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सीता की उत्पत्ति – मिथक से सत्य की और

जनक के हल जोतने पर भूमि के अन्दर फाल का टकराना तथा उससे एक कन्या का पैदा होना और फिर उसी का नाम सीता रखना आदि असंभव होने से प्रक्षिप्त है । इस विषय में प्रसिध्द पौराणिक विद्वान स्वामी करपात्री जी ने स्वरचित ”रामायण मीमांसा’ में लिखा है – “पुराणकार किसी व्यक्ति का नाम समझाने के लिए कथा गढ़ लेते है। जनक पुत्री सीता के नाम को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने वैदिक सीता ( = हलकृष्ट भूमि) से सम्बन्ध जोड़कर उसका जन्म ही भूमि से हुआ

बता दिया” ( पृ ० 89 ) अथवा यह हो सकता है कि किसी ने कारणवश यह कन्या खेत में फेक दी हो और संयोगवश वह जनक को मिल गई हो अथवा किसी ने ‘खेत में पडी लावारिस कन्या मिली है’ यह कहकर जनक को सौप दी हो फिर उन्होंने उसे पाल लिया हो । महर्षि कण्व को शकुन्तला इसी प्रकार मिली थी। और प्राप्ति के समय पक्षियों द्वारा संरक्षित एवं पालित (न कि प्रसूत) होने से उसका नाम शकुन्तला रख दिया था ।

धरती को फोड़कर निकलने बालों की “उद्भिज्ज” संज्ञा है। तृण, औषधि, तरु, लता आदि उद्भिज्ज कहलाते हैं । मनुष्य, पश्वादि, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियों के अन्तर्गत है । मनुष्य वर्ग में होने के कारण सीता की उत्पत्ति पृथिवी से होना प्रकृति विरुध्द होने से असंभव है।

सीता की उत्पति पृथिवी से कैसे मानी जा सकती है, जबकि बाल्मीकि रामायण में अनेक स्थलों में उसे जनक की आत्मजा एवं औरस पुत्री तथा उर्मिला की सहोदरा कहा गया है –

वर्धमानां ममात्मजाम् (बाल० 66/15) ;

जानकात्मजे (युद्ध० 115/18) ;

जनकात्मजा (रघुवंश 13/78)

महाभारत में लिखा है –

विदेहराजो जनक: सीता तस्यात्मजा विभो
(3/274/9)

अमरकोश (2/6/27) में ‘आत्मज’ शब्द का अर्थ इम प्रकार लिखा है –

आत्मनो देहाज्जातः = आत्मजः अर्थात जो अपने शरीर से पैदा हो, वह आत्मज कहाता है। आत्मा क्षेत्र (स्त्री) का पर्यायवाची है ; क्षेत्र और शरीर पर्यायवाची है।

क्षीयते अनेन क्षेत्रम

स्त्री को क्षेत्र इसलिए कहते हैं की वह संतान को जनने से क्षीण हो जाती है। पुरुष बीजरूप होने से क्षीण नहीं होता ।

रघुवंश सर्ग 5, श्लोक 36 में लिखा है –

ब्राह्मे मुहूर्ते किल तस्य देबी कुमारकल्पं सुषुवे कुमारम् ।
अत: पिता ब्रह्मण एव नाम्ना तमात्मजन्मानमजं चकार ।।

महामना पं ० मदनमोहन मालवीय की प्रेरणा से संवत 2000 में विक्रमद्विसहस्राब्दी के अवसर पर संस्थापित अखिल भारतीय विक्रम परिषद द्वारा नियुक्त कालिदास ग्रंथावली के संपादक मण्डल के प्रमुख साहित्याचार्य पं ० सीताराम चतुर्वेदी ने उक्त श्लोक में आये “आत्मजन्मान्म” का अर्थ रघु की रानी की कोख से जन्मा किया हैं । तव जनक की ‘आत्मजा’ का अर्थ पृथिवी से उत्पन्न कैसे हो सकता है ? ब्रह्म मुहुर्त में जन्य लेने के कारण रघु ने अपने पुत्र का नाम अज (अज ब्रह्मा का पर्यायवाची है, क्योंकि ब्रह्मा का भी जन्म नहीं होता) रखा। अज का अर्थ जन्म न लेने वाला होता है। कोई मूर्ख ही कह सकता है कि अज का यह नाम इसलिए रखा गया था, क्योंकि वह पैदा नहीं हुआ था।

आत्मज या आत्मजा उसी को कह सकते हैं जो स्त्री – पुरुष के रज-वीर्य से स्त्री के गर्म से उत्पन्न हो, इसमें सामवेद ब्राह्मण प्रमाण है-

अंगदङ्गात् सम्भवसि हृदयादधिजायते ……. आत्मासि पुत्र।
(1.5.17)

है पुत्र ! तू अंग-अंग से उत्पन्न हुए मेरे वीर्य से और हदय से पैदा हुआ है, इसीलिए तू मेरा आत्मा है । खेत से उत्पन्न होने से तो तृण, औषधि, वनस्पति, वृक्ष, लता आदि सभी आत्मज और आत्मजा हो जाएँगे और बाप-दादा की सम्पत्ति में भागीदार हो जाएंगे।

‘जनी प्रादुर्भावे’ से जननी शब्द निष्पन्न होता है। इससे जन्म देने वाली को ही जननी कहते है। पालन-पोषण करने वाली यशोदा माता कहलाती थीं, परन्तु जन्म न देने के कारण जननी देवकी ही कहलाती थी। बनवास काल में अत्रि मुनि
के आश्रम में अनसूया से हुई बातचीत में सीता ने कहा था –

पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा तवाग्निसन्निधौ।
अनुशिष्टं जनन्या में वाक्यं तदपि में घृतम् ।।
अयो० 118/8-9

विवाह के समय मेरी जननी ने अग्नि के सामने मुझे जो उपदेश दिया था, उसे मैं किंचित भूली नहीं हूँ । उन उपदेशों को मैंने हृदयंगम किया है ।

क्या यहाँ विवाह के समय उपदेश देने वाली यह ‘जननी’ पृथिवी हो सकती है ?
और क्या बेटी को विदा करते समय बिलख बिलख कर रोने वाली पृथिवी थी ?
यहाँ माता को ही जननी कहकर स्मरण किया है, पृथिवी को जननी नहीं कहा।

तुलसीदास जी ने तो माता = जननी का नाम भी इस चौपाई
में लिख दिया है :-

जनक वाम दिसि सोह सुनयना ।
हिमगिरि संग बनी जिमि मैना ।।
(रामचरितमानस बालकाण्ड 356/2)

(विवाह वेदी पर) सुनयना (महारानी) महाराजा जनक की बाई और ऐसी शोभायमान थी, मानो हिमाचल के साथ मैना (पार्वती की माता) विराजमान हो।

पाणिग्रहण संस्कार के समय जिस प्रकार रामचन्द्र जी की पीढियों का वर्णन किया गया था उसी प्रकार सीता की भी 22 पीढियों का वर्णन किया गया। यदि सीता की उत्पत्ति पृथिवी ये हुई होती तो पृथ्वी से पहले की पीढ़िया कैसे बनती ?
इसे शाखोच्चार कहते है । राजस्थान में विवाह के अवसर पर दोनो पक्षों के पुरोहित आज भी 22 के ही नहीं, 30-40 पीढ़ियों तक के नामो का उल्लेख करते हैं । साधारणतया सौ वर्ष में चार पुरुष समझे जा सकते हैं। इस प्रकार 40 पीढियों में लगभग एक हजार वर्ष बनते है। अर्थात् सर्वसाधारण लोग भी मुहांमुही सैकडों वर्षो के पारिवारिक इतिहास का ज्ञान रख सकते थे। जिसका 22 पीढ़ियों का क्रमिक इतिहास ज्ञात है उसे कीड़े-मकौडों या पेड़-पौधों की तरह पृथिवी से उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। वस्तुतस्तु सीता के पृथिवी से उत्पन्न होने

सम्बन्धी गप्प का स्रोत विष्णु पुराण, अंश 4, अध्याय 4, वाक्य 27-28 है जिसका वाल्मीकि रामायण में प्रक्षेप कर दिया गया है। जन्म को पृथ्वी से मानकर सीता का अंत भी पृथ्वी में समाने की कल्पना करके ही किया गया है ।

अयोनिजा – सीता को अनेक स्थलों में अयोनिजा कहा गया है । पृथिवी से उत्पन्न होने का अर्थ माता-पिता के बिना अर्थात स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना उत्पन्न होना है। इसी को अयोनिज सृष्टि कहते है, क्योंकि इसमें गर्भाशय से
बाहर निकलने में योनि नामक मार्ग का प्रयोग नहीं होता । सृष्टि के आदि काल में समस्त सृष्टि अमैथुनी होती हैं –

अमैथुनी सृष्टि से सम्बंधित पोस्ट का लिंक – यहाँ से पढ़े
https://www.facebook.com/Aryamantavya/photos/a.1418444565059896.1073741828.1418437208393965/1618030795101271/?type=1&theater

यहाँ यह तथ्य जरूर जोड़ा जाता है की सृष्टि चाहे मैथुनी हो अथवा अमैथुनी – प्राणियों के शरीरो की रचना परमेश्वर सदा माता पिता के संयोग से ही करता है।
पर दोनों में अंतर केवल इतना है की आदि सृष्टि में माता (जननी) पृथ्वी होती है और वीर्य संस्थापक सूर्य (ऋग्वेद 1.164.3) में कहा है –

“द्यौर्मे पिता जनिता माता पृथ्वी महीयम”

अर्थात सृष्टि के आदि काल में प्राणियों के शरीरो का उत्पादक पिता रूप में सूर्य था और माता रूप में यह पृथ्वी। परमात्मा ने सूर्य और पृथ्वी – दोनों के रज वीर्य के संमिश्रण से प्राणियों के शरीरो को बनाया। जैसे इस समय बालक माता के गर्भ में जरायु में पड़ा माता के शरीर में रस लेकर बनता और विकसित होता है, वैसे ही आदि सृष्टि में पृथ्वी रुपी माता के गर्भ में बनता रहता है। इसी शरीर को साँचा रुपी शरीर भी कहा जाता है जिससे हमारे जैसे मैथुनी मनुष्य उत्पन्न होते रहते हैं।

सीता का जन्म सृष्टिक्रम चालु होने और साँचे तैयार होने के बाद त्रेता युग में हुआ था, अतः सीता के अयोनिजा होने का प्रश्न ही नहीं उठता। जनक उनके पिता थे और रामचरितमानस के अनुसार सुनयना उनकी माता का नाम था।

मेरी सभी बंधुओ से विनती है, कृपया लोकरीति, मिथक, दंतकथाओं आदि पर आंखमूंदकर विश्वास करने से अच्छा है – खुद अपनी धार्मिक पुस्तको और सत्य इतिहास को पढ़ कर बुद्धि को स्वयं जागृत करते हुए दूसरे हिन्दू भाइयो को भी जगाये – ताकि कोई विधर्मी हमारे सत्य इतिहास और महापुरषो महा विदुषियों पर दोषारोपण न कर सके

आओ लौटे ज्ञान और विज्ञानं की और –

आओ लौट चले वेदो की और

नमस्ते

धर्मात्मा महाराज जटायु कोई पक्षी गिद्ध नहीं – क्षत्रिय वर्ण के मनुष्य थे

महाराज जटायु की वंशावली –

ऋषि मरीचि कुलोत्त्पन्न – ऋषि ताक्षर्य कश्यप

और महाराज दक्ष कुलोत्त्पन्न – विनीता

ताक्षर्य कश्यप और विनीता के दो पुत्र –

गरुड़ और अरुण

अरुण के दो पुत्र हुए –

सम्पात्ति और जटायु

इन सभी महापुरषो का विवरण धीरे धीरे प्रस्तुत किया जायेगा – फिलहाल आज हम चर्चा करेंगे –

धर्मात्मा महाराज जटायु के बारे में –

महाराज जटायु – ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे, आप गृध्रराज भी कहे जाते हैं, क्योंकि गृध्र एक पर्वत क्षेत्र है – जिसकी आकृति एक गिद्ध की चोंच जैसी है – इनका राज्य – अवध (अयोध्या और मिथिला) के बीच का हिस्सा था – जो एक पहाड़ी क्षेत्र था। ऐसा में कोई भ्रान्ति वश नहीं लिख रहा हु – ना ही मेरी कोई कपोल कल्पना है – आप रामायण में रावण और जटायु का संवाद पढ़े तो स्पष्ट दीखता है – देखिये –

रावण को अपना परिचय देते हुए जटायु ने कहा –

मैं गृध कूट का भूतपूर्व राजा हूँ और मेरा नाम जटायु हैं

सन्दर्भ – अरण्यक 50/4 (जटायुः नाम नाम्ना अहम् गृध्र राजो महाबलः | 50/4)

क्योंकि उस समय में आश्रम व्यवस्था की मान्यता थी जिसकी वजह से समाज और देश व्यवस्थित थे – आज ये वयवस्था चरमरा गयी है जिसके कारण ही देश पतन की और अग्रसर है – खैर – उस समय धर्मात्मा जटायु वानप्रस्थ आश्रम में होंगे – तभी वे अपने राज्य को युवा हाथो में सौंप देश और समाज की व्यवस्था में लग गए – इसका महत्वपूर्ण परिणाम था की माता सीता को रावण से बचाने के लिए अपनी प्राणो की भी बाजी लगा दी –

कुछ लोग धर्मात्मा जटायु को – एक पक्षी – या फिर बहुत बड़ा शरीर वाला गिद्ध समझते हैं – ऐसे लोग केवल वो पढ़ते हैं जिससे उन्हें अपना मनोरथ सिद्ध करना हो – जो सत्य और न्याय से परिपूर्ण हो वो पढ़ना नहीं चाहते – क्योंकि यदि पक्षपात और दुराग्रह त्याग कर – सत्य अन्वेषी बने तो सब कुछ साफ़ और स्पष्ट है की वे एक मनुष्य ही थे – देखिये

1. जैसे की ऊपर वंशावली दी गयी है – धर्मात्मा जटायु – ऋषि मरीचि के कुल में उत्पन्न ताक्षर्य कश्यप ऋषि और महाराज दक्ष के कुल में उत्पन्न विनीता के पुत्र थे – तो भाई क्या एक मनुष्य के गिद्ध संतान उत्पन्न हो सकती है ?

