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उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप् ।

उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते ससृजेथामयं च।अस्मिन्त्सधस्थेऽअध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥

 -यजु० १५ । ५४

हे (अग्ने ) अग्रासन पर स्थित यजमान! तू (उद् बुध्यस्व ) उद्बुद्ध हो, ( प्रति जागृहि ) जाग जा । ( त्वम् अयं च ) तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर (इष्टापूर्ते ) इष्ट और पूर्त को (संसृजेथाम् ) करो। ( अस्मिन् उत्तरस्मिन् सधस्थे अधि) इस उत्कृष्ट सहमण्डप में ( देवाः ) हे विद्वानो! तुम ( यजमानः च) और यजमान (सीदत ) बैठो।।

हे विद्वन् ! हे अग्रासन पर स्थित यजमान ! तू यज्ञ करने बैठा है, यज्ञकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित कर रहा है। जैसे अप्रकाशित दीपशलाकाओं की रगड़ से या उत्तरारणि और अधरारणि के संघर्षण से प्रकाशमान अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, वैसे ही तू भी अपने अन्दर विद्याज्योति को जगा। अपने आत्मा से प्रणव-जप का संघर्षण करके दिव्य प्रकाश को उत्पन्न कर । अविद्या की निद्रा को त्याग दे, जाग उठ। तू और यह यज्ञाग्नि मिलकर इष्ट तथा पूर्त का सम्पादन करें। इष्ट’ शब्द इच्छार्थक इषु धातु से बनता है और देवपूजा, सङ्गतिकरण तथा दान अर्थवाली यज धातु से भी निष्पन्न होता है। अतः * इष्ट’ का अर्थ होता है अभीष्ट सुख, विद्वानों का सत्कार, ईश्वर की आराधना, सन्तों का संग, सत्य विद्यादि का दान। अतः इष्ट सम्पादन करने का आशय होता है कि यजमान को उचित है कि वह यज्ञवेदि में यज्ञाग्नि को प्रदीप्त करके अभीष्ट सुख प्राप्त करने का यत्न करे, अपने से बड़े विद्वानों का यजुर्वेद ज्योति सत्कार करे, ईश्वर की आराधना करे, सत्सङ्गति करे और परोपकार के लिए तन-मन-धन का दान करे। ‘पूर्त’ शब्द पालन-पूरणार्थक पृ धातु का रूप है। इसका अर्थ होता है, पूर्ण विद्याध्ययन, पूर्ण ब्रह्मचर्य, पूर्ण यौवन, पूर्ण साधन उपसाधन आदि। अतः पूर्त सम्पन्न करने का आशय है कि यजमान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे, शक्ति से परिपूर्ण खरा यौवन प्राप्त करे, उन्नति के सब साधन-उपसाधनों को संगीत करके भौतिक तथा आत्मिक उत्थान का प्रयास करे। यज्ञ करने के लिए यजमान अकेला ही यज्ञमण्डप में नहीं बैठता है, उसके साथ उसका परिवार, साथी संग तथा अन्य यज्ञप्रेमी जन भी बैठते हैं। ‘सधस्थ’ का अर्थ है यज्ञमण्डप, जिसमें एक साथ बहुत से लोग सुविधापूर्वक बैठ सकें। सधस्थ का विशेषण मन्त्र में उत्तरस्मिन’ दिया है, जिससे सूचित होता है। कि यज्ञ मण्डप सुसज्जित, सज-धज से युक्त तथा सामूहिक यज्ञ के वातावरण से परिपूर्ण होना चाहिए। उस यज्ञमण्डप में विद्वज्जन, यजमान, यजमान-पत्नी, होता, उद्गाता, अध्वर्यु, ब्रह्मा एवं मन्त्रपाठी आदि सब लोग श्वेत वस्त्र धारण करके पवित्र भावना के साथ बैठे। सबके सुनियन्त्रित रूप में बैठ जाने के पश्चात् यज्ञ प्रारम्भ होता है। मन्त्रोच्चारण तथा सब विधि-विधान सम्पन्न होते हैं, पूर्णाहुति प्रदान की जाती है, यजमानों को आशीर्वाद दिया जाता है, ब्रह्मा का उपदेश होता है और यज्ञशेष रूप में यज्ञ का प्रसाद लेकर यज्ञभावना से भावित और संस्कृत होकर यज्ञप्रेमी जन अपने-अपने घरों को जाते हैं। अन्यत्र जाकर भी वे यज्ञ के वातावरण से चिरकाल तक प्रभावित रहते हैं। आइये, हम भी यज्ञ रचा कर उसका लाभ प्राप्त करें।

पाद-टिप्पणियाँ 

१. (प्रतिजागृहि) अविद्यानिद्रां त्यक्त्वा विद्यया चेत-द० ।

२. (इष्टापूर्ते) इष्टं सुखं विद्वत्सत्करणम् ईश्वराराधनं सत्सङ्गतिकरणं | सत्यविद्यादिदानं पूर्ण बलं ब्रह्मचर्यं विद्यालङ्करणं पूर्ण यौवनं पूर्णसाधनोपसाधनं च-द० ।।

३. सह तिष्ठन्ति जना यत्र स सधस्थ: । सह-स्था, सह को सध आदेश ।

उठ,जाग-रामनाथ विद्यालंकार 

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता विदुषी । छन्दः ब्राह्मी बृहती।

परमेष्ठी त्वा सादयतु दिवस्पृष्ठे ज्योतिष्मतीम्। विश्वस्मै प्राणायापनार्य व्यनाय विश्वं ज्योतिर्यच्छ। सूर्यस्तेधिपतिस्तया देवतयाऽङ्गिस्वद् ध्रुवा सीद॥

-यजु० १५।५८

हे विदुषी ! ( त्वा ) तुझे ( परमेष्ठी ) प्रधानमन्त्री ( सादयतु ) प्रतिष्ठित करे ( दिवस्पृष्ठे ) ज्ञानप्रकाश के पृष्ठ शिक्षामन्त्री पद पर, ( ज्योतिष्मतीम् ) तुझ ज्योतिष्मती को, विद्याज्योति से जगमगानेवाली को, (विश्वस्मै ) सबके लिए ( प्राणाय ) प्राणार्थ, (अपानाय ) अपानार्थ, (व्यानाय ) व्यानार्थ । तू (विश्वं ज्योतिः ) समस्त विद्याज्योति को ( यच्छ) नियन्त्रित कर। ( सूर्यः ते अधिपतिः) सूर्य तेरा आदर्श है। ( तयादेवतया) उस देवता से ( अङ्गिरस्वद् ) प्राणवती होकर तू ( धुवा ) अपने पद पर स्थिर होकर (सीद) बैठ।

चुनाव में जो दल बहुमत से विजयी हुआ है, उसने अपने प्रधानमन्त्री का चयन कर लिया है। प्रधानमन्त्री अब अपने मन्त्रिमण्डल का गठन कर रहे हैं। शिक्षामन्त्री पद के लिए सबकी दृष्टि एक विदुषी देवी पर लगी हुई है। उसने शिक्षा की आराधना की है, ज्ञान की ज्योति अपने अन्दर जलायी है। दूसरों के अन्दर भी वे ज्ञान की ज्योति जलाना जानती हैं। वे वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति की पुजारिन हैं। उस विद्या की सर्वोच्च उपाधि उनके पास है। वे शिक्षिका और प्राचार्या रह चुकी हैं। उनके महाविद्यालय की छात्राओं का परीक्षा परिणाम शतप्रतिशत सर्वोन्नत रह चुका है। प्रबन्ध में यजुर्वेद ज्योति भी उन्होंने कुशलता अर्जित की है। साहित्य-सर्जन में भी अग्रणी रही हैं। राष्ट्रपति-सम्मान तथा अन्य अनेकों पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। विदेश का भी अनुभव उनके पास है। सबकी इच्छा है कि शिक्षामन्त्री का पद उन्हें मिले । प्रधानमन्त्री के पास उनके चयन के लिए शिष्टमण्डल का प्रस्ताव पहुँच चुका है। जनता का प्रतिनिधि विदुषी को कह रहा है-”हे देवी! हम सबकी अभिलाषा है कि प्रधानमन्त्री आपको शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन करें, क्योंकि आप * ज्योतिष्मती’ हैं । ज्ञान की ज्योति, अध्यापनकला की ज्योति, सप्रबन्ध की ज्योति आपके अन्दर जगमगा रही है। आपके द्वारा शिक्षाजगत् को प्राण प्राप्त होगा, राष्ट्र की प्रसुप्त शिक्षा जागरूक और सज्ञान हो उठेगी, देश में प्रत्येक जनपद में छात्रों और छात्राओं के विशिष्ट विद्याओं के विश्वविद्यालय और महाविद्यालय स्थापित होंगे। शिल्पकला, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, कृषि, गृहविज्ञान आदि सभी विद्याओं को प्रोत्साहन मिलेगा। शिक्षाजगत् को ‘प्राण’ के साथ ‘अपान’ और ‘व्यान’ की भी आवश्यकता है। शिक्षा में जो दोष आ गये हैं, उनका निर्गमन ‘अपान’ द्वारा होगा। शिक्षा का व्यापक प्रसारे ‘व्यान’ द्वारा होगा। आप शिक्षामन्त्री के पद पर आसीन होकर सकल ज्ञान विज्ञान की शिक्षा को नियन्त्रित करें। प्राचीन भारतीय शिक्षाविदों के अनुभव से लाभ उठायें। विदेशी शिक्षाविदों ने जो शिक्षासूत्र दिये हैं, उन पर भी विचार करें कि वे कहाँ तक अपने देश में लागू हो सकते हैं । द्युलोक से प्रकाश के फब्बारे छोड़ता हुआ सूर्य आपको आदर्श है। जैसे वह विभिन्न लोकों के अन्धकार को मिटा कर प्रकाश का विस्तार करता है, वैसे ही आपको अज्ञान और अविद्या का अंधियारा हटा कर ज्ञान और विभिन्न विद्याओं के प्रकाश को प्रत्येक प्रदेश में फैलाना है । सूर्य से प्राणवती होकर आप शिक्षा का प्रसार करें। आपकी प्रजा में एक भी जन निरक्षर और अशिक्षित ने रहे। आप अपने पद पर स्थिर होकर बैठे और शिक्षा के लिए समर्पित हो  जाएँ।

तभी घोषणा होती है कि प्रधानमन्त्री ने अमुक विदुषी को शिक्षामन्त्री का पद सौंपा है। उस विदुषी के नाम के जयकारे । उठते हैं। न्यायाधीश उससे शिक्षा क्षेत्र में समर्पित रहने की तथा देश के प्रति सजग और सच्ची रहने की प्रतिज्ञा ग्रहण करवाते हैं। पुष्पमालाओं से उसका स्वागत होता है। शिक्षामन्त्री पद उस विदुषी से धन्य हो जाता है। विदुषी तुरन्त शिक्षा में क्रान्ति करने के लिए जुट जाती है।

पाद-टिप्पणियाँ

१. परमे स्थाने तिष्ठतांति परमेष्ठी प्रधानमन्त्री।

२. प्राणो वै अङ्गिराः, तद्वती यथा स्यात् तथा।

विदुषी शिक्षामन्त्री -रामनाथ विद्यालंकार 

सब हष्टपुष्ट नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः अथवा देवाः । देवता रुद्रः ।।छन्दः आर्षी जगती ।

इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्र भरामहे मृतीः। यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामेऽअस्मिन्ननातुरम् ॥

-यजु० १६ । ४८

( तवसे ) बल और वृद्धि देनेवाले, (कपर्दिने ) वायुरोग को दूर करनेवाले, (क्षयद्वीराय) वीरों को निवास देनेवाले (रुद्राय ) रोगनाशक वैद्य के लिए (इमाःमतीः) इन प्रशस्तियों तथा प्रज्ञाओं को (प्रभरामहे ) हम प्रकृष्टरूप से लाते हैं, ( यथा) जिससे ( द्विपदे चतुष्पदे) द्विपाद् मनुष्यों और चतुष्पात् पशुओं के लिए (शम् असत् ) सुख होवे। ( अस्मिन् ग्रामे ) इस ग्राम में ( विश्वं ) सब कोई ( पुष्टं) हृष्टपुष्ट और (अनातुरं) नीरोग ( असत् ) होवे।। |

वेद में रुद्र कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-परमेश्वर, प्राण, सेनापति, आचार्य आदि। इसका एक अर्थ वैद्यराज भी है। वेद में रुद्र को ‘भिषजों में भिषक्तम’ कहा गया है। पीड़ादायक रोगों को दूर करने के कारण वैद्य को रुद्र कहते हैं। मन्त्र में रुद्र के तीन विशेषण दिये गये हैं। प्रथम ‘तवसे’ विशेषण गतिवृद्धिहिंसार्थक णिजन्त ‘तु’ धातु से असुन् प्रत्यय करने पर चतुर्थी विभक्ति प्रथम पुरुष का रूप है। वैद्य रोगशय्या पर पड़े। रोगी को चलने-फिरने योग्य करता है, उसकी वृद्धि-पुष्टि करता है, उसके रोग-कीटाणुओं को नष्ट करता है। निघण्टु में ‘तवस्’ शब्द बलवाचक है। वैद्य चिकित्सा-शक्ति से सम्पन्न होता है, निर्बल रोगी को बल देता है। दूसरा विशेषण ‘कपर्दी’ है। अधिकतर रोग वायुविकार से होते हैं। वायुरोग को निस्सारण करने के कारण वैद्य को ‘कपर्दी’ कहते हैं । कपर्द जटाजूट को भी कहते हैं, जटाजूट को धारण करने के कारण वैद्य ‘कपर्दी’ कहलाता है। जटाजूट धारण करने से उसके मस्तिष्क में विशेष शक्ति आती है, जिसका उपयोग वह मानसिक रोगों के उपचार में कर सकता है । कपर्द समुद्र से निकलनेवाले ‘कौड़ों को भी कहते हैं, उनका उपयोग भी चिकित्सा में होता है। तीसरा विशेषण ‘ क्षयद्वीर’ है, जिसका अर्थ है, वीरों को निवास देनेवाला । वीरों में प्रजा के वीर पुरुष और वीराङ्गनाएँ भी आ जाती हैं और सेना के वीर योद्धा भी। वैद्य प्रजा के वीर-वीराङ्गनाओं की तथा युद्ध में आहत योद्धाओं की चिकित्सा करके उन्हें जीवन प्रदान करता है। इन विशेषणों से युक्त वैद्यराज के प्रति हम प्रज्ञाओं (मतियों) को लाते हैं, अर्थात् उसे यथोचित प्रशिक्षण देते हैं, जिससे वह गम्भीर से गम्भीर रोगी की सफल चिकित्सा कर सके। वह द्विपाद् मनुष्य की भी चिकित्सा करे और गाय आदि पशुओं की भी, जिससे हमारे ग्राम या नगर में सभी हृष्टपुष्ट और नीरोग रहें। मति का अर्थ प्रशस्ति भी होता है, हम उक्त गुणों से युक्त वैद्यराज की प्रशस्तियाँ भी करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. भिषक्तमं त्वा भिषजां शृणोमि । ऋ० २.३३.४

२. रुतः रोगान् द्रावयतीति रुद्रो भिषक् ।

३. निघं० २.९

४. पर्द कुत्सिते शब्दे, भ्वादिः। कं सुखं यथा स्यात् तथा पर्दयतिवायुदोष नि:सारयतीति कपर्दी ।।

५. कपर्दो जटाजूटो ऽस्यास्तीति कपर्दी।

६. कपर्दः ‘कौड़ा’ इति ख्यातः समुद्रजकोटाङ्गविशेषः । तद्वान् कपर्दी,चिकित्सायां तदुपयोगकर्ता इत्यर्थः ।।

७. क्षयन्तो निवसन्तो वीरा येन स क्षयद्वीरः, क्षि निवासगत्योः

सब हष्टपुष्ट  नीरोग रहे -रामनाथ विद्यालंकार 

वेदों का महत्त्व: धर्मदेव विद्यामार्तण्ड

वेदों का महत्त्व वेद विषयक परम्परागत विश्वास 

वेदों के विषय में आर्यों का यह परम्परागत विश्वास चला आ रहा है कि वे ईश्वरीय ज्ञान हैं। परम कारुणिक सर्वज्ञ भगवान् ने मनुष्य मात्र के कल्याणर्थ मानव सृष्टि के प्रारम्भ में यह पवित्र ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा संज्ञक चार ऋषियों के पवित्रन्त:करणों में प्रकाशित किया जिससे सब मनुष्यों को वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा विश्व विषयक सब कर्त्तव्यों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो सके और उसके द्वारा वे सुख, शान्ति तथा आनन्द को प्राप्त कर सकें। प्राचीन समस्त स्मृतिकार, दर्शन शास्त्रकार, उपनिषत्कार तथा रामायण, महाभारत, श्रौत-सूत्र, गृह्यसूत्रादि के लेखक यहाँ तक कि पुराणकार स्पष्टतया वेदों को ईश्वरीय तथा स्वत: प्रमाण और अन्य सब ग्रन्थों को परतः प्रमाण मानते हैं। उदाहरणार्थ मनु महाराज ने अपनी स्मृति में कहा है कि 

वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।(मनु० २.६) अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नामक सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल हैं। वही धर्म के विषय में स्वत: प्रमाण हैं। 

मनुस्मृति २.१३ में लिखा है: धर्म जिज्ञासमानानां, प्रमाणं परमं श्रुतिः।। 

अर्थात् जो धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये परम प्रमाण वेद ही है। 

मनु महाराज ने वेदों का महत्त्व बताते हुए यहाँ तक कह दिया है 

अर्थात् उस भगवान् का मस्तक मानो अग्नि है, सूर्य और चन्द्र उसके नेत्रों के समान हैं। दिशाएँ उनके कानों के तुल्य हैं। वेद मानो उसकी वाणी से निकले अर्थात् ईश्वरीय है। तण्ड्य ब्राह्मण तथा तदन्तर्गत छान्दोग्योपनिषद् में छन्दों के नाम से वेदों की महिमा इन शब्दों में बताई गई है: 

देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्राविशन् ते छन्दोभिर च्छादयन्, यदेभिरच्छादयन्, तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्॥ 

(छान्दोग्य० १.४.२)

अर्थात् देवों (सत्यनिष्ठ विद्वानों) ने मृत्यु से भयभीत होकर त्रयी विद्या (ज्ञान, कर्म, उपासना विद्या का प्रतिपादन करने वाले वेद) का आश्रय लिया। उन्होंने वेद-मन्त्रों से अपने को आच्छादित कर लिया इसलिये इन्हें छन्द के नाम से कहा जाता है। इससे भी ब्राह्मणों और उपनिषदों के लेखकों की वेदों के विषयों में अत्यधिक श्रद्धा सूचित होती है इसमें कोई सन्देह नहीं। महाभारत में वेदों का महत्त्व : 

महाभारत में महर्षि वेदव्यास जी ने वेद को नित्य और ईश्वरकृत अनेक स्थानों पर बताया है और उनके अर्थसहित अध्ययन पर बड़ा बल दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि ऋषियों तथा पदार्थों के नाम, वेदों से ही लेकर रखे गये, महाभारत के निम्न श्लोक इस विषय में विशेष उल्लेखनीय हैं। 

अनादिनिधना नित्या, वायुत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौ वेदमयी दिव्या, यतः सर्वाः प्रवृत्तयः॥ 

(म० भा० शन्तिपर्व अ० २३२.२४)

अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्य वाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों की सारी प्रवृत्तियाँ होती हैं। यह ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध मन्त्र: 

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचाविरूप नित्यया। वष्णे चोदस्व सुष्टुतिम्॥ 

(ऋ० ..

