वेदों का महत्त्व वेद विषयक परम्परागत विश्वास
वेदों के विषय में आर्यों का यह परम्परागत विश्वास चला आ रहा है कि वे ईश्वरीय ज्ञान हैं। परम कारुणिक सर्वज्ञ भगवान् ने मनुष्य मात्र के कल्याणर्थ मानव सृष्टि के प्रारम्भ में यह पवित्र ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा संज्ञक चार ऋषियों के पवित्रन्त:करणों में प्रकाशित किया जिससे सब मनुष्यों को वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा विश्व विषयक सब कर्त्तव्यों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो सके और उसके द्वारा वे सुख, शान्ति तथा आनन्द को प्राप्त कर सकें। प्राचीन समस्त स्मृतिकार, दर्शन शास्त्रकार, उपनिषत्कार तथा रामायण, महाभारत, श्रौत-सूत्र, गृह्यसूत्रादि के लेखक यहाँ तक कि पुराणकार स्पष्टतया वेदों को ईश्वरीय तथा स्वत: प्रमाण और अन्य सब ग्रन्थों को परतः प्रमाण मानते हैं। उदाहरणार्थ मनु महाराज ने अपनी स्मृति में कहा है कि
वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।”
(मनु० २.६) अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नामक सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल हैं। वही धर्म के विषय में स्वत: प्रमाण हैं।
मनुस्मृति २.१३ में लिखा है: धर्म जिज्ञासमानानां, प्रमाणं परमं श्रुतिः।।
अर्थात् जो धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिये परम प्रमाण वेद ही है।
मनु महाराज ने वेदों का महत्त्व बताते हुए यहाँ तक कह दिया है
अर्थात् उस भगवान् का मस्तक मानो अग्नि है, सूर्य और चन्द्र उसके नेत्रों के समान हैं। दिशाएँ उनके कानों के तुल्य हैं। वेद मानो उसकी वाणी से निकले अर्थात् ईश्वरीय है। तण्ड्य ब्राह्मण तथा तदन्तर्गत छान्दोग्योपनिषद् में छन्दों के नाम से वेदों की महिमा इन शब्दों में बताई गई है:
‘देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्राविशन् ते छन्दोभिर च्छादयन्, यदेभिरच्छादयन्, तच्छन्दसां छन्दस्त्वम्॥
(छान्दोग्य० १.४.२)
अर्थात् देवों (सत्यनिष्ठ विद्वानों) ने मृत्यु से भयभीत होकर त्रयी विद्या (ज्ञान, कर्म, उपासना विद्या का प्रतिपादन करने वाले वेद) का आश्रय लिया। उन्होंने वेद-मन्त्रों से अपने को आच्छादित कर लिया इसलिये इन्हें छन्द के नाम से कहा जाता है। इससे भी ब्राह्मणों और उपनिषदों के लेखकों की वेदों के विषयों में अत्यधिक श्रद्धा सूचित होती है इसमें कोई सन्देह नहीं। महाभारत में वेदों का महत्त्व
:
महाभारत में महर्षि वेदव्यास जी ने वेद को नित्य और ईश्वरकृत अनेक स्थानों पर बताया है और उनके अर्थसहित अध्ययन पर बड़ा बल दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि ऋषियों तथा पदार्थों के नाम, वेदों से ही लेकर रखे गये, महाभारत के निम्न श्लोक इस विषय में विशेष उल्लेखनीय हैं।
अनादिनिधना नित्या, वायुत्सृष्टा स्वयम्भुवा। आदौ वेदमयी दिव्या, यतः
सर्वाः प्रवृत्तयः॥
(म० भा० शन्तिपर्व अ० २३२.२४)
अर्थात् सृष्टि के प्रारम्भ में स्वयम्भू परमेश्वर ने वेदरूप नित्य दिव्य वाणी का प्रकाश किया जिससे मनुष्यों की सारी प्रवृत्तियाँ होती हैं। यह ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध मन्त्र:
तस्मै नूनमभिद्यवे वाचाविरूप नित्यया। वष्णे चोदस्व सुष्टुतिम्॥
(ऋ० ८.७.६)
और पुनरुक्ति आदि दोषरहित होने से वेद को परम प्रमाण सिद्ध किया गया है।
वैशेषिक शास्त्रकार कणाद मुनि ने तद् वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम्। (१.१.३)
इस सूत्र द्वारा परमेश्वर का वचन होने से आम्नाय अर्थात् वेद की प्रामाणिकता का प्रतिपादन किया है। सांख्यकार कपिल मुनि को भूल से कई आधुनिक विचारक नास्तिक समझते है किन्तु उन्होंने भी “निजशक्त्यभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्”
इत्यादि सूत्रों द्वारा वेदों को ईश्वरीय शक्ति से अभिव्यक्त (प्रकट) होने के कारण स्वतः प्रमाण माना है।
योगदर्शनकार पतञ्जलि मुनि ने स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्।
(समाधिपाद सू० २६) इत्यादि में परमेश्वर को नित्य वेद ज्ञान देने के कारण सब पूर्वजों का भी आदि गुरु माना है।
वेदान्त शास्त्र के कर्ता वेद व्यास जी ने ‘शास्त्रयोनित्वात्’ (१.१. ३) तथा ‘अतएव च नित्यत्वम्’ (१.३.२९) इत्यादि सूत्रों द्वारा परमेश्वर को ऋग्वेदादि रूप सर्वज्ञान भण्डार शास्त्र का कर्ता मानते हुए वेद की नित्यता का प्रतिपादन किया है।
शास्त्रयोनित्वात्‘ (१.१.४) । इस सूत्र के भाष्य में सुप्रसिद्ध दार्शनिक श्री शङ्कराचार्य जी ने जो लिखा है वह भी इस प्रसङ्ग में महत्वपूर्ण होने के कारण उल्लेखनीय है। वे लिखते हैं:
ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्या स्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावधोतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। नहीदृशस्य गर्वेदादि लक्षणस्य सर्वज्ञगुणाचितस्य सर्वज्ञादन्यतः संभवोऽस्ति।
अर्थात्:-ऋग्वेदादि जो चार वेद हैं वे अनेक विद्याओं से युक्त हैं, सूर्य के समान सब सत्य अर्थों के प्रकाश करने वाले हैं, उनका बनाने वाला सर्वज्ञत्वादि गुणों से युक्त परब्रह्म है क्योंकि सर्वज्ञ ब्रह्म से भिन्न कोई जीव सर्वज्ञ गुण युक्त इन वेदों को बना सके ऐसा संभव नहीं, इत्यादि।
मीमांसा शास्त्र के कर्ता जैमिनि मुनि तो धर्म का लक्षण ही यह करते हैं कि:
‘चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः।‘ अर्थात् जिसके लिये वेद की आज्ञा है वह धर्म और जो वेद विरुद्ध हो वह अधर्म कहलाता है। इस प्रकार समस्त शास्त्र एक स्वर से वेदों की नित्यता और स्वतः प्रमाणता का प्रतिपादन करते हैं। महात्मा
गौतम बुद्ध के वेदों के महत्त्व विषयक वचन
:
