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श्राद्ध और गरुड़ पुराण की वास्तविकता: डॉ धर्मवीर परोपकारिणी सभा

 

पुराण और गप्प दोनों शब्द अन्योन्याश्रित हैं। जब गप्पे अधिक हो जायें तो पुराण बन जाता है। पुराण है तो गप्पों की भरमार होनी है। सामान्य रूप से सभी धार्मिक लोग धर्म में चमत्कार बताने के लिये गप्पों का आश्रय लेते ही हैं। इसी कारण धर्मग्रन्थों में गप्पों की कमी नहीं मिलती। पुराण और जैन ग्रन्थ तो गप्पों में एक से एक बढ़कर हैं। गरुड़ पुराण में भी गप्पों की कमी नहीं है। गरुड़ पुराण में यमलोक के मार्ग का वर्णन करते हुए मार्ग में पड़ने वाली वैतरणी नदी की चौड़ाई शत योजन विस्तीर्ण अर्थात् सौ योजन चौड़ी बताई है, एक योजन में चार कोस होते हैं, एक कोस में दो मील होते हैं। यह नदी कोई पानी की नदी नहीं है, यह नदी पूय शोणित वाहिनी अर्थात् जिसमें खून और पस बहती है। ऐसी कोई नदी संसार में है नहीं परन्तु पुराणकार के नक्शे में तो है। एक आर्यसमाजी को गरुड़ पुराण का परिचय सत्यार्थप्रकाश की निन पंक्तियों से मिलता है, जो अन्यों के लिए भी उतना ही सटीक है-

प्रश्न- क्या गरुड़ पुराण भी झूठा है?

उत्तर- हाँ, असत्य है।

प्रश्न- फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है?

उत्तर- जैसे उनके कर्म हैं।

प्रश्न- जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उसके बड़े भयङ्कर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले जीव को पकड़ कर ले जाते हैं, पाप-पुण्य के अनुसार नरक-स्वर्ग में डालते हैं। उसके लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि वैतरणी नदी तारने के लिये करते हैं। ये सब बात झूठ क्योंकर हो सकती हैं।

उत्तर- ये सब बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो इस लोक से भिन्न लोकों के जीव वहाँ जाते हैं, उनका धर्मराज, चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं तो यदि यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहाँ के न्यायाधीश उनका न्याय करें और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरनेवाले जीव को लेने में छोटे द्वार में रुक जाते। जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़ पोपजी विना अपने घर के कहाँ धरेंगे? जब जङ्गल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उनको पकड़ने के लिये असंय यम के गण आवें तो वहाँ अन्धकार हो जाना चाहिये और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे तब कभी उनके शरीर ठोकरें खा जायेंगे तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूटकर पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव गरुड़पुराण के बाँचने-सुनने वालों के आँगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे? श्राद्ध, तर्पण, पिण्ड-प्रदान उन मरे हुए जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोपजी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोपजी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती, पुनः किसकी पूँछ पकड़ कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जलाया वा गाड़ दिया गया, पूँछ को कैसे पकड़ेगा? यहाँ एक जाट का दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है-

एक जाट था। उसके घर में बीस सेर दूध देनेवाली गाय थी। दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था। उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा थ कि जब जााट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इस गाय का सङ्कल्प करा लेंगे। दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से नीचे उतार सुवाया। बहुत से जाट के सबन्धी उपस्थित थे। उस समय पोपजी पुकारा- ‘‘लो यजमान! इसके हाथ से गोदान कराओ।’’ जाट ने दश रुपया निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला- ‘‘पढ़ो सङ्कल्प!’’ पोपजी बोले- ‘‘वाह! बाप वारवार मरता है? साक्षात् गाय लाओ, वह दूध भी देती हो, बुड्ढी न हो और सब प्रकार उत्तम हो।’’

जाट- एक गाय हमारे है, उसके विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह नहीं हो सकता, उसको न दूंगा। लो ये बीस रुपये का सङ्कल्प। तुम दूसरी गाय ले लेना।

पोपजी- वाहजी वाह! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? अपने पिता को वैतरणी में डुबा, दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए! तब तो पोपजी की ओर सब कुटुबी हो गये, क्योंकि उन सबको पहिले ही से पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान पोपजी को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया। पोपजी गाय, बछड़ा और दूध दोहने की बटलोही लेकर, घर में जा, गाय-बछड़े को बांध, बटलोही को धर, यजमान के घर आया, श्मशान में ले जा, दाह किया। वहाँाी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा, भुक्खड़ों ने भी बहुत-सा माल पेट में भरा। जब सब हो चुका, तब जाट ने जिस-किसी के घर से दूध माँग-मूंग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोपजी के घर पहुँचा। देखा तो गाय को दुह, बटलोई भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी। इतने ही में जाटजी पहुँचे। पोपजी ने कहा आइये बैठिये!

जाटजी- तुम भी इधर आओ।

पोपजी- अच्छा दूध धर आऊँ।

जाटजी- नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ। पोपजी जो, बटलोई सामने धर, बैठे।

जाटजी- तुम बड़े झूठे हो।

पोपजी- क्या झूठ किया?

जाटजी-गाय किसलिये ली थी?

पोपजी- तुहारे बाप के वैतरणी तरने के लिये।

जाटजी- फिर तुमने वैतरणीके किनारे क्यों न पहुँचाई? हम तुहारे भरोसे पर रहे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?

पोपजी- नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन गई। तुहारे बाप को पार उतार दिया।

जाटजी- वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है?

पोपजी- अनुमान तीस क्रोड़ कोश दूर है। क्योंकि उनञ्चास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण नैर्ऋत दिशा में वैतरणी नदी है।

जाटजी- इतनी दूर से तुहारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, दिखलाओ?

पोपजी- हमारे पास ‘गरुड़पुराण’ के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।

जाटजी- इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें?

पोपजी- जैसे सब मानते हैं।

जाटजी- यह पुस्तक तुहारे पुरुखाओं ने तुहारी जीविका के लिये बनाया है। क्योंकि पिता को विना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी के किनारे गाय पहुँचा दूँगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ! दूध की भरी हुई बटलोई, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला।

पोपजी- तुम दान देकर लेते हो, तुहारा सत्यनाश हो जायगा।

जाटजी- चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन तक दूध के विना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूँगा। तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले, अपने घर पहुँचे।

जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।

सत्यार्थप्रकाश समुल्लास 11, पृ. 408-411

इसी प्रकार इक्कीस प्रकार के नरकों का वर्णन किया गया है। गरुड़ पुराण अन्य पुराणों की भांति यज्ञों में पशु हिंसा का भी उल्लेख करता है, वेदोक्त यज्ञ की हिंसा के अतिरिक्त अपने लिये पशु मारता है, ऐसा ब्राह्मण वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में शूद्र द्वारा वेद पढ़े जाने पर दण्ड विधान है, वेद पढ़ने वाला शूद्र भी वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है जो शूद्र होकर वेद पढ़ता है, जो शूद्र कपिला गाय का दूध पीता है, यज्ञोपवीत धरण करता है, ब्राह्मणों से संसर्ग करता है, ऐसा वेद पढ़ने वाला शूद्र वैतरणी नदी में गिरता है। गरुड़ पुराण में लिखा है- दूसरी नदियाँ स्नान करने से पापी पुरुष को पवित्र करती हैं। यह गंगा नदी दर्शन तथा स्पर्श से, पान करने से, गंगा शब्द के उच्चारण मात्र से हजारों पापी पुरुषों को पवित्र कर देती है। यदि प्राण कण्ठ में आ गये हों फिर भी यदि मनुष्य गंगा-गंगा ऐसा उच्चारण करे तो वह विष्णु लोक को प्राप्त होता है। इसी प्रकार गरुड़ पुराण में सती-प्रथा का भी महत्व बताते हुए कहा गया है- यदि पतिव्रता स्त्री पति के साथ परलोक जाने की इच्छा करे, तब वह पति के मरने के बाद स्नानकर, रोली, केसर, अंजन, सुन्दर वस्त्र, आभूषण धारण कर ब्राह्मण व बन्धु वर्ग को यथायोग्य दान करे। गुरुजनों को नमस्कार करे, मन्दिर में देवता के दर्शन करे, पहने हुए आभूषण उतारकर विष्णु को अर्पित कर दे। श्रीफल लेकर सब मोह छोड़ श्मशान पहुँचे। सूर्य को नमस्कार कर चिता की परिक्रमा कर चिता को पुष्प शय्या समझकर उस पर बैठकर पति को अपनी गोदी में लिटाये। हाथ का श्रीफल सखि को दे अग्नि जलाने का आदेश दे और इस अग्निदाह को गंगा-स्नान समझे। स्त्री गर्भवती हो तो पति के साथ शरीर दाह न करे। पति के साथ चिता में जलने वाली स्त्री का शरीर तो जल जाता है परन्तु आत्मा को कुछ भी कष्ट नहीं होता, सती होने पर नारी के पाप वैसे ही दग्ध हो जाते हैं, जैसे अग्नि में धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं। पतिव्रता स्त्री को अग्नि उसी प्रकार नहीं जलाती जैसे सत्य बोलने वाले मनुष्य को अग्नि नहीं जलाती। पुराणकार कहता है- यदि स्त्री पति के साथ दग्ध हो जाती है तो वह फिर कभी स्त्री शरीर धारण नहीं करती, अन्यथा हर जन्म में वह स्त्री ही बनती है। सती होने वाली स्त्री अरुन्धती सदृश होकर स्वर्ग लोक में पूजनीय बन जाती है। स्वर्गलोक में चौदह इन्द्र के राज्य करने तक अपने पति के साथ आनन्द मनाती हुई, अप्सराओं के द्वारा स्तुति को प्राप्त होती है। सती होने होने वाली स्त्री माता-पिता-पति तीनों कुलों का उद्धार करती है। मनुष्य के शरीर पर साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, इतने वर्षों तक सती स्त्री स्वर्ग में रहती है, सूर्य-चन्द्र के रहने तक पतिलोक में निवास करती है। सती स्त्री अपनी इच्छा से पुनः लक्ष्मीवान कुल में जन्म धारण करती है। पुराण गप्पकार अन्त में कहता है- जो स्त्री क्षणमात्र अग्निदाह के दुःख से भयभीत अपने को नहीं जलाती, वह जन्मपर्यन्त वियोग अग्नि में जलती है और दुःखी होती है। अतः स्त्री को उचित है कि पति को रुद्र रूप जानकर उसके साथ अपने शरीर का दाह करे।

गरुड़ पुराण में सोलह अध्याय हैं परन्तु इस पुराण का मन्तव्य नौवें अध्याय से तेरहवें अध्याय में पूर्ण हो जाता है। प्रारभ के अध्यायों में यम मार्ग की चर्चा है। यमालय, वैतरणी का वर्णन है। आगे किस पाप को करने से मनुष्य कौनसी योनि को प्राप्त करता है, बताया गया है। गर्भ के दुःख किस प्रकार के हैं, यह बताकर अपने प्रयोजन को सिद्ध करने की भूमिका  में कहा गया है- मनुष्य पाप करके भी कैसे पाप के दुःखों से बच सकता है, उसके उपाय के रूप में पुत्र-प्राप्ति और पुत्र द्वारा किया श्राद्ध मनुष्य को सभी दुःखों से छुड़ा देता है, यहाँ भूमिका के रूप में एक कथा कही गई है, जो राजा एक प्रेत का और्ध्व दैहिक कर्म करके उसे दुःखों से मुक्ति दिला देता है।