और पुनरुक्ति आदि दोषरहित होने से वेद को परम प्रमाण सिद्ध किया गया है। 

वैशेषिक शास्त्रकार कणाद मुनि ने तद् वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्। (१.१.३) 

इस सूत्र द्वारा परमेश्वर का वचन होने से आम्नाय अर्थात् वेद की प्रामाणिकता का प्रतिपादन किया है। सांख्यकार कपिल मुनि को भूल से कई आधुनिक विचारक नास्तिक समझते है किन्तु उन्होंने भी निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्” इत्यादि सूत्रों द्वारा वेदों को ईश्वरीय शक्ति से अभिव्यक्त (प्रकट) होने के कारण स्वतः प्रमाण माना है। 

योगदर्शनकार पतञ्जलि मुनि ने एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्। 

(समाधिपाद सू० २६) इत्यादि में परमेश्वर को नित्य वेद ज्ञान देने के कारण सब पूर्वजों का भी आदि गुरु माना है। 

वेदान्त शास्त्र के कर्ता वेद व्यास जी ने ‘शास्त्रयोनित्वात्’ (१.१. ३) तथा ‘अतएव च नित्यत्वम्’ (१.३.२९) इत्यादि सूत्रों द्वारा परमेश्वर को ऋग्वेदादि रूप सर्वज्ञान भण्डार शास्त्र का कर्ता मानते हुए वेद की नित्यता का प्रतिपादन किया है। 

शास्त्रयोनित्वात्‘ (१.१.४) । इस सूत्र के भाष्य में सुप्रसिद्ध दार्शनिक श्री शङ्कराचार्य जी ने जो लिखा है वह भी इस प्रसङ्ग में महत्वपूर्ण होने के कारण उल्लेखनीय है। वे लिखते हैं: 

ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्या स्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावधोतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। नहीदृशस्य गर्वेदादि लक्षणस्य सर्वज्ञगुणाचितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोऽस्ति। 

अर्थात्:-ऋग्वेदादि जो चार वेद हैं वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं, सूर्य के समान सब सत्य अर्थों के प्रकाश करने वाले हैं, उनका बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त परब्रह्म है क्योंकि सर्वज्ञ ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वज्ञ गुण युक्त इन वेदों को बना सके ऐसा संभव नहीं, इत्यादि। 

मीमांसा शास्त्र के कर्ता जैमिनि मुनि तो धर्म का लक्षण ही यह करते हैं कि: 

चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।अर्थात् जिसके लिये वेद की आज्ञा है वह धर्म और जो वेद विरुद्ध हो वह अधर्म कहलाता है। इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेदों की नित्यता और स्वतः प्रमाणता का प्रतिपादन करते हैं। महात्मा

गौतम बुद्ध के वेदों के महत्त्व विषयक वचन

महात्मा गौतम बुद्ध को बहुत से पाश्चात्य और कई भारतीय विद्वान वेदधर्म विरोधी नास्तिक मानते हैं किन्तु वस्तुतः वे एक आर्य सुधारक थे जिन्होंने अज्ञान और स्वार्थवश प्रचलित यज्ञों में पशुहिंसा, जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था वा जातिभेदादि कुप्रथाओं को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने वेदों की निन्दा नहीं कि,किन्तु उन लोगों की निन्दा की जो वेदों का नाम लेकर यज्ञों में पशुहिंसा करते तथा अन्य प्रकार से दुराचार में प्रवृत्त थे। वेदों और सच्चे धर्मात्मा वेदज्ञों की उन्होंने अनेक वचनों में प्रशंसा की है। उदाहरणार्थ सुत्तनिपात २९२ में महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा है: 

विछा वेदेहि समेच्चधम्म। 

उच्चावचं गच्छति भूरिपञ्यो। इसका संस्कृत अनुवाद है: 

विद्वांश्च वेदैः समेत्य धर्मनोच्चावचं गच्छति भूरि प्रज्ञः।

अर्थात् जो विद्वान वेदों के द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है उसकी डांवाडोल अवस्था नहीं रहती। 

सुत्तनिपात श्लो० १०५९ में महात्मा बुद्ध की निम्न उक्ति पाली में पाई जाती है: 

यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजना, अकिंचनं कामभवे असत्तं। श्रद्धा हि सो ओघमिमं अतारि

तिण्णो पारं अखिलो अकंखो। इसका संस्कृत अनुवाद इस प्रकार है: 

यं ब्राह्मणं वेदज्ञम् अभिज्ञातवान् अकिंचनं कामभवे असक्तम्। श्रद्धा हि ओघमिमम् अतारीत् 

तीर्णश्च पारम् अखिलः अकांक्षः॥ अर्थात् जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कुछ धन नहीं और जो सांसारिक कामनाओं में आसक्त नहीं, वह आकांक्षारहित सचमुच इस संसार सागर से तर जाता है। इसमें सच्चे वेदज्ञ ब्राह्मणों की कितनी प्रशंसा की गई है? क्या एक वेदविरोधी नास्तिक के इस प्रकार के वचन हो सकते हैं? जो इस विषय में विस्तार से देखना चाहते हैं उन्हें लेख की ‘बौद्ध मत और वैदिक धर्म’ (आर्यसमाज दीवानहाल देहली द्वारा प्रकाशित १.५० न० पै०) तथा ‘Mahatma Buddha-an Arya Reformer’ (आनन्दकुटीर ज्वालापुर उ० प्र० से प्राप्तव्य मूल्य १-५० न० पै०) इन पुस्तकों को पढ़ना चाहिए। सिक्ख गुरुओं की वाणी में वेदों का. महत्त्व

यद्यपि आजकल कई सिक्ख भाई वेदशास्त्र का महत्त्व नहीं मानते और अपने को आर्यों (हिन्दुओं) से सर्वथा पृथक् समझते हैं किन्तु सिक्ख मत के प्रवर्तक गुरु नानक जी तथा अन्य गुरुओं की वाणी में वेदों का महत्त्व अनेक स्थानों पर स्पष्टतया वर्णित है-उदाहरणार्थ गुरु ग्रन्थ साहेब के निम्नलिखित वचनों को देखिये: 

. ओंकार वेद निरमाये। 

(राग रामकली महला १ ओंकार शब्द १) अर्थात् ईश्वर ने वेद बनाए। . हरिआज्ञा होए वेद, पाप पुन्य विचारिआ॥ 

(महला ५ शब्द १) अर्थात् ईश्वर की आज्ञा से वेद हुए जिससे मनुष्य पाप-पुण्य का विचार कर सके। 

. सामवेद, ऋग्, यजुर, अथर्वण

ब्रह्म मुख माइया है त्रैगुण। ताकी कीमत कीत कह सकै

को तिड़ बोले जिड बोलाइदा॥ (महला शब्द १७

यहाँ भी चारों वेदों का नाम लेकर कहा है कि उनकी कीमत (महत्त्व) कोई नहीं बता सकता। वे अमूल्य और अनन्त हैं। 

४. चार वेद चार खानी॥ (महला ५ शब्द १७) अर्थात् चार वेद चार खानों के समान (ज्ञान कोष) हैं।

. वेद बखान कहहि इक कहिये। 

ओह बेअन्त अन्त किन लहिये। (महला १ अ०३)

अर्थात् वेदों की महिमा का क्या वर्णन किया जाये? वे बेअन्त में उनका अन्त किस प्रकार पा सकते हैं? 

. दीवा तले अन्धेरा जाई।। 

वेद पाठ मति पापा खाई। उगवे सूरज जापे चन्द

जहां गियान (ज्ञान) प्रगास अज्ञान मिटन्त॥ अर्थात् वेद के ज्ञान से अज्ञान मिट जाता है और उनके पाठ से बुद्धि शुद्ध होकर पापों का नाश हो जाता है। 

. असंख ग्रन्थ मुखि वेद पाठ। (जप जी १७) अर्थात् असंख्य ग्रन्थों के होते हुए भी वेद का पाठ सबसे मुख्य है। . वेद बखियान करत साधुजन

भागहीन समझत नाही॥ (टोडी महला ५ शब्द १७) अर्थात् साधु-सज्जन वेद का व्याख्यान करते हैं किन्तु भाग्यहीन नीच मनुष्य कुछ समझता नहीं। 

. कहत वेदा गुणन्त गुणिया

सुणत् बाला वह विधि प्रकारा। 

दृढन्त सुविद्या हरि-हरि कृपाला॥ (महला ५.१४) अर्थात् वेदों के पढ़ने से उत्तम विद्या भगवान् की कृपा से बढ़ती है। 

इस पर भी जो वेदशास्त्र की निन्दा करते और उन्हें असत्य समझते हैं उनके बारे में गुरु ग्रन्थ साहेब में उद्धृत भक्त कवि कबीर जी का यह वचन स्मरण रखने योग्य है कि: 

वेद कतेब, कहहु मत झूठे, झूठा जो विचारे।‘ 

अर्थात् वेद शास्त्र को झूठा मत कहो। झूठा वह है जो विचार नहीं करता। विस्तार भय से अभी इतना ही पर्याप्त है। 

सुप्रसिद्ध पारसी विद्वान् द्वारा वेद महिमा गान : 

सुप्रसिद्ध पारसी विद्वान् फर्दून दादा चान जी B.A.LL.B.D.Tg. ने ‘Philosophy of Zoroastrianism and comparative Study of Religions’ नामक अपने विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ में वेद के विषय में लिखा है: 

“The Veda is a Book of Knowledge and Wisdom, comprising the Book of nature, the Book of Religion, the Book of prayers, the Book of morals and so on. The word Veda’ means wit, wisdom, knowledge and truly the Veda is condensed wit, wisdom and knowledge.” (P. 100) 

अर्थात् वेदज्ञान की पुस्तक है जिसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार इत्यादि विषयक पुस्तकें सम्मिलित हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है और वास्तव में वेद में सारे ज्ञान विज्ञान का तत्त्व भरा हुआ है।। 

इस प्रकार इस पारसी विद्वान् ने वेदों को ज्ञान का विश्वकोष बताया है। जैन आचार्य द्वारा वेद महिमा गान

आचार्य कुमुदेन्दु नामक जैन विद्वान् ने कन्नड़ भाषा में “भूवलय” नामक एक आश्चर्यकारक ग्रन्थ लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि ऋग्वेद ही अनादिनिधना आदिम भगवद्वाणी है। इसमें से अनेक भाषाएँ निकलती हैं। भगवान् का सन्देश सभी के लिये एक-सा होता है। 

अरब देश के विद्वान् लाबी द्वारा वेदों का गुणगान

अखताब के पुत्र और तुर्की के पौत्र लाबी नामक अरबवासी कवि ने जो मुहम्मद साहेब के जन्म के लगभग 2400 वर्ष पूर्व विद्यमान था वेदों का गुणगान अरबी भाषा की एक कविता द्वारा किया जिसका हिन्दी भाषानुवाद निम्न है: 

१. ऐ हिन्दुस्तान की धन्य भूमे! तू आदर करने योग्य है क्योंकि तुम में ही ईश्वर ने अपने सत्य ज्ञान का प्रकाश किया है। 

२. ईश्वरीय ज्ञान रूप ये चारों पुस्तके (वेद) हमारे मानसिक नेत्रों को किस आकर्षक और शीतल उषा की ज्योति को देते हैं। परमेश्वर 

ने हिन्दुस्तान में अपने पैगम्बरों अर्थात् ऋषियों के हृदयों में इन चार वेदों का प्रकाश किया। 

३. और वह पृथिवी पर रहने वाली सब जातियों को उपदेश देता है कि मैंने वेदों में जिस ज्ञान को प्रकाशित किया है उसको तुम अपने जीवनों में क्रियान्वित करो, उनके अनुसार आचरण करो। निश्चय से परमेश्वर ने ही वेदों का ज्ञान दिया है। 

४. साम और यजुर् वे खजाने हैं जिन्हें परमेश्वर ने दिया है। ऐ मेरे भाईयो! इनका तुम आदर करो क्योंकि वे मुक्ति का शुभ संदेश देते हैं। 

५. इन चारों में से शेष दो ऋक् और अथर्व हमें विश्वभ्रातृत्व का पाठ पढ़ाते हैं। ये दो ज्योतिः स्तम्भ हैं जो हमें उस लक्ष्य की ओर अपना मुँह मोड़ने की चेतावनी देते हैं। ___ अरब देशीय कवि लाबी द्वारा वेदों के प्रति समर्पित यह श्रद्धांजलि स्वर्णक्षरों में लिखने योग्य है। 

अनेक निष्पक्ष पाश्चात्य विद्वानों द्वारा वेद गौरव गान

यद्यपि अधिकतर पाश्चात्य लेखकों ने ईसाई मत की श्रेष्ठता दिखाने के लिये वेदों का निष्पक्षपात भाव से अध्ययन नहीं किया तथापि अनेक ऐसे विद्वान् यूरोप और अमरीका में हुए जिन्होंने वेदों का अध्ययन निष्पक्षपात भाव से करके उनकी महिमा का मुक्त कण्ठ से गान किया है। उनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। 

डॉ. रसेल वैलेस-सबसे पहले मैं डार्विन के साथ ही प्राकृतिक जगत् में विकासवाद के आविष्कार डॉ० रसेल वैलेस के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘Social Environment and Moral Progress’ से कुछ उद्धरण देना 

चाहता हूँ जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं: 

“In the earliest records which have come down to us from the past, we find ample indications that accepted standards of morality and the conduct resulting form these, were in no degree inferior to those which prevail today, though in some respects they differed from ours. The wonderful collection of hymns know as the Vedas is a vast system of religious teachings as pure and lofty as those of 

the finest portions of the Hebrew Scriptures. Its authors were fully our equals in their conception of the universe and the Deity expressed in the finest poetic languages. (P.11) 

“In it (Veda) we find many of the essential teachings of the most advanced religious thinkers. (P.13) 

“We must admit that the mind which conceived and expressed in appropriate language such ideas as are everywhere present in those Vedic hymns, could not have been inferior to those of the best of our religious teachers and poets, to our Milton, Shapespeare and Tennyson. (P.14)” ___अर्थात् पुराने समय के जो लेख हमें इस समय मिलते हैं उनमें भी हमें इस बात के पर्याप्त निर्देश प्राप्त होते हैं कि उस समय के सदाचारादि विषयक विचार और व्यवहार हमारे से किसी रूप में भी कम कोटि के नहीं थे यद्यपि कई अंशों में वे हम से भिन्न अवश्य थे। __ वेद के नाम से प्रसिद्ध आश्चर्यजनक संहिता के अन्दर बाइबल के अच्छे से अच्छे भाग के तुल्य पवित्र और ऊँची धार्मिक शिक्षाओं की एक पद्धति पाई जाती है। इसके लेखक, संसार और सुन्दरतम कविता में प्रकाशित ईश्वर विषयक विचार में पूर्णतया हमारे समान थे। इनमें हम अत्यधिक उन्नत वा प्रगतिशील धार्मिक विचारकों की मुख्य शिक्षाओं को पाते हैं।… 

हमें यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जिस मन ने उन ऊँचे विचारों को ग्रहण किया और तदनुरूप उत्तम भाषा में प्रकट किया, जो वेदों में सर्वत्र पाये जाते हैं, हमारे उच्चतम धार्मिक शिक्षकों और मिल्टन, शैक्सपियर तथा टैनीसन जैसे कवियों से किसी अवस्था में भी कम था। 

इससे बढ़ कर सामाजिक विकासवाद (Social Evolution Theory) का खण्डन क्या हो सकता है? यदि वेदों की, जिनको प्रायः सभी पाश्चात्य विद्वान संसार के पुस्तकालय में प्राचीनतम ग्रन्थ, प्रो० मैक्समूलर के सुप्रसिद्ध शब्दों में ‘The oldest books in the library of mankind.: मानते हैं, शिक्षाएँ इतनी ऊँची और पवित्र हैं जितनी कि 

बाइबिल के अच्छे से अच्छे भागों की अथवा यदि ऋषि वर्तमान समय जगत के उच्चतम विचारकों और कवियों से कम न थे तो फिर सामाजिक विकास के लिये अवकाश कहाँ रह जाता है? स्वयं भौतिक जगत में विकासवाद के प्रवर्तकों में से एक वैज्ञानिक शिरोमणि का सामाजिक विकासवाद का इस प्रकार का निराकरण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस समाजिक विकासवाद के आधार पर जो ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता से इन्कार करते हैं उनको अपना विचार बदलने को विवश होना पड़ेगा। यह बात डॉ० अल्फ्रेड वैलेस के उपरिलिखित वाक्यों से स्पष्ट हो जाती है। 

दो ईसाई पादरियों द्वारा वेदों की ईश्वरीयता स्वीकृति : 

रेवरेन्ड मौरिस फिलिप (Rev. Morris Philip) नामक ईसाई पादरी ने ‘The Teachings of the Vedas‘ नामक अपने ग्रन्थ में निम्न शब्दों मे वेदों को प्रारम्भिक ईश्वरीय ज्ञान बताया है। वे लिखते हैं: 

We have pushed our enquiries as far back in time as the records would permit and we have found that the religious and speculative thought of the people was far purer, simpler and more rational at the farthest point we reached, than a the nearest and the latest in the Vedic Age.” 

“The conclusion therefore in inevitable viz; that the development of religious thought in India has been uniformly downward and not upwards, deterioration and not evolution. We are justified, therefore in concluding that the higher and purer conceptions of the Vedic Aryans were the result of a primitive Divine Revelation.” 

(“The Teachings of the Vedas” by Rev. Morris Philip P.231) 

इस लम्बे उद्धरण का तात्पर्य यह है कि हम अपनी खोज को समय की दष्टि से इतना पीछे की ओर ले गये जितने की लेखादि सामग्री हमें मिल सकती थी और हमने पाया कि लोगों की धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा सबसे पुराने समय में जहाँ तक हम पहुँच सकें अधिकतम पवित्र, युक्ति-युक्त और सरल थी अपेक्षया वैदिक काल के भी हमारी दष्टि से समीपतम और नवीनतम समय में। 

इसलिये हमारे लिये यह परिणाम निकालना अनिवार्य है कि भारत में धार्मिक विचार का विकास नहीं किन्तु ह्रास ही हुआ है, उन्नति नहीं किन्तु अवनति हुई है। हम यह परिणाम निकालने में न्याययक्त हैं कि 

वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर ईश्वरादि विषयक विचार एक प्रारम्भिक ईश्वरीय ज्ञान के परिणाम थे। 

प्रो० हीरेन् नामक ईसाई विद्वान का वेद विषयक लेख 

प्रो० हीरेन् (Heeren) नामक एक सुप्रसिद्ध अनुसंधान विद्वान् ऐतिहासिक ने वेदों के विषय में लिखा है कि 

“They (The Vedas) are without doubt the oldest works composed in Sanskrit. Even the most ancient Sanskrit works allude to the Vedas as already existing. The Vedas stand alone in their solitary splendour, standing as beacon of Divine Light for the onward march of humanity. 

(Historical Researches by Prof. Heeren (Vol. 11 P. 127) 

अर्थात् इसमें सन्देह नहीं कि वेद संस्कृत के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। उपलभ्यमान सर्व अधिक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में भी उनकी विद्यमानता का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। वे मनुष्यमात्र की उन्नति के लिये अपनी अद्भुत शान में दिव्य प्रकाश स्तमभ का काम देते हैं। लेओं देल्बॉ नामक फ्रेञ्च विद्वान् का मत– 

१४ जुलाई १८८४ को पेरिस में आयोजित (International Literary Association थवा अन्तराष्ट्रीय साहित्यिक संघ के सम्मुख निबन्ध पढ़ते हुए लेओ देल्वॉ (Mons Leon Delos) नामक फ्राँस देशीय सुप्रसिद्ध विद्वान् ने घोषणा की कि ‘The Regiveda is the most sublime conception of the great high ways of humanity.’ 