महात्मा गौतम बुद्ध को बहुत से पाश्चात्य और कई भारतीय विद्वान वेदधर्म विरोधी नास्तिक मानते हैं किन्तु वस्तुतः वे एक आर्य सुधारक थे जिन्होंने अज्ञान और स्वार्थवश प्रचलित यज्ञों में पशुहिंसा, जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था वा जातिभेदादि कुप्रथाओं को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने वेदों की निन्दा नहीं कि,किन्तु उन लोगों की निन्दा की जो वेदों का नाम लेकर यज्ञों में पशुहिंसा करते तथा अन्य प्रकार से दुराचार में प्रवृत्त थे। वेदों और सच्चे धर्मात्मा वेदज्ञों की उन्होंने अनेक वचनों में प्रशंसा की है। उदाहरणार्थ सुत्तनिपात २९२ में महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा है:
विछा च वेदेहि समेच्चधम्म।
न उच्चावचं गच्छति भूरिपञ्यो। इसका संस्कृत अनुवाद है:
विद्वांश्च वेदैः समेत्य धर्म, नोच्चावचं गच्छति भूरि प्रज्ञः।
अर्थात् जो विद्वान वेदों के द्वारा धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है उसकी डांवाडोल अवस्था नहीं रहती।
सुत्तनिपात श्लो० १०५९ में महात्मा बुद्ध की निम्न उक्ति पाली में पाई जाती है:
यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजना, अकिंचनं कामभवे असत्तं। श्रद्धा हि सो ओघमिमं अतारि,
तिण्णो च पारं अखिलो अकंखो। इसका संस्कृत अनुवाद इस प्रकार है:
यं ब्राह्मणं वेदज्ञम् अभिज्ञातवान् अकिंचनं कामभवे असक्तम्। श्रद्धा हि स ओघमिमम् अतारीत्
तीर्णश्च पारम् अखिलः अकांक्षः॥ अर्थात् जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कुछ धन नहीं और जो सांसारिक कामनाओं में आसक्त नहीं, वह आकांक्षारहित सचमुच इस संसार सागर से तर जाता है। इसमें सच्चे वेदज्ञ ब्राह्मणों की कितनी प्रशंसा की गई है? क्या एक वेदविरोधी नास्तिक के इस प्रकार के वचन हो सकते हैं? जो इस विषय में विस्तार से देखना चाहते हैं उन्हें लेख की ‘बौद्ध मत और वैदिक धर्म’ (आर्यसमाज दीवानहाल देहली द्वारा प्रकाशित १.५० न० पै०) तथा ‘Mahatma
Buddha-an Arya Reformer’ (आनन्दकुटीर ज्वालापुर उ० प्र० से प्राप्तव्य मूल्य १-५०
न० पै०) इन पुस्तकों को पढ़ना चाहिए। सिक्ख गुरुओं की वाणी में वेदों का. महत्त्व
:
यद्यपि आजकल कई सिक्ख भाई वेदशास्त्र का महत्त्व नहीं मानते और अपने को आर्यों (हिन्दुओं) से सर्वथा पृथक् समझते हैं किन्तु सिक्ख मत के प्रवर्तक गुरु नानक जी तथा अन्य गुरुओं की वाणी में वेदों का महत्त्व अनेक स्थानों पर स्पष्टतया वर्णित है-उदाहरणार्थ गुरु ग्रन्थ साहेब के निम्नलिखित वचनों को देखिये:
१. ओंकार वेद निरमाये।
(राग रामकली महला १ ओंकार शब्द १) अर्थात् ईश्वर ने वेद बनाए। २. हरिआज्ञा होए वेद, पाप पुन्य विचारिआ॥
(महला ५ शब्द १) अर्थात् ईश्वर की आज्ञा से वेद हुए जिससे मनुष्य पाप-पुण्य का विचार कर सके।
३. सामवेद, ऋग्, यजुर, अथर्वण,
ब्रह्म मुख माइया है त्रैगुण। ताकी कीमत कीत कह न सकै,
को तिड़ बोले जिड बोलाइदा॥ (महला १ शब्द १७)
यहाँ भी चारों वेदों का नाम लेकर कहा है कि उनकी कीमत (महत्त्व) कोई नहीं बता सकता। वे अमूल्य और अनन्त हैं।
४. चार वेद चार खानी॥ (महला ५ शब्द १७) अर्थात् चार वेद चार खानों के समान (ज्ञान कोष) हैं।
५. वेद बखान कहहि इक कहिये।
ओह बेअन्त अन्त किन लहिये। (महला १ अ०३)
अर्थात् वेदों की महिमा का क्या वर्णन किया जाये? वे बेअन्त में उनका अन्त किस प्रकार पा सकते हैं?
६. दीवा तले अन्धेरा जाई।।
वेद पाठ मति पापा खाई। उगवे सूरज न जापे चन्द,
जहां गियान (ज्ञान) प्रगास अज्ञान मिटन्त॥ अर्थात् वेद के ज्ञान से अज्ञान मिट जाता है और उनके पाठ से बुद्धि शुद्ध होकर पापों का नाश हो जाता है।
७. असंख ग्रन्थ मुखि वेद पाठ। (जप जी १७) अर्थात् असंख्य ग्रन्थों के होते हुए भी वेद का पाठ सबसे मुख्य है। ८. वेद बखियान करत साधुजन,
भागहीन समझत नाही॥ (टोडी महला ५ शब्द १७) अर्थात्
साधु-सज्जन वेद का व्याख्यान करते हैं किन्तु भाग्यहीन नीच मनुष्य कुछ समझता नहीं।
९. कहत वेदा गुणन्त गुणिया,
सुणत् बाला वह विधि प्रकारा।
दृढन्त सुविद्या हरि-हरि कृपाला॥ (महला ५.१४) अर्थात् वेदों के पढ़ने से उत्तम विद्या भगवान् की कृपा से बढ़ती है।
इस पर भी जो वेदशास्त्र की निन्दा करते और उन्हें असत्य समझते हैं उनके बारे में गुरु ग्रन्थ साहेब में उद्धृत भक्त कवि कबीर जी का यह वचन स्मरण रखने योग्य है कि:
“वेद कतेब, कहहु मत झूठे, झूठा जो न विचारे।‘
अर्थात् वेद शास्त्र को झूठा मत कहो। झूठा वह है जो विचार नहीं करता। विस्तार भय से अभी इतना ही पर्याप्त है।
सुप्रसिद्ध पारसी विद्वान् द्वारा वेद महिमा गान
:
सुप्रसिद्ध पारसी विद्वान् फर्दून दादा चान जी
B.A.LL.B.D.Tg. ने ‘Philosophy of Zoroastrianism and
comparative Study of Religions’ नामक अपने विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ में वेद के विषय में लिखा है:
“The Veda is a Book of Knowledge and
Wisdom, comprising the Book of nature, the Book of Religion, the Book of
prayers, the Book of morals and so on. The word Veda’ means wit, wisdom,
knowledge and truly the Veda is condensed wit, wisdom
and knowledge.” (P. 100)
अर्थात् वेदज्ञान की पुस्तक है जिसमें प्रकृति, धर्म, प्रार्थना, सदाचार इत्यादि विषयक पुस्तकें सम्मिलित हैं। वेद का अर्थ ज्ञान है और वास्तव में वेद में सारे ज्ञान विज्ञान का तत्त्व भरा हुआ है।।
इस प्रकार इस पारसी विद्वान् ने वेदों को ज्ञान का विश्वकोष बताया है। जैन आचार्य द्वारा वेद महिमा गान
:
आचार्य कुमुदेन्दु नामक जैन विद्वान् ने कन्नड़ भाषा में “भूवलय”
नामक एक आश्चर्यकारक ग्रन्थ लिखा है जिसमें उन्होंने लिखा है कि ऋग्वेद ही अनादिनिधना आदिम भगवद्वाणी है। इसमें से अनेक भाषाएँ निकलती हैं। भगवान् का सन्देश सभी के लिये एक-सा होता है।
अरब देश के विद्वान् लाबी द्वारा वेदों का गुणगान
:
अखताब के पुत्र और तुर्की के पौत्र लाबी नामक अरबवासी कवि ने जो मुहम्मद साहेब के जन्म के लगभग 2400 वर्ष पूर्व विद्यमान था वेदों का गुणगान अरबी भाषा की एक कविता द्वारा किया जिसका हिन्दी भाषानुवाद निम्न है:
१. ऐ हिन्दुस्तान की धन्य भूमे! तू आदर करने योग्य है क्योंकि तुम में ही ईश्वर ने अपने सत्य ज्ञान का प्रकाश किया है।