मनुष्य मरने लगे तो उसे शैय्या से उतार कर तुलसी दल के पास गोबर से लिपे स्थान पर लिटा दे। पास में शालीग्राम रखे। इससे निश्चित मुक्ति होती है। तिलदान, दर्भ का स्पर्श, शालीग्राम का जल पिलाना, गंगाजल मुख में डालना। जो मनुष्य धर्मात्मा होता है, उसके प्राण शरीर के उपरि छिद्र से निकलते हैं। जो पापी होता है, उसके प्राण देह के निन छिद्रों से निकलते हैं। विष्णुलोक से विमान आकर उस आत्मा को विष्णु लोक ले जाता है।

दसवें अध्याय में मृत्यु के बाद, पुत्र मुण्डन कराये, गंगा की मिट्टी का शरीर पर लेप करे, शव को स्नान कराकर चन्दन का लेप करे, नवीन वस्त्र से ढककर पिण्डदान करे, परिवार के लोग शव की प्रदिक्षणा कर सर्वप्रथम  पुत्र अर्थी को कन्धा देवे। अग्नि की प्रार्थना कर श्मशान में चिता बनावे, पिण्ड बनाकर चिता में रखे, सपिण्ड श्राद्ध करे। जो पञ्चक में मरता है, उसकी सद्गति नहीं होती, पञ्चक पांच नक्षत्रों को कहते हैं। इनमें मरने पर पहले नक्षत्रों की पूजा करे, पत्नी सती होना चाहे तो सती हो जाये। शव का दाह कर कपाल क्रिया करे। स्त्रियाँ स्नान कर तिलाञ्जलि देवें। घर आकर स्नानकर गो ग्रास दे, जो भोजन अपने घर न पका हो, उसका पत्तल में भोजन करे। बारह दिन तक मृतक के स्थान पर घृत का दीपक जलाये। चौराहे पर दूध पानी रखे। तीसरे या चौथे दिन श्मशान जाकर अस्थि का चयन करे। दूध का जल छिड़क कर अग्नि को शान्त करे। तीन दिशा में तीन पिण्ड दान करे। चिता भस्म को इकट्ठा कर उसपर पानी भरा घड़ा रखे, श्मशान में प्रथम गड्ढे में अस्थि-पात्र रखे फिर जलाशय में ले जावे, फिर यथाविधि गंगा में प्रक्षेप करे। जिसकी अस्थियाँ जितने वर्ष गंगा में रहती हैं, वह उतने वर्ष स्वर्ग लोक में रहता है। संन्यासियों को जल में बहा दे या भूमि में गाड़ दे।

ग्यारहवें अध्याय में दशगात्र विधि का वर्णन है। मरे व्यक्ति का पाक्षिक, मासिक, फिर वार्षिक श्राद्ध करे। दशरात्रि प्रेत के नाम पर दूध, दीप, नैवेद्य, सुपारी, पान, दक्षिणा, दूध, पानी आदि देवे, जो प्रेत के नाम से देते हैं, वह प्रेत को प्राप्त हो जाता है। इस में पहले दिन से दसवें दिन तक प्रतिदिन क्या करे, इसका वर्णन है। दसवें दिन सब परिवार वाले मुण्डन कराके स्नान कर ब्राह्मणों को दसों दिन तक मिष्टान्न भोजन कराये, गो ग्रास दे कर भोजन करें।

ग्यारहवें दिन वृषोत्सर्ग करे, शय्यादान करे, शय्या में विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर दान करें, प्रेत के लिये गौ, वस्त्र, वाहन, आभूषण, घर जो भी जितना देने में समर्थ हो, उतना ब्राह्मणों को दान करे। ब्राह्मणों के चरण धोये, लड्डू मिष्टान्न आदि देवें। वृषोत्सर्ग करने से मनुष्य सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है। इसमें अड़तालीस प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं।

अगले तेरहवें अध्याय में सूतक का वर्णन है। किस दुर्घटना से किस सबन्ध को कितने दिन का सूतक होता है, यह विस्तार से बताया गया है। हर स्थान पर शय्या दान, पददान का विधान है। पददान में छाता, जूता, वस्त्र, अंगूठी, कमण्डल, आसन, पञ्चपात्र, इन सात वस्तुओं का नाम पद है। इसके बाद तेरह ब्राह्मण को भोजन करावें। फिर तीर्थ-श्राद्ध, गया-श्राद्ध, पितृ-श्राद्ध करने का विधान है। इस प्रकार श्राद्ध करने से पितर तृप्त और प्रसन्न होते हैं।

गरुड़ पुराण में बहुत सारी बाते प्रसंगवश उद्धृत हैं, उनपराी दृष्टि डालना उचित होगा। एक लबी सूची दी गई है, क्या-क्या करने से मनुष्य नरक को प्राप्त होते हैं, पूरा चौथा अध्याय ऐसा है, जिसका शीर्षक है- ते वै नरक गामिनः। ब्राह्मण यदि यज्ञ न करे, अखाद्य खाये तो अगले जन्म में व्याघ्र बनेगा। पाँचवें अध्याय में क्या करने से कौन-सी योनि प्राप्त होती है, इसका वर्णन किया गया है। जैसे जो बाहर से ब्राह्मण वेषधारी है, सन्ध्या नहीं करता, वह अगले जन्म में बगुला बनता है। मनुष्य के शुभाशुभ कर्म समान होने पर पुनः मनुष्य जन्म मिलता है- ‘‘मानुषं लभते पश्चात् समी भूते शुभाऽशुभे। 5/52’’ छठे अध्याय में मनुष्य के तीन ऋण की चर्चा की गई है। गर्भ में वृद्धि किस प्रकार होती है, इसकी प्रसंग से चर्चा की गई है। जीवन की नश्वरता बताते हुए धर्माचरण करने की प्रेरणा दी गई है। कर्मफल के अनुसार मनुष्य पुनर्जन्म को प्राप्त करता है। ग्यारहवें अध्याय में शरीर की अनित्यता का सुन्दर वर्णन है। मरने वाले के लिये रोना व्यर्थ है, वह कभी लौटकर नहीं आता। चौदहवें अध्याय में स्वर्ग की धर्मसभा का वर्णन है, इसमें लबी चौड़ी गप्पें लगाई गई हैं। उस धर्म सभा में वेद-पुराण का पारायण करने वालों को स्थान मिलने की चर्चा है। इसी अध्याय में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासियों का भी उल्लेख मिलता है। नवीन वेदान्त की चर्चा में अध्यारोप अपवाद से ब्रह्म चिन्तन करने का विधान किया गया है। शरीर के पारमार्थिक और व्यावहारिक दो रूपों का वर्णन किया गया है। शरीर के अन्दर सात लोक कौनसे हैं? इस की चर्चा है। मोक्ष प्राप्ति के लिये अजपा गायत्री जप का विधान किया है। धर्मात्मा स्वर्ग का सुख पाकर पुनः गर्भ में कैसे आता है, इसका वर्णन करते हुए सुन्दर शदों में मनुष्य के शरीर का महत्त्व बताया गया है।

गरुड़ पुराण मुय रूप से और्ध्व दैहिक क्रियाओं के विधि विधान का ग्रन्थ है। जिसमें ब्राह्मणों ने अपने काल्पनिक भय दिखा कर मनुष्य को मृतक के निमित्त से भोजन, दानादि कराने की व्यवस्था है, जिससे परपरा से ब्राह्मणों के अधिकारों का संरक्षण देखने को मिलता है, जैसा कहा गया है-

यह संसार देवताओं के आधीन है, देवता मन्त्रों के आधीन है, मन्त्र ब्राह्मण के आधीन है, अतः सारा संसार ब्राह्मणों के आधीन होता है।

देवाधीनं जगत्सर्वं, मन्त्राधीनाश्च देवताः।

ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनाः, तस्मात् ब्राह्मण दैवतम्।।

– धर्मवीर

अज्ञान और अंधविश्वास आध्यात्मिक उन्नति में बाधक’ -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

ओ३म्

मनुष्य के जीवन का उद्देश्य सांसारिक एवं आध्यात्मिक उन्नति करना है। यदि कोई मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति की उपेक्षा कर केवल सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशील रहता है तो यह उसके लिए एकांगी होने से घातक ही कही जा सकती है। आध्यात्मिक उन्नति से मनुष्य सुख व शान्ति के साथ आत्मा की जन्म जन्मान्तरों में उन्नति व जन्म मरण के दुःखों से मुक्ति प्राप्त करता है और सांसारिक उन्नति से क्षणिक व अल्पकालिक सुखों को प्राप्त कर शुभ व अशुभ कर्मों का संचय कर इनके फलों के भोग में फंस कर जन्म जन्मान्तरों में दुःख पाता है। मनुष्य सांसारिक उन्नति तक इस लिए सीमित रहता है कि उसे इस उन्नति के लाभ व हानि एवं आध्यात्मिक उन्नति के महत्व का ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान आध्यात्मिक गुरू, शास्त्र, ग्रन्थों व इनके स्वाध्याय से प्राप्त होता है जिसके लिए आज के मनुष्यों के पास समय नहीं है। आज के भौतिक दृष्टि से सम्पन्न व सफल मनुष्यों का अन्धानुकरण ही समाज के शेष मनुष्य करते हैं जिससे वह भी इन लोगों के कारण अपना वर्तमान व भावी जन्मों को बड़ी सीमा तक हानि पहुंचाते हैं।

 

अन्धविश्वास, अन्धी श्रद्धा तथा ज्ञानरहित आस्था सत्य ज्ञान के विरुद्ध विश्वासों को कहते हैं। ईश्वर का अस्तित्व है, उसे मानना सत्य ज्ञान और न मानना व कुतर्क करना अन्धविश्वास व अन्धी आस्था है। इसी प्रकार ईश्वर तो है परन्तु वह कैसा है, इस विषय में लोगों की अपनी-अपनी मान्यताओं जिनमें कुछ बातें सत्य व कुछ असत्य होती हैं। यह असत्य बातें ही अज्ञान, ज्ञानरहित आस्था व अन्धी श्रद्धां होती हैं। आज के ज्ञान व विज्ञान के युग में यह अन्धविश्वास व अन्धी आस्थायें समाप्त हो जानी चाहियें थी परन्तु इनको मानने वाले गुरू वा आचार्यों के अज्ञान, स्वार्थ व कुतर्कों के कारण इनके अनुयायी अन्धकार में फंसे हैं जिससे इनका मानव योनि का अनमोल जीवन मूल उद्देश्य व उसकी प्राप्ति से दूर चला गया है व चला जाता है। इससे जो हानि होती है वह गुरू व चेले, दोनों को ही होती है क्योंकि ईश्वर के कर्म-फल विधान के अनुसार जिसने जैसा कर्म किया है उसका तदनुरूप फल उसे मिलता है। अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं। अर्थात जीवात्मा को अपने किये हुए शुभ अशुभ कर्मों के फल अवश्य ही भोगने होंगे।  यदि कोई गुरू कहलाने वाला व्यक्ति अपने अनुयायी को असत्य व अज्ञान से युक्त रखता है तो इसके लिए वह भी दोषी है। यह भी जानने योग्य है कि अज्ञानी व स्वामी मनुष्य चाहे वह किसी कुल में जन्में हों, धर्म गुरू कहलाने के योग्य नहीं होते। धर्मगुरू कहलाने के लिए मनुष्य का धर्म का यथार्थ ज्ञान रखने वाला, निर्लोभी तथा परोपकारी भाव वाला होना आवश्यक है। अज्ञानी व स्वार्थी गुरू के दोष व अन्धविश्वासों से युक्त शिक्षायें अशुभ कर्म व पाप की श्रेणी में होती हैं जिसका फल उसको जन्म-जन्मान्तर में दुःखों के भोग के रूप में ही प्राप्त होना है। अतः सभी गुरूओं को स्वयं में विवेक जागृत कर अशुभ कर्मों से बचना चाहिये जिससे उनकी स्वयं की रूकी हुई आध्यात्मिक उन्नति यथार्थ आध्यात्मिक उन्नति में बदल जाये।