अर्थात् ऋग्वेद मनुष्य मात्र की उच्च प्रगति और आदर्श की उच्चतम कल्पना है। नोबल पुरस्कार विजेता मैटलिङ्क और वेदों का महत्त्व 

लगभग १५ लाख रु० के नोबल पुरस्कार विजेता स्वीडन वासी श्री मैटर्लिङ्क ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘The Great Secret में वेदों के प्रति अत्यधिक आदर का भाव दिखाया है। वेदों की कर्तव्यशास्त्रादि प्रसिद्ध पुस्तक ‘Theaता स्वीडन वासी प्रति अत्यधिक विषयक शिक्षाओं को उद्धत करते हुए उसने लिखा है कि 

‘Let us agree that the system of Ethics of which I have been unable to give more than the slightest survey, while the first ever known to man, is also the loftiest which he has ever practised.’ (The Great Secret P. 96) 

अर्थात् हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि यह कर्तव्यशास्त्र विषयक प्रणाली जिसका मैंने अत्यन्त संक्षिप्त विवरण दिया है जब कि मनुष्य को ज्ञात प्रणालियों में से सर्वप्रथम है साथ ही सबसे अधिक उत्कृष्ट है जिसका मनुष्य ने कभी आचरण किया है। 

प्राचीन परम्परा वा Primitive Tadition का निर्देश करते हुए मैटर्लिंक ने लिखा है कि 

As for the primitive tradition, it is true that these affirmation and precepts are the most unlooked for, the loftiest, the most admirable and the most plausible that mankind has hitherto known.’ (P.57) 

अर्थात् प्राचीन प्रारम्भिक परम्परा के सम्बन्ध में यह सत्य है कि ये उक्तियाँ और आदेश अत्यन्त अवलिोकित, सर्वोत्कृष्ट सर्वाधिक प्रशंसनीय 

और सबसे अधिक युक्तियुक्त हैं जिनका मनुष्यों ने अब तक ज्ञान प्राप्त किया है। 

इस परम्परा का अनुसरण करते हुए मैटर्लिक ने वेदों को ज्ञान का विशाल भण्डार माना है जिनको मानव सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकाशित किया गया। उनके शब्द ये हैं- “This traditionattribute to the vast reservoir of the wisdom that some where took shape simultaneously with the origin of man to more spiritual entitles, to beings less entangled in matter.” 

(‘The Great Secret’ by Materlink Prologue P.6) 

सुप्रसिद्ध दार्शनिक मैटर्लिंक के इन विचारों से सामाजिक विकासवाद का भी पूर्णतया खण्डन हो जाता है क्योंकि यदि सबसे प्राचीन वेदों की कर्तव्यादि विषयक शिक्षाएं सबसे अधिक उत्कृष्ट, प्रशंसनीय और यक्ति-युक्त हैं तो फिर सामाजिक विकासवाद के लिये कहाँ स्थान रह 

डॉ० जेम्स स्वयं सपत्नीक इस वैदिक आदर्श से इतने प्रभावित हरा कि वे कुलपति जयराम नाम रखकर वैदिक आदर्शों के अनुसार अपने जीवन को बनाने का निरन्तर यत्न करते रहे। रूस के जगद्विख्यात् ताल्स्ताय की वेदों पर श्रद्धाः 

रूस निवासी लियो ताल्स्ताय जगत्प्रसिद्ध विचारक और लेखक थे जिनकी शताब्दी इस वर्ष संसार के सब प्रदेशों में श्रद्धापूर्वक मनाई गई। अलेक्जेण्डर शिफ़मान नामक ताल्स्ताय संग्रहालय के अनुसन्धान विद्वान् ने ‘Leo Tolstoy and the Indian Epics’ शीर्षक का जो लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपवाया है उसके निम्नलिखित उद्धरणों से लियो ताल्स्ताय की वेदों पर श्रद्धा प्रकट होती है। शिफ़मान ने लिखा है 

“Leo Tolstoy was deeply interested in ancient Indian literature and its great epics. The themes of the Vedas were the first to attract his attention.” 

“Appreciating the profoundity of the Vedas, Tolstoy gave particular attention to those cantos which deal with the problems of ethics, a subject which interested him deeply. He subscribed to the idea of human love which pervades the Vedas, with their humanism and praise of peaceful labour. Tolstoy the artist was moreover delighted with the poetic treasures and artistic imagery which distinguish those outstanding Indian epics.” 

“He (Tolstoy) ranked the Vedas and their later interpretations—the Upanishads—with those perfected works of world art which have never failed to appeal to all nationalities in all epochs and which therefore represent true art.” 

“Tolstoy not only read the Vedas, but also spread their teachings in Russia. He included many of the sayings of the Vedas and the Upanishads in his collections ‘Range of Reading’,’Thoughts of wise men’s and others.” 

दन उद्धरणों का तात्पर्य यह है कि भारत के प्राचीन साहित्य और महाकाव्यों के प्रति लियो ताल्स्ताय गहरी दिलचस्पी रखते थे। वेदों की विषयवस्तु ने सर्वप्रथम उनका ध्यान आकृष्ट किया। ताल्स्ताय वेदों के 

गम्भीर ज्ञान पर मुग्ध थे। वे वेदों के उन भागों पर विशेष ध्यान देते थे जिनका सम्बन्ध आचार शास्त्र सम्बन्धी समस्याओं से है। यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी प्रगाढ़ रुचि थी। वेदों में व्याप्त मानवीय प्रेम के सिद्धान्त के, मानववाद तथा शान्तिमय श्रम की प्रशंसा के वे समर्थक थे। कलाकार ताल्स्ताय इन अग्रगण्य भारतीय रचनाओं की काव्यनिधि और कलात्मक उपमाओं पर आनन्दविभोर थे। वे वेदों तथा उनके बाद के भाष्य-उपनिषदों को विश्वकला की उन सर्वांगपूर्ण रचनाओं की कोटि में मानते थे जिन्होंने सभी युगों में समस्त जातियों का हृदय बरबस आकृष्ट किया है। इसलिए वे उन्हें सच्ची कला का प्रतीक मानते थे। ताल्स्ताय ने न केवल वेदों को पढ़ा; वरन् उनकी शिक्षाओं का रूस में प्रचार प्रसार भी किया। उन्होंने वेदों और उपनिषदों की अनेक सूक्ति का संग्रह ‘पठन विस्तार तथा बुद्धिमानों के विचार’ शीर्षक से किया; इत्यादि। इस प्रकार वेदों की शिक्षाओं ने ताल्स्ताय जैसे जगद्विख्यात मनीषी  को कैसे प्रभावित किया यह स्पष्टतया ज्ञात होता है। 

मेरे लिये यह प्रसन्नता और गौरव की बात है कि ताल्स्तय तक वेद विषयक शिक्षाओं को पहुँचाने का श्रेय जैसे कि इस उपरिनिर्दिष्ट लेख में श्री शिफमान ने भी बतलाया है गुरुकुल काङ्गडी के आचार्य और वैदिक मेगजीन के सम्पादक प्रो० रामदेव जी को है जो वैदिक मेगजीन नामक अपनी मासिक पत्रिका ताल्स्ताय के पास नियमित रूप में भेजते रहते थे और जो ताल्स्ताय के मित्र के रूप में उनके साथ पत्र-व्यवहार 

करते रहते थे। वेद और उपनिषत् आत्मा के हिमालय के समान 

श्री जे० मास्करो एम० ए० ने ‘Himalayas of the Soul’ नामक एक संग्रहात्मक पुस्तक का सम्पादन किया है। इसमें उन्होंने वेद, उपनिषत् और गीता को आत्मा के हिमालय के साथ उपमा देते हुए लिखा है 

“If a Bible of India were composed, if Sanskrit could find 

a group of translators with the same feeling for beauty of language and the same love for the sacred texts in the originals as the Bible has found in England, eternal treasures of old wisdom and poetry would enrich the times of today 

Among those compositions, some of them living words before writing was introduced, the Vedas, the Upanishads and the Bhagavad Gita would rise above the rest like Himalayas of the spirit of man.” 

(‘The Himalayas of the Soul’ by J.Mascaro M.A. P.151) 

अर्थात् यदि भारत की कोई बाइबिल संकलित की जाती, यदि संस्कृत भाषा के लिए ऐसे ही श्रद्धालु और योग्य अनुवादकों का वर्ग मिल जाता जिनका ध्यान भाषा-सौन्दर्य पर उतना होता और मूल के पवित्र मन्त्रों के साथ वैसा ही प्रेम होता जैसा कि इंग्लैण्ड में बाइबिल को प्राप्त हो गया तो प्राचीन बुद्धिमत्ता वा ज्ञान तथा कविता के नित्य कोषों से वर्तमान युग समृद्ध बन जाता। 

उक्त रचनाओं में से कई ऐसी हैं जो जीवित जागृत शब्द बन चुके थे पूर्व इसके कि लेख का प्रयोग प्रारम्भ होता। इनमें से वेद, उपनिषदें 

और भगवद्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान शेष सबसे ऊपर उठे हुए ग्रंथ होंगे। मि० ब्राऊन नामक अंग्रेज लेख की श्रद्धाञ्जलि

मि० डब्लू० डी० ब्राऊन (W.D.Brown) नामक एक अंग्रेज विद्वान् ने अपने ‘Superiority of the Vedic Religion’ (वैदिक धर्म की श्रेष्ठता) नामक ग्रंथ में वैदिक धर्म के विषय में जो लिखा है वह स्वर्णक्षरों में उल्लेख करने योग्य है। वे लिखते हैं 

It (Vedic Religion) recognizes but one God. It is a thoroughly scientific religion where religion and science meet hand in hand. Here theology is based upon Science and philosophy: 

अर्थात् वैदिक धर्म केवल एक ईश्वर का प्रतिपादन करता है। यह एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है जहाँ धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ 

बातों को नहीं मानता। इसकी यह विशेषता है कि यह प्रत्येक बात में बुद्धि और तर्क को काम में लाने का उपदेश देता है। 

(२) वेदों के महत्त्व का तीसरा प्रधान कारण यह है कि उनमें शारीरिक, मानसिक और स्थायिक सब शक्तियों के समविकास पर 

आत्मिक बल दिया गया है। वेदों के अनुसार यह समविकास ही उन्नति का मूलमन्त्र है। 

मनस्त आप्यायतां वाक् आप्यायतां प्राणस्त आप्यायतां चक्षुस्त आप्यायतां श्रोत्रं आप्यायताम्॥ 

(यजु० .१५) वाङ् आसन् नसोः प्राणश्चक्षुरक्ष्णोः श्रोत्रं कर्णयोः॥ 

अपलिताः केशा अशोणा दन्ता बहु बाह्वोर्बलम्॥ ऊर्वारोजा जङ्गयोर्जवः पादयोः प्रतिष्ठा अरिष्टानि मे सर्वात्मा निभृष्टः॥ (अथर्व० १९.६०..

इत्यादि मन्त्रों में इसी शारीरिक, मानसिक आत्मिक शक्तियों के समविकास का प्रतिपादन और तदर्थ प्रार्थनादि का उपदेश है और इसे ही शिक्षा का प्रधान उद्देश्य बतलाया गया है। 

(४) वेदों के महत्व का चतुर्थ कारण उनमें मध्यमार्ग का प्रतिपादन तथा उनके समन्वयात्मक उपदेश है। संसार में प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य मध्य मार्ग का अवलम्बन न करके किसी न किसी पराकाष्ठा (extreme) पर तुल जाते हैं। उदाहरणार्थ कई पुरुष ऐसे हैं जो केवल वैयक्तिक उन्नति से ही सन्तुष्ट रहते हैं और सामाजिक उन्नति की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते। दूसरे कई ऐसे मनुष्य हैं जो पर्याप्त रूप से अपनी शारीरिक, मानसिक, आत्मिक शक्तियों को विकसित करने का प्रयत्न न करके केवल दूसरों की उन्नति के विचार में ही तत्पर रहते हैं। वास्तव में देखा जाये तो ये दोनों ही आवश्यक हैं। यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में सम्भूति और असम्भूति पदों से आधिभौतिक दृष्टि से समाजिक और वैयक्तिक भाव का वर्णन करते हुए कहा है कि 

अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते। ततो भूय इव ते तमो संभूत्यां रताः॥ 

(यजु० ४०.

ईशावास्यमिदं सर्व, यत् किं जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मागृधः कस्य स्विद्धनम्॥ 

(यजु० ४०.१) इन उत्तम शब्दों में दिया गया है जिनका स्पष्ट अर्थ है कि परमेश्वर संसार की सब वस्तुओं में व्यापक है इसलिए उसकी दी हुई वस्तुओं का तुम त्याग भावना पूर्वक भोग करो। लोभ मत करो। इस बात का विचार करो कि यह धन जिसको तुम अपना समझ कर अभिमान करते हो किसका है? यह वस्तुतः प्रजापति परमेश्वर का ही है। परोपकार के कार्यों में इस धन का अधिक से अधिक उपयोग करते हुए तुम आवश्यकतानुसार ईश्वर प्रदत्त सांसारिक वस्तुओं का उचित उपभोग करो इसमें कोई पाप नहीं है। इससे बढ़कर अधिक उपयोगी और व्यवहारिक शिक्षा क्या हो सकती है? पूंजीवाद और साम्यवाद आदि वादों का उचित समन्वय इसी शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है, अन्यथा नहीं। 

(५) वेदों के महत्व का पंचम कारण उनकी शिक्षाओं का तर्क और विज्ञान सम्मत होना है। इग्लैंड के मनीषी डब्लू० डी० ब्राऊन के इन स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य वाक्यों को मैं पहले उद्धृत कर ही चुका हूँ कि ‘Vedic Religionisa thoroughly scientific religion where religion and science meet hand in hand. Here theology is based upon science and philosophy! 

अर्थात वैदिक धर्म एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है जहाँ धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ मिलाकर चलते हैं। यहाँ धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान और फिलसाफी पर अवलम्बित हैं। 

यह वस्तुतः सत्य है। वेदों में न केवल धर्म का मूल है किन्तु विज्ञान का भी मूल है इस बात को महर्षि दयानन्द जी ने अपने वेद-भाष्यों में दिखाया है। श्री अरविन्द जी जैसे जगद्विख्यात योगी और मनीषी ने महर्षि दयानन्द के इस विचार का इन शब्दों में समर्थन किया for ‘There is nothing fantastic in Dayananda’ idea that Veda contains truth of science as well as truth of religion. I will even add my own conviction that Veda contains the other truths of a science the modern world does not at all possess and in that case, Dayananda has rather understated than overstated the depth and range of the Vedic wisdom.’ 

(‘Dayananda and the Veda’ by Shri Arvindo) अर्थात् ऋषि दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सचाइयाँ पाई जाती हैं कोई उपहासास्पद वा कल्पित बात नहीं है। मैं इसके साथ अपनी धारणा जोड़ना चाहता हूँ कि वेदों में एक दूसरे विज्ञान की सचाइयाँ भी विद्यमान हैं जिनका आधुनिक जगत् को किञ्चिन्मात्र भी ज्ञान नहीं है और ऐसी अवस्था में ऋषि दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गम्भीरता के विषय में अतिशयोक्ति से नहीं अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है। वेदों में विविध विद्याओं का मूल किस प्रकार पाया जाता है इस बात को जो विस्तार से जानना चाहते हैं उन्हें महर्षि दयानन्द के भाष्यों के अतिरिक्त निम्न पुस्तकों का अनुशीलन अवश्य करना चाहिये। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य और निरुक्तालोचनम्, ऐतेरयालोचनम् आदि अनेक ग्रन्थों के विद्वान् लेखक पं० सत्यव्र जी सामश्रमी कृत त्रयीपरिचय, त्रयीचतुष्टय आदि-इसमें उन्होंने अनेक मन्त्रों की विज्ञानपरक व्याख्या की है। 

महाराष्ट्र के विद्वान् श्री नारायणराव पावगी कृत ‘The Vedic Father of Geology‘- इस ग्रन्थ की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि 

“I may take this opportunity to remind the reader, without fear of contradiction, that the Vedas contain many things not yet known to anybody, as they form a mine of inexhaustible literary wealth, that has only partially been opened and has still remained unexplored.” 

(‘The Vedic Fathers of Geology’ Introduction P. vi) अर्थात् मैं बिना किसी विरोध के भय के पाठकों को याद कराना चाहता हूँ कि वेदों में बहुत-सी ऐसी बातें पाई जाती हैं जिनका अभी तक किसी को ज्ञान नहीं क्योंकि वे इस साहित्यिक धन की अक्षय खान हैं जिसका अभी थोड़ा-सा अंश ही प्रकट हुआ है और जो अभी तक अज्ञात ही पड़ा है। 

श्री पावगी के ‘Self Government in Ancient India’- ‘Vedic and Postvedic’ तथा ‘Vedic India’-‘Mother of Parliaments’ नामक ग्रन्थ भी पढ़ने योग्य हैं जिनमें उन्होंने स्वराज्य और प्रजातन्त्र शासन-पद्धति का मूल वैदिक भारत को बताते हुए वेदों के विषय में लिखा है कि 

‘The Veda is the fountainhead of knowledge, the prime source of inspiration, nay, the grand repository of petty passages of Divine Wisdom and even Eternal Truth’ (Vedic India P. 136) 

अर्थात् वेद सम्पूर्ण ज्ञान का आदि स्रोत, ईश्वरीय ज्ञान का प्रधान आधार, इतना ही नहीं, बल्कि दिव्य बुद्धि और नित्य सत्यमय वाक्यों का महान् भण्डार है। __ जीव-विज्ञान वा Biology का मूल वेदों में किस तरह पाया जाता है इसको जानने के लिये पाठक ‘The VedicGods-as Figures of Bilogy’ by Dr.V.G. Rele L.M.ES., EC.P.S. नामक पुस्तक को पढ़ें। 

भौतिकी और रसायन-शास्त्र का मूल वेदों में जो जानना चाहते हैं उन्हें श्री पन्यम् नारायण गौड एम० ए०, बी० एस० सी० ‘Introduction to the Message of the 20th Century’ नामक पुस्तक विशेष रूप से पढ़नी चाहिये जिसके विषय का निर्देश करते हुए लेखक ने लिखा है-‘Proving that theVedas as treatise on the exact Sciences.’ 

अर्थात् इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि वेद शुद्ध विज्ञानों के ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद के विषय में वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते हुए इस ग्रन्थ के लेखक ने लिखा है कि 

“The Rigveda deals with the theorems and experiments, while the process of preparing the reagents and apparatus is recorded in the Yajurveda which is in effect; a laboratory guide.” 

अर्थात् ऋग्वेद वैज्ञानिक सिद्धान्तों और परीक्षणों का निरूपण करता है। जबकि उनक साधनों और उपकरणों के तैयार करने की प्रक्रिया यजुर्वेद में पाई जाती है जो परिणामस्वरूप एक परीक्षणशाला मार्गदर्शक है। 

इनके अतिरिक्त श्री पं० प्रियरत्नजी आर्ष (अब स्वा० ब्रह्ममनि जी परिव्राजक नाम से प्रसिद्ध) कृत ‘वेदों में दो बड़ी वैज्ञानिक शक्तियाँ’ और’बृहद् विमानशास्त्र'(दोनों सार्वदेशिक सभा देहली द्वारा प्रकाशित) श्री हंसराज कृत ‘The Sciences in the Vedas’, पं० बलराम शर्मा कृत ‘विद्याओं का आदि स्रोत’, (प्रकाशक-मुंशीराम मनोहरलाल, नई सड़क, देहली), श्रुतिप्रकाश पुस्तकालय लुधियाना द्वारा प्रकाशित, वेदों के परम भक्त श्री दीवान रामनाथ जी काश्यप द्वारा स्व० श्री पं० जयदेव जी शर्मा विद्या मार्तण्ड के वेदों के भाषानुवाद के आधार पर संकलित वेदों में विज्ञान’२ खण्ड अथवा ‘Science in the Vedas’No. 1-2 (जिसमें पं० जयदेव जी कृत वेद-मन्त्रों के विज्ञान विषयक हिन्दी अनुवाद का अंग्रेजी अनुवाद भी दिया गया है)। जोधपुर के श्री पन्नालाल परिहार B.A. LL. B. कृत ‘Material Scienes in the Vedas’ इत्यादि पुस्तकें भी वेदों में विज्ञान की दृष्टि से पढ़ने योग्य हैं। वेद और विज्ञान पर कुछ पाश्चात्य विद्वान् 

वेदों में विज्ञान के सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के मि० डब्लू० डी० ब्राउन की सम्मति मैं पहले उद्धृत कर चुका हूँ। जैकोलियट नामक फ्रांस देशीय विद्वान् ने जो चन्द्र नगर (फ्रेंच राज्यान्तर्गत भारतीय प्रदेश) में अनेक वर्षों तक चीफ जस्टिस रहे थे अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘The Bible in India’ में ईश्वरीय ज्ञान माने जाने वाले विविध मत-मतान्तरों के ग्रन्थों की वेदों के साथ सृष्टयुत्पत्ति के विषय में तुलनात्मक विवेचना करते हुए बड़े आश्चर्य के साथ लिखा 

“Astonishing fact! The Hindus Revelation (Veda) is of all Revelations the only one whose ideas are in perfect harmony with modern science, as it proclaims the slow and gradual formation of the world.” 