२. ईश्वरीय ज्ञान रूप ये चारों पुस्तके (वेद) हमारे मानसिक नेत्रों को किस आकर्षक और शीतल उषा की ज्योति को देते हैं। परमेश्वर
ने हिन्दुस्तान में अपने पैगम्बरों अर्थात् ऋषियों के हृदयों में इन चार वेदों का प्रकाश किया।
३. और वह पृथिवी पर रहने वाली सब जातियों को उपदेश देता है कि मैंने वेदों में जिस ज्ञान को प्रकाशित किया है उसको तुम अपने जीवनों में क्रियान्वित करो, उनके अनुसार आचरण करो। निश्चय से परमेश्वर ने ही वेदों का ज्ञान दिया है।
४. साम और यजुर् वे खजाने हैं जिन्हें परमेश्वर ने दिया है। ऐ मेरे भाईयो! इनका तुम आदर करो क्योंकि वे मुक्ति का शुभ संदेश देते हैं।
५. इन चारों में से शेष दो ऋक् और अथर्व हमें विश्वभ्रातृत्व का पाठ पढ़ाते हैं। ये दो ज्योतिः स्तम्भ हैं जो हमें उस लक्ष्य की ओर
अपना मुँह मोड़ने की चेतावनी देते हैं। ___ अरब देशीय कवि लाबी द्वारा वेदों के प्रति समर्पित यह श्रद्धांजलि स्वर्णक्षरों में लिखने योग्य है।
अनेक निष्पक्ष पाश्चात्य विद्वानों द्वारा वेद गौरव गान:
यद्यपि अधिकतर पाश्चात्य लेखकों ने ईसाई मत की श्रेष्ठता दिखाने के लिये वेदों का निष्पक्षपात भाव से अध्ययन नहीं किया तथापि अनेक ऐसे विद्वान् यूरोप और अमरीका में हुए जिन्होंने वेदों का अध्ययन निष्पक्षपात भाव से करके उनकी महिमा का मुक्त कण्ठ से गान किया है। उनमें से कुछ का यहाँ उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है।
डॉ. रसेल वैलेस-सबसे पहले मैं डार्विन के साथ ही प्राकृतिक जगत् में विकासवाद के आविष्कार डॉ०
रसेल वैलेस के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ
‘Social Environment and Moral Progress’ से कुछ उद्धरण देना
चाहता हूँ जो अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं:
“In the earliest records which have
come down to us from the past, we find ample indications that accepted standards
of morality and the conduct resulting form these, were in no degree inferior
to those which prevail today, though in some respects they differed
from ours. The wonderful collection of hymns
know as the Vedas is a vast system of religious teachings as pure and
lofty as those of
the finest portions of the Hebrew Scriptures.
Its authors were fully our equals in their conception of the universe and the
Deity expressed in the finest poetic languages. (P.11)
“In it (Veda) we find many of the
essential teachings of the most advanced religious thinkers. (P.13)
“We must admit that the mind which
conceived and expressed in appropriate language such ideas as are everywhere
present in those Vedic hymns, could not have been inferior to those of the best
of our religious teachers and poets, to our Milton, Shapespeare and
Tennyson. (P.14)” ___अर्थात् पुराने समय के जो लेख हमें इस समय मिलते हैं उनमें भी हमें इस बात के पर्याप्त निर्देश प्राप्त होते हैं कि उस समय के सदाचारादि विषयक विचार और व्यवहार हमारे से किसी रूप में भी कम कोटि के नहीं थे यद्यपि कई अंशों में वे हम से भिन्न अवश्य थे। __ वेद के नाम से प्रसिद्ध आश्चर्यजनक संहिता के अन्दर बाइबल के अच्छे से अच्छे भाग के तुल्य पवित्र और ऊँची धार्मिक शिक्षाओं की एक पद्धति पाई जाती है। इसके लेखक, संसार और सुन्दरतम कविता में प्रकाशित ईश्वर विषयक विचार में पूर्णतया हमारे समान थे। इनमें हम अत्यधिक उन्नत वा प्रगतिशील धार्मिक विचारकों की मुख्य शिक्षाओं को पाते हैं।…
हमें यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जिस मन ने उन ऊँचे विचारों को ग्रहण किया और तदनुरूप उत्तम भाषा में प्रकट किया, जो वेदों में सर्वत्र पाये जाते हैं, हमारे उच्चतम धार्मिक शिक्षकों और मिल्टन, शैक्सपियर तथा टैनीसन जैसे कवियों से किसी अवस्था में भी कम न था।
इससे बढ़ कर सामाजिक विकासवाद (Social Evolution Theory) का खण्डन क्या हो सकता है? यदि वेदों की, जिनको प्रायः
सभी पाश्चात्य विद्वान संसार के पुस्तकालय में प्राचीनतम ग्रन्थ, प्रो० मैक्समूलर के सुप्रसिद्ध शब्दों में ‘The
oldest books in the library of mankind.: मानते हैं, शिक्षाएँ इतनी ऊँची और पवित्र हैं जितनी कि
बाइबिल के अच्छे से अच्छे भागों की अथवा यदि ऋषि वर्तमान समय जगत के उच्चतम विचारकों और कवियों से कम न थे तो फिर सामाजिक विकास के लिये अवकाश कहाँ रह जाता है? स्वयं भौतिक जगत में विकासवाद के प्रवर्तकों में से एक वैज्ञानिक शिरोमणि का सामाजिक विकासवाद का इस प्रकार का निराकरण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस समाजिक विकासवाद के आधार पर जो ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता से इन्कार करते हैं उनको अपना विचार बदलने को विवश होना पड़ेगा। यह बात डॉ०
अल्फ्रेड वैलेस के उपरिलिखित वाक्यों से स्पष्ट हो जाती है।
दो ईसाई पादरियों द्वारा वेदों की ईश्वरीयता स्वीकृति
:
रेवरेन्ड मौरिस फिलिप (Rev. Morris Philip) नामक ईसाई पादरी ने ‘The
Teachings of the Vedas‘ नामक अपने ग्रन्थ में निम्न शब्दों मे वेदों को प्रारम्भिक ईश्वरीय ज्ञान बताया है। वे लिखते हैं:
We have pushed our enquiries as far
back in time as the records would permit and we have found that the religious
and speculative thought of the people was far purer, simpler and
more rational at the farthest point we reached, than a the nearest and the
latest in the Vedic Age.”
“The conclusion therefore in inevitable
viz; that the development of religious thought in India has been
uniformly downward and not upwards, deterioration and not evolution. We
are justified, therefore in concluding that the higher and purer
conceptions of the Vedic Aryans were the result of a primitive
Divine Revelation.”
(“The Teachings of the Vedas” by Rev.
