड़, नदी, नाले, समुद्र, पोखर, यहाँ तक की मल को भी पूजने वाले लोग मिलते हैं। अपराधी गुरु बनकर पूजा जा रहा है। गुरु के रूप में आकर जनता को ठगना और अपने गुरु रूपी आडबर की आड़ में अधिक-से-अधिक अपराध करना, ऐसा होते हुए भी देश की जनता का उनको पूजना-कितनी विडबना की बात है।

परमेश्वर को छोड़ गुरु की पूजा-अराधना करना, माता-पिता, आचार्य का उपदेश न मान, ढोंगी गुरु की बातें अपनाना, अनर्थ ही तो है।

इसी प्रकार मृतक श्राद्ध आदि की कथा है। जीवित मनुष्यों की सेवाह-सुश्रुषा न कर करने के बाद उनको तृप्त करने का पाखण्ड करना, मरने के बाद दस दिन वा तेरह दिन तक व्यर्थ के कार्य करना, जब कि वेद व ऋषियों का मन्तव्य है कि मरने के बाद उसको दाह-संस्कार कर, तीसरे दिन अस्थि चयन कर उन अस्थियों को कहीं दबा कर शुद्ध हो जाना, इसके उस मृत व्यक्ति के लिए कोई भी कार्य शेष नहीं रह जाता, फिर भी ये तेहरवीं वाली परपरा तो चला ही रखी है। इस दिन प्रायः पूजा-पाठ, हवन आदि करवाये जाते हैं। आपका कथन है कि इनके यहाँ आर्य समाज का पुरोहित व अन्य जनों को जाना चाहिए वा नहीं। इस पर हमारा कथन है कि जाने में तो कोई दोष नहीं है। यदि आर्य पुरोहित जायेगा तो वैदिक रीति से कर्मकाण्ड करेगा, कुछ अच्छा उपदेश करेगा, जिससे कुछ लोगों पर इसका प्रभाव भी पड़ेगा। हाँ, वहाँ जाकर यदि उनकी पाखण्ड की बातों का समर्थन करता है या उनके अनुसार कर्मकाण्ड करता है, तो अनुचित है। यदि हमें ज्ञात हो कि वहाँ जाने पर हमारे ऊपर इस पाखण्ड को करने का दबाव डाला जायेगा और हम उस दबाव का विरोध नहीं कर सकते, तो वहाँ नहीं जाना चाहिए। सामान्य रूप में जाने से कोई हानि नहीं है, जाया जा सकता है।

जिज्ञासा समाधान : आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाकुछ जिज्ञासायें मन में हैं। कृपया समाधान करने का कष्ट करेंः-

1-यम, 2-नियम, 3-आसन, 4-प्राणायाम, 5- प्रत्याद्वार, 6-धारणा, 7-ध्यान एवं 8-समाधि। यह क्रम महर्षि पतञ्जलि ने योग दर्शन में दिया है।

क्या यम-नियम का पालन करने वाला व्यक्ति भी सीधे ध्यान (7) अवस्था में पहुँचकर ध्यान का अयास कर सकता है? यदि कर सकता है तो फिर यम- नियम आदि की क्या आवश्यकता है?

आखिर यह ‘‘ध्यान प्रशिक्षण योजना’’ जो परोपकारी पत्रिका मार्च (प्रथम) 2015 में प्रकाशित है व पहलेाी कई बार प्रकाशित/प्रचारित हुई है, क्या है?

समाधान– (क) ध्यान/उपासना के लिए यम-नियम रूप योगाङ्गों का अनुष्ठान अनिवार्य है। इसको महर्षि पतञ्जलि अपने योगदर्शन में कहते हैं। महर्षि दयानन्द नेाी इस तथ्य को अनिवार्य कहा है। महर्षि उपासना प्रकरण ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखते हैं- ‘……….इन पाँचों का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से उपासना का बीज बोया जाता है।’’ ऋषियों के इन मन्तव्यों से तो यही ज्ञात हो रहा है कि ध्यान-उपासना के लिए यम-नियम का पालन करना अनिवार्य है।

अब हम थोड़ा विचार इन आठ अङ्गों पर कर लेते हैं। इन योगाङ्गों की व्याया करते हुए प्रायः उपदेशक वर्ग इनक ो सीढ़ी की भाँति बताया करता है, अर्थात् जैसे ऊपर चढ़ने के लिए हम सीढ़ी का प्रयोग करते हैं। सीढ़ी से चढ़ने के लिए पहले हम प्रथम सीढ़ी पश्चात् दूसरी, तीसरी आदि का प्रयोग करते हैं, पहली से अन्तिम पर नहीं पहुँच जाते वहाँ तो क्रम है। ऐसे ही इन योगाङ्गों की व्याया की जाती है, अर्थात् पहले यम को सिद्ध करें फिर नियम को पश्चात् आसन को आदि।

किन्तु यह जो सीढ़ी की तरह कहना दिखाना है, युक्ति युक्त नहीं है, क्योंकि बिना यम-नियम के पालन से भी व्यक्ति आसन लगा सकता है, प्राणायाम कर सकता है। यदि ऐसा न होता तो कोई आसन, प्राणायाम न कर सकता था, इसलिए यह सीढ़ी वाला उदाहरण योगाङ्गों में घटाना सर्वाथा युक्त नहीं है।

इसमें यह अवश्य समझना चाहिए कि व्यक्ति जितना-जितना यम-नियम का पालन करता जायेगा, वह उतना-उतना धारणा, ध्यान की ओर अग्रसर होता चला जायेगा। कोई यह न समझे कि जब इन यम-नियम को पूरी तरह सिद्ध कर लूँगा, तब ही ध्यान करुँगा। ध्यान का अयास यम-नियम की प्रारभिक अवस्था से किया जा सकता है। हाँ, ध्यान की ऊँची अवस्था तो यम-नियम के पूर्ण रूप से पालन करने पर ही होगी, किन्तु प्रारभ में भी जब व्यक्ति सात्विक भाव से युक्त होकर ध्यान करता है तो उसको भी प्रारभिक ध्यान का आनन्द तो आयेगा ही।

इतना सब लिखने का तात्पर्य यही है कि सर्वथा यम-नियम से रहित व्यक्ति तो ध्यान नहीं कर सकता अपितु जो जितने अंश में इनका पालन करता है, वह इतने स्तर का ध्यान भी कर सकता है, किन्तु जिस ध्यान की बात महर्षि पतञ्जलि करते हैं, वह ध्यान तो नहीं होगा, फिर भी इस ध्यान को आप गौण रूप में तो देख ही सकते हैं।

आपने परोपकारिणी सभा की ध्यान पद्धति के विषय में पूछा है। इस विषय में आपको बता दें कि इस ध्यान पद्धति की योजना इस कारण बनी कि सब मत-सप्रदाय प्रायः अपने-अपने विचार से ध्यान करवाते हैं। हमारे आर्य समाज में संध्या की जाती है। संध्या के बहुत सारे मन्त्र हैं, इन मन्त्रों को सब कोई नहीं जानता। जो नहीं जानता वह भी वैदिक रीति से ध्यान, उपासना कर सके, उसके लिए यह ध्यानह-पद्धति विद्वानों ने मिलकर तैयार की है। इस ध्यान पद्धति में अवैदिक और सिद्धान्त विरुद्ध कुछ भी नहीं है। यह पद्धति ऋषियों की रीति अनुसार विद्वानों द्वारा निर्मित है। इस पद्धति से साधारण से साधारण व्यक्ति भी ध्यान कर सकता है।