 

सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति के लिए सत्य ज्ञान की आवश्यकता होती है। सांसारिक ज्ञान आजकल की अनेक स्कूली पुस्तकों आदि में मिल जाता है। इससे इतर सामाजिक व्यवहार व आध्यात्मिक ज्ञान के लिए हमें स्वाध्याय की श्रेष्ठ पुस्तकों की सहायता लेनी चाहिये। हमने अपने अनुभव से जाना है कि इसके लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, उपनिषद, मनुस्मृति, 6 दर्शन, चार वेद उनके भाष्य आदि उत्तम ग्रन्थ है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए हम इसके दो भाग कर सकते हैं। प्रथम भाग में अध्यात्म से जुड़े ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरूप का ज्ञान, जन्म व मृत्यु का प्रयोजन, नाना प्राणी योनियों में जीवात्मा का जन्म, सृष्टि की उत्पत्ति का प्रयोजन, आध्यात्मिक उन्नति के साधनों व उपायों का ज्ञान आते हैं। द्वितीय भाग में आध्यात्मिक उन्नति के सत्य साधनों व उपायों को जानकर तदानुसार साधना व आचरण करना है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान को अपनाना अर्थात् आचरण में लाना होगा। कुछ-कुछ तो यह सभी सांसारिक लोग मानते व आचरण करते हैं परन्तु उच्च आध्यात्मिक उन्नति के लिए इसे पूर्णरूप से पालन करना आवश्यक है। यदि इसमें से किसी एक व सबको, कुछ व अधिक छोड़ते व पालन नहीं करते, तो उतनी-उतनी मात्रा में हम ईश्वर से दूर होते जाते हैं जिसका परिणाम आध्यात्मिक गिरावट होकर अशुभ कर्मों को करना व उसमें फंसना ही होता है। अतः सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय कर इन सब साधनों को गहराई से जानकर इसका पालन करना चाहिये जिससे अभ्युदय व निःश्रेयस की यात्रा सुगम रूप से अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर चल व आगे बढ़ सके। इसके लिए यह भी आवश्यक है कि प्रत्येक गुरू भक्त अपने गुरू के ज्ञान व उसके जीवन तथा आचरण पर भी पूरा ध्यान रखे और विचार करे कि वह उसे उचित व सत्य शिक्षा व मार्गदर्शन दे रहा है या नहीं। यदि वह अपने गुरु की ओर से आंखे बन्द रखेगा तो उसका शोषण होता रहेगा जिसका परिणाम उसकी आध्यात्मिक उन्नति न होकर भावी जीवन में हानि के रूप में सामने आयेगा।

 

यह भी विचार करना चाहिये कि धर्म क्या है व किसे कहते हैं। हमारा अध्ययन अनुभव बताता है कि धर्म सत्य के पालन को कहते हैं। हमें अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना चाहिये। उन कर्तव्यों के पालन में हानि लाभ की बुद्धि रखकर सच्ची निष्ठा से उनका पालन करना ही धर्म होता है। अज्ञानी मनुष्य अपने कर्तव्य से भी पूर्णतः परिचित नहीं होता। इसके लिए ही सच्चा गुरू वा स्वाध्याय सहायक होते हैं। परन्तु यदि गुरू स्वयं अज्ञानी हो, साथ में स्वार्थी भी हो व अपने अनुयायी से भौतिक द्रव्यों की अपेंक्षा करता हो तो वह अपने अनुयायी, शिष्य व भक्त का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकता। आजकल अनेक धार्मिक ग्रन्थ में सच्ची शिक्षाओं की कमी होने के साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं जो धर्म कर्म से सम्बन्ध न रखकर, मनुष्य-मनुष्य को आपस में दूर करती व बांटती हैं। लोगों ने इन्हें भी धर्म समझ रखा है जो कि उनका अपना भारी अज्ञान है। धर्म का उद्देश्य तो श्रेष्ठ मानव का निर्माण होता है। वेद में इसे कहा गया है कि ‘‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम् इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही ईश्वर ने सृष्टि की आदि में चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य अंगिरा को क्रमशः एकएक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अथर्ववेद का ज्ञान दिया था जिनमें ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान का ज्ञान है। वेदों में कोई भी बात अज्ञान, अन्धविश्वास, अन्धी आस्था, कुरीति, पाखण्ड, सामाजिक विषमता, सामाजिक अन्याय आदि की नहीं है। चारों वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। अतः चारों वेद, उनके व्याख्या व टीका ग्रन्थ व्याकरण, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय व अध्ययन करना चाहिये क्योंकि यह सब वेद मूलक ग्रन्थ हैं और इनके बनाने वाले वेदों के मूर्धन्य विद्वान व पूर्ण ज्ञानी मनुष्य थे।

 

महर्षि दयानन्द ने वेदों का प्रचार किया और वेदों पर आधारित सत्य ज्ञान से पूर्ण ग्रन्थों की रचना की। उनका उद्देश्य किसी व्यक्ति को उसके मत व पन्थ से छुड़ाना नही था अपितु वह सभी मनुष्यों में ज्ञान व विवेक उत्पन्न करना चाहते थे जिससे वह अपने जीवन के बारे में सही निर्णय ले सकें और सांसारिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति कर सकें जो कि मनुष्यों के मत-मतान्तरों में फंसे होने से नहीं हो पाती। आध्यात्मिक उन्नति करने वाले मनुष्य के लिए दो मुख्य कर्तव्य हैं जिनमें प्रथम है ईश्वरोपासना वा सन्ध्या तथा दूसरा दैनिक अग्निहोत्र। इन दोनों को करके ही मनुष्य की सांसारिक व आध्यात्मिक उन्नति होती है। सन्ध्या को करना आत्मा की उन्नति का सर्वश्रेष्ठ साधन उपाय है। इसमें ईश्वर जीवात्मा के स्वरूप का चिन्तन, ईश्वर के उपकारों का स्मरण, परोपकार सेवा करने के व्रत लेना अपने सभी श्रेष्ठ कार्यों को ईश्वर को समर्पित कर उससे धर्म, अर्थ, काम मोक्ष की प्राप्ति की प्रार्थना करना होता है। सन्ध्या करने वाले व्यक्ति को यदि ईश्वर व जीवात्मा के साथ प्रकृति वा सृष्टि के सत्य स्वरूप का ज्ञान नहीं है तो उसे आशातीत सफलता नहीं मिल सकती। अतः इसके लिए सत्य ग्रन्थों सत्यार्थ प्रकाश, स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश वा आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्यक करना चाहिये। स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश वा आर्योद्देश्यरत्नमाला ग्रन्थ तो अत्यन्त लघु ग्रन्थ हैं। इन्हें एक या दो घण्टे में ही पढ़ा, समझा जाना जा सकता है। इससे जो लाभ होता है वह हमारे विचार से बड़े से बड़े पोथे पढ़ने पर भी शायद् नहीं होता। हम सभी मित्रों का आह्वान करते हैं कि वह सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का व्रत लें। वैदिक विधि से साधना कर अपनी आध्यात्मिक उन्नति करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त करने में सफल हों। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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‘माता-पिता, आचार्य, चिकित्सक व किसान आदि की तरह धर्म प्रचारक का असत्य धार्मिक मान्यताओं का खण्डन आवश्यक’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

खण्डन किसी बात को स्वीकार न कर उसका दोष दर्शन कराने व तर्क व युक्तियों सहित मान्य प्रमाणों को उस मान्यता व विचार को खण्डित व अस्वीकार करने को कहते हैं। हम सब जानते हैं कि सत्य एक होता है। अब मूर्तिपूजा को ही लें। क्या मूर्तिपूजा जिस रूप में प्रचलित है, वह ईश्वरपूजा का सत्य स्वरूप है? इस मूर्तिपूजा के पक्ष व विपक्ष के प्रमाणों, तर्कों व युक्तियों को प्रस्तुत कर जो प्रमाण, तर्क व युक्तियां अखण्डनीय होती है, वही सत्य होता है। मूर्तिपूजा करने वाले बन्धुओं को यदि इसे प्रमाणिक, तर्क व युक्ति संगत सिद्ध करने के लिए कहा जाये तो वह ऐसा नहीं कर सकते। दूसरी ओर वेदों के विद्वान व धर्म के मर्मज्ञों से जब इसकी चर्चा करते हैं तो वह मूर्तिपूजा को ईश्वर की पूजा, सत्कार, उसकी उपासना आदि के रूप में स्वीकार नहीं करते। वह बताते हैं कि ईश्वर की पूजा व उसका सत्कार करने की पद्धति मूर्तिपूजा नहीं किन्तु उससे सर्वथा भिन्न योग, ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन, मनन व वेद विहित कर्मों को करना, निषिद्ध कर्मों को न करना आदि है। सृष्टि के आरम्भ से खण्डन-मण्डन की परम्परा चली आयी है। खण्डन प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूपों में किया जाता है। प्रत्यक्ष में यह उपदेश, लेखन तथा शास्त्रार्थ की चुनौती आदि के द्वारा होता है। परोक्ष रूप में प्रचलित प्रथाओं को स्वीकार न कर बिना उपदेश व प्रवचन, लेखन व चुनौती दिए नई परम्पराओं को अपनाना या उन्हें प्रवृत्त करना भी एक प्रकार से विद्यमान मिथ्या परम्पराओं, असत्य धार्मिक मान्यताओं आदि का खण्डन ही होता है।

 

संसार के प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक परिवार होता है जिसमें अनिवार्य रूप से माता पिता होते हैं। माता से सन्तान का जन्म होता है। माता-पिता दोनों मिलकर अपनी सन्तान, पुत्र व पुत्री का पालन करते हैं। उन्हें अच्छे संस्कार देने का प्रयत्न करते हैं। पुत्र द्वारा गलती करने, पढ़ाई न करने, किसी का अनादर करने, क्रेाध, चोरी, चुंगली तथा अस्वास्थ्यप्रद भोजन करने आदि पर ताड़ना करते हैं। यह भी एक प्रकार का खण्डन ही है। जब हम विद्यार्थी थे और हमारा परीक्षा का परिणाम आता था तो माता-पिता उसे देखकर प्रसन्न होने के बजाय जिन विषयों में सबसे कम नम्बर होते थे, उसका उल्लेख कर निराशा व्यक्त करने के साथ कुछ शिक्षा देते थे। यह भी एक प्रकार से खण्डन व मण्डन ही होता था जिससे हम स्वयं का सुधार करते थे। जो बच्चे कुसंगति करते हैं, माता पिता येन केन प्रकारेण अपने बच्चें को कुसंगति से निकालने में तत्पर रहते हैं। क्या यह उस बच्चे के अनुचित व्यवहार का खण्डन नहीं है? यदि वह सराहना करते तो वह मण्डन कहलाता। सराहना न होने के स्थान पर आलोचना व डांट पड़ रही है, अतः यह भी खण्डन का एक प्रकार है और बालक के जीवन निर्माण के लिए आवश्यक व अनिवार्य है।