(‘The Bible in India” by Jacolliot Vol II. Chap. 1) अर्थात् कितनी आश्चर्यजनक सचाई है। हिन्दुओं का ईश्वरीय ज्ञान (वेद) ही जो लोकों की मन्द और क्रमिक रचना बतलाता है सब ईश्वरीय ज्ञानों में एक ऐसा है जिसकी कल्पनाएं आधुनिक विज्ञान के 

निकाल दी गई। 

(२) एरियस नामक अलेक्जण्ड्रिया के दार्शनिक पर इस विचार के प्रकट करने पर कि ‘पिता और पुत्र की आयु समान नहीं हो सकती’ (जिसका निर्देश ईसा मसीह और पवित्र पिता या Holy Father की ओर था) ईसाइयों की कौन्सिल की ओर से भीषण अत्याचार किये गये और उसके इस विचार की घोर निन्दा की गई। 

(३) नेस्टर नामक ऐण्टयोक के पादरी को यह युक्तियुक्त विचार प्रकट करने पर कि ईश्वर की कोई माता नहीं हो सकती (जिसका निर्देश ईसा मसीह को ईश्वर मानते हुए उसकी माता मरियम को मानने 

के ईसाई सिद्धान्त की ओर था) देश-निकाला दे दिया गया। 

(४) पैलोगयिस नामक एक अन्य यूनान देशीय दार्शनिक को इस विचार के प्रकट करने पर कि जगत् में मृत्यु आदम के पाप के फल रूप नहीं हो सकती (जैसे कि Original Sin के सिद्धान्त के अनुसार ईसई मानते हैं) सेन्ट ऑगस्टाइन की प्रेरणा से उस समय के ईसाई सम्राट ने देश निकाला दे दिया और उसकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली। 

(५) गैलीलियो नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक को इस बात का प्रचार करने और पुस्तक द्वारा प्रकट करने पर कि पृथिवी गोल है और वह सूर्य के चारों और घूमती है पोप की अध्यक्षता में Inquisition Court अथवा धर्मनिर्णायक समिति ने १० वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड दिया और यह निर्णय इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में प्रकाशित किया 

“The first proposition that the sun is the centre does not revolve around the earth is foolish, absurd, false in theology and heretical, because contrary to the Holy Scriptures.” 

अर्थात् गैलीलियों द्वारा प्रतिपादित यह विचार कि सूर्य केन्द्र है और वह पृथिवी के चारों और नहीं घूमता मूर्खतापूर्ण, वाहियात, मत सिद्धान्त की दृष्टि से एकदम मिथ्या है क्योंकि यह हमारे धर्म-ग्रंथ (बाइबल)की शिक्षा के सर्वथा विरुद्ध है। 

“And the second proposition that the earth is not the centre but revolves about the sun is absurd, false in philosophy and from a theological point of view at least opposed to the true faith.” 

दूसरा विचार कि पृथिवी केन्द्र नहीं प्रत्युत सूर्य के चारों और प्रदक्षिणा करती है असङ्गत, फिलासफी के दृष्टिकोण से असत्य और कम-से-कम धर्म सिद्धान्त की दृष्टि से सच्चे धर्म के सर्वथा विरुद्ध है। 

इसीलिये वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार पृथिवी को गोलब ताने वाले गैलीलियों पर बड़े-बड़े अत्याचार किये गये। उसे १० वर्ष की ठिन सजा दी गई जिसके परिणामस्वरूप जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। ब्रूनो नामक एक दूसरे वैज्ञानिक के विरुद्ध भी इसी तरह की कार्यवाही की गई क्योंकि वह पृथिवी को गोल बताता और यह सिद्ध करता था कि अनेक लोक-लोकान्तर हैं। उसे १६ फरवरी १६०० ई० को जीवित अवस्था में ही तेल छिड़क कर जला दिया गया। ऐसे ही अत्याचार अन्य अनेक दार्शनकों और वैज्ञानिकों पर किये गये। 

(६) वेदों के महत्व का षष्ठ कारण उनमें विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है। वेदों में अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण, यम आदि नामों से प्रधानतया उस एक परमेश्वर का ही प्रतिपादन किया गया है इसे 

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः॥ 

(ऋ० .१६४.४६) यो देवानां नामधा एक एव॥ (ऋ० १०. ८२.

इत्यादि में स्पष्ट बतलाया है जिनका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी लोग उस एक परमेश्वर को ही उसके अनेक गुणों को सूचित करने के लिये अनेक नामों से पुकारते हैं। देवों के इन नामों का धारण करने वाला वह एक ही परमेश्वर है। 

द्यावा भूमी जनयन, देव एकः।। (ऋ० १०.८१

धुलोक (आकाश) पृथिवी आदि लोकों का उत्पादक वह एक ही देव है। 

एक इद् राजा जगतो बभूव।। (० १०.१२१.४) परमेश्वर ही सारे जगत् का एक राजाधिराज है। एक इत् तमुष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणिः। पतिर्जज्ञे वृषक्रतुः। 

(ऋ० .५१.१६

अर्थात् जो एक ही सब मनुष्यों का ठीक-ठीक देखने वाला सर्वज सुखों की वर्षा करने वाला, सर्वशक्तिमान् सबका स्वामी है हे मनष्य। तू सदा उसकी स्तुति कर। 

माचिदन्यद् विशंसत सखयो मारिषण्यत। इन्द्रमित् स्तोता वृषणं सचासुते, मुहुरुक्या च शंसत॥ 

(ऋ० ८.१.१ साम) हे मित्रो! परमेश्वर को छोड़ कर किसी अन्य की स्तुति मत करो। ऐसा करके दु:ख मत उठाओ। एकान्त में और यज्ञादि के अवसरों में सामूहिक रूप में सुख-शान्ति के वर्षक उस एक परमेश्वर की ही स्तुति बार-बार करो। 

एक एव नमस्यो विश्वीड्यः(अथर्व० ..) एक एव नमस्यः सुशेवाः(अथर्व० ..) 

वह एक परमेश्वर ही प्रजाओं द्वारा पूजनीय और नमस्कार करने योग्य है क्योंकि वही उत्तम सुख का प्रदान करने वाला है इत्यादि मन्त्रों द्वारा वेद विशुद्ध रूप में एक ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना, उपासना का प्रतिपादन करते हैं जिसका स्वरूप इन शब्दों में बताया गया है कि पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपाप विद्धम्। 

कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथा तथ्यतोऽर्थान् व्यदध च्छिाश्वतीभ्यः समाभ्यः(यजु० ४०.) 

__ अर्थात् ज्ञानी उपासक उस परमेश्वर को प्राप्त करता है जो सर्व शक्तिमान्,सर्वथा निराकार, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, निर्विकार, शुद्ध,पाप रहित, सर्वज्ञ, मन का साक्षी, सर्वव्यापक और स्वयंभू है और जो जीव रूप नित्य प्राजाओं के कल्याण के लिये यथार्थ रूप से पदार्थों का निर्माण करता और वेद द्वारा उनका ज्ञान देता है। 

वैदिक ईश्वरवाद पर मैंने आर्य कुमार सभा किंग्सवे कैम्प द्वारा प्रकाशित ‘वैदिक ईश्वरवाद और वर्तमान विज्ञान’ नामक लघु पुस्तक में विचार किया है और उसके समर्थन में सर आइजक न्यूटन, सर आलिवर लाज, लौर्ड केल्विन्, लुई पैश्चर, थौमस ऐडीसन् मास्टरमैन, आइन्स्टीन् आदि सुप्रसिद्ध पाश्चात्य वैज्ञानिकों और चार्ल्स कोलमैन, कॉन्ट जान्सजर्ना, श्लीगल, मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वानों के वचनों को भी वहाँ उद्धत 

किया है।अतः जो इस विषय में वेद की शिक्षा को जानना चाहते हैं उन्हें उस लघु पुस्तक को पढ़ना चाहिये। बाइबल, कुरान आदि में जो ईश्वर का स्वरूप बताया गया है वह सातवें वा चौथे आस्मान में रहने वाला, मनुष्यों के समान अज्ञान, क्रोध, ईर्ष्या आदि से युक्त है, उसके साथ ही ईसा मसीह अथवा मुहम्मद साहेब में विश्वास मुक्ति के लिये अनिवार्य माना गया है|अतः उसे विशुद्ध एकेश्वरवाद का नाम नहीं दिया जा सकता। वस्तुतः विज्ञान और तत्वज्ञान (फिलासफी)ऐसी ही परमेश्वर की नरवत् कल्पना (Anthropomorphic Conception of God) का खण्डन करते हैं, ईश्वर की सत्ता का नहीं यह भी वहाँ बताया जा चुका है। 

(७) वेदों के महत्व का सप्तम कारण उनकी शिक्षाओं की सार्वभौमता और निष्पक्षता और ओजस्विता है। वेद 

दृतेदृहमा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। 

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे, मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे(यजु० ३६.१८

इत्यादि मन्त्रों के द्वारा सब प्राणियों को मित्र की प्रेममय दृष्टि से उपदेश करते हैं। इसी विश्वबन्धुत्व की भावना से ही विश्व शान्ति की स्थापना हो सकती है। उनकी निष्पक्षपात शिक्षा यह है कि 

“प्रिय! सुकृत प्रिय इन्द्रे मनायुः प्रियः सुप्रादी: प्रियो अस्य सोमी॥’ (ऋ० .२५.) 

अर्थात् भगवान् का प्यारा वह होता है जो (सुकृत) सदा अच्छे काम करने वाला है। जो (मनायुः) मननशील अथवा विचारशील है (प्रियः सुप्रावी:) वह परमेश्वर का प्यारा होता है जो उत्तम रीति से सब प्राणियों की रक्षा करने वाला होता है और जो (सोमी) स्वयं शान्तियुक्त होकर शान्ति का प्रसार करने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति ही भगवान् का प्रिय होता है फिर वह चाहे किसी देश वा स्थान का हो। वेदों की इन सर्वभौम निष्पक्षपात शिक्षाओं की जब मत-मतान्तरों की संकुचित साम्प्रदायिकतापूर्ण शिक्षाओं के साथ तुलना की जाती है तो आकाश पाताल का अन्तर प्रतीत होता है। 

विस्तार भय से वेद और वैदिक धर्म की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए मैं एक स्वनिर्मित गीत के द्वारा उपसंहार करना उचित समझता हूँ। इसमें उपरिनिष्ट वेदों के महत्व के कारणों और विशेषताओं के अतिरिक्त अन्य भी बहत-सी बातों का निर्देश कर दिया गया है। आर्य नर-नारियाँ तथा आर्य कुमार-कुमारियाँ सब इस वैदिक धर्म गीत को स्वयं प्रेमपूर्वक गावें तथा औरों को भी सिखावें तो इससे उनको वैदिक धर्म के तत्वों और विशेषताओं को समझने में सहायता मिलेगी। इस अत्यन्त महत्वपूर्ण युक्तियुक्त विज्ञानसम्मत वैदिक धर्म के अनुसार आचरण करना और वेदों का प्रतिदिन स्वाध्याय करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है। 

वैदिक धर्म गीत वैदिक धर्म हमारा अनुपम, वैदिक धर्म हमारा। यह है जिसने लाखों लोगों, को है जग में तारा।।१।।

एकेश्वर पूजा सिखलाता, भेद भाव को दूर भगाता। प्राणिमात्र से प्रेम बढ़ाता, प्राणों से बढ़कर के प्यारा।।२।।

 ज्ञान कर्म शुभ भक्ति मिलाता, श्रद्धा मेधा मेल कराता। अन्धकार को दूर हटाता, है यह हृदय उजारा।।३।।

बुद्धि विरुद्ध नहीं कुछ इसमें, व्यष्टि समष्टि मेल है इसमें। त्याग भोग मिल जाते इसमें, मत पन्थों से न्यारा।।४।।

सब हैं ईश्वर-पुत्र समान, कल्पित ऊँच-नीच नहिं मान। करो देव का गुणगण गान, वह भवसागर तारनहारा।।५।। 

जो करता है वह भरता है, अटल नियम यह नित रहता है। आत्मा नित्य नहीं मरता है, निर्भय करने हारा।।६।।

यह धर्म है श्रेष्ठ महान्, करता है सबका कल्याण। इसके बिना नहीं उत्थान, यह है शुभ उन्नति का द्वारा।।७।।

समझो सबको मित्र समान, गुण कर्मों के कारण मान। कर लो वेदामृत का पान, जो सन्ताप विनाशनहारा।।८।। आओ आर्य बनें हम सारे, कर्तव्यों के पालनहारे। प्रभ विश्वासी कभी न हारे, जिसने सबका दु:ख निवारा।।९।।

बनें आर्य जग आर्य बनावें, न्याय सत्य अनुराग बढ़ावें। सच्चे ईश्वर-पुत्र कहावें, ‘सत्य धर्म की जय’ हो नारा।।१०।। 

-धर्मदेव विद्यामार्तण्ड (देवमुनि वानप्रस्थ) 

मन्त्र व्याख्या : पण्डित चमूपति जी

गत पृष्ठों में यज्ञ के प्रत्येक अङ्ग को आध्यात्मिक विचार किया गया है। इसका अभिप्राय कहीं यह समझा जाय कि विना कुण्ड तथा वेदी बनाए, तथा आहुति दिये, काल्पनिक कुण्ड में काल्पनिक यज्ञ किया जा सकता है। मानसिक हवन की स्थिरता क्रियात्मिक हपन के बिना नहीं हो सकती। भारतीय विचार शैली में यह बड़ा दोष है कि मन की एकाग्रता के बहाने वास्तविक संसार से आंखें मूंद लेते हैं। मन का संयम अलौकिक अभ्यास है। यह भारत की पैतृक पूंजी है इसे त्यागने की आवश्यकता नहीं। किन्तु अलौकिक से लौकिक बनाने की आवश्यकता है संसार से सम्बद्ध सर्वोत्तम समाधि है। 

___आगामी पृष्ठों में हम उन मन्त्रों की व्याख्या करेंगे जिन से नित्य का हवन किया जाता है यह हवन करते हुए उप र्युक्त तत्व का दर्शन करना वास्तविक तत्त्वदर्शन है। इसके बिना भौतिक जीवन सिद्ध होगा तत्त्वदर्शन ही हो सकेगा। बिना माया के ब्रह्म भी भ्रम मात्र रह जायगा। 

विधि :आर्यसमाजियों को हवन दूभर हो रहा है। किसी को समय के आभाव से वाधा है किसी को धन के व्यय का भ्रम है। वास्तव में यह दोनों भ्रम काल्पनिक हैं। जितना अग्नि होत्र न्यून से न्यून करने की विधि है, उस में तो कोई पांच सात मिनट समय और कोई डेढ़ छटांक भर सामग्री वाञ्छित पञ्चमहायज्ञ विधि तथा ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में प्रातः काल के लिए चार विशेष आहुतियांसूर्योज्योतिःइत्यादि मन्त्रों से और सायंकाल की चार विशेष आहुतियांअग्निोतिइत्यादि मन्त्रोंस और पांच दोनों समयकी सामा न्य आहुतियां भूरग्नयेइत्यादि मन्त्रों से देनी लिखी हैं। इन के अतिरिक्त पूर्णाहुतियां होती हैं। 

अतः एक समय दोनों समयों का हवन करते हैं उनके लिए सारी मिल कर सोलह आहुतियां और जो दो समय हवन करने हैं उनके लिए सारी २४ आहुतियां हुई इसमें बहुत व्यय लगता है समय आहुति का परिमाण हव्य तथा धत मिला कर माशे है। (देखो सत्यार्थप्रकाश बारहवीं आवृत्ति पृ. ३६) जो इससे अधिक समय देशके और खर्च को सामर्थ्य रखता हो वह आचमन अङ्गस्पर्श, अग्न्याधान, जल सिञ्चन तथा आधारावाज्याहुतियां दे। __ और समय हो तो ईश्वरस्तुति, स्वस्ति वाचन, शान्ति पाठ कर लिया करे इससे बढ़ेतो सारे वेद मन्त्रों को स्वाहान्त कर के आहुतियां दे सकता है। 

हवन का समय सूर्योदय से पीछे और सूर्यास्त से पूर्व है। यदि किसी कारण से सायंकाल हवन का समय अतिवाहित हो जाय तो मन्त्रों का उच्चारण तो अवश्य करले जिससे नियम टूटने पाए और अग्निप्रदीप्तन करें। इस में कीड़ियां गिरेंगी तो पाप होगा। अग्नि सामूहिक हवन हो तो यज्ञशाला में बैठने का नियम यह है। 

यज्ञ के उपकरण तथा उन का प्रयोग 

(पञ्च महायज्ञ विधि से उद्धृत) इसका आचरण इस प्रकारसे करनाचाहिये कि सन्ध्यो पासन करने के पश्चात् अग्निहोत्र का समय है इसके लिये सोना, नांदो, ताम्बा, लोडा वा मट्टो का कुण्ड बनवा लेना चाहिए जिला परिम १६ अंगुठ बौड़ा, १६ अंगुठ गहरा और उसका नका चार अंगुल लम्मा चोड़ा रहे एक नमसा समिधा के लिए रख ले। पुनः वृत को ग म कर छान लेवे। और १ सर घो मे एक रत्ता कस्तूरी एक मास केमा पोस के मिला कर उक्त पात्र के तुल्य दूसरे पात्र मे रख छाई । जब अग्निहोत्र को तब शुद्ध स्थान में बैठ कर पूर्वोक्त मामग्री पास रख लेवे जठ के पात्र में जल और घो के पात्र में एक छटांक वा अधिक जितना सामर्थ्य हो उतने शोये हुए घो का निकाल कर अग्नि मे तपा कर सामने रख लेवे पुनः उन्हीं पलाशादि वा चन्दनादि लकड़ियों को वेदी में रख कर उन में आग धर कर पंखे से प्रदीप्त कर एक २ मन्त्र से एक २ आहुति देता जाय। जिसको दण्डी १६ अंगुठ और उसके अग्रभाग मैं गंगूठा की यव रेखा के प्रमाण से लम्बा चौड़ा आचमनी के समान बनवा लेवे सो भी सोना नांदी पलाशादि लकड़ी का हो एक आज्य स्थाली अर्थात् घृतादि सामग्री रखने का पात्र सोना, चांदी व पूर्वोका लकड़ी का बनवा लेवे । एक जल का पात्र तथा एक चिमटा और पलाशादि की लकड़ी 

  • अमृतपान

 . ओ३म् अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा

अर्थः-(ओ३म्) हे परमात्मन् आप (अमृतउपस्तरणम्) अमृत के फैलाने वाले ( असि) हैं (स्वाहा) यह वाक्य सुन्दर है। इस मन्त्र से एक आचमन करे 

प्रोम् अमृतापिधानमसि वाहा

अर्थः ( ओ३म् ) हे परमात्मन् ? आप ( अमृतापि धानम् ) अमृत के धारण करने वाले ( असि) हैं । ( स्वाहा।) यह वाक्य कल्याण कारी है इस मन्त्र से दूसरा आचमन करे  