इस ध्यान-पद्धति का अनेक लोग लाभ उठा रहे हैं और जिन्होंने इसका प्रशिक्षण परोपकारिणी सभा से लिया है वे प्रशिक्षक होकर अन्यों को भी सिखा रहा है। इस प्रकार इससे अनेक जन उपकृत हो रहे हैं।

जैसे ऊपर कहा जा चुका है कि यह ध्यानह-पद्धति जन साधारण भी कर सके उसके लिए है। उन जन साधारण के लिए तो इस पद्धति को पर्याप्त कह सकते हैं किन्तु जो विशेष अध्यात्म के मार्ग में योग्यता रखते हैं, उनके लिए  कदाचित यह पर्याप्त न हो। यह ध्यान-पद्धति दो भागों में विभक्त कर रखी है, एक पन्द्रह मिनट की और दूसरी तीस मिनट की। जो लोग ध्यान करना चाहते हैं किन्तु विशेष योग्यता नहीं रखते, वे इस पन्द्रह मिनट की ध्यान- पद्धति का लाभ उठा सकते हैं और जो कुछ योग्य हैं, उनके लिए तीस मिनट की ये पद्धति है। वे इससे लाभ उठा सकते हैं। किन्तु जो विशेष योग्यता रखते हैं, वे महर्षि वर्णित उपासना प्रकरण व योग दर्शन के अनुसार अपने को प्रगति दे सकते हैं अथवा ध्यान योग शिविरों में इस विषय के योग्य विद्वानों के संग अपना परिष्कार कर सकते हैं। इस विषय में इतना ही।

ऋषि दयानन्द की विलक्षणता: डॉ धर्मवीर

ऋषि दयानन्द की विलक्षणता

ऋषि दयानन्द के जीवन में कई विलक्षणताएँ हैं, जैसे-

घर न बनानाकिसी भी मनुष्य के मन में स्थायित्व का भाव रहता है। सामान्य व्यक्ति भी चाहता है कि उसका कोई अपना स्थान हो, जिस स्थान पर जाकर वह शान्ति और निश्चिन्तता का अनुभव कर सके। एक गृहस्थ की इच्छा रहती है कि उसका अपना घर हो, जिसे वह अपना कह सके, जिस पर उसका अधिकार हो, जहाँ पहुँचकर वह सुख और विश्रान्ति का अनुभव कर सके।

यदि मनुष्य साधु है तो भी उसे एक स्थायी आवास की आवश्यकता अनुभव होती है। उसका अपना कोई मठ, स्थान, मन्दिर, आश्रम हो। वह यदि किसी दूसरे के स्थान पर रहता है तो भी उसे अपने एक कमरे की, कुटिया की इच्छा रहती है, जिसमें वह अपनी इच्छा के अनुसार रह सके, अपने व्यक्तिगत कार्य कर सके, अपनी वस्तुओं को रख सके।

ऋषि दयानन्द इसके अपवाद हैं। घर से निकलने के बाद उन्होंने कभी घर बनाने की इच्छा नहीं की। उन्हें अनेक मठ-मन्दिरों के महन्तों ने अपने आश्रम देने, उनका महन्त बनाने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु ऋषि ने उन सबको ठुकरा दिया। राजे-महाराजे, सेठ-साहूकारों ने उन्हें अपने यहाँ आश्रय देने का प्रस्ताव किया, परन्तु ऋषि ने उनको भी अस्वीकार कर दिया। ऐसा नहीं है कि ऋषि को इसकी आवश्यकता न रही हो। ऋषि ने वैदिक यन्त्रालय के लिये स्थान लिया, मशीनें खरीदीं, कर्मचारी रखे, परन्तु उसको अपने लिये बाधा ही समझा। पत्र लिखते हुए ऋषि ने लिखा- आज हम गृहस्थ हो गये, आज हम पतित हो गये। इसमें उनकी इस आवश्यकता के पीछे की विवशता प्रकाशित होती है।

एक ऋषि भक्त मास्टर सुन्दरलाल जी ने ऋषि को लिखा- आपकी लिखी-छपी पुस्तकें मेरे घर में रखी हैं, उन्हें कहाँ भेजना है? तब ऋषि ने बड़ा मार्मिक उत्तर सुन्दरलाल को लिखा- मेरा कोई घर नहीं है, तुहारा घर ही मेरा घर है, मैं पुस्तकों को कहाँ ले जाऊँगा? इस बात से उनकी निःस्पृहता की पराकाष्ठा का बोध होता है।

पशुओं के अधिकारों की रक्षा बहुत लोग दया परोपकार का भाव रखते हैं, वे प्राणियों पर दया करते हैं, उनकी रक्षा भी करते हैं, परन्तु ऋषि पशुओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं। पशुओं की रक्षा के लिए समाज के सभी वर्गों से आग्रह करते हैं, उनके विनाश से होने वाली हानि की चेतावनी देते हैं, ऋषिवर कहते हैं- गौ आदि पशुओं के नाश से राजा और प्रजा का भी नाश हो जाता है। ऋषि ने कहा है- हे धार्मिक सज्जन लोगो! आप इन पशुओं की रक्षा तन, मन और धन से क्यों नहीं करते? हाय!! बड़े शोक की बात है कि जब हिंसक लोग गाय, बकरे आदि पशु और मोर आदि पक्षियों को मारने के लिये ले जाते हैं, तब वे अनाथ तुम हमको देखके राजा और प्रजा पर बड़े शोक प्रकाशित करते हैं-कि देखो! हमको बिना अपराध बुरे हाल से मारते हैं और हम रक्षा करने तथा मारनेवालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिये उपस्थित रहना चाहते हैं और मारे जाना नहीं चाहते। देखो! हम लोगों का सर्वस्व परोपकार के लिये है और हम इसलिये पुकारते हैं कि हमको आप लोग बचावें। हम तुहारी भाषा में अपना दुःख नहीं समझा सकते और आप लोग हमारी भाषा नहीं जानते, नहीं तो क्या हममें से किसी को कोई मारता तो हमाी आप लोगों के सदृश अपने मारनेवालों को न्याय व्यवस्था से फाँसी पर न चढ़वा देते? हम इस समय अतीव कष्ट में हैं, क्योंकि कोई भी हमको बचाने में उद्यत नहीं होता।

ऋषि केवल धार्मिक आधार पर ही प्राणि-रक्षा की बात नहीं करते, वे उनके अधिकार की बात करते हैं। समाज को उनके हानि-लाभ का गणित भी समझाते हैं। एक गाय के मांस से एक बार में कितने व्यक्तियों की तृप्ति होती है? इसके विपरीत एक गाय अपने जीवन में कितना दूध देती है? उसके कितने बछड़े-बछड़ियाँ होती हैं, बैलों से खेती में कितना अन्न उत्पन्न होता है, गाय के गोबर-मूत्र से भूमि कितनी उर्वरा होती है? ऐसा आर्थिक विश्लेषण किसी ने उनसे पूर्व नहीं किया। जहाँ तक प्राणियों के लिये ऋषि के मन में दया भाव का प्रश्न है, वह दया तो केवल दयानन्द के ही हृदय में हो सकती है। ऋषि लिखते हैं- भगवान! क्या पशुओं की चीत्कार तुहें सुनाई नहीं देती है? हे ईश्वर! क्या तुहारे न्याय के द्वार इन मूक पशुओं के लिये बन्द हो गये हैं?

