यह दोहरा मापदण्ड क्यों?– – राजेन्द्र जिज्ञासु

‘आर्य सन्देश’ दिल्ली के 13 जुलाई के अंक में श्रीमान् भावेश मेरजा जी ने मेरी नई पुस्तक ‘इतिहास प्रदूषण’ की समीक्षा में अपने मनोभाव व्यक्त किये हैं। मैंने अनेक बार लिखा है कि मैं अपने पाठक के असहमति के अधिकार को स्वीकार करता हूँ। आवश्यक नहीं कि पाठक मुझसे हर बात में सहमत हो। समीक्षक जी ने डॉ. अशोक आर्य जी के एक लेख में मुंशी कन्हैयालाल आर्य विषयक एक चूक पर आपत्ति करते हुए उन्हें जो कहना था कहा और मुझे भी उनके लेख के बारे में लिखा। मैंने भावेश जी को लिखा मैं लेख देखकर उनसे बात करूँगा। अशोक जी को उनकी चूक सुझाई। उन्होंने कहा , मैंने पं. देवप्रकाश जी की पुस्तक में ऐसा पढ़कर लिख दिया। मैंने फिर भी कहा स्रोत का नाम देना चाहिये था और बहुत पढ़कर किसी विषय पर लेखनी चलानी चाहिये।

मैं गत 30-35 वर्ष से आर्यसमाज में इतिहास प्रदूषण के महारोग पर लिखता चला आ रहा हूँ परन्तु

‘रोग बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।’

वाली उक्ति के अनुसार यह तो ऊपर से नीचे तक फैल चुका है। भावेश जी ने अशोक जी की चूक पर तो झट से अपना निर्णय दे दिया कि यह भ्रामक कथन है। मैंने कई लेखकों की कई पुस्तकों व लेखों की भयङ्कर भूलों नाम की, सन् की, सवत् की, स्थान की, हटावट की मिलावट की बनावट की मनगढ़न्त हदीसें मिलाने की निराधार मिथ्या बातों के अनेक प्रमाण दिये तीस वर्ष से झकझोर रहा हूँ। मेरे एक भी प्रमाण व एक भी टिप्पणी को कोई आगे आकर झुठलाकर तो दिखावे। अशोक जी के एक लेख पर एक कथन पर भावेश जी ने झट से उसका प्रतिवाद कर दिया। अब भी वह ऐसा करते तो अच्छा होता अथवा मेरे दिये प्रमाणों को झुठलाते। यह तो वही बात हुई ‘चित भी मेरी और पट भी मेरी’

तड़प-झड़प वाली शैली पर जो आपत्ति समीक्षक ने की है, वही ऋषि दयानन्द, पं. लेखराम, पं. चमूपति, देहलवी जी, पं. शान्तिप्रकाश जी, पं. धर्मभिक्षु, पं. नरेन्द्र जी पर विरोधी कोर्टों व पुस्तकों में करते चले आ रहे हैं परन्तु कोई असंसदीय शद तो किसी कोर्ट में सिद्ध न हो सका। एक व्यक्ति ने गत तीस-पैंतीस वर्ष से प्रदूषण का आन्दोलन छेड़ा है तो उसी पर अधिक लिखा जावेगा। वेश्या व जोधपुर के राज परिवार के लिए आर्यसमाज के इतिहास को ही प्रदूषित करना क्या उचित है?

तड़प-झड़प वाले का लेख ईसाई पत्रिका पवित्र हृदय ने आदर से प्रकाशित किया। जब-जब किसी ने प्रहार किया, चाहे सत्यार्थप्रकाश पर दिल्ली में अभियोग चला, हर बार तड़प-झड़प वाले को ही उत्तर देने व रक्षा के लिए समाज पुकारता है। इसका कारण आप ही बता दें। गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय अमृतसर का Sikh Theology विभाग सारा ही तड़प-झड़प वाले के पास पहुँचा तो क्या इससे आर्यसमाज का गौरव बढ़ा या नहीं? किसी और से वह काम ले लेते। महोदय! मुसलमानों ने आचार्य बलदेव जी से कहलवाकर तड़प-झड़प वाले की एक पुस्तक दो बार छापने की अनुमति ली। शहदयार शीराजी एक विदेशी मुस्लिम स्कॉलर ने पं. रामचन्द्र जी देहलवी व दो अन्य महापुरुषों पर तड़प-झड़प वाले से ग्रन्थ लिखवा कर समाज की शोभा शान बढ़ाई या नहीं? ये कार्य आप अपनी विभूति से करवा लेते तो संसार जान जाता। ‘इतिहास प्रदूषण’ में दिया गया एक प्रमाण, एक टिप्पणी तो झुठलाओ।

परोपकारी पर वार हो तो संगठन भूल जाता है। प्रदूषणकार, हटावट, मिलावट, बनावट करने वाले पर लेखनी उठाई जावे तब संगठन की दुहाई देने का क्या अर्थ? तड़प-झड़प वाला अर्थार्थी, स्वार्थी नहीं परमार्थी पुरुषार्थी है। यह क्यों भूल गये? न कभी किसी से पुरस्कार माँगा है, न समान व पेंशन माँगी है। कई बार अस्वीकार तो करता आया है। तन दिया है, मन दिया है, लहू से ऋषि की वाटिका, सींची है। धन को धूलि जानकर समाज पर वारा है। न तो कभी साहित्य तस्करी की है और न पुस्तकों की तस्करी का पाप कभी किया है। सच को सच तो स्वीकार करो। इसे झुठलाना आपके बस में नहीं है।

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