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‘महर्षि दयानन्द के बहुप्रतिभावान् अद्वितीय शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

महर्षि दयानन्द (1825-1883) ईश्वर के सच्चे स्वरुप के जिज्ञासु तथा उसकी प्राप्ति के उपायों के अनुसंधानकर्त्ता थे। बाइसवें वर्ष में उन्होंने टंकारा जनपद मोरवी, गुजरात स्थित अपने सुखी व सम्पन्न परिवार का त्याग कर दिया था और देश भर में घूम कर सच्चे धार्मिक विद्वानों व योगियों की तलाश की।  जो विद्वान व योगी मिले तथा उनसे जो ज्ञान व मार्गदर्शन प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने ग्रहण किया। सन् 1857 की देश की आजादी के लिए जो क्रान्ति हुई, उसमें उनकी भूमिका व कार्यों कका प्रमाणिक ज्ञान उपलब्ध नहीं है। इसका कारण है कि यदि वह उसका वर्णन करते तो अंग्रेजों द्वारा उन्हें बगावत का दण्ड दिया जाता और वह देश सुधार का कार्य न कर पाते। इस प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय वह 32 वर्ष के युवा ब्रह्मचारी थे। उनके द्वारा लिखित सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में व्यक्त विचारों से ज्ञात होता है कि वह इस आजादी की लड़ाई की कुछ घटनाओं के प्रत्यक्ष दर्शी थे और उनकी इसमें महत्वूपर्ण भूमिका हो सकती है। सन् 1860 में स्वामी दयानन्द अध्ययन के लिए मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरू विरजानन्द जी की कुटिया में पहुंचते हैं और लगभग 3 वर्ष तक अध्ययन कर वेद एवं वैदिक साहित्य के ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। योग में प्रवीणता व उसके आठ अंगों व साधनों को वह पहलेे ही सिद्ध कर समाधि अवस्था तक पहुंच चुके थे। अब उनके लिए कुछ जानना शेष नहीं था। गुरू विरजानन्द की आज्ञा व प्रेरणा से उन्होंने देश में व्याप्त अज्ञान, अन्धविश्वास व कुरीतियों को दूर करने का व्रत लिया। वेदों के ज्ञान के आधार पर तुलना करने पर उन्हें मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध, बाल विवाह, बेमेल विवाह, बहु विवाह, ब्रह्मचर्य का नाश वा इसका पालन न करना, स्त्री व शूद्रों को शिक्षा से दूर रखना व इनके लिए शिक्षा का निषिद्ध होना, जन्मना जातिवाद वा सामाजिक विषमता, देश में वेद व वैदिक साहित्य की शिक्षा की व्यवस्था न होना आदि कार्य न केवल वेद विरुद्ध लगे अपितु देश की पराधीनता व सभी कष्टों, अवनति का कारण भी यही अज्ञानता व अन्धविश्वास से पूर्ण कार्य सिद्ध हुए।

 