2. प्रभु राम ने धर्मात्मा जटायु को अरण्य काण्ड में “गृध्राज जटायु” अनेक बार बोला है क्योंकि वो उन्हें जान गए थे की वो गृध्र प्रदेश नरेश जटायु हैं।

3. जटायु राज को इसी सर्ग में श्री राम ने द्विज कहकर सम्बोधित किया – जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए ही उपयोग होता है –

4. जटायु राज को श्री राम इसी सर्ग में अपने पिता दशरथ का मित्र बताते हैं।

5. जिस समय रावण सीता का अपहरण कर उसे ले जा रहा था तब जटायु को देख कर सीता ने कहाँ – हे आर्य जटायु ! यह पापी राक्षसपति रावण मुझे अनाथ की भान्ति उठाये ले जा रहा हैं । (सन्दर्भ-अरण्यक 49/38) – यहाँ भी जटायु महाराज को द्विज सम्बोधन है – और यहाँ द्विज किसी भी प्रकार से पक्षी के लिए नहीं हो सकता – क्योंकि रावण को अपना परिचय देते हुए – जटायु महाराज अपने को – गृध्र प्रदेश का भूतपूर्व राजा बता रहे हैं।

6. जटायु राज का इसी सर्ग के बाद अगले सर्ग में दाह संस्कार स्वयं श्री राम ने किया – कुछ लोग ध्यान पूर्वक पढ़ लेवे – क्योंकि बहुत से हिन्दू भाइयो के मन में विचार आता है की जटायु – एक बहुत विशाल – पर्वत तुल्य – और बृहद पक्षी (गिद्ध) थे – तो भाई मुझे केवल इतना बताओ –

यदि जटायु महाराज इतने ही विशाल गिद्ध थे – तो बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड सर्ग 68 में – प्रभु श्री राम बाल्मीकि के शव को अपनी गोद में रखते हुए बड़े प्रेम से लक्ष्मण को कहते हैं – लक्ष्मण इनका दाह संस्कार हम करेंगे – प्रबंध करो – तब चिता पर जटायु महाराज को चिता पर लेटाकर – उनका दाह संस्कार प्रभु राम ने किया। तो बताओ भाई श्री राम इतने पर्वत तुल्य गिद्ध शरीर – को कैसे उठा कर चिता पर रखकर – दाह किया होगा ?

कुछ भाई अरण्य काण्ड के सर्ग ६७ का एक श्लोक प्रस्तुत करके कहते हैं की – श्री राम ने भी जटायु को गिद्ध ही समझा था – क्योंकि उन्होंने कहा की

“ये पर्वत के किंग्रे के तुल्य ने ही वैदेही सीता खा ली है, इसमें कोई संदेह नहीं।”

यहाँ पर्वत के किंग्रे तुल्य का सही अर्थ ना जानकार व्यर्थ ही आक्षेप करते हैं – पर्वत के किंग्रे तुल्य अर्थ बड़ा डील वाला – यानी औसत शरीर से बड़ा – और यहाँ वैदेही सीता खा ली है से तात्पर्य है की – उस वन में अनेक “जंगली – असभ्य – राक्षस प्रवर्ति के लोग निवास करते थे जो मांसभक्षी थे – इसलिए प्रभु राम ने ऐसी सम्भावना व्यक्त की। भाई कृपया समझ कर पढ़िए –

यदि पर्वत के किंग्रे तुल्य का अर्थ इतना ही बड़ा होगा – तो बताओ कैसे इतने बड़े भरी भरकम शरीर को प्रभु राम ने उठाकर चिता पर रखा होगा ? कैसे अपनी गोद में उस धर्मात्मा जटायु के सर को रखकर लक्ष्मण से वार्ता की होगी ?
इसी दाह संस्कार के बाद प्रभु राम ने – महाराज जटायु के लिए उदककर्म भी संपन्न किया था।

अब जहाँ तक हिन्दुओ को भी पता होगा – ये उदककर्म – मनुष्यो द्वारा – मनुष्यो के लिए ही किया जाता है – अब यदि फिर भी कोई धर्मात्मा जटायु को गिद्ध समझे – तो ये उसकी मूरखता ही सिद्ध होगी।

कृपया अपने महापुरषो के सत्य स्वरुप को जानिये – उनके बल, पराक्रम, शौर्य और वीरता को व्यर्थ ना करे। उनके पुरषार्थ का मजाक न बनाये। उन्हें पशु पक्षी तुल्य जानकार बताकर – समझकर – उनके चरित्र का मजाक ना स्वयं बनाये न किसी को बनाने ही दे।

कृपया वेदो की और लौटिए – सत्य और न्याय की और लौटिए

धन्यवाद

महर्षि दयानंद और मनुस्मृति के वचनो पर आक्षेप का उत्तर

हथिनी और हंसिनी चाल संपन्न युवती विवाह के लिए क्यों उपयुक्त है

सत्यार्थ प्रकाश – एक ऐसा कालजयी ग्रन्थ जो सभी आरोपों से आज तक मुक्त रहा है – क्योंकि इसमें कोई ऐसी बात नहीं लिखी गयी जो निरर्थक हो – सभी बाते – ऋषि ने वेदो और अनेको आर्ष ग्रंथो का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने के बाद ही लिखा। फिर भी कुछ लोग जानबूझकर अथवा स्वशंका से उत्पन्न कारणों से इस ग्रन्थ के कुछ हिस्सों की यदा कदा आलोचना करते रहते हैं। ऐसे आक्षेपों का इन्हे केवल एक लाभ उठाना है किसी प्रकार इस ग्रन्थ में खोट निकाल कर समाज को दिखा देवे जिससे समाज इस ग्रन्थ को निरर्थक मानकर त्याग दे और फिर ऐसे लालची लोगो की पूछ पुनः समाज में स्थापित हो जावे। कुछ ऐसे भी हैं जो स्वशंका उत्पन्न कर जवाब हासिल करना चाहते हैं। अंतर केवल इतना है की स्वशंका जिसमे उत्पन्न हुई वो सत्य को जानकार मिथ्या को तुरंत त्याग देगा इसमें शंका नहीं लेकिन जो वो लालची लोग हैं जिन्होंने इस आक्षेप को मढ़ा ही अपने प्रपंच के लिए है वो सत्य जानने के बाद भी इस आक्षेप को नहीं छोड़ेंगे।

हम बात कर रहे हैं कुछ लोगो द्वारा ऋषि के लिखे सन्दर्भ पर आक्षेप करने की तो पहले देखते हैं ऋषि ने आखिर लिखा क्या है :

ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में गृहस्थाश्रम के लिए आर्ष ग्रंथो में उपलब्ध व्यवस्थाओ को इंगित किया है। जिस प्रकार सम्पूर्ण सत्यार्थ प्रकाश में बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण कुछ नहीं लिखा इसी प्रकार इस चतुर्थ समुल्लास में भी बिना आर्ष ग्रंथो के प्रमाण ऋषि ने कोई व्यवस्था नहीं की है।

चतुर्थ समुल्लास गृहस्थ आश्रम को इंगित करता है इसलिए पूरी व्यवस्था गृहस्थों के लिए कब क्या कैसी और क्यों होनी चाहिए से सम्बंधित है। जब ऋषि ने ये ग्रन्थ लिखा था तब की परिस्थिति पर एक बार नजर डालिये :

1. बाल विवाह से देश त्रस्त था।

2. दहेज़ पीड़ा का बोझ था।

3. महिलाओ को शिक्षा आदि अधिकार से वंचित रखना प्रथम दायित्व था।

4. सती प्रथा जैसी कुप्रथा और महाबुराई फैली थी।

5. बाल विवाह के कारण “अबोध विधवा” का दुःख।

ये कुछ कारण मैंने गिनाये – ऋषि ने इन पीडाओ को महसूस किया – एक नारी का दर्द जाना – महसूस किया की ये देश और धर्म के लिए कितना खतरनाक है। क्या इतने कार्यो से ज्ञात नहीं होता की ऋषि स्त्री विरोधी नहीं थे बल्कि “नारी के उत्थान” हेतु पूर्ण संकल्पित थे। क्या केवल कुछ मूढ़ व्यक्तियों की कल्पनाओ के आधार पर ऋषि दयानंद की विचारधारा को “नारी विरोधी” सिद्ध किया जा सकता है ?

क्या इन कुप्रथाओ विरोध करना अपराध था ?

ऋषि ने केवल सत्य बोला। और कुप्रथाओ का त्याग करने के लिए ही इस कालजयी ग्रन्थ को लिखा। ऋषि के अनेक महान कार्यो को ना देखकर – केवल स्वार्थवश कुछ बातो पर आक्षेप करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो आपने आक्षेप किया – लेकिन सोच समझकर तो करते भाई – आइये देखिये जिस आक्षेप को तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे उसमे प्रमाण क्या हैं और विज्ञानं क्या है – आइये देखिये :

आक्षेप 1. हथिनी और हंसिनी जैसी चाल जिस युवती की हो उससे विवाह करे, हिरणी जैसी चाल वाली लड़की से विवाह न करे।

उत्तर : आश्वलायन गृह सूत्र के अनुसार कन्या में निम्नलिखित शुभलक्षण होने चाहिए –

1. बुद्धि 2. रूप 3. लक्षण अर्थात शुभ लक्षण 4. शील 5. आरोग्य

रूप की परिभाषा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं की जिसमे वर का मन रमे उसे रूप कहते हैं।

आपस्तम्ब ऋषि का भी कथन है की –

“यस्यां मनशचक्षुषोनिबन्धस्तस्यामृद्धिरिति”

अर्थात जिसको देखने से, नेत्र और मन जहाँ बांध जाए, ऐसी कन्या से विवाह शुभ है।

अब कुछ महानुभाव जिन्होंने ऋषि पर आक्षेप कर दिया की चाल के बारे में लिखा यानी ऋषि ने चाल पर ध्यान दिया – मंत्रो को तवज्जो नहीं दी – वो आपस्तम्ब ऋषि के बारे में भी यही सोचेंगे की ऋषि का ध्यान कन्या के चेहरे पर था – ज्ञान आदि विषय पर नहीं।

कन्या के शुभलक्षणयुक्त होने पर बहुत जोर अनेको ऋषियों ने दिया है ताकि गृहस्थाश्रम में विघ्न न हो – दुःख क्लेश आदि उत्पन्न न हो – जैसे

मनु महाराज ने कहा – कन्या लक्षणान्विता होने चाहिए – कन्या अंगहीन न हो, न ही कोई अंग छोटा बड़ा हो, जिसके नाम में सौम्य हो, जो हंस या हाथी की भांति चलती हो, जिसके शरीर के रोम, केश और दांत पतले हो, जिसका शरीर मृदु हो, ऐसी कन्या से विवाह करना उचित है।

दक्ष तथा याज्ञवल्क्य ऋषि ने भी लिखा है की विवाह के पूर्व कन्या के लक्षणों को अवश्य देखे।

शातातप प्रणीत – “पृथ्वी चंद्रोदय” में लिखा है की जिसकी वाणी हंस के सामान हो और वर्ण मेघ की तरह हो अर्थात चिकनाई लिए हुए श्याम वर्ण, ऐसी कन्या से विवाह करने से गार्हस्थ सुख प्राप्त होता है।

नारद जी ने भी लिखा है की मृग के सामान जिसके नेत्र और ग्रीवा हो और हंस के सामान जिसकी गति और वाणी हो ऐसी स्त्री राजपत्नी होती है।

आजकल ऋषि के कथन का विरोध और मजाक उड़ाना फैशन बन गया है – ऋषि ने चतुर्थ समुल्लास में ग्रस्थ आश्रम के लिए लिखा जिसमे स्त्री लक्षणों के बारे में जो शास्त्रो में बताया गया – उन सम्भावनाओ – लक्षणों को बताया ताकि वर स्वयं अथवा वर के माता पिता आदि गुरुजन अच्छी कन्या का अन्वेषण करते समय अपने मन में यह निश्चय कर ले की अमुक कन्या में क्या क्या शुभ लक्षण हैं और उससे विवाह करना कहाँ तक उपयुक्त होगा।

शुभ लक्षणों का जानना इसलिए आवश्यक है ताकि भावी संतान सब सुख और गुणों से भरपूर है, दुर्गणों का लेशमात्र भी न हो। जिससे देश धर्म और समाज की व्यवस्था बानी रहे।

हाँ ये बात भी ठीक है कि स्त्री-लक्षण शास्त्र का ज्ञान करके यह कहना उचित नहीं है की अमुक की पत्नी अच्छी है, अमुक की पत्नी दुष्ट लक्षणा है, लेकिन इतना अवश्य है की यदि इन नियमो का यथावत पालन न किया जाए तो दो प्रकार के दोषो की सम्भावना है :

1. शुभाशुभ दोनों प्रकार के लक्षण प्रत्येक व्यक्ति में पाये जाते हैं। जिस प्रकार के लक्षण अधिक बलवान और विशेष संख्या में होते हों वे विपरीत लक्षणों को दबा देते हैं। “विवेक विलास” आर्ष ग्रन्थ तो नहीं लेकिन वहां एक पंक्ति समझने योग्य है :

“पुष्टं यादव देहे स्याल्लक्षणम् वाप्यलक्षणम्।
इतराब्दाद्यते तेन बलवत फलदं भवेत्।।

भावार्थ : हो सकता है किसी लक्षण से कोई स्त्री दुष्ट प्रतीत होती हो किन्तु उसमे ऐसे बलवान शुभ लक्षण भी हो जिनको हम नहीं देख सकते।

2. प्रत्येक स्थान पर ज्योतिष की भाँती लक्षण शास्त्र में भी देश, काल और पात्र का विचार करना उचित है।

आगे के पोस्ट में इसी विषय को जारी रखकर पुराण आदि ग्रंथो से प्रमाणित किया जाएगा की ऋषि का ज्ञान कितना उच्च कोटि का था। और मॉडर्न विज्ञानं भी पुष्टि करता है ये सिद्ध होगा

आदि सृष्टि के मनुष्यो की भाषा क्या थी और भाषा का विस्तार कैसे हुआ ?

भाषा की उत्पत्ति :

मानव जिस समय पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ उस समय बोलने और समझने की शक्ति समपन्न अवस्था थी – यह निर्देश पहले भी किया जा चुका है की आदि सृष्टि के मनुष्य युवा अवस्था के उत्पन्न होते हैं – इसलिए उनमे बोलने की शक्ति थी तो यह भी मानना होगा की वर्ण भी थे जिनके द्वारा वह अपनी वाणी को प्रकट कर सके। यदि कोई यह माने की वर्ण नहीं थे तो उसके साथ यह भी स्वीकार करना ही पड़ेगा की मनुष्य आदिम अवस्था में गूंगा उत्पन्न हुआ। यदि गूंगा उत्पन्न हुआ तो फिर वह किसी भी हालत में बोलने वाला नहीं हो सकता। इसलिए निष्कर्ष यही निकलेगा की उसमे बोलने की शक्ति थी और जब बोलने की शक्ति थी तो ये भी तथ्यात्मक है की जो भाषा वो बोले उनके वर्ण भी होने चाहिए।

जो लोग कहते हैं की सेमिटिक भाषाए, हीब्रू अथवा अरबी आदि आर्य भाषाओ से स्वतंत्र हैं वह गलती पर हैं, कारण की मनुष्य किसी नवीन भाषा को तो कभी बना ही नहीं सकता ?