 

आचार्य की ब्रह्मचारी व शिष्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वस्तुतः आचार्य वह होता है जो अपने ब्रह्मचारी, शिष्य वा विद्यार्थी को सद् आचरण की शिक्षा देकर द्विज बनाता है। द्विज का अर्थ बुद्धिमान, ज्ञानवान, विद्यावान तथा संस्कारित होना है। ज्ञान के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है जिसे वेद के नाम से सारा संसार जानता है। आचार्य अपने ब्रह्मचारी को वेदों का ज्ञान कराता है। इसके साथ सभी प्रकार से उसे आध्यात्मिक ज्ञान के साथ सांसारिक ज्ञान की शिक्षा भी देता है। अपने इस कर्तव्य को सुचारू रूप से पूरा करने के लिए उसे विद्यार्थी के जीवन में से बुरे संस्कारों को चुन-चुन कर दूर करना होता है। जीवन में जितने अच्छे गुण होते हैं, उतने ही उसके विपरीत, बुरे गुण व दोष भी होते हैं। आचार्य को दोषों का खण्डन तर्क व युक्ति व शास्त्र प्रमाणों के आधार पर अपने विद्यार्थी पर करना होता है और इसके साथ उसे शास्त्रों की शिक्षा व महापुरूषों के जीवनों का ज्ञान कराकर ज्ञान, चरित्र व पुरूषार्थ का महत्व प्रतिपादन करना उसका दैनन्दिन कार्य होता है। अच्छे शिष्य व अच्छे गुरू के मिलन से ब्रह्मचारी श्रेष्ठ गुणों को धारण कर यशस्वी बनता है। इस प्रकार अवगुणों की आलोचना, निन्दा, भत्र्सना करना गुरू वा आचार्य का एक प्रकार से खण्डन करना ही है जिससे श्रेष्ठ विद्यार्थी बनता है।

 

आईये, चिकित्सक के बारे में भी कुछ विचार कर लेते हैं। चिकित्सक के पास रोगी व्यक्ति स्वयं ही जाता है और चिकित्सक से रोग को दूर करने की प्रार्थना करता है। विद्वान चिकित्सक रोग के कारण का पता लगाता है और रोगी को कुपथ्य को छोड़ने व पथ्य को अपनाने का परामर्श देता है। इसके साथ उस रोग के शमन की ओषधि भी वह रोगी को देता है जिससे कुछ ही समय बाद रोगी ठीक हो जाता है। रोग की साधारण स्थिति में पथ्य व ओषधि के सेवन से स्वस्थ हुआ जाता है। रोग यदि कुछ पुराना है व उसकी तीव्रता अधिक हो तो ओषधियों को इंजेक्शन के रूप में दिया जाता है। कई बार शरीर के अन्दर कुछ विकृतियां हो जाती हैं। परीक्षा कर चिकित्सक ऐसे रोगों की शल्य क्रिया करता है जिससे रोगी रोगमुक्त होकर स्वस्थ हो जाता है। यहां चिकित्सक द्वारा रोग के कारणों को जानकर जिन पदार्थों के सेवन से रोगी को मना किया जाता है, वह एक प्रकार से खण्डन ही है। इसी प्रकार से रोगी व्यक्ति को अपनी पुरानी जीवन शैली में कुछ परिवर्तन भी करना होता है। जिन चीजों को छोड़ने की सलाह चिकित्सक देता है वह भी उनका खण्डन करना ही है। ऐसा किये बिना व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। शल्य क्रिया में तो कई बार विकृत अंग व विकृति को काटकर शरीर से पृथक कर दिया जाता। इस खण्डन से ही मनुष्य स्वस्थ होकर अपने जीवन को सुख व आनन्द के साथ व्यतीत करने में समर्थ होता है। यह खण्डन रोगी के हित में आवश्यक होता है और कोई इसे बुरा नहीं कहता। सभी इसका समर्थन करते हैं।

 

किसान का मुख्य कार्य अपने खेतों को जोतना, उसमें खाद डालना, भूमि को जल से सिंचित करना, बीज बोना व उसके बाद फसल की निराई व गुडाई करना होता है जिससे अधिक से अधिक उपज प्राप्त की जा सके। कठोर भूमि को जोतकर उसे कोमल बनाया जाता है। यह कठोरता का खण्डन करना है जिससे भूमि कोमल होती है। जल से सिचिंत करना भी भूमि की कठोरता को कम करने के लिए होता है अन्यथा बीज उगेगा नहीं और फसल का इच्छित उत्पादन नहीं हो पाने से किसान को क्लेश होगा। यह कठोर भूमि को कोमल करना अर्थात् भूमि को संस्कारित करना कठोरता के गुण का खण्डन ही है। इसी प्रकार से निराई व गुडाई कर खरपतवार को दूर करना भी उनका खण्डन ही होता है। बिना खण्डन के आशा के अनुरूप परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। यदि किसान भूमि को कोमल करने के लिए हल नहीं चलायेगा, सिंचित नहीं करेगा और निराई व गुडाई नहीं करेगा, जो कि खण्डन हैं, तो वह बाद में पछतायेगा व दुःखी होगा। इस प्रकार खण्डन के परिणाम से ही आशा के अनुरूप खाद्यान्न का उत्पादन होता है।

 

अब धर्म प्रचारक के कार्य पर विचार करते हैं। धर्म प्रचारक का कार्य मनुष्य के धर्म वा कर्तव्यों का प्रचार करना है जिसको करके वह न केवल सुखी जीवन ही व्यतीत करे अपितु जीवन के उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को भी प्राप्त करने में अग्रसर हो। इसके लिए पाप कर्मों को छोड़ना और अधिक से अधिक पुण्य कर्मों को करना होता है। विद्याध्ययन करने के पश्चात ब्रह्मचर्य युक्त पुरुषार्थी जीवन व्यतीत करते हुए यथासमय पंचमहायज्ञों को करना ही धर्मपूर्वक सुख प्राप्ति अर्थात् अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति का मार्ग है। आजकल लोगों ने परजन्म वा निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष के बारे में सोचना ही छोड़ दिया है। कर्मों का बन्धन एक प्रकार की जेल होती है और इसके विपरीत मुक्ति, मोक्ष या निःश्रेयस होता है। दार्शनिक दृष्टि से यह निष्कर्ष प्राप्त होता हैै कि बन्धन में पड़ा व्यक्ति कभी न कभी स्वतन्त्र था और जो स्वतन्त्र अर्थात् मोक्ष में हैं वह बन्धन से ही मोक्ष में गये हैं और अवधि पूरी कर वापिस पुनः बन्धन में लौटेंगे। जिस प्रकार एक सरकारी कर्मचारी अवकाश की अवधि पूरा करने पर पुनः अपने कार्य पर लौट कर आता है, उसी प्रकार से बन्धन से मुक्त होकर जीवात्मा मुक्ति को और मुक्ति की अवधि पूरी होने पर पुनः बन्धन अर्थात् मनुष्य का जन्म धारण करता है। आर्यजगत के प्रसिद्ध विद्वान महात्मा आर्यभिक्षु जी अपने प्रवचन में सुनाते थे कि एक गोपालक ने सेवक को गाय को खोलने का आदेश दिया। वहां एक दार्शनिक खड़ा था, उसने अपनी डायरी में लिखा कि गाय बन्धी होगी। एक अन्य घटना में गोपालन सेवक को गाय को बांधने को कहता है। दार्शनिक यह सुनकर अपनी डायरी में नोट करता है कि गाय खुली रही होगी। इससे बन्धन व मोक्ष का अनुमान होता है। धर्म प्रचारक का मुख्य कार्य मनुष्यों को धर्म अर्थात् सद्कर्मों का ज्ञान कराना और असद् कर्मो से छुड़ाना है जिससे उनका जीवन अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त कर सके। इसके लिए मनुष्यों को अशुभ कर्मों को छोड़ना और शुभ कर्मों को धारण करना होगा। शुभ कर्म वेद विहित कर्मों को कहते हैं। वेद निषिद्ध वा वेद विरोधी कर्म अशुभ या पाप कर्म कहलाते हैं। इन अशुभ व पाप कर्मों को छुड़ाने के लिए सच्चे धर्म प्रचारकों के पास इनका दोष दर्शन अर्थात् खण्डन करने के अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है। यह अलोचना व खण्डन धर्म प्रचारक के अपने हित के लिए नहीं अपितु उस निषिद्ध व विरुद्ध मान्यता के मानने वाले व्यक्ति के हित व कल्याण के लिए किया जाता है। यदि ऐसा नहीं होगा तो मनुष्य यथार्थ सुख, ईश्वरीय आनन्द व मोक्ष आदि से सदा सदा के लिए दूर हो जायेगा। महर्षि दयानन्द के खण्डन का उद्देश्य भी लोगों को असत्य से हटाकर सत्य में स्थित व स्थिर करना था। वह अपने उद्देश्य में आंशिक रूप से सफल भी हुए। यदि वह खण्डन न करते तो आज हम भी किसी एक मत के अनुयायी बन कर अज्ञान, असत्य, अन्धविश्वास, कुरीति व असभ्याचरण से ग्रस्त होते। उन्होंने हमें अज्ञान के कूप से निकाल कर ज्ञान के आकाश में स्थित किया। इस प्रकार असत्य व अज्ञान से युक्त धार्मिक मान्यताओं का धर्म प्रचारकों द्वारा खण्डन करना सर्वथा उचित है। हां, यदि कोई अपने मत के विस्तार व लाभ के लिए अज्ञान का प्रचार प्रसार करता है तो वह अनुचित व हेय है। विद्वानों को प्रीतिपूर्वक उनका युक्ति व प्रमाणों से खण्डन कर असत्य को छुंड़वाना व सत्य को मनवाना चाहिये। यदि असत्य अवैदिक मतों का खण्डन किया गया तो मतों की संख्या में वृद्धि होकर यह अनन्त की ओर अग्रसर होगी जिससे मनुष्य भ्रान्त होकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से वंचित हो जायेंगे। अतः सत्य की स्थापना सब मनुष्यों को सुख मोक्ष लाभ के लिए असत्य का खण्डन आवश्यक एवं अपरिहार्य है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘वेदादि ग्रन्थों के अध्ययन, तर्क, विवेचना और सम्यक् ज्ञान-ध्यान के बिना ईश्वर प्राप्त नहीं होता’ -मनमोहन कुमार आर्य

