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आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है ।

अध्यात्मवाद

– कृष्णचन्द्र गर्ग

आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है- इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है । आत्मा और परमात्मा दोनों ही भौतिक पदार्थ नहीं हैं। इन्हें आँख से देखा नहीं जा सकता, कान से सुना नहीं जा सकता, नाक से सूँघा नहीं जा सकता, जिह्वा से चखा नहीं जा सकता, त्वचा से छुआ नहीं जा सकता।

परमात्मा एक है, अनेक नहीं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि उसी एक ईश्वर के नाम हैं। (एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। ऋग्वेद – 1-164-46 ) अर्थात् एक ही परमात्मा शक्ति को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। संसार में जीवधारी प्राणी अनन्त हैं, इसलिए आत्माएँ भी अनन्त हैं। न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान, प्रयत्न, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख- ये छः गुण जिसमें हैं, उसमें आत्मा है। ज्ञान और प्रयत्न आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, बाकी चार गुण इसमें शरीर के मेल से आते हैं। आत्मा की उपस्थिति के कारण ही यह शरीर प्रकाशित है, नहीं तो मुर्दा अप्रकाशित और अपवित्र है। यह संसार भी परमात्मा की विद्यमानता के कारण ही प्रकाशित है।

आत्मा और परमात्मा- दोनों ही अजन्मा व अनन्त हैं। ये न कभी पैदा होते हैं और नही कभी मरते हैं, ये सदा रहते हैं। इनका बनाने वाला कोई नहीं है। आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है। हर आत्मा एक अलग और स्वतन्त्र सत्ता है।

आत्मा अणु है, बेहद छोटी है। परमात्मा आकाश की तरह सर्व व्यापक है। आत्मा का ज्ञान सीमित है, थोड़ा है। परमात्मा सर्वज्ञ है, वह सब कुछ जानता है। जो कुछ हो चुका है और हो रहा है, सब कुछ उसके संज्ञान में है। अन्तर्यामी होने से वह सभी के मनों में क्या है- यह भी जानता है। आत्मा की शक्ति सीमित है, थोड़ी है, परन्तु परमात्मा सर्वशक्तिमान है। सृष्टि को बनाना, चलाना, प्रलय करना- आदि अपने सभी काम करने में वह समर्थ है। पीर, पैगबर, अवतार आदि नाम से कोई एजैंट या बिचौलिए उसने नहीं रखे हैं। ईश्वर सभी काम अपने अन्दर से करता है, क्योंकि उसके बाहर कुछ भी नहीं है। ईश्वर जो भी करता है, वह हाथ-पैर आदि से नहीं करता, क्योंकि उसके ये अंग है ही नहीं। वह सब कुछ इच्छा मात्र से करता है।

ईश्वर आनन्द स्वरूप है। वह सदा एकरस आनन्द में रहता है। वह किसी से राग-द्वेष नहीं करता। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से परे है। ईश्वर की उपासना करने से अर्थात् उसके समीप जाने से आनन्द प्राप्त होता है, जैसे सर्दी में आग के पास जाने से सुख मिलता है। ईश्वर निराकार है। उसे शुद्ध मन से जाना जा सकता है, जैसे हम सुख-दुःख मन में अनुभव करते हैं।

यह आत्मा जब मनुष्य शरीर में होती है, तब वह कार्य करने में स्वतन्त्र रहती है। उस समय किए कार्यों के अनुसार ही उसे परमात्मा सुख, दुःख तथा अगला जन्म देता है। दूसरी योनियाँ या तो किसी दूसरे के आदेश पर चलती हैं या स्वभाव से काम करती हैं। उनमें विचार शक्ति नहीं होती, इसलिए उन योनियों में की गई क्रियाओं का उन्हें अच्छा या बुरा फल नहीं मिलता। वे केवल भोग योनियाँ हैं जो पहले किए कर्मों का फल भोग रही हैं। मनुष्य योनि में कर्म और भोग दोनों का मिश्रण है। मनुष्य स्वतन्त्र रूप से कर्म भी करता है और कर्मफल भी भोगता है।

मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ। शरीर मेरा संसार में व्यवहार करने का साधन है। कर्ता और भोक्ता आत्मा है। सुख-दुःख आत्मा को होता है।

जीवात्मा न स्त्रीलिंग है, न पुलिंग है और न ही नपुंसक है। यह जैसा शरीर पाता है, वैसा कहा जाता है। (श्वेताश्वतर उपनिषद्)

ईश्वर की पूजा ऐसे नहीं की जाती, जैसे मनुष्यों की पूजा अर्थात सेवा सत्कार किया जाता है। ईश्वर की आज्ञा का पालन अर्थात सत्य और न्याय का आचरण- यही ईश्वर की पूजा है।

कठोपनिषद में मनुष्य-शरीर की तुलना घोड़ागाड़ी से की गई है। इसमें आत्मा गाड़ी का मालिक अर्थात सवार है। बुद्धि सारथी अर्थात् कोचवान है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इन्द्रियों के विषय वे मार्ग हैं, जिन पर इन्द्रियाँरूपी घोड़े दौड़ते हैं। आत्मारूपी सवार अपने लक्ष्य तक तभी पहुँचेगा, जब बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम को अपने वश में रखकर इन्द्रियाँरूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा।

उपनिषद में घोड़ागाड़ी को रथ कहा जाता है और रथ पर सवार को रथी। मनुष्य शरीर में आत्मा रथी है। जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर अरथी रह जाता है।

परमात्मा हम सबका माता, पिता और मित्र है। हम सब प्राणियों का भला चाहता है। जब मनुष्य कोई अच्छा काम करने लगता है तो उसे आनन्द, उत्साह, निर्भयता महसूस होती है । वह परमात्मा की तरफ से होता है, और जब वह कोई बुरा काम करने लगता है, तब उसे भय, शंका, लज्जा महसूस होती है। वह भी परमात्मा की तरफ से ही होता है ।

 

– 831 सैक्टर 10, पंचकूला, हरियाणा।

दूरभाषः 095014-67456

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

ओ३म्

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अनेक अज्ञानी व स्वार्थी लोग बिना प्रमाणों के प्राचीन आर्यों पर मांसाहार का मिथ्या आरोप लगाते हैं। वह स्वयं मांसाहार करते हैं अतः समझते हैं कि इस आरोप को लगाकार उनका मांसाहार करना उचित ठहरा दिया जायेगा और कम से कम वेदों के मानने वाले आर्य तो उनका विरोध नहीं कर सकेंगे। ईश्वर ने ही मनुष्यों सहित सभी प्राणियों व वनस्पति जगत को भी बनाया है। यदि ईश्वर के लिए मनुष्यों को पशुओं के मांस का आहार कराना ही अभिप्रेत होता तो फिर वह नाना प्रकार की खाद्यान्न की श्रेणी में परिगणित वनस्पतियां, अन्न, साग व सब्जिययों को शायद उत्पन्न ही न करता और पशुओं की संख्या को इतना बढ़ा देता कि मनुष्य केवल मांसाहार कर ही अपना जीवन व्यतीत करते। ईश्वर को ऐसा अभीष्ट नहीं था अतः उन्होंने किसी विशेष प्रयोजन के लिए पशुओं को बनाया और मनुयों के आहार के लिए पृथक से नाना प्रकार की वनस्पतियों एवं शाकाहार के अन्तर्गत आने वाले अनेकानेक अन्न, फल, साग-सब्जियां और गोदुग्ध आदि पदार्थों को बनाया है। हमें नहीं लगता कि संसार में कोई मांसाहारी ऐसा हो सकता है जो केवल मांस ही खाता हो तथा अन्न, फल, गोदुग्ध आदि पदार्थों का सेवन न करता हो। इस उदाहरण से अन्न, फल व गोदुग्धादि पदार्थ तो मनुष्यों का भोजन सिद्ध होते हैं परन्तु मांस मनुष्य का भोजन सिद्ध नहीं होता।

 

पशुओं व मनुष्यों मांस क्यों नहीं खाना चाहिये? इसलिए नहीं खाना चाहिये क्योंकि मांस हिंसा से प्राप्त होता है और निर्दोष प्राणियों की हिंसा करना मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध है। मनुष्य के स्वभाव में ईश्वर ने दया, करूणा, प्रेम, स्नेह, ममता, संवेदना, सहिष्णुता आदि अनेक गुणों को उत्पन्न किया है व स्वभाव इसमें सनातन से हैं। मांसाहार करने से इन मानवीय गुणों का न्यूनाधिक हनन होता है, अतः मांसाहार वर्जित व त्याज्य है। मांसाहार का आरम्भ किसी पशु को प्राप्त करना, किसी छुरे व तलवार आदि से उसका वध करना, उसके शरीर के एक-एक अंग प्रत्यंग को काटना, उसे रसोईघर में तेल, घृत, मसालों आदि में भूनना व उसका गेहूं आदि की रोटी, चावल व दही आदि मिलाकर सेवन करना होता है। स्वाभाविक है कि इतने पदार्थों के संयोग से जो पदार्थ बनेगा उसका अपना स्वाद होगा। कईयों को वह प्रिय हो सकता है और बहुतों को अप्रिय। हमने देखा है कि पहली बार जो व्यक्ति जाने व अनजाने मांसाहार करता है उसका शरीर उसको स्वीकार नहीं करता और वह उसे उगल देता है या उल्टी कर देता है। यह प्रकृति का वा ईश्वर का सन्देश होता है कि यह पदार्थ खाने योग्य नहीं है। बहुत से लोग मांसाहारियों की संगति में रहते हैं जिससे उन्हें यह दोष लग जाता है। ईश्वर एक, दो, तीन बार तो उसको उलटी आदि कराकर रोकता है परन्तु जब वह नहीं मानता तो ईश्वर भी उसे अपराधी मानकर उसका जीवन पूरा होने की प्रतीक्षा करता है जिससे उसे मृत्यु होने के बाद उसके अगले पुनर्जन्म में इन अमानवीय कार्यों के अनुरूप दण्ड दे सके। हमें लगता है कि बहुत से मनुष्य पुनर्जन्म पाकर पशु बनते होंगे जिनका मांस दूसरे मनुष्य व पशु आदि खाते होंगे। अतः मांसाहार का सर्वथा त्याग ही मनुष्य को सुखी, स्वस्थ, दीर्घायु बनाता है। शाकाहारी मनुष्यों में मांसाहारी मनुष्यों की तुलना में बल, शारीरिक सामथ्र्य, बौद्धिक व आत्मिक क्षमता, साहस, निर्भयता, सेवा, परोपकार व धर्म-कर्म की भावना अधिक होती है जिसे प्रमाणों व उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है।

 

वेद संसार के सभी मनुष्यों का आदि ग्रन्थ है जिसमें धर्म व कर्म अर्थात् कर्तव्य, अकर्तव्य का विधि व निषेधात्मक ज्ञान है। विदेशियों ने अपने मांसाहार का दोष छिपाने वा अपनी बौद्धिक अक्षमता के कारण यह आरोप लगाया कि सृष्टि की आदि में हमारे पूर्वज आर्य व ऋषिगण पत्थरों के हथियार बनाकर पशुवध कर मांसाहार किया करते हैं। यह बात सर्वथा अनुचित व मिथ्या है। सृष्टि के आदि काल में हमारे व समस्त मानवजाति के पूर्वज फल, कन्द, मूल व गोदुग्धादि का आहार व भोजन किया करते थे। चारों वेदों के एक मन्त्र में भी मांसाहार करने का संकेत नहीं है अपितु पशुओं की रक्षा करने का विधान है जो स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भेड़ आदि अवध्य=हत्या न करने व न मारने योग्य है जिनकी आर्यों व सभी मनुष्यों को अपने सुख व कल्याण के लिए रक्षा करनी है। इसका एक ठोस प्रमाण यह है कि हिरण सहित जितने भी शाकाहारी पशु हैं यह जंगल में शेर आदि हिंसक पशुओं को देख कर भाग जाते हैं। इन्हें ईश्वर ने गन्ध के आधार पर यह समझ प्रदान की हुई है कि कौन सा प्राणी हिंसक है और कौन अहिंसक, कौन इनका घातक है और कौन इनका रक्षक। इन शाकाहारी पशुओं के सम्मुख जब भी कोई हिंसक पशु, शेर, चीता आदि आते हैं तो यह दूर से ही उनके आने व होने की  गन्ध को भांप कर भाग खड़े होते हैं परन्तु मनुष्य को देखकर यह दूर भागने के स्थान पर उसके पास आकर उससे अपना प्रेम प्रदर्शित करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य शाकाहारी प्राणी है, मांसाहारी नहीं है तथा इसी कारण पशु मनुष्यों से डरते नहीं, दूर भागते नहीं व उसके समीप प्रसन्नता से आते हैं। अतः मनुष्यों द्वारा भोजन के लिए पशुओं की हत्या करना उसके ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त स्वभाव व गुण के विरुद्ध होने से सर्वथा निन्दनीय है।

 

वेदों ने पशुओं की रक्षा व मांसाहार विषयक क्या विचार हैं, इसका संक्षेप में अवलोकन करते हैं। यजुर्वेद के 40/7 मन्त्र यस्मिनित्सर्वाणी भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।। में कहा गया है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण प्राणियों को केवल अपने जैसी आत्माओं के रूप में ही देखता है (स्त्री, पुरुष, बच्चे, गौ, हरिण, मोर, चीते तथा सांप आदि के रूप में नहीं) उसे उनको देखने पर मोह अथवा शोक (ग्लानि वा घृणा) नहीं होता, क्योंकि उन सब प्राणियों के साथ वह एकत्व (समानता तथा साम्यता) का अनुभव करता है। इस मन्त्र में यह सन्देह दिया गया है शोक व मोह से बचने के लिए मनुष्य को सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान व रूप में ही देखना चाहिये। इससे वह शोक व मोह से बच सकते हैं। आर्यजगत के विद्वान श्री पं. सत्यानन्द शास्त्री अपनी प्रसिद्ध पुस्तक क्या प्राचीन आर्यलोग मांसाहारी थे?’ में लिखते हैं कि जो लोग आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म तथा एकत्व (समानता=साम्यता) के सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे (जैसा कि आर्यों को समझा जाता है), वे अपने क्षणिक स्वाद की तृप्ति अथवा भूखे पेट की पूर्ति के लिये उन पशुओं को कैसे मार सकते थे जिनमें उन्हें अपने ही पूर्वजन्मों के प्रियजनों की आत्माओं के दर्शन होते थे? वास्तव में ऐसा कभी नहीं हो सकता। यजुर्वेद मन्त्र 36/18 में कहा गया है कि मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। इस मन्त्र का अभिप्राय है कि मुझे सब प्राणी अपना मित्र समझें तथा मैं भी उनसे अपने मित्रों जैसा व्यवहार करूं। हे परमात्मा ! कुछ ऐसी विधि मिलाओं कि हम सब प्राणी एक दूसरे से सच्चे मित्रों जैसा व्यवहार करें। प्राचीन आर्य लोग प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के उपर्युक्त वैदिक सिद्धान्त में न केवल आस्था ही रखते थे, अपितु इसे ईश्वर प्रदत्त धर्म का अंग जानकर अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करते थे। उन आर्येां के सम्बन्ध में यह धारणा रखना कि वे अपनी जैह्विक लालसा की क्षणिक तृप्ति के लिये उन प्राणियों का, जिन्हें वे मित्रतुल्य प्रिय जानते थे, वध करते थे, अनर्गल नहीं तो और क्या है।

 