क्योंकि मैथुनी (सेक्स) सृष्टि के लोगो की भाषा सदैव उनके मातापिता तथा गुरु की भाषा होती है। लेकिन आदि मनुष्यो की भाषा पूर्ण (संस्कृत) भाषा ही थी ऐसा नियम इसलिए मान्य है क्योंकि आदि मनुष्यो का माता पिता और गुरु ईश्वर के अतिरिक्त और कोई थे ही नहीं। तो ऐसी स्थति में और कोई देशीय भाषा विरासत में मिलना असंभव है – तो साफ़ है उनकी केवल वही भाषा होगी जो सृष्टि के पदार्थो में विद्यमान हो – परमेश्वर द्वारा मनुष्य पर प्रकट किये जाने वाले ज्ञान के पूर्ण माध्यम होने की उस भाषा में क्षमता हो और वह ऐसी भाषा होनी चाहिए जो सदा प्रत्येक कल्प में एक सी रहती हो तथा आगे बोल चाल की समस्त भाषाओ को उत्पन्न करने में सक्षम हो। विशेष बात यह है की वो किसी देश विदेश की भाषा न हो और न उससे पूर्व कोई ज्ञान वा भाषा पृथ्वी पर कहीं मौजूद हो

बस यही बात है जो विशेष वर्णन के योग्य है की परमेश्वर ने मानव के पृथ्वी पर आने के साथ ही साथ वेद ज्ञान की प्रेरणा मनुष्य में दी – और वह वेद की भाषा “संस्कृत” में ईश्वरीय ज्ञान मानव को मिला जो आदि ज्ञान और आदि भाषा – दोनों था।

वाणी भाषाओ का विस्तार –

ऊपर जो कुछ दर्शाया गया है उसका भाव यह है की आदि अमैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के शरीर तथा शरीर के सब अंग आदि आदर्श रुपी थे, जैसे वो आदि सृष्टि के मनुष्य मैथुनी सृष्टि के मनुष्यो के लिए साँचे रुपी थे अर्थात मनुष्य समाज के प्रवर्तक थे वैसे ही आदि भाषा भी साँचा रुपी और सभी भाषाओ की प्रवर्तक होनी चाहिए। इसीलिए उस आदि भाषा का नाम संस्कृत है। संस्कृत का अर्थ होगा पूर्ण भाषा यानी जो पूर्ण भाषा हो वो संस्कृत कहलाएगी।

इसी प्रकार अपूर्ण भाषाए जो वेद भाषा से संकोच, अपभ्रंश और मलेच्छित आदि होकर मनुष्य के बोल चाल की भाषाए बनती हैं। क्योंकि संस्कृत भाषा के दो भाग हैं –

1. वैदिक संस्कृत
2. लौकिक संस्कृत

प्राय सभी पश्चिमी विद्वान और अनेक भारतीय अनुसन्धानी भी संस्कृत को ही सभी भाषाओ का मूल मानते हैं – पर ध्यान देने वाली बात है की लौकिक संस्कृत की जन्मदात्री वैदिक संस्कृत है। वैदिक संस्कृत ही आदि भाषा है क्योंकि वैदिक संस्कृत अर्थात वेद की भाषा कभी भी किसी भी देश वा किसी जाती की अपने बोलचाल की भाषा नहीं रही है – क्योंकि वेदो में वाक्, वाणी आदि पदो का प्रयोग देखा जाता है भाषा का नहीं।

अब हम समझते हैं भाषा का विस्तार किस प्रकार हुआ – देखिये वेद में वैदिकी वाणी को नित्य कहा है –

तस्मै नूनमभिद्यवे वाचा विरूप नित्यया।

(ऋग्वेद 8.75.6)

नित्यया वाचा – अर्थात नित्य वेदरूप वाणी – यानी की वैदिक संस्कृत यह सब वाणियों (भाषाओ) की अग्र और प्रथम है –

बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्नं

(ऋग्वेद 10.71.1)

प्रभु से दी गयी वेदवाणी ही इस सृष्टि के प्रारंभिक शब्द थे।

ईश्वर की प्रेरणा से यह वाणी सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों पर प्रकट होती है।

यज्ञेन वाचः पदवीयमायणतामानवविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम्।

(ऋग्वेद 10.71.3)

प्रभु अग्नि आदि को वेदज्ञान देते हैं इससे अन्य यज्ञीय वृत्तिवाले ऋषियों को यह प्राप्त होती है – इसी मन्त्र में आगे लिखा है –

इस ही प्रथम, निर्दोष और अग्र वाणी को लेकर लोग बोलने की भाषा का विस्तार करते हैं।

तामाभृत्या व्यदधुः पुरूत्रा तां सप्त रेभा अभी सं नवंते।।

(ऋग्वेद 10.71.3)

इस वाणी को ऋषि मानव समाज में प्रचारित करते हैं। यह वेदवाणी सात छन्दो से युक्त है अर्थात २ कान – २ नाक – २ आँख और एक मुख ये सात स्तोता बनकर इसे प्राप्त करते हैं –

उपरोक्त प्रमाणों और तथ्यों से सिद्ध होता है की मनुष्य की एक ही भाषा थी – और मनुष्यो ने इसी वेद वाणी से अर्थात प्रथम व पूर्ण भाषा संस्कृत से – अपूर्ण भाषाए – अर्थात जितनी भाषाए आज प्रचलित हैं उनका निर्माण किया – लेकिन वैदिक संस्कृत में आज भी कोई फेर बदल नहीं हो सका – क्योंकि वैदिक संस्कृत पूर्ण भाषा है –

कृपया सत्य को जानिये –

वेद की और लौटिए —

उत्तर देने की आर्यसमाजी कला: प्रो राजेंद्र जिज्ञासु

कुछ तड़प-कुछ झड़प

– राजेन्द्र जिज्ञासु

उत्तर  देने की कलाः गत तीन चार मास में बिजनौर के आर्यवीर श्री विजयभूषण जी तथा कुछ अन्य नगरों के आर्य सज्जनों ने भी चलभाष पर दो बातें विशेष रूप से इस लेखक को कहीं। . आपकी उत्तर देने की कला बहुत अनूठी है। २. आप तड़प-झड़प में इतिहास की ठोस सामग्री देते हैं। इसमें अलभ्य लेखों, पत्र-पत्रिकाओं तथा इस समय अप्राप्य साहित्य की पर्याप्त चर्चा होने से बहुत जानकारी मिलती है। अनेक बन्धुओं विशेष रूप से युवकों के मुख से ये बातें सुनकर उत्तर देने की कला पर दो-चार बार कुछ विस्तार से लिखने का विचार बना।

मैं गत दस-बारह वर्षों से मेधावी लगनशील युवकों से बहुत अनुरोध से यह बात कहता चला आ रहा हूँ कि वैदिक धर्म पर वार-प्रहार करने वालों को उत्तर देना सीखो। अब भी आर्य समाज में कुछ अनुभवी विद्वान् ऐसे हैं, जिनकी उत्तर देने की शैली मौलिक, विद्वतापूर्ण  तथा हृदयस्पर्शी है। श्री डॉ. धर्मवीर जी को जब उत्तर देना होता है तो उनकी लेखनी की रंगत ही कुछ निराली होती है। श्री राम जेठमलानी ने श्री रामचन्द्र जी पर एक तीखा प्रश्न उठाया। संघ परिवार के ही श्री विनय कटियार ने उनके स्वर में स्वर मिला दिया।

राम मन्दिर आन्दोलन का एक भी कर्णधार श्रीयुत् राम जेठमलानी के आक्षेप का सप्रमाण यथोचित उत्तर न दे सका। मेरे जैसे आर्यसमाजी रामभक्त भी तरसते रहे कि उमा भारती जी, श्री मुरली मनोहर जी अथवा सर संघचालक आदरणीय भागवत जी इस आक्षेप का कुछ सटीक उत्तर दें, परन्तु ऐसा कुछ भी न हुआ। परोपकारी का सम्पादकीय पढ़कर अनेक पौराणिकों ने भी यह माँग की कि श्री धर्मवीर जी श्री राम के जीवन पर इसी शैली में २५०-३०० पृष्ठों की एक मौलिक पुस्तक लिख दें।

श्री डॉ. ज्वलन्त कुमार जी भी जानदार उत्तर देते हैं। परोपकारी में श्री आचार्य सोमदेव जी तथा आदरणीय सत्यजित् जी द्वारा शंका समाधान की शैली प्रभावशाली व प्रशंसनीय है।

आर्यसमाज में श्री राजवीर जी जैसे उदीयमान लेखक तथा अनुभवी गम्भीर विद्वान् डॉ. सुरेन्द्र कुमार जी ने भी इस विनीत से एक दो बार कहा, ‘आपने उत्तर देते हुए चुटकी लेना कहाँ से सीखा?’

मैंने कहा, ‘अपने बड़ों से और विशेष रूप से पूज्य पं. चमूपति जी से।’

प्रिय राजवीर जी तथा श्री धर्मेन्द्र जी ‘जिज्ञासु’ ने तो कुछ श्रम करके उत्तर देने की कला सीखी व विकसित की है, परन्तु बहुत से युवक इस दिशा में कुछ करके दिखा नहीं सके और राजवीर जी तथा धर्मेन्द्र जी भी समय के अभाव में जितना उन्हें बढ़ना चाहिये, बढ़ नहीं सके। कई युवक ऐसे भी मिले हैं, जो गुरु तो बनाने की ललक रखते हैं, परन्तु उनमें विनम्रता व श्रद्धा से सीखने की ललक नहीं। घर बैठे तो यह विद्या आती नहीं।

आइये, उत्तर देने की आर्यसमाजी कला का कुछ इतिहास यहाँ देते हैं। मैंने जो पूर्वजों (इस कला के आचार्यों) के मुख से जो कुछ सुना व पढ़ा है, इस कला के जनक तो स्वयं पूज्य ऋषिवर दयानन्द जी महाराज थे। उनके पश्चात् इस कला के सिद्धहस्त कलाकार पं. लेखराम जी मैदान में उतरे। यह मेरा ही मत नहीं है, लाला लाजपतराय जी ने भी अपनी लौह लेखनी से ऐसा ही लिखा है। बड़े-बड़े मौलवियों तथा सनातन धर्मी नेता पं. दीनदयाल जी का भी ऐसा ही मत था। मौलाना अ दुल्ला मेमार तथा मौलाना रफ़ीक दिलावरी जी का भी ऐसा ही मत था।

तनिक महर्षि जी की उत्तर देने की कला पर भी इतिहास शास्त्र का निर्णय सुना दें। आर्यसमाजी लेखक जो ऋषि जीवन की तोता रटन लगाते रहते हैं, वे इतिहास के इस निर्णय को जानते ही नहीं और परोपकारी में पढ़-सुनकर इसे आगे प्रचारित ही नहीं करते।

१. वैद्य शिवराम पाण्डे ऋषि के साथ प्रयाग रहे। वे काशी की पाठशाला में भी रहे। वे आर्यसमाजी तो नहीं थे, परन्तु ऋषि की संगत की रंगत मानते थे। आपका एक दुर्लभ लेख हमारे पास है। वे लिखते हैं कि ऋषि एक ही प्रश्न का उत्तर कई प्रकार से देना जानते थे। श्री गोस्वामी घनश्याम जी मुल्तान निवासी बाल शास्त्री की कोटि के विद्वानों में से एक थे। काशी शास्त्रार्थ के समय आप काशी में नहीं थे। जब काशी शास्त्रार्थ के पश्चात् मूर्तिपूजकों ने देशभर में यह प्रचार करना चाहा कि स्वामी दयानन्द शास्त्रार्थ में हारे तो गोस्वामी झट से काशी गये। बाल शास्त्री से मिलकर पूछा, सच-सच बताओ! क्या स्वामी दयानन्द हारे या काशी के पण्डित?

तब बाल शास्त्री जी ने वीतराग दयानन्द के गुणों का बखान करते हुए कहा था कि हम जैसे निर्बल संसारी उन्हें हराने वाले कौन?

चाँदापुर के शास्त्रार्थ में पादरी महोदय ने कहा था, ‘‘सुनो भाई मौलवी साहबो! पण्डित जी इसका उत्तर हजार प्रकार से दे सकते हैं। हम और तुम हजारों मिलकर भी इनसे बात करें तो भी पण्डित जी बराबर उत्तर दे सकते हैं, इसलिए इस विषय में अधिक कहना उचित नहीं।’’

पादरी जी का यह कथन आर्यसमाज में प्रचारित करने वाले चल बसे। पुस्तकों की सूचियाँ बनाने वाले सम्पादक लेखक शास्त्रार्थ कला (विधा) को समझ ही न सके।

पं. लेखराम जी की उत्तर देने की कला की एक घटना ‘आर्य मुसाफिर’ मासिक की फाईलों में छपे उनके एक शास्त्रार्थ से मिली। सीमा प्रान्त के एक नगर में प्रतिमा पूजन पर एक शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने ‘न तस्य प्रतिमाऽअस्ति’ इस वेद वचन से अपने कथन की पुष्टि की तो विरोधी ने कहा कि यहाँ ‘नतस्य’ है अर्थात् प्रतिमा के आगे झुकने की बात है। यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं। तब पण्डित जी ने कहा कि यदि यहाँ ‘तस्य’ शब्द  नहीं तो फिर इस मन्त्र में ‘यस्य’ शब्द  किसके लिए है? वहाँ पौराणिक पण्डितों ने भी पण्डित जी के इस तर्क व प्रमाण का लोहा माना। यह किसी भी शास्त्रार्थ में किसी संस्कृतज्ञ आर्य ने तर्क न दिया। श्रद्धेय पं. युधिष्ठिर मीमांसक जी ने इस प्रसंग में हमें कहा था, ‘‘यह तो पं. लेखराम जी के जन्म-जन्मान्तरों का संस्कार और उनकी ऊहा का चमत्कार मानना पड़ेगा।’’

अब इस प्रसंग में इतिहास का एक और निचोड़ देना लाभप्रद होगा। पं. गणपति शर्मा जी तथा श्री स्वामी दर्शनानन्द जी की उत्तर देने की कला भी विलक्षण थी। इनके पश्चात् आर्यसमाज में अपनी-अपनी कला से उत्तर देने में कई सुदक्ष कलाकार विद्वान् हुए, परन्तु स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी, श्री पं. गंगाप्रसाद जी उपाध्याय, पं. रामचन्द्र जी देहलवी, पं. लक्ष्मण जी आर्योपदेशक, स्वामी सत्यप्रकाश जी- इन पाँच महापुरुषों के दृष्टान्त, तर्क व प्रमाण अत्यन्त प्रभावशाली, मौलिक व हृदयस्पर्शी होते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज ने चार बार पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया। उनके पास दृष्टान्तों का अटूट भण्डार व जीवन के बहुत अनुभव थे।

आचार्य रामदेव जी, मेहता जैमिनि जी तथा श्री पं. धर्मदेव जी को विश्व साहित्य के असंख्य उद्धरण कण्ठाग्र थे। इन तीनों की उत्तर देने की कला भी बड़ी न्यारी व प्यारी थी। मैं बाल्यकाल में अपने छोटे से ग्राम के आर्यों की परस्पर की चर्चा सुन-सुनकर ग्राम के एक आर्य युवक कार्यकर्ता से पूछा करता था कि आचार्य रामदेव जी की वक्तृत्व कला की क्या विशेषता है? उनका  उत्तर था- उन्हें सब कुछ कण्ठाग्र है। मैं अपने निजी अनुभव से यह बताना चाहूँगा कि मैं सब पूज्य विद्वानों को ध्यान से सुना करता था। उनसे चर्चा किया करता था, फिर चिन्तन करने का अभ्यास हो गया। इससे मेरी भी उत्तर देने की कला विकसित हुई।