Morris Philip P.231)
इस लम्बे उद्धरण का तात्पर्य यह है कि हम अपनी खोज को समय की दष्टि से इतना पीछे की ओर ले गये जितने की लेखादि सामग्री हमें मिल सकती थी और हमने पाया कि लोगों की धार्मिक और दार्शनिक विचारधारा सबसे पुराने समय में जहाँ तक हम पहुँच सकें अधिकतम पवित्र, युक्ति-युक्त और सरल थी अपेक्षया वैदिक काल के भी हमारी दष्टि से समीपतम और नवीनतम समय में।
इसलिये हमारे लिये यह परिणाम निकालना अनिवार्य है कि भारत में धार्मिक विचार का विकास नहीं किन्तु ह्रास ही हुआ है, उन्नति नहीं किन्तु अवनति हुई है। हम यह परिणाम निकालने में न्याययक्त हैं कि
वैदिक आर्यों के उच्चतर और पवित्रतर ईश्वरादि विषयक विचार एक प्रारम्भिक ईश्वरीय ज्ञान के परिणाम थे।
प्रो० हीरेन् नामक ईसाई विद्वान का वेद विषयक लेख
प्रो० हीरेन् (Heeren) नामक एक सुप्रसिद्ध अनुसंधान विद्वान् ऐतिहासिक ने वेदों के विषय में लिखा है कि
“They (The Vedas) are without doubt the
oldest works composed in Sanskrit. Even the most ancient Sanskrit works allude
to the Vedas as already existing. The Vedas stand alone in their
solitary splendour, standing as beacon of Divine Light for the onward march of
humanity.
(Historical Researches by Prof. Heeren (Vol.
11 P. 127)
अर्थात् इसमें सन्देह नहीं कि वेद संस्कृत के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। उपलभ्यमान सर्व अधिक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में भी उनकी विद्यमानता का स्पष्ट निर्देश पाया जाता है। वे मनुष्यमात्र की उन्नति के लिये अपनी अद्भुत शान में दिव्य प्रकाश स्तमभ का काम देते हैं। लेओं देल्बॉ नामक फ्रेञ्च विद्वान् का मत–
१४ जुलाई १८८४ को पेरिस में आयोजित (International Literary Association अथवा अन्तराष्ट्रीय साहित्यिक संघ के सम्मुख निबन्ध पढ़ते हुए लेओ देल्वॉ (Mons
Leon Delos) नामक फ्राँस देशीय सुप्रसिद्ध विद्वान् ने घोषणा की कि ‘The
Regiveda is the most sublime conception
of the great high ways of humanity.’
अर्थात् ऋग्वेद मनुष्य मात्र की उच्च प्रगति और आदर्श की उच्चतम कल्पना है। नोबल पुरस्कार विजेता मैटलिङ्क और वेदों का महत्त्व
लगभग १५ लाख रु० के नोबल पुरस्कार विजेता स्वीडन वासी श्री मैटर्लिङ्क ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘The
Great Secret में वेदों के प्रति अत्यधिक आदर का भाव दिखाया है। वेदों की कर्तव्यशास्त्रादि प्रसिद्ध पुस्तक
‘Theaता स्वीडन वासी प्रति अत्यधिक विषयक शिक्षाओं को उद्धत करते हुए उसने लिखा है कि
‘Let us agree that the system of
Ethics of which I have been unable to give more than the slightest
survey, while the first ever known to man, is also the loftiest which he has
ever practised.’ (The Great Secret P. 96)
अर्थात् हमें इस बात को स्वीकार करना चाहिए कि यह कर्तव्यशास्त्र विषयक प्रणाली जिसका मैंने अत्यन्त संक्षिप्त विवरण दिया है जब कि
मनुष्य को ज्ञात प्रणालियों में से सर्वप्रथम है साथ ही सबसे अधिक उत्कृष्ट है
जिसका मनुष्य ने कभी आचरण किया है।
प्राचीन परम्परा वा
Primitive Tadition का निर्देश करते हुए मैटर्लिंक ने लिखा है कि
‘As for the primitive tradition, it is true
that these affirmation and precepts are the most unlooked for, the
loftiest, the most admirable and the most plausible that mankind has
hitherto known.’ (P.57)
अर्थात् प्राचीन प्रारम्भिक परम्परा के सम्बन्ध में यह सत्य है कि ये उक्तियाँ और आदेश अत्यन्त अवलिोकित, सर्वोत्कृष्ट सर्वाधिक प्रशंसनीय
और सबसे अधिक युक्तियुक्त हैं जिनका मनुष्यों ने अब तक ज्ञान प्राप्त किया है।
इस परम्परा का अनुसरण करते हुए मैटर्लिक ने वेदों को ज्ञान का विशाल भण्डार माना है जिनको मानव सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकाशित किया गया। उनके शब्द ये हैं- “This traditionattribute to the
vast reservoir of the wisdom that some where took shape simultaneously with
the origin of man to more spiritual entitles, to beings less
entangled in matter.”
(‘The
Great Secret’ by Materlink Prologue P.6)
सुप्रसिद्ध दार्शनिक मैटर्लिंक के इन विचारों से सामाजिक विकासवाद का भी पूर्णतया खण्डन हो जाता है क्योंकि यदि सबसे प्राचीन वेदों की कर्तव्यादि विषयक शिक्षाएं सबसे अधिक उत्कृष्ट, प्रशंसनीय और यक्ति-युक्त हैं तो फिर सामाजिक विकासवाद के लिये कहाँ स्थान रह
डॉ० जेम्स स्वयं सपत्नीक इस वैदिक आदर्श से इतने प्रभावित हरा कि वे कुलपति जयराम नाम रखकर वैदिक आदर्शों के अनुसार अपने जीवन को बनाने का निरन्तर यत्न करते रहे। रूस के जगद्विख्यात् ताल्स्ताय की वेदों पर श्रद्धाः
रूस निवासी लियो ताल्स्ताय जगत्प्रसिद्ध विचारक और लेखक थे जिनकी शताब्दी इस वर्ष संसार के सब प्रदेशों में श्रद्धापूर्वक मनाई गई। अलेक्जेण्डर शिफ़मान नामक ताल्स्ताय संग्रहालय के अनुसन्धान विद्वान् ने ‘Leo
Tolstoy and the Indian Epics’ शीर्षक का जो लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपवाया है उसके निम्नलिखित उद्धरणों से लियो ताल्स्ताय की वेदों पर श्रद्धा प्रकट होती है। शिफ़मान ने लिखा है
“Leo Tolstoy was deeply interested in
ancient Indian literature and its great epics. The themes of the Vedas were the
first to attract his attention.”
“Appreciating the profoundity of the
Vedas, Tolstoy gave particular attention to those cantos which deal
with the problems of ethics, a subject which interested him deeply. He
subscribed to the idea of human love which pervades the Vedas, with
their humanism and praise of peaceful labour. Tolstoy the artist was moreover
delighted with the poetic treasures and
artistic imagery which distinguish those outstanding Indian
epics.”
“He (Tolstoy) ranked
the Vedas and their
later interpretations—the Upanishads—with those perfected works of world
art which have never failed to appeal to all nationalities in all epochs
and which therefore represent true art.”
“Tolstoy not only read the Vedas, but
also spread their teachings in Russia. He included many
of the sayings of the Vedas and the Upanishads in his collections ‘Range
of Reading’,’Thoughts of wise men’s and others.”