संसार में किसी भी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसे देखकर व विचार कर कुछ-कुछ जाना जा सकता है। अधिक ज्ञान के लिये हमें उससे सम्बन्धित प्रामाणिक विद्वानों व उससे सम्बन्धित साहित्य की शरण लेनी पड़ती है। इसी प्रकार से ईश्वर की जब बात की जाती है तो ईश्वर आंखों से दृष्टिगोचर नहीं होता परन्तु इसके नियम व व्यवस्था को संसार में देखकर एक अदृश्य सत्ता का विचार उत्पन्न होता है। अब यदि ईश्वर की सत्ता के बारे में प्रामाणिक साहित्य मिल जाये तो उसे पढ़कर और उसे तर्क व विवेचना की तराजू में तोलकर सत्य को पर्याप्त मात्रा में जाना जा सकता है। ईश्वर का ज्ञान कराने वाली क्या कोई प्रमाणित पुस्तक इस संसार में है, यदि है तो वह कौन सी पुस्तक है? इस प्रश्न का उत्तर कोई विवेकशील मनुष्य ही दे सकता है। हमने भी इस विषय से सम्बन्धित अनेक विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ा है। उन पर विचार व चिन्तन भी किया है। इसका परिणाम यह हुआ कि संसार की धर्म व ईश्वर की चर्चा करने वाली पुस्तकों में सबसे अधिक प्रमाणित पुस्तक ‘‘चार वेद” ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। इसके साथ ही वेदों की अन्य टीकाओं सहित वेदों पर आधारित दर्शन एवं उपनिषद आदि ग्रन्थ भी हैं। इन ग्रन्थों वा ईश्वर के स्वरूप विषयक ग्रन्थों का वेदानुकूल भाग ही प्रमाणित सिद्ध होता है। वेद के बाद सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका प्रमुख हैं। इनकी विशेषता यह है कि इन्हें एक साधारण हिन्दी भाषा का जानने वाला व्यक्ति पढ़कर ईश्वर के सत्यस्वरूप से अधिकांशतः परिचित हो जाता है और इसके बाद केवल योग साधना द्वारा उसका साक्षात्कार करने का कार्य ही शेष रहता है।

 

किसी भी मनुष्यकृत पुस्तक की सभी बातें सत्य होना सम्भव नहीं होता अतः यह कैसे स्वीकार किया जाये कि वेद में सब कुछ सत्य ही है? इसका उत्तर है कि हम संसार की रचना व व्यवस्था में पूर्णता देखते हैं। इसमें कहीं कोई कमी व त्रुटि किसी को दृष्टिगोचर नहीं होती। दूसरी ओर मनुष्यों की रचनाओं को देखने पर उनमें अपूर्णता, दोष व कमियां दृष्टिगोचर होती हैं। अतः मनुष्यों द्वारा रचित सभी पुस्तकें व ग्रन्थ अपूर्णता, अशुद्धियों, त्रुटियों व कमियों से युक्त होते हैं। इसका मुख्य कारण मुनष्यों का अल्पज्ञ, ससीम व एकदेशी होना है। यह संसार किसी एक व अधिक मनुष्यों की रचना नहीं है। सूर्य मनुष्यों ने नहीं बनाया, पृथिवी, चन्द्र व अन्य ग्रह एवं यह ब्रह्माण्ड मनुष्यों की कृति नहीं है, इसलिए कि उनमें से किसी में इसकी सामथ्र्य नहीं है। यह एक ऐसी अदृश्य सत्ता की कृति है जो सत्य, चित्त, दुःखों से सर्वथा रहित, अखण्ड आनन्द से परिपूर्ण, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि निर्माण के अनुभव से परिपूर्ण, जीवों के प्रति दया व कल्याण की भावना से युक्त, अनादि, अज, अमर, अजर व अभय हो। ऐसी ही सत्ता को ईश्वर नाम दिया गया है। उसी व ऐसी ही अदृश्य सत्ता से मनुष्यों को सृष्टि के आदि में ज्ञान भी प्राप्त होता है। यह ऐसा ही कि जैसे सन्तान के जन्म के बाद से माता-पिता अपनी सन्तानों को ज्ञानवान बनाने के लिए सभी उपाय करना आरम्भ कर देते हैं। यदि संसार में व्यापक उस सत्ता से आदि मनुष्यों को ज्ञान प्राप्त न हो तो फिर उस पर यह आरोप आता है कि वह पूर्ण व ज्ञान देने में समर्थ नहीं है अर्थात् उसमें अपूर्णता या कमियां हैं।

 

हम संसार में वेदों को देखते है और जब उसका अध्ययन कर उसकी बातों पर विचार करते हैं तो यह तथ्य सामने आता है कि वेदों की कोई बात असत्य नहीं है। वेदों की एक शिक्षा है मा गृधः अर्थात् मनुष्यों को लालच नहीं करना चाहिये। लालच के परिणाम हम संसार में देखते हैं जो अन्ततः बुरे ही होते हैं। एक व्यक्ति धन की लालच में चोरी करता है। एक बार व कई बार वह बच सकता है, परन्तु कुछ समय बाद पकड़ा ही जाता है और उसकी समाज में दुर्दशा होती है। वह अपने परिवारजनों सहित स्वयं की दृष्टि में भी गिर जाता है। इस एक शिक्षा की ही तरह वेदों की सभी शिक्षायें सत्य एवं मनुष्यों के लिए कल्याणकारी हैं। महर्षि दयानन्द चारों वेदों व वैदिक साहित्य के अधिकारी व प्रमाणिक विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों की एक-एक बात पर विचार किया था और सभी को सत्य पाया था। उसके बाद ही उन्होंने घोषणा की कि वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा के द्वारा आदि चार ऋषि अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को दिया गया ज्ञान है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद, इन नामों से उपलब्ध मन्त्र संहितायें सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। इसमें परा विद्या अर्थात् आध्यात्मिक विद्यायें भी हैं और अपरा अर्थात् सांसारिक विद्यायें भी हैं। महर्षि दयानन्द की इस मान्यता को चुनौती देने की योग्यता संसार के किसी मत व मताचार्य में न तो उनके समय में थी और न ही वर्तमान में हैं। इसकी किसी एक बात को भी कोई खण्डित नहीं कर सका, अतः वेद मनुष्यकृत ज्ञान न होकर अपौरूषेय अर्थात् मनुष्येतर सत्ता से प्राप्त, ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध हंै। इसका प्रमाण महर्षि दयानन्द व आर्य विद्वानों का किया गया वेद भाष्य एवं अन्य वैदिक साहित्य है। यह ज्ञान सृष्टि के सभी पदार्थों जिनमें पूर्णता है, उसी प्रकार से पूर्ण एवं निर्दोष है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि संसार का कोई मत अपने मत की पुस्तक को सत्यासत्य की कसौटी पर न स्वयं ही परीक्षा करता है और न किसी को अधिकार देता है। अपनी पुस्तकों के दोषों को छिपाने के सभी ने अजीब से तर्क गढ़ लिये हैं जिससे उसके पीछे उनकी संशय वृत्ति का साक्षात् ज्ञान होता है। इसी कारण वह सत्य ज्ञान से दूर भी है और यही संसार की अधिकांश समस्याओं का कारण है।

 

किसी भी वस्तु के अस्तित्व को पांच ज्ञान इन्द्रियों, मन, बुद्धि, अन्तःकरण वा आत्मा के द्वारा होने वाले ज्ञान व अनुभवों से ही जाना जाता है। यह संसार कब, किसने, कैसे व क्यों बनाया, इसका निभ्र्रान्त व युक्तियुक्त उत्तर किसी मत के विद्वान या वैज्ञानिकों के पास आज भी नहीं है। इसके अतिरिक्त चारों वेद बार-बार निश्चयात्मक उत्तर देते हुए कहते हैं कि यह सारा संसार इसको बनाने वाले ईश्वर से व्याप्त है। यह चारों वेद संसार का सबसे प्राचीन ज्ञान व पुस्तकें हैं। यह महाभारतकाल में भी थे, रामायणकाल व उससे भी पूर्व, सृष्टि के आरम्भ काल से, विद्यमान हैं। अतः वेदों की अन्तःसाक्षी और संसार को देख कर तर्क, विवेचना व ईश्वर का ध्यान करने पर ईश्वर ही वेदों के ज्ञान का दाता सिद्ध होता है। इस कसौटी को स्वीकार कर लेने पर संसार के सभी जटिल प्रश्नों के उत्तर मिल जाते हैं जिनका उल्लेख महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने अपूर्व व अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में किया है।

 

ईश्वर विषयक तर्क व विवेचना हम स्वयं भी कर सकते हैं और इसमें 6 वैदिक दर्शनों योग-सांख्य-वैशेषिक-वेदान्त-मीमांसा और न्याय का भी आश्रय ले सकते हैं जो वैदिक मान्यताओं को सत्य व तर्क की कसौटी पर कस कर वेदों के ज्ञान को अपौरूषेय सिद्ध करते हैं। अतः ईश्वर का अस्तित्व सत्य सिद्ध होता है। ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर संसार की उत्पत्ति की गुत्थी भी सुलझ जाती है। यदि ईश्वर है तो यह सृष्टि उसी की कृति है क्योंकि अन्य ऐसी कोई सत्ता संसार में नही है जो ईश्वर के समान हो। सृष्टि रचना का निमित्त कारण होने से प्राणीजगत, वनस्पति जगत व इसके संचालन का कार्य भी उसी से हो रहा है, यह भी ज्ञान होता है। वेदाध्ययन, दर्शन व उपनिषदों आदि वैदिक साहित्य का अध्ययन कर लेने पर जब मनुष्य ईश्वर, वेद, जीव व प्रकृति आदि विषयों का ज्ञान करता है तो ईश्वर की कृपा से इन सबका सत्य स्वरूप ध्याता व चिन्तक की आत्मा में प्रकट हो जाता है। इस ध्यान की अवस्था को योग दर्शन में समाधि कहा गया है। समाधि और कुछ नहीं अपितु वैदिक मान्यताओं को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना में लम्बी लम्बी अवधि तक विचार मग्न रहना व इसके साथ मन का ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य विषय को स्मृति में न लाना ही समाधि कहलाती है। इस स्थिति को प्राप्त करने का सभी मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये। अन्य मतों में बिना तर्क व विवेचना के उस मत की पुस्तक की मान्यताओं को न, नुच के मानना ही कर्तव्य बताया जाता है जबकि वैदिक धर्म व केवल वैदिक धर्म में इस प्रकार का किंचित बन्धन नहीं लगाया गया है। साधक व उपासक को स्वतन्त्रता है कि हर प्रकार से ईश्वर के अस्तित्व को जांचे व परखे और असत्य का त्याग कर सत्य को ही ग्रहण करे।

 

अतः निष्कर्ष में यह कहना है कि ईश्वर के यथार्थ ज्ञान के लिए विचार व चिन्तन के साथ वेद, वैदिक साहित्य सहित सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन और योगाभ्यास करते हुए विचार, ध्यान, चिन्तन व उपासना कर ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। महर्षि दयानन्द ने अनेक ग्रन्थ लिखकर यह कार्य सरल कर दिया है। स्वाध्याय के आधार पर हमारा यह भी मानना है कि वैदिक धर्मी स्वाध्यायशील आर्यसमाजी ईश्वर को जितना पूर्णता से जानता व अनुभव करता है, सम्भवतः संसार के किसी मत का व्यक्ति अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि वहंा आधेय के लिए आधार वैदिक धर्म की तुलना में कहीं अधिक दुर्बल है। आईये, वेदाध्ययन, वैदिक साहित्य के अध्ययन, सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों का बार-बार अध्ययन करने सहित योगाभ्यास का व्रत लें और जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को सिद्ध कर जीवन को सफल करें, बाद में पछताना न पड़े।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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अंधविश्वास और महाविनाशःराजेन्द्र जिज्ञासु