स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ ने मेरे आरम्भिक काल में अत्यन्त प्यार से, कुछ डाँटकर कहा कि जो पढ़ो व सुनो, उसपर विचार कर स्वयं उत्तर खोजो, फिर उ उत्तर न सूझे तो आकर पूछा करो। अब इन उतावले युवकों का न गहन अध्ययन है, न बड़ों से कुछ सीखने की भूख है। प्राणायाम की चर्चा सुनकर तथा दो योग शिविरों में भाग लेकर ये सब नौ सिखिये योगाचार्य बनकर ध्यान शिविर लगाने व अपना आश्रम या अड्डा बनाने में लग जाते हैं। यह प्रवृत्ति  धर्मप्रचार में बाधक रोड़ा बन रही है।

 

महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

राव बहादुरसिंह मसूदा-इतिहास के लुप्त पृष्ठः-

महर्षि दयानन्द जी की जीवनी लिखने वाले पुराने विद्वान् लेखकों ने मसूदा राजस्थान के राव बहादुरसिंह जी की अच्छी चर्चा की है, परन्तु उन पर कुछ विशेष खोज करने का उद्यम न तो मसूदा के किसी गवेषक ने किया और न ही राजस्थान के आर्यों ने राव जी की ठोस सेवाओं तथा व्यक्तित्व के अनुरूप ही करणीय पुरुषार्थ किया। वास्तव में ऐसे कार्य धन से ही नहीं होते। इनके लिए पण्डित लेखराम की आग, स्वामी स्वतन्त्रानन्द की ललक और इतिहासकार पं. विष्णुदत्त  जैसी लगन चाहिए। हमने राव बहादुरसिंह की विशेष देन तथा आर्यसमाज के इतिहास में उनके स्थान का नये सिरे से मूल्याङ्कन करके ऋषि जीवन तथा ‘परोपकारी’ पाक्षिक में कुछ नया प्रकाश डाला है।
हमारी खोज अभी जारी है। महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह थे। परोपकारिणी सभा के निर्माण, दयानन्द आश्रम आदि की स्थापना तथा सभा के आरम्भिक काल के उत्सवों के आयोजन में आपने दिल खोलकर दान दिया। आपके दान से परोपकारिणी सभा तथा राजस्थान का आर्यसमाज ही लाभान्वित नहीं हुआ, वरन अन्य-अन्य प्रदेशों के समाजों व संस्थाओं को भी आपने उदारतापूर्वक दान दिया-
१. देशहितैषी मासिक को उस युग में ६५/- रु. दान दिये।
२. आर्यसमाज मन्दिर अजमेर के लिये ४००/- रु. प्रदान किये।
३. आर्य अनाथालय फीरोजपुर को १५०/- रु. दिये।
४. फर्रुखाबाद की पाठशाला के लिए १००/- रु. दिये।
५. आर्यसमाज शिमला (हिमाचल) के मन्दिर निर्माण के लिए ५०/- रु. दिये।
६. स्वामी आत्मानन्द जी को उस युग में १००/- रु. भेंट किये।
उनके एक और बड़े दान की फिर चर्चा की जायेगी। जब दयानन्द आश्रम की स्थापना के उत्सव पर देशभर से भारी संख्या में आर्यगण पधारे, तब एक समय के भोजन का सब व्यय आपने दिया था।

आर्य समाज का वेद प्रचार: एक नूतन प्रयोग – रामनिवास गुणग्राहक

‼ ओ३म् ‼

आर्य समाज की प्रचार-पद्धति के सम्बन्ध में विचार करने से पहले एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि संसार के धार्मिक कहे जाने वाले मत-पन्थों के प्रचार-अभियान और आर्य समाज के प्रचार कार्य में बड़ा अन्तर है। पाखण्ड और अन्धविश्वास को धर्म स्वीकार कर चुका भारतीय जन मानस एक पाखण्ड से अच्छा और सरल लगने वाले दूसरे पाखण्ड को सहजता से स्वीकार कर लेता है। मूर्ति राम की न सही कृष्ण की भी चलेगी, गणेश की न सही हनुमान की भी चलेगी। यही परम्परा आज यहाँ तक पहुँच गई है कि शिव का स्थान सांई ले सकता है और गली-गली में बनने वाले भोले-भैरों  के मन्दिर से जिनकी कामना सिद्ध नहीं होती वे उसी कथित श्रद्धा से किसी मियाँ की मजार या कब्र पर जाकर भेंट पूजा चढ़ाने चले जाते हैं। आर्य समाज इन सबसे अलग हटकर बुद्धि और तर्क की बात करता है जिन्हें हमारे पुराणी और कुरानी बन्धु सैकड़ों सहस्रों वर्ष पूर्व धार्मिक सोच से दूर भगा चुके हैं। यही कारण है कि तर्क और बुद्धि से काम लेने वालों को आज के धर्माचार्य व धर्मभीरू लोग बिना सोचे समझे नास्तिक कह ड़ालते है। वैसे यह एक कडवा सच भी है कि तर्क और विज्ञान की बात करने वाले हमारे बुद्धिजीवी आज नास्तिक बन कर ही रह गये हैं। ऐसे में आर्य समाज को अपनी प्रचार-पद्धति को एक नया धारदार रूप देने के लिए वर्तमान पद्धति की जाँच-परख करते रहना चाहिए।

यह सही है कि आर्य समाज की पहली पीढी ने जितना जो कुछ वेद प्रचार व समाज सुधार का काम किया वो सब इसी प्रचार-पद्धति से किया। इसी के साथ यह भी मानना ही पडेगा कि विगत 20-30 वर्षों का अनुभव चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि अब यह प्रचार-पद्धति अपना प्रभाव खो चुकी है। कारण जो भी रहे हो, चाहे हमारी जीवन-शैली की व्यवस्था हो या टी.वी., मोबाइल से चिपके रहने की प्रवृति। चाहे हमारे उपदेशकों की निष्ठा, स्वाध्यायशीलता में कमी आने के कारण या हमारे कर्णधारों-पदाधिकारियों के मन-मस्तिष्क में जडें जमा चुकी उठा-पटक की प्रवृत्ति के साथ माला और फोटो की मानसिकता-कुछ भी हो आज का सच यह है कि हमारी वर्तमान प्रचार-पद्धति अब न तो हम आर्य कहलाने वालों के जीवन में कोई सुधार व निखार लाती दिख रही है और न नये व्यक्तियों को आर्यसमाज से जुडने के लिए प्रेरित या आकर्षित कर पा रही है। ऐसे में प्रत्येक वेद भक्त और ऋषि भक्त आर्य का कत्र्तव्य है कि वह आर्य समाज के प्रचार कार्य को प्रखर और प्रभावी बनाने की दिशा में गम्भीरता से विचार करे और उसे व्यावहारिक बनाने के लिए कुछ ठोस कार्य भी करे। मैंने इस दिशा में बहुत लम्बे समय से अनेक सुधी आर्य जनों व मित्रों से विचार-विमर्श करके हमारी प्रचार-पद्धति को नया रूप देने का छोटा प्रयास किया है। सुधी पाठक इस पर और विचार करके अपने अमूल्य सुझाव देकर इसे और प्रभावोत्पादक बना सकते हैं या जिन्हें यह अच्छा लगे वो अपने पदाधिकारियों से मिलकर चर्चा करके इस पर व्यवहार प्रारम्भ कर सकते हैं।

सम्भव है कुछ आर्य जनों को यह अटपटा लगे, कुछ को इस पर स्वार्थ जन्य आपत्तियाँ भी हो सकती हैं, मगर मेरा मानना है कि वेद प्रचार की यह प्रचार शैली आर्य समाजों में प्रचलित हो जाए तो इसके प्रत्यक्ष और उत्साहवर्धक परिणाम एक-दो वर्ष में ही प्रकट होने लगेंगे। हाँ जिन्हें आर्य समाज से अधिक व्यक्ति जुड़ने पर पद चले जाने का डर लगता हो, उनके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता है। अब पढि़ये कि आर्य समाज को नवजीवन देने के लिए हमें अपनी प्रचार-पद्धति में क्या कुछ बदलना पडे़गा। यद्यपि आज आर्य समाज में ऐसे उपदेशक बहुत कम संख्या में हैं जो नित्य नियमित रूप से संध्योपासना व स्वाध्याय करते हों। जितने भी हों, प्रारम्भ के लिए ऐसे विद्वान् हमारे मध्य है जो संध्या व स्वाध्याय दैनिक कर्म के रूप में करते हैं। जो नहीं भी करते हंै, जब सिर पर आ पडे़गी तो सब करने लगा जाएँगे। आज समस्या यह है कि आर्य समाज में ‘सब धान सत्ताइस का सेर’ बिकता है। हमें सिद्धान्त निष्ठ, धर्मात्मा, निष्कलंक, निर्लोभी और सरल स्वभाव के स्वाध्यायशील किसी एक विद्वान को अपने आर्य समाज में प्रचार कार्य के लिए कम से कम 8-10 दिन के लिए सादर आमन्त्रित करना चाहिए। उससे पहले आर्य समाज के पदाधिकारी व श्रेष्ठ सभा- सद मिलकर प्रचार-योजना इस ढं़ग से बनायें- प्रतिदिन प्रातःकाल सुविधानुसार किसी पदाधिकारी या श्रदालु आर्य के घर यज्ञ व पारिवारिक सत्संग रखे, जिसमें एक घण्टा तक व्याख्या युक्त यज्ञ हो और एक घण्टा धर्म, ईश्वर, वेद आदि की विशेषताएँ लिये हुए परिवार, समाज व राष्ट्र से जुड़े हुए कत्र्तव्यों के पालन की प्रेरणापरक प्रवचन होना चाहिए। जिस परिवार में यज्ञ व सत्संग हो, वह अपने परिचितों व पड़ौसियों को प्रेम पूर्वक आमन्त्रित करे। घर मीठे चावल बनाए, स्विष्टकृत आहुति व बलिवैश्वदेव की आहुतियाँ देकर प्रसाद रूप में सबको वही यज्ञशेष प्रदान करें।

प्रातःकाल इतना करके दिन में किसी विद्यालय में कार्यक्रम रखने के लिए पहले ही सम्बन्धित प्रधानाध्यापक आदि से मिलकर सुविधानुसार 40-50 मिनट का समय तय कर लें। आर्य समाज के एक या दो सज्जन आमन्त्रित विद्वान् को सम्मान पूर्वक विद्यालय ले जाएँ और विद्या व विद्यार्थियों से जुड़े हुए विषय पर सरल व रोचक भाषा शैली में वेद व वैदिक साहित्य के प्रमाण पूर्वक प्रवचन करें। वेद व आर्य समाज के प्रति श्रद्धा बढ़ाने की भावना का ध्यान पारिवारिक यज्ञ-सत्संग से भी रखना चाहिए और विद्यालयों में भी। कार्यक्रम के अन्त में सबको निवेदन करें कि वे सांयकाल आर्य समाज में होने वाली धर्म चर्चा-सत्संग में पुण्य लाभ प्राप्त करने हेतु अवश्य पधारें। सुविधानुसार एक दिन में दो-तीन विद्यालयों में प्रवचन रख सकते हैं। हमारी आज की पीढ़ी बहुत तेज तर्रार है उसके मन-मस्तिष्क में धर्म और ईश्वर को लकर अनेक प्रश्न खडे़ होते हैं। लेखक लड़के-लड़कियों के काॅलेजों के अनुभव के आधार पर कह सकता है कि युवक-युवतियाँ बडे़ तीखे प्रश्न करते हैं। ऐसे में आर्य समाज का गौरव कोई स्वाध्यायशील व साधनाशील आर्य विद्वान् ही बचा सकता है। नई पीढ़ी को प्रश्नों व शंका समाधान की छूट दिये बिना हम नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को धर्म, ईश्वर व आर्य समाज की ओर नहीं मोड सकते, इसलिए किसी विद्वान् को बुलाने से पहले इस बात का ध्यान अवश्य रखें और उन्हें इसकी सूचना भी अवश्य कर दें।

दिन में इतना कुछ करके रात्रि में सबकी सुविधा व अधिकतम लोगों के आगमन की सम्भावना को ध्यान में रखते हुए दो घण्टे का कार्यक्रम बनायें। दिन में अगर अधिक प्रश्न व शंकाएँ रखी गई हांे तो उनके उत्तर रात्रि काल के सत्संग में रखे जा सकते हैं या समाज के सुधीजन कार्यक्रम बनाते समय कुछ उपयोगी व सामयिक विषय निश्चित कर सकते हैं। इस प्रकार एक दिन का यह कार्यक्रम है, ऐसे ही 8-10 दिन का कार्यक्रम बनाकर हम इसके अनुसार प्रचार कार्य करके समय, श्रम व संसाधनों का सटीक सदुपयोग करके बहुत लाभ प्राप्त कर सकते हंै। प्रसंगवश एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य की ओर आर्य जनों का ध्यान आकर्षित करना बहुत आवश्यक है। प्रचार कार्य में प्रवचन और सत्संग से अधिक भूमिका साहित्य की होती है। दुःख की बात यह है कि आज आर्यसमाज में स्वाध्याय की प्रवृत्ति और स्वाध्याय के योग्य प्रभावी साहित्य दोनों में निरन्तर गिरावट आती जा रही है। प्रचार को प्रभावी बनाने के लिए आवश्यक है कि हम ऋषि दयानन्द के लघु ग्रन्थों, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, पं. चमूपति, स्वामी दर्शनानन्द जी, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय, पं. रामचन्द्र देहलवी और स्वामी वेदानन्द जी जैसे सिद्धान्तनिष्ठ विद्वानों के साहित्य को बहुत बड़ी मात्रा में प्रकाशित करा कर अल्प मूल्य में उपलब्ध करायें। मुझे क्षमा करें हमारे आज के प्रतिष्ठित कहलाने वाले तथा विभिन्न आर्य संस्थानों से पुरस्कृत होते रहने वाले लेखक और अन्तर्राष्ट्रीय कथाकारों की वाणी और लेखनी किसी के जीवन को निखारने-सँवारने में सर्वथा असमर्थ है। आज स्थिति यह है कि हमारे आज के नामधारी लेखकों ने इधर-उधर से दान लेकर अपने कई-कई पोथे छपवाकर अल्प मूल्य के साथ बाजार में छोड़ रखे हैं। पुरानी पीढ़ी के लेखकों के ग्रन्थ छपाने के लिए कोई दानी आगे नहीं आता या बहुत कम आते हंै। आर्य समाज को इस दिशा में भी गम्भीरता से सोचना पड़ेगा। पहली-दूसरी पीढ़ी के गम्भीर, सिद्धान्तजीवी वैदिक विद्वानों के साहित्य का उद्धार करना आज की बहुत बड़ी माँग है, ऐसा न हो कि कल बहुत देर हो जाए। वेद प्रचार को जीवन्त बनाने के लिए सत्साहित्य व सिद्धान्तनिष्ठ प्रवचन-सत्संग ही एक मात्र उपाय है। हमारे सुधी पाठक इस पर गम्भीरता से विचार करके देखेंगे तो लगेगा कि बिना लम्बी चैड़ी भाग दौड़ के, बिना किसी ताम-झाम के, बिना किसी बड़े खर्चे के एक सीमित आय वाले आर्यसमाज भी इसका लाभ ले सकते हैं। मैंने इसके प्रायः सभी पक्षों को लेकर बहुभाँति चिन्तन किया है, उस चिन्तन के आधार पर मैं पाठकों को विश्वास दिला सकता हूँ कि प्रचार की यह पद्धति अपना ली जाए तो आर्य समाज का कायाकल्प होने में 5‘-10 वर्ष से अधिक समय नहीं लगेगा। हाँ इसके साथ-साथ हमें अपने संगठन सम्बन्धी अपनी कमियों को दूर करना पड़ेगा।