सन् 1863 में गुरु विरजानन्द जी से विदा लेकर वह वेदों व सद्ज्ञान के प्रचार में सर्वात्मा समर्पित हो गये।  एक स्थान से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर जाकर वहां कुछ दिन रहकर प्रचार करते थे। वैदिक मान्यताओं का युक्ति व तर्क तथा शास्त्रीय आधार पर मण्डन करते व मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि का खण्डन तथा स्त्री व शूद्रों सहित सभी की समान गुरुकुलीय पद्धति से शिक्षा का समर्थन करने के साथ जन्मना जातिवाद का भी खण्डन करते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अस्पर्शयता के कलंक को मिटाया और दलित बन्धुओं को वेदों सहित सभी प्रकार की शिक्षा का अधिकार देकर ऊंचा उठाया व गौरव दिलाया। इसी प्रकार से प्रचार करते हुए वह अगस्त, सन् 1880 में बांस बरेली पहुंचे और यहां जमकर प्रचार किया। इन दिनों स्वामी श्रद्धानन्द पूर्व नाम मुंशीराम अपने पिता, बांस बरेली के पुलिस कोतवाल नानकचन्द जी के साथ यहां रहते थे। मुंशीराम बचपन से ही अपने कुल की रीति से मूर्तिपूजा करते थे। सन् 1876 में वह काशी में पिता के साथ रहते थे तथा नियमित रुप से काशी विश्वनाथ मन्दिर में पूजा अर्चना के लिए जाया करते थे। एक दिन मन्दिर में पूजा अर्चना के लिए पहुंचे तो मन्दिर के पुलिस के पहरेदारों ने रोक लिया और बताया कि वहां रीवां की रानी साहिबा पूजा-अर्चना कर रही हैं। उनके जाने के बाद ही किसी भक्त को अन्दर जाकर पूजा करने की अनुमति है। ईश्वर की पूजा पर रानी के विशेषाधिकार की इस घटना के प्रभाव से मुंशीराम जी का मूर्तिपूजा के प्रति विश्वास समाप्त हो गया और वह नास्तिक बन गये। महर्षि दयानन्द का 14 वर्ष की अवस्था में शिवपूजा करते हुए मूर्तिपूजा से विश्वास समाप्त हुआ था और स्वामी श्रद्धानन्द का मूर्तिपूजा में कुछ समय के लिए बाधा डालने के कारण, मूर्ति के ईश्वर होने व उसमें किसी प्रकार की दिव्यता व शक्ति के होने का भ्रम दूर हुआ था। महर्षि दयानन्द को इस घटना से सच्चे ईश्वर की खोज की प्रेरणा मिलती है तो 20 वर्षीय युवक मुंशीराम इस घटना के प्रभाव से ईश्वर अविश्वासी वा नास्तिक बन जाता है। इसके बाद उनका झुकाव ईसाइयत की ओर होता है परन्तु अपने ईसाई पथप्रदर्शक को जब दुष्कर्म करते देखते हैं तो उनकी नास्तिकता में बची खुची कमी भी दूर होकर वह पूर्ण नास्तिक हो जाते हैं। उनके पिता नानकचन्द जी को मुंशीराम जी की इस स्थिति का पूरा ज्ञान है।

 

बांस बरेली में स्वामी दयानन्द जी के उपदेशों में उपद्रव रोकने व सुरक्षा की व्यवस्था का दायित्व मुंशीराम जी के नगर कोतवाल पिता को दिया जाता है। वह स्वयं श्रद्धावान पौराणिक कर्मकाण्डी व्यक्ति थे। स्वामी दयानन्द के उपदेशों में डियूटी देते हुए वहां वह बड़े-बड़े अंगे्रज अधिकारियों को देखते हैं और स्वामी दयानन्द के ईश्वर विषयक विचारों को सुनते हैं तो उन्हें विश्वास हो जाता है कि उनके पुत्र की नास्तिकता स्वामी दयानन्द जी के प्रवचन सुनकर दूर हो सकती है। स्वामी श्रद्धानन्द ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग का पथिक में इस सम्बन्ध में लिखा है कि रात को घर आते ही (पिताजी ने) मुझे कहा-‘‘बेटा मुंशीराम ! एक दण्डी संन्यासी आये हैं, बड़े विद्वान् और योगिराज हैं। उनकी वक्तृता सुनकर तुम्हारे संशय दूर हो जाऐंगे। कल मेरे साथ चलना। श्रद्धानन्द जी आगे लिखते हैं कि उन्होंने पिता को कह तो दिया कि चलंूगा परन्तु मन में वही भाव रहा कि केवल संस्कृत जाननेवाला साधु बुद्धि की बात क्या करेगा? दूसरे दिन बेगम बाग की कोठी में पिता जी के साथ वह पहुंचते हैं जहां व्याख्यान हो रहा था। उस दिव्य आदित्यमूर्ति (दयाननन्द) को देख कुछ श्रद्धा उत्पन्न हुई, परन्तु जब पादरी टी.जे. स्काट और दो-तीन अन्य युरोपियनों को उत्सुकता से बैठे देखा तो श्रद्धा और भी बढ़ी। अभी दस मिनट वक्तृता नहीं सुनी थी कि मन में विचार किया-यह विचित्र व्यक्ति है कि केवल संस्कृतज्ञ होते हुए युक्तियुक्त बातें करता है कि विद्वान् दंग हो जाएं। व्याख्यान परमात्मा के निज नाम ओ३म् पर था। वह पहले दिन का आत्मिक आह्लाद कभी भूल नहीं सकता। नास्तिक रहते हुए भी आत्मिक आह्लाद में निमग्न कर देना ऋषिआत्मा का ही काम था।

 