. ओ३म् सत्यं यशः श्रीमयि श्रीः श्रयताम् स्वाहा

तैत्तरी प्र० १० अनु० अर्थः-(ओ३म्) हे परमात्मन् ! ( सत्यं ) सच ( यशः) यश (श्रीः) शोभा और ( श्रीः धन (मय) मुझे (श्रयताम्) प्राप्त हों। (स्वाहा) यह वाक्य ठीक प्रकार कहा गया। इससे तीसरा आचमन करे। आचमन से अभीष्ट शान्ति होती है सो तोन प्रकार की है आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबन्धिनी, आधिदैविक अर्थात् इन्द्रियों तथा मनसे सम्बन्धिनी और आधिभौतिक अर्थात् भौतिक जगत् तथा शरीर संबन्धिनी। तीन वार आचमन इसी लिये करते हैं कि एक करके तीनों प्रकार की शान्ति का ध्यान तथा प्रार्थना की जाए। अमृत का अर्थ यहां आनन्द है परमात्मा आनन्द स्वरूप है। सारे संसार को आनन्द देने वाले हैं आनन्द धाम हैं। सब आनन्द उन्हीं के आश्रय हैं। संसार का विस्तार उन का यश है। उनकी शोभा तथा कीर्ति अणु के मुखसे गान की जारही है । वह शोभा दिखाये की नहीं। उसका आधार सत्य है। तभी तो वह आनन्ददायिनी है। ___ परमात्मा के उन गुणों का गान करते हुए मनुष्य अपने लिये आनन्द का संचय करता है परमात्मा को अमृत का पुंज कह कर अमृत का घोंठ चढ़ाता है जल शान्ति प्रद औषध है। शारीरिक रोगों का शमन, मानसिक विकारों का दमन तथा आत्मा परमात्मा का सम्मेलन जल द्वारा ही होता है। शारीरिक लाभ तो पानी के इतने हैं कि वेद कहता है 

अप्स्वन्तर्विश्वानि भेषजः। __

 अर्थात् पानी में सब औषध हैं। यह जलचिकित्सकों की धारणा है । मानसिक रोग क्रोध, कृश, काम आदि भी जल ही से शान्त होते हैं। दो घोंट ठंडे जल के पान तथा हस्त पाद प्रक्षालन से सब विकार ठंडे पड़ जाते हैं। इससे भी सन्तोष हो तो सबही उपद्रवों को मिटा देता है  

परमात्मा का स्मरण कराने का जल ने मानो ठेका लिया है। और किसी समय ध्यान आये, जहां दो चुल्लू पानी सिर पर पड़ा, वहीं परमात्मा का पुनीत नाम जिह्वा पर  गया। 

अमृतपान का रस वस्तुतः अमृत होना चाहिये अर्थात् उस में कोई मल तथा अशुद्धि नहीं । कुर्षों में चावल तथा आटे के पिंड डालने की प्रथा अनीव कुत्सित है। इससे जल जहां दुर्गन्धियुक्त होना है , यहां रोग के किमियों का कोड़ा स्थल वन जाता है। पानी उबार का ठंडा कर लिया जाए तो 

बहुत लाभकारी है। 
२ अङ्ग स्पर्श

  • अओ३म् वाड्म आस्येऽस्तु

अर्थः – (ओ३म् ) हे नाच -पो। ( वाक् ) वोलने की शक्ति ( मैं ) ( मेरे ) ( भास्ये ) मुख में ( अस्तु ) हो। 

  • प्रो३म् नसो, पणो अस्तु

अर्थः- ओ३म् ) हे प्राणेश्वर ! ( मे ) मेरे ( नसोः) नथनों में (प्राणः ) प्राण ( अस्तु ) हो । 

ओ३म् अक्षणोर्मे चक्षरस्तु

अर्थ:-( ओ३म् ) हे सर्व द्रष्टः ! (मे) मेरे (अक्षणोः) आंखों में ( चक्षुः ) देखने की शक्ति ( अस्तु ) हो। 

ओ३म् कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु

अर्थः-(ओ३म् ) हे सर्व श्रोतः ! ( मे ) मेरे (कर्णयोः ) कानों में (श्रोत्रम् ) सुनने की शक्ति (अस्तु) हो। 

5 ओ३म् वाह्वोर्मे बलमस्तु

अर्थः-(ओ३म् ) हे महाबलिन् ! ( मे ) मेरे ( बाह्वोः ) बाहुओं में (बलम् ) बल ( अस्तु ) हो। 

ओम् ऊर्वोर्म प्रोजोऽस्तु। 

अर्थः-(ओ३म् ) हे महौजस्थिन् ! ( मे ) मरी (ऊर्वोः ) जंघाओं में ( ओजः) ओज ( अस्तु) हो । 

ओ३म् अरिष्टोनि मे ऽङ्गोनि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु। 

अर्थः — ( ओ३म् ) हे गेग विनाशक ! ( में ) मेरे (अङ्गानि) अङ्ग (अरिष्टानि ) अटूट विकार राहत तथा ( मे ) मेरे (तनूः) नीनों शरीर ( तन्त्रा मह ) फैलाव वाले ( सन्तु ) हों। 

बाई हथेली में जल लेकर दाए हाथ की मध्यमा अर्थात् बीच पालो अंगुली और अनामिक अर्थात् उसके साथ वाली अंगुली को उन जल से भिगोने साप और जिस अंग का नाम मन्त्रों में आए, उसे छूने जाएं । अन्तिम मन्त्र में सब अंगों का नाम आया है। उसे पढ़कर जल देह पर छिड़कें। 

अंगरूप में बल का यानना होतो है अन्तिम मन्त्रमें “अरि टानि” तथा ‘तन्य स: शब्दों से अंगों को नैरोग्य तथा फैलाव स्पष्टतया मांगा है। 

मुख्य अंगों का उल्लेख कर सारे शरीर के लिए बल की याचना की है हम ने संध्या रहस्य में जताया है कि प्रार्थना  प्रतिक्षा है जो वस्तु परमात्मा से मांगी जाए उसकी उपलब्धि का स्वयं यत्न करना है मन्त्रों के पीछे स्वाहा का यही तात्पर्य है। जो बात कह कर कार्य में लाई जाए वह ठीक प्रकार नहीं कही गई वह स्वाहा नहीं। 

_ सन्ध्या रहस्य में उन साधनों का विस्तृत वर्णन आया है जिनके प्रयोग से अंग पुष्ट होते हैं। पाठक को उस पुस्तक का अंग स्पर्श प्रकरण अवश्य पढ़ लेना चाहिए ___ जल लगाने का अभिप्राय शुद्धि की प्रार्थना है। बल के साथ अंगों की निर्मलता तथा इन्द्रियों की वृत्ति की निर्दो पता आवश्यक है। देखो सन्ध्या रहस्य का मार्जन प्रकरण  

. अग्निप्राधान भों भूभुवः स्वः गोभिल गृ. प्र.१। खं. १सू. ११ 

अर्थ🙁ओ३म् ) परमात्मा (भूः) प्रणस्वरूप अर्थात् जगत के जीवन के हेतु (भुवः) अपान अर्थात् मल नाशक (स्वः) और सुखवर्धक तथा तेजः प्रसारक हैं। अग्नि में भी गौणरूपेण यह गुण है। 

यह शब्द कह कर कपूर में अग्नि लगावे। 

. ओ३म् भूर्भुवः स्वोरिव भूना पृथिवीव रिम्णा तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निम 

नादमन्नाधायाधे यजुः . 

अर्थः-( ओ३म् ) परमात्मा (भूः ) जगत्प्राण (भुवः) दुःख नाशक ( स्वः ) सुखस्वरूप ( भूम्ना) बड़ाई में अर्थात् व्यापकता में ( द्यौः ) आकाश (इव ) जैसा और ( वरिम्गा) धारण धर्मरूप श्रेष्ठना में ( पृथिवी ) पृथिवी (इव ) जैसा है। परमात्मा की व्यापकता तथा धारणारुप शक्ति को आकाश तथा पृथिवी की उपमा देकर यहीं तक परिमित नहीं किया किंतु उस की सर्वव्यापकता के ध्यान का सूधा मार्ग बत.या है जैसे आकाश अर्थात् स्थान अपने बीच रहने वाले अणुओं में भी व्यापा हुआ है। ऐसे ही परमात्मा ब्रह्माण्ड भर में विद्यमान है। उस की सत्ता सब सत्ताधारियों में है और वह स्वरूप से उन से पृथक् नहीं है। 

(पृथिवी ) हे पृथिवी ( देवयजनि ) देवताओं की यज्ञ वेदि (तस्या) उस (ते ) तेरी ( पृष्ठे ) पोठ पर ( अन्नादम् ) अन्न अर्थात् हव्य खाने बाले ( अग्निं ) अग्नि को ( अन्नाधाय ) खाने योग्य अन्न के लिये ( आधे ) स्थापित करता हूं। 

संसार रूपी यज्ञ की वेदी पृथिवी है। उस पर ब्रह्माण्ड भर की दिव्य शक्तियां यज्ञ करती हैं। वायु तथा अग्नि, सूर्य, तथा चन्द्रमा किरणों के चभसों से यथा सामर्थ्य आहुति दे रहे हैं। देवों के देव परमात्मा इस यज्ञ के ब्रह्मा हैं। उस महा यज्ञ का छोटा रूप यजमान का यज्ञ है जो यह यज्ञ करते हैं, वह भी देव हैं अर्थात् सज्जन, ईश्वरानुरागी। 

अग्नि का काम है यज्ञ को खा लेना। इस की चारों और लपकती जिहवाओं को देखो । क्षण भर में सारी सामग्री को भस्म करती हैं। ऐसे उदरंभर को उद्दीप्त करने और उसे घृतोपहार देने की आवश्यकता? कहते हैं ‘अन्नाद्याय’ खाने योग्य अन्न की प्राप्ति के लिये ऐसा किया जाता है। अग्नि सत्ययुगी ब्राह्मण है । अपने लिये कुछ नहीं खाता । जो खाता है उस से दसगुणा संसार को देता है । वायु में औषधियों का रस पहुंचा कर नैरोग्य का विस्तार करता है । .व्य को मेघमिश्रित कर आनन्दप्रद वृष्टि करता है। आकाश में उष्णता लाकर वनस्पति की वृद्धि करता है। अग्नि के मुख में डाला हुआ अन्न तो यों समझो कि ऊर्ध्वमुखी पृथिवी में बीज हो छिड़का है। 

कोई कहेगा इतने बड़े आकाशमें हव्य की मुट्ठा स्वाहा हुई, न जाने कहां लुप्त हो जाएगो । कहते हैं- परमात्मा भी विस्तृति आकाश के साथ २ है । किया कर्म और छिड़का बीज निष्फल न होगा ।न पृथिवा उस को पचा सकती है भाकाश उड़ा सकता है। – 

– 

अग्निप्रबोध ओ३म् उध्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वामि ष्टापूत्ते सृजेथामयं अस्मिन्त् सधस्थ अध्युतरस्मिन् विश्वदेवा यजमानश्च सीदत  

य० १५॥ ५४॥ 

(औ३म् ) परमेश्वर को साक्षी कर (अग्ने ) हे विद्वान् उद्घध्यस्व ) उठ ( प्रतिजागृहि ) जाग ( त्वम् )तू (च) और (अयं) यह अग्नि (इष्टापूर्त) यश कर्म मे ( ससजेथाम् ) मिलो। ( अरिमन् ) इस उत्तरस्मिन् ) उत्तम (सधस्थे) यज्ञ स्थान में (विश्वे) सब (दवा) विद्वानो! ( अधिसीदन) मान पूर्वक बैठो। 

नालल्य त्याग का अनुपम उपदेश है अग्नि सजग है। उसे प्रमाद नरें। वह यज्ञ करने में तन्द्रारदित है। यजमान को भी नन्दारहित होजाना चाहिये उत्साह शन्य हृदय राख की मुट्ठः । अग्नि के साथ गना अपो में अग्निप्रदीप्त करना है। भले कामों में आलस्य अपनी सत्ता का नाश है। 

___संसार यज्ञ का स्थान है। वेद करता हैईशावास्य मिदं सर्वम् । य: सब ईघर के रहने योग्य है । संसार का त्याग मूगता है। ऐसा सुन्दर स्थल करां है। देवता कार्य क्षेत्र में आन हे । दान । वचार है वहाने से काम करने से भागते हैं  

मनुष्य की स्थिति इस जगत् में गौरव की स्थिति है। हम यहाँ आत्माविकार से सते हे । जहां मान नही, वह जीवन नही गिड़गिड़ाने तथा शिर झुका कर बठने वाले यज्ञ नहीं किया करते आत्माभिमान छोड़ कर आत्मा की रक्षा नहीं होता। यज्ञ की बैठक ही संसार में विचरने की विधि का उपदेश देती है। 

यह शिक्षा तो स्वतः ही होगई कि यज्ञ का स्थान सुहा वना होना चाहिये कहा भी तो हैयह स्थलउत्तरहै अर्थात् अच्छा जहां संसार को देवों का यज्ञ स्थल समझना है, वहां अपनी यज्ञशाला को तो देव भूमि बनाए विना यश यश ही नहीं रहता। 

. समिदाधान

. मो३म् भयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेने ध्यस्व वर्धस्व चेद्धवर्धय चास्मान् प्रजया पशुभि ब्रह्मवर्चसेनानायेन समेधय स्वाहा इदमग्नये जातवेदसे इदन्नमम  

इस मन्त्र से एक समिधा जो घी में भिगो रक्खी हो भग्नि में डालो। 

(ओ३म् ) हे परमात्मन् ( जातवेदः) उत्पन्नों में वि धमान अग्निवत् प्रकाशक परमेश्वर ! (अयं) यह मेरा (आत्मा) आत्मा (ते) तेरे लिये ( इध्मः ) ईधन है । (तेन) उससे (इध्यस्व ) प्रदीप्त हो (वर्धस्व ) बढ़, () और (इद्ध) प्रदीप्त कर (वर्धय ) बढ़ा। () और ( अस्मान् ) हमें (प्रजया) प्रजा से ( पशुभिः) पशुओं से ( ब्रह्मवर्चसेन ) ब्राह्म तेज से ( अन्नाद्येन ) खाने योग्य अन्न से (सम्) भली प्रकार ( एधय ) समृद्ध कर ( इदं) यह आहुति (अग्नये) परमेश्वरार्पण है ( इदं ) यह ( मम ) मुझ एक की () नहीं। 

उधर अग्नि में लकड़ी डालते हैं, इधर आत्मा को पर मात्मा के समर्पण करते हैं लकड़ी से अग्नि प्रदीप्त होती है 

और उसे प्रदोत करती है परमात्मा का प्रकाश बढ़ता घटता नहीं। परन्तु प्रकाश का काम क्या जब प्रकाश्य हो। जीवों की गृष्टि से तटस्थ होने पर परमेश्वर का प्रकाश अधिकाधिक प्रकट हाता है। 

ऐसी उच्च वृत्ति के योगी के लिये भी की आत्मा को परमात्मा की ज्योति का ईन्धन बना चुका है, संसार के पदार्थ हेंच नहीं। वह प्रजा मांगता है। ब्रह्मवर्चस् अर्थात् भात्म-ज्ञान और आत्मिक ज्योतिः मांगता है। फिर मांगता हैखाने योग्य अन्न। 

ऋषियों ने यजमान को निरा पेटू नहीं बनाया। किन्तु यह तथ्य अवश्य झलकाया है कि योगी का भी पेट होना है। इसे भी भूख लगती है और उसे भ्रान्ति कह देने से शान्त नहीं होती। 

__ परमात्मा की हम सब प्रजा हैं। तत्स्थं होने का तो सूधा मार्ग यही है कि हम प्रजावान् हों। परमात्मा पशुपति हैं। पाशुपत्य हमारे योग की सिद्धि है वह महावर्चस्वी हैं। हमारी उपासना वर्चस्वी होने में है अन्न के साथ अद्य क्या लिखा, अन्न का यथार्थ रूप बताया रुपया धन नहीं। कागज़ी वस्तु हैं सुवर्ण का वर्ण सुन्दर है परन्तु उदर की तृप्ति इससे भी नहीं होती। वास्ताविक सम्पत्ति है नाज। महँगी के दिनों रुपया होो हुए भा पेट की पूर्ति पूर्णतया नहीं हो सक्तो। उयोग को वह तुओं को बहुतायत सुकाल है और इन्हीं की न्यूनता मात्र ही दुष्कल है। 

यह सब कुछ मांगा हुए भी स्वार्थ बुद्धि नहीं रखी। परमात्मा के लिये सब कुछ चाहा है। वह सब के पिता हैं, सबको बांट देंगे अग्नि के मुख में आहु। डालदी है कि यह दैवों का दून है, हव्यवाद है। सबको अपना २ भाग पहुँचा देगा। उन देवियों में हम भा हैं। जहां भारत तृन होगा, वहां हमारी तृप्ति भी हो रहेगा। 

. [] ओ३म् समिधाग्नि दुव्यस्त घृतै: धयतनातिथं आस्मिन् हव्याजुहोतन स्वाहा इदमग्नये इदन्न मम। यजु० अ० मं०१  

(ओ३म् ) परमात्मा को साक्षी मान कर (समिधा) लकड़ी से ( अग्नि ) अग्नि को (दुवख्यत ) सत्कृत करो (घृतैः) घृत से (आंतथि ) अतिथि के समान आए हुए अग्नि को (बोधयत ) जगाओ अर्थात् प्रदीप्त करो। (अस्मिन् ) इसमें ( हव्याहव्यानि ) हवन सामग्री को (आ) अच्छी तरह (जुहोतन = जुहुन ) डालो ( स्वाहा ) जो कहा सो किया। (इदम् ) यह (मम ) अकेले मेरी () नहीं। 

[] ओ३म् सुसमिद्वाय शोचिषे घृत तीन जुहोतन अग्नये जातवेदसे इदन्नमम  

यजु० अ०३ म०२।

अर्थः –(ओश्न ) परमात्मा को लाक्षी कर (सुसमि द्धाय ) पूर्णतया प्राठिा (शोचिष ) शोधक (जातवेदमे ) जात संसार में विद्यमान ( अन्न) अग्नि के लिये ( नीत्र ) तेज़ साफ़ (घृतम् ) घृत को (जुनन-जुहन) हरन करो। ( स्वाहा ) जो कहा सो किया । ( इदम् ) या आहुति (जात. वेदमे ) जातवेदः ( अग्नये ) अग्निशिए है । ( दम् ) यह (मम ) मुझ अकेले को (न ) नहीं। 

इन दो मन्त्रों ने उसी प्रकार दूसरी समिधा डालें। 

यज्ञ को सामग्री लकड़ः पृ तथा हा है। यह तीनों शुद्ध और उत्तम हो अग्नि पूर्णतया प्रदान की जाए। नहीं तो हानि करेगी। 

ऐसे ही संसार के प्रत्येक यज्ञ कर्ष में अपना उत्तम सर्वस्त्र स्वाहा करना चाहिए । और मन्द अग्नि से नहीं किन्तु भड़कते हृदय से कार्यक्षेत्र में प्रवृत्त होना चाहिए। 

. ओम् तन्त्वा समिद्भिरगिरो घृतेन वर्धया मसि वृहच्छोचायविष्ठ्य स्वाहा इदमग्नयेऽङ्गि रसे इदन्नमम यजु० अ० ३। मं०  

(४६ ) ( ओ३म् ) हे परमात्मन् ( अङ्गिरः) व्यापक (समि द्भिः) वृत्तिक लकड़ियों से तथा (घृतेन ) उपासना के घृन से ( तम् ) उस (त्वां ) तुझ को (वर्धयामसि ) बढ़ाते हैं। (यविष्ठ्य ) हे सब से बड़े मिलाने वाले तथा बखेरने वाले ( बृहत् ) बहुत (शोचाशोच) प्रकाशित हो। (इदम् ) यह आहुति ( अङ्गिरसे) व्यापक ( अग्नये ) अग्नि के लिये है। (इदन्नमम ) यह मुझ अकेले की नहीं इस मन्त्र से तीसरी समिधा डालें। 