कुछ लोग यह कहते हैं कि आर्य समाज का सांगठनिक ढाँचा आज के समय के अनुकूल नहीं है। ऐसे लोग लोकतान्त्रिक पद्धति की न्यूनताएँ गिनाने लगते हैं, लेकिन वे महर्षि दयानन्द की वेद विद्या से प्राप्त दूर दृष्टि को समझ नहीं पाते। नियम-सिद्धान्त कितने ही उच्चस्तर के हों अगर व्यक्ति निम्न स्तर के हैं तो अति महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी करके, साधारण या मनोनुकूल तथ्यों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करके वे अच्छे-अच्छे नियम-सिद्धान्तों का दुरुपयोग कर ड़ालते हैं। आर्य समाज के संगठन सम्बन्धी नियम-उपनियमों के साथ भी हमारे कर्णधार लम्बे समय से यही करते चले आ रहे हैं। भविष्य में कभी इस विषय पर भी अपना चिन्तन पाठकों के सामने रखेंगे। अभी प्रचार सम्बन्धी चर्चा को व्यावहारिक रूप देने की आवश्यकता है। जो सज्जन इस पद्धति को अच्छा व उपयोगी मानते हों और ऐसा करना चाहते हों, वे अधिक जानकारी के लिए लेखक से संपर्क करके इसके बारे में समस्याओं व सम्भावनाओं पर विचार करके किसी भी प्रकार का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। आशा और विश्वास है कि  आर्यजन इस दिशा में आगे बढ़ने का प्रारम्भिक प्रयास करके लेखक के श्रम को सार्थक अवश्य करेंगे ।

इस नूतन प्रचार पद्धति के लाभः-

१-यह प्रचार पद्धति सबसे अधिक प्रभावी औरअच्छे परिणाम देने वाली है ।

२-कम खर्चीली होने के कारण कम आय वाले समाज भी इसका लाभ उठा सकते हैं ।

३-इसमें प्रबन्ध और व्यवस्था सम्बन्धी भागदौड बिल्कुल भी नहीं है ।

४-विद्यालयों में प्रवचन,व्याख्यान रखने से प्रतिदिन कई सौ युवाओं के साथ सम्पर्क हो सकेगा ।

५-पारिवारिक सत्संग से हमारे परिवारों व पडौसियों में वैदिक सिद्धान्तों व संस्कारों का प्रचार बढेगा ।

६-विद्यालयों में प्रश्नोत्तर के कारण हमारे प्रचारकों में स्वाध्याय व संध्या की प्रवृत्ति अवश्य ही बढेगी ।

७-टैण्ट,मंच,माइक,सजावट आदि के सब झंझट व भागदौड न रहने से आर्य कार्यकत्र्ता भी सत्संग,प्रवचन  का लाभ ले सकेंगे , वर्तमान में व्यवस्थाओं में लगे रहने से ऐसा नहीं हो पाता ।

८-नगर या शहर के अलग अलग क्षेत्रों में पारिवारिेक सत्संग होने से दूर दूर तक प्रचार प्रसार होगा ।

९-विद्यालयों में रुचि लेने वाले प्रतिभाशाली युवाओं से सम्पर्क बनाये रखकर हम आर्यसमाज की नई पीढी तैयार कर सकते हैं ।

१0-इस पद्धति से १५-२॰ हजार रुपये में ८-१0 दिन प्रचार हो सकेगा,अतः कोई भी समाज जितना पैसा एक उत्सव में अब लगाता है उतने में वर्ष में ८-१0 बार प्रचार करा कर पुण्य प्राप्त कर सकता है।

आशा है सुधी आर्यजन इन सब पर आर्योचित रीति से , न्याय बुद्धि से गम्भीरता पूर्वक विचार करंेगे। आप ऐसा करना उचित समझें तो मो॰-07597894991 पर मुझसे सम्पर्क करके इस प्रकार के प्रचार कार्य का प्रयोग कर सकते हैं ।मेरा इस दिशा में वर्षों का अनुभव है ,उसका परिणाम भी बहुत अच्छे मिले हंै । एक बार प्रयोग अवश्य करें इसमें कोई हानि नहीं , लाभ की सम्भावना बहुत है । अगर आप इस नूतन प्रचार पद्धति को स्वीकार इसके लाभ देखेंगे तो आपको बहुत आनन्द आयेगा और आपको इसके प्रथम प्रचलन का पुण्य प्राप्त होगा,एक बार सेवा का अवसर अवश्य दें । धन्यवाद ।।

आपका अपना ही

 

रामनिवास गुणग्राहक ०७५९७८९४९९१

काशी शास्त्रार्थ का वृत्तान्त – राजेन्द्र जिज्ञासु

[विशेष टिप्पणीः-सम्वत् १९२६ (सन् १८६९) का महर्षि का काशी शास्त्रार्थ नवयुग की आहट था। श्रद्धेय लक्ष्मण जी लिखित ऋषि जीवन का अनुवाद तथा  सम्पादन करते हुए विनीत तत्कालीन कई पत्रों तथा पुराने स्रोतों के प्रमाणों से युक्त अनेक टिप्पणियाँ देकर गवेषकों, लेखकों व विद्वानों के लाभार्थ पर्याप्त नई जानकारी दी है। ऋषि के विरोधियों तथा अन्य मतावलम्बियों के शास्त्रार्थ विषयक विचार भी ग्रन्थ में उद्धृत किये गये हैं।

उस ग्रन्थ पर कार्य करते समय भरसक प्रयत्न व भागदौड़ करने पर भी तब हमें ‘आर्य दर्पण’ मासिक का वह अंक न मिल सका जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था। मेरठ के ऋषि भक्त धर्मपाल के हाथ आर्य दर्पण के कई महत्वपूर्ण  अंक लगे परन्तु  फरवरी सन् १८८० का वह अंक उन्हें न मिला जिसमें यह शास्त्रार्थ छपा था। सौभाग्य से परोपकारिणी सभा के पुरुषार्थी आर्यवीर श्री राहुल जी आर्य, अकोला ने यह ऐतिहासिक अंक भी खोजकर हमें तृप्त कर दिया है। ‘आर्य दर्पण’ में प्रकाशित ‘शास्त्रार्थ काशी’ आगे दिया जाता है। लक्ष्मण जी के ग्रन्थ के साथ मिलान करके पढ़ने से पाठकों को विशेष लाभ  होगा। मूल अंक अब सभा की सम्प्पति  है। लक्ष्मण जी के ग्रन्थ में अत्यधिक पूरक सामग्री दी गई है। पाठक उसे भी अवश्य देखें।]

शास्त्रार्थ काशी जो सम्वत् १९२६ में स्वामी दयानन्द सरस्वती और काशी के पण्डितों के बीच आनन्द बाग में हुआ था।

एक दयानन्द सरस्वती नाम संन्यासी दिगम्बर गंगा के तीर विचरते रहते हैं जो सत् पुरुष और सत्य शास्त्रों के वेत्ता  हैं। उन्होंने सम्पूर्ण ऋग्वेद आदि का विचार किया है सो ऐसा सत्य शास्त्रों को देख निश्चय करके कहते हैं कि पाषाणादि मूर्ति पूजन, शैवशाक्त, गणपत और वैष्णव आदि सम्प्रदायों और रुद्राक्ष, तुलसी माला, त्रिपुंड्रादि धारण का विधान कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे ये सब मिथ्या ही हैं। कदापि इनका आचरण न करना चाहिये क्योंकि वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरण से बड़ा पाप होता है। ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है।

इस हेतु से उक्त स्वामी जी हरिद्वार से लेकर सर्वत्र इसका खण्ड़न करते हुए काशी में आकर दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्द बाग में स्थित हुए। उनके आने की धूम मची। बहुत से पण्डितों ने वेदों के पुस्तकों में विचार करना आरम्भ किया परन्तु पाषाणादि मूर्तिपूजा  का विधान कहीं भी किसी को न मिला। बहुधा करके इसके पूजन में आग्रह बहुतों को है। इससे काशीराज महाराजा ने बहुत से पण्डितों को बुलाकर पूछा कि इस विषय में क्या करना चाहिये। तब सब ने ऐसा निश्चय करके कहा कि किसी प्रकार से दयानन्द स्वामी के साथ शास्त्रार्थ करके बहुकाल से प्रवित्त  आचार को जैसे स्थापना हो सके करना चाहिये। निदान कार्तिक शुद्धि १२ सं. १९२६ मंगलवार को महाराजा काशी नरेश बहुत से पण्डितों को साथ लेकर जब स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के हेतु आए तब दयानन्द स्वामी जी ने महाराजा से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक ले आए हैं वा नहीं?

तब महाराजा ने कहा कि वेद सम्पूर्ण पण्डितों को कण्ठस्थ हैं। पुस्तकों का क्या प्रयोजन है? तब दयानन्द सरस्वती ने कहा कि पुस्तकों के बिना पूर्वापर प्रकरण का विचार ठीक-ठीक नहीं हो सकता। भला पुस्तक तो नहीं लाए? तो नहीं सही परन्तु किस विषय पर विचार होगा?

तब पण्डितों ने कहा कि तुम मूर्तिपूजा का खण्डन करते हो, हम लोग उसका मण्डन करेंगे। पुनः स्वामी जी ने कहा कि जो कोई आप लोगों में मुख्य हो वही एक पण्डित मुझसे संवाद करे। पण्डित रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने भी यह नियम किया कि स्वामी जी से एक-एक पण्डित विचार करे।

सबसे पहिले ताराचरण नैयायिक स्वामी जी से विचार के हेतु सन्मुख प्रवृत्त हुए।

स्वामी जी ने उनसे  पूछा कि आप वेदों का प्रमाण मानते हैं वा नहीं?

उन्होंने उत्तर  दिया कि जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सब को वेदों का प्रमाण ही है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहीं वेदों में पाषाण आदि मूर्तियों के पूजन का प्रमाण है वा नहीं, यदि है तो दिखाइये और जो न हो तो कहिये कि नहीं है।

तब पं. ताराचरण ने कहा कि वेदों में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदों का ही प्रमाण मानता है औरों का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिये?

स्वामी जी ने कहा कि औरों का विचार पीछे होगा। वेदों का विचार मुख्य है। इस निमित्त  इसका विचार पहिले ही करना चाहिये क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मृति आदि भी वेद मूलक हैं इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता।

पं. ताराचरण ने कहा कि मनुस्मृति का वेदों में कहाँ मूल है? स्वामी जी ने कहा कि जो-जो मनु जी ने कहा है सो-सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि रचना की अनुपत्ति  होने से अनुमान प्रतिपाद्य प्रधान जगत् का कारण नहीं। व्यास जी के इस सूत्र का वेदों में क्या मूल है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह प्रकरण से भिन्न बात है। इस पर विचार करना न चाहिये।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि यदि तुम जानते हो तो अवश्य कहो। इस पर स्वामी जी ने यह समझकर कि प्रकरणान्तर में वार्ता जारी  रहेगी इससे न कहा और कह दिया कि जो कदाचित् किसी को कण्ठ न हो तो पुस्तक देखकर कहा जा सकता है।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो कण्ठस्थ नहीं है तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों उद्यत हुए।

इस पर स्वामी जी ने कहा क्या आपको सब कण्ठाग्र है?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि हाँ हमको सब कण्ठस्थ है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहिये धर्म का क्या स्वरूप है?

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो वेद प्रतिपाद्य फल सहित अर्थ है वहीं धर्म कहलाता है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह आपकी संस्कृत है। इसका क्या प्रमाण है। श्रुति वा स्मृति से कहिये।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो चोदना लक्षण अर्थ है सो धर्म कहलाता है। यह जैमिनि का सूत्र है।

स्वामी जी ने कहा कि यह तो सूत्र है, यहाँ श्रुति वा स्मृति को कण्ठ से क्यों नहीं कहते? और चोदना नाम प्रेरणा का है वहाँ भी श्रुति वा स्मृति कहना चाहिये जहाँ प्रेरणा होती है।

जब इसमें विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा तब स्वामी जी ने कहा कि अच्छा आपने जो धर्म का स्वरूप तो न कहा परन्तु धर्म के कितने लक्षण हैं कहिये।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि धर्म का एक ही लक्षण है।

स्वामी जी ने कहा कि मनुस्मृति में तो धर्म के दस लक्षण हैं- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध- फिर कैसे कहते हो कि एक ही लक्षण है।

तब बाल शास्त्री ने कहा कि हमने सब धर्मशास्त्र देखा है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि आप अधर्म का लक्षण कहिये तब बाल शास्त्री जी ने कुछ उत्तर  न दिया फिर बहुत से पण्डितों ने इकट्ठे हल्ला करके पूछा कि वेद में प्रतिमा शब्द  है वा नहीं? इस पर स्वामी जी  ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो है। उन लोगों ने कहा कि कहाँ पर है? स्वामी जी ने कहा कि सामवेद के ब्राह्मण में है।

फिर उन लोगों ने कहा कि वह कौनसा वचन है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि  यह है देवता के स्थान कंपायमान होते और प्रतिमा हंसती है इत्यादि।

फिर उन लोगों ने कहा कि प्रतिमा शब्द द तो वेदों में भी है फिर आप कैसे खण्डन करते हैं।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिमा शब्द से पाषाणादि मूर्ति पूजनादि का प्रमाण नहीं हो सकता है१०। इसलिए प्रतिमा शब्द द का अर्थ करना चाहिये कि इसका क्या अर्थ है।

तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है उस प्रकरण का क्या अर्थ है?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह अर्थ है अथ अद्भुत शान्ति की व्याख्या करते हैं ऐसा प्रारम्भ करके फिर रक्षा करने के लिए इन्द्र इत्यादि सब मूल मन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं। इनमें से प्रति मन्त्र करके तीन-तीन हजार आहुति करनी चाहिये इसके अनन्तर व्याहृति करके पाँच-पाँच आहुति करनी चाहिये । ऐसा करके सामगान भी करना लिखा है। इस क्रम करके अद्भुत शान्ति का विधान किया है। जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है सो मन्त्र मृत्यु लोक विषयक नहीं है किन्तु ब्रह्म लोक विषयक है सो ऐसा है कि जब विघ्नकर्ता देवता पूर्व दिशा में वर्तमान  होवे इत्यादि मन्त्रों से अद्भुत दर्शन की शान्ति कहकर फिर दक्षिण दिशा पश्चिम दिशा और उत्तर  दिशा इसके अनन्तर भूमि की शान्ति कहकर मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्ति कहके इसके अनन्तर स्वर्ग लोक फिर परम स्वर्ग अर्थात् ब्रह्म लोक की शान्ति कही है। इस पर सब चुप रहे।

फिर बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो-जो देवता है उस-उस की शान्ति करने से अद्भुत देखने वालों के विघ्नों की शान्ति होती है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह तो सत्य है परन्तु इस प्रकरण में विघ्न दिखाने वाला कौन है? तब बाल शास्त्री ने कहा कि इन्द्रियाँ देखने वाली हैं। इस पर स्वामी जी ने कहा कि इन्द्रियाँ तो देखने वाली हैं, दिखाने वाली नहीं  स प्राचीं दिशमन्ववर्तते ’ मन्त्र में ‘स’ शब्द का वाच्यार्थ क्या है? तब बाल शास्त्री जी ने कुछ न कहा, फिर पण्डित शिवसहाय जी ने कहा कि अन्तरिक्ष आदि गमन शान्ति करने का फल इस मन्त्र का अर्थ कहा जाता है।११

इस पर स्वामी जी ने कहा कि आपने वह प्रकरण देखा है तो किसी मन्त्र का अर्थ तो कहिये।

तब शिवसहाय जी चुप ही रहे। फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि वेद किससे उत्पन्न हुए हैं?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।

विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि किस ईश्वर से? क्या न्याय शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से वा योग शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से अथवा वेदान्त शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से इत्यादि।१२

इस पर स्वामी जी ने कहा कि क्या ईश्वर बहुत से हैं?