अनाथ एवं अवैध सन्तानों के अधिकारों की रक्षाऋषि ने समाज में जो बालक-बालिकायें, माता-पिता और संरक्षक-विहीन, अभाव-पीड़ित, प्रताड़ित और उपेक्षित थे, उनके अधिकारों के लिये सरकार से लड़ाई लड़ी।

जो बालक अविवाहित माता-पिता की सन्तान हैं, समाज उन्हें हीन समझता है, उन बालकों को अवैध कहकर, उनकी उपेक्षा करता है। ऋषि कहते हैं- माता-पिता का यह कार्य समाज की दृष्टि में अवैध कहा जाता हो, परन्तु इसमें सन्तान किसी भी प्रकार से दोषी नहीं है। साी बालक ईश्वर की व्यवस्था से तथा प्रकृति के नियमानुसार ही उत्पन्न होते हैं, अतः वे समाज में समानता के अधिकारी हैं। उनकी उपेक्षा करना, उनके साथ अन्याय है।

कोई शिष्य, उत्तराधिकारी नहीं बनाया- सभी मत-सप्रदाय परपरा के व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी नियुक्त करते हैं। ऋषि के समय उनके भक्त, शिष्य, अनुयायी थे, परन्तु किसी भी व्यक्ति को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाया। उन्होंने अपनी वस्तुओं और धन का उत्तराधिकारी परोपकारिणी सभा को बनाया। अपने धन को सौंपते हुए, वेद के प्रचार-प्रसार और दीन-अनाथों की रक्षा का उत्तरदायित्व दिया। विचारों और सिद्धान्तों के प्रचार के लिये आर्यसमाज के दस नियम और उनका पालन करने के लिये आर्यसमाज का संगठन बनाया।

धार्मिक क्षेत्र में प्रजातन्त्र का प्रयोगधर्म और आस्था के क्षेत्र में उत्तराधिकार और गुरु-परपरा का स्थान मुय रहा है। शासन-परपरा में ऋषि के समय विदेशों में प्रजातन्त्र स्थापित हो रहा था। भारत में राजतन्त्र ही चल रहा था। अंग्रेज लोग राजाओं के माध्यम से ही भारतीय प्रजा पर शासन कर रहे थे। जहाँ राजा नहीं थे, वहाँ अंग्रेज अधिकारी ही शासक थे। शासन में जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। ऋषि का कार्य क्षेत्र धार्मिक और सामाजिक था। इस क्षेत्र में प्रजातन्त्र की बात नहीं की जाती थी, गुरु-महन्त जिसको उचित समझे, उसे अपना उत्तराधिकारी चुन सकते थे। सभी लोग गुरु के आदेश को शिरोधार्य करके उसका अनुसरण करते थे, आज भी ऐसा हो रहा है।

धार्मिक क्षेत्र आस्था और श्रद्धा का क्षेत्र है। व्यक्ति के मन में जिसके प्रति आस्था हो, वह उसको गुरु मान लेता है, उसका अनुयायी हो जाता है, परन्तु स्वामी जी ने इस क्षेत्र में तीन बातों का समावेश किया- प्रथम बात, किसी के प्रति श्रद्धा करने से पूर्व उसकी परीक्षा करना, किसी भी विचार को परीक्षा करने के उपरान्त ही स्वीकार करना। आज तक किसी गुरु ने शिष्य को यह अधिकार नहीं दिया कि वह गुरु की बातों की परीक्षा करे, उसके सत्यासत्य को स्वयं जाँचे। यही कारण है कि स्वामी जी के शिष्यों में गुरुडम को स्थान नहीं है।

ऋषि की दूसरी विलक्षणता- परीक्षा करने की योग्यता मनुष्य में तब आती है, जब वह ज्ञानवान होता है और मनुष्य को ज्ञानवान गुरु ही बनाता है। ऋषि दयानन्द अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायी लोगों को पहले ज्ञानवान बनाते हैं, फिर उस ज्ञान से अपने विचार की परीक्षा करने को कहते हैं।

सामान्य गुरु लोग अपने भक्तों और शिष्यों को ज्ञान का ही अधिकार नहीं देते, परीक्षा करने के अधिकार का तो प्रश्न ही नहीं उठता। ऋषि मनुष्य मात्र को ज्ञान का अधिकारी मानते हैं, अतः ज्ञान का उपयोग परीक्षा में होना स्वाभाविक है। तीसरी बात ऋषि ने धार्मिक क्षेत्र में की, वह है  प्रजातान्त्रिक प्रणाली का उपयोग। धार्मिक लोग सदा समर्पण को ही मान्यता देते हैं, वहाँ गुरु परपरा ही चलती है, परन्तु ऋषि ने धार्मिक संगठनों की स्थापना कर उनमें प्रजातन्त्रात्मक पद्धति का उपयोग किया। यह विवेचना का विषय हो सकता है कि यह पद्धति सफल है या असफल है। मनुष्य की बनाई कोई भी वस्तु शत-प्रतिशत सफल नहीं हो सकती, अतएव समाज में नियम, मान्यता, व्यवस्थाएँ सदा परिवर्तित होती रहती हैं। गुरुडम की समाप्ति प्रजातन्त्र के बिना सभव नहीं थी, अतः ऋषि ने इसे महत्त्व दिया है। प्रजातन्त्रात्मक पद्धति की विशेषता है कि इसमें योग्यता का समान होता है। इसमें हम देखते हैं कि योग्यता के कारण एक व्यक्ति जो सबसे पीछे था, वह इस पद्धति में एक दिन सबसे अग्रिम पंक्ति में दिखाई देता है।

मूर्ति-पूजा- मूर्ति पूजा एक ऐसा प्रश्न है, जिसके निरर्थक होने में बुद्धिमान सहमत हैं, परन्तु व्यवहार में स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं। ऋषि ने मूर्ति-पूजा को पाप और अपराध कहा, इसके लिये पूरे देश में शास्त्रार्थ किये। काशी के विद्वानों को ललकारा। ऋषि मूर्ति-पूजा के विरोध के प्रतीक बन गये। समाज में समाज-सुधारकों की बड़ी परपरा है, प्रायः सभी ने उसको यथावत् स्वीकार करके ही अपनी बात रखी, जिससे उनके अनुयायी बनने में जनता को किसी प्रकार की कठिनाई नहीं आई। लोगों ने अपने भगवानों की पंक्ति में सुधारकों को भी समानित स्थान दे दिया। आश्चर्य है, आचार्य शंकर जैसे विद्वान्, जिनके लिये अखण्ड एकरस ब्रह्म जिसके सामने जीना-मरना, संसार का होना, न होना कोई अर्थ नहीं रखता, वे शिव की मूर्ति को भगवान मानकर उसकी पूजा-अर्चना करना ही अपना धर्म मानते हैं। तस्मै नकाराय नमः शिवाय जैसा स्तोत्र रचते हैं। मूर्ति-पूजा सबसे बड़ा पाखण्ड है, जिसमें एक पत्थर भगवान का विकल्प तो बन सकता है, परन्तु एक नौकर या एक गाय का विकल्प नहीं बन सकता। दुकान पर दुकानदार पत्थर के नौकर को बैठाकर अपना काम नहीं चला सकता और न ही पत्थर की गाय से दूध प्राप्त कर सकता है। प्रश्न यह है कि पत्थर का भगवान संसार की सारी वस्तुयें दे सकता है तो पत्थर की गाय दूध क्यों नहीं दे सकती या मनुष्य पत्थर के नौकर को दुकान पर छोड़कर बाहर क्यों नहीं जा सकता?