यज्ञ उपासना है। लकड़ियों से अग्नि प्रज्वलित होती है। आत्मा समर्पण से परमात्मा के प्रकाश का अधिक मान होता है । भक्ति युक्त कर्म ज्ञान चक्षु का उन्मीलन करते हैं 

और सर्व प्रकाश का साक्षात्कार होता है अग्नि पदार्थों को मिलाता और तोड़ता है परमात्मा सृष्टि और प्रलय करते हैं। ऐसे ही मनुष्य भूतों को मिलाए और बखेरे जिस तरह काम चले, चलाओ। सब पदार्थों का सार निकालें और उन उत्तम प्रयोग करे 

५ घृताहुति

ओ३म् अयन्त इध्म आत्मा जाजवेदस्तेने ध्य स्व वर्धस्व चेद्धवर्धय। चास्मान् प्रजया पशुभिब्रम वर्चसेनानायेन समेधय स्वाहा इदमनयेजातवेदसे इनमम्  

– 

इस मन्त्र का अर्थ पूर्व हो चुका है। इस मन्त्र का पाठ पांच वार करे और प्रत्येक पाठ में स्वाहा कह कर एक आहुति घृत की दे। 

धृत विषनाशक और पुष्टिप्रद पदार्थ है। इससे अग्नि की वृद्धि और प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस् तथा अन्नाद्य से समृद्धि होती है इन पांच कामनाओ की साधक पांच आहुतियां हैं। 

६ जल सेंचन ओ३म् अदिते ऽनुमन्यस्व गोभिल प्र० खंड सू०१। 

अर्थ -(ओ३म् ) हे परमात्मन ! ( अदिते ) टूटने वाले अखण्ड ! (अनुमन्यस्व) हमारे अनुकूल हो। 

इस मन्त्र से वेदी के पूर्व में जल छिड़के। ओ३म् अनुमते ऽनुमन्यस्व गोभिल प्र० खं० ३। सू० २। 

(ओ३म्) हे परमेश्वर ! ( अनुमते ) अनुकूल मति बाले (अनुमन्यस्व) हमारे अनुकूल हो। 

इससे वेदी के पश्चिम में जल छिड़के। 

ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व गोभिल गृ० प्र. . सू०३। 

अर्थः-(ओ३म् ) हे परमात्मन् ! ( सास्वति ) सर्वज्ञ सब विद्याओं के प्रकाशक ! (अनुमन्यस्त्र) अनुकूल हो। 

इस मन्त्र से उत्तर में जल छिड़के। 

ओ३म् देव सवित प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपति भगाय दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु वाच स्पतिर्वाचनः स्वदतु यजु० अ० ३० मं०१। 

अर्थः-(ओ३म्) हे परमेश्वः ! ( देव ) प्रकाशक ! (सवित) प्रेरक ! ( यज्ञं) यत्र को (प्रसुष) बढ़ाइए ( यज्ञपतिं ) यजमान को (भगाय ) भजन तथा सौभाग्य के लिए (प्रसुन ) बढ़ा. इप । (दिव्यः ) दिव्य (गन्धर्वः) ज्ञान का आधार (केतपूः) बुद्धि को पवित्र करने वाला परमात्मा (नः) हमारी (केतपू) बुद्धि को (युनातु ) पवित्र करे ( वाचस्पतिः ) वाणी का स्वामी परमात्मा (नः) हमारी ( वानम् ) वाणी को (स्वदतु) स्वाद युक्त करें। ___ इस से वेदो अथवा कुण्ड के चारों ओर जल छिड़के। जल डालने के लिये वेदी के चारों ओर नाली होती है। नहीं तो पृथिवी पर छिड़क दें। चिंवटी आदि को आग में जाने से रोकने के लिये यह नाली बड़ा काम देती है। इससे पूर्व आग के जल जाने से कीटक कुंड से भाग जाते हैं। पानी की पराकार बन जाने से फिर उस में नहीं जाते। इस लिये नाली को पूर्व ही जल से भर देना हानिकारक है। इन मन्त्रों से ही भरना उचित है। 

परमात्मा को इन मन्त्रों में पहिले अदिति फिर अनुमति और सरस्वति कहा है परमात्मा एक रस रहते हैं। उन के नियम कभी नहीं टूटते उनको अपने अनुकूल करने के लिए अपने आपको उनके अनुकूल कर लेना चाहिए यही अदिति को अनुमन्यस्वकहने का प्रयोजन है।

कोई यह समझ ले कि परमात्मा निरेकठोर हैं। उनकी कठोरता, उनकी नियमारूढ़ता हमारी हितकारिणी है। उनके प्रसन्न होने का भी एक अटूट नियम है। यह मूढ़ लोगों का मुग्ध वचन है कि जाने परमात्मा किस चेष्टा से राज़ि होते हैं यदि यह विधि नियत नहीं, तो कोई भले कर्म करे ही क्यों ? तरंगी परमात्मा भले ही रुष्ट रहा करें। जिन के रीझने का प्रकार निश्चित नहीं, उनके रिझाने का यत्न व्यर्थ है भक्तों की भक्ति अवश्य स्वीकार होती है। दर को दण्ड देने में कोई आना कानी नहीं की जाती और परमात्मा की यह व्रतशीलता हमारे व्रतों को सहायता देती है। जभी तो कहा है अदितेऽनुअन्यस्व हे हमारे अनु कूल मति वाले! हमारे अनुकूल मतिवाले! हमारे अनुकूल मति कर! अर्थात् हम वह कर्म करने का व्रत लेते हैं जो आप की मति के अनुकूल हों। ___ जल को अनुकूलता का भौतिक लक्षण बनाया है क्योंकि वह स्थान के अनुकूल बहता है। इस अनुकूलता के लिए पर मात्मा से प्रेरणा चाही है कि हे सवितः देव! प्रेरक परमेश्वर 

यजमान की अर्थात् उस की जो आप के विस्तृत यज्ञ का संक्षेप में अनुकरण करता है वृद्धि कीजिए। भजन के लिए तथा सौभाग्य के लिए उसके सहायी हूजिये। 

वेदी के बीच में जाज्वल्यमान अग्नि है और उसके चारों ओर जल का कोट खिंचा है। यजमान इसमें अपना अभीष्ट स्वरूप देखता है। कि मेरी अन्तरात्मा ज्ञान से प्रचण्ड हो। उन्नतिशील संकल्प के साथ मैं प्रति क्षण ऊँचा उठू। वुद्धि में मल का लेश रहे। पवित्र प्रदीप्त अग्नि की भांति पतितपावन परमात्मा की पुनीत प्रेरणा से पवित्र होऊँ। सत्य पर आरूढ़ रहूं परन्तु वह सत्य जगत् को जलाने वाला हो। शुद्धपानी की तरह सरस हो मेरे वाक्य मधुर हों और मेरा अन्तःकरण स्वच्छ तथा सजग हो। 

____ “सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्का व्याख्यान अत्युत्तम रीति से हुआ है। लोग दिल दुखाने का नाम सत्यवादिता रख लेते हैं वागिन्द्रिय वश में नहीं और कहते हैं हम स्पष्ट वक्ता हैं सत्य योग का अङ्ग है। इस का अनुष्ठान मुंहफटों से नहीं होता, आडम्बरी मौनधारी ही इसके निवाहने का साहस कर सकते हैं। सत्य संयम चाहता है समयोचित मति चाहता है। हित साधक प्रतिमा चाहता है। परोपका रिणी मुखयत्ति चाहता है इसके अन्दर अग्नि की लपट है परन्तु वाह्यरूप जल का है। 

.आधारावाज्याहुतिः मोश्म् अग्नये स्वाहा इदमग्नयेइदन्न मम ____

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( अग्नये ) सर्व प्रकाशक तथा भौतिक अग्नि के लिये (स्वाहा) सुन्दर आहुति है। ‘(इदं ) यह ( अग्नये ) अग्नि के निमित्त हैं (इदं ) यह (मम

एक मेरी () नहीं। 

इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग से घृत की आहुति दे। ओ३म् सोमाय स्वाहा इदं सोमाय इदन्नमम  गोभिल पृ० प्र० खं० सू० १४

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सोमाय ) शान्तिस्वरूप सर्वोत्पादक तथा चन्द्रमा के लिये (स्वाहा) सुन्दर आहुति है ( इदं ) यह (सोमाय ) सोम के निमित्त है (इदं ) यह (मम ) एक मेरी नहीं। 

इस मन्त्र से दक्षिण भाग में घृत की आहुति दे। 

. ओ३म् प्रजापतये स्वाहा इदं प्रजापतये इदन्कमम। 

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (प्रजापतये ) प्रजा पाकक तथा सूर्य के लिए (स्वाहा ) सुन्दर आहुति है (इदं ) यह (प्रजापतये) प्रजापति के लिये है (इदं) यह (मम) एकमेरी () नहीं। इस मन्त्र से वेदी अथवा कुण्ड के मध्य भाग में घृत को आहुति दे। 

ओ३म् इन्द्राय स्वाहा इदमिन्द्रायइदन्नमम 

अर्थ🙁 ओ३म् ) परमेश्वर (इन्द्राय) सर्वैश्वर्यवान् सथा विजली के लिए (वाहा) सुन्दर आहुति हैं इदं) यह (इन्द्राय ) इन्द्र के लिए है ( इदं) ये (मम ) एक मेरी () नहीं। 

इस मन्त्र से भी वेदी अथवा कुण्ड के मध्य भाग में घृत की आहुति दें। 

भिन्न भागों में आहुति देने का यह प्रयोजन है कि कुण्ड में सर्वत्र अग्नि प्रज्वलित हो जाए। एक क्रम रखने से नियम रहता है आगे घृत के साथ साकल्प ( हवन सामग्री) डालनी है इस से पूर्व आग को पूर्ण तथा प्रचण्ड कर लेना उचित है। 

ज्योति विशेषतया चार साधनों से प्राप्त होती है। एक अग्नि द्वारा, दूसरे चांद द्वारा, तीसरे सूर्य द्वारा और चौथे बिजली द्वारा इन चारों प्रकारों के प्रकाश का पुञ्ज परमा. त्मदेव है। इन भौतिक ज्योतियों में उस परम ज्योति की झलक झलकती है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के यज्ञ में इन ज्योतियों की क्या स्थिति है। यह आहुति मात्र ही तो है। जैसे घृत डालने से अग्नि की ज्वाला उठती है वैसे ही इस 

विस्तृत यज्ञ की विशेष आहुतियां यह ज्योतियां दृष्टिगोचर होती हैं और अपना कृत्य साधती हैं यजमान इन ज्योतिषियों में अपनी ज्योति मिला, इन ज्योतियों से सम्पूर्ण लाभ उठा सकल विश्व के अनूठे यश में अपनी आहुति देना है। यही यजमान की यजमानता है। इसी में उस के समस्त परिश्रम की सिद्धि है। 

छोटी से छोटी 

नैत्यिक यज्ञविधि 

उड़ लोगों के लिये जिन के पास समय और धन की न्यूनता है ऋषियों ने यज्ञ की छोटी सी मात्रा आवश्यक कर दी है। आगे उसी भाग का विचार किया जायगा विषय सम्बद्ध होने कारण जिन बातों का उल्लेख पीछे कर चुके हैं, उनकी पुनरावृत्ति नहीं की उन लोगो की भी जो यज्ञ का भनुष्ठान इतना करेंगे जितना आगे बतलाया है, इस पुस्तक का परायण आद्योपान्त कर जाना चाहिये ताकि इतने यज्ञ में भी उनकी वह दृष्टि वहीं बनी रहे जिसका उल्लेख सारे यज्ञ के विषय में किया है। 

यजमान स्वयं देख लेंगे कि इतना हवन करने में केवल सात मिनट समय और घृतादि मिला कर डेढ़ दो छटांक सामग्री से अधिक व्यय नहीं होता। 

इतने को भी व्यर्थ समझना विचार न्यूनता है संसार में कोई कोई कार्य कितना भी अल्पपरिमाण में क्यों हो व्यर्थ नहीं। भौतिक लाभ के अतिरिक्त पारिवारिक प्रेम सामाजिक स्नेह इत्यादि की स्थिरता जो स्वतः प्राप्त हो जाती है, वह ममूल्य लाभ है। 

 ८. प्रातःकाल का यज्ञ ओ३म सूर्योज्योतिर्योतिः सूर्यः स्वाहा अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सूर्यः) अन्तर्यामी (ज्योतिः) प्रकाश है। और (ज्योतिः) प्रकाश (सूर्यः) अन्तर्यामी है अथवा भौतिक सूर्य प्रकाश का पुंज है। (स्वाहा ) यह सुन्दर भाहुति है। 

ओ३म सूर्यों वों ज्योतिर्वचः स्वाहा। अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सूर्य्यः) अन्तर्यामी (वर्चः ) तेज है और ( वर्चः ) तेज (ज्योतिः) प्रकाश है ऐसा ही भौतिक सूर्य है ( स्वाहा ) यह सम्यक् आहुति है। 

. ओ३म् ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योति स्वाहा। अर्थ🙁ओ३म् ) परमात्मा (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप (सूर्यः) सर्वव्यापक है। तथा (सूर्यः) सर्व व्यापक (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप है ऐसेही भौतिक सूर्य है। (स्वाहा) मन शरीर वचन द्वारा यह कहा। 

. ओ३म् सजूदेवेन सवित्रासजूरुषसेन्द्रवत्या जुषाणः सूर्योवेतु स्वाहा  

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (देवेन) प्रकाशमान् (सवित्रा) प्रेरक के (सजूः) साथ तथा (इन्द्रवत्या) प्रकाश वाली (उषसा) उषा के साथ ( जुषाणः) इस आहुति को ग्रहण करता हुआ (वेतु) चमके। स्वाहा) मन वचन कर्म ने मिल कर आहुति दी। 

प्रातः काल की सुवर्णमय समय ! उषा के केसर में स्नान किया हुआ सूर्य परमात्मा के अलौकिक प्रकाश का ही तो दश्य है भक्त इसी में भक्ति भोजनका दर्शन करते हैं। कभी सूर्य को ज्योति और कभी ज्योति को सूर्य कहा उसका भौतिक भाग निकल दिया सूक्ष्म ध्यान सूक्ष्म ज्योति को ही ध्यान गोचर किया। 

ऊँची दीवारों में घिरे रहने वाले इस कौतुक को नहीं देखते। जो तमाशा योगी को निरन्तर योग से वर्षों पीछे देखना प्राप्त होता है यजमान को नित्य सहसा ही दृष्टिगोचर है। एकाग्र वृत्ति से कोई इस रङ्ग को देखे सही, आत्मा रङ्ग जाती है। 

सूर्य की ज्योति, उपा की ज्योति और इन सब में परमात्मा को ज्योति को ओत प्रोत कर सर्व व्यापक की सर्व व्यापकता का अपूर्व निश्चय हुआ। आहुति क्या दी ! ज्योतिः स्वरूप की ज्योति में अपनो ज्योति मिलाई आत्मा की अनूठी जोत जगी। 

.. 

. व्याहृत्याहुतियां ओ३म् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा इदमग्नये प्राणाय इदन्न मम। ___ अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( भूः) प्राण स्वरूप है 

(अग्नये ) सर्वव्यापक (प्राणाय) प्राण के लिए अथवा गति 

शील अन्दर जाते श्वास के लिए (स्वाहा) यह सुन्दर आहुति है (इदम् ) यह ( अग्नये) सर्व व्यापक तथा गतिशील (प्राणाय ) प्राण के लिए है ( इदम् ) यह (मम) मेरी एक 

की () नहीं। 

ओ३म् भुवर्षायवे ऽपानाय स्वाहा इदं वा यवे अपानाय इदन्न मम  

अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा ( भुवः) अपान अर्थात् दुःख नाशक है। (वायवे) बल स्वरूप (अपनाय ) दुःख नाशक अथवा बाहिर जाने वाले उच्छ्वास के लिए (स्वाहा ) यह उचित आहुति है ( इदम् ) यह ( अपानाय ) अपान (वायवे) वायु तथा दुःख हर्ता बलवान् परमेश्वर के लिए है। (इदम् ) यह (मम ) अकेली तेरी () नहीं। 

. ओ३म् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा इदमादित्याय व्यानाय इदन्न मम  

अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा ( स्वः ) ब्यान अर्थात् व्यापक है। ( आदित्याय ) अखण्ड (व्यानाय ) सर्वव्यापक परमेश्वर अथवा शरीर व्यापी व्यान वायु के लिए ( स्वाहा) सुन्दर आहुति है। ( इदम् ) यह (आदित्याय) अखण्ड (व्यानाय ) व्यापक परमात्मा तथा व्यान वायु के लिए है। (इदम) यह (मम) मेरी अकेली () नहीं। 

. ओ३म् भूर्भुवः स्वरग्निवायवादित्येभ्यः प्राणापान व्यानेभ्यः स्वाहा इदमग्निवावा दित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः इदन्न मम  

अर्थ-(ओ३म् ) परमात्मा (भूः) प्राण ( भुवः) दुःख नाशक कर्ता (स्वः) सर्वव्यापक सुख स्वरूप है। अग्निवायु 

आदित्येभ्यः) सर्वव्यापक बलस्वरूप तथा अखण्ड (प्राणअपान व्यानेभ्यः) प्राणस्वरूप दुःखनाशक तथा सर्व व्यापक परमेश्वर के लिये अथवा गति शील इत्यादि विशेषणों वाले प्राण आदि वायुओं के हितार्थ (स्वाहा ) यह सुन्दर आहुति है। ( इदं) यह ( अग्निवायु आदित्यभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः ) इन विशेषणों वाले ईश्वर और प्राणों के लिये है। ( इदम् ) यह (मम) मेरी () नहीं। 

पहले परमात्मा की ज्योतिष्मत्ता का चिन्तन सूर्य तथा उषा के प्रकाश द्वारा किया। अब उसकी शक्ति, उसकी व्यापकता तथा आनन्ददायित्व का चिन्तन प्राणों की उपमा से करते हैं। अचिन्त्य के चिन्तन की विधि उन पदार्थों का अवलोकन है जिन में उन के गुणों का कोई अंश झलक सके प्रतिमापूजन से उस के किसी गण का भान नहीं होता। 

प्राणायाम करने वग्ले को हवन की सुगन्धि अतीव लाभकारी है। वायु में औषधों का संचार कर प्राण के लिए सुख की सामग्री इकट्ठी कर दी है। 

ओ३म् पापो ज्योतिरसोऽमृतं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् स्वाहा। 

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( आपः) सर्वव्यापक (ज्योतिः) प्रकाशस्वरूप ( रसः ) आनन्दस्वरूप ( अमृतम्) अमर (ब्रह्म) सब से बड़ा (भूः) जगत का प्राण (भवः) दुःखनाशक (स्वः) सुखस्वरूप (ओम् ) रक्षक है। (स्वाहा ) यह सुंदर वाणी हैं। 

१० पूर्णाहुति ओ३म् सर्व वै पूर्ण स्वाहा ओ३म् सर्वां वै पूर्ण स्वाहा ओ३म् सर्व वै पूर्ण खाहा  

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( सर्वम् ) सब तरह (वै ) निश्चय से ( पूर्णम् ) पूर्ण है ( स्वाहा ) यह अच्छी वाणी है अथवा परमात्मा को साक्षी कर यज्ञ को पूर्ण किया है। अपूर्ण मात्मा जितना पूर्ण परमात्मा का ध्यान करेगा उतना उसका श्रुटियां मिटाकर पूर्णता आयेगी। 

११ ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः __ अर्थ🙁ओ३म् ) हे परमात्मन् हमें (शान्तिः३) तीनों प्रकार की शान्ति दीजिए। 

यश के अन्त में शान्ति कहने का अर्थ यह है कि शान्ति अकर्म में नहीं पूर्ण साहस के साथ यज्ञशील रहने से ही त्रिविध शान्ति प्राप्त होती है आलसी को निद्रा का सुख भी नहीं मिलता अवकाश का सुख वह भोगते हैं जो अवकाश नहीं करते। 