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर तो एक ही है परन्तु वेद कौन से लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा ईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध है? क्या प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव वा जन्य जनक भाव अथवा समवाय भाव अथवा सेवक स्वामी भाव अथवा तादात्मय सम्बन्ध है इत्यादि।

इस पर स्वामी जी ने कहा कार्य्य कारण भाव सम्बन्ध है।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि जैसे मन में ब्रह्म बुद्धि और सूर्य्य में ब्रह्म बुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है वैसे ही सालिग्राम का पूजन भी ग्रहण करना चाहिये।१३

इस पर स्वामी जी ने कहा जैसे ‘मनोब्रह्मेत्युपासीत’ आदित्य ब्रह्मेत्युपासीत इत्यादि वचन वेद में देखने में आते हैं वैसे ‘पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत’ आदि वचन वेद में कहीं नहीं दीख पड़ते, फिर क्यों कर इसका ग्रहण हो सकता है?

तब पण्डित माधवाचार्य ने कहा-

‘उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजाग्रहि त्वमिष्टापूर्ते इति’

इस मन्त्र में ‘पूर्ते’ शब्द से किसका ग्रहण है?

इस पर स्वामी जी ने कहा वायी, कूप, तड़ाग और आराम का ही ग्रहण है।

माधवाचार्य ने कहा कि इससे पाषाणादि मूर्तिपूजन क्यों नहीं ग्रहण होता है?१४

इस पर स्वामी जी ने कहा कि पूर्ति शब्द पूर्ति का वाचक है। इससे कदाचित् पाषाणादि मूर्तिपूजन का ग्रहण नहीं हो सकता। यदि शंका हो तो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये।

तब माधवाचार्य ने कहा कि पुराण शब्द  वेदों में है वा नहीं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुराण शब्द तो बहुत सी जगह वेदों में है पुराण शब्द से ब्रह्म वैवतादिक ग्रन्थों का कदाचित् ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि पुराण शब्द भूतकाल वाची है और सर्वत्र द्रव्य का विशेषण ही होता है।

फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस मन्त्र में कि –

‘‘एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानुव्याख्यानानीति’’

यह सब जो पठित है इसका प्रमाण है वा नहीं।१५

इस पर स्वामी जी ने कहा कि हाँ प्रमाण है फिर विशुद्धानन्द जी ने कहा कि जो श्लोक का भी प्रमाण है तो सबका प्रमाण आया।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि सत्य श्लोकों का प्रमाण होता है औरों का नहीं।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कियहाँ पुराण शब्द किस का विशेषण है?

इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुस्तक लाइये तब इसका विचार हो। पं. माधवाचार्य ने वेदों के दो पत्रे निकाले१६ और कहा कि यहाँ पुराण शब्द  किसका विशेषण है?

स्वामी जी ने कहा कि कै सा वचन है, पढिये।

तब माधवाचार्य ने यह पढ़ा ‘ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानीति’।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यहाँ पुराण शब्द ब्राह्मण का विशेषण है अर्थात् पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं।

तब पण्डित बालशास्त्री जी आदि ने कहा कि क्या ब्राह्मण कोई नवीन भी होते हैं?१७

इस पर स्वामी जी ने कहा कि नवीन ब्राह्मण नहीं हैं परन्तु ऐसी शंका भी किसी को न हो इसलिये यहाँ यह विशेषण कहा है।

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास शब्द के व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा।

इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्या ऐसा नियम है कि व्यवधान से विशेषण नहीं हो सकता और अव्यवधान ही में होता है क्योंकि

‘अजो नित्यश्शाश्वतोऽयम्पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे’

इस श्लोक में दूरस्थ देही का भी विशेषण नहीं है? और कहीं व्याकरणादि में भी यह नियम नहीं किया है कि समीपस्थ ही विशेषण होते हैं, दूरस्थ नहीं।१८

तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास का तो पुराण शब्द विशेषण नहीं है इससे क्या इतिहास नवीन ग्रहण करना चाहिये।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि और जगह पर इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है। सुनिये! इतिहास पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः इत्यादि में कहा है।

तब वामनाचार्य आदिकों ने कहा कि वेदों में यह पाठ ही कहीं भी नहीं है।१९

इस पर स्वामी जी ने कहा कि यदि वेदों में यह पाठ न होवे तो हमारा पराजय हो और जो हो तो तुम्हारा पराजय हो। यह प्रतिज्ञा लिखो, तब सब चुप ही रहे।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा करी है वा नहीं।

तब बालशास्त्री ने कहा कि संज्ञा तो नहीं की है परन्तु एक सूत्र में भाष्यकार ने उपहास किया है।

इस पर स्वामी जी ने कहा कि किस सूत्र के महाभाष्य में संज्ञा तो नहीं की और उपहास किया है, यदि जानते हो तो इसके उदाहरण पूर्वक समाधान कहो।

बाल शास्त्री और औरों ने कुछ भी न कहा।

माधवाचार्य ने दो पत्रे वेदों के२० निकालकर सब पण्डितों के बीच में रख दिये और कहा कि यहाँ यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दसवें दिन पुराणों का पाठ सुने ऐसा लिखा है। यहाँ पुराण शब्द किसका विशेषण है?

स्वामी जी ने कहा कि पढ़ो इसमें किस प्रकार का पाठ है। जब किसी ने पाठ न किया तब विशुद्धानन्द जी ने पत्रे उठा के स्वामी जी के ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो।

स्वामी जी- आप ही इसका पाठ कीजिये।

तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि मैं ऐनक के बिना पाठ नही कर सकता। ऐसा कहके वे पत्रे उठाकर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने दयानन्द स्वामी जी के हाथ में दिये।

इस पर स्वामी जी दोनों पत्रे लेकर विचार करने लगे। इसमें अनुमान है कि पांच पल व्यतीत हुए होंगे कि ज्यों ही स्वामी जी यह उत्तर  कहा चाहते थे कि ‘‘पुरानी जो विद्या है उसे पुराण विद्या कहते हैं और जो पुराण विद्या वेद है वहीं पुराण विद्या वेद कहाता है, इत्यादि से यहाँ ब्रह्मविद्या ही का ग्राह्य है क्योंकि पूर्व प्रकरण में ऋग्वेदादि चारों वेद आदि का तो श्रवण कहा है परन्तु उपनिषदों का नहीं कहा। इसलिये यहाँ उपनिषदों का ही ग्रहण है औरों का नहीं। पुरानी विद्या वेदों की ही ब्रह्म विद्या है इससे ब्रह्मवैवर्तादि नवीन ग्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो वहाँ ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्तादि १८ अन्य पुराण है सो तो वेद में२१ कही ऐसा पाठ नहीं है। इसलिये कदाचित् अठारहों का ग्रहण नहीं हो सकता’’ ज्यों ही यह उत्तर कहना चाहते थे कि विशुद्धानन्द स्वामी उठ खड़े हुए और कहा कि हमको विलम्ब होता है२२। हम जाते हैं।२३ तब सबके सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गए। इस अभिप्राय से कि लोगों पर विदित हो कि दयानन्द स्वामी का पराजय हुआ परन्तु जो दयानन्द स्वामी के चार पूर्वोक्त प्रश्न हैं उनका वेद में तो प्रमाण ही न निकला फिर क्यों कर उनका पराजय हुआ?२४

टिप्पणियाँ

. आर्य दर्पण में यह हिन्दी उर्दू दोनों भाषाओं में छपा है। दोनों का मिलान करके यहाँ दिया है। जहाँ आवश्यक जाना विराम चिह्न दे दिये हैं। इससे पाठकों को सुविधा होती है।

. काशी नरेश तथा उसके दक्षिणा भोगी पण्डितों ने शास्त्रार्थ में पहला अनर्थ यही तो किया ऋषि की मांँग कितनी न्याय संगत थी। यह पाठक देख लें।

. शास्त्रार्थ में दूसरा अनर्थ व अन्याय यह हुआ कि पण्डितों का कोई मुखिया नहीं था। पण्डितों का जमघट बोलता था। महाराजा का कोई अंकुश ही नहीं था।

. शास्त्रार्थ की तीसरी धांधली यह थी। वेद से प्रतिमा पूजन का प्रमाण ऋषि ने माँगा था। यह चुनौती दी थी। पण्डित मुख्य विषय से छूटते ही भाग निकले।

. एक पश्चात् दूसरा पण्डित शास्त्रार्थ के विषय से भागने लगा। यह चौथी धांधली थी।

. ऋषि ने प्रकरण से बाहर जाने से रोका पर कौन सुनता था? यह पाँचवी धांधली थी।

. काशी नरेश ने वेद सबको कण्ठाग्र होने की तथा स्वामी विशुद्धानन्द ने सब कुछ कण्ठस्थ होने की डींग मारी थी। इस प्रश्न से सारी काशी की विद्या की पोल खुल गई।

. ऋषि ने मनु जी का प्रमाण देकर प्रतिस्पर्धी का अहंकार चूर कर दिया। यहाँ उर्दू हिन्दी के पाठ में कुछ श    द घटे बढ़े हैं। हमने मिलान करके यहाँ लिखा है। भाव भेद कोई नहीं है।

.आर्य दर्पण की पाद टिप्पणी में ही लिखा है कि यह वेद वचन नहीं है। परन्तु जहाँ है वहाँ भी वेद विरुद्ध होने से प्रक्षिप्त है।

१०. यह कितना अनर्थकारी तर्क है कि वेद में प्रतिमा शब्द  होने से प्रतिमा पूजन का विधान है। वेद में तो प्रमाद, पाप, निन्दा, अनृत, अकर्म, दस्यु, दुरित शब्द भी आये हैं तो क्या इससे प्रमादी, पापी, आलसी, दुष्कर्मी होना सिद्ध हो गया? शास्त्रार्थ के विषय से भागने की काशी में मनमानी की गई।

११. यहाँ उर्दू व हिन्दी के  वृत्तान्त में शब्द  भेद है। भाव भेद नहीं।

१२. स्वामी विशुद्धानन्द के कथन से सिद्ध है कि मूर्तिपूजा  के अनेक ईश्वर हैं। ये लोग दर्शनों में परस्पर विरोध मानते हैं। हिन्दुओं में फूट का बीज इन्होंने ही बोया। विधर्मियों ने इसी का लाभ उठाया।

१३. वेद तथा ईश्वर विषयक ये प्रश्न पाषाण पूजकों की कुटिल कुचाल थी। वेद से प्रतिमापूजन की पुष्टि करने का विषय तो उन्होंने जानबूझकर छोड़ दिया।

१४. श्री लक्ष्मण जी के ग्रन्थ के  प्रथम भाग पृष्ठ २५५ पर माधवाचार्य की बजाय ‘बालशास्त्री ने कहा’ छप गया है। यह मुद्रण दोष समझा जावे। देखते जायें अब तक कितने विद्वान् ऋषि के सामने खड़े किये गये।

१५. ध्यान दीजिये यह नया विषय उठाया गया। शास्त्रार्थ का विषय पुराण नहीं था। मूर्तिपूजन के लिए श्रुति का प्रमाण देना था।

१६. ‘‘यह सब तो पठित है’’ ऐसा कहकर ऋषि की विद्वता  पर व्यंग्य कसा गया।

१७. आर्य दर्पण में भी यह पाद टिप्पणी मिलती है कि यह पण्डितों का ही मत है। स्वामी जी का नहीं। ये पत्रे वेद के नहीं गृह्यसूत्र के थे। वेद के नहीं। यह बहुत बडा छल था।

१८. यहाँ देखिये फिर नया पण्डित ऋषि के सामने खड़ा किया गया।

१९. विशेषण विषयक ऋषि की आपत्ति  व प्रमाण का किसी से कुछ भी उत्तर  नहीं बन सका।

२०. यह देखिये एक और विद्वान् को खड़ा होना पड़ा। एक के सामने काशी के कितने महारथी चित्त  होते गये।

२१. ये पत्रे गृहृसूत्र के थे, वेदों के नहीं। यह एक सुनियोजित षड्यन्त्र था। किसी एक के मस्तिष्क की उपज नहीं था।

२२. यह भी पण्डितों के मतानुसार कहा। यह स्वामी जी का मत नहीं।

२३. अध्यक्ष काशी नरेश ने तो सभा समाप्ति की घोषणा नहीं की। स्वामी विशुद्धानन्द की पहल से शास्त्रार्थ समाप्त हुआ और हुड़दंग मचने लगा।

२४. ‘आर्यदर्पण’ के उर्दू पाठ का अन्तिम वाक्य यहाँ नहीं दिया तो फिर कैसे समझा जावे कि काशी के पण्डितों का पराजय हुआ और दयानन्द स्वामी का जय।’’ द्रष्टव्य आर्यदर्पण जनवरी सन् १८८० पृष्ठ २०

– वेद सदन, अबोहर, पंजाब-१५२११६

दक्षिण भारत में आर्यसमाज का योगदान – डॉ. ब्रह्ममुनि

पिछले अंक का शेष भाग……   http://www.aryamantavya.in/contribution-of-arya-samaj-in-south-india/

शैक्षिक संस्थाएँः निजाम के राज्य में शिक्षा का अभाव था। बड़े-बड़े शहरों में भी शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। अधिकांश जनता निरक्षर थी जिसके परिणामस्वरूप नवीन विचारों का स्पर्श तक न था। इतिहास, विज्ञान, गणित इत्यादि विषय उर्दू में पढ़ाएँ जाते थे। मातृभाषा में शिक्षा न दी जाने के कारण अनेक अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। निजी विद्यालयों पर प्रतिबन्ध था, तथापि राष्ट्रीयता, नैतिकता, धार्मिक विचारों के लिए प्रतिबन्ध होते हुए भी १९१६ से १९३५ तक अनेक निजी संस्थाएँ शुरू की गई। जिसमें गुलबर्गा का नूतन विद्यालय, हिपरगा का राष्ट्रीय विद्यालय और हैदराबाद का केशव स्माारक आर्य विद्यालय प्रमुख हैं। इनके साथ-साथ आर्यसमाज ने भी अपने गुरुकुल तथा उपदेशक महाविद्यालयों की स्थापना की जिनमें वैदिक सिद्धान्त, वैदिक धर्म, नैतिकता की शिक्षा हिन्दी में दी गई। इनमें प्रमुख संस्थाओं में से कुछ निम्न हैं- विवेक वर्धिनी (हैदराबाद), नूतन विद्यालय (गुलबर्गा), गुरुकुल धारूर (धारूर), राष्ट्रीय पाठशाला (हिघरगा), श्री कृष्ण विद्यालय (गुंजोटी), श्यामलाल (उदगीर), नूतन विद्यालय (सेलू), गोदावरी कन्याशाला (लातूर), गुरुकुल घटकेश्वर कन्या गुरुकुल (बेगमपेठ), पुरानी कन्या पाठशाला (हैदराबाद), हिन्दी पाठशाला (हलीखेड़) इत्यादि। उपर्युक्त सभी संस्थाओं में सेवाभावी शिक्षक अर्वाचीन विषयों की मातृभाषा में शिक्षा देकर उनमें राष्ट्रीय-भावना जाग्रत करते थे। जिससे हजारों विद्यार्थियों ने स्वतन्त्रता-संग्राम तथा हैदराबाद मुक्ति-संग्राम में सक्रिय भाग लिया तथा स्वतन्त्रता-संग्राम में महत्वपूर्ण  भूमिका अदा की।