ऋषि दयानन्द ने मूर्ति-पूजा को धूर्तता और मूर्खता का समेलन बताया है। मन्दिर को चलाने वाला चालाक दुकानदार होता है और पूजा कर चढ़ावा चढ़ाने वाला भक्त भय, लोभ में फँसा अज्ञानी। यही मूर्ति-पूजा का रहस्य है, जिसे सभी जानते हैं, परन्तु इसको घोषणापूर्वक कहना ऋषि का ही कार्य है।

राष्ट्रीयता जिन्हें हम समाज-सुधारक या धार्मिक-नेता कहते हैं, वे राजनीति और शासन के सबन्ध में चुप रहना ही अच्छा समझते हैं। उनकी उदासीन या सर्वमैत्री भाव वाली दृष्टि कोउ नृप होऊ हमें का हानि वाली रहती है, परन्तु ऋषि ने अपने ग्रन्थ में राजनीति पर एक अध्याय लिखा और अपने लेखन, भाषण में उनके उचित-अनुचित पर टिप्पणी भी की। ऋषि दयानन्द अपने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं- विदेशी राज्य माता-पिता के समान भी सुखकारी हो, तो भी अपने राज्य से अच्छा नहीं हो सकता। आपने अंग्रेजी शासन की चर्चा करते हुए कहा कि अंग्रेज अपने कार्यालय में देसी जूते को समान नहीं देता, वह अंग्रेजी जूता पहनकर अपने कार्यालय में आने की आज्ञा देता है। यह लिखकर उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं के प्रति प्रेम प्रकाशित किया है।

ऋषि अंग्रेज अधिकारी द्वारा शासन में किसी प्रकार की असुविधा न होने की बात पर उसके लबे शासन की प्रार्थना का प्रस्ताव ठुकरा कर प्रतिदिन भगवान से देश के स्वतन्त्र होने की प्रार्थना करने की बात करते हैं। यही कारण है कि भारत के किसी मन्दिर में ‘भारत माता की जय’ नहीं बोली जाती, परन्तु आर्यसमाज मन्दिरों  में प्रत्येक सत्संग के बाद भारत माता की जय बोलना आर्यसमाज की धार्मिक परिपाटी का अङ्ग है। यह बात सभी समाज-सुधारकों से ऋषि को अलग करती है।

वेद के पढ़ने का अधिकार भारत को आज भी वेद के बिना देखना सभव नहीं, भारत के सभी सप्रदाय वेद से सबन्ध रखते हैं, उनका अस्तित्व वेद से है। जो आस्तिक सप्रदाय हैं, वे वेद में आस्था रखते हैं, वेद को पवित्र पुस्तक और धर्म ग्रन्थ मानते हैं, दूसरे सप्रदाय वेद को धर्मग्रन्थ नहीं मानते, स्वयं को वेद-विरोधी स्वीकार करते हैं। सबसे विचारणीय बात है कि वेद को मानने वाले अपने को आस्तिक कहते हैं, वेद न मानने वाले को लोग नास्तिक कहते हैं। सामान्य रूप से ईश्वर को मानने वाले आस्तिक कहलाते हैं। ईश्वर की सत्ता को जो लोग स्वीकार नहीं करते, उनको नास्तिक कहा जाता है। कुछ लोग वेद को स्वीकार नहीं करते, परन्तु किसी-न-किसी रूप में ईश्वर की सत्ता मानते हैं, अतः ऐसे लोगों को भी नास्तिकों की श्रेणी में रखा गया। इस देश के आस्तिक भी नास्तिक भी, वेद से जुड़े होने पर भी दोनों का वेद से कोई सबन्ध शेष नहीं है। वेद-समर्थक भी वेद नहीं पढ़ते, वेद-विरोधी भी वेद को बिना पढ़े समर्थकों की बातें सुनकर ही वेद का विरोध करते हैं।

ऋषि दयानन्द इन दोनों से विलक्षण हैं। उनके वेद सबन्धी विचारों का विरोध वेद के समर्थक भी करते हैं और वेद विरोधी भी। दोनों ऋषि दयानन्द के विरोधी हैं और इसी कारण ऋषि दयानन्द दोनों का ही विरोध करते हैं।

ऋषि दयानन्द की इस विलक्षणता का कारण उनकी वेद-ज्ञान की कसौटी है। लोग कहते हैं- ऋषि दयानन्द ने वेद कब पढ़े हैं? गुरु विरजानन्द के पास तो वे केवल ढाई वर्ष तक रहे, फिर वेद कब पढ़े? इसका उत्तर है- दण्डी विरजानन्द के पास ऋषि दयानन्द ने वेदार्थ की कुञ्जी प्राप्त की, वह कुञ्जी है- आर्ष और अनार्ष की। हमारे समाज में संस्कृत में लिखी बात को प्रमाण माना जाता है। आर्ष-अनार्ष में विभाजन करने से मनुष्यकृत सारा साहित्य अप्रमाण कोटि में आ जाता है। अब जो शेष साहित्य बचा है, उसके शुद्धिकरण की कुञ्जी शास्त्रों ने दी है। ऋषि दयानन्द ने उसको आधार बनाकर सारे वैदिक साहित्य को स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण में बाँट कर जो कुछ वेद के मन्तव्यों से विरुद्ध लिखा गया है, उसे निरस्त कर अप्रामाणिक घोषित कर दिया। जो कुछ इनमें वेद विरुद्ध लिखा गया, वह दो प्रकार का है, एक- स्वतन्त्र ऋषियों के नाम पर लिखे गये ग्रन्थ तथा दूसरे- ऋषि ग्रन्थों में की गई मिलावट, जिसे शास्त्रीय भाषा में प्रक्षेप कहते हैं। ऋषि ने इस प्रक्षेप को परतः प्रमाण मानकर जो कुछ वेदानुकूल नहीं है, उसे त्याज्य घोषित कर दिया। इस प्रकार ऋषि को वेद तक पहुँचना सरल हो गया।

अब बात शेष रही, वेद किसे माना जाय? पौराणिक लोग सब कुछ को वेद का नाम देकर सारा पाखण्ड ही वैदिक बना डालते हैं। ऋषि ने मूल वेद संहिता और शाखा ब्राह्मण भाग को वेद से भिन्न कर दिया। आज हमारे पास दो यजुर्वेद हैं, इनमें किसे वेद स्वीकार किया जाय, इस पर ऋषि दयानन्द की युक्ति बड़ी बुद्धि ग्राह्य लगती है। वे कहते हैं- शुक्ल और कृष्ण शद ही इसके निर्णायक हैं। शुक्ल प्रकाश होने से श्रेष्ठता का द्योतक है, कृष्ण प्रकाश रहित होने से कम होने का। दूसरा तर्क है, जिसमें मूल है, वह शुक्ल तथा जिसमें व्याया है, उसे कृष्ण कहा गया है।

ऋषि समस्त वेद को वेदत्व के नाते एक स्वीकार करते हैं तथा शेष वैदिक साहित्य को वेदानुकूल होने पर प्रमाण स्वीकार करते हैं। जहाँ तक हमारे पौराणिक लोग हैं, वे वेद को तो ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं, परन्तु वेद में सब कुछ उचित-अनुचित है, यह भी उन्हें स्वीकार्य है। ऋषि दयानन्द जो ईश्वर और प्रकृति के नियमों के अनुकूल है, उसे ही वेद मानते हैं। जो ईश्वरीय ज्ञान प्रकृति नियमों के विरुद्ध है, उसे वेद प्रोक्त नहीं माना जा सकता।