स्वामी दयानन्द जी की जिस घटना ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को सर्वाधिक प्रभावित किया वह व्याख्यान के दूसरे दिन स्वामी दयानन्द जी द्वारा खण्डन न करने की सलाह देने के विरुद्ध सार्वजनिक रूप से अंग्रेज कमिश्नर को कहे गये यह शब्द थे-‘‘लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट करो, कलक्टर क्रोधित होगा, अप्रसन्न होगा, गवर्नर पीड़ा देगा। अरे ! चक्रवर्ती राजा भी क्यों अप्रसन्न हो, हम तो सत्य ही कहेंगे। इसके पीछे एक श्लोक नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। चैनं क्लेदयन्त्यापो शोषयति मारुतः।। (गीता 2/23) पढ़कर आत्मा की स्तुति की। न शस्त्र उसे काट सके, न आग उसे जला सके, न पानी उसे गला सके और न हवा उसे सुखा सके। वह नित्य, अमर है। फिर गरजते शब्दों में बोले-‘‘यह शरीर तो अनित्य है, इसकी रक्षा में प्रवृत्त होकर अधर्म करना व्यर्थ है। इसे जिस मनुष्य का जी चाहे नाश कर दे। फिर चारों ओर तीक्ष्ण दृष्टि डालकर सिंहनाद करते हुए कहा-‘‘किन्तु वह शूरवीर पुरुष मुझे दिखाओं जो मेरी आत्मा का नाश करने का दावा करे। जब तक ऐसा वीर इस संसार में दिखायी नहीं देता तब तक मैं यह सोचने के लिए तैयार नहीं हूं कि मैं सत्य को दबाऊंगा या नहीं। सारे हाल में सन्नाटा छा गया। रुमाल का गिरना भी सुनायी देता था। इस घटना ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। दूसरी प्रमुख घटना स्वामी श्रद्धानन्द जी के महर्षि दयानन्द जी से बांस बरेली में ही ईश्वर के अस्तित्व पर किए गए प्रश्न थे जिनका महर्षि दयानन्द से उत्तर सुनकर वह निरुत्तर हो गये। वह लिखते हैं-‘यद्यपि आचार्य दयानन्द के उपदेशों ने मुझे मोहित कर लिया था, तथापि मैं मन में सोचा करता था कि यदि ईश्वर और वेद के ढकोसले को पण्डित दयानन्द स्वामी तिलांजलि दे दें तो फिर कोई भी विद्वान् उनकी अपूर्व युक्ति और तर्कनाशक्ति का सामना करनेवाला रहे। मुझे अपने नास्तिकपन का उन दिनों अभिमान था। एक दिन ईश्वर के अस्तित्व पर आक्षेप कर डाले। पांच मिनट के प्रश्नोत्तर में ऐसा घिर गया कि जिह्वा पर मुहर लग गयी। मैंने कहा-महाराज ! आपकी तर्कना बड़ी लीक्ष्ण है। आपने मुझे चुप तो करा दिया, परन्तु यह विश्वास नहीं दिलाया कि परमेश्वर की कोई हस्ती (अस्तित्व) है। दूसरी बार फिर तैयारी करके गया परन्तु परिणाम पूर्ववत् ही निकला। तीसरी बार फिर पूरी तैयारी करके गया परन्तु मेरे तर्क की फिर पछाड़ मिली। मैंने फिर अन्तिम उत्तर वही दिया-महाराज ! आपकी तर्कनाशक्ति बड़ी प्रबल है। आपने मुझे चुप तो करा दिया, परन्तु यह विश्वास नहीं दिलाया कि परमेश्वर की कोई हस्ती है। महाराज पहले हंसे, फिर गम्भीर स्वर से कहादेखो, तुमने प्रश्न किये, मैंने उत्तर दियेयह युक्ति की बात थी। मैंने कब प्रतिज्ञा की थी कि मैं तुम्हारा विश्वास परमेश्वर पर करा दूंगा? (मुंशीराम!) तुम्हारा परमेश्वर पर विश्वास उस समय होगा जब वह प्रभु स्वयं तुम्हें विश्वासी बना देंगें। अब स्मरण आता है कि आगे लिखा उपनिषद्वाक्य उन्होंने पढ़ा था-नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो मेघया बहुनां श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम।। (कठोपनिषद 1/2/23)’’। इन पंक्तियों के लेखक को लगता है कि स्वामी दयानन्द जी से इस संवाद के परिणामस्वरुप श्रद्धानन्द जी की नास्तिकता अधिकांशतः समाप्त हो गई थी और शेष रही नास्तिकता कुछ समय बाद समाप्त हो गई। इस सत्संग का परिणाम भारत के लिए बहुत शुभ हुआ। स्वामी श्रद्धानन्द जी न केवल स्वामी दयानन्द के अद्भुत विलक्षण अनुयायी बने अपितु उन्