प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के इस वैदिक सिद्धान्त का पारिणााम यह निकला कि समाज में दोपायों (मनुष्यों) और चैपायों की हिंसा पूर्ण रूपेण निषिद्ध कर दी गई। यजुर्वेद मानव के प्रति अहिंसाभाव का कठोर आदेश देते हुए कहता है कि ‘…… मा हिंसीः पुरुषम् …’ (यजुर्वेद 16/3) अर्थात् पुरुष किसी भी प्राणी की  हिंसा न करे। यजुर्वेद पशुओं के मारे जाने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाता है। वह कहता है कि ‘मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः‘ (यजुर्वेद मन्त्र 12/32) तथा ‘इमं मा हिंसीद्विपाद पशुम् …’ (यजुर्वेद 13/47)। इसी प्रकार यजुर्वेद में गोवध का निषेध किया गया है क्योंकि मानव जाति के लिये गौ शक्तिवर्द्धक घी प्रदान करती है। ‘… गां मा हिंसीरदितिं विराजम्’ (यजुर्वेद 13/43 एवं ‘….. घृतं दुहानार्मादति जनाय …. मा हिंसीः’। (यजुर्वेद 13/49)। इसी प्रकार से अश्व, बकरी व भेड़ आदि पशुओं का वध न करने के प्रति भी वेद में अनेक आज्ञायें उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि समस्त वैदिक साहित्य के प्रतिनिधि वेद पशुओं की हिंसा के सर्वथा विरोधी हैं, मांसाहार का तो प्रश्न ही नहीं होता। आर्य विद्वानों ने वेदों में पशुहत्या व मांसाहार पर अनेक ग्रन्थ लिखकर शास्त्रीय उदाहरण, युक्ति, तर्क आदि देकर वेदों में इनका विधान होने का प्रतिवाद किया है। आर्य संन्यासी स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने भी स्वास्थ्य के शत्रु अण्डे व मांस पुस्तक लिखकर इन पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के हानिकारक सिद्ध किया है। एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नाडशा के जीवन की एक घटना का उललेख कर हम इस लेख को विराम देंगे। बर्नाडशा को डाक्टरों ने मांस-सेवन की सम्मति दी थी जिसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था–“My situation is a solemn one. Life is offered to me on condition of eating beef steaks.  But death is better than cannibalism.  My will contains directions for my funeral, which will be followed not by mourning coaches, but by oxen, sheep, flocks of poultry and a small travelling aquarium of  live fish, all wearing white scarfs in honour of the man who perished rather than eat his fellow creatures. It will be with the exception of Noah’s ark, the most remarkable thing of the kind seen.” अर्थात् ‘‘मेरी स्थिति गम्भीर है। मुझे कहा जाता है कि गो-मांस खाओ तुम जीवित रहोगे। इस राक्षसपन की अपेक्षा मृत्यु अधिक उत्तम है। मैंने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अरथी के साथ विलाप करती गाडि़यों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ बैल, भेड़ें, मुर्गे और जीवित मछलियों का एक चलता-फिरता घर होगा। इन सभी पशु और पक्षियों के गले में सफेद दुपट्टे होंगे, उस मनुष्य के सम्मान में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा। हजरत नूह की नौका को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक उत्तम और महत्वपूर्ण होगा।”

 

लेख की समाप्ती पर निवेदन है कि वेदों व प्रमाणिक वैदिक साहित्य में मांसाहार का विधान नहीं है। यदि कहीं ऐसी प्रतीती होती है तो यह इंटरप्रीटेशन व मिलावट के कारण हो सकती है। मानवीय आधार पर भी पशु हत्या और मांसाहार दूषित व पाप कर्म है। इसका करना इस जीवन को कुछ समय के लिए स्वादयुक्त बना सकता है परन्तु मृत्यु के बाद के जन्मों में मांसाहारी मनुष्य को पशु बनाकर इस अपकार का बदला ईश्वर के द्वारा अवश्य चुकाया जायेगा। कोई इससे बच नहीं सकेगा। ईश्वर किसी की दलील भी नहीं सुनता क्योंकि वह मनुष्य के मन व आत्मा के विचारों व उसकी सभी क्रियाओं का साक्षी होने के साथ किसी बात व घटना को भूलने की प्रवृत्ति से रहित है। अतः सभी मनुष्य को मांसाहार के घृणित कार्य से स्वयं को दूर रखना चाहिये। यदि नहीं रख सकते तो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था की प्रतीक्षा करें और जैसी करनी वैसी भरनी के सिद्धान्त के अनुसार अपने कर्मों का भोग करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

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गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

ओ३म्

गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द सिद्ध योगी और बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने समस्त वेदों एवं वैदिक साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था और अपनी ऊहापोह व तर्कणा शक्ति से उसका मन्थन कर सत्य व असत्य विचारों व मान्यताओं को पृथक-पृथक किया था। देश हित में उन्होंने वेदों का उद्धार व समाज सुधार के अनेकानेक कार्य किये जिससे देश व समाज को अभूतपूर्व लाभ हुआ और वह अनेक भावी कठिन व जटिल विपदाओं से बच गया। उनके बाद उनके अनुयायियों से इतर लोगों में उन जैसा ज्ञान, सामर्थ्य, सोच, योजना, त्याग व समर्पण न होने के कारण उनका वह स्वप्न आज भी अधूरा है। आज देश के जो हालात हैं, वह भारत के इतिहास का एक कठिनतम दौर है और भविष्य क्या होगा? यह अनुमान लगाना कठिन है जिसके प्रति अनेक आशंकायें हैं। आज इतना ही कहना समीचीन है कि सभी राष्ट्रवादियों को एक जुट होना होगा और छद्म राष्ट्रवादियों को बेनकाब कर उन्हें वैचारिक आधार पर परास्त करना होगा।

 

वैदिक आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को लेकर अनेकानेक भ्रान्तियां प्रचलित रही हैं जिनका निराकरण नहीं हो पा रहा था। महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में अपने अपूर्व ज्ञान से सभी भ्रान्तियों का निराकारण किया। आश्रम व्यवस्था में गृहस्थाश्रम पर आपने अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये हैं जिन पर इस लेख में दृष्टि डाल रहे हैं। महर्षि दयानन्द प्रश्न करते हैं कि गृहस्थाश्रम अन्य तीन ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में सब से छोटा है वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब आश्रम बड़े् हैं। परन्तु–

 

यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।।

 

यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः।

तथा गृहस्थमाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वं आश्रमाः।।2।। 

 

उपर्युक्त दोनों श्लोक मनुस्मृति के हैं। महर्षि दयानन्द ने इस प्रसंग में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में अन्य दो श्लोक भी दिये हैं। इन चारों श्लोकों का अर्थ करते हुए वह कहते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमण करते व बहते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते है।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को गृहस्थाश्रमी दान और अन्नादि देके प्रतिदिन ही धारण करते हैं इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। इसलिये जो मनुष्य वा स्त्री-पुरुष अक्षय मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे। यह गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने से अयोग्य है। इसको (ब्रह्मचारीगण) अच्छे प्रकार से वरण कर धारण करें। यह मनुजी के विचार व आदेश हैं। मनु जी के इन विचारों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि इस कारण से जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु गृहाश्रम में तभी सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और स्वयंवर (वरवधु द्वारा विवेकपूर्वक स्वयं निश्चित) विवाह है।

 

वैवाहिक जीवन में संयम रखने और ब्रह्मचर्य का पालन करने की ओर भी महर्षि दयानन्द गृहस्थियों का ध्यान दिलाते हैं। वह कहते हैं कि गृहस्थ के स्त्री व पुरुषों को यह ध्यान रखना चाहिये कि उनके शरीर में सन्तान उत्पन्न करने के ईश्वर ने जो पदार्थ रज व वीर्य बनाये हैं उनको वह अमूल्य समझे। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं वे महामूर्ख होते हैं। किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के विना अन्यत्र बीज नहीं बोते। जब साधारण बीज और मूर्ख किसान वा माली का ऐसा वर्तमान है तो जो सर्वोत्तम मनुष्य-शरीर रूप के बीज को कुक्षेत्र में खोता है वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उस का उत्तम फल उस मानव बीज की महत्ता न समझने वाले को नहीं मिलता। आत्मा वै जायते पुत्रः यह ब्राह्मण ग्रन्थ और निम्न श्लोक सामवेद के ब्राह्मण ग्रन्थ का है।

 

अंगादंगात् सम्भवसि हृदयादधि जायसे।

            आत्मासि पुत्र मा मृथाः जीव शरदः शतम्।।

 

इस श्लोक में पिता कहता है कि हे पुत्र ! तू अंग -अंग से उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है। इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरना किन्तु सौ वर्ष तक जीवत रहना। जिस पौरूष शक्ति वीर्य से ऐसे-ऐसे महात्मा और महाशयों के शरीर उत्पन्न होते हैं उस को वैश्यादि दुष्ट क्षेत्र में बोना वा दुष्टबीज अच्छे क्षेत्र में बुवाना महापाप का काम है। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में जो बात कही है वह चिकित्साशास्त्र और वैदिक ज्ञान का निष्कर्ष है और सदाचार का आधार है।

 

एक समय था जब यूरोप में लोग बिना विवाह किये स्वेच्छाचार करते थे। तब वहां के एक सदाचारी पुरूष वैलेण्टाइन ने आन्दोलन किया और लोगों को विवाह के लिए सहमत किया था। वैलेण्टाइन अल्पायु में ही मृत्यु का ग्रास बन गये थे अन्यथा वह इस दिशा और बहुत कार्य करते। उनके नाम पर ही वैलेण्टाइन दिवस मनाया जाता है परन्तु उनकी भावनाओं को भुला दिया गया है। भारत में विवाह का प्रचलन सृष्टि के आदि काल में ही वेदों की शिक्षाओं के आधार पर अस्तित्व में आ गया था। अनेक दुर्मति लोग भी विवाह के विषय में समय-समय पर प्रश्न उठाते रहते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी इन प्रश्नों को उठाया और उनके उत्तर दिये हैं। उन्होंने प्रश्न किया है कि विवाह क्यों करना चाहिये? क्योंकि इस से स्त्री पुरुष को बन्धन में पड़के बहुत संकोच करना और दुःख भोगना पड़ता है इसलिये जिस के साथ जिस की प्रीति हो तब तक वह मिले रहें, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यह पशु पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम रहे तो गृहाश्रम के अच्छेअच्छे व्यवहार सब नष्ट भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी करे। और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्रशीघ्र मर जायें। कोई किसी से भय लज्जा करे। वृद्धाश्रम में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर कुलों के कुल नष्ट हो जायें। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी वा दायभागी भी हो सके और किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकालपर्यन्त स्वत्व वा अधिकार रहे, इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है। महर्षि दयानन्द ने विवाह के पक्ष में इन तर्कों को देकर विवाह विषयक कुतर्क करने वालों के मुंह पर ताला लागा दिया है। आज के समाज में लिवइनरिलेशन व होमोसेक्सुअलिटी के अमर्यादित, ईश्वर व सृष्टि के नियमों के विरुद्ध, व्यवहार व मांगों के परिप्रेक्ष्य में भी महर्षि दयानन्द का विवाह के समर्थन में दिया गया उत्तर विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी ने गृहस्थाश्रम के विषय में सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास सहित संस्कारविधि व अपने वेदभाष्य में बहुत ही महत्वूपर्ण विचारों व वैदिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक एवं उपादेय हैं। अनेक वैदिक विद्वानों ने भी इस विषय में कुछ लाभकारी ग्रन्थों की रचना की है जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द स्त्री जाति के सर्वाधिक हितैषी महापुरूष हुए हैं। विवाह की व्यवस्था का आरम्भ वेदों से संसार में हुआ है जिसको इस पृथिवी के सभी भूभागों के लोगों द्वारा अपनाया गया। कालान्तर में विवाह विषयक कुछ नियमों व व्यवहारों को लोग भूल बैठे थे जिससे अनेक समस्यायें उत्पन्न हुईं। आज महर्षि दयानन्द ने विवाह विषयक सभी समस्याओं एवं गृहस्वामी व गृहसम्राज्ञी अर्थात् पति व धर्मपत्नी के विषय में विवाह की अर्हतायें, गुणकर्मस्वभाव की समानता, आयुभेद, गृहस्थ आश्रम में पति व पत्नी के कर्तव्य वा दायित्व आदि विषयों पर पड़े अज्ञानता व रूढि़वाद के आवरण को हटा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचार सभी मतों व धर्मों के लोगों के लिए उपादेय व प्रगतिसूचक हैं। सभी को इनका अध्ययन कर इनसे लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

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घर के अन्दर बैठे आतंकियों का क्या होगा? -शिवदेव आर्य