दन उद्धरणों का तात्पर्य यह है कि भारत के प्राचीन साहित्य और महाकाव्यों के प्रति लियो ताल्स्ताय गहरी दिलचस्पी रखते थे। वेदों की विषयवस्तु ने सर्वप्रथम उनका ध्यान आकृष्ट किया। ताल्स्ताय वेदों के
गम्भीर ज्ञान पर मुग्ध थे। वे वेदों के उन भागों पर विशेष ध्यान देते थे जिनका सम्बन्ध आचार शास्त्र सम्बन्धी समस्याओं से है। यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी प्रगाढ़ रुचि थी। वेदों में व्याप्त मानवीय प्रेम के सिद्धान्त के, मानववाद तथा शान्तिमय श्रम की प्रशंसा के वे समर्थक थे। कलाकार ताल्स्ताय इन अग्रगण्य भारतीय रचनाओं की काव्यनिधि और कलात्मक उपमाओं पर आनन्दविभोर थे। वे वेदों तथा उनके बाद के भाष्य-उपनिषदों को विश्वकला की उन सर्वांगपूर्ण रचनाओं की कोटि में मानते थे जिन्होंने सभी युगों में समस्त जातियों का हृदय बरबस आकृष्ट किया है। इसलिए वे उन्हें सच्ची कला का
प्रतीक मानते थे। ताल्स्ताय ने न केवल वेदों को पढ़ा; वरन् उनकी शिक्षाओं का रूस में प्रचार प्रसार भी किया। उन्होंने वेदों और उपनिषदों की अनेक सूक्ति का संग्रह ‘पठन विस्तार तथा बुद्धिमानों के विचार’ शीर्षक से किया; इत्यादि। इस प्रकार वेदों की शिक्षाओं ने ताल्स्ताय जैसे जगद्विख्यात मनीषी
को कैसे प्रभावित किया यह स्पष्टतया ज्ञात होता है।
मेरे लिये यह प्रसन्नता और गौरव की बात है कि ताल्स्तय तक वेद विषयक शिक्षाओं को पहुँचाने का श्रेय जैसे कि इस उपरिनिर्दिष्ट लेख में श्री शिफमान ने भी बतलाया है गुरुकुल काङ्गडी के आचार्य और वैदिक मेगजीन के सम्पादक प्रो० रामदेव जी को है जो वैदिक मेगजीन नामक अपनी मासिक पत्रिका ताल्स्ताय के पास नियमित रूप में भेजते रहते थे और जो ताल्स्ताय के मित्र के रूप में उनके साथ पत्र-व्यवहार
करते रहते थे। वेद और उपनिषत् आत्मा के हिमालय के समान
श्री जे० मास्करो एम० ए० ने
‘Himalayas of the Soul’ नामक एक संग्रहात्मक पुस्तक का सम्पादन किया है। इसमें उन्होंने वेद, उपनिषत् और गीता को आत्मा के हिमालय के साथ उपमा देते हुए लिखा है
“If a Bible of India were composed,
if Sanskrit could find
a group of translators with the same feeling
for beauty of language and the same love for the sacred texts in the originals
as the Bible has found in England, eternal treasures of old wisdom and poetry
would enrich the times of today
Among those compositions, some of them living
words before writing was introduced, the Vedas, the Upanishads and the Bhagavad
Gita would rise above the rest like Himalayas of the spirit of man.”
(‘The Himalayas of the Soul’ by J.Mascaro M.A.
P.151)
अर्थात् यदि भारत की कोई बाइबिल संकलित की जाती, यदि संस्कृत भाषा के लिए ऐसे ही श्रद्धालु और योग्य अनुवादकों का वर्ग मिल जाता जिनका ध्यान भाषा-सौन्दर्य पर उतना होता और मूल के पवित्र मन्त्रों के साथ वैसा ही प्रेम होता जैसा कि इंग्लैण्ड में बाइबिल को प्राप्त हो गया तो प्राचीन बुद्धिमत्ता वा ज्ञान तथा कविता के नित्य कोषों से वर्तमान युग समृद्ध बन जाता।
उक्त रचनाओं में से कई ऐसी हैं जो जीवित जागृत शब्द बन चुके थे पूर्व इसके कि लेख का प्रयोग प्रारम्भ होता। इनमें से वेद, उपनिषदें
और भगवद्गीता मानवीय आत्मा के हिमालय के समान शेष सबसे ऊपर उठे हुए ग्रंथ होंगे। मि० ब्राऊन नामक अंग्रेज लेख की श्रद्धाञ्जलि:
मि० डब्लू० डी० ब्राऊन (W.D.Brown) नामक एक अंग्रेज विद्वान् ने अपने
‘Superiority of the Vedic Religion’ (वैदिक धर्म की श्रेष्ठता) नामक ग्रंथ में वैदिक धर्म के विषय में जो लिखा है वह स्वर्णक्षरों में उल्लेख करने योग्य है। वे लिखते हैं
It (Vedic Religion) recognizes but one God.
It is a thoroughly scientific religion where religion
and science meet hand in hand. Here theology is based upon Science and
philosophy:
अर्थात् वैदिक धर्म केवल एक ईश्वर का प्रतिपादन करता है। यह एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है जहाँ धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ
बातों को नहीं मानता। इसकी यह विशेषता है कि यह प्रत्येक बात में बुद्धि और तर्क को काम में लाने का उपदेश देता है।
(२) वेदों के महत्त्व का तीसरा प्रधान कारण यह है कि उनमें शारीरिक, मानसिक और स्थायिक सब शक्तियों के समविकास पर
आत्मिक बल दिया गया है। वेदों के अनुसार यह समविकास ही उन्नति का मूलमन्त्र है।
मनस्त आप्यायतां वाक् त आप्यायतां प्राणस्त आप्यायतां चक्षुस्त आप्यायतां श्रोत्रं त आप्यायताम्॥
(यजु० ६.१५) वाङ् म आसन् नसोः प्राणश्चक्षुरक्ष्णोः श्रोत्रं कर्णयोः॥
अपलिताः केशा अशोणा दन्ता बहु बाह्वोर्बलम्॥ ऊर्वारोजा जङ्गयोर्जवः पादयोः प्रतिष्ठा अरिष्टानि मे सर्वात्मा निभृष्टः॥ (अथर्व० १९.६०.१.२)
इत्यादि मन्त्रों में इसी शारीरिक, मानसिक आत्मिक शक्तियों के समविकास का प्रतिपादन और तदर्थ प्रार्थनादि का उपदेश है और इसे ही शिक्षा का प्रधान उद्देश्य बतलाया गया है।
(४) वेदों के महत्व का चतुर्थ कारण उनमें मध्यमार्ग का प्रतिपादन तथा उनके समन्वयात्मक उपदेश है। संसार में प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य मध्य मार्ग का अवलम्बन न करके किसी न किसी पराकाष्ठा (extreme)
पर तुल जाते हैं। उदाहरणार्थ कई पुरुष ऐसे हैं जो केवल वैयक्तिक उन्नति से ही सन्तुष्ट रहते हैं और सामाजिक उन्नति की ओर बिलकुल ध्यान नहीं देते। दूसरे कई ऐसे मनुष्य हैं जो पर्याप्त रूप से अपनी शारीरिक, मानसिक, आत्मिक शक्तियों को विकसित करने का प्रयत्न न करके केवल दूसरों की उन्नति के विचार में ही तत्पर रहते हैं। वास्तव में देखा जाये तो ये दोनों ही आवश्यक हैं। यजुर्वेद के ४० वें अध्याय में सम्भूति और असम्भूति पदों से आधिभौतिक दृष्टि से समाजिक और वैयक्तिक भाव का वर्णन करते हुए कहा है कि
अन्धंतमः प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते। ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रताः॥
(यजु० ४०.९)
ईशावास्यमिदं सर्व, यत् किं च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मागृधः कस्य स्विद्धनम्॥
(यजु० ४०.१) इन उत्तम शब्दों में दिया गया है जिनका स्पष्ट अर्थ है कि परमेश्वर संसार की सब वस्तुओं में व्यापक है इसलिए उसकी दी हुई वस्तुओं का तुम त्याग भावना पूर्वक भोग करो। लोभ मत करो। इस बात का विचार करो कि यह धन जिसको तुम अपना समझ कर अभिमान करते हो किसका है? यह वस्तुतः प्रजापति परमेश्वर का ही है। परोपकार के कार्यों में इस धन का अधिक से अधिक उपयोग करते हुए तुम आवश्यकतानुसार ईश्वर प्रदत्त सांसारिक वस्तुओं का उचित उपभोग करो इसमें कोई पाप नहीं है। इससे बढ़कर अधिक उपयोगी और
व्यवहारिक शिक्षा क्या हो सकती है? पूंजीवाद और साम्यवाद आदि वादों का उचित समन्वय इसी शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है, अन्यथा नहीं।
(५) वेदों के महत्व का पंचम कारण उनकी शिक्षाओं का तर्क और विज्ञान सम्मत होना है। इग्लैंड के मनीषी डब्लू० डी० ब्राऊन के इन स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य वाक्यों को मैं पहले उद्धृत कर ही चुका हूँ कि ‘Vedic
Religionisa thoroughly scientific religion where religion and science
meet hand in hand. Here theology is based upon science and
philosophy!