वेद के अर्थ विचार की जो कसौटी ऋषि दयानन्द ने प्रस्तुत की है, वह भी शास्त्रानुकूल है। समस्त वेद एक होने से तथा वेद एक बुद्धिपूर्ण रचना होने से वेद में परस्पर विरोधी बातें नहीं हो सकती तथा वेद के शदों का अर्थ आज की लौकिक संस्कृत के शद कोष से निर्धारित नहीं किया जा सकता। शद का अर्थ पूरे मन्त्र में घटित होना चाहिए तथा मन्त्र का अर्थ भी बिना प्रसंग के नहीं किया जा सकता। ऐसी परिस्थिति में हमारे पास वेदार्थ करने का जो उपाय शेष रहता है, वह बहुत सीमित है। कोष के नाम पर हमारे पास निघण्टु निरुक्त है। उसके अतिरिक्त वैदिक साहित्य में आये शदों के निर्वचन हमारा मार्गदर्शन करते हैं। हमारे पास वेदार्थ करने का एक और उपाय है- वेदार्थ में यौगिक प्रक्रिया का प्रयोग करना। लोक में प्रायः रूढ़ि, योग-रूढ़ शदों से काम चलाया जाता है, परन्तु रूढ़ि शदों से वेदार्थ करना, वेद के साथ अन्याय है, अतः यास्कादि ऋषि वेदार्थ के लिये यौगिक प्रक्रिया को अनिवार्य मानते हैं।

ऋषि दयानन्द इसी आधार पर वेदार्थ को इस युग के अनुसार प्रस्तुत करने में समर्थ हो सके।

ऋषि दयानन्द की वेद के सबन्ध में एक और विलक्षणता है। वेद के भक्त वेद को धर्मग्रन्थाी मानते हैं, परन्तु वेद को धर्मग्रन्थ स्वीकार करने वालों को उसे पढ़ना तो दूर, उसके सुनने तक का अधिकार देने को तैयार नहीं। इसके विपरीत वेद पढ़ने-सुनने पर दण्डित करने का विधान करते हैं। इस विषय में ये लोग कुरान एवं मोहमद साहब से भी आगे पहुँच गये। मनुष्य के धार्मिक होने के लिये धर्मग्रन्थ होता है, धर्मग्रन्थ को जाने बिना कोई भी धर्माधर्म को कैसे जान सकता है? यह ऐसा प्रयास है, जैसे कोई बालक अपने माता-पिता से बात न कर सके। उसके शद न सुने और उनकी बात माने। ऋषि दयानन्द वेद मन्त्र से ही इस धारणा का खण्डन कर देते हैं। वे कहते हैं- वेद ईश्वरीय ज्ञान है, संसार ईश्वर का है। प्रकृति के सभी पदार्थों पर सबका समान अधिकार-जल, वायु, पृथ्वी, आकाश सभी कुछ पर। बिल्कुल वैसे ही, जैसे सन्तानों का अपने पिता की सपत्ति पर अधिकार होता है, अतः प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वेद रूपी इस सपत्ति को अपनी सन्तान, परिजन, सेवकों को प्रदान करे। ऋषि इसके लिए यजुर्वेद का प्रमाण देते हैं-

यथेमां वाचं कल्याणी मा वदानि जनेयः ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृद्ध्यतामुपमादो नमतु।

– डॉ. धर्मवीर

मनुष्यों को खाने को नहीं मिलता : प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

 

यह युग ज्ञान और जनसँख्या  के विस्फोट का युग है। कोई भी

समस्या हो जनसँख्या की दुहाई देकर राजनेता टालमटोल कर देते

हैं।

1967 ई0 में गो-रक्षा के लिए सत्याग्रह चला। यह एक कटु

सत्य है कि इस सत्याग्रह को कुछ कुर्सी-भक्तों ने अपने राजनैतिक

स्वार्थों के लिए प्रयुक्त किया। उन दिनों हमारे कालेज के एक

प्राध्यापक ने अपने एक सहकारी प्राध्यापक से कहा कि मनुष्यों को

तो खाने को नहीं मिलता, पशुओं का क्या  करें?

1868 में, मैं केरल की प्रचार-यात्रा पर गया तो महाराष्ट्र व

मैसूर से भी होता गया। गुंजोटी औराद में मुझे ज़ी कहा गया कि

इधर गुरुकुल कांगड़ी के एक पुराने स्नातक भी यही प्रचार करते हैं।

मुझे इस प्रश्न का उत्तर  देने को कहा गया। जो उत्तर  मैंने महाराष्ट्र में

दिया। वही अपने प्राध्यापक बन्धु को दिया था।

मनुष्यों की जनसंज़्या में वृद्धि हो रही है यह एक सत्य है,

जिसे हम मानते हैं। मनुष्यों के लिए कुछ पैदा करोगे तो ईश्वर मूक

पशुओं के लिए तो उससे भी पहले पैदा करता है। गेहूँ पैदा करो

अथवा मक्की अथवा चावल, आप गन्ना की कृषि करें या चने की या

बाजरा, जवारी की, पृथिवी से जब बीज पैदा होगा तो पौधे का वह

भाग जो पहले उगेगा वही पशुओं ने खाना है। मनुष्य के लिए

दाना तो बहुत समय के पश्चात् पककर तैयार होता है।

वैसे भी स्मरण रखो कि मांस एक उज़ेजक भोजन है। मांस

खानेवाले अधिक अन्न खाते हैं। अन्न की समस्या इन्हीं की उत्पन्न

की हुई है। घी, दूध, दही आदि का सेवन करनेवाले रोटी बहुत कम

खाते हैं। मज़्खन निकली छाछ का प्रयोग करनेवाला भी अन्न

थोड़ा खाता है। इस वैज्ञानिक तथ्य से सब सुपरिचित हैं, अतः

मनुष्यों के खाने की समस्या की आड़ में पशु की हत्या के कुकृत्य

का पक्ष लेना दुराग्रह ही तो है।

 

 

‘भारत माता के वीर आदर्श सपूत शहीद रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