अभी-अभी आंध्र प्रदेश में गोदावरी नदी के तट पर अंधविश्वास की विनाश लीला का दुखद समाचार सुनकर कलेजा फटे जा रहा है । ऐसा कौनसा धर्म प्रेमी, जाति सेवक सहृदय व्यक्ति होगा जो प्रतिवर्ष अंधविश्वास की विनाश लीला से थोक के भाव हिन्दुओं की मौत पर रक्तरोदन न करता होगा? मीडिया इन मौतों के लिए उत्तरदायी कौन? इस प्रश्न का उत्तर पाने का कर्मकाण्ड करने में जुट जाता है। परोपकारी प्रत्येक ऐसी दुर्घटना पर अश्रुपात करते हुए हिन्दू जाति को अधंविश्वासों व भेड़चाल से सावधान करता चला आ रहा है। सस्ती मुक्ति पाने की होड़ में ये दुर्घटनायें होती हैं। अष्टांग योग का, श्रेष्ठाचरण का, स्वाध्याय, सत्संग, सत्कर्म, मन की शुद्धता का मार्ग अति कठिन है। नदी, पेड, जड़, स्थल व मुर्दों की पूजा यह पगडण्डी बड़ी सरल है। आर्य समाज की न सुनने से सस्ती मुक्ति तो मिलने से रही परन्तु, क्या हिन्दू जाति के शुभ चिन्तक सोचेंगे कि इससे हिन्दुओं के लिए मौत तो बहुत सस्ती हो गई।

जाति के लिए रो-रो कर हमारे नयनों में तो अब नीर भी नहीं रहे। अदूरदर्शी हिन्दू संस्थायें ऐसी सब यात्राओं के लिये लंगर लगवा कर इन्हें प्रोत्साहन देती हैं। कॉवड़िये दुर्घटना ग्रस्त होते हैं। अमरनाथ यात्री मरते हैं, कृपालु महाराज के भक्त मौत का ग्रास बने। हिन्दू नेताओं ने इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कभी कुछ सोचा? योग का शोर मचाने वालों ने कभी सोचा कि नदियों में डुबकी लगाने व पर्वत यात्रा का योग विद्या से दूर-दूर का भी सबन्ध नहीं। वेद, उपनिषद्, दर्शन साहित्य तथा गायत्री मन्त्र, प्रणव जप का इन यात्रियों को सन्देश, उपदेश तो कभी दिया नहीं जाता। बस भीड़ देखकर सब हिन्दू संस्थायें गद्गद् हो जाती है। आर्य समाज की तो सुनने से पूर्वाग्रह ग्रस्त तथा कथित नेता व गुरु कतराते हैं। ये लोग श्री कबीरजी, सन्त तुकाराम व गुरु गोविन्दसिंह की ही सुन लें तो बार-बार रोना न पड़े।

 

आत्मा का स्वाााविक गुण-एक नई खोजः- गुजरात यात्रा से लौटते ही फरीदाबाद के एक सज्जन ने प्रश्न पूछ लिया कि क्या धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण है? इस प्रश्न को सुनकर मैं चौंक पड़ा। अपने को आर्य बताने वाला व्यक्ति यह क्या कह रहा है। प्रश्न क्या मेरे लिए तो यह बिजली का झटका सा था। उसी ने बताया कि यह कथन मेरा नहीं। किसी और ने ऐसा लिखा है। मैं तो इस पर आपका विचार जानना चाहता हूँ।

मैंने निवेदन किया कि मेरा विचार तो वही है जो वेद मन्त्रों में मिलता है। जो ऋषि मुनि कहते हैं, मैं वही मानता हूँ। उक्त कथन तो वैसा ही लगता है जैसे उफान में आई नदी किनारे तोड़कर बाढ का दृश्य उपस्थित कर दे। उसे कहा, अरे भाई यदि धर्म आत्मा का स्वाभाविक गुण होता तो परमात्मा को वेद ज्ञान देने की क्या आवश्यकता थी? फिर गायत्री मन्त्र तथा शिव सङ्कल्प मन्त्रों, प्रार्थना मन्त्रों का प्रयोजन व महत्व ही समाप्त हो जाता है।

सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका तो पढ़िये। ऋषि एक सूक्ष्म सत्य का प्रकाश करते हैं, ‘‘मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जानने वाला है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि हठ दुराग्रह और अविद्या दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है।’’

ऋषि के इन मार्मिक शब्दों  को सुनकर प्रश्नकर्त्ता भाई तृप्त हो गया। इस विषय में और कु छ लिखने की आवश्यकता ही नहीं।

‘गुजरात के सोमनाथ मन्दिर की लूट पर महर्षि दयानन्द का शिक्षाप्रद व्याख्यान’-मनमोहन कुमार आर्य

महर्षि दयानंद सरस्वती मूर्तिपूजा का वेदविरुद्ध व अकरणीय मानते थे। उनका यह भी निष्कर्ष था कि देश के पतन में मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, बाल विवाह, विधवाओं की दुर्दशा, पुरूषों के चारित्रिक ह्रास, सामाजिक कुव्यवस्था, असमानता व विषमता तथा स्त्री व शूद्रों की अशिक्षा आदि कारण प्रमुख थे। विचार करने पर महर्षि दयानन्द की बातें सत्य सिद्ध होती हैं। सत्यार्थ प्रकाश महर्षि दयानन्द जी का प्रमुख ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के ग्याहरवें समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों का खण्डन-मण्डन विषय प्रस्तुत किया गया है। ग्याहरवें समुल्लास की भूमिका में महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि इस समुल्लास में उनके द्वारा प्रस्तुत खण्डन मण्डन कर्म से यदि लोग उपकार न मानें तो विरोध भी न करें। क्योंकि उनका तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्याऽसत्य का निर्णय करने कराने के लिये है न कि वादविवाद व विरोध करने कराने के लिये। इसी मत-मतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और आगे भी होंगे, उन को पक्षपातररहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सब को विरोध-जाल में फंसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इस के होने की युक्ति इस (ग्रन्थ) की पूर्ति में लिखेंगे (यह युक्ति महर्षि दयानन्द ने पुस्तक के अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश के अन्र्तगत लिखी है)। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों की आत्माओं में प्रकाशित करे। आगामी सोमनाथ मन्दिर की घटना को पढ़ते हुए पाठकों को महर्षि दयानन्द के इन शब्दों में व्यक्त की गई भावना को अपने ध्यान में अवश्य रखना चाहिये।

 

सत्यार्थ प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने प्रश्नोत्तर शैली में सोमनाथ मन्दिर के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। प्रश्न करते हुए वह लिखते हैं कि देखो ! सोमनाथ जी (भगवान) पृथिवी के ऊपर रहता था और उनका बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है? इसका उत्तर देते हुए वह बताते हैं कि हां यह बात मिथ्या है। सुनो ! मूर्ति के ऊपर नीचे चुम्बक पाषाण लगा रक्खे थे। इसके आकर्षण से वह मूर्ति अधर में खड़ी थी। जब महमूद गजनवी आकर लड़ा तब यह चमत्कार हुआ कि उस का मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी भक्तों की दुर्दशा हो गई और लाखों फौज दश सहस्र फौज से भाग गई। जो पोप पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति, प्रार्थना करते थे कि ‘हे महादेव ! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर, और वे अपने चेले राजाओं को समझाते थे कि आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी, भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। ये सब म्लेच्छों को मार डालेंगे या अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे। वे विचारे भोले राजा और क्षत्रिय पोपों के बहकाने से विश्वास में रहे। कितने ही ज्योतिषी पोपों ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त नहीं है। एक ने आठवां चन्द्रमा बतलाया, दूसरे ने योगिनी सामने दिखलाई। इत्यादि बहकावट में रहे।

 

जब म्लेच्छों की फौज ने आकर मन्दिर को घेर लिया तब दुर्दशा से भागे, कितने ही पोप पुजारी और उन के चेले पकड़े गये। पुजारियों ने यह भी हाथ जोड़ कर कहा कि तीन क्रोड़ रूपया ले लो मन्दिर और मूर्ति मत तोड़ो। मुसलमानों ने कहा कि हम बुत्परस्त नहीं किन्तु बुतशिकन् अर्थात् मूर्तिपूजक नहीं किन्तु मूर्तिभंजक हैं और उन्होंने जा के झट मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत टूटी तब चुम्बक पाषाण पृथक् होने से मूर्ति गिर पड़ी। जब मूर्ति तोड़ी तब सुनते हैं कि अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारी और पोपों पर कोड़ा अर्थात कोड़े पड़े तो रोने लगे। मुस्लिम सैनिकों ने पुजारियों को कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट मार कूट कर पोप और उन के चेलों को गुलाम बिगारी बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल मूत्रादि उठवाया और चना खाने को दिये। हाय ! क्यों पत्थर की पूजा कर (हिन्दू) सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की (सत्य वेद रीति से) भक्ति की? जो म्लेच्छों के दांत तोड़ डालते और अपना विजय करते। देखो ! जितनी मूर्तियां हैं उतनी शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती? पुजारियों ने इन पाषाणों की इतनी भक्ति की किन्तु मूर्ति एक भी उन (अत्याचारियों) के शिर पर उड़ के न लगी। जो किसी एक शूरवीर पुरुष की मूर्ति के सदृश सेवा करते तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।

 

उपर्युक्त पंक्तियों में महर्षि दयानन्द जी ने जो कहा है वह एक सत्य ऐतिहासिक दस्तावेज है। इससे सिद्ध है कि पुजारियों सहित सैनिको व देशवासियों के अपमान व पराजय का कारण मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अन्धविश्वास, पाखण्ड, ढ़ोग, वेदों को विस्मृत कर वेदाचरण से दूर जाना आदि थे। यह कहावत प्रसिद्ध है कि जो व्यक्ति व जाति इतिहास से सबक नहीं सीखती वह पुनः उन्हीं मुसीबतों मे फंस जाती व फंस सकती है अर्थात् इतिहास अपने आप को दोहराता है। महर्षि दयानन्द ने हमें हमारी भूलों का ज्ञान कराकर असत्य व अज्ञान पर आधारित मिथ्या विश्वासों को छोड़ने के लिये चेताया था। हमने अपनी मूर्खता, आलस्य, प्रमाद व कुछ लोगों के स्वार्थ के कारण उसकी उपेक्षा की। आज भी हम वेद मत को मानने वाली हिन्दू जनता को सुसंगठित नहीं कर पाये जिसका परिणाम देश, समाज व जाति के लिए अहितकर हो सकता है। महर्षि दयानन्द ने वेदों का जो ज्ञान प्रस्तुत किया है वह संसार के समस्त मनुष्यों के लिए समान रूप से कल्याणकारी है। लेख की समाप्ति पर उनके शब्दों को एक बार पुनः दोहराते हैं- जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरूद्ध वाद छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्र्या द्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कराना चाहैं तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।यदि ये (मतमतान्तर वाले) लोग अपने प्रयोजन (स्वार्थ) में फंस कर सब के प्रयोजन (हित कल्याण) को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। आईये, सत्य को ग्रहण करने व असत्य का त्याग करने का व्रत लें। इसके लिये वेदों का स्वाध्याय करें और वेदानुसार ही जीवन व्यतीत करें जिससे देश, समाज व विश्व को लाभ प्राप्त हो।