अर्थात वैदिक धर्म एक पूर्णतया वैज्ञानिक धर्म है जहाँ धर्म और विज्ञान हाथ में हाथ मिलाकर चलते हैं। यहाँ धार्मिक सिद्धान्त विज्ञान और फिलसाफी पर अवलम्बित हैं।
यह वस्तुतः सत्य है। वेदों में न केवल धर्म का मूल है किन्तु विज्ञान का भी मूल है इस बात को महर्षि दयानन्द जी ने अपने वेद-भाष्यों में दिखाया है। श्री अरविन्द जी जैसे जगद्विख्यात योगी और मनीषी ने महर्षि दयानन्द के इस विचार का इन शब्दों में समर्थन किया for
‘There is nothing fantastic in Dayananda’ idea that Veda contains truth
of science as well as truth of religion. I will even add my own conviction
that Veda contains the other truths of a science the modern world
does not at all possess and in that case, Dayananda has rather understated
than overstated the depth and range of the Vedic wisdom.’
(‘Dayananda and the Veda’ by Shri Arvindo) अर्थात् ऋषि दयानन्द की इस धारणा में कि वेद में धर्म और विज्ञान दोनों की सचाइयाँ पाई जाती हैं कोई उपहासास्पद वा कल्पित बात नहीं है। मैं इसके साथ अपनी धारणा जोड़ना चाहता हूँ कि वेदों में एक दूसरे विज्ञान की सचाइयाँ भी विद्यमान हैं जिनका आधुनिक जगत् को किञ्चिन्मात्र भी ज्ञान नहीं है और ऐसी अवस्था में ऋषि दयानन्द ने वैदिक ज्ञान की गम्भीरता के विषय में अतिशयोक्ति से नहीं अपितु न्यूनोक्ति से ही काम लिया है। वेदों में विविध विद्याओं का मूल किस प्रकार पाया जाता है इस बात को जो विस्तार से जानना चाहते हैं उन्हें महर्षि दयानन्द के भाष्यों के अतिरिक्त निम्न पुस्तकों का अनुशीलन अवश्य करना चाहिये। बंगाल की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य और निरुक्तालोचनम्, ऐतेरयालोचनम् आदि अनेक ग्रन्थों के विद्वान् लेखक पं० सत्यव्र जी सामश्रमी कृत त्रयीपरिचय, त्रयीचतुष्टय आदि-इसमें उन्होंने अनेक मन्त्रों की विज्ञानपरक व्याख्या की है।
महाराष्ट्र के विद्वान् श्री नारायणराव पावगी कृत ‘The
Vedic Father of Geology‘- इस ग्रन्थ की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि
“I may take this opportunity to remind
the reader, without fear of contradiction, that the Vedas contain many
things not yet known to anybody,
as they form a mine of inexhaustible literary wealth, that has
only partially been opened and has still remained
unexplored.”
(‘The Vedic Fathers of Geology’ Introduction
P. vi) अर्थात् मैं बिना किसी विरोध के भय के पाठकों को याद कराना चाहता हूँ कि वेदों में बहुत-सी ऐसी बातें पाई जाती हैं जिनका अभी तक किसी को ज्ञान नहीं क्योंकि वे इस साहित्यिक धन की अक्षय खान हैं जिसका अभी थोड़ा-सा अंश ही प्रकट हुआ है और जो अभी तक अज्ञात ही पड़ा है।
श्री पावगी के ‘Self Government in Ancient India’- ‘Vedic
and Postvedic’ तथा ‘Vedic India’-‘Mother of Parliaments’ नामक ग्रन्थ भी पढ़ने योग्य हैं जिनमें उन्होंने स्वराज्य और प्रजातन्त्र शासन-पद्धति का मूल वैदिक भारत को बताते हुए वेदों के विषय में लिखा है कि
‘The Veda is the fountainhead of knowledge,
the prime source of inspiration, nay, the grand repository of petty passages
of Divine Wisdom and even Eternal Truth’ (Vedic India P. 136)
अर्थात् वेद सम्पूर्ण ज्ञान का आदि स्रोत, ईश्वरीय ज्ञान का प्रधान आधार, इतना ही नहीं, बल्कि दिव्य बुद्धि और नित्य सत्यमय वाक्यों का महान् भण्डार है। __ जीव-विज्ञान वा Biology का मूल वेदों में किस तरह पाया जाता है इसको जानने के लिये पाठक ‘The
VedicGods-as Figures of Bilogy’ by Dr.V.G. Rele L.M.ES., EC.P.S. नामक पुस्तक को पढ़ें।
भौतिकी और रसायन-शास्त्र का मूल वेदों में जो जानना चाहते हैं उन्हें श्री पन्यम् नारायण गौड एम० ए०, बी० एस० सी० ‘Introduction to the Message of
the 20th Century’ नामक पुस्तक विशेष रूप से पढ़नी चाहिये जिसके विषय का निर्देश करते हुए लेखक ने लिखा है-‘Proving that theVedas as treatise
on the exact Sciences.’
अर्थात् इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि वेद शुद्ध विज्ञानों के ग्रन्थ हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद के विषय में वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करते हुए इस ग्रन्थ के लेखक ने लिखा है कि
“The Rigveda deals with the theorems
and experiments, while the process of preparing the reagents
and apparatus is recorded in the Yajurveda which is in effect;
a laboratory guide.”