आज की युवापीढ़ी आधुनिक युग के निर्माता देशभक्तों को भूल चुकी है जिनकी दया, कृपा, त्याग व बलिदान के कारण आज हम स्वतन्त्र वातावरण में सम्मानजनक जीवन व्यतीत कर रहे हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज की युवा पीढ़ी प्रायः धर्म, जाति व देश के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं है वा विमुख है। यह आश्चर्य है कि हमें देश-विदेश के क्रिकेट आदि खिलाडि़यों, फिल्मी अभिनेताओं, बड़े-बड़े घोटाले व भ्रष्टाचार करने वाले राजनीतिज्ञों के नाम व कार्यो के बारे में तो ज्ञान है परन्तु जिन लोगों अपने जीवन को बलिदान करके देशवासियों को गुलामी व अपमानित जीवन जीने से बचाया है, उन्हें हम भूल चुके हैं। इसे देशवासियों की उन हुतात्मा बलिदानियों के प्रति कृतघ्नता ही कह सकते हैं। ऐसा क्यों हुआ? इसका सरल उत्तर है कि स्वतन्त्रता के बाद देश में जो वातावरण बना और नैतिकता, देश भक्ति व योग को शिक्षा पद्धति में अनिवार्य विषयों में सम्मिलित नहीं किया, उसके कारण ही ऐसा हुआ है। आज की युवा पीढ़ी ने स्वदेशी सभी अच्छी चीजों को छोड़ दिया है और पाश्चात्य अच्छी व बुरी सभी चीजों को अविवेकपूर्ण ढंग से अपनाया है व अपनाती जा रही है। ऐसे प्रतिकूल वातावरण में शहीदों के जन्म व बलिदान दिवस हमें अवसर देते हैं कि हम तत्कालीन परिस्थितियों में उनके द्वारा किए गये कार्यो पर दृष्टिपात कर उनका मूल्यांकन करें व उनसे शिक्षा व प्रेरणा ग्रहण कर अपना कर्तव्य निर्धारित करें। भारत माता को विदेशी आक्रान्ताओं से, जो देशवासियों को पल-प्रतिपल अपमानित करते थे, जिनके शासन में हमारा प्राचीन वैदिक सनातन धर्म व संस्कृति सुरक्षित नहीं थे, जो देश की सम्पदाओं को लूटते थे, देशवासियों के श्रम का व उनका बौद्धिक शोषण करते थे, जिन्होंने हमारी अस्मिता को अपने अहंकार व द्वेष-बुद्धि से कुचल दिया था, उन क्रूर शासकों से देश को मुक्त कराने के लिए जिस भारतमाता के वीर सपूत ने आज के दिन अपना तन, मन व धन मातृभूमि की स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर अर्पित किया था, उस नरपुगंव का नाम है पं. रामप्रसाद बिस्मिल।  शहीद बिस्मिल ने 29 वर्ष की भरी जवानी में 19 दिसम्बर, 1927 को फांसी के फन्दे को चूम कर अपना बलिदान दिया। उनके जीवन पर दृष्टि डालने पर ज्ञात होता है कि उनके जीवन का उद्देश्य विदेशी शासक अंग्रेजों की पराधीनता से देश को मुक्त कर सभी देशवासियों के प्राचीन धर्म व संस्कृति की रक्षा, सम्मानजनक जीवन के साथ देश की एकता व अखण्डता की रक्षा करते हुए सबकी शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति करना एवं वैदिक आदर्श सत्य व न्याय पर आधारित शासन स्थापित करना था।

 

रामप्रसाद बिस्मिल के पिता श्री मुरलीधर, चाचा श्री कल्याणमल तथा पितामह श्री नारायणलाल थे। आप चार भाई व पांच बहने थी जिनमें आप सबसे बड़े थे। पिता कुछ शिक्षित थे। ग्वालियर से आकर शाहजहांपुर, संयुक्त प्रान्त में बसे थे। मुरलीधरजी ने पहले नगर पालिका में 15 रूपये मासिक पर सर्विस की और इसके बाद कोर्ट में स्टाम्प पेपर बेचने का काम किया। आपके परिवार में पुत्रियों को जन्म लेते ही मार दिया जाता था परन्तु आपके पिता ने यह कुकृत्य नहीं किया यद्यपि आपके दादाजी का पुत्रियों की हत्या करने का परामर्श था। रामप्रसाद जी का जन्म 11 जून सन् 1897 को हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा हिन्दी व उर्दू में हुई। अपनी धर्म पारायणा माताजी की प्रेरणा से आपने अंग्रेजी भी सीखी।  बचपन में आपको अनेक बुरे व्यस्न लग गये। शाहजहांपुर में घर के पास ही आर्यसमाज मन्दिर था, वहां आप जाने लगे। मन्दिर के पण्डितजी ने आपको ब्रह्मचर्य व व्यायाम के बारे में बताया और उसका पालन करने को कहा जिससे आपको सही दिशा मिली।  आर्यसमाज मन्दिर में आपको श्री इन्द्रजीत जी का सत्संग प्राप्त हुआ। उन्होंने आपको ईश्वर का ध्यान करना व महर्षि दयानन्द रचित सन्ध्या करना सिखाया। उनकी प्रेरणा से आपने सत्यार्थप्रकाश पढ़ा। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से आपके सारे व्यस्न छूट गये और आपमें देशप्रेम व देश को स्वतन्त्र कराने की प्रबल भावना उत्पन्न हुई। आपका स्वास्थ्य जो पहले खराब रहता था अब सन्ध्या, व्यायाम व योगाभ्यास से दर्शनीय हो गया। हमें आर्यसमाजी मित्र, आर्य विद्वान प्रो. अनूप सिंह से ज्ञात हुआ था कि आप अपने भव्य, प्रभावशाली व आकर्षक शरीर के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये। लोग दूर-दूर से आपकी प्रशंसा सुनकर आपको देखने आने लगे।

 

पं. रामप्रसाद बिसिल्ल जी को आर्यसमाज के सम्पर्क में आने से पूर्व अनेक दुर्व्यसन लग गये थे। दुर्व्यसनों के लिए पैसे चाहिये। इसके लिए वह पिता के पैसे भी चोरी कर लेते थे। दुर्व्यसनों को छुपकर किया जाता है, इसलिए अन्यों पर वह प्रायः प्रकट नहीं होते हैं। रामप्रसाद जी धूम्रपान, भांग का सेवन, चरित्र बिगाड़ने वाले उपन्यासों को पढ़ना व निरर्थक घूमना-फिरना व उसमें समय नष्ट करना जैसे लक्ष्य से भटके मनुष्य की भांति कार्य करते थे। रामप्रसाद जी का भाग्योदय हुआ। संयोग से आप आर्यसमाज के सम्पर्क में आये। यहां आर्यों की संगति व उनसे मिलने वाले तर्क पूर्ण सुझावों ने आपको प्रभावित करना आरम्भ किया। व्यस्नों से जीवन को होने वाली हानि का स्वरूप आप पर प्रकट होने से उनके प्रति अरूचि हो गई। हमने इस अल्प जीवन में अनेक लोगों को उठते हुए भी देखा है और वेदों व सत्यार्थ प्रकाश पढ़े व दूसरों को सदाचारी व आर्य बनाने वाले को नाना प्रकार के बुरे कार्य करते हुए भी पाया है जिनसे चरित्र का पतन होता है।  यह सामान्य बात है, ऐसी घटनायें समाचार पत्रों व टीवी आदि पर भी यदा-कदा देखने को मिलती रहती हैं। रामप्रसाद जी में जो दूषण थे वह अज्ञानता, मन के नियन्त्रित न होने व इन्द्रियों के दास बनने के कारण उत्पन्न हुए थे, उनका दूर होना सरल था। उन्हें इनके दुष्प्रभावों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे त्याग दिया और इनके त्याग से आत्मा की शुद्धि प्राप्त करके एक अज्ञात युवा महात्मा बन गये या महात्मा बनने के मार्ग पर तेजी से बढ़ चले।

 