हुतात्माः आर्यसमाज के सामाजिक और धार्मिक सिद्धान्तों के प्रचार के कारण युवकों में राष्ट्रीयता के विचारों का जागरण हुआ, जिसके परिणाम स्वरूप विदेशी सत्ता  के सभी सुखों तथा प्रलोभनों को लात मार कर अनेक युवकों ने शासकों का खुलकर विरोध किया जिससे वे सरकार के कोपभाजन बने। निजाम ने तो उन्हें अनेक यातनाएँ दी हैं जिनसे अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों के स्वास्थ्य खराब हुआ, कुछ विकलांग हुए तो कुछ लोगों को अपने प्राणों की बलि भी देनी पड़ी। इसके साथ-साथ निजाम के अनुयायी एवं रजाकार भी इनके विरुद्ध हुए अतः वे इन देशप्रेमियों को छल-कपट से मारने की योजनाएँ बनाने लगे। गुंजोटी (महाराष्ट्र) का नौजवान वेदप्रकाश रजाकारों के अन्यायों के विरोध में आवाज उठाता था, इतना ही नहीं उनका प्रतिकार भी करता था जो रजाकारों की आँखों में खटकता था।

रजाकारों ने वेदप्रकाश को मारने का षड़यन्त्र रचा क्योंकि उस बहादुर के साथ सामना करने की रजाकारों में हिम्मत न थी। वह रणबांकुरा था। अतः रजाकारों ने छल-कपट से गाँव में ंउसकी निर्मम हत्या की। किन्तु जैसे ही राष्ट्रयज्ञ हुतात्मा वेदप्रकाश की आहुति पड़ी तो विद्रोह का ज्वालामुखी ऐसा फटा जिसे रोकना निजाम के लिए भी कठिन हो गया। इसी प्रकार यातना की शृंखला तथा छल-बल का सिलसिला निजाम का आगे बढ़ता रहा। जिसके परिणामस्वरूप उदगीर दंगे में दण्डित आर्यजगत् के उद्भट योद्धा, प्रखर सेनानी भाई श्यामलाल को भी विष देकर अमानवीय रूप से मारा गया। इसी प्रकार उपसा गाँव के रामचन्द्राराव पारीक का अत्यन्त क्रूरता पूर्वक वध किया। ईट गाँव के टेके दम्पति ने बड़ी हिम्मत तथा बहादुरी से रजाकारों का सामना किया। वे  न डगमगाए, न मौत से घबराए, और अन्त तक अनेक रजाकारों को अकेले ही सामना करते हुए दोनों पति-पत्नी राष्ट्र के लिए शहीद हुए। इसी प्रकार अन्य बसव कल्याण के धर्मप्रकाश को भी चौक में रजाकारों ने छल-कपट से मारा, किन्तु उसकी शहादत ने सम्पूर्ण कर्नाटक में निजाम के विरोध में आँधी सी आई।

उपदेशकों/पुरोहितों द्वारा प्रचारः- यद्यपि मुम्बई में सर्वप्रथम आर्यसमाज की स्थापना हुई, किन्तु उत्तर  भारत में इसका जन-सामान्य तक प्रचार-प्रसार हुआ। उसका प्रमुख कारण यह भी था कि वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा के लिए तथा उपदेशक बनाने के लिए उपदेशक महाविद्यालयों की स्थापना उत्तर  भारत में ही अधिकांश रूप में हुई। अतः दक्षिण भारत के इच्छुक आर्यसमाजियों ने लाहौर उपदेशक महाविद्यालय का अवलम्बन लिया। वहाँ से वैदिक सिद्धान्तों की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके उन्होंने अपनी कर्मभूमि दक्षिण भारत को बनाया। हैदराबाद के सुल्तान बाजार आर्यसमाज ने भी अनेक उपदेशकों को मराठवाड़ा, कर्नाटक तथा आन्ध्रपदेश के गाँव-गाँव में भेजकर जन-जागरण का कार्य तो किया ही, साथ ही आर्यसमाज की सैद्धान्तिक भूमिका को भी विशद किया। वेदों के प्रकाण्ड पण्डित श्री धर्मदेव विद्यामार्तण्ड का नाम इसमें सर्वप्रमुख है। उन्होंने दक्षिण की अनेक भाषाओं को स्वयं सीखा और उन्हीं की भाषा में वैदिक सिद्धान्तों का समर्पण भाव से प्रचार किया। इनके साथ-साथ पं. कामना प्रसाद, पं. नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ, पं. विश्वनाथ आर्य, पं. वामनराव येलनूरकर (बसवकल्याण), प्रेमचन्द प्रेम, पं. मदनमोहन विद्यासागर, पं. सुधाकर शास्त्री (बसवकल्याण), श्रीमती माहेश्वरी (मैसूर), राधाकिशन वर्मा (केरल) इत्यादि अनेक उपदेशक अपने उपदेशों से जनसामान्य एवं प्रबुद्ध दोनों ही वर्गों को वैदिक सिद्धान्तों का तथा वेद-मन्त्रों का भाष्य कर आर्यसमाज की दार्शनिक, सामाजिक एवं पारिवारिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करते रहे। निजाम के राज्य में जहाँ महिलाओं को शिक्षा से वंचित किया गया था, वहाँ आर्यसमाज ने उन्हें शिक्षित ही नहीं किया अपितु लोपामुद्रा, मैत्रेयी जैसी वैदिक ऋषिकाओं के पद-चिह्नों पर चलने के लिए प्रेरित किया।

गुरुकुलीय विद्यार्थियों का योगदानः महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वैदिक सिद्धान्त, वैदिक संस्कृति और वैदिक जीवन-पद्धति के प्रचार-प्रसार के लिए प्राचीन काल से चली आ रही गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति के प्रचलन पर जोर दिया तथा मैकाले द्वारा प्रचलित शिक्षा-पद्धति का विरोध किया, जिसमें केवल क्लर्क तैयार करने का लक्ष्य रखा था। उत्तर  भारत में गुरुकुल कांगड़ी, ज्वालापुर, वृन्दावन, कुरुक्षेत्र इत्यादि अनेक गुरुकुल खोले गए, जिनमें शिक्षा पद्धति वैदिक संस्कृति के अनुकूल थी, साथ ही उनकी जीवन-पद्धति अत्यन्त सादगी भरी थी। उनका सिद्धान्त था- विद्यार्थिनः कुतो सुखम्, सुखार्थिनः कुतो विद्या। इनमें कुछ-कुछ गुरुकुलों में आर्ष-पद्धति अपनाई गई थी तो कुछ गुरुकुलों में प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का समन्वय था। किन्तु कुछ विषयों की शिक्षा का माध्यम हिन्दी एवं कुछ का संस्कृत था। इतना ही नहीं लड़कियों की शिक्षा के लिए स्वतन्त्र रूप से अलग गुरुकुल खोले गए। इसी गुरुकुल प्रणाली के आधार पर दक्षिण में धारूर (महाराष्ट्र) में गुरुकुल खोला गया तथा बाद में गुरुकुल घटकेश्वर, गुरुकुल अनन्तगिरि कन्या गुरुकुल (सभी हैदराबाद), गुरुकुल वार्शी, गुरुकुल येडशी, श्रद्धानन्द गुरुकुल परली इत्यादि अनेक गुरुकुलों की स्थापना की गई। इन गुरुकुलों से अधीत स्नातकों ने दक्षिण में वैदिक सिद्धान्तों तथा आर्यसमाज के प्रचार-प्रसार में एवं साहित्य-निर्माण में मह     वपूर्ण योगदान दिया। जिनमें कुछ नाम उल्लेखनीय हैं- डॉ. भगतसिंह राजूरकर (पूर्व कुलपति, औरंगाबाद, वि.वि.), डॉ. चन्द्रभानु सोनवणे वेदालंकार, प्राचार्य वेदकुमार वेदालंकार, डॉ. कुशलदेव कापसे, डॉ. हरिश्चन्द्र धर्माधिकारी, डॉ. सियवीर विद्यालंकार, श्रीमती मीरा विद्यालंकृता, स्व. शकुन्तला जनार्दनराव वाघमारे, श्रीमती सत्यवती वाघमारे, श्रीमती प्रमिला वाघमारे, श्रीमती सुशीला देवी, निवृ िाराव होलीकर इत्यादि। आधुनिक काल में भी मराठवाड़ा विभाग में सैकड़ों गुरुकुलीय विद्यार्थी वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार अपने-अपने कार्यों में रत रहते हुए कर रहे हैं और साथ ही लेखन-कार्य भी करके आर्यसमाज के सिद्धान्तों का प्रसार कर रहे हैं।

संस्कृत और हिन्दी को योगदानःमहर्षि दयानन्द के द्वारा आर्ष ग्रन्थों को प्रामाणिक मानने तथा संस्कृत भाषा को सभी भारतीय भाषाओं की जननी मानने के कारण वैदिक सिद्धान्तों को जनसामान्य तक पहुँचाने के लिए राष्ट्रभाषा-हिन्दी को प्रस्थापित किया। अतः आर्यसमाज के विविध कार्यकलापों और साहित्य की भाषा हिन्दी के रूप में अभिव्यक्त हुई। जिसके परिणामस्वरूप दक्षिण भारत के लेखकों तथा चिन्तकों ने भी अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम संस्कृत और हिन्दी को बनाया। सम्पूर्ण मराठवाड़ा के शिक्षा-क्षेत्र में संस्कृत का जो प्रचार है उसमें आर्यसमाज की संस्थाओं में शिक्षित विद्यार्थी आज जो अध्यापन-कार्य कर रहे हैं, उनकी मह     वपूर्ण भूमिका है। मराठवाड़ा के प्राचार्य हरिश्चन्द्र रेणापूरकर जैसे संस्कृत के उद्भट विद्वान् और कवि ने लगभग २५ संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन किया। जिन्होंने कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में संस्कृत के प्रचार-प्रसार में महनीय कार्य किया। अभी कुछ मास पूर्व ही वे राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय स्तर के संस्कृत विद्वानों के लिए निर्धारित- बादरायण पुरस्कार से सम्मानित किए गए, जो वस्तुतः आर्यजगत् का ही गौरव है। इसके सिवाय अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों में गुरुकुलीय स्नातक संस्कृत के अध्यापन के साथ-साथ प्रचार का कार्य कर रहे हैं। स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने (पूर्वाश्रमी स्वतन्त्रता सेनानी रामचन्द्रराव विदरकर) जो स्वयं संस्कृत से अछूते थे किन्तु आर्यसमाज लातूर में अनेक वर्षों तक संस्कृत के अध्ययन की सुविधा उपलब्ध  कराई जिसने इस क्षेत्र में संस्कृत प्रचार की आधारशिला रखी।

संस्कृत के साथ-साथ राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार भी दक्षिण भारत में होने का कारण आर्यसमाज ही है। आर्यसमाज के परिवारों में लगभग हिन्दी का ही व्यवहार होता है। इसके साथ दक्षिण-भारत से सैंकड़ों गुरुकुलीय स्नातक अपने-अपने प्रान्तों में हिन्दी का अध्यापन कर रहे हैं। आर्यसमाज से सम्बन्धित सभी व्यक्ति सामान्य बोलचाल में, कार्यालयों में, बाजार इत्यादि में अन्य सार्वजनिक स्थानों पर हिन्दी का प्रयोग करते हैं। इसके साथ राष्ट्रभाषा प्रचार सभा के अनेक परीक्षा केन्द्रों द्वारा हिन्दी की अनेक परीक्षाएँ दिलवाई जाती हैं। जिसने दक्षिण-भारत में हिन्दी के प्रचार में महत्वपूर्ण  भूमिका निभाई है। हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत परीक्षा के केन्द्रों में संस्कृत का अध्यापन किया जा रहा है। डॉ. भगतसिंह विद्यालंकार, डॉ. चन्द्रभानु सोनवणे (वेदालंकार), प्रो. भूदेव पाटील (विद्यालंकार), प्राचार्य दिगम्बरराव होलीकर, डॉ. चन्द्रदेव कवड़े जैसे गुरुकुलीय तथा आर्यसमाजी विद्वान् महाराष्ट्र सरकार के पाठ्यपुस्तक मण्डल के कार्यकारिणी सदस्य, विद्यापीठीय पदाधिकारी महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी इत्यादि संस्थानों के प्रमुख पदों पर रहने के कारण अनेक आर्यसमाजी लेखकों के पाठों का पाठ्यक्रमों में समावेश करा कर आर्यसमाज के कार्य एवं उसकी विचारधारा को नवीन पीढ़ी तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण  कार्य किया है। इसके सिवाय लातूर, परली-बैजनाथ, हैदराबाद, औरंगाबाद, सेलू, जालना, नान्देड़ इत्यादि स्थानों पर हिन्दी माध्यम के विद्यालयों से भी हिन्दी के प्रचार में सहयोग हुआ। दक्षिण भारत में स्थित परली-बैजनाथ, वाशी, धारूर, हैदराबाद इत्यादि स्थानों के गुरुकुलों में शिक्षा का माध्यम हिन्दी तथा संस्कृत भाषा एवं साहित्य का अध्यापन होता है। कर्नाटक में कावेरी नदी के किनारे पर विशाल भूमि में स्थित ‘शान्तिधाम’ गुरुकुल में संस्कृत एवं हिन्दी के प्रचार-प्रसार कार्य हो रहा है। केरल में कालीकट काश्यप आश्रम के संस्थापक डॉ. राजेश भी वैदिक मन्त्रों की शिक्षा जन-सामान्य तक तथा आदिवासियों को भी देकर संस्कृत प्रचार की मह     वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। १५ अगस्त को एम.डी.एच. के संस्थापक महाशय धर्मपाल से प्राप्त तीन करोड़ के सहयोग से ‘वैदिक रिसर्च फाउंडेशन’ की स्थापना की गई है। इसी प्रकार परली-वैजनाथ (महाराष्ट्र) के गुरुकुल में पूर्व सांसद तथा आर्यसमाज के विद्वान् शिक्षा शास्त्री डॉ. जनार्दन राव वाघमारे जी की सांसद निधि से निर्मित ‘पं. नरेन्द्र वैदिक अनुसन्धन केन्द्र’ की स्थापना की गई है। जिसका उत्तरदायित्व  प्रो. डॉ. कुशलदेव शास्त्री एवं प्रो. ओमप्रकाश होलीकर (विद्यालंकार) डॉ. ब्रह्ममुनि की अध्यक्षता में वहन किया जा रहा है।

