वेद को चाहे कोई किसी दृष्टि से पढ़ो, दो भावों के आगे आंखें न मूंद सकोगे । यूरोपियन भाष्यकार इञ्जील के पूर्वभाग में पशुओं के बलिदान पूर्वक परमात्मा की प्रसन्नता का प्रहास पढ़ चुका है। वह इस विचार को मनुष्य के धार्मिक विचार का प्रथम स्फुरण समझता है । उसके पूर्वज अनेक देवार्चन की अबोध क्रीड़ा नित्यंप्रति करते थे। उसवेद में अनेक देवताओं की खोज इसी निमित्त ही तो है कि संसारभर की पूर्वजातियों को अबोध दिखाकर अपने पुरुषाओं की बाललीला पर परदा डाले । इसी भाव से प्रेरित होकर सही, पर वह कहता है, और चीख़ चिल्ला कर कहता है कि वेद यज्ञों की पुस्तक है. और उसमें देवों की स्तुति है।
देव और यज्ञ–यह दो शब्द सनातन आर्य जीवन का संक्षेप हैं । आर्य धर्म का सार देवों और यशों में है । एक आत्मा है दूसरा शरीर । वेद की एक दाहिनी आंख है, दुसरी बाहिनी।
भोला बच्चा सूर्य को निकलता देख कर झट हाथ फैला देता है कि मुझे यह गोला चाहिये । चन्द्र की ज्योत्सना देखकर रोता और चिल्लाता है कि मैं खेलूं तो इसी खिलौने से। आंधी आए, बादल गर्जे, बिजली कूदै । वह आंखे मूंद लेता है और माता की गोदी में इस डर से कि देव आया! भूत आया !! हाथ पांव सुकेड़ कर छिप जाता है। यह शान्त शरण न मिले तो रोता है, और सहायता के लिये जान अनजान सब को बुलाता है। कभी दीपक पर मुग्ध है, कभी जलती और बुझती चिनगारी पर।
क्या आदि काल में आर्य बालकों ने ऐसी ही बाल चेष्टाएँ की? कभी चमकते खिलोनों पर मचल गये? कभी आंधी और बादल से डर कर गिड़गिड़ाए ? उनकी चीखें, उनकी चिल्लाहट, उनकी चाटुकारी, उनका विनय विलाप वेद की स्तुतियां बनी ?
यह कल्पनाएं यूरोपियनों की हैं।
वेद की स्तुतियों की स्वर पर ध्यान दो ! उनकी लय पहिचानो! यह रोना है ? चिल्लाना है ? या बुद्धिमानों का भक्तिरस पूर्णगान है ?
__ आंगल कवि वर्डस वर्थ वर्षा के अनन्तर इन्द्र धनुष तना देखता है तो उसका जी उछलता है । वह कहता है बालपन से मेरी यह चेष्टा रही है । वृद्ध होने तक इस धनुष की डोरी पर नाचा करूं तो जियूं नहीं तो मर जाऊं।
इसे बाल क्रीड़ा कोई नहीं कहता । यह कवि–दृष्टि है, यह यह तत्त्ववेत्ताओं का तत्त्वावलोकन है।
हाँ दरिया के पुजारी दरिया को ‘दूला‘ कहते हैं। लेखक सैकड़ों वार ‘दुले‘ के दर्शन को गया । जलोपासकों की प्रेमरस में सनी गीतियां सुनीं । भक्तिमद में घंटों डूबा रहा । ‘दूले‘ की लहरियों पर मनके पांवसे नाचा । ‘दूले‘ की छाती पर दिये बहते देख कर दीपाल का दृश्य भूल गया।
पुजारी की गोतियां सुनी तो उनका नाम उन्मत्त–गीत, मूढ़ों का प्रलाप रक्खा । और इस बात का पता नहीं सभ्य इग्लैण्ड का पूर्णशिक्षित कवि–रत्न वही वर्डस वर्थ समुद्र के तट पर खड़ा, खीष्टमत को ठण्डी सांस के साथ विदा करता है। उसने ठानी यही है कि बहते बुबुदों में देवों का दर्शन करूं।
अहा ! दिव्य चक्षुकी दिव्यदृष्टि ! विज्ञान शुष्क था तू उसके लिये उपासना रूपी तैल बनी । सूर्य है तो धातुओं का गोलकही । प्रकाश इन धातुओं का गुण मात्र है । जहां यह धातु इकट्ठे हुए, यही रङ्ग, यही रूप, यह किरणे, यही आग्नेय बाण स्वतः बन जावंगे। परन्तु यह गुण क्यों है ? इन धातुओं से इसका विशेष सम्बन्ध क्या है ? तेरे लिये विज्ञान का भण्डार भक्ति का भण्डार होगया । आत्मा को पियास जल क्यों बुझाए ? इसीलिये कि आत्मा भी देव है, जल भी।
आधे से अधिक जगत् मनुष्यों के हृदय में बसता है । इन्द्र धनुष सूर्य की किरणें होती हैं। पानी की किसी आकाश में अटकी हुइ बूंद में विचलित हो गई। किसी कवि से पूछो! यह उसके प्रियतम का झला है। कोई देवता आकाश से नीचे उतरा चाहता है । कोई उसको झुलाओ भी!