भारतवर्ष का अपना निराला ही रूप दिखायी देता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि – यह एक मतनिरपेक्ष देश है, जिसको लोग धर्मनिरपेक्ष भी कह देते हैं। जहाॅं धर्मनिरपेक्षता की आड़ में लोकतान्त्रिक व्यवस्था को बिगाड़ने का हर सम्भव प्रयास किया जाता है।
ऐसा ही कुछ 9 फरवरी 2016 को हुआ, शायद आपको यह सारा वृत्त ज्ञात होगा कि इस दिन क्या कुछ हुआ-9 फरवरी को जे.एन.यू. में वामपन्थी और दलित संगठनों से जुड़े छात्रों ने संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु की बरसी मनाई, इसमें कश्मीर के छात्र शामिल थे। इसके लिए कैंपस में एक सांस्कृतिक संध्या का आयोजन भी किया गया था। इस दौरान देश विरोधी नारे भी लगाए गये।
यह सब जानकर प्रत्येक भारतीय को बहुत दुःख हुआ होगा कि – 9 फरवरी को ही हनुमनथप्पा जो जे.एन.यू. के समीपस्थ ही सेना के अस्पताल में देश के लिए अपनी आखरी सांस ले रहे थे। जहाॅं समुचा देश एकजुट होकर उसके जीवन के लिए प्रार्थना व हवन कर रहा था, वहीं देश को एक नई दिशा व दशा देने वाला तथाकथित वर्ग ऐसे सिपाही के बलिदान को कुछ नहीं समझ रहा था अपितु वह तो आतंकी गतिविधियों को बढावा देने वाले को श्र(ांजलि दे रहा था। संसद पर अफजल गुरु ने जो हमला किया यदि वह हमला जे.एन.यू. में हुआ होता तब शायद वहाॅं के लोगों की आॅंखे खुली होती। जहाॅं संसार भर में इस कृत्य की निन्दा हुयी, वहीं संसद हमले के समय संसद में फसे हुए कुछ तथाकथित सांसद भी इस राष्ट्रदोही कृत्य का अनौपचारी समर्थन कर रहे हैं।
हम सभी जानते हैं कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की छवि धूमिल करने की पूरी कोशिश की जा रही है। अभी हाल की ही घटना है कि भारतीय क्रिकेटर विराट कोहली के समर्थक को लाहौर में अपनी छत पर भारतीय ध्वज फहराने पर 24 घण्टे के अन्दर-ही-अन्दर 10 साल की सजा दे दी जाती है।
आज-कल हम कश्मीर के विभिन्न भागों में तिरंगा जलाने और पाकिस्तानी तथा आई एस के झण्डे फहराने की घटनाएॅं लगभग प्रत्येक दिन सुन व देख रहे हैं, ऐसे में सरकार के शान्त रहने से दिल्ली में इनके इतने हौसले बढ़ गए कि उन्होंने अफजल गुरु की फांसी के विरोध में कार्यक्रम आयोजित कर दिया और यूनिवर्सिटी को पता तक न चला, ये बेहद आश्चर्य को दर्शाता है। यह सचमुच बहुत की शर्मसार कृत्य है। क्या यह देशद्रोह नहीं है? इससे बढ़कर और आतंकी होने की कसौटी क्या हो सकती है? अफजल गुरु जैसे आतंकवादियों से सहानुभूति रखना देशद्रोह नहीं तो और क्या है? यह कोई छोटी घटना नहीं है, अपितु इसे एक योजनाबद्ध तरीके से कार्यरूप दिया गया है। क्योंकि बाहरी आतंकी शक्ति तो अपने आप ही कमजोर होती जा रही है। इसीलिए घर के अन्दर बैठे लोगों को ही आतंकी बनाने की जोर-शोर से तैयारी चल रही है।
इन विरोधी छात्रों का अतंकवादी संगठन खुले-आम समर्थन कर रहे हैं। जे.एन.यू. में राष्ट्रविरोधी नारेबाजी को आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद का खुला समर्थन प्राप्त हो रहा है। सईद ने कथित तौर पर ट्वीट कर पाकिस्तानियों से जे.एन.यू. छात्रों के प्रदर्शन का समर्थन करने की अपील की थी।
सरकार को ऐसे कृत्य के लिए कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए कि कल को कोई और ऐसा करने की भूल मन में भी न सोच सके।
दिल्ली तो क्या देश के किसी भी कोने में देशद्रोहियों के समर्थन में किसी को आवाज ऊॅंची करने की हिम्मत नहीं होनी चाहिए। शाहरुख खान, आमिर खान और करण जौहर जैसे कई काफिरों से पूछना चाहता हूॅं, जिन्होनें असहिष्णुता को लेकर देश की छवि खराब की और उन तथाकथित कलमबेंचू साहित्यकारों से जिन्होंने राष्ट्रिय पुरस्कार व सम्मान लौटाए, वे बताएॅं कि एक यूनिवर्सिटी में आतंकवादियों का समर्थन करने के लिए कार्यक्रम आयोजित करना कहाॅं तक सही है? अब इन लोगों की आत्मा क्यों नहीं रो रही है।? अब सबकी बोलती क्यों बन्द है? अब ये चांडाल चैकडी ‘गो इण्डिया गो बैक, भारत की बरबादी तक जंग रहेगी जारी, कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी जारी, अफजल हम शर्मिन्दा हैं तेरे कातिल जिन्दा हैं, तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर में अफजल निकलेगा, अफजल तेरे खून से इन्कलाब आयेगा’ के नारों के विषय में क्या कहेंगे?
यह भारत ही है जहाॅं इतना सब कुछ होने पर भी अभी तक कार्यवाही के नाम पर केवल गिरफ्तारी ही की गयी है। दिल्ली में इतना कुछ हो गया पर अब तक सब कुछ सहन किया जा रहा है। परन्तु यदि अलगाबवादी कश्मीरियों या मुसलमानों के मामले पर कोई प्रदर्शन होता तो हमारे यहाॅं इसे असहिष्णुता का नाम दिया जाता। यह भारत ही है, जहाॅं सब कुछ चलता है क्योंकि हम सहिष्णु हैं। हम उन लोगों में से नहीं है जो भूल जायें कि अफजल गुरु ने भारतीय संसद पर हमला किया और फिर 11 साल तक केस चला तब जाकर 2013 में उसे फांसी की सजा दी गई, इस हमले को विफल करने वाले अपने उन 11 जवानों के बलिदान को कैसे भूला सकते हैं।
समय है कि इन दिनों देशद्रोहियों के खिलाफ तुरन्त एक्शन लिया जाना चाहिए। सवाल यूनिवर्सिटी प्रशासन की चुप्पी का नहीं है अपितु सरकार कब बड़ा कदम उठायेगी यह है। इस मामले में दिल्ली वालों को एकजुट होकर देशद्रोहियों को सबक सिखाने के लिए नई क्रान्ति लानी होगी। यही समय की मांग है।
लोकतन्त्र में सरकार को, व्यवस्था को, प्रधानमन्त्री को, मन्त्रियों को, राजनीतिक पार्टियों आदि को बुरा-भला कहने की बात तो समझी जा सकती है, उस का समर्थन भी किया जा सकता है किन्तु अपनी ही जन्म-भूमि का अहित करने की सोच रखने वाले कुछ भी हो सकते हैं किन्तु मनुष्य तो निश्चित ही नहीं हो सकते। जो अभिव्यक्ति को ही स्वतन्त्रता के नाम पर देशद्रोह का समर्थन करते हैं, उनकी मानसिकता की जाॅंच कराना हम सबका मौलिक कर्तव्य होना चाहिए।
राष्ट्र महान् है तथा राष्ट्र सर्वोपरि है, राष्ट्रद्रोही तत्वों का निर्मूल करना राजा का परम कर्तव्य है। यही राजा का राजधर्म है –
देशद्रोही अथवा शत्रुपथ से मिले हुए के लिए दण्ड का विधान हुए चाणक्य नीति में इस प्रकार प्राप्त होता है कि –
‘दुष्याः तेषुधर्मरूचिपां सुदण्डम् प्रयुजीत’ (5/4)
अर्थात् देशद्रोह करने वाले का सर्वनाश कर देना चाहिए। यही इन कुकृत्य करने वालों के साथ करना चाहिए।
ऋग्वेद स्पष्ट शब्दों में आदेश देता है –
‘अमित्रहा वृत्रहा दस्युहा च विश्वा वसून्या भरा त्वं न’( ऋग्वेद-18/83/3)
अर्थात् जो समाज में दस्यु कर्म, सुख-शान्ति में बाधा डालने वाले हैं, उनको नष्ट कर देना चाहिए।
ऐसे विकराल काल में राजा को कठोर निर्यण लेना चाहिए, जिसके लिए ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में आदेश दिया गया है-
ये नः………उग्रं चेत्तारमधिराजमक्रन्। (10/128/9)
देशद्रोही को कठोर से कठोर दण्ड के लिए यजुर्वेद के 39 वें अध्याय में कहा है कि –
उग्रं लोहितेन मित्रं सौव्रत्येन रुदं्र दौर्व्रत्येनेन्द्रं प्रक्रीडेन मरुतो बलेन साध्यान् प्रमुदा। भवस्य कण्ठय रुद्रस्यान्तः पाश्वर्यं महादेवस्य यकृच्छर्वस्य वनिष्ठुः पशुपतेः पुरीतत्।। (यजुवेद.-39/9)
ऐसे दुष्ट पापचारियों तथा देशद्रोहियों के लिए मनु महाराज का विधान है कि -‘दण्ड शास्ति प्रजा सर्वा दण्ड एवाभि रक्षति’ (मनु.-9/7)
अर्थात् दण्ड ही प्रजा को व्यवस्थित रखता है और दण्ड ही सभी की रक्षा करता है। अतः प्रशासन को इन कुकृत्यों के खिलाफ देशद्रोह का अभियोग चलाना चाहिए और कठोरतम दण्ड देना चाहिए।
यदि प्रशासन इस कार्य को करने में असमर्थ हो तो प्रत्येक भारतीय को अपनी भारतीयता को दिखाते हुए रतन टाटा के समान देश की प्रत्येक गतिविधियों से इन जेएनयू में पल रहे आतंकवादी कम्यूनिटों का बहिष्कार करना चाहिए।
आज प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यकता है कि वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि की क्षुद्र मानसिकता से ऊपर उठकर अपने को भारतीय बनाने का यत्न करना चाहिए। यही ऐसी समस्या का हल है अन्यथा आज एक ऐसी घटना हुयी कल को सर्वत्र यही दृश्य दिखायी देंगे।
अब हम कैसा चाहते हैं, सोचने की बात है?
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गुरुकुल पौन्धा, देहरादून
Mobil.-8810005096
ई.मेल.-shivdevaryagurukul@gmail.com

 

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देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।

देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।

बिहार चुनाव के समय असहिष्णुता पर बड़ी बहस चल रही थी जिसको देखो, वह इस देश की बढ़ती हुई असहिष्णुता से चिन्तित दिखाई दे रहा था। देश के राष्ट्रपति से लेकर गली के नेता तक प्रतिदिन वक्तव्य दे रहे थे। असहिष्णुता कोई नई घटना है या किसी परिवर्तन का परिणाम ! गत दिनों असहिष्णुता पर लेख लिखते हुए एक लेखक ने ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के आधार पर असहिष्णुता की परिभाषा को दो भागों में बाँटा था-

(क) किसी ऐसी बात की उपस्थितिया अभिव्यक्ति को ( जो कि उसे पसन्द नहीं है या जिससे उसकी सहमति नहीं है ) बिना विरोध सहन करने की सामर्थ्य या सहनशीलता।

(ख) किसी अप्रसन्नता वाली वस्तु ( दवाई आदि भी ) को बिना विपरीत प्रतिक्रिया के सहन करना।

यह परिभाषा एक प्रामाणिक कोष की परिभाषा है, ठीक ही होगी। भारत में सहिष्णुता-असहिष्णुता का मूल्यांकन इस परिभाषा पर नहीं किया जा सकता। भारत में स्वतन्त्रता के बाद से जो हो रहा था, उसकी परिभाषा गाँधी जी की दी हुई थी। उनके विचार से इस देश में दो ही विचारधाराएँ हैं- एक हिन्दू समर्थक, एक हिन्दू विरोधी । भारत की सहिष्णुता केवल हिन्दू-विरोध का दूसरा नाम है। यह हिन्दू विरोध मुस्लिम, ईसाई विरोधी हो जाये तो असहिष्णुता है और हिन्दू अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध करे तो वह भी घोर असहिष्णुता है।

यदि ईसाई चर्च प्रलोभन अथवा भय से हिन्दुओं का धर्मान्तरण कराये तो यह उदारता सहिष्णुता है, यदि हिन्दू इसका विरोध करने लगे तो यह असहिष्णुता है। कहीं किसी ईसाई को हिन्दू बनाने की बात की तो यह असहिष्णुता बढ़ाना है। कश्मीर में कई हजार हिन्दूस्थानों का नाम एक आदेश से बदल देना और किसी के द्वारा विरोध में स्वर न उठाना, यह सहनशीलता है और दिल्ली के औरंगजेब मार्ग का नाम कलाम के नाम पर करना, यह असहिष्णुता है।

कोलकाता में दुर्गा-पूजा पर पण्डाल तोड़ना सहिष्णुता है और मुसलमानों को सड़क पर यातायात अवरुद्ध करने से रोकना असहिष्णुता है। मन्दिर तोड़ना, हिन्दू महिलाओं को निर्वस्त्र कर दौड़ाना सहिष्णुता है, मस्जिद में इकट्ठे होकर देशद्रोह के व्यायानों की निन्दा करना असहिष्णुता है। साध्वी प्रज्ञा को आतंकी मान, बिना अपराध जेल में रखना सहिष्णुता है। आतंकी को न्यायालय द्वारा फाँसी दिया जाना असहिष्णुता है। गोधरा में गाड़ी के डिब्बे बन्द करके पैट्रोल डालकर जला डालना सहिष्णुता है। प्रतिक्रिया में हिन्दुओं का आक्रामक होना असहिष्णुता है। संसद के अन्दर वन्दे मातरम का  गान होते समय गान का अपमान करनेवाले की प्रशंसा करना सहिष्णुता है और वन्देमातरम गानेवाले की प्रशंसा करना असहिष्णुता है। आजम खाँ का संघ को आतंकी कहना सहिष्णुता है और तिवारी द्वारा बदले में इस्लाम पर टिप्पणी करना असहिष्णुता है। हिन्दुओं द्वारा आत्मरक्षा में उठाया गया काम असहिष्णुता और अपराध है, मुसलमानों द्वारा नवादा में गाड़ियों को जला देना, थाने पर आक्रमण करके आग लगा देना सहिष्णुता की परिभाषा में आता है। ओड़िशा में एक सन्त को कुल्हाड़ी से काट देना सहिष्णुता है और पादरी को जला देना असहिष्णुता है। मुसलमानों द्वारा गाय-ऊँट को मारने पर रोक लगाना असहिष्णुता है, चौराहे पर गोवध करना सहिष्णुता है।

इतिहास में इससे पहले भी बड़ी-बड़ी घटनायें घटीं, तब भी किसी को असहिष्णुता का बोध नहीं हुआ। इन्दिरा गाँधी ने 1975 में आपात्काल की घोषणा की, तब साहित्यकारों ने पुरस्कार स्वीकारना भी बन्द नहीं किया, लौटाना तो दूर की बात है। 1984 में इन्दिरा गाँधी की हत्या की प्रतिक्रिया में तीन हजार से अधिक सिक्खों की हत्या कर दी गई और बदले में सहिष्णु लोगों की प्रतिक्रिया थी। जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। इससे पता लगता है कि सहिष्णुता की दिशा क्या है ? भागलपुर के दंगे प्रसिद्ध हैं, तब भी असहिष्णुता का कोई अवसर नहीं था। विचारों की स्वतन्त्रता का ढोंग करनेवाले वामपन्थी, कांग्रेसी और तथाकथित प्रगतिशील लोग हिन्दूदेवी-देवताओं को गाली देना, विचार-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार मानते हैं। तसलीमा नसरीन के देश निकाले और जान से मार देने के फतवे को सुनकर कबूतर की तरह बिल्ली के आने पर आँखें बन्द कर लेते हैं। विचार-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की बात करनेवाले ये ही लोग भारत में रुशदी की पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करते हैं। रुशदी के भारत में आने पर उसका विरोध करते हैं। जयपुर कार्यक्रम से बाहर जाने के लिये बाध्य करते हैं। केरल में एक ईसाई प्रोफेसर का हाथ इसलिये काट दिया जाता है कि उसने इस्लाम के विरोध में लिखा था, यह भी इस देश की सहिष्णुता का उदाहरण है। इन प्रगतिशील विचारकों की सहिष्णुता प्रशंसनीय है।

एक बार मुझे रेल में जाते हुए सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी ने अपने अनुभव बताते हुए कहा था- कश्मीर चुनाव में एक मतदान केन्द्र पर उसकी नियुक्ति थी। वहाँ केवल दो मतदाता थे, वह गाँव कश्मीरी पण्डितों का था। उस अधिकारी ने बताया- गाँव के वृद्ध ने कश्मीरी पण्डितों को भगाने की घटना सुनाते हुये कहा था कि इसी वृक्ष के नीचे छबीस कश्मीरी पण्डितों की हत्या की गई थी।जहाँ सैंकड़ों लोगों की हत्या हुई हो और जिस देश में अपने ही घर से बेघर कर बीस वर्षों से भी अधिक समय से शेष लोगों को शरणार्थी बना दिया गया हो- क्या यह हमारी सहिष्णुता का प्रमाण नहीं है? कश्मीर में पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाना सहिष्णुता नहीं है? जब कश्मीर में भारतीय सेना के जवान आतंकियों की छानबीन करते हैं, उन्हें मार गिराते है, तब निःसन्देह भारत की सहिष्णुता खतरे में होती है। हिन्दू लड़कियों को भगाना, बलात्कार करना, हत्या कर देना, आदि को एक सामान्य बात मानना, इस देश में सहिष्णुता का ही प्रमाण है। कौन इसके विरोध में आवाज उठाता है? कौन अपने पुरस्कार लौटाता है? एक दादरी काण्ड पर सारा देश पुरस्कार लौटाने के लिये पंक्ति में खड़ा हो जाता है। यहाँ आतंकियों का सम्मान करने में होड़ लगती है। चाहे दिल्ली का बटाला हाउस काण्ड हो या गुजरात में इशरतजहाँ का मारा जाना। आतंकियों के घर पुरस्कार के रूप में लाखों रुपये के चेक लेकर सहिष्णु लोग ही तो पहुँचते हैं।ये थोड़े से उदाहरण धार्मिक सहिष्णुता के हैं।