 

            –मनमोहन कुमार आर्य

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ईसा (यीशु) एक झूठा मसीहा है – पार्ट 1

सभी आर्य व ईसाई मित्रो को नमस्ते।

प्रिय मित्रो, जैसे की हम सब जानते हैं – हमारे ईसाई मित्र – ईसा मसीह को परम उद्धारक और पापो का नाशक मानते हैं – इसी आधार पर वो अपने पापो के नाश के लिए ईसा को मसीह – यानी उद्धारक – खुदा का बेटा – मनुष्य का पुत्र – स्वर्ग का दाता – शांति दूत – अमन का राजकुमार – आदि आदि अनेक नामो से पुकारते हैं –

इसी आधार ईसा को पापो से मुक्त करने वाला और – स्वर्ग देने हारा – समझकर – अनेक हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करवाकर – उन्हें स्वर्ग की भेड़े बनने पर विवश करते हैं – ईसा का पिछलग्गू बना देते हैं – नतीजा – हिन्दू समाज धर्म को त्याग कर – मात्र स्वर्ग के झूठे लालच में ईसा के पीछे भटकता रहता है –

सोचने वाली बात है – ईसाई जो ऐसा षड्यंत्र रच रहे की ईसा से पाप मुक्ति होगी और ईसा को मानने वाला स्वर्ग में प्रवेश करेगा – क्या ये वास्तव में होगा ? क्या ये षड्यंत्र है अथवा सत्य ? क्या कभी धर्म को त्याग कर मनुष्य केवल एक भेड़ बन जाने से स्वर्ग पा सकता है ?

क्या कहती है बाइबिल ?

बाइबिल के अनुसार – सच्चे मसीह को पहिचानने के लिए बाइबिल में कुछ भविष्यवाणियां की गयी थी – जो उन भविष्यवाणियों पर खरा उतरेगा वो ही मसीह कहलायेगा – और जो भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरेगा वो झूठा मसीह होगा – ऐसे मसीह अनेक आएंगे – जो खुद को ईसा और पाप का नाशक कहेंगे – मगर लोगो को सावधान रहकर – सच्चे मसीह पर विश्वास करना होगा – जो झूठे मसीह पर विश्वास करेगा – वो पापी ही कहलायेगा – वो कभी स्वर्ग नहीं जा सकता – ये बाइबिल का कहना है।

आइये एक नजर डाले – जिस ईसा पर विश्वास करके हमारे ईसाई भाई – हिन्दुओ को बहका कर उनका धर्म परिवर्तन कर रहे – वो ईसा क्या सचमुच बाइबिल के आधार पर – मुक्तिदाता है ? क्या वाकई ये ईसा – कोई मसीह है ? क्या वाकई ईसा पर विश्वास करने से मनुष्य स्वर्ग जाएगा ? कहीं ये कोई ढकोसला, अन्धविश्वास या षड्यंत्र तो नहीं ?

आइये एक नजर इसपर भी की क्या ये ईसा वही मसीह है जो खुदा का बेटा है – ये वही मसीह है जो मनुष्यो को पाप मुक्त करके स्वर्ग और सुख शांति देगा ?

मुख्यरूप से तीन भविष्यवाणियां हैं – जिनके द्वारा सच्चे मसीह को पहिचाना जा सकता है – लेकिन “ईसा” इन मुख्य तीन भविष्यवाणियों पर खरा नहीं उतरता – आइये देखे –

पहली भविष्यवाणी –

23 कि, देखो एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी और उसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिस का अर्थ यह है “ परमेश्वर हमारे साथ”। (मत्ती अध्याय १)

इस भविष्यवाणी में कहा गया की एक कुंवारी गर्भवती होगी और एक पुत्र जनेगी – उसका नाम “इम्मानुएल” रखा जाएगा – लेकिन सच्चाई ये है की “ईसा” को पूरी बाइबिल में – कहीं भी – किसी ने भी – यहाँ तक की ईसा के माता पिता ने भी ईसा को “इम्मानुएल” नाम से नहीं पुकारा – न ही इस बच्चे का नाम “इम्मानुएल” रखा – देखिये –

25 और जब तक वह पुत्र न जनी तब तक वह उसके पास न गया: और उस ने उसका नाम यीशु रखा॥

जब भविष्यवाणी ही “इम्मानुएल” नाम की हुई तो क्यों “ईसा” नाम रखा गया ?

दूसरी भविष्यवाणी –

3 अपने पुत्र हमारे प्रभु यीशु मसीह के विषय में प्रतिज्ञा की थी, जो शरीर के भाव से तो दाउद के वंश से उत्पन्न हुआ। (रोमियो अध्याय १)

29 हे भाइयो, मैं उस कुलपति दाऊद के विषय में तुम से साहस के साथ कह सकता हूं कि वह तो मर गया और गाड़ा भी गया और उस की कब्र आज तक हमारे यहां वर्तमान है।
30 सो भविष्यद्वक्ता होकर और यह जानकर कि परमेश्वर ने मुझ से शपथ खाई है, कि मैं तेरे वंश में से एक व्यक्ति को तेरे सिंहासन पर बैठाऊंगा। (प्रेरितों के काम, अध्याय २)

यहाँ से साफ़ है – भविष्यवाणी हुई थी की दाऊद के वंश से – खासकर “शारीरिक वंशज” – यानी दाऊद के वंश में संतानोत्पत्ति (सेक्स) करके उत्पन्न होगा – वो मसीह होगा – लेकिन हमारे ईसाई मित्र तो कहते हैं की – मरियम – कुंवारी ही गर्भवती हुई ?

इसका मतलब – मरियम के साथ – सेक्स नहीं हुआ – फिर दाऊद का वंशज जो सिंघासन पर बैठना था – वो ईसा कैसे ?

तीसरी भविष्यवाणी –

16 क्योंकि उस से पहिले कि वह लड़का बुरे को त्यागना और भले को ग्रहण करना जाने, वह देश जिसके दोनों राजाओं से तू घबरा रहा है निर्जन हो जाएगा। (यशायाह, अध्याय 7)

यहाँ भविष्यवाणी में बताया जा रहा है – जब वो मसीह परिपक्वता, सिद्धि – प्राप्त कर लेगा – उससे पहली ही यहूदियों के दोनों देश तबाह और बर्बाद हो जाएंगे – बाइबिल के नए नियम में – इस भविष्यवाणी के बारे में कोई खबर नहीं है – यानी ईसा को जब सिद्धि हुई – तब यहूदियों के दोनों देश बर्बाद हुए – इस बारे में – नया नियम खामोश है –

इन सभी मुख्य तीन भविष्यवाणियों से सिद्ध होता है – की ईसाई समाज जिस ईसा को – खुदा का बेटा – पाप नाशक – और स्वर्ग का दाता – कहते और मानते हैं – वो ईसा तो बाइबिल के आधार पर ही – मसीह सिद्ध नहीं होता – फिर क्यों – हिन्दुओ को मुर्ख बनाकर – उनको धर्मभ्रष्ट कर के – स्वर्ग का लालच देते हैं ?

मेरे ईसाई मित्रो – ये इस कड़ी का पहला भाग है – इसका दूसरा भाग जल्दी ही मिलेगा – जिसमे – खंडन होगा ईसाइयो के उस षड्यंत्र का जिसमे जबरदस्ती ईसा को मसीह सिद्ध करने की चाल ईसाई मिशनरी – चल रही – और मनुष्य को ईश्वर की जगह शैतान की राह पर चलाने का षड्यंत्र कर रही हैं।

अभी भी समय है – मनुष्य जीवन का लाभ उठाओ – धर्म की और आओ – हिन्दुओ भेड़ बनने से अच्छा है – मनुष्य ही बने रहो – वेद की और लौटो – अपने आप ही ये धरती स्वर्ग बन जायेगी –

लौटो वेदो की और

नमस्ते

 

यह दोहरा मापदण्ड क्यों?– – राजेन्द्र जिज्ञासु

‘आर्य सन्देश’ दिल्ली के 13 जुलाई के अंक में श्रीमान् भावेश मेरजा जी ने मेरी नई पुस्तक ‘इतिहास प्रदूषण’ की समीक्षा में अपने मनोभाव व्यक्त किये हैं। मैंने अनेक बार लिखा है कि मैं अपने पाठक के असहमति के अधिकार को स्वीकार करता हूँ। आवश्यक नहीं कि पाठक मुझसे हर बात में सहमत हो। समीक्षक जी ने डॉ. अशोक आर्य जी के एक लेख में मुंशी कन्हैयालाल आर्य विषयक एक चूक पर आपत्ति करते हुए उन्हें जो कहना था कहा और मुझे भी उनके लेख के बारे में लिखा। मैंने भावेश जी को लिखा मैं लेख देखकर उनसे बात करूँगा। अशोक जी को उनकी चूक सुझाई। उन्होंने कहा , मैंने पं. देवप्रकाश जी की पुस्तक में ऐसा पढ़कर लिख दिया। मैंने फिर भी कहा स्रोत का नाम देना चाहिये था और बहुत पढ़कर किसी विषय पर लेखनी चलानी चाहिये।

मैं गत 30-35 वर्ष से आर्यसमाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग पर लिखता चला आ रहा हूँ परन्तु

‘रोग बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।’

वाली उक्ति के अनुसार यह तो ऊपर से नीचे तक फैल चुका है। भावेश जी ने अशोक जी की चूक पर तो झट से अपना निर्णय दे दिया कि यह भ्रामक कथन है। मैंने कई लेखकों की कई पुस्तकों व लेखों की भयङ्कर भूलों नाम की, सन् की, सवत् की, स्थान की, हटावट की मिलावट की बनावट की मनगढ़न्त हदीसें मिलाने की निराधार मिथ्या बातों के अनेक प्रमाण दिये तीस वर्ष से झकझोर रहा हूँ। मेरे एक भी प्रमाण व एक भी टिप्पणी को कोई आगे आकर झुठलाकर तो दिखावे। अशोक जी के एक लेख पर एक कथन पर भावेश जी ने झट से उसका प्रतिवाद कर दिया। अब भी वह ऐसा करते तो अच्छा होता अथवा मेरे दिये प्रमाणों को झुठलाते। यह तो वही बात हुई ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’

तड़प-झड़प वाली शैली पर जो आपत्ति समीक्षक ने की है, वही ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, पं. चमूपति, देहलवी जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. धर्मभिक्षु, पं. नरेन्द्र जी पर विरोधी कोर्टों व पुस्तकों में करते चले आ रहे हैं परन्तु कोई असंसदीय शद तो किसी कोर्ट में सिद्ध न हो सका। एक व्यक्ति ने गत तीस-पैंतीस वर्ष से प्रदूषण का आन्दोलन छेड़ा है तो उसी पर अधिक लिखा जावेगा। वेश्या व जोधपुर के राज परिवार के लिए आर्यसमाज के इतिहास को ही प्रदूषित करना क्या उचित है?