अर्थात् ऋग्वेद वैज्ञानिक सिद्धान्तों और परीक्षणों का निरूपण करता है। जबकि उनक साधनों और उपकरणों के तैयार करने की प्रक्रिया यजुर्वेद में पाई जाती है जो परिणामस्वरूप एक परीक्षणशाला मार्गदर्शक है।
इनके अतिरिक्त श्री पं० प्रियरत्नजी आर्ष (अब स्वा० ब्रह्ममनि जी परिव्राजक नाम से प्रसिद्ध) कृत ‘वेदों में दो बड़ी वैज्ञानिक शक्तियाँ’ और’बृहद् विमानशास्त्र'(दोनों सार्वदेशिक सभा देहली द्वारा प्रकाशित) श्री हंसराज कृत ‘The
Sciences in the Vedas’, पं० बलराम शर्मा कृत ‘विद्याओं का आदि स्रोत’, (प्रकाशक-मुंशीराम मनोहरलाल, नई सड़क, देहली), श्रुतिप्रकाश पुस्तकालय लुधियाना द्वारा प्रकाशित, वेदों के परम भक्त श्री दीवान रामनाथ जी काश्यप द्वारा स्व० श्री पं० जयदेव जी शर्मा विद्या मार्तण्ड के वेदों के भाषानुवाद के आधार पर संकलित वेदों में विज्ञान’२ खण्ड अथवा
‘Science in the Vedas’No. 1-2 (जिसमें पं० जयदेव जी कृत वेद-मन्त्रों के विज्ञान विषयक हिन्दी अनुवाद का अंग्रेजी अनुवाद भी दिया गया है)। जोधपुर के श्री पन्नालाल परिहार B.A. LL. B. कृत
‘Material Scienes in the Vedas’ इत्यादि पुस्तकें भी वेदों में विज्ञान की दृष्टि से पढ़ने योग्य हैं। वेद और विज्ञान पर कुछ पाश्चात्य विद्वान्
वेदों में विज्ञान के सम्बन्ध में इंग्लैण्ड के मि० डब्लू० डी० ब्राउन की सम्मति मैं पहले उद्धृत कर चुका हूँ। जैकोलियट नामक फ्रांस देशीय विद्वान् ने जो चन्द्र नगर (फ्रेंच राज्यान्तर्गत भारतीय प्रदेश) में अनेक वर्षों तक चीफ जस्टिस रहे थे अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘The
Bible in India’ में ईश्वरीय ज्ञान माने जाने वाले विविध मत-मतान्तरों के ग्रन्थों की वेदों के साथ सृष्टयुत्पत्ति के विषय में तुलनात्मक विवेचना करते हुए बड़े आश्चर्य के साथ लिखा
“Astonishing fact! The Hindus Revelation
(Veda) is of all Revelations the only one whose ideas are in perfect
harmony with modern science, as it proclaims the slow and gradual formation
of the world.”
(‘The Bible in India” by Jacolliot Vol
II. Chap. 1) अर्थात् कितनी आश्चर्यजनक सचाई है। हिन्दुओं का ईश्वरीय ज्ञान (वेद) ही जो लोकों की मन्द और क्रमिक रचना बतलाता है सब ईश्वरीय ज्ञानों में एक ऐसा है जिसकी कल्पनाएं आधुनिक विज्ञान के
निकाल दी गई।
(२) एरियस नामक अलेक्जण्ड्रिया के दार्शनिक पर इस विचार के प्रकट करने पर कि ‘पिता और पुत्र की आयु समान नहीं हो सकती’ (जिसका निर्देश ईसा मसीह और पवित्र पिता या Holy
Father की ओर था) ईसाइयों की कौन्सिल की ओर से भीषण अत्याचार किये गये और उसके इस विचार की घोर निन्दा की गई।
(३) नेस्टर नामक ऐण्टयोक के पादरी को यह युक्तियुक्त विचार प्रकट करने पर कि ईश्वर की कोई माता नहीं हो सकती (जिसका निर्देश ईसा मसीह को ईश्वर मानते हुए उसकी माता मरियम को मानने
के ईसाई सिद्धान्त की ओर था) देश-निकाला दे दिया गया।
(४) पैलोगयिस नामक एक अन्य यूनान देशीय दार्शनिक को इस विचार के प्रकट करने पर कि जगत् में मृत्यु आदम के पाप के फल रूप नहीं हो सकती (जैसे कि Original Sin के सिद्धान्त के अनुसार ईसई मानते हैं) सेन्ट ऑगस्टाइन की प्रेरणा से उस समय के ईसाई सम्राट ने देश निकाला दे दिया और उसकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली।
(५) गैलीलियो नामक प्रसिद्ध वैज्ञानिक को इस बात का प्रचार करने और पुस्तक द्वारा प्रकट करने पर कि पृथिवी गोल है और वह सूर्य के चारों और घूमती है पोप की अध्यक्षता में
Inquisition Court अथवा धर्मनिर्णायक समिति ने १० वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड दिया और यह निर्णय इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में प्रकाशित किया
“The first proposition that the sun is
the centre does not revolve around the earth is foolish, absurd, false in
theology and heretical, because contrary to the Holy Scriptures.”
अर्थात् गैलीलियों द्वारा प्रतिपादित यह विचार कि सूर्य केन्द्र है और वह पृथिवी के चारों और नहीं घूमता मूर्खतापूर्ण, वाहियात, मत सिद्धान्त की दृष्टि से एकदम मिथ्या है क्योंकि यह हमारे धर्म-ग्रंथ (बाइबल)की शिक्षा के सर्वथा विरुद्ध है।
“And the second proposition that the
earth is not the centre but revolves about the sun is absurd, false
in philosophy and from a theological point of view at least opposed to the
true faith.”
दूसरा विचार कि पृथिवी केन्द्र नहीं प्रत्युत सूर्य के चारों और प्रदक्षिणा करती है असङ्गत, फिलासफी के दृष्टिकोण से असत्य और कम-से-कम धर्म सिद्धान्त की दृष्टि से सच्चे धर्म के सर्वथा विरुद्ध है।
इसीलिये वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार पृथिवी को गोलब ताने वाले गैलीलियों पर बड़े-बड़े अत्याचार किये गये। उसे १० वर्ष की ठिन सजा दी गई जिसके परिणामस्वरूप जेल में ही उसकी मृत्यु हो गई। ब्रूनो नामक एक दूसरे वैज्ञानिक के विरुद्ध भी इसी तरह की कार्यवाही की गई क्योंकि वह पृथिवी को गोल बताता और यह सिद्ध करता था कि अनेक लोक-लोकान्तर हैं। उसे १६ फरवरी १६०० ई० को जीवित अवस्था में ही तेल छिड़क कर जला दिया गया। ऐसे ही अत्याचार अन्य अनेक दार्शनकों और वैज्ञानिकों पर किये गये।
(६) वेदों के महत्व का षष्ठ कारण उनमें विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादन है। वेदों में अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण, यम आदि नामों से प्रधानतया उस एक परमेश्वर का ही प्रतिपादन किया गया है इसे
एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहुः॥
(ऋ० १.१६४.४६) यो देवानां नामधा एक एव॥ (ऋ० १०. ८२.३)
इत्यादि में स्पष्ट बतलाया है जिनका तात्पर्य यह है कि ज्ञानी लोग उस एक परमेश्वर को ही उसके अनेक गुणों को सूचित करने के लिये अनेक नामों से पुकारते हैं। देवों के इन नामों का धारण करने वाला वह एक ही परमेश्वर है।
द्यावा भूमी जनयन, देव एकः।। (ऋ० १०.८१–३)
धुलोक (आकाश) पृथिवी आदि लोकों का उत्पादक वह एक ही देव है।