इस देश में दो वर्ग विशेष रूप से असहिष्णुता से पीड़ित हैं- राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस और उसके पिछलग्गू लोग। इनका असहिष्णु होना बनता भी है। कांग्रेस की सत्ता छिन गई और ये लोग सोचते हैं कि देश में सहिष्णुता रहनी चाहिये। जो लोग साठ साल से इस देश पर राज्य कर रहे थे और उन्होंने इसे अपना पैतृक अधिकार समझ रखा था, उनको इस देश की जनता ने पराजित कर सत्ता से बाहर कर दिया तो जनता का इससे बड़ा उनके साथ अन्याय क्या हो सकता है? ऐसे लोगों में आक्रोश होना स्वाभाविक है, वे असहिष्णुता की बात करें तो ठीक ही है, इस देश की जनता ने उनको सहने से इन्कार कर दिया, क्या इस देश की जनता असहिष्णु नहीं हो गई है? केवल सत्ता ही गई हो, ऐसा तो नहीं है। सत्ता के जाने से सम्पत्ति और समान भी तो जाता है। सत्ता से एक महिला इंग्लैण्ड की महारानी से भी अधिक सम्पत्ति उपार्जित कर लेती है, क्या बिना सत्ता के ऐसा सभव है? बिना सरकार में हुए सरकार से बड़ा पद मिल जाना, क्या सत्ता के बिना संभव है? राजा के घर पैदा होकर राज्य का अधिकार मिलने की सहज  परम्परा का टूट जाना, क्या सहन करने योग्य बात है ? इसके कारण देश के लोगों में असहिष्णुता बढ़ना सहज बात है। उनकी सरकार के रहते मन्त्री और अधिकारियों और नेताओं ने जो लूट मचा रखी थी, क्या उसके रुक जाने पर कोई शान्तिपाठ कर सकता है? मुझे गत दिनों आर्यसमाज शामली के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। वहाँ के आर्य सज्जन रघुवीर सिंह आर्यजी के साथ छः दिन रहने का अवसर मिला। उनका लोहे का कारखाना है, गाड़ी के धुरे आदि बनाते हैं। उनके पुत्र ने एक बात बताई कि मोदीजी के आने से उनको व्यापार में घाटा हुआ, परन्तु देश को लाभ। पूछने पर उन्होंने बताया कि मोदी सरकार के आने से भारत का कच्चा लोहा बाहर जाना बन्द हो गया। लोहे का निर्यात बन्द हुआ तो लोहा भारत के बाजार में सस्ता हो गया। इससे देश के व्यापारी को तो तत्काल हानि हो गई, पर कच्चे लोहे का निर्यात बन्द होने से उपभोक्ता को लोहा सस्ता मिल रहा है और देश में ही लोहे का निर्माण हो रहा है। कांग्रेसराज में खनिज निर्यात करके दलाल लोग अपनी जेबें भर रहे थे और देश को हानि हो रही थी। इसी प्रकार खाद्यान्न आदि में भी हो रहा है। इससे जिनलोगों की बेनामी बेहिसाब सम्पत्ति मिल रही थी, क्या उनमें असहिष्णुता नहीं बढ़ेगी । जिस-जिस के भी स्वार्थ पर चोट पड़ेगी, वह असहिष्णु तो होगा ही। इस देश में कांग्रेस ने कुछ सहिष्णुता के केन्द्र बनाये थे, जिनमें देश के अन्दर सहिष्णुता उत्पन्न की जाती है।उनमें से एक है- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। यह विश्वविद्यालय प्रगति और आधुनिकता का जनक है।जब यह विश्वविद्यालय बना तो इसमें सब भाषाओं के विभाग खोले गये, परन्तु संस्कृत भाषा का विभाग नहीं खोला गया, क्योंकि इस देश के लोगों में संस्कृत पढ़ने से असहिष्णुता बढ़ती है। जब मुरली मनोहर जोशी ने इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोलने की अनुमति दी तो यहाँ पर विरोध, हड़ताल और आन्दोलन किये गये, परन्तु संस्कृत विभाग तो खुल गया, फिर असहिष्णुता तो इस देश में बढ़नी ही है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सहिष्णुता का एक उदाहरण देना असंगत नहीं होगा। इस विश्वविद्यालय में एक छात्र जितेन्द्र धाकड़ संस्कृत विषय में एम.फिल. का छात्र है।यह परिवार से आर्यसमाजी है। यह प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन हवन, यज्ञ करके ही मनाता है। इसने इस वर्ष 21 नवम्बर को विश्वविद्यालय में छात्रावास के अपने कक्ष में मित्रों के साथ यज्ञ का आयोजन किया।फिर क्या था, छात्रावास के कामरेडों ने इसकी शिकायत छात्रावास अधीक्षक से कर दी। छात्रावासअधीक्षक (वार्डन) भी एक ईसाई बर्टेनक्लेट्स है, वह तुरन्त कक्ष संख्या 130 में पहुँचा । उसके साथ कामरेड शिकायत करनेवाले भी थे। इन्होंने जबरदस्ती उस छात्र का हवन बन्द करा दिया।छात्रावास मुस्लिम छात्रों को जब नमाज पढ़ने से नहीं रोकता, ईद मनाने से नहीं रोकता, क्रिसमस धूमधाम से मनाया जाता है, बीफपार्टी का आयोजन करने की अनुमति मिल सकती है। फिर हवन को जबरदस्ती बन्द कराना कौन-सी सहिष्णुता का उदाहरण है- ये असहिष्णुता से पीड़ित लोग बता सकेंगे। देश के प्रधानमन्त्री को अलीगढ़ में न बुलाने देना, यह भी सहिष्णुता का ही उदाहरण है। जिन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं से इतनी पीड़ा है कि उन्हें अपने देश में अपनी परम्परा का निर्वाह करने में विरोध सहना पड़ रहा है, वे मुस्लिम देशों की सहिष्णुता से कुछ क्यों नहीं सीखते? पिछले दिनों 22 दिसम्बर को ब्रुनेई के सुल्तान ने क्रिसमस का पर्व मनाने पर बड़ी सजा देने की घोषणा की तथा ऐसा करने वालों को पाँच साल की जेल या बीस हजार डॉलर का दण्ड देना होगा। यदि कोई घर में अकेले मनाना चाहता है तो उसे प्रशासन से अनुमति लेनी होगी । 24 दिसम्बर को अफ्रीकी देश सोमालिया के मन्त्री शेखमोहमद खेचरो ने अपने देश के लोगों को आदेश दिया कि क्रिसमस और नव वर्ष न मनाया जाय, यह ईसाइयों का पर्व है,  इससे मुसलमानों का कोई सम्बन्ध नहीं। गुप्तचर विभाग को निगरानी करने के लिये कहा है।

इन घटनाओं के चलते भारत में असहिष्णुता दीखती है तो वह चाहे धार्मिक हो, जातीय हो या राजनैतिक, मूल कारण है मोदी का प्रधानमन्त्री बनना और हिन्दुओं का अन्याय के विरुद्ध मुखर होना। जो लोग कहते हैं कि मोदी से पहले देश में शान्ति और भाईचारा था, यहाँ गंगाजमुनी संस्कृति है- यह झूठ और आत्मप्रवञ्चना है। इस देश में अल्पसंखयकों और सरकार द्वारा हिन्दुओं पर जितने अत्याचार हुए हैं, उनकी कोई गिनती नहीं, फिर भी यह देश सहिष्णु था तो इसका असहिष्णु होना ही ठीक है। अच्छा होता, यह देश एक हजार वर्ष पूर्व असहिष्णु हो जाता तो दास न बना होता। नीतिकार ने कहा है- जन्मान्ध नहीं देखता, कामान्ध नहीं देखता, उन्मत्त-पागल नहीं देखता और स्वार्थी भी नहीं देखता। इन अन्धों की सहिष्णुता पर क्या कहा जा सकता है-

नैव पश्यति जन्मान्धो कामान्धो नैव पश्यति।

मदोन्मत्ता न पश्यन्ति हयर्थो दोषं न पश्यति।।

 

– धर्मवीर

आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें

ओ३म्

आत्मा को भुला देने से विश्व में अशान्ति आदि समस्त समस्यायें

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्यों द्वारा अपनी आत्मा व शरीर में भेद न करने व आत्मा व शरीर को एक मान लेने के कारण ही विश्व में अशान्ति व नाना प्रकार की समस्यायें हैं। इन सबका हल यही है कि संसार के सभी मनुष्य आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानें। इसके लिए यह आवश्यक है कि व्यवस्था  से जुड़े शीर्षस्थ व्यक्ति सर्वसम्मति से शिक्षा में आत्मा विषयक यथार्थ ज्ञान के अध्ययन व अध्यापन की व्यवस्था करें। जो व्यक्ति आत्मा का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेगा तो वह परमात्मा के यथार्थ स्वरूप को जाने बिना चैन से नहीं बैठ सकता। वेद, उपनिषद व योग-सांख्य-वेदान्त दर्शन से ईश्वर विषयक यथार्थ ज्ञान भी इसके अध्येताओं को अवश्य होगा जिससे वह वैराग्य को प्राप्त होगें। वैराग्य ज्ञान की पराकाष्ठा को कहते हैं। बच्चा बड़ा होकर खिलौनो से खेलना इसलिए बन्द कर देता है कि उसे इनकी वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है। जिस मनुष्य को यह पता लग जाये कि उसे कुछ दिन बाद मरना है तो उसे नींद नहीं आती, स्वादिष्ट भोजन भी अच्छा नहीं लगता और धन ऐश्वर्य होते हुए भी जीवन नीरस, फीका व स्वादरहित हो जाता है। इस स्थिति के बनने पर अध्यात्मिक ज्ञान व ईश्वरोपासना आदि साधनों से जीवन को सुखी, आनन्दयुक्त व सरस बनाया जा सकता है। आज के व्यक्तियों को देखकर लगता है कि वह सभी आंखें बन्द कर मार्ग पर चल रहे हैं और, देर व सबेर, सभी एक बड़ी दुर्घटना का शिकार होंगे जिससे यदि कोई बचा सकता है तो वह वेदों व उपनिषदों का ज्ञान ही है। इसके लिए महर्षि दयानन्द का लघुग्रन्थ आर्याभिविनय व सत्यार्थप्रकाश आदि के प्रथम, सप्तम, अष्टम, नवम व दशम समुल्लास भी उपयोगी हो सकते हैं। वैदिक विद्वानों ने वेदमन्त्रों की आध्यात्मिक व्याख्याओं के संग्रह प्रकाशित किये हुए हैं, वह भी मनुष्य का मार्गदर्शन कर सकते हैं।

 

आत्मा का ज्ञान क्यों आवश्यक है? इस प्रश्न का उत्तर है कि आत्मा का गहरा सम्बन्ध मुझसे व सभी प्राणियों का अपने आप से है। कुछ भी जानने से पहले मुझे स्वयं को जानना अनिवार्य है अन्यथा हम भोग पदार्थों को अर्जित कर उनके भोग का विवेकपूर्ण निर्णय नहीं कर पायेंगे। यदि किसी शिक्षित व्यक्ति से पूछा जाये कि वह अपने आप व स्वयं को जानता है तो वह कुछ न कुछ उत्तर अवश्य देगा। वह उत्तर ठीक हो सकता है परन्तु वह अपूर्ण ही होगा। आत्मा व मैं एक हैं। मेरे जीवन में मैं ही आत्मा और आत्मा ही मैं हूं। इस आत्मा का इतिहास व जन्मादि कब, कैसे, कहां व किससे हुआ, यह प्रश्न जानने पर जो स्थिति हमें अवगत होती है, उससे बड़े बड़े ज्ञानी भी अनभिज्ञ व अपरिचित हैं। हमारा आत्मा एक चेतन पदार्थ है। चेतन का अर्थ है कि इसमें सुख व दुःख की संवेदनायें, जिज्ञासायें व ज्ञान तथा क्रिया करने की सामथ्र्य होती है। इसके विपरीत जड़ पदार्थ होते हैं जिनमें किसी प्रकार की संवेदनायें व सुख व दुःख की अनुभूति, ज्ञान व स्वयं उद्देश्य प्रधान क्रिया करने की सामर्थ्य नहीं होती। सभी भौतिक पदार्थ जड़ पदार्थों की श्रेणी में आते हैं। हमारा व सभी प्राणियों का शरीर भौतिक पदार्थों से मिलकर बना है। हम अन्न के रूप में जिन पदार्थों का सेवन करते हैं उसी से हमारा शरीर बना व बनता है। इस शरीर का निर्माण स्वतः नहीं होता अपितु ईश्वर के विधान व उसके द्वारा ही होता है। इस शरीर का एक-एक अंग कितना महत्वपूर्ण है, इसका अनुमान तब पता चलता है कि जब कोई अंग विकारयुक्त हो जाता है या कार्य करना बन्द कर देता है। वर्तमान में विकसित चिकित्सा विज्ञान इन विकारों का उपचार करता है, कुछ स्वस्थ हो जाते हैं और कुछ परलोक सिधार जाते हैं। मनुष्य, वैज्ञानिक व चिकित्सक शरीर व उसके किसी भाग को बनाते नहीं, उस ईश्वर के नियमों द्वारा बने शरीर का अध्ययन कर केवल रोग व विकार के कारणों को हटाने का काम करते हैं जिसमें उन्हें आंशिक सफलता व विफलतायें दोनों ही मिलती हैं। जीवात्मा शरीर से पृथक एक चेतन तत्व है जबकि हमारा शरीर जड़ पदार्थों से मिलकर बना व बनाया गया है। इस शरीर को तो विज्ञान ने काफी हद तक जान लिया है परन्तु आत्मा का ज्ञान उपलब्ध होने पर भी सभी लोग जिनमें शिक्षित, ज्ञानी एवं वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, अपने संस्कारों, स्वभाव व सांसारिक पदार्थों से आकर्षित होकर भ्रमित रहते हैं जिसका परिणाम सुख व दुःख व यदा-कदा कम आयु में व अधिकांश की 60 से 80 वर्ष की आयु के बीच मृत्यु का होना है।

 