तड़प-झड़प वाले का लेख ईसाई पत्रिका पवित्र हृदय ने आदर से प्रकाशित किया। जब-जब किसी ने प्रहार किया, चाहे सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में अभियोग चला, हर बार तड़प-झड़प वाले को ही उत्तर देने व रक्षा के लिए समाज पुकारता है। इसका कारण आप ही बता दें। गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय अमृतसर का Sikh Theology विभाग सारा ही तड़प-झड़प वाले के पास पहुँचा तो क्या इससे आर्यसमाज का गौरव बढ़ा या नहीं? किसी और से वह काम ले लेते। महोदय! मुसलमानों ने आचार्य बलदेव जी से कहलवाकर तड़प-झड़प वाले की एक पुस्तक दो बार छापने की अनुमति ली। शहदयार शीराजी एक विदेशी मुस्लिम स्कॉलर ने पं. रामचन्द्र जी देहलवी व दो अन्य महापुरुषों पर तड़प-झड़प वाले से ग्रन्थ लिखवा कर समाज की शोभा शान बढ़ाई या नहीं? ये कार्य आप अपनी विभूति से करवा लेते तो संसार जान जाता। ‘इतिहास प्रदूषण’ में दिया गया एक प्रमाण, एक टिप्पणी तो झुठलाओ।

परोपकारी पर वार हो तो संगठन भूल जाता है। प्रदूषणकार, हटावट, मिलावट, बनावट करने वाले पर लेखनी उठाई जावे तब संगठन की दुहाई देने का क्या अर्थ? तड़प-झड़प वाला अर्थार्थी, स्वार्थी नहीं परमार्थी पुरुषार्थी है। यह क्यों भूल गये? न कभी किसी से पुरस्कार माँगा है, न समान व पेंशन माँगी है। कई बार अस्वीकार तो करता आया है। तन दिया है, मन दिया है, लहू से ऋषि की वाटिका, सींची है। धन को धूलि जानकर समाज पर वारा है। न तो कभी साहित्य तस्करी की है और न पुस्तकों की तस्करी का पाप कभी किया है। सच को सच तो स्वीकार करो। इसे झुठलाना आपके बस में नहीं है।

परमात्मा का शरीर कब बना? किससे बना? – राजेन्द्र जिज्ञासु

बाइबिल के प्रथम वाक्य आकाश (Heaven) को ईश्वर द्वारा बनाया गया, लिखा है और फिर आठवें वाक्य में दोबारा Heaven (आकाश) का सृजन हुआ। आकाश दो बार क्यों रचना पड़ा? पहले जो आकाश बनाया गया था, उसमें क्या दोष था? आश्चर्य है कि बहुत पठित लोग भी इस भूल-भुलैयाँ को ईश्वरीय ज्ञान मानते हैं।

यही नहीं बाइबिल की 26वीं आयत में आता है, ÒLet us make man in our own image.Ó अर्थात् परमात्मा ने अपनी आकृति पर मनुष्य को बनाने का मन बनाया। परन्तु अपने देह को कब और कैसे बनाया- यह बाइबिल में इस से पहले कहीं बताया ही नहीं गया।

उत्पत्ति 2-7 में पुनः God formed man of the dust of the ground.. लिखा मिलता है अर्थात् धरती की धूलि मट्टी से मनुष्य को बनाया गया। प्रश्न उठता है कि जब ईश्वर के सृदश ही मनुष्य को बनाया तो क्या फिर परमात्मा की देह भी धूलि मट्टी से निर्मित होगी। इस शंका का समाधान कैसे हो?

प्रत्येक आर्य को श्री हरिकृष्ण जी की पूना से प्रकाशित पुस्तक पढ़नी व पढ़ानी चाहिये।

श्री विशाल का प्रश्नःदिल्ली के श्री विशाल धर्मनिष्ठ व लगनशील युवक हैं। अभी अनुभवहीन हैं। उन्हें निरन्तर स्वाध्याय करके अपनी योग्यता बढ़ानी चाहिये। आप विधर्मियों को बहुत सुनते व पढ़ते हैं। उनके प्रत्येक आक्षेप का उत्तर देने की योग्यता तो समय पाकर ही आयेगी। आपने एक मुसलमान का यह आक्षेप सुनकर उसका उत्तर माँगा है कि अथर्ववेद के एक मन्त्र में, ‘‘हमारे शत्रुओं को मारने की प्रार्थना है।’’ मैं समझ गया कि किसी मियाँ ने जेहाद की वकालत में उसकी पुष्टि में वेद के मन्त्र का प्रमाण दे दिया। इससे इतना तो पता चल गया कि जेहाद को कुरान से तो न्याय संगत सिद्ध नहीं किया जा सका। जेहाद की पुष्टि में मियाँ लोग वेद को घसीट लाते हैं। कुरान का जेहाद विशुद्ध मजहबी लड़ाई व रक्तपात है। वेद में किसी भी मजहब की चर्चा नहीं, अतः वेद में मजहबी लड़ाई  (Crusade)  की गंध तक नहीं। तब मत पंथ थे ही नहीं। वेद में भले व बुरे, सज्जन व दुर्जन का तो भेद है। अन्यायी दुर्जन से लड़ाई में विजय की प्रार्थनायें हैं।

कुरान व बाइबिल दोनों हमारी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। कुरान की सूरते बकर की आयत संया 213 का प्रामाणिक अनुवाद है “Mankind was [of] one religion [before their deviation], then Allah sent the prophetes as………” अर्थात् धरती के वासियों की एक ही भाषा और एक ही वाणी थी। वह वाणी कौनसी थी? वेदवाणी ही सृष्टि के आरभ में मनुष्य धर्म था। इसी को शद प्रमाण माना जाता था। बाइबिल का घोष विश्व को सुनाना समझाना होगा, In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God.  कितने स्पष्ट शदों में घोषणा की गई है कि आदि में शब्द  (शब्द प्रमाण-वेद) था, शब्द ईश्वर के पास था और शब्द (ज्ञान) परमात्मा था। मित्रो! मत भूलिये बाइबिल में तीन बार आने वाले इस  शब्द Word का W अक्षर Capital बड़ा है। व्यक्तिवाचक जातिवाचक संज्ञाओं में धर्म ग्रन्थों का पहला अक्षर सदैव कैपिटल ही होता है। यहाँ Word संज्ञा होने से W कैपिटल है। निर्विवाद रूप से यहाँ शब्द Word वेद के लिये प्रयुक्त हुआ है। आयत का सीधा सा भाव सृष्टि के आदि में अनादि वेद का आविर्भाव हुआ। गुण-गुणी के साथ ही रहता है, सो ईश्वर का वेद ज्ञान ईश्वर के साथ था। ईश्वर ज्ञान स्वरूप माना जाता है, सो शद ज्ञान वेद का परमात्मा ब्रह्म कहा जाता है। हिन्दू समाज घर-घर में बाइबिल के इस घोष को गुञ्जा कर मार्गभ्रष्ट जाति बन्धुओं का उद्धार करे।

मैंने विशाल से कहा, अरे भाई विधर्मी से वार्ता करते हुए सदा अपना पक्ष वैज्ञानिक ढंग से रखो। प्रभु निर्मित किसी वस्तु व नियम में कुछ भी दोष आज तक नहीं पाया गया। सूर्य चाँद नये नहीं बने। मनुष्य, पशु-पक्षियों की निर्माण विधि (Design) विधि पुराना है। अग्नि, जल, वायु और सृष्टि के सब वैज्ञानिक नियम  (Laws) न घटे, न घिसे और न बढ़े, फिर ईश्वरीय ज्ञान, मानव धर्म नया (इलहाम) कैसे आ गया। यह मान्यता हठ, दुराग्रह व अन्धविश्वास है।

नन्दकिशोर जी के अनुरोध को शिरोधार्य करके मैं नये सिरे से एक ऐसी पुस्तक अवश्य लिखूँगा। मुसलमानों व ईसाइयों के साहित्य में जो वेदानुकूल नई-नई शिक्षायें व मान्यतायें मिलती है, सूझबूझ से आर्य युवकों को उनको संग्रहीत करके प्रचारित करना चाहिये।

मुर्गे क्यों बांग देते हैं? गधे क्यों रेंकते हैं ?- इस्लाम के नज़रिए में :

ईश्वर द्वारा बनायी इस सृष्टि में सभी जीव ईश्वर द्वारा निर्धारित नियमों का पालन करते हए जीवन यापन करते हैं. जिन्हें जिव्ह्या प्रदान की है वो उसका प्रयोग अपने भावों को व्यक्त करने के लिए करते हैं . चाहे वो खुशी को व्यक्त करना चाहें या दुःख को या जीवन की अलग अलग भावनाओं और आवश्यकताओं को.

लेकिन हदीसों का अवलोकन करने पर हम इसका एक अन्य कारण भी पाते हैं :-

सहीह बुखारी हदीस नॉ ५२२ , पृष्ट संख्या ३३२

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अबू हुरैरा से रिवायत है की मुहम्मद साहब ने कहा कि जब आपको मुर्गे की बांग सुनाई दे तो अल्लाह से दुआ मांगों क्योंकि मुर्गे का बांग देना यह  प्रदर्शित करता है कि इसने फरिश्तों को देखा है . और जब तुम गधे का रेंकना सुनो तो अल्लाह से शरण की दुआ करो क्योंकि गधे का रेंकना यह प्रदर्शित करता है की गधे ने शैतान को देखता है .

यही हदीस सहीह मुल्सिम में भी है :

सहीह मुस्लिम जिल्द ४ हदीस २७२९ पृष्ठ संख्या २६५

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अबू हुरैरा ने बताया कि अल्लाह के रसूल ने कहा की जब तुम मुर्गे की बांग को सुनो तो अल्लाह से अपने लिए दुआ मांगो क्योंकि मुर्गे ने फरिश्तों को देखा है और जब तुम गधे का रेंकना सुनो तो शैतान से बचने के लिए अल्लाह से दुआ करो क्योंकि गधे ने शैतान को देखा है .

बड़ा ही नायब तर्क  है गधे के रेंकने  और मुर्गे के बांग देने का !

विज्ञान तो अभी तक फरिश्तों और  शैतान के अस्तित्व को खोजने में ही असफल रहा है.

मौलवियों को आवश्यक है कि विज्ञानं द्वारा इस तथ्य को साबित करें क्योंकि ज्ञान का प्रचार प्रसार होना सभी के हित में है.

वैसे ये शैतान है बडा ही अद्भुत पात्र क्योंकि अल्लाह को भी  शैतान की फिक्र लगी रहती है और अल्लाह के दिखाए मार्ग पर चलने वाले मुसलमान भी इसके डर से खौफजदा रहते हैं और बार बार अल्लाह से शैतान से  बचने के लिए दुआ करते रहते हैं .

ये हमारी दरख्वास्त है मौलियों आलिमों फाज़िलों  से कि इस्लाम की इस खोज को कि मुर्गे क्यों बांग देते और गधे क्यों रेंकते हैं की  हकीकत को विज्ञानं की दृष्टि में सिद्ध करें जिससे सत्य का प्रसार विश्व भर में हो .