वेद की वर्णन शैली में विज्ञान की विद्युत् है परन्तु भक्ति की घटनाओं से घिरी हुई । इधर आनन्दधन गर्जता है, उधर शान की रेखा चमकती है। भौतिक अद्भुतालय को आत्मिक देवालय बना दिया है।
सजीव वर्णन निर्जीव विषय को सजीव बना देता है। वेदमन्त्र का जो विषय हो सो देव । बिना प्राण प्रतिष्ठा के जड़ मूर्तियों को चेतन किया है । वेद परमात्मा को कवि कहता है। आदिम कवि का पद्यात्मक काव्य शुष्क विज्ञानी का परीक्षणा लय नहीं हो सकता।
मूर्ख इन कल्पनाओं के आगे हाथ जोड़ते हैं । कवियों के हृदय इस कविता का आनन्द लेते हैं। पुजारी शङ्का फंकता है, कवि का हृदय उमड़ता है। मन्दिर में घण्टियां बजती हैं, कवि चुपके चुपके अनहत गीत सुनता है । एक ने बाह्य, अन्तरीय दोनों आंखें मूंद ली। वह अन्धी भक्ति में हाथ पांव हिलाया किया। दूसरे का शान चक्षु खुला रहा । उसने विज्ञान पूर्वक प्रेमानन्द लूटा।
तैतीस करोड़ देवताओं पर लोग हंसते हैं। उपासक इतने नहीं, जितने उपास्य हैं। मूढ़ों की उपासना ने उपास्यों की निन्दा कराई। लोगों ने देव शब्द को परमात्मा का पर्याय समझा, तभी से अनेक देवार्चन चले। मेरे प्रभु का निवास
होने से प्रत्येक अणु देव है। वेद के प्रत्येक विषय की गणना करें तो मुख्य तथा गौण सब मिल मिला कर तैतीस करोड़ से अधिक देवता होते हैं। ऐसे देव तो हम स्वयं भी हैं । देव देवों की पूजा क्यों करें? परमदेव परमात्मा सब देवों के देव हैं। उनकी स्तुति, उनकी प्रार्थना, उनकी उपासना जगत् का अणु अणु करता है । दूसरे देवताओं का देवत्व इतना ही है कि उन की सुन्दरता में आंखों को स्नान कराए और उनके उपभोग से जोवन को सफल करें।
देवताओं का देवताओं से व्यवहार हुआ करता है । अग्नि, सूर्य, जल, देव कहां हैं, यदि हम उसे दैव न बनाएं। दरिया खेत डुबों दें, अग्नि सर्वस्व जला दे। हमारा सँयोग हुआ। आत्मदेव के नियम में आएं, देव बन गए । यही हानि कारक दैत्य परोपकारक देवता बने खड़े हैं। एक नहीं, अनेक स्वर्ग रच लो।
मनुष्य अति चाहता है। तैतीस करोड़ों से लजाए तो ‘एक ब्रह्म‘ पर उतर आए। कहां तो असंख्य देव माने थे, और कहां वस्तु ही एक रह गयी। प्रकृति मिथ्या, जीव मिथ्या, एक ब्रह्म सत्य । इस भ्रम ने और आंखें बन्द कर दी देव दर्शन तो क्या? अदेव दर्शन भी न रहा । आंख का काम अदर्शन हो गया।
ब्रह्माण्ड जैसा है, वैसा है। हृदय का ब्रह्माण्ड भौतिक ब्रह्माण्ड का स्थान नहीं ले सकता। दोनों को ओत प्रोत करने
से जहां वास्तविक ब्रह्माण्ड आत्मिक देवालय बन जाता है, वहां आत्मिक देवालय वास्तविक ब्रह्माण्ड से पृथक् नहीं होता। न भक्ति चक्षु शून्य होती है, न ज्ञान नीरस ।