जीवात्मा शरीर से भिन्न चेतन पदार्थ है, यह जानने के बाद जीवात्मा की उत्पत्ति से जुड़े प्रश्नों पर विचार करना भी आवश्यक है। प्रत्येक कार्य का एक कारण होता है परन्तु मूल कारण का कारण नहीं होता। जीवात्मा प्रकृति में उपलब्ध किसी भौतिक पदार्थ के द्वारा निर्मित नहीं है। यह अनादि व अनुत्पन्न है। हम देखते हैं कि भौतिक पदार्थों का स्वरूप परिवर्तन होता रहता है। विज्ञान भी मानता है कि पूर्ण नाश व समाप्ती किसी पदार्थ की कभी नहीं होती। दर्शन के आधार पर विचार करें तो भाव से भाव उत्पन्न होता है, अभाव से भाव उत्पन्न नहीं हो सकता। इसी प्रकार भाव का अभाव भी नहीं हो सकता। अतः आत्मा यदि है, जो कि प्रत्यक्ष अनुभव से जानी जाती है, तो यह आत्मा भाव पदार्थ है, इसका अभाव व पूर्ण नाश कदापि नहीं हो सकता। इस लिए आत्मा को अविनाशी स्वीकार किया जाता है। अमरता अर्थात् न मरना भी आत्मा का गुण है। शरीर की मृत्यु होती है, आत्मा की नहीं। आत्मा तो ईश्वर के नियमों से शरीर से निकल कर अपने कर्मानुसार अन्य किसी योनि में जन्म ग्रहण करने के लिए चला जाता है। इसी नियम का पालन करते हुए हम अपने पूर्वजन्म के स्थान से अपने वर्तमान के पिता व माता के शरीरों से होते हुए जन्में हैं। जन्म लेने वाले की मृत्यु और मृतक का जन्म होना भी एक सत्य शास्त्रीय सिद्धान्त होने के साथ तर्क व युक्तियों से भी सिद्ध है। अतः हमारी कालान्तर में मृत्यु अवश्य होनी है। यह शाश्वत् सत्य है परन्तु सभी मनुष्य लोग सारा जीवन इस सत्य से अनजान बने रहते हैं। यदि यह सत्य है तो क्यों न हम अपने जन्म और मृत्यु के सत्य को अधिक न सही, प्रातः व सायं ही स्मरण कर मृत्यु के भय पर विजय पाने की चेष्टा व अभ्यास करें। यदि हम मृत्यु को स्मरण रखेंगे और इससे होने वाले दुःख पर विजय पाने के लिए आत्मा के सत्यस्वरूप को जानकर उससे इस संसार के रचयिता को जानने सहित उसकी पूर्ण तर्क व युक्तिपूर्वक स्तुति, प्रार्थना व उपासना करेंगे साथ हि सदाचारयुक्त जीवन व्यतीत करेंगे तो हम निश्चय ही मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।

 

मृत्यु के स्वरूप को जानकर व उसके दुःख पर उस ज्ञान से मोह व अहंकारयुक्त जीवन का त्याग कर हम अवश्य ही अपने बुरे कर्मों जिनसे समाज व देश के निर्दोष लोगों को हमारे स्वार्थों के कारण दुःख होता है, उनसे बचने का अवश्य प्रयत्न करेंगे क्योंकि हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि संसार का सर्वव्यापक रचयिता, पालक, धारणकर्ता व सभी जीवात्मा के प्रत्येक शुभ व अशुभ कर्मों का नियन्ता व न्यायाधीश हमारे किसी कर्म को क्षमा नहीं करेगा और उसका उचित दण्ड जन्म व जन्मान्तरों में हमें अवश्य देगा। आत्मा पर विचार करते रहने व इस विषयक सत्साहित्य पढ़ने से आत्मा के अन्य गुणों व स्वरूप जिसमें इसका सूक्ष्म होना, एकदेशी होना, कर्म करने में स्वतन्त्र और उनके फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होना, पूर्वजन्मों के कर्मानुसार हमें इस मनुष्य योनि व सामाजिक परिवेश, माता, पिता आदि का मिलना व भविष्य में इस जन्म के कर्मों के आधार पर भावी मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि किसी योनि में जन्म मिलना, अज्ञान से दुःखों को प्राप्त होना व सत्य ज्ञान से दुःखों के स्वरूप को जानकर उनसे मुक्त व सुखी होना, आत्मा आकाररहित है, अल्पशक्ति वाला, अल्पज्ञ है, आदि जीवात्मा के स्वरूप व इसके विविध गुणों का ज्ञान होता है। जीवात्म अनादि व अनुत्पन्न होने से यह कभी बना व जन्मा नहीं है। इसी कारण इसकी मृत्यु, नाश व अभाव भी कभी नहीं होगा। यह जीवात्मा सदा-सर्वदा अपने अस्तित्व को विद्यमान रखते हुए जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहेगा, इसका ज्ञान स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व सच्चे गुरू के उपदेश से होता है।

 

जीवात्मा का अच्छा व बुरा पूर्वजन्म समाप्त हो चुका है, उसके बारे में कुछ करना करणीय नहीं है। वर्तमान जीवन सुखी, समृद्ध व यशस्वी हो तथा परजन्म भी इस जन्म से अधिक उन्नत हो, यह सभी जीवात्माओं वा मनुष्यों का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये। इसके लिए प्रथम जीवात्मा व परमात्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। यह ज्ञान वेद, उपनिषद, योग, सांख्य व वेदान्त दर्शन सहित सत्यार्थप्रकश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थों में सुलभ है। श्री कर्मनारायण कपूर का ग्रन्थ जीवात्मा का स्वरूप और पं. राजवीरशास्त्री सम्पादित दयानन्दसन्देश पत्रिका का तीन खण्डीय जीवात्मज्योतिविशेषाक का अध्ययन कर उनमें निहित आत्मा विषयक ज्ञान को आत्मसात किया जाना समीचीन है। इस ज्ञान के अनुसार जहां मनुष्यों को पुरूषार्थमय जीवन व्यतीत करते हुए अशुभ कर्मों का त्याग कर समस्त शुभ कर्म ही करने हैं वहीं वैदिक विधि से ईश्वर की उपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र अनुष्ठान, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों की सेवा-सत्कार सहित परोपकार व यथाशक्ति आर्ष-गुरूकुल-प्रणाली व वेदविद्या के प्रचार व प्रसार में सहयोग भी करना है। इन शुभकर्मों का लाभ हमें इस जीवन व परजन्म में मिलता है। आत्मा के सत्यस्वरूप को जाने बिना यह सभी कार्य नहीं किये जा सकते। इन कर्मों को करने से हमारा वर्तमान व परजन्म दोनों ही सुधरेंगे और हम इससे मुमुक्षत्व को प्राप्त होकर और अधिक त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत कर मुक्ति के अधिकारी भी बन सकते हैं।

 

जीवात्मा व ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर मनुष्य अशुभ कर्मों का त्याग कर देता है। स्वार्थ से ऊपर उठकर देश व समाज के हित की कामना से शुभ कर्मों को करता है। वह असत्य व अशुभ कर्मों के परिणामों को जानकर उनका सर्वधा त्याग व निषेध कर देता है। वेदाध्ययन करने से उसे अपने कर्तव्यों का बोध बना रहता है जिससे उसकी अशुभ प्रवृत्तियां नियंत्रण में रहती है। ऐसा करके वह मृत्यु को भी यथार्थरूप में जानकर उसके भय से मुक्त हो जाता है और देश व समाज के सभी लोग उससे लाभान्वित होते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी दर्शनानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी आदि का जीवन इसी प्रकार का जीवन था। यह श्रेय का मार्ग है। सरकार का कर्तव्य एवं दायित्व है कि वह जीवात्मा व ईश्वर सहित वेदों का सत्य ज्ञान सभी देशवासियों को कराये और उसके विरोध में उठने वाले अज्ञानता व स्वार्थान्धता के स्वरों की चिन्ता न करे। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो शायद यह देश सुरक्षित नहीं रह सकेगा।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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देहरादून-248001

फोनः09412985121

महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना

ओ३म्

महर्षि दयानन्द के मुख्य कार्य वेदभाष्य का उनके द्वारा प्रस्तुत नमूना

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन के प्रारम्भिक 38 वर्ष धार्मिक व आध्यात्मिक तथ्यों के अन्वेषण व अध्ययन सहित योग विद्या को जानने व उसका अभ्यास करने में व्यतीत किए। सौभाग्य से उन्हें वेद एवं आर्ष ज्ञान के अद्भुत श्रद्धालु एवं मर्मज्ञ विद्वान प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती का शिष्यत्व प्राप्त हुआ। इन गुरुजी से मिलने से पहले स्वामीजी अनेक विषयों के अच्छे विद्वान व जानकार होने के साथ सफल योगी बन चुके थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक व प्रभावशाली था तथा उनकी बौद्धिक व शारीरिक क्षमतायें भी असामान्य व असाधारण थी। इस गुण के कारण वह स्वामी विरजानन्द जी से आर्ष व्याकरण सहित समस्त वैदिक ज्ञान मात्र लगभग 3 वर्षों में ग्रहण कर पाने में सफल हुए। गुरु विरजानन्द जी से स्वामी दयानन्द ने सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा प्रकाशित चार वेदों का ज्ञान वा उनके सभी मन्त्रों के सत्य अर्थ करने की योग्यता भी प्राप्त की। अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों आग्नि, वायु आदित्य व अंगिरा को ईश्वर ने चार वेदों ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद का ज्ञान उनकी आत्मा में अन्तःप्रेरणा द्वारा प्रदान किया था। इस ज्ञान से संबंधित सभी शंकाओं का समाधान स्वामी दयानन्द ने गुरु विरजानन्द से प्राप्त किया था व अपने शिक्षणकाल के बाद आवश्यकता पड़ने पर गुरुजी से उनके जीवनपर्यन्त प्राप्त समाधान प्राप्त करते रहते थे। गुरुजी की प्ररेणा व आज्ञा से ही स्वामी दयानन्द जी ने अपना समस्त जीवन भारत व विश्व की अज्ञानी व अबोध  जनता से अन्धविश्वासों व रूढि़यों को हटाकर इस मिथ्या ज्ञान के स्थान पर ईश्वर के ज्ञान वेद को स्थापित करने का कार्य किया। उन्होंने गुरू जी को दिए अपने वचनों को गुरूजी से विदाई के दिन से लेकर जीवन की अपनी अन्तिम श्वांस तक निभाया। स्वामी जी ने अनेक कार्य किये। उपदेशों द्वारा प्रचार के साथ उन्होंने ग्रन्थ लेखन, वार्तालाप, शंका-समाधान, लिखित व मौखिक शास्त्रार्थ, आर्यभाषा-हिन्दी और गोरक्षा के पक्ष में हस्ताक्षर अभियान व देशवासियों को पत्र व लघु ग्रन्थों द्वारा प्रेरणा आदि कार्य किए। चार वेदों के संस्कृत व हिन्दी में अपूर्व भाष्य के लेखन का कार्य उनका एक प्रमुख कार्य था। इस कार्य का शुभारम्भ करते हुए उन्होंने सबसे पहले अपने करिष्यमाण वेदभाष्य का स्वरूप जनता पर प्रकट करने के लिये सन् 1875 (विक्रमी संवत् 1931) में ऋग्वेद के प्रथम सूक्त का भाष्य नमूने के रूप में प्रकाशित कराया था। इस सम्बन्ध में स्वामीजी के एक जीवनीकार पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने लिखा है कि ‘‘स्वामी जी ने ऋग्वेद के पहले सूक्त का भाष्य, जिसमें गुजराती और मराठी अनुवाद भी था, वेदभाष्य के नमूने के तौर पर प्रकाशित किया। जिसमें ऋग्वेद के पहले मन्त्रअग्निमीळे पुरोहितम् आदि के दो अर्थ किये थे। एक भौतिक दूसरा पारमार्थिक। उसकी भूमिका में लिखा था कि मैं सारे वेदो का इसी शैली पर भाष्य करूंगा। यदि किसी को इस पर कोई आपत्ति हो तो पहले ही सूचित कर दे, ताकि मैं उसका समाधान करके ही भाष्य करूं। यह नमूना स्वामी जी ने काशी के पण्डित बालशास्त्री, स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती प्रभृति तथा कलकत्ता और अन्य स्थानों के पण्डितों के पास भेजा था, परन्तु किसी ने भी उसकी आलोचना उस पर शंका नहीं की।

 

इसके बाद ही महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (लेखन आरम्भ तिथिः 20 अगस्त, 1976) से आरम्भ कर यजुर्वेद व इसके साथ-साथ ऋग्वेद का भाष्य किया। यजुर्वेद का पूर्ण भाष्य करने में वह सफल हुए तथा मृत्युपर्यन्त ऋग्वेद के सातवें मण्डल के 62 वें सूक्त के दूसरे मन्त्र तक (ऋग्वेद के कुल 10552 मन्त्रों में से 5649 मन्त्रों का) भाष्य किया। स्वामीजी ने अपने ग्रन्थों के प्रकाशन के लिए प्रयाग में एक मुद्रणालय वा प्रेस भी स्थापित किया था। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित यजुर्वेद भाष्य और ऋग्वेदभाष्य क्रमशः मासिक अंकों में प्रकाशित होता था और इस वेदभाष्य को देश-देशान्तर के ग्राहकों को भेजा जाता था।  इंग्लैण्ड के प्रोसेफर मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स भी वेदभाष्य के नियमित ग्राहक थे। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के मासिक अंक संख्या 7 पर ग्राहकों के नामों की सूची प्रकाशित की गई थी जिनमें यह दोनों प्रसिद्ध विदेशी विद्वान व हस्तियां भी सम्मिलित थी। सूची में इस बात का भी उल्लेख है कि विदेशी ग्राहकों से साढ़े चार रूप्या वार्षिक शुल्क प्राप्त हुआ था।

 

अब हम पाठकों की सेवा में महर्षि दयानन्द के ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त के नौ मन्त्रों के भाष्य के नमूने के अंक से प्रथम मन्त्र का पारमार्थिक अर्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र है-ओ३म्। अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।1।। मन्त्र को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द ने इस मन्त्र में प्रयुक्त अग्नि आदि शब्दों के उनके द्वारा किये जाने वाले अर्थों के संस्कृत में अनेक प्रमाण दिये हैं और उसके पश्चात संस्कृत व हिन्दी में भाष्य किया है। मन्त्र का हिन्दी भाष्य इस प्रकार है–‘(अग्निमीळे) इस मन्त्र का ईश्वर के अभिप्राय से जो अर्थ है सो प्रथम किया जाता है। इस मन्त्र में अग्नि शब्द से परमेश्वर का ग्रहण होता है। इसके ग्रहण से इन्द्र मित्रं वरुण इत्यादि यथालिखित प्रमाण का आधार है। सब जगत् को उत्पन्न करके, संसार के पदार्थों का और परमात्मा का जिससे यथार्थ ज्ञान होता है, उस सनातन अपनी विद्या का सब जीवों के लिए आदि सृष्टि में परमात्मा ने उपदेश किया है। जैसे अपनी संतानों को पिता उपदेश करता है, वैसे ही परम कृपालु पिता जो परमेश्वर है, उसने हम सब जीवों के हित के लिए सुगमता से वेदों का उपदेश किया है जिससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष और सब पदार्थों का विज्ञान और उनसे यथावत् उपकार लेवें, इसलिए अत्यन्त हित से हम लोगों को उपदेश किया है सो हम लोग भी अत्यन्त प्रेम से इसको स्वीकार करें। अब जैसा उपदेश परमात्मा को करना है सो सब जीवों की ओर से परमेश्वर करता है, कि जीव जब इस वेद को पढ़े, पढ़ावे, पाठ करें और विचारेंगे तब यथावत् कत्र्ता, क्रिया और कर्म का सम्बन्ध हो जाएगा। जो एक जानने-वाला, शुद्ध, सब विकारों से रहित, सनातन, जो सब काल में एकरस बना रहता है, जो अज है, जिसका कभी जन्म नहीं होता, जो अनादि है, जिसका आदि कारण कोई नहीं, जो अनन्त है, जिसका अन्त कोई नहीं जान सकता, जगत् में जो परिपूर्ण हो रहा है, सब जगत् का आदिकारण और जो स्वप्रकाशस्वरूप है, ऐसा जो परमेश्वर जिसका नाम अग्नि है, उसकी मैं स्तुति करता हूं। इससे भिन्न कोई दूसरा ईश्वर नहीं है, और उसको छोड़के दूसरे का लेशमात्र भी आश्रय मैं कभी नहीं करता। किस प्रयोजन के लिए? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनकी सिद्धि के लिए। अत्र्जु गतिपूजनयोः इत्यादि धातुओं से अग्नि शब्द सिद्ध होता है, अत्र्चतीत्यादि0 जो सबको जानता है, जो सब वेदादिक शास्त्रों से जाना जाता है, जो सबमें गत नाम प्राप्त हो रहा है, जो सर्वत्र प्राप्त होता है, जो सब धर्मात्माओं का सत्कार करता है, जिसका सत्कार सब विद्वान लोग करते हैं, जो सब सुखों को प्राप्त कराता है और जो सब सुखों के अर्थ प्राप्त किया जाता है, इस प्रकार व्याकरण निरुक्त आदि के प्रमाणों से अग्नि शब्द से परमेश्वर के ग्रहण में कोई भी विवाद नहीं है।