आर्यसमाज में सन्ध्या, हवन, वहां के सच्चरित्र सदस्यों एवं विद्वानों के उपदेशों, उनकी संगति, वार्तालाप व उनकी सेवा का आप पर ऐसा प्रभाव हुआ कि आर्यसमाज में रहकर आप अपना अधिक समय व्यतीत करने लगे। पिता आर्यसमाज के वास्तविक स्वरूप से अपरिचित थे। उन्हें अपने पुत्र रामप्रसाद का वहां अधिक समय व्यतीत करना अच्छा नहीं लगता था। इससे वह उनसे क्रुद्ध हो गये। उन्होंने रामप्रसादजी को वहां जाने से मना किया और अपशब्द कहकर धमकी भी दी की सोते समय उसका गला काट देगें। इस कारण घर से भी उन्हें निकाल दिया। इस कठिन परीक्षा में, जिसे छोटी अग्नि परीक्षा भी कह सकते हैं, हमारे पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी पूरी तरह सफल हुए। यदि वह पिता के अनुचित सुझाव को मान लेते तो उनका जीवन निरर्थक होता और इतिहास में उनकी शहादत की जो युगान्तरकारी घटना घटी, वह न हुई होती।  यहां हम स्वामी श्रद्धानन्द के उदाहरण को भी स्मरण कर सकते हैं जब इस युवावस्था में नास्तिक युवा मुंशीराम, श्रद्धानन्द कहलाने से पूर्व का नाम, के पौराणिक व अन्धविश्वासों को मानने वाले पिता नानक चन्द बरेली में महर्षि दयानन्द के सत्संग में लेकर जाते हैं, इस आशा के साथ कि स्वामी दयानन्द के सत्संग व उपदेश के प्रभाव से इसकी नास्तिकता समाप्त हो जायेगी।  महर्षि दयानन्द के सत्संग से उनकी नास्तिकता भी समाप्त हुई, सारे दुव्र्यस्न भी समाप्त हुए और एक दुर्व्यसनी युवक आगे चलकर अपने युग का युगपुरूष बन गया जिसका स्मारक गुरूकुल कांगड़ी आज भी अतीत के स्वर्णिम कार्यों को संजोय हुए उनकी साक्षी दे रहा है।

 

पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी को मुंशी इन्द्रजीत से सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ने को मिला। सत्यार्थ प्रकाश से आपको ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति, धर्म, कर्म, यज्ञ, सन्ध्या, जीवन-मृत्यु के रहस्य, पुनर्जन्म, सुख, दुख, बन्धन, मोक्ष, देश भक्ति, मातृभूमि से प्रेम, उसकी सेवा, माता-पिता-गुरूजनों-सज्जनों-वृद्धों की सेवा, मत-मतान्तरों का वास्तविक ज्ञान व उन सबमें सत्य व असत्य मान्ताओं का मिश्रण, धर्म केवल एक है जिसमें सर्वांश सत्य होता है, असत्य बिल्कुल नहीं होता आदि का ज्ञान हुआ एवं मूर्तिपूजादि पोषित पौराणिक वा कथित सनातन धर्म सहित बौद्ध, जैन, नास्तिक मत, ईसाई व इस्लाम मत की अवैदिक व अज्ञानपूर्ण बातों का ज्ञान भी हो गया। इतना ज्ञान होना, इसके धारण की भावना का होना, इनकी इच्छा, संकल्प, प्रयत्न करना व इससे सहमत होना — यह सब एक महात्मा के लक्षण हैं। रामप्रसाद बिस्मिल भी इसके साक्षी बने व इन्हें अपने जीवन में धारण किया।

 

आर्यसमाज, शाहजहांपुर में एक बार आर्य संन्यासी स्वामी सोमदेव जी का आगमन हुआ। स्वामीजी धार्मिक विद्वान होने के साथ-साथ देश की परतन्त्रता व उसके परिणामों से व्यथित थे। आपको इनका सत्संग प्राप्त हुआ। सत्यार्थप्रकाश, आर्याभिविनय, संस्कृत वाक्य प्रबोध एवं व्यवहार भानु जैसे ग्रन्थों को पढ़कर देश को आजाद कराने के बीजों का वपन तो आपके हृदय में हो ही चुका था। उनको खाद व पानी स्वामी सोमदेव जी के सत्संग, वार्तालाप व सेवा से प्राप्त हुआ। उनके परामर्श से आपने देश की आजादी के लिए कार्य करने का अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। आर्य मनीषी डा. भवानी लाल भारतीय ने लिखा है कि स्वामी सोमदेव जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रतिज्ञा की – अंग्रेजी साम्राज्य का नाश करना मेरे जीवन का प्रमुख लक्ष्य होगा। इस प्रतिज्ञा के बाद आपने युवकों का एक संगठन बनाया। इस संगठन की योजनाओं को पूरा करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी और उन्हें खरीदने के धन चाहिये था। आपने धन की प्राप्ति के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था – अमेरिका को स्वतन्त्रता कैसे मिली?’ इसकी बिक्री से प्राप्त धन अपर्याप्त था।  दूसरा उपाय यह किया कि पास के एक गांव पर सशस्त्र हमला कर धन लूटा गया। यह ध्यान रखा गया कि किसी को भी शारीरिक क्षति नहीं पहुंचानी है। पराधीन भारत माता को आजाद करने के लिए उसी की सन्तानों से धन प्राप्त करने का उस समय उन्हें यही तरीका दिखाई दिया। इस घटना से आप पुलिस की जानकारी में तो आ गये परन्तु गिरिफ्तारी से बचते रहे। सन् 1920 में राजनैतिक कैदियों व अन्य अपराधियों को आम माफी दिये जाने के बाद आपके नाम जारी वारण्ट भी रद्द हो गया। तब आप अज्ञात स्थान से शाहजहांपुर आ गये। जब आपने युवकों का सशस्त्र दल बनाया तो सुप्रसिद्ध देशभक्त, शहीद व आपके अभिन्न मित्र अशफाक उल्ला खां भी आपके सम्पर्क में आये। दोनों में पक्की दोस्ती हो गई। अशफाक को अपने मित्र बिस्मिलजी को बहुत निकट से देखने का अवसर मिला। वह भी आर्यसमाज मन्दिर में आने लगे। हम अनुमानतः कह सकते हैं कि उन्होंने आर्य समाज के सत्यस्वरूप को काफी हद तक समझा था। एक बार कुछ मुसलमानों ने आर्यसमाज पर आक्रमण कर दिया। अशफाक उल्ला उस समय आर्य समाज मन्दिर में पं. रामप्रसाद बिस्मिल के साथ ही थे।  अशफाक ने रामप्रसाद जी के साथ मिलकर आक्रमणकारियों को ललकारा था और उनके मंसूबे विफल कर दिये थे। इस मित्रता को सच्ची मित्रता कह सकते हैं और हिन्दू-मुस्लिम संबंधों की एक अच्छी मिसाल भी। इन दोनों की मित्रता के अनेक प्रसंग हैं, जो प्रेरणाप्रद हैं।

 

पं. राम प्रसाद बिस्मिल प्रसिद्ध उर्दू-फारसी के कवि भी थे। आपकी रचनायें आजादी के आन्दोलन के दिनों में सभी लोगों की जुबान पर होतीं थीं। आज भी उनमें ताजगी है, देश प्रेम व हृदय को छू लेने की उनमें अवर्णनीय क्षमता है। नमूने के रूप में कुछ को देखते हैं। फांसी के फन्दे को चूमने से पूर्व उन्होंने कहा था – मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे। बाकी मैं रहूं और मेरी आरजू रहे।। जब तक कि तन में जान रगों में लहू बहे। तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे।। भारतमाता के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए आपने लिखा था – यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी। तो भी मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी।। हे ईश भारत वर्ष में शत बार मेरा जन्म हो। कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।। देश प्रेम पर उनकी पंक्तियां हैं – ‘‘हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रहकर, हमको भी पाला था मांबाप ने दुख सहसह कर। वक्ते रूखसत उन्हें इतना भी आये कहकर, गोद में कभी आंसू बहें जो रूख से बहकर।। तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने का। देष सेवा का ही बहता है अब तो लहू नसनस में। हमने जब वादि गुरबत में कदम रखा था। दूर तक यादें वतन आईं थी समझाने को।  उनकी पंक्तियों सर फरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू कातिल में है। पर तो एक फिल्मी गीत बन चुका है जो कभी देश के बच्चे-बच्चे की जुबान पर होता था।  मरने से पूर्व उन्होंने लिखा – मरते बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से, पैदा होगें सैकड़ों इनके रूधिर की धार से।