१२ सायंकाल का हवन

. मोश्म अग्निज्योतिज्योतिरग्निः स्वाहा। अर्थ-(ओ३म्) परमात्मा ( अग्निः) सर्वज्ञ (ज्योतिः) प्रकाश है और ( ज्योतिः ) प्रकाशवरूप ( अग्निः) सर्ववित् है । भौतिक अग्नि भी प्रकाश है। ( स्वाहा ) यह सुन्दर माहुति है। 

भोम् अग्निवों ज्योतिवेच स्वाहा अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा (अग्निः) सर्वज्ञ ( वर्चः) तेजः स्वरूप है। तथा (ज्योतिः ) प्रकाशवरूप (वर्चः ) तेज का पुञ्ज है ( स्वाहा ) यह सुन्दर आहुति है। 

. मोश्म् अग्निज्योतिज्योतिरमिः खाहा अर्थ हो चुका है। 

. ओ३म् सजूदेवेन सवित्रा सजूराश्येन्द्रवत्या सुषाणो अग्निवेंषु स्वाहा। 

अर्थः-(ओ३म् ) परमात्मा ( देवेन ) प्रकाशस्वरूप ( सवित्रा ) प्रेरक से ( सजूः) मिलकर [ इन्द्रवत्या ] प्रकाश युक्त [राश्या] सन्ध्या वेला से [ सजूः] मिलकर [जुषाणः] सेवन करता हुआ अग्निः [वेतु ] चमके [स्वाहा ] यह सुहावनी वाणी है। __ प्रातःकाल सूर्य था अब अग्नि है सन्ध्या वेला का रङ्ग उषा का सा ही होता है। शेष सब कुछ वह है जो प्रातः था समय पलटा है समा नहीं पलटा।। 

इस मन्त्र से यह स्पष्ट हो गया कि सायंकाल का हवन रात्रि होने से पूर्व करना चाहिये। उस के पीछे सन्ध्या वेला का सुवर्णमय तेज दीखेगा कीटकों के अग्नि में गिर कर मरने का भी भय रहता है जिस में हिंसा दोष लगता है 

इन आहुतियों के पीछे व्याहृतिआहुतियां प्रातःकाल की भान्ति उन्हीं मन्त्रों से दें। ऐसे ही पूर्णा हुति ___ यदि प्रातः सायं दोनों समय हवन कर सकें तो प्रातः काल ही पहिले [ सूर्यो ज्योतिः ] इत्यादि से चार आहुतियां, फिर [ अग्निज्योति से चार, तत्पश्चात् व्याहृति और पूर्ण आहुतियां डालें। 

गुरुकुलों में प्रयुक्त होने वाले विशेष मंत्र। ___ गुरुकुलों में साधारण नैत्यिक हवन के पीछे वेदारम्भ संस्कार के लिए हुए व्रत पालन के पांच मन्त्र और पढ़े जाते हैं, और उनके साथ एक आहुति दा जाती है। मन्त्र और उन के अर्थ यह है

ओ३म् अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तत्ते प्रब बीमितच्छकेयम् तेनासमिदमहमन्तात्सत्य मुपेमि स्वाहा इदमग्नये इदन्नमम  

अर्थ :–(ओ३म् अग्ने) हे शानस्वरूप ओ३म् (व्रतपते) व्रतों के पालने वाले ! मैं ( व्रतं ) व्रत का (चरिष्यामि ) आच. रण करूं ( तत् ) वह (ते) तुझ से (प्रत्रवीमि) प्रकटतया कहना हूं (तत्) इस में (शकेयम् ) मैं शक्त होऊं (तेन) उस से (अध्यासम् ) मैं समृद्ध होऊ। ( अहं ) मैं ( अनृतात् ) असत्य से [ मुक्त होकर ] ( इदम् ) इस ( सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि ) प्राप्त होता हूं ( स्वाहा ) यह सुन्दर वाणी है (इदम्) यह ( अग्नये ) ज्ञान स्वरूप के लिए है (इदम् ) यह ( मम ) मेरी अकेले की () नहीं। 

ओ३म् वायो व्रतपते…..”‘इदन्न मम  

अर्थः-(ओ३म् वायो ) हे बल स्वरूप ३म् ! …… …….”शेष पूर्ववत्  

यज्ञ शेष : पण्डित चमूपति जी

यज्ञ से जो भोज्य पदार्थ बचे उसको यज्ञ शेष करते हैं। इसे शास्त्रों में अत्युत्तम भोजन कहा है। हव्य देवताओं का भोज्य है। अपने से उत्तम भोज्य देवताओं के अर्पण करना होता है। यह नहीं कि आप तो खोर खाई और खाली पिच के पिंड बनाकर देवों के गाल में डाल दिया। 

यहां न ब्राह्मणों के कल्पित देव हैं न पितरों के पिंड ही उन का आहार है। यज्ञ संसार चक्र है। जाति तथा समाज का हित साधन ही वास्तविक यज्ञार्थ कर्म है। यही वस्तुतः देव ताओं का अर्चन है ।। ३३ करोड़ देवता भारत की ३३ करोढ़ प्रजा है। मानुषीय जीवन का प्रथम साध्य जातीय हित है। तभी तो स्वामी जी कहते हैं-संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्योद्देश्य है । इससे जो बच जाय वह व्यक्तित्त्व है । जाति पहिले, व्यक्ति पीछे। 

रामायण में लक्ष्मण ने अकेला मिष्टान्न खाना पातक गिना है । वेद में आता है-केवलायो भवति केवलादी। अर्थात् अकेला भोजन करनेवाला केवल पापान्न खाता हैं। मनुस्मृति तथा गीता इस सिद्धान्त की पुष्टि करती हैं । कमाई वही सफल हैं जिस में औरों का हिस्सा हो। 

वाइसराय की कौंसिल में भारतीय प्रतिनिधियों को यह उलाहना मिला कि क्या तुम स्वराज्य इस लिये चाहते हो कि जिन अब्राह्मणों को तुम अपने कुए का पानी पीने नहीं देते, अपनी दरी छूने नहीं देते, अपने देवता पूजने नहीं देते उन पर और अत्याचारों का अवसर पाओ ? अब वह यथा तथा जीते तो हैं । फिर उनका जीना भी वाधित करना चाहते हो ? यज्ञ शेषभोजी मालवीय उठे और कहा कि ब्राह्मणों की ओर से मैं वकील होता हूं । पहिले अब्राह्मणों को स्वराज्य दे लो। जो बचेगा हम खा लेंगे। यही यज्ञ – शेष है। जाति तथा समाज का अङ्ग होता हुआ भी मनुष्य अपने व्यक्तित्व के आगे आंखें नहीं मूंद सकता । अहंकार को कितना विशाल रूप दो। सारे जगत् को ‘अहम्’ दृष्टि से देखो । एक विन्दु अवश्य ऐसा रह जाएगा जो व्यष्टि को समष्टि से अलग दिखाएगा । क्या उस बिन्दु की उपेक्षा करलें । सम्पूर्णवृत्त, संपूर्ण चक्र के घुमाव में विन्दु का प्रभाव अलग है। सूर्य सौर ब्रह्माण्ड को घुमाता है। परन्तु उसकी अपनी केन्द्रानुवर्तिनी गति भिन्न है । ऐसे ही जातीय तथा मानुषीय उन्नति पर अलग भी ध्यान देना होता है । जाति के पेट के साथ २ अपना पेट भी भरना है। अपने हित को रोकना नहीं किन्तु जातीय हित से अपना हित गौण रखना है ? पढ़ाने वाला पढ़ाता तो जाय परन्तु अपनी पाठोन्नति न रोके । धन दे पर साथ २ कमाए भी । सूर्य स्वयं न फिरे तो जगत् को भी फिरा न सके। 

राष्ट्रीयता तथा जातीयता का प्रादुर्भाव तब होगा जब उदर देव से पहले रुद्र देव को अपने लहू से तृप्त किया जाये गा। आक्षेप करने वाले कहते हैं, पुरातन आर्य यज्ञों में गौ की, वकरी की, पुरुषों की, अश्वों की, और अपनी आहुति देते थे। आर्य सहम जाते हैं और कह उठते हैं ‘नहीं । हम तो अहिंसक हैं। हमारी दृष्टि में यज्ञ में अर्थात् जाति की रक्षार्थ पशु, पक्षी, बालक, बालिका, मित्र, अमित्र सब की बलि हमारे पूर्व पुरुष देते थे और हमें देनी चाहिये । सबसे उत्तम, सबसे प्रबल, सबसे प्रभूत तर शक्तियां जाति के पहिये में लगादो। जो बल बच जाय, वह अपनी ऋद्धि सिद्धि में प्रयुक्त करो। देवताओं का दिया हुआ खाओ वह उत्तम प्रसाद है। 

७ सर्व वै पूर्ण यज्ञ समाप्त हुआ । अब पूर्ण आहुति दिया चाहता है। देखले अग्नि बुझ तो नहीं गई ? मन्त्रों का ठीक उच्चारण हुआ ? स्वाहा सार्थक है ? आहुतियों में इदन्नमम का भाव रहा ? यज्ञ शेष खाने से पहले यज्ञार्थ कृत्य पूर्ण कर । 

इदन्नमम : पण्डित चमूपति जी

श्री कृष्ण गीता में कर्म के रूप बताते है एक स्वार्थ, दूसरा यशार्थ उनकी रष्टि में स्वार्थ कर्म बन्धन का हेतु है और यक्षार्थ कर्म मोक्ष का। 

यज्ञ का अर्थ हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं जो कर्म व्यक्ति गत लाभ के लक्ष्य से किया जाता है, वह स्वार्थ है, और जो समष्टि के कल्याणार्थ किया जाता है, वह यज्ञार्थ है  

समष्टि में व्यष्टि सम्मिलित है। व्यक्तियों से जातियां बनती हैं जातियों के उत्थान से व्यक्तियां वञ्चित नहीं रहती। स्वार्थ सिद्धि यज्ञार्थ से स्वतः होती है। वस्तुतः स्वार्थ और यशार्थ में भेद नहीं संकल्प भेद तो है परन्तु क्रिया एक ही है। 

कोई रोटी खाता है इस लिये कि में मोटा होजाऊ, कोई मोटा होता है इस लिये कि मैं जाति की रक्षा करूं पहला • स्वार्थी है, दूसरा यज्ञार्थी है। 

यथार्थ स्वार्थ यज्ञार्थ है मनुष्य समाज की रचना ऐसी है कि जातियों के उठाए बिना व्यक्तियां उठ नहीं सकतीं एक आङ्गल व्यक्ति का संसार भर में वही अधिकार है जो उसके उसके देश ने अपने गौरव से प्राप्त किए हैं भारतवासियोंका भारत दण्डपद्धति अमरीका में भी पीछा नहीं छोड़ती गोखले को तुम नीतिश कहो, बुद्धि निधि कहो, दक्षिण अफ्रीका में में कुलियों का राजा कहाता है। व्यक्तिगत आचार को कौन पूछता है अन्य देशों में भारतीय भारतीय होने के कारण undesirable अशुभ हैं । रवीन्द्र जगत् भर के बड़े कवि हैं। पूर्व पश्चिम में पूजे जाते हैं परन्तु किसी स्वाधीन जाति के महा कवि की तरह गर्दन सीधी करके नहीं चल सकते कोई लखपति हो देश दरिद्र है, तो उसका धन भी अपने देशवासियों के ही परिमाण के अनुसार प्रचुर होगा। उन देशों के धनपतियों का सान्मुख्य यह नहीं कर सकता जहां सामान्य जनता लाखों में लेटती है। 

मूखों में विद्वान् विद्वान् रहेगा। विद्या की वृद्धि विद्या प्रचार से होता है धन की तरह यह सम्पत्ति प्रयोग से बढ़ती है। भारत को धन धान्य से दरिद्र किसने किया कृपणता ने। भारत का गुण ज्ञान क्यों धूलि धूसरित हुआ कृपणता से अपना कौशल लोगों से जितना छिपाओगे, उतना तुम से छिपेगा। वैभव विभु है। खुली हवा में बढ़ता फूलता है। संकुचित स्थान में इस का दम घुटता है। 

परमात्मा सब के हैं, तू सब का हो। भक्त कहते हैं, अपने जीवन को डोर प्रभु के हाथ में दे और स्वयं अपने इष्ट, अनिष्ट से निश्चिन्त हो जा। क्या इसका यह अर्थ है ? स्वयं धनोपार्जन छोड़ दे। तुझे परमात्मा धन देंगे? रोटी खा पका, परमात्मा तेरी रोटी खा छोड़ेंगे। 

परमात्मा स्वयं सजग है, और सजगों का ही साथ देते हैं अन्धों को लाठियां परमात्मा ग्रहण नहीं करते। परमात्मा 

की इच्छा का जो मार्ग है वही शुभ है। किसी मनोरथ से, किसी उद्देश्य से संसार का यज्ञ सम्पादित होता है मनुष्य का कल्याण इसमें है कि उस मनोरथ को जाने, उस उद्देश्य को परमात्मा के मन्त्रोच्चारण के साथ अपना मन्त्रोच्चारण करे, उनकी स्वाहा पर अपनी तन मन की आहुति डाले। एक आहुति परइदन्नममकहे अर्थात् यह आहुति मेरे अपने लिये नहीं है इदमग्नये, इदं सोमायका अर्थ परमात्मार्पणहै। परन्तुअग्नयेकहनेका यह अर्थ नहीं किअग्निको उत्तरदाता बना कर स्वयं उत्तरदातृत्व से मुक्त हो जाए जीवों के संपाद्य कार्य जीवों को करने हैं। परमात्मा उनका स्थान नहींलेने हांपरमात्मा की आज्ञा समझ कर अग्नि की ज्वाला को देख कर डाली हुई आहुति सफल होती है। 

परमात्मा का नाम लेने से जहां स्वार्थ वृत्ति का नाश होता है, वहां यज्ञार्थ वृत्ति आजानी चाहिये स्वार्थी को अपनी चिन्ता है, यज्ञार्थी को सारे ब्रह्मांड की। यह हो कि अपनी चिन्ता भी छोड़ बैठो और ब्रह्मांड की भी चिन्ता करो। 

स्वामी दयानन्दइदन्न ममका यथार्थ अर्थ समझे हैं आर्य समाज के पहले पांच नियम स्वार्थ के लक्ष से हैं, तो अन्तिम पांच यशार्थ के लक्ष के हैं। 

यथानियम . संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्योद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 

नियम . सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार वर्तना चाहिए। 

नियम . अविद्या का नाश विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। 

नियम . प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट रहना चाहिये, किन्तु सक की उन्नति में अपनी उन्नति सम झनी चाहिये। 

इससे और स्पष्ट सामाजिक सिद्धान्त क्या हो। लोग स्वार्थ छुड़वाते हैं। स्वार्थ छूटता नहीं। स्वामी यज्ञार्थ को यथार्थ स्वार्थ बताता है। यही अर्थ इदन्न ममका है। अर्थात् यह आहुति एक मेरी नहीं, सब की है, और सब में मेरी है। 

ममता और अहंकार के शत्रु संसार भर में विद्यमान हैं। क्या समाचार पत्रों और क्या व्याख्यानवेदिकाओं सब में इसी तुरी का नाद है कि ममता छोड़ो, अहंकार का बीज रखो तथ्य यह है, श्रोता तो श्रोता लेखक तथा वक्ता भी तो ममता और अहंकार के अवतार हैं। 

ममता नहीं छूट सकती, अहंकार का नाश नहीं हो सकता, पर बढ़ाने की वस्तु है विशाल मम अपवाद के योग्य मम नहीं रहती। संकुचित अहम् मोह है, अभिमान है विस्तृत 

अहम् बैराग्य, है, नम्रमा है। परमात्मा के संकल्प को जान कर जब अपना संकल्प उस के अनुकूल कर दिया, जब अपनी आहुति उस की स्वाहा सुन कर स्वाहा को, तो फिरइद. मग्नयेऔरइदं मह्यम्में भेद रहा। 

समूह में अपने आप को मिला देना अपना और समूह दोनों का भला करना है। समिति को अपनी सुयोग्य सम्मति देना समिति का हित करना है। जाति से अपना अभाव करना जाति को जहां तक अपने जीवन का सम्बन्ध है उतना मृत करना है सब व्यक्तियां अपने आप को जाति से अलग कर दें तो जाति रहे परन्तु सम्मति देकर उस पर हठ करना, दूसरों के युक्त मत को भी लताड़ कर अपने यज्ञ को जय चाहना संकुचित ममता है। स्वामी जी कहते हैं 

नि० १०सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें। 

___ यही सिद्धान्त एकता प्राण है ।। सर्व हितकारी नियमों में व्यक्तियों की पारस्परिक परतन्त्रता सामाजिक तथा जातीय स्वतन्त्रता है। तभी तो एक आहुति परइदन्न मम” “इदन्न ममकह कर यज्ञ को समूहसात् बनाया जाता है व्यक्तिसात् नहीं। 

स्वाहा: पण्डित चमूपति जी

स्वाहा सुन्दर आहुति हैं वह आहुति जिस ऋतु अनुसार इस समय के रोगों को नाश करने के लिये डाली जाय बुखार के दिनों में चिरायता, गिलोय इत्यादि ज्वर नाशक पदार्थ हो अन्य व्यधियों में उन्हीं के लिये उपयोगी सामग्री हो यह स्वाहा हैं। 

सामग्री में मिष्ट, पुष्टि प्रद, रोग नाशक तथा सुगन्धि युक्त सभी प्रकार पदार्थ हों। 

सौषधि सेवन तीन रूपों में होता है एक तो ठोस वस्तुओं को पीस कर कूट कर, पाक बना कर दूसरा द्रव रूप अर्थात् जोशादा तथा अर्क अथवा शर्वत की अवस्था में, तीसरे वायु में मिलाके, बाष्प तथा धूम के रूपमें। 

पहिला प्रकार अतीव स्थूल है। इस से लाभ तो हैं परन्तु मल अधिक बनता है इस विधि से सूक्ष्म विधि जला कार है। फोग निकाल कर औषधि का सार पानी में हल कर देते हैं इस के प्रयोग से मल बनता है परन्तु थोड़ा इस विधि से भी सूक्ष्म वायु रूप है। वावु का प्रवेश उन अङ्गों में हो सकता है यहां जल तथा पाक जा सकें। यह लाभ भी हो जाय और मल भी बने रोग नाश का यह विधि उत्तम विधि है। 

उदाहरण सौफों का सेवन ही ले लीजीये सौफों के फाकने से उदर शुद्ध होता है सौकों के अरक से भी यह काम निकल आता है परन्तु सुभीता अधिक रहता है कहीं यह विधि चल सके तो वैद्य रोगी के शरीर को कपड़े के अन्दर लपेट कर अन्य प्रकार के वायु को रोक कर सौफों की धूनी देते हैं पसीने में मल निकल जाता है। 

एमेरिका में बुखार के दिनों में उबला हुवा क्वीनीन नालियों में वहा छोड़ते हैं जिससे ज्वर नाशक वाष्प वायु में फैल जायें और रोग नष्ट हो  

पाठक इस तत्त्व को स्वयं जानता होगा कि ठोस से द्रव और द्रव से मारूत रूप अग्नि द्वारा प्राप्त होता है अग्नि पर भट्ठी चढ़ा कर अरक निकालते हैं और अग्नि का अधिक प्रयोग करके वाष्प बनाते हैं यही यज्ञ है। 

___ “हुधातु का अर्थ दान है सुन्दर आहुति सुन्दर दान है। जिस प्रकार संसार का उपकार यज्ञ द्वारा होता है वैसा किसी और प्रकार ले नहीं होता आहुति मारुत रूप में जगत् भर में फैल जाती है। 

__”हु” धातु का अर्थ खाना भी होता है सो सुन्दर आहुति सुन्दर खाना भी है ठोस तथा द्रव खाने से मारुत खाना अच्छा है क्योंकि एक तो सूक्ष्म होने से सुगमतया ग्राह्य है बालक ही इससे नाक मुंह सिकोड़ता है वृद्ध  दूसरा मल रहित है पहुंच भी नाड़ी नाड़ी नस नस में जाता है। 