 

पूर्वोक्त अग्नि कैसा है कि (पुरोहितः) सब देहधारियों की उत्पत्ति से प्रथम ही सब जगत् और स्वभक्त धर्मात्माओं के लिए सब पदार्थों की उत्पत्ति जिसने की है और विज्ञानादि दान से जो जीवादि सब संसार का धारण और पोषण करता है, इससे परमात्मा का नाम पुरोहित है। पुरःपूर्वक क्त प्रत्ययान्त डुधाञ्ज धातु से पुरोहित शब्द सिद्ध हुआ है। इसी से सबका धारण और पोषण करने वाला एक परमात्मा ही है। अन्य कोई भी नहीं । इस पुरोहित शब्द में पुर एनं0 इत्यादि निरुक्त का भी प्रमाण है। (यज्ञस्य देवम्) यज् धातु से यज्ञ शब्द सिद्ध होता है। इसका यह अर्थ है कि अग्निहोत्र से लेके अश्वमेघपर्यन्त विविध क्रियाओं से जो सिद्ध होता है, जो वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा सब जगत् को सुख देनेवाला है उसका नाम यज्ञ है, अथवा परमेश्वर के सामथ्र्य से सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों गुणों की जो एक अवस्थारूप कार्य उत्पन्न हुआ है जिसका प्रकृति अव्यक्त और अव्याकृतादि नामों से वेदादि शास्त्रों ने कथन किया है, उससे लेके पृथिवी पर्यन्त कार्य कारण संगति से उत्पन्न हुआ जो जगत् रूप यज्ञ है, अथवा सत्यशास्त्र सत्यधर्माचरण सत्पुरुषों के संग से जो उत्पन्न होता है, जिसका नाम विद्या, ज्ञान और योग है, उसका भी नाम यज्ञ है, इन तीनों प्रकार के यज्ञों का जो देव है, जो सब सुखों का देनेवाला, जो सब जगत् का प्रकाश करने वाला, जो सब भक्तों को आनन्द करानेवाला, जो अधर्म अन्यायकारी शत्रुओं का और काम क्रोधादि शत्रुओं का विजिगीषक नाम जीतने की इच्छा पूर्ण करनेवाला है, इससे ईश्वर का नाम देव है।

 

(ऋत्विजम्) जो सब ऋतुओं में पूजने योग्य है, जो सब जगत् का रचने वाला और ज्ञानादि यज्ञ की सिद्धि का करनेवाला है, इससे ईश्वर का नाम ऋत्विज् है। ऋतु शब्दपूर्वक क्वन् प्रत्ययान्त यज् धातु से ऋत्विज् शब्द सिद्ध होता है। (होतारम्) जो सब जगत् के जीवों को सब पदार्थों को देनेवाला है। जो मोक्ष समय में मोक्ष को प्राप्त हुए जीवों का ग्रहण करने वाला है तथा जो वर्तमान और प्रलय में सब जगत् का ग्रहण और धारण करनेवाला है, इससे परमात्मा का नाम होता है। हु दानादनयोः। आदाने चेत्येके। इस धातु से तृच् प्रत्यय करने से होता शब्द सिद्ध हुआ है। (रत्नधातमम्) जिनमें रमण करना योग्य है, जो प्रकृत्यादि पृथिवीपर्यन्त रत्न यथा विज्ञान, हीरादि जो रत्न और सुवर्णदि जो रत्न हैं, जिनके यथावत् उपयोग करने से आनन्द होता है, उन रत्नों का सब जीवों को दान के लिए जो धारण करता है, वह रत्नधा कहाता है, और जो अतिशय से पूर्वोक्त रत्नों का धारण करनेवाला है, इससे परमेश्वर का नाम रत्नधातम है। रत्न शब्दपूर्वक किप् प्रत्ययान्त डुधाञ्ज धातु से तमप् प्रत्यय करने से यह शब्द सिद्ध हुआ है। इस मन्त्र को निरुक्तकार यास्क मुनि ने जिस प्रकार की व्याख्या की है सो इस वेदमन्त्र के संस्कृत भाष्य में लिखी है, उसको वहीं देख लेना।

 

हमने इस लेख में महर्षि दयानन्द के वेदभाष्य के नमूने के रूप में प्रकाशित अंक से एक मन्त्र का केवल हिन्दी में एक ही अर्थ प्रस्तुत कर वैदिक ज्ञान व वेदभाष्य का नमूना पाठको के लाभार्थ प्रस्तुत किया है। पाठक सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न इस ईश्वरीय ज्ञान वेद के प्रथम मन्त्र व उसके हिन्दी अर्थ को जानकर इसमें निहित विचारों व व्याख्या से लाभान्वित होंगे और जीवन कल्याण के स्रोत वेदों को अपने भावी जीवन में स्वाध्याय व अध्ययन का अंग बनायेंगे, इस भावना के साथ लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के अधिकारिक प्रतिनिधि व आदिस्रोत

ओ३म्

वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के अधिकारिक प्रतिनिधि आदिस्रोत

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार के सभी मनुष्यों वा स्त्री-पुरुषों पर ध्यान केन्द्रित करें तो यह सभी एक बहुत ही बुद्धिमान व सर्वव्यापी कलाकार की रचनायें अनुभव होती हैं। संसार भर में सभी मनुष्य की दो आंखे, दो कान, नाक, मुंह, गला, शिर, वक्ष, उदर, कटि व पैर प्रायः एक समान ही हैं। सभी मनुष्यों का कर्तव्य है कि वह अपने बनाने वाले को जाने, उसका धन्यवाद करें, उससे कृतज्ञ एवं अनुग्रहीत हों। यही मनुष्यता वा मानवधर्म का आधार व मुख्य सिद्धान्त है। आज का मनुष्य अनेक प्रकार के ज्ञान से सम्पन्न है। विज्ञान तो अपनी चरम अवस्था पर आ पहुंच है परन्तु यदि धार्मिक व सामाजिक ज्ञान की बात करें तो आज भी संसार में इस क्षेत्र में अधिकांशतः कृपणता ही दृष्टिगोचर होती है। संसार मे प्रमुख मत जिन्हें रूढ़ अर्थों में धर्म कह देते हैं, 5 या 6 हैं। इन सभी मतों वा धर्मों के लोग वा विद्वान ईश्वर के स्वरूप, स्वभाव व कृतित्व आदि पर समान विचार नहीं रखते अर्थात् इनमें परस्पर कुछ समानतायें व कुछ भिन्नतायें है। मनुष्य का आत्मा अल्पज्ञ है अतः विचारों में अन्तर व भिन्नता होना स्वाभाविक है। इसके साथ मनुष्य का यह भी कर्तव्य है जिन विषयों में परस्पर भिन्नता हो, उस पर सदभावपूर्वक परस्पर संवाद करें और युक्ति व तर्क से सत्य का निर्णय कर उसे स्वीकार करें। परन्तु हम देखते हैं कि सभी मतों के विद्वान व आचार्य न तो भिन्न-भिन्न विचार वाले विषयों पर परस्पर संवाद कर चर्चा व निर्णय ही करते हैं और न ही अपने ही मत व पन्थ के भीतर विचार, चिन्तन कर अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों को सत्य की कसौटी पर कसते हैं। अनुपयोगी, अप्रसांगिक व मिथ्या मान्यताओं के सुधार व संशोधन की उनसे अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसके विपरीत यही देखा जाता है कि प्रत्येक मत व सम्प्रदाय का अनुयायी अथवा विद्वान अपनी सत्य व असत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों पर आंखें बन्द कर विश्वास करता है व वैसा ही आचरण करता है। इसी को अन्धविश्वास, मिथ्याविश्वास एवं मिथ्याचार कह सकते हैं। मतों के इस व्यवहार से उनके अपने अनुयायी मनुष्यों का उपकार होने के स्थान पर अपकार ही होता है। मनुष्य का जन्म सत्य असत्य को जानकर सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए ही हुआ है। सत्य के ग्रहण से मानव की सर्वांगीण उन्नति होती है और ऐसा न करने से भौतिक उन्नति कोई कितनी ही कर ले परन्तु, धन, सम्पत्ति व भौतिक साधनों से, आध्यात्मिक व परलोक की उन्नति कदापि सम्भव नहीं है। जिस प्रकार विज्ञान में सभी मान्यतायें तर्क, युक्ति तथा क्रियात्मक प्रयोग के परिणामों के आधार पर अपनायी व स्वीकार की जाती है जिन्हें सभी देशों के वैज्ञानिक व सामान्यजन सार्वभौमिक रूप में स्वीकार करते हैं, इसी प्रकार से मनुष्यों के धर्म के सभी सिद्धान्त भी तर्क, युक्ति व प्रमाणों के आधार पर निर्धारित होने के साथ समस्त संसार में एक व समान होने चाहिये। धार्मिक, सामाजिक, संस्कृति व सभ्यता विषयक सत्य सिद्धान्तों का सार्वभौमिक रूप से निर्धारण होकर मनुष्य कब इनको अपनायेगा, कहा नहीं जा सकता। वह मनुष्यमात्र के सार्वभौमिक सत्य धर्म के निर्णय में जितना विलम्ब करेगा उसके इस कार्य से दोह व्यक्तिगत व सामाजिक हानि होना निश्चित है। अतः मनुष्य को मननशील होकर सत्य का निर्धारण करना व उसी सत्य मार्ग का अनुकरण व अनुसरण करना ही उसका मुख्य कर्तव्य वा धर्म होने के साथ उसके लिए लाभकारी है।

 

संसार के सभी मतों व धर्मग्रन्थों में वेद सर्वाधिक प्राचीन है। वेद किसी विषय व वस्तु आदि को जानने अर्थात् ज्ञान को कहते हैं। यदि वेद धर्मग्रन्थ हैं तो हमारा मुख्य धर्म सत्य व ज्ञान ही कहा जा सकता है। प्रश्न है कि ज्ञान की उत्पत्ति किससे होती है? इसका उत्तर है कि ज्ञान की उत्पत्ति मनुष्यों से नहीं अपितु ईश्वर के द्वारा संसार की रचना को करने से होती है। मनुष्य वा वैज्ञानिक तो सृष्टि में कार्यरत नियमों व ज्ञान की खोज करते हैं। विज्ञान में जितने भी नियम हैं उनका ज्ञान व वह सभी नियम हमारी सृष्टि की आदि से ही संसार में विद्यमान हैं व कार्य कर रहे हैं। इनमें से अनेक नियमों का बीज रूप में ज्ञान वेद में सृष्टि के आरम्भ काल से ही विद्यमान है। हमारे ऋषियों ने वेदों का अध्ययन कर संसार में कार्यरत सभी नियमों को जाना था और इसके साथ ही जीवात्मा और परमात्मा के स्वरुप को भी जाना व समझा था। वह जानते थे कि जीवात्मा को सत्य का आचरण करने के साथ ईश्वरोपासना व पर्यावरण की शुद्धि के लिए यज्ञ आदि कार्यों को करना है जिससे अर्जित कर्माशय से वह मृत्यु पर विजय प्राप्त कर जन्म मरण के दुःख रूपी अभिविनेश क्लेश पर विजय प्राप्त कर सके। एकांगी विज्ञान को विकसित कर, उससे सुख-सुविधा की वस्तुएं और युद्ध की विध्वंशक सामग्री बनाकर यह लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता था। अतः उन्होंने सन्तुलित जीवन के महत्व को जानकर अपने जीवन व कार्यों में न्याय किया था। यदि गति के नियमों की बात करें तो हमारे पूर्वजों को खगोल ज्योतिष का उच्च कोटि का ज्ञान था। इसके आधार पर वह वर्षों पूर्व ही भविष्य में होने वाले सूर्य व चन्द्र ग्रहण की त्रुटिरहित गणना के साथ खगोल के अनेकानेक रहस्यों से परिचित थे। आयुर्वेद रोगों से मानव जीवन की रक्षा का शास्त्र व विद्या है। इसका भी प्राचीन काल में पूर्ण विकास हुआ था। प्राचीन काल में अकाल व अल्पायु में मृत्यु बहुत कम हुआ करती थीं। प्राचीन काल से महाभारत काल के बाद का समय अपेक्षित न होकर उससे पूर्व का समय अभिप्रेत है। इसी प्रकार से अनेकानेक तीव्र गति से चलने वाले रथ वा यान भी हुआ करते थे। हमारे पूर्वज समुद्र की यात्रायंे भी करते थे। अर्जुन की पत्नी उलोपी तो पाताल वा अमेरिका की निवासी थी। वैदिक विद्वान पाराशर अमेरिका में काफी समय तक रहे, इसका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। अतः प्राचीन काल से महाभारत काल तक आध्यात्मिक व भौतिक विज्ञान का विकास अपनी चरम अवस्था में रहा है, इसका अनुमान प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से मिलता है। इन परा व अपरा विद्याओं का विकास वेदों के आधार पर हमारे ऋषियों ने किया था। अतः वेद मानव धर्म सहित सभी सत्य विद्याओं का भी प्रकाश करते हैं और अपने अध्येता को यह सामथ्र्य व बौद्धिक क्षमता प्रदान करते हैं कि व्यक्तिगत व संगठित रूप से अनेक विद्याओं व विज्ञान को विकसित कर सकें।

 