 

अन्याय करना व अन्याय सहना दोनों ही गलत हैं। अंग्रेज देशवासियों पर अमानवीय अत्याचार करते थे। जाते-जाते भी वह देश का विभाजन करा गये और इस बात का भी प्रयास किया कि खण्डित भारत सबल देश न बन सके। रामप्रसाद बिस्मिल जी अंग्रेजों के भारतीयों के प्रति अन्याय को दूर कर देशवासियों के लिए सम्मान, ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त समानता व स्वतन्त्रता के अधिकारों को प्राप्त कराना व सभी सामाजिक बन्धुओं व देशवासियों को दिलाना चाहते थे। इसी विचारधारा ने उन्हें सशस्त्र क्रान्ति का नायक बनाया। हम जब विचार करते हैं कि कोई किसी की सम्पत्ति को छीन लें या उसकी अचल सम्पत्ति पर कब्जा कर लें, तो उस अन्यायकारी को कैसे हटा कर सम्पत्ति को मुक्त कराया जाये? इसके दो ही तरीके हैं कि पहले उसे बताया व समझाया जाये कि उसने गलत किया है, वह सम्पत्ति लौटा दें। प्रायः सम्पत्ति छीनने वाला व लूटने वाला अधिक बलवान होने के कारण सत्य के आग्रह करने पर सम्पत्ति लौटाता नही हैं। यदि ऐसा होता तो चीन ने हमारी भूमि अब तक हमें लौटा दी होती। पाकिस्तान ने अनधिकृत कश्मीर हमें सौंप दिया होता। यहां तो अन्य भागों पर भी कब्जा करने के मंसूबे बनायें जाते हैं और गुप्त रूप से उन पर कार्य भी किया जाता है जिसमें हमारे निर्दोष लोग अपने प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। जनता के हाथ में ताकत तो होती नहीं। वह सरकार की ओर देखती है।  छीनी गई अपनी सम्पत्ति को अपने शत्रु से लेने का दूसरा तरीका केवल बल प्रयोग ही बचता है।  यही तरीका बाद में महान देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपनाया जिसको सारे देश ने समर्थन दिया।  उनका नारा – तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। आज भी कानों में गूंज जाता है। ऐसा ही कुछ हमारे देशभक्त क्रान्तिकारी सोचते थे कि कैसे अपने अपमान को रोका जाये, हमें उचित अधिकार प्राप्त हों और देश स्वतन्त्र हो। उनके द्वारा अपनाया गया मार्ग गलत नहीं था। रामप्रसाद जी के सामने पृष्ठ भूमि कुछ अलग रही होगी। उन्होंने निर्णय किया कि शस्त्रों के लिए धन की जो आवश्यकता है उसे सरकारी खजाने का लूट कर पूरा किया जाये। वस्तुतः खजाने का धन भी जनता व देशवासियों का ही धन था। योजना बनाई गई और उसके अनुसार 9 अगस्त, सन् 1925 की रात्रि को जब रेल लखनऊ के निकट काकोरी स्टेशन पर पहुंचीं, तो उसे रोक कर उसमें सरकारी खजाने से 10,000 रूपये लूट लिए गये। यह घटना अपने आप में ही अत्याचारी अंग्रेजों के लिए एक सबक था कि उनके लाख प्रयत्नों, लोगो को दबाने व कुचलने के बाद भी ऐसी घटना घट गई। इससे बौखला करघटना में शामिल देशभक्तों की धर पकड़ का अभियान चला। रामप्रसाद बिस्मिल पकड़ लिये गये। उन पर दबाव डाला गया कि वह अपने सभी साथियों के नाम बताये। उन्हें निष्कृटतम् यातनायें दी गईं। वह सब उन्होने अपनी देशभक्ति के कारण सहन की। सरकार की ओर से दिखावे का मुकदमा चलाया गया और उन्हें मृत्यु दण्ड के रूप में फांसी की सजा दी गई। उनके अन्य साथियों अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी को भी फांसी की सजा दी गई। हम जब विचार करते हैं तो हमें लगता है कि यह लोग अपनी मातृभूमि से प्रेम करते थे। उसे आजाद कराना चाहते थे। अंग्रेजों द्वारा जो भारतीयों का अपमान किया जाता था उसका यह लोग विरोध करते थे। इस सबका तो इन्हें पारितोषिक मिलना चाहिये था।  यदि वस्तुतः अंग्रेज न्यायप्रिय होते तो कदापि इन देशभक्त युवकों को सजा न देते।  अपने देश में भी तो वह इसी प्रकार से देश भक्ति के कार्य करते हैं। इससे यह सिद्ध है कि सत्य व न्याय का कोई गुण हमारे तत्कालीन शासकों में नही था। हमें देश के उन तत्कालीन बड़े नेताओं से भी शिकायत हैं जो इन युवकों को फांसी दिए जाने पर मौन व खामोश थे। इतना तो कह ही सकते कि यह निर्णय गलत है। अस्तु। पं. रामप्रसाद बिस्मिल को काल कोठरी में रखा गया। वहां का वातावरण पशुओं से भी बदतर था।  इस पर भी उन्होंने वहां योग साधना की और यह एक सुखद आश्चर्य है कि उस दूषित वातावरण में जहां मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उनके शरीर का भार घटने के स्थान पर बढ़ा। वहां रहते हुए उन्होंने अपनी आत्म कथा भी लिखी, जो सौभाग्य से उपलब्ध है और सभी युवक व वृद्धों के लिए पठनीय है। इस प्रेरणादायक आत्मकथा को स्कूली शिक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहये था जिससे युवापीढ़ी देशभक्त बनती। परन्तु कहें किसे, सर्वत्र अहितकर वातावरण है। अब से 88 वर्ष पहले, 19 दिसम्बर, सन् 1927 को उन्हें गोरखपुर में फांसी पर चढ़ाया गया। प्रातः उठकर उन्होंने स्नान कर व्यायाम व सन्ध्या की और हवन किया। फांसी के फन्दे पर खड़े होकर अपनी इच्छा व्यक्त की और कहा – ‘I wish the downfall of British Empire’. यह कह कर वेदमन्त्र ओ३म् विश्वानिदेव सवितरदुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न सुव। कह कर फांसी पर झूल गये। इस समय आपकी आयु लगभग 29 वर्ष थी। देश को आजाद कराने की उनकी भावना आंशिक रूप से 15 अगस्त, सन् 1947 को पूरी हुई।  आजाद होने पर भी उनके स्वप्नों के अनुरूप देश नहीं बन सका। आज भी सत्य व न्याय पर आधारित अध्यात्म ज्ञान से सम्पन्न देश के निर्माण का कार्य शेष है जो कालान्तर मे पूरा होगा। युवा पीढ़ी उनके जीवन से प्रेरणा ग्रहण करे, यह अपेक्षा की जाती है। उनके बलिदान दिवस के अवसर पर हमारी पं. रामपप्रसाद बिस्मिल को हार्दिक श्रद्धांजलि। उनके अन्य साथी देशभक्त वीर अशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह व राजेन्द्र लाहिड़ी जी को श्री सश्रद्ध सादर नमन।

 –मनमोहन कुमार आर्य

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