___ स्वाहा का तीसरा अर्थ है अच्छा कहा हुवा स्वामी जी यज्ञ में स्वाहा शब्द के प्रयोग का प्रयोजन यह बताते हैं कि जो मन में हो वह वाणी में आए और जो वाणी में आये वह शरीर द्वारा अनुष्ठान किया जाये। 

हवन में वेद मंत्र पढ़ने का विधान इस लिये है। अग्नि होत्र का चिन्ह मात्र तो अब भी आर्य जाति में शेष रह गया है कच्ची ईट पर जो शुद्ध मट्टी की बनी हुई हो, जंडी की दों शाखायें जला कर उस पर थोड़ा सा सुगन्धित पदार्थ डाल लेते हैं वृद्धो यह क्रीड़ा क्यों करते हो कहेंगे देवताओं की प्रसन्नता के लिए अर्थ देवों का आता है प्रसन्नता का वास्तव में अग्नि जल आदि ही देव हैं और इनकी शुद्धि प्रसन्नता कहाती है संस्कृत में प्रसन्नता का अर्थ मल शून्यता है। शकुन मात्र शेष रहने का कारण यही है कि वास्तविक अग्निहोत्र के पूरे निधान तथा प्रयोजन का पता नहीं स्वाहा सार्थक नहीं रहा। 

___ अग्निहोत्र में जो मंत्र पढ़े जाते हैं उन मंत्रों में से एक एक में अग्निहोत्र का माहात्म्य, उसके लाभ विधि तथा फल को कविता के तत्त्वद्योतक प्रकार से दर्शाया गया है। 

___ इन मंत्रों का रटन मात्र पर्याप्त नहीं स्वाहा तो उस मंत्र के पीछे यथार्थ होगा जिसका अर्थ मन में स्फुरित हो 

और डच्चारण जिह्वा से कियाजाय तत्पश्चात् शारीरिक व्वव हार उसके प्रतिकूल हो, अनुकूल हो। मन वाणी तथा काया के एक स्वर, एक ताल में आजाने को स्वाहा कहते हैं। 

योगी का वचन निष्फल कहीं होता जिस वाक्य की पुष्टि में, मानसिक दृढ़ता हो, वह अमोघ है आधे से अधिक जगत् पर हमारे मन की शक्ति का राज्य है प्रार्थना और सङ्कल्प वल शाली यत्न है स्वामी दयानन्द समाधि में हैं। एक वैश्या उनकी पवित्रता नष्ट करने की इच्छा से जाती है। साहस नहीं होता कि योगी के व्रत का अनिष्ट चाहे दूसरी वार वलात् भेजी जाती है तो वैश्यावृत्ति को ही छोड़ बैठती 

सामूहिक सङ्कल्प संसार भर का तख्ता पलटने वाली, सेना से बढ़ कर है जहां अनेक मन एक सूत्र में पिरोये जाकर एक माला के दाने बन गये हों उनका एक जप, एक तप, एक समाधि तथा संयम हो वहां सो सिद्धि मनोरथ की परिचा रिका होगी। 

__ आज संसार मलिन है। अशुभ विचार, अशुभ आचार, अशुभ व्यवहार का राज्य है इसका और क्या कारण है ? पही कि संसार की सामूहिक कामना शुभ नहीं आर्य यत्न करे तो वेदों के पठन पाठन वेदों के मनन निधिध्यासन से भौर नहीं तो अपनी गली से गाली गलोच, कलह कोलाहल  सेठनियां दोहे दूर कर सकते हैं। 

गुरुकुल में बालक आता है गन्दी गलियों का आवारा गर्द बच्चा गालियां बकता है कोई स्पष्टतया इनका निषेध नहीं करता समय बीतने यह स्वयं ही बकवाद छोड़ वेदभाषी हो जाता है कारण कि वहां का वायुमण्डल पवित्र है, आकाश वेदमय है। 

मनुष्य का कहा वाक्य व्यर्थ नहीं जा सकता बिना तार के और तार सहित शब्दों के एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने तथा ग्रामोफोन आदि यन्त्रों में सुरक्षित रहने से स्पष्ट है कि शब्द नष्ट नहीं होते हैं, वायु में अटक जाते हैं। और जो अन्तःकरण उस वायु में आता है उस पर प्रभाव डालते हैं। 

एक महाशय एक स्थान का वर्णन करते हैं कि वहां बैठे हुवे मनुष्य के शिर पर से गुजरते हुवे कव्वे, चीलें तथा ऐसे और अबोध पक्षी तकसोऽहम्का उच्चारण करते थे। उस स्थान से पृथक् हुवे सो वहीं कांय चूँ चूँ परन्तु वहां फिर आये तो सोऽहम्  

उन्हों ने इसको निदान जानना चाहा ! उन्हें बताया गया कि वहां तपस्वियों ने निरन्तर सोऽहम् का जाप किया है। किसी पाप के कारण पक्षी योनि प्राप्त होगई है उनका साधारण आलाप तो उसी योनि विशेष का आलाप है जब इस स्थान पर आए हैं तो पिछला अभ्यास स्मरण आता है और विवश सोऽहम् कह उठते हैं। 

इस समाधान से उनका सन्तोष हुवा अन्त में किसी योगी उसने उनकी शङ्काएँ निवृत्त की कि कथित स्थान किसी योगी की कुटी था सदैव के जापसे सोऽहम् शब्द वहां के वायु में जम गया है जैसे ग्रामोफोन के रिकार्ड पर कोई भी सुई चलावो! वही शब्द निकलेगा जो रिकार्ड की रेखाओं में रक्षित हैं। ऐसे ही इस स्थान पर जो भी शब्दोत्णदक कला लाई जावेगी ध्वनि वही सोऽहम् ही निकलेगी। 

सन्ध्या का समीचीन स्थान एकान्त है। आदि में जबकि अभ्यास नहीं सन्ध्या समूह सहित करनी चाहिये जब चित्त वृत्ति एकाग्र हो जाए, और अकेले आंखें मूंदने पर संकल्प विकल्प व्याकुल करें तो सन्ध्या मन में ही करनी उचित है। इसके विपरीत हवन सदैव समूह सहित करने का यज्ञ है। योगी भी हवन करें तो औरों में बैठ कर, और ऊंची स्वर से मंत्रों का पाठ करके यदि आर्यसमाजी गली गली में यज्ञशाला निर्माण कराएं और उसमें नित्यं प्रति देव यज्ञ का अनुष्ठान करें तो उनकी सम्मिलित स्वर इकडे वेद मन्त्रोच्चारण, एक साथ आहुति प्रक्षेपण, एकीकृत संकल्प, एक क्रिया से जाति तो जाति, संसार भर का कितना भूला हो अणु में वेद छा जाएँ घर में वेदों का नाद हो भवन वेदमय हो जिह्वा वेदमय हो देह वेदमय हो। आत्मा वेदमय हो। 

अग्नि: पण्डित चमूपति जी

एक अग्नि भौतिक एक आत्मिक भौतिक अग्नि चूल्हे में जलनी है, कुण्ड में प्रदीप्त होती है, कलाओं की चलाती हैं, कहीं उष्मा और कहीं प्रकाश का कारण होती है। दो पदार्थ आपस में टकराते है। संघर्षण से गर्मी निकलती है। वैज्ञानिक कहते हैं विद्युत् है याज्ञिक विद्युत् को अग्नि का रूप मानते हैं। परोक्ष रूप में विद्युत् स्थान में काम कर रही है। अणुओं का का गुण गति है। और गति और उष्मा सहवर्ती हैं  

प्राणियों का जीवन प्राणों की गति से है। जब तक प्राण चलते हैशरीर में उष्मा बनी रहती है। प्राणों का तांता रुका और शरीर ठण्ढा हुआ। लोक में ठण्डक और मृत्यु पर्याय है। 

यही प्रलय और सृष्टि का भेद है प्रलय में परमाणु सुप्त होते हैं। सुप्त लुप्त होता है सृष्टि परमाणुओं की प्रवृत्ति का नाम हैं। पहला कम्पन आधुनिक संसार का पहला जन्म अलग करो चलने परमाणु टकराते हैं। उनमें विद्युत धूम जाती है ! यज्ञ चल पड़ता है। 

ऐसे हो आत्मिक जगत् में उत्साह अग्नि है आलस्य मृत्यु जागृति जीवन हैं, सुषुप्ति मृत्यु है आत्माभिमान जीवन, आत्म हानि मृत्यु अग्नि शब्द जीवन के इन सब लक्षणों का पर्याय हैं यह सोच कर पट्टो मुह पर मत बांधो कि श्वास प्ररश्वास से प्राणी मरेंगे चिऊटियां कुचल जाने के भय से गुफ़ा में टिके रहने से अहिंसा व्रत का पालन नहीं होता। ऐसी अहिंसा जड़ पदार्थ कर लेते है अहिसा में हिंसा का निषेध हैं तो इसके विरोधी धर्म रक्षा की भी विधि है। योगी वह है जो क्रियात्मिक धर्म का पालन करें। निष्क्रिय अहिंसा तो राख द्वारा भी पलित है उस पर चिऊटियां चढ़ती है परन्तु उसमें शक्ति नहीं कि उनका वाल वांका कर सके अग्नि जलने की शक्ति रखती परन्तु वचाव हैं भी उसी से होता है शतघ्नी रणक्षेत्र में सैकड़ों का नाश करती है परन्तु इसी नाश से सहस्रों और लक्षों का त्राण हो जाता है। युद्ध जातीय जीवन का आवश्यक अंग है। क्षत्रिय अपना क्षय करता है दूसरे को त्राता है। यह रहस्य मुझे क्ष और त्र ने बताया दुष्टों का संहार अहिंसा है आयों का परित्राण अहिंसा हैं। ऐसे ही सत्य ऐसे ही अस्तेय जव तक अग्नि है तब तक धर्म हैं जव राख हुवे तव राख से अधिक कुछ नहीं। 

यज्ञ का मुख्य देवतो अग्नि है वेद इसे हव्य वाट कहता है। अर्थात् हव्य पदार्थ उठा ले जाने वाला। इसके बिना यश कीसफलता नहीं दूसरे देव अग्नि की बाट देखते हैं 

हवन मंत्रों में से इसेअन्नादकह कह पहिले तो इस तत्त्व की और सङ्कत किया है कि यह हव्य खा जाता है पन्तु किस निमित्त उसी श्वास में कहते हैं अन्नाधाय अर्थात् खाने योग्य अन्न देने के निमित्त अग्नि देवताओं का दूत है हवि को अकेला आप चट नहीं करता। अन्य देवताओं तक पहुँचाता है मुखिया होकर उनके सेवक का काम करता है। देवताओं द्वारा खाया हुआ यज्ञ फल रूप में यजमान को लौट आता है। 

यथा ब्राह्मण वर्ण जातीय देह का मुख होकर उसके दिये धन धान्य को खाते हैं परन्तु स्वयं उसकी इति श्री नहीं करते ब्राह्मण के लिये स्वाद का दास होना हलाहल विष है। उसके खाये का उपयोग सारी जाति के लिये है। स्वामी होकर सब का सेवक बनता हैं ऐसे ही अग्नि अपने 

उदरसे दूसरों की उदर पूर्ति करता है। 

यज्ञ की उन्नतिशील यज्ञकी अग्नि सजग, यज्ञ की अग्नि पुनीत और पावन, यज्ञ की अग्निस्वयं प्रकाश दूसरों के लिये प्रकाशमय यज्ञ की अग्नि अपने खाने के बहाने दूसरों को खिलाने वाली। 

इस जोत के जगाने से यजमान की आत्मा में जलता पुरुषार्थ, जलता उत्साह, जलता तेज और जलती परोपकार की लगन आती है हम पर विश्वास नहीं तो यही कथन जलती ज्वालाओं की जाज्वल्यमान जिह्वाओं से  सुनलो। 

यज्ञ : पण्डित चमूपति जी

लोग पद्य से उतरते हैं, परन्तु कोरो गद्य से काम नहीं चलता आजका संसार गद्यमय है कवियो की कल्पना को सोतों का स्वप्न कहकर शुष्क विज्ञान में जागृति दंडने चले हैं परन्तु जो सच पूछो तो है बात बात में पद्य उपमा और रूपक के बिना एक वाक्य नहीं कहते भला संसार को संसार ही क्यों कहो ? इसमें सृति है। गति है यह कविता नहीं तो क्या है ? और सब गुण भुलाकर सृति मात्र से संसार का कहना कहां का सूधा विचार है। लो और उदाहरण लो काम चलता है ! भला काम भी चला करते है? जड़ में गति कैसी ? बात बात में कविता भरी है। 

संसार के लिये उपमाओं की दंड हुई। किसी ने कहा विवाह मन्दिर है। विवाह मन्दिरों में बराती निमन्त्रित होते हैं उनका काम दूसरों के व्यय से स्वयम् भोग विलास करना है। वह खाएंगे, पीयेंगे। यह चिंता औरों को होगी कि वृथा सैंकड़ों पर पानी फिरा जाता है। ऐसों की दृष्टि में संसार मोद का स्थान है खा, पी, और मौज मनाइस तत्व की व्यवस्था मात्र ही मनुष्य का जीवन है यूरोप वाले इसे  एपिक्यूरिमन सौर भारतीय इसे चारवाक सिद्धान्त कहते हैं। वस्तुतः प्रत्येक जाति तथा विचार के समुदाय में क्रिया त्मिक एपिक्यूरिमत और चारवाक खुले फिरते हैं। 

एक और कवि वैराग्य वान् था वह नित्य प्रति शव उठते देखता था उसने संसार का श्मशान कहा उसके विचार में जन्म हर्ष का अवसर है मरण का मनुष्य रोता हुआ उत्पन्न होता है और रोता हुआ यमदूतों की रखवाली मे कूच करता है इस कमी ने मानव जाती को रोने का पाठ पढ़ाया। कभी नरक का अग्नि से, कभी यमको यातना ओं से डरा डरा कर अधीर आत्माओं को और अधीर किया भय तथा त्रास के अश्रुओं को मानो मुक्ति और सद्गति के बीज ठहरादिया। 

कोई खिलाड़ी इन दोनों सिद्धान्तों पर हंस दिया । कहा संसार रोने की जगह है हंसने की। यहां का सुख भी उतना ही कड़वा है जितना कि दुःख विषयभोग मैं में अनजानों को क्षणिक मात्र आनन्द तो होता है पर पीछे की खिन्नता पहिले के स्वाद को किर किरा देती है। बहुत खाओ अजीर्ण होजावे स्वाद की अति होने से स्वाद स्वादु रहें तृप्ति का परिमाण नियत नहीं आज छटाङ्क से मस्त है, ता कल पाव चाहिये आखिर कहां तकऔर जो शोक ही मे दिन बिता दिये रोते प्रातः रोते सायं की तो इस से हर्ष का वृक्ष कहां सिंच सकता है। 

संसारमें तटस्थ रहना ही अच्छा भौतिक जगत् भोगने के लिये नहीं, देखने के लिये है संसार एक नाट्य शाला है इसका आनन्द दर्शक के भाग्य में है। क्रीड़ा पाज के लिये नहीं उपराम वृत्ति ही सात्विक वृत्ति है। मनुष्य से जितना हो सके अपनी वृत्तियों को सुकेड़े वाणी की सफलता मौन धारण में हैं अङ्गहीन होना अङ्गों का यथार्थ प्रयोग है। कान रखता हुंआ करण रहित हो जाये। इन्द्रियां विक्षोभ का कारण हैं प्रवृत्ति बन्धन की रस्सी है सुख चाहे शुभ हो चाहे अशुभ दोनों का परिणाम अशुभ है। सुख पूर्वक सुख का संग्रह नहीं होता। 

आखिर संसार क्या है ? वर बधू विवाह है ? श्मशान है नाटय शाला है ! क्याहैं ! युधिष्ठर से यक्ष ने यह प्रश्न किया तो उत्तर दिया कि मैं संसार को कटाह पाता हूं : यह भौतिक अग्नि द्वारा तपाया जारहा है। इसमें धन धान्य आदि भोज्य वस्तुएँ पकती हैं और अन्त को काल को गाल में ग्रास बन कर जाता है। 

___ संसार के वास्तविक रूप को कुछ कुछ युधिष्ठिर ने पहचान लिया। इस में अग्नि है। संसार साहस का स्थान है। कोई निवृत्त हो चाहे प्रवृत्ति, इस कटाह में तपोगे कर्म शील कर्जा हाथ में लेकर कटाह को चलाएगा और जलने से बच जाएगा, निष्कर्म भोज्य पदार्थ की न्याई बलात् कटाह में धकेला जायगा काम आओ अथवा काम करो पको अथवा पकाओ इसके अतिरिक्त और विकल्प नहीं। 

वेद में संसार को देवों का यज्ञ कहा है। यही संसार के लिये यथार्थ उपमा है और संसार वासियों के लिये यथोचित शिक्षा भी पुरुष सूक्त मे आया है: अश्म् यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्म शरद्धविः॥ य०१४। 

अर्थात् देवता जिस पुरुष के साथ मिल कर हवि से यज्ञ करते है उसका वसन्त ऋतु घृत है, ग्रीष्म लकड़ी है, शरद् ऋतु हवि है। 

इस मन्त्र मे ऋतुओं को यज्ञ की सामग्री कहा है ग्रीष्म यज्ञ को नपाता है, वसन्त रस देता है। यज्ञ में घृत हो तो यज्ञ शुष्क रहे शरद् वृक्षों के फल फूल, पत्ते, पत्तियां झाड़ कर अपना सर्वम्व स्वाहा करता है तब संसार की सृति होती है। 

__ यश देवों का है संसार में जो शक्तियां काम करती हैं देव है। अपने आप को इन देवों में मिलाने वाला नहीं, इनके देवत्व को देवत्व बनाने वाला मनुष्य देवो का देव हो जाता है। इन सब देवों की साझी आहुति से संसार का यज्ञ पूर्णता 

की प्राप्त करता है। 

हवन के मन्त्रों में एक जगह पृथ्वी कोदेवयजनीकहा है अर्थात् देवों के यज्ञ करने की जगह, एक और मन्त्र में आज्ञा है 

देवा यजमानश्च सीदत। 

अर्थात् हे देवो! यजमान और तुम बैठो और इकट्ठ यज्ञ करो। अभिप्राय यह है कि संसार यज्ञ है इसके अणु अणु में गति है। इस वृक्ष की पत्ती पत्ती कर्म शील है तो मनुष्य जिस का देह इन्हीं परमाणुओं से बना। जो इस समष्टि शरीर का व्यष्टि मात्र अंश ही है। वह भी बिना कर्म के नहीं रह सकता। प्राणियों का सम्पूर्ण जीवन यज्ञ है इस यज्ञ में और आहुति दो, प्राणों को कैसे रोकोगे। सफल वह आहुति है जो विधि पूर्वक हो कोई उल्टी सीधी आहुति पड़ी नहीं और देव कुपित हुए नहीं देव समर्थ हैं उनका सह पक्षी होने में सर्व कल्याण और वैपक्ष्य में सर्वनाश है। 

परमात्मा यज्ञ के ब्रह्मा हैं उनके संकल्प के साथ अपना संकल्प मिलाना शिवसंकल्प होना है स्वाहा वह आहुति है जो उनको आहुति के साथ दी जाए आगे पीछे दी हुई आहुति स्वाहा नहीं होती। 

भारत के अन्न से अपने आपको अन्नाद बनाने वालो! भारत के प्राणों से अपने प्राण बचाने वालो ! यज्ञ करो। भारत का वायु विष हो गया है क्योंकि तुम विष हो भारत का जल नहीं रहा गङ्गा बहती है और तुम्हें मुक्त नहीं करती। हिमा लय खड़ा है और शिव के शत्रुओं का श्वसुराल बन गया है। देव बन कर यज्ञ में अपना सर्वस्व स्वाहा करो देवता तुम्हें आशीष देंगे।