धर्म का सम्बन्ध मनुष्यों के आचरण से होता है। आचरण यदि सत्य पर आधारित है तो वह धर्म और इसके विपरीत अधर्म कहलाता है। सत्य की परीक्षा के लिए लक्षण व प्रमाणों के आधार पर निर्णय किया जाता है। वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि यह परा व अपरा विद्याओं सहित मानव के सभी प्रकार के कर्तव्यों का शास्त्र भी है जिसकी प्रत्येक बात ईश्वर प्रदत्त होने से सत्य की कसौटी पर भी खरी है। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में संसार के सभी मतों के आचार्यों व विद्वानों को खुली चुनौती दी थी कि वह उनसे मिलकर किसी भी धार्मिक विषय में शंका समाधान सहित शास्त्रार्थ कर सकते है। किसी मत व उसके आचार्य में उनसे शास्त्रार्थ करने का उत्साह व साहस नहीं हुआ। जिन लोगों ने उनसे वार्तालाप व चर्चायें कीं, उनको उन्होंने पूर्ण सन्तुष्ट किया था। यह मानव जीवन की अपनी विशेषता ही है कि अनेक विद्वान भी तर्क युक्ति से सिद्ध सत्य बातों को मानकर उसके विपरीत असत्य तर्कहीन बातों को ही मानते आचरण में लाते हैं। इस मानव स्वभाव को पूर्णतः बदलना अर्थात् सुधार करना शायद् सम्भव नहीं है। यदि ऐसा होता तो संसार में केवल एक मत होता और लोगों में जिन विषयों पर भ्रान्तियां होती, उसका समाधान परस्पर वार्तालाप व गोष्ठी करके सद्भाव पूर्वक हो जाता। परीक्षा करने पर वेद ईश्वर प्रदत्त एवं सत्य ज्ञान से पूर्ण सिद्ध होते हैं। अन्य मतों की स्थिति यह है कि उनकी बहुत सी बाते सत्य हैं व अनेक सत्य नहीं हैं। नाना मतों में विद्यमान इन असत्य व अज्ञान की बातों पर उन-उन मतों के आचार्यों को विचार व चिन्तन कर उनका सुधार व संशोधन करना चाहिये। इसका संकेत व दिग्दर्शन महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में किया था और उनमें से कुछ का संकलन नमूने के तौर पर सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में किया है। महाभारत काल से पूर्व भी यह परम्परा समस्त विश्व में विद्यमान रही है। इसी कारण महाभारतकाल तक वैदिक मान्यतानुसार 1.96 अरब वर्षों में कोई वेदों से इतर नया मत अस्तित्व में नहीं आया था। भारत का बौद्ध, जैन व पौराणिक मत हो या विदेश के अन्य सभी मत, यह सभी अज्ञान व अन्धकार के उस काल मध्यकाल में आये जब वेदों का ज्ञान अस्त व विलुप्त हो गया था। महर्षि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वेदों के सत्य ज्ञान की खोज की और उसे देश-देशान्तर के लोगों के लिए उपलब्ध करा दिया। व्यवहारिक रूप से वर्तमान में वेद ही संसार के सभी मनुष्यों का सार्वभौमिक एक मात्र धर्म है। वेद में अज्ञानमूलक भ्रान्तिपूर्ण कोई बात नहीं है। किसी कुरीति व असमानता का प्रचलन वेद से नहीं हुआ और न ही वेद में ऐसी कोई बात है। देश-विदेश के सभी अन्धविश्वास व कुरीतियां मनुष्यों के वेद ज्ञान से दूर होने व उनके अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुईं हैं। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य सत्य को जानकर उसका ग्रहण कर व आचरण में लाकर ईश्वरोपासना, यज्ञ, परोपकार, परसेवा, भलाई के काम करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करना वा जन्म मरण से छूटकर मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति करना है। यह केवल वैदिक धर्म की शरण में आने व उसके अनुरुप आचरण व व्यवहार करने से ही सम्भव हो सकता है। संसार के सभी लोग, मुख्यतः सभी धर्माचार्य, निष्पक्ष भाव से वेदों का अध्ययन कर अपने जीवन को सत्य मार्ग पर चलाने के साथ अपने अनुयायियों को प्रेरणा कर सभी धर्म-अर्थ-काम व मोक्ष की प्राप्ति करें, यही धर्म का प्रयोजन है। यह स्पष्ट है कि वेद सार्वभौमिक मानव धर्म के ग्रन्थ है। आईये, वेदों की शरण में चले और कृतकार्य हों।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि, संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेद-धर्म प्रचारक हैं

ओ३म्

स्वामी दयानन्द प्राचीन ऋषियों की परम्परा वाले सच्चे ऋषि,

संसार के सर्वोच्च गुरु एवं अपूर्व वेदधर्म प्रचारक हैं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

हमारे लेख के शीर्षक से आर्यसमाज के अनुयायी तो प्रायः सभी सहमत होंगे परन्तु इतर बन्धु इस तथ्य को स्वीकार करने में संकोच कर सकते हैं। अतः अपने ऐसे बन्धुओं से हम प्रश्न करते हैं कि वह महर्षि दयानन्द से अधिक प्रतिभावान व योग्य ऋषि का नाम बतायें? दूसरा प्रश्न यह है कि महर्षि दयानन्द से उच्च कौन सा गुरु है जिसने संसार को धार्मिक विषयों सहित सभी प्रकार का सत्य ज्ञान दिया है? गुरु, ज्ञान व विद्या में पराकाष्ठा व उसका लाभ संसार के अधिक से अधिक लोगों में निःस्वार्थ भाव से वितरित करने वाले को कहते हैं। अज्ञानी, अल्पज्ञान व जिसकी बातें, विचार व सिद्धान्त भ्रान्तिपूर्ण हो वह विश्व गुरू तो क्या एक साधारण गुरु भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार से महाभारत काल के बाद के पांच हजार वर्षों में ऐसा कौन सा विद्वान हुआ जिसकी तुलना महर्षि दयानन्द से कर सकते हैं, जिसने उनकी तरह से वेदों की खोज की हो और उनके सत्य अर्थों को प्राप्त कर उसको अधिकतम लोगों तक पहुंचाने का पुरजोर प्रयास किया है। महर्षि दयानन्द जी का एक गुण और है जो उनके पूर्व व बाद के महापुरुषों सहित धार्मिक विद्वानों व धर्मगुरुओं में नहीं पाया जाता। वह उनका बाल ब्रह्मचारी होने के साथ सिद्ध योगी होना भी है। इन सब व अन्य अनेक गुणों के कारण वह संसार के सर्वश्रेष्ठ मानव व सर्वोच्च विश्व गुरु सिद्ध होते हैं।

 

महर्षि दयानन्द गुरु, ऋषि व वेदप्रचारक कैसे थे? इसका उत्तर है महर्षि दयानन्द के समय चार वेदों की मन्त्र संहितायें हिन्दुओं वा आर्यों के आलस्य प्रमाद के कारण लुप्त प्रायः हो चुकी थीं। उनके जीवन काल में वेदों की मुद्रित मन्त्र संहितायें व सायण आदि भाष्य आदि देश भर में कहीं उपलब्ध नहीं होते थे। सायण ने जो मन्त्र भाष्य किया वह भी प्राचीन वेद परम्परा व अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति के अनुरुप व उनसे पोषित नहीं था। उन्होंने सभी वेद मन्त्रों का प्रयोजन यज्ञार्थ बताकर उनके याज्ञिक अर्थ ही किये थे। इसके विपरीत महर्षि दयानंद अपने समय व महाभारत काल के बाद पहले विद्वान थे जिन्होंने चुनौती के स्वरों में घोषणा की थी कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। अपनी इस मान्यता को वेदों का भाष्य आरम्भ करने से पूर्व उन्होंने चारों वेदों की भूमिका के रूप में लिखी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया है। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों के भाष्यों के लेखन का उपक्रम आरम्भ किया था। यदि उनके विरोधियों ने उन्हें विष देकर मारा न होता तो वह चारों वेदों का अपूर्व भाष्य करते। सारे देश में घूम-घूम कर वेदों का प्रचार, प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ व वार्तालाप व अन्य अनेक ग्रन्थों का लेखन, आर्यसमाजों की स्थापना, गोरक्षा आन्दोलन, हिन्दी रक्षा आन्दोलन आदि कार्यो को करते हुए भी उन्होंने यजुर्वेद का सम्पूर्ण और ऋग्वेद के कुल 10 मण्डलों में से 6 मण्डलों का पूर्ण और सातवे मण्डल का आंशिक भाष्य किया है। उनके द्वारा किया गया भाष्य आकार व परिमाण की दृष्टि से समस्त चार वेदों का 33 प्रतिशत से कुछ अधिक है। वेदों का यह भाष्य संस्कृत व हिन्दी दोनों में है। सभी मन्त्रों के ऋषि व देवताओं सहित स्वर व छन्द भी दिये गये हैं और मन्त्रों का पदच्छेद, अन्वय, पदों के संस्कृत व हिन्दी में अर्थ सहित इन दोनों भाषाओं में प्रत्येक मन्त्र का भावार्थ भी दिया गया है। मण्डल, सूक्त आदि के अन्त में पूर्व के सूक्त की बाद के सूक्त के साथ संगति कैसे लगती है, यह भी दर्शायी गई है। कई स्थलों पर सायण भाष्य की न्यूनता व त्रुटियों को बताया गया है। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द द्वारा किया गया भाष्य संसार के इतिहास में अपूर्व व महत्ता में सर्वोपरि उत्कृष्ट है।

 

महर्षि दयानन्द के जीवन चरित से ज्ञात होता है कि उन्होंने चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र को जाना व समझा था तभी वह वेदों पर अनेक घोषणायें कर सके थे जिनमें चारों वेदों में मूर्तिपूजा का विधान कहीं नहीं है, घोषणा भी सम्मिति है। उनकी इस चुनौती को देश भर के बड़े से बड़े किसी पण्डित ने स्वीकार नहीं किया और काशी में इस विषय में जो शास्त्रार्थ हुआ उसमें भी पूरी काशी व देश के शीर्ष पण्डित वेदों में मूर्तिैपूजा का विधायी एक मन्त्र भी नहीं दिखा पाये थे और न ही उस शास्त्रार्थ के 14 वर्ष बाद तक उनके जीवन काल में व आज तक दिखा सके हैं। इस प्रकार से महर्षि दयानन्द चारों वेदों के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा वा विद्वान थे। इस कारण उनको न केवल ऋषि=वदों के मन्त्रों के अर्थों के द्रष्टा ही अपितु अपूर्व ऋषि व महर्षि भी कह सकते हैं। भारत में वेदों का पहली बार मुद्रण उन्हीं के प्रयासों से हुआ जो उनका इतिहास में अन्यतम कार्य है। अतः स्वामी दयानन्द सच्चे व अपूर्व ऋषि सिद्ध होने के साथ चारों वेदों के ज्ञाता व व्याख्याता की दक्षता रखने के कारण महर्षि भी सिद्ध होते हैं।

 

मनुष्यों को शिक्षा व ज्ञान देने वाले को गुरु कहते हैं। संसार की आदि से अब तक विभिन्न विषयों के असंख्य गुरु हो चुके हैं जिनका संकेत, विवरण व कुछ इतिहास रामायण व महाभारत सहित अनेक ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है। महाभारत काल के बाद भी यह क्रम जारी है परन्तु महाभारत काल के बाद हम देखते हैं कि धर्म में अनेक विकृतियां आईं। ईश्वर की आज्ञा के पालनार्थ किये जाने वाले यज्ञों में मूक पशुओं की हिंसा का क्रम जारी हुआ व बढ़ता रहा। सामाजिक विषमता व अनेक कुरीतियां प्रचलित हुई जिनका आधार अज्ञान व अन्धविश्वास थे जो अज्ञान व अविद्या से ही उत्पन्न होते हैं। उस समय में ऐसे किसी सुधारक का विवरण नहीं मिलता जिसने यज्ञों में हिंसा सहित अज्ञान, अन्धविश्वास तथा कुरीतियां का पूर्ण निवारण करने का बीड़ा उठाया हो और इन समस्याओं के सत्य समाधान प्रस्तुत किये हों। वेदों के सत्य अर्थों को तो इस अवधि में विलुप्त हुआ ही पाते हैं। महात्मा बुद्ध ने अवश्य यज्ञों में पशु हिंसा का विरोध किया परन्तु यह हिंसा जिस अज्ञान व स्वार्थ आदि के कारण अस्तित्व में आई थी उसका कोई समाधान नहीं किया। वेदों के सत्य अर्थ भी हमें उनसे नहीं मिलें। हम जानते हैं कि दूषित जल पीने योग्य नहीं होता परन्तु उसे छान कर, अशुद्धियों को हटाकर स्वच्छ व निर्मल बनाकर प्रयोग में लाया जा सकता है। यही विधि ग्राह्य होती है। यज्ञों का विरोध करने से यथार्थ हिंसारहित यज्ञों से होने वाले लाभों से भी मनुष्य समाज वंचित हो गया। नास्तिकता को बढ़ावा मिला। ईश्वर की यथार्थ उपासना भी विकृत वा बन्द हो गई। यह हमें कोई समाधान नहीं लगता। बाद में स्वामी शंकराचार्यजी हुए। वह विद्या की दृष्टि से महाभारत काल के बाद सर्वाधिक योग्य व शीर्ष स्थान पर थे। उन्हें समाज से ईश्वर की अवहेलना करने वाले नास्तिक मतों को हटा कर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के साथ वैदिक धर्म को प्रवृत्त करना था। परन्तु उन्होंने जिस अद्वैतवाद का सिद्धान्त दिया, वह उनसे पूर्व के इतिहासादि, वेद, दर्शन व उपनिषदों में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। वेद से लेकर महाभारत काल व उसके बाद के साहित्य में सर्वत्र त्रैतवाद अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति की पृथक-पृथक सत्ता का वाद ही प्रचलित पाया जाता है जो कि पूर्णतया व्यवहारिक एवं यथार्थ है।

 

आज का सारा संसार सृष्टि के अस्तित्व व महत्व को स्वीकार करता है। यह संसार व इसके दिन प्रतिदिन होने वाले आविष्कार एवं घटनायें स्वप्नवत न होकर वास्तविक व यथार्थ हैं। भारत में रेलें चलती हैं और हम उनका उपयोग करते हैं, यह स्वप्नवत नहीं, हकीकत व यथार्थ हैं। स्वामी शंकराचार्य जी के बाद जो मत देश व विदेश में उत्पन्न हुए वह एंकागीं व अपूर्ण थे। उनमें यदि बहुत सी बातें अच्छी, सत्य व उचित थी तो बहुत सी अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त अविवेकपूर्ण भी हैं। अतः अज्ञान, अन्धविश्वास व अविवेकपूर्ण बातों को मानने वाले व प्रचार करने वाले सच्चे व सर्वोच्च गुरु की उपमा व उपाधि से अभिहित नहीं कहे जा सकते। महर्षि दयानन्द महाभारत काल के बाद इतिहास में पहले महापुरुष हुए हैं जिन्होंने सत्य की कसौटी को पकड़ा और चाहे ईश्वर का अस्तित्व व उसकी उपासना हो या कुछ अन्य भी, सभी को सत्य की कसौटी पर कसा और उसका ऐसा प्रचार किया जिसकी इतिहास में दूसरी मिसाल नहीं है। उन्होंने सभी मतों के अज्ञान, अन्धविश्वासों व मिथ्याचारों पर दृष्टि डाली और उन्हें मनुष्यजाति के सुख शान्ति के लिए हानिकर जानकर उसके निवारण का अपूर्व प्रयास व पुरुषार्थ किया। ऐसा करने में उनका अपना कोई निजी प्रयोजन, हित व स्वार्थ नहीं अपितु केवल ईश्वर की आज्ञा का पालन व लोकोपकार की भावना ही थी। महर्षि दयानन्द ज्ञान की दृष्टि से महाभारत काल के बाद उत्पन्न हुए सर्वोच्च व शीर्ष पुरुष तो थे ही, उन्होंने वेद की सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों के लेखन व मौखिक प्रचार का भी कीर्तिमान स्थापित किया है। इसके लिए उन्होंने कितने कष्ट सहे, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। वह शायद इतिहास में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने संसार से धार्मिक व सामाजिक अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्याय, शोषण, उत्पीड़न को दूर कर ईश्वर की सच्ची उपासना, यज्ञ के सत्य स्वरुप का प्रचार व उसके क्रियात्मक पक्ष की विधि आदि का निर्माण व प्रचार किया। उनके द्वारा किए गये एक नही ऐसे अनेकानेक काम हैं जिस पर बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। मानवता की सेवा व सुधार का उन्होंने अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसके कारण हम स्वामी दयानन्द को विश्व का सर्वोच्च गुरु पाते है। ऐसा करके हम किसी अन्य गुरु की अवहेलना नहीं कर रहे हैं। अन्य सभी गुरु भी देश काल व परिस्थिति के अनुसार महान थे व हो सकते हैं परन्तु महर्षि दयानन्द का कार्य अन्यों की तुलना में अधिक महान व समाज सुधार व श्रेष्ठ समाज के निर्माण की दृष्टि से अतुलनीय है।

 

स्वामी दयानन्द मुत्यु के उपाय व सत्य की खोज में अपनी आयु के बाईसवें वर्ष में घर से निकले थे। पूरे देश का भ्रमण कर उन्हें मिले सभी गुरुओं की संगति व सेवा कर तथा अपनी अपूर्व बौद्धिक क्षमताओं से उन्होंने अपूर्व ज्ञान व वैदुष्य प्राप्त किया था। योग में वह सिद्ध योगी बने और ज्ञान की पराकाष्ठा को उन्होंने संस्कृत भाषा की आर्ष व्याकरण, उपनिषदों, दर्शनों, वेदांगों व वेद के ज्ञान सहित दण्डी गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती के शिष्यत्व से प्राप्त किया। स्वामी दयानन्द के अनेक गुरुओं में स्वामी विरजानन्द सरस्वती उनके सर्वोच्च गुरु थे। उनकी प्रेरणा व आज्ञा से व अपने विवेक से उन्होंने अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां, सामाजिक असमानता व विषमता, देश सुधार व देशोन्नति का कोई कार्य छोड़ा नहीं अपितु सभी कार्यों को प्राणपन से किया। इन सब कार्यों का आधार उनका वैदिक ज्ञान था। सभी सुधारों का सुधार वेदाध्ययन, वेदाचारण व वेद प्रचार ही है। स्वामी दयानन्द ने वेद प्रचार के लिए ही मुख्यतः सर्वाधिक प्रयत्न किये। उनके मौखिक प्रचार के अतिरिक्त वेदों का भाष्य, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कारविधि आदि अन्यान्य ग्रन्थ वेद प्रचार के ही अंग-प्रत्यंग हैं। वह महाभारत काल के बाद अपूर्व वेद प्रचारक हुए हैं। ऐसा वेद प्रचारक सृष्टि की आदि से वर्तमान युग तक होने का वर्णन नहीं मिलता और न हि अनुमान ही होता है। उनका वेद प्रचार का कार्य संसार के कल्याण की दृष्टि से सर्वोत्तम कार्य है। मनुष्य जीवन में वेद प्रचार का कार्य करना एक प्रकार से ईश्वर का ही कार्य व साधना है। अपने कल्याण की इच्छा करने वाले सभी मनुष्यों को वैदिक साधना के साथ वेदाध्ययन व वेद प्रचार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाना चाहिये। सभी सरकारों को योग्य वेद प्रचारकों को सर्वाधिक सम्मान व उनकी आर्थिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना चाहिये। देश व संसार में जितना अधिक वेदप्रचार होगा, जिसकी दशा व दिशा महर्षि दयानन्द अपने जीवन के उदाहरण से निर्धारित कर चुके हैं, उतना ही मानवता का हित होगा। यह कार्य ईश्वर का कार्य होने के साथ मानव जाति की समग्र उन्नति व सुख शान्ति का कार्य है। इसको समाज में मुख्य स्थान मिलना चाहिये। लेख को विराम देते हुए हम आशा करते हैं पाठक लेख को पसन्द करेंगे।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

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स्वर्ग व मोक्ष का यथार्थ स्वरूप

ओ३म्

स्वर्ग मोक्ष का यथार्थ स्वरूप

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

प्रायः सभी मतों के अनुयायी व विद्वान किसी न किसी रूप में स्वर्ग की चर्चा करते हैं और मानते हैं कि इस पृथिवी से अन्यत्र किसी स्थान विशेष पर स्वर्ग है जहां ईश्वर की कृपा से मनुष्य जीवन में अच्छे व श्रेष्ठ काम करने वाले मनुष्य जाकर सुखपूर्वक निवास करते हैं। इस मान्यता में कितनी सच्चाई है, इसकी खोज शायद ही कोई करता हो। स्वर्ग के प्रति यह मान्यता भिन्न-भिन्न मतों के आचार्यों, विद्वानों व उनके अनुयायियों ने अपने-अपने धर्म को महिमा-मण्डित करने व अपनी भ्रान्तियों के कारण की है। भ्रान्तियां न हो, इसके लिए यथार्थ ज्ञान की आवश्यकता होती है। यथार्थ ज्ञान का साधन ईश्वरीय ज्ञान वेद है। वेदों के आधार पर स्वर्ग का जो सत्य स्वरुप सामने आता है वह यह है कि ‘‘स्वर्ग नाम सुख विशेष भोग और उस की सामग्री की प्राप्ति का है। स्वर्ग की यह परिभाषा वेदों के मर्मज्ञ विद्वान महर्षि दयानन्द प्रदत्त है। स्वर्ग की इस परिभाषा पर विचार करने पर स्वर्ग का यथार्थ स्वरुप ज्ञात होता है। स्वर्ग मनुष्य वा उसकी जीवात्मा द्वारा सुख विशेष का भोग और सुख विशेष की सामग्री को कहते हैं। सुखों का भोग हम अपनी पांच ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा करते हैं। हमारी यह इन्द्रियां सुखों का भोग कराने में उपकरण हैं जबकि सुखों का भोग जीवात्मा करता है। आंखों से हम दृश्यों को देखते हैं, कानों से शब्दों को सुनते हैं, नाक से गन्ध संघूते है, जिह्वा से रस का ज्ञान प्राप्त करने के साथ उसका भोग करते हैं एवं त्वचा से स्पर्श को करके सुख व दुःख का अनुभव करते हैं। इन पांच प्रकार के भोगों में जो सुख व प्रसन्नता देने वाले भोग होते हैं वह सब स्वर्ग की सामग्री कहलाते हैं। जिन भोगों को भोगने से मनुष्यों को सुख के स्थान पर दुःख होता है, उसे स्वर्ग न कहकर नरक की संज्ञा दी जाती है। अतः मनुष्य जीवन में जिसकी सभी इन्द्रियां बलवान हैं और जिसके पास सभी इन्द्रियों को सुख प्रदान करने की प्रचुर सामग्री है, वही व्यक्ति सुखी व स्वर्ग में है, कहा जाता है। इससे ज्ञात हुआ कि स्वर्ग मनुष्य जीवन में सुख की स्थिति को कहा जाता है।

 

संसार या ब्रह्माण्ड में सुखी मनुष्य, स्वर्ग में है, माना जा सकता है। इस व ब्रह्माण्ड की अन्य ऐसी पृथिवी से भिन्न कहीं कोई ऐसा स्थान नहीं है जिसे स्वर्ग की संज्ञा दी जा सके। स्वर्ग की यह स्थिति मनुष्य को कुछ तो अपने प्रारब्ध से प्राप्त होती है और कुछ उसे इस जीवन में ज्ञानपूर्वक वेद विहित शुभ कर्मों को करके प्राप्त होती है। इसके दो भाग किये जा सकते हैं। पहला भाग तो यह कि सुखों का भोग करने के लिए हमें अपनी इन्द्रियों व शरीर को स्वस्थ, निरोग व बलवान बनाना है। यदि हमारा शरीर निरोग, स्वस्थ व बलवान नहीं होगा तो फिर सुख की असीमित सामग्री भी हमारे लिए स्वर्ग नहीं हो सकती। एक मधुमेह के रोगी के लिए रसगुल्ला, चावल, आलू के व्यंजन, नाना प्रकार के मीठे फल, हलुआ व खीर स्वाद में सुख अवश्य पहुंचा सकते हैं परन्तु परिणाम में यह दुःख व नरक का कारण बनते है। इसी प्रकार से अन्य रोगों की भी स्थिति है। अतः स्वर्ग वा सुख भोगने के लिए शरीर का स्वस्थ, निरोग व बलवान होना आवश्यक है। इसके लिए मनुष्य को कुछ नियमों का पालन करना होता है। रात्रि 10 बजे सोना व प्रातः 4 बजे जागना आवश्यक है। जागने के बाद भी शौच से निवृत्त होकर संक्षिप्त ईश्वरोपासना कर शुद्ध वायु में भ्रमण, पश्चात व्यायायम, प्राणायाम करना व इसके बाद स्नान कर सन्ध्या व अग्निहोत्र करना सुख का भोग करने के लिए आवश्यक है। इन्हीं कर्मों का परिणाम वस्तुतः सुख होता है। इसके पश्चात उचित मात्रा में प्रातराश लेकर ज्ञानार्जन व व्यवसायिक कार्यों को पूर्ण मनोयोग से करना भी सुखी मनुष्य की दिनचर्या का भाग है। यथासमय उचित मात्रा में शुद्ध शाकाहारी पौष्टिक भोजन करना जिसमें रोटी, दाल, सब्जी, चावल, दही आदि पदार्थ लिये जा सकते हैं। कुछ घंटे बाद फलाहार करना भी स्वास्थ्य के लिए हितकर रहता है। सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व अग्निहोत्र व सन्ध्या कर भोजन करना वैदिक धर्म में विहित है। पारिवारिक जनों से वार्तालाप व गृह कार्यों के लिए भी समय देकर रात्रि को समय पर विश्राम व शयन करना उचित व आवश्यक है। इससे शरीर स्वस्थ बनेगा और इन्द्रियों की कार्य क्षमता में वृद्धि होने से मनुष्य सुखों का भोग करने में समर्थ हो सकता है। यही सुख की स्थिति है। अनाप-शनाप व सामिष भोजन, मादक द्रव्यों का सेवन व इन्द्रिय सुख के असंयमित कार्यों को करके सुख की अनुभूति करना स्वर्ग का भोग नहीं है। इसका परिणाम तो शीघ्र ही दुःख के रूप में उत्पन्न होता है। इसको जानकर स्वास्थ्यवर्धक पदार्थों का उचित मात्रा में उचित समय पर भोजन के रूप में ग्रहण करना व पूर्ण संयमित जीवन सहित शरीर को स्वस्थ रखने के सभी उपाय करना ही स्वर्ग व उसके भोग में सम्मिलित हैं। ऐसा करके अनुमान कर सकते हैं कि मनुष्य का वर्तमान जीवन सुखी होगा और इसके परिणामस्वरूप कोई दुःख नहीं भोगना होगा। ऐसा मनुष्य ही अपने आप को स्वर्ग के सुखों से युक्त अनुभव कर सकता है। यही स्थिति स्वर्ग की स्थिति है।

 

वैदिक संस्कृति वा जीवन पद्धति धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की अनुगामिनी है। यह जीवन पद्धति मनुष्य जीवन में अभ्युदय व मृत्यु होने पर मोक्ष को प्राप्त कराने वाली है। यह मोक्ष भी एक प्रकार से स्वर्ग की उच्चतम परिणति ही है जहां मनुष्य का जीवात्मा दुःखों से सर्वथा मुक्त होता है। मोक्ष में जीवात्मा जन्म व मरण से 1 परान्तकाल की अवधि तक के लिए छूट जाता है। इस परान्तकाल की अवधि 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की होती है। मोक्ष की अवधि में जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है और यह शरीररहित अपने यथार्थ अस्तित्व से ही ईश्वर के सान्निध्य में रहकर मोक्ष का सुख भोगता है। मोक्ष के यथार्थ स्वरूप का वर्णन महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में किया है। दर्शन में भी इसका विवेचन हुआ है। इसको जानने के लिए यह समझना है कि मनुष्य का जन्म उसके पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर मिलता है। जन्म लेकर मनुष्य व प्राणी अपने पूर्व जन्मों के शुभ व अशुभ वा पाप व पुण्यरूपी कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों को भोगते हैं। शुभ कर्मों का फल सुख व अशुभ का दुःख होता है। यदि मनुष्य कोई अशुभ कर्म न करें तो उसे दुःख मिलने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। इसी प्रकार से यदि वह शुभ कर्मों को ही करे और उसमें आसक्त न हो अर्थात् उनके फल की इच्छा न करे, अपने सभी शुभ कर्मों के फलों को ईश्वर को समर्पित कर दे, उसी प्रकार जिस प्र्रकार हम सुपात्रों को दान करते हैं और परिणाम में दान लेने वाले से किसी फल की इच्छा नहीं करते, तो इन सब कर्मों के परिणाम से मनुष्य पुर्नजन्म का भागी न होकर मोक्ष का पात्र बन जाता है। मोक्ष का अर्थ छूटना होता है। यह छूटना जन्म वा मरण तथा दुःखों से होता है। मोक्ष के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य व कर्मों का कर्त्ता ईश्वरोपासक हो, यज्ञ व अग्निहोत्र का करने वाला हो, माता-पिता-आचार्यों का सेवक व सत्कार करने वाला, अन्य सभी शुभ कर्मों को भी करनेवाला और इसके साथ ईश्वरोपासना के प्रमुख फल सम्यक ध्यान व समाधि को सिद्ध किये हुए हो। समाधि में ईश्वर का साक्षात्कार व प्रत्यक्ष होता है। इससे मनुष्य को विवेक की प्राप्ति होती है। यह स्थिति अनुमानतः तब आती है जब मनुष्य के प्रायः सभी अशुभ कर्मों का भोग समाप्त हो गया हो। ईश्वर साक्षात्कार के बाद मृत्यु तक के जीवन को जीवन्मुक्त अवस्था कहा जाता है। मृत्यु होने के समय तक ऐसी जीवात्मा के जिन किन्हीं शुभ व अशुभ कर्म का भोग शेष रह जाता है उनके परिणामस्वरूप एक परान्तकाल की अवधि बीत जाने पर नये सर्गारम्भ वा सृष्टि की उत्पत्ति में मुक्त जीवात्मा का मनुष्य जन्म होता है। यह मोक्ष की अवस्था स्वर्ग नहीं अपितु स्वर्ग से भी ऊंची व सर्वोच्च उन्नत जीवन की अवस्था है। यह मोक्ष केवल ईश्वरभक्तों, ऋषियों वा योगियों, वेदभक्तों वा वेदाचार्यों तथा सद्कर्मों को करने वाले मनुष्यों को ही प्राप्त होता है। वेदेतर संसार की ऐसी कोई भी जीवन प्रणाली नहीं जिसमें मोक्ष प्राप्ति की संभावना हो। अतः जीवनोन्नति, स्वर्ग वा मोक्ष की प्राप्ति के लिए मनुष्य का वेद व वैदिक धर्म की शरण में आना परमावश्यक है। अनेक तर्कों से मोक्ष के स्वरूप व मोक्ष में जीवात्मा के सुख व आनन्द के भोग की अवस्था को सिद्ध किया जाता सकता है। विस्तार भय से इसे इस लेख में सम्मिलित नहीं कर पा रहे हैं। इतना कहना ही समीचीन है कि आनन्द से परिपूर्ण ईश्वर का सान्निध्य प्राप्त मुक्त जीवात्मा सुखी व आनन्दित होगा, दुःखी किंचित नहीं हो सकता। यदि मनुष्य जीवन व जीवात्मा की परमगति है।

 

स्वर्ग व मोक्ष के बारे में समाज में मिथ्या धारणायें प्रचलित हैं। इसका निराकरण करने के लिए हमने इस संक्षिप्त लेख में प्रकाश डालने का प्रयास किया है। आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे।

मनमोहन कुमार आर्य

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