समाज सुधारः दक्षिण-भारत के बड़े भू-भाग पर निजाम का तथा अन्य विदेशी शासकों का आधिपत्य होने के कारण यहाँ की सामाजिक स्थिति अत्यन्त खराब थी। परम्परा से चली आ रही अनेक कालबाह्य रुढ़ियों में समाज जकड़ा हुआ था और बँटा हुआ भी था। जाति प्रथा, धर्मान्तरण की समस्या, स्त्रियों की शिक्षा, विधवा विवाह की समस्या, परित्यक्ता स्त्री की समस्या इत्यादि समस्याओं से समाज ग्रस्त होने के कारण जड़ हो गया। इसे गतिशील बनाने का कार्य आर्यसमाज ने किया। आर्यसमाज मूलतः प्रगतिशील विचारधारा है। अतः इसमें जातिप्रथा को समाप्त करने के लिए और समाज में भाईचारा लाने तथा ऊँच-नीच को समाप्त करने के लिए अन्तर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन दिया। ये अन्तर्जातीय विवाह आर्यसमाज की विचारधारा के अनुरूप ब्राह्मण तथा अन्य उच्च जातियों के लोगों ने स्वयं तथा अपने पुत्र-पुत्रियों के सामान्य जाति में तथा पिछड़ी जातियों में किए। वस्तुतः उस समय यह क्रान्तिकारी कदम था। उन परिवारों पर अघोषित बहिष्कार जैसी स्थिति थी तथापि वे अपने निर्णय पर दृढ़ रहे। आज के अन्तर्जातीय विवाहों की पृष्ठभूमि वस्तुतः आर्यसमाज ने निर्माण की। शेषराव वाघमारे, डॉ. डी.आर. दास, केशवराव नेत्रगांवकर, हरिश्चन्द्र पाटील, माणिकराव आर्य, डॉ. जनार्दनराव वाघमारे, वीरभद्र, पं. ऋभुदेव, नरदेव स्नेही, देवदत्त  तुंगार, धनंजय पाटील, शंकरराव सराफ, डॉ. धर्मवीर, दिगम्बरराव होलीकर, निवृत्तिराव  होलीकर, नरसिंगराव मदनसुरे, डॉ. ब्रह्ममुनि, सुग्रीव काले, लक्ष्मणराव गोजे, बसन्तराव जगताप, रामस्वरूप लोखण्डे, संग्रामसिंह चौहान, दिनकरराव मोरे, किशनराव सौताडेकर, नारायणराव पवार, डॉ. भगतसिंह राजूरकर, इत्यादि आर्यसमाजियों ने जातिभेद निर्मूलन में मह      वपूर्ण कार्य किया। जिसमें कुछ ब्राह्मणों ने अपनी पुत्रियों को दसिनों तथा पिछड़े वर्गों के लोगों में दी तथा अपने घर पिछड़े घर की बहुएँ लेकर आए। कुछ लोगों ने स्वयं भी अन्तर्जातीय विवाह किए और अपने पुत्र-पौत्रादि के विवाह भी अन्तर्जातीय, अन्तर्धर्मीय किए। वस्तुतः उपर्युक्त नामों के अतिरिक्त आज इस सूची में बहुत नाम जोड़ने आवश्यक हैं, किन्तु स्थानाभाव के कारण प्रारम्भिक एवं प्रतिनिधिक नाम ही परिगणित किए गए हैं।

इसके साथ-साथ समाज सुधार के कार्यों में व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, आदर्श गृहस्थ निर्माण का कार्य भी आर्यसमाज ने किया। इसके सिवाय स्त्री शिक्षा, स्त्रियों को वेदाध्ययन के अवसर भी प्रदान किए, तभी स्त्रियाँ कन्या गुरुकुलों में जाकर विद्यालंकार बनकर शिक्षा क्षेत्र में कार्य कर रही हैं। स्त्री-शिक्षा के साथ-साथ अज्ञान एवं अन्धविश्वास का निर्मूलन, वैदिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण, व्यसनमुक्ति, द्यूत-क्रीड़ा मुक्ति जैसे समाजोपयोगी एवं राष्ट्रोपयोगी कार्य आर्यसमाज ने प्रभूत मात्रा में किए। व्यक्ति एवं समाज की उन्नति तथा प्रगति के लिए शारीरिक, मानसिक, आत्मिक, बौद्धिक प्रगति की दिशा दर्शन का कार्य किया। राष्ट्रप्रेम, त्याग, समर्पण, अन्याय का विरोध, जनजागृति, वैदिक धर्म के प्रति प्रेम, स्वाभिमान-निर्माण, सामाजिक एकता, बन्धुभाव, राष्ट्रीय एकात्मता, शान्ति इत्यादि सकारात्मक मूल्यों को संवर्धित करने के अहर्निश प्रयत्न किए।

राजनीतिः हैदराबाद स्टेट जो निजाम के आधिपत्य में था, उस समय वहाँ की प्रजा पर निजाम ने सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, पत्रकारिता इत्यादि सभी दृष्टियों से अनेक प्रतिबन्ध लगाए थे और रजाकारों के माध्यम से प्रजा पर अन्याय और अत्याचार प्रारम्भ किए गए। उस समय आर्यसमाज के माध्यम से आर्यसमाजी नेताओं ने जनजागृति कर विद्रोह का स्वर अनुगुंजित किया तथा सत्याग्रह किया। देश की स्वतन्त्रता के समय भी आर्यसमाज के नेताओं ने स्वतन्त्रता-संग्राम में बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा उसका नेतृत्व किया। तथा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद अधिकांश आर्यसमाजी नेताओं ने विविध दलों में प्रवेश कर मन्त्री, विधायक, सांसद इत्यादि स्थानों पर चयनित होकर देशभक्ति तथा राष्ट्र-निर्माण का कार्य किया। यद्यपि इसकी नामावली प्रदीर्घ है तथापि प्रतिनिधि रूप से कुछ नाम निम्नलिखित हैंः- पं. नरेन्द्र, विनायक राव विद्यालंकार, शेषराव वाघमारे, तुलसीराम कांसले, कोरटकर, शिवाजीराव निसंगेकर, जनार्दनराव वाघमारे इत्यादि।

धार्मिक प्रचारः निजाम ने अपने राज्य में वैदिक धर्म के प्रचारकों, उपदेशकों तथा भजनोपदेशकों पर अनेक प्रकार के बन्धन लाद दिए थे। उनके प्रवचन, शास्त्रार्थ, उपदेश इत्यादि धार्मिक अधिकारों पर अनेक पाबन्दियाँ लगा दी गई थी। मध्य-दक्षिण आर्य प्रतिनिधि सभा, हैदराबाद ने उपदेशक और भजनोपदेशक नियुक्त कर देहातों में प्रचार किया। एक ईश्वर, एक धर्म, एक धर्मग्रन्थ, एक जाति का प्रचार कर राष्ट्रैक्य का निर्माण अपने प्रवचनों, भजनों तथा उपदेशों द्वारा किया। समय-समय पर उ    ार भारत के विद्वानों को आमन्त्रित कर श्रावण मास में श्रावणी सप्ताह के अवसर पर प्रचार करते रहे। स्वातन्त्र्यो      ार काल में वही काम महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा, कर्नाटक आ.प्र. सभा तथा आन्ध्र आर्य प्रतिनिधि सभा कर रही है। पं. नरदेव स्नेही, पं. विश्वनाथ (जहीराबाद), पं. कर्मवीर, पं. नरेन्द्र, श्यामलाल, बंसीलाल इत्यादि ने बहुत परिश्रम से रास्ते न रहने वाले गाँवों में जाकर प्रचार जमकर किया। उपर्युक्त विद्वानों के साथ-साथ आजकल डॉ. ब्रह्ममुनि जी के नेतृत्व में उतर भारत के अनेक विद्वान्- प्रो. रघुवीर वेदालंकार, डॉ. वेदपाल, प्रो. राजेन्द्र विद्यालंकार, डॉ. महावीर जी, आचार्य नन्दिता जी शास्त्री, प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु तथा महाराष्ट्र के भी अनेक गुरुकुलीय स्नातक, भजनोपदेशक, उपदेशक वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं जिनमें प्रमुख नाम निम्न हैं- प्राचार्य वेदकुमार वेदालंकार, पं. सुरेन्द्रदास जी, प्राचार्य देवदत तुंगार, डॉ. नयनकुमार आचार्य, पं. नारायणराव कुलकर्णी, ज्ञानकुमार आर्य इत्यादि। महाराष्ट्र आर्य प्रतिनिधि सभा (परली-वैजनाथ) द्वारा ‘वैदिक गर्जना’ नामक मुखपत्र भी पाक्षिक रूप में डॉ. ब्रह्ममुनि जी के मार्गदर्शन में तथा डॉ. कुशलदेव शास्त्री के निधन के बाद अत्यन्त कुशलता से डॉ. नयनकुमार आचार्य के सम्पादकत्व में तथा विद्वज्जनों के सम्पादक मण्डल के दिशा-निर्देश में प्रकाशित होता है, जो महाराष्ट्र के आर्यजगत् विद्वानों पर सामयिक रूप से विशेषांक निकालकर उनके कृतित्व को उजागर करता है।

उपर्युक्त सभी विद्वान् अपने व्याख्यानों तथा विविध शिविरों द्वारा धार्मिक प्रचार एवं वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार करते हैं। साथ ही वार्षिकोत्सव संस्कारों तथा वैदिक साहित्य एवं लेखन से भी प्रचार करते हैं। लातूर से श्री स्वतन्त्रता सेनानी जड़े जी के सुपुत्र के सम्पादकत्व में लातूर समाचार साप्ताहिक तथा दैनिक आर्यजगत् के विद्वानों के लेखों को मराठी तथा हिन्दी में प्रकाशित कर रहे हैं।

जब जागे तभी सवेरा परन्तु…..:- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

हमने इन दिनों संघ प्रमुख श्रीयुत् मोहन भागवत तथा उनके साथियों के ‘घर वापसी’ पर टी.वी. में विचार सुने। उनके संघ परिवार के विचारकों स्वयं सेवकों को भी टी.वी. पर सुना। भागवत जी ने कहा, ‘‘हिन्दू अब जागा है, हमें कोई रोक नहीं सकता। लूटा गया माल हम वापस लेंगे इत्यादि।’’ अच्छी बात है हम तो पहले से ही कहते आये हैं कि सबको अपनाना चाहिये परन्तु हमारी सुनी किसने? चलो भाई! जब जागे तभी सवेरा। हमने कई वर्ष पूर्व एक गीत में लिखा था- ‘खुले धर्म के द्वार ऋषि जब अलख जगाई’ क्या संघ परिवार यह बतायेगा कि इनकी नींद कब खुली? कैसे खुली? अथवा यह कब जागे? किसने जगाया? जिसने जगाया उसका नाम तो बताने की कृपा करो। इन के चिन्तक श्री सिन्हा ने कहा, ‘‘संघ आज से नहीं बहुत लम्बे समय से यह कार्य कर रहा है।’’ दूसरे भाई ने कहा, ‘‘सन् १९२५ में संघ कार्यक्षेत्र में है।’’

सन् १९५३ में विनोबा जी काशी के विश्वनाथ मन्दिर में दलितों को लेकर प्रवेश करने लगे तो उनकी धुनाई, पिटाई कर दी गई। क्या संघ ने तब इस कुकृत्य की निन्दा की? जब हीरालाल को वापस लिया गया तब संघ ने कोई प्रतिक्रिया दी? आर्यसमाज और फिर मसूराश्रम घर वापसी-शुद्धि करता आया है। संघ ने कभी कहीं सहयोग दिया?

क्या अशोक सिंघल जी, भागवत जी ने कभी कहीं बताया कि वह पहला व्यक्ति कौन था जिसे इस युग में वापस लाया गया? लीजिये हम बताते हैं- वह था देहरादून का मोहम्मद उमर जिसे ऋषि दयानन्द ने अलखधारी नाम दिया। अ  दुल अज़ीज़ आदि मेधावी व्यक्तियों को पं. लेखराम जी परोपकारिणी सभा के सहयोग से घर वापस लाये। अजमेर में ही अब्दुल  रहमान को वीर सोमनाथ बताया गया। सनातन धर्म कॉलेज लाहौर का प्रिं. रामदास वापस लाया गया। तब संघ ने चुप्पी क्यों साध ली? देवबन्द का लाला जगदम्बा प्रसाद भी तो मौलाना बना था। उसे कौन वापस लाया? सरदार पटेल को अनेक ऐतिहासिक कार्य में सहयोग देने वाला भारत माता का दुलारा प्यारा मेधातिथि मौलाना दऊदूदी जी का शिष्य था। उसे आर्य मुसाफिर पं. शान्तिप्रकाश बटाला में घर वापस लाये थे। तब घर वापसी के समय वहाँ एक भी संघी भाई ने दर्शन न दिये। सिर हथेली पर धर कर दक्षिण में हुतात्मा श्याम भाई, क्रान्तिवीर पं. नरेन्द्र, पं. गोपाल देव कल्याणी, हुतात्मा शिवचन्द्र, आर्यवीर लालसिंह ने निजाम राज्य में हिन्दुओं का धर्मान्तरण रोका या नहीं? वेदप्रकाश ने प्राण तक दे दिये। इन्हीं दिनों उसकी स्मृति में गुंजोटी महाराष्ट्र के विशाल समारोह में आप लोग दिखाई ही न दिये।

महोदय समर्थ गुरु रामदास  जी को तिलाञ्जलि देकर आपने स्वामी विवेकानन्द जी को अपना सर्वस्व मान लिया। मुंशी इन्द्रमणि सरीखे हिन्दू रक्षक का पौत्र भगवत सहाय जब धर्मच्युत हुआ तब विवेकानन्द जी व उनके चेलों में से कोई आगे आया? मुंशी जी का एक और सम्बन्धी ईसाई बन गया। तब स्वामी विवेकानन्द जी अमेरिका में अंग्रेजी भाषण दे आये थे परन्तु वह कुछ न कर पाये। आगे ही न आये। ऋषि का शिष्य साहस का अंगारा पं. लेखराम तत्काल मुरादाबाद पहुँच गया। लाखों मलकानों की घर वापसी का इतिहास आप क्यों सुनाओगे। ऋषि दयानन्द का, पं. लेखराम का, स्वामी श्रद्धानन्द का आपकी विश्व हिन्दू परिषद् के कार्यालयों में चित्र तक नहीं। उनका नाम लेने से आप डरते हैं। यह कृतघ्नता नहीं तो क्या है?

बोलकर, शोर मचाकर धर्म प्रचार नहीं होता। आप लोगों की भाषा संयत नहीं, व्यवहार संयत नहीं। टी.वी. में दर्शन देने का, फोटो का आपको रोग लग गया है। डॉ. हैडगवार का मार्ग छोड़कर विवाद खड़े करने का, अपने निज का, प्रचार का रोग संघ को लग गया है। जाति की बहुत क्षति हो ली। हमारा सुझाव आप नहीं मानेंगे। चुपचाप रह नहीं सकते। अनुभव से कुछ तो सीखो। लाख यत्न कर लो अब शाखा युग नहीं लौट सकता।