एक इद् राजा जगतो बभूव।। (ऋ० १०.१२१.४) परमेश्वर ही सारे जगत् का एक राजाधिराज है। य एक इत् तमुष्टुहि कृष्टीनां विचर्षणिः। पतिर्जज्ञे वृषक्रतुः।
(ऋ० ६.५१.१६)
अर्थात् जो एक ही सब मनुष्यों का ठीक-ठीक देखने वाला सर्वज सुखों की वर्षा करने वाला, सर्वशक्तिमान् सबका स्वामी है। हे मनष्य। तू सदा उसकी स्तुति कर।
माचिदन्यद् विशंसत सखयो मारिषण्यत। इन्द्रमित् स्तोता वृषणं सचासुते, मुहुरुक्या च शंसत॥
(ऋ० ८.१.१ साम) हे मित्रो! परमेश्वर को छोड़ कर किसी अन्य की स्तुति मत करो। ऐसा करके दु:ख मत उठाओ। एकान्त में और यज्ञादि के अवसरों में सामूहिक रूप में सुख-शान्ति के वर्षक उस एक परमेश्वर की ही स्तुति बार-बार करो।
एक एव नमस्यो विश्वीड्यः। (अथर्व० २.२.२) एक एव नमस्यः सुशेवाः॥ (अथर्व० २.२.३)
वह एक परमेश्वर ही प्रजाओं द्वारा पूजनीय और नमस्कार करने योग्य है क्योंकि वही उत्तम सुख का प्रदान करने वाला है इत्यादि मन्त्रों द्वारा वेद विशुद्ध रूप में एक ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना, उपासना का प्रतिपादन करते हैं जिसका स्वरूप इन शब्दों में बताया गया है कि ‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपाप विद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथा तथ्यतोऽर्थान् व्यदध च्छिाश्वतीभ्यः समाभ्यः। (यजु० ४०.८)
__ अर्थात् ज्ञानी उपासक उस परमेश्वर को प्राप्त करता है जो सर्व शक्तिमान्,सर्वथा निराकार, नस-नाड़ी के बन्धन से रहित, निर्विकार, शुद्ध,पाप रहित, सर्वज्ञ, मन का साक्षी, सर्वव्यापक और स्वयंभू है और जो जीव रूप नित्य प्राजाओं के कल्याण के लिये यथार्थ रूप से पदार्थों का निर्माण करता और वेद द्वारा उनका ज्ञान देता है।
वैदिक ईश्वरवाद पर मैंने आर्य कुमार सभा किंग्सवे कैम्प द्वारा प्रकाशित ‘वैदिक ईश्वरवाद और वर्तमान विज्ञान’ नामक लघु पुस्तक में विचार किया है और उसके समर्थन में सर आइजक न्यूटन, सर आलिवर लाज, लौर्ड केल्विन्, लुई पैश्चर, थौमस ऐडीसन् मास्टरमैन, आइन्स्टीन् आदि सुप्रसिद्ध पाश्चात्य वैज्ञानिकों और चार्ल्स कोलमैन, कॉन्ट जान्सजर्ना, श्लीगल, मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वानों के वचनों को भी वहाँ उद्धत
किया है।अतः जो इस विषय में वेद की शिक्षा को जानना चाहते हैं उन्हें उस लघु पुस्तक को पढ़ना चाहिये। बाइबल, कुरान आदि में जो ईश्वर का स्वरूप बताया गया है वह सातवें वा चौथे आस्मान में रहने वाला, मनुष्यों के समान अज्ञान, क्रोध, ईर्ष्या आदि से युक्त है, उसके साथ ही ईसा मसीह अथवा मुहम्मद साहेब में विश्वास मुक्ति के लिये अनिवार्य माना गया है|अतः उसे विशुद्ध एकेश्वरवाद का नाम नहीं दिया जा सकता। वस्तुतः
विज्ञान और तत्वज्ञान (फिलासफी)ऐसी ही परमेश्वर की नरवत् कल्पना (Anthropomorphic
Conception of God) का खण्डन करते हैं, ईश्वर की सत्ता का नहीं यह भी वहाँ बताया जा चुका है।
(७) वेदों के महत्व का सप्तम कारण उनकी शिक्षाओं की सार्वभौमता और निष्पक्षता और ओजस्विता है। वेद
‘दृतेदृहमा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे, मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥ (यजु० ३६.१८)
इत्यादि मन्त्रों के द्वारा सब प्राणियों को मित्र की प्रेममय दृष्टि से उपदेश करते हैं। इसी विश्वबन्धुत्व की भावना से ही विश्व शान्ति की स्थापना हो सकती है। उनकी निष्पक्षपात शिक्षा यह है कि
“प्रिय! सुकृत प्रिय इन्द्रे मनायुः प्रियः सुप्रादी: प्रियो अस्य सोमी॥’ (ऋ० ४.२५.५)
अर्थात् भगवान् का प्यारा वह होता है जो (सुकृत) सदा अच्छे काम करने वाला है। जो (मनायुः) मननशील अथवा विचारशील है (प्रियः सुप्रावी:) वह परमेश्वर का प्यारा होता है जो उत्तम रीति से सब प्राणियों की रक्षा करने वाला होता है और जो (सोमी) स्वयं शान्तियुक्त होकर शान्ति का प्रसार करने वाला होता है। ऐसा व्यक्ति ही भगवान् का प्रिय होता है फिर वह चाहे किसी देश वा स्थान का हो। वेदों की इन सर्वभौम निष्पक्षपात शिक्षाओं की जब मत-मतान्तरों की संकुचित साम्प्रदायिकतापूर्ण शिक्षाओं के साथ तुलना की जाती है तो आकाश पाताल का अन्तर प्रतीत होता है।
विस्तार भय से वेद और वैदिक धर्म की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए मैं एक स्वनिर्मित गीत के द्वारा उपसंहार करना उचित समझता हूँ। इसमें उपरिनिष्ट वेदों के महत्व के कारणों और विशेषताओं के अतिरिक्त अन्य भी बहत-सी बातों का निर्देश कर दिया गया है। आर्य नर-नारियाँ तथा आर्य कुमार-कुमारियाँ सब इस वैदिक धर्म गीत को स्वयं प्रेमपूर्वक गावें तथा औरों को भी सिखावें तो इससे उनको वैदिक धर्म के तत्वों और विशेषताओं को समझने में सहायता मिलेगी। इस अत्यन्त महत्वपूर्ण युक्तियुक्त विज्ञानसम्मत वैदिक धर्म के अनुसार आचरण करना और वेदों का प्रतिदिन स्वाध्याय करना प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है।
वैदिक धर्म गीत वैदिक धर्म हमारा अनुपम, वैदिक धर्म हमारा। यह है जिसने लाखों लोगों, को है जग में तारा।।१।।
एकेश्वर पूजा सिखलाता, भेद भाव को दूर भगाता। प्राणिमात्र से प्रेम बढ़ाता, प्राणों से बढ़कर के प्यारा।।२।।
ज्ञान कर्म शुभ भक्ति मिलाता, श्रद्धा मेधा मेल कराता। अन्धकार को दूर हटाता, है यह हृदय उजारा।।३।।
बुद्धि विरुद्ध नहीं कुछ इसमें, व्यष्टि समष्टि मेल है इसमें। त्याग भोग मिल जाते इसमें, मत पन्थों से न्यारा।।४।।
सब हैं ईश्वर-पुत्र समान, कल्पित ऊँच-नीच नहिं मान। करो देव का गुणगण गान, वह भवसागर तारनहारा।।५।।
जो करता है वह भरता है, अटल नियम यह नित रहता है। आत्मा नित्य नहीं मरता है, निर्भय करने हारा।।६।।
यह धर्म है श्रेष्ठ महान्, करता है सबका कल्याण। इसके बिना नहीं उत्थान, यह है शुभ उन्नति का द्वारा।।७।।
समझो सबको मित्र समान, गुण कर्मों के कारण मान। कर लो वेदामृत का पान, जो सन्ताप विनाशनहारा।।८।। आओ आर्य बनें हम सारे, कर्तव्यों के पालनहारे। प्रभ विश्वासी कभी न हारे, जिसने सबका दु:ख निवारा।।९।।
बनें आर्य जग आर्य बनावें, न्याय सत्य अनुराग बढ़ावें। सच्चे ईश्वर-पुत्र कहावें, ‘सत्य धर्म की जय’ हो नारा।।१०।।
-धर्मदेव विद्यामार्तण्ड (देवमुनि वानप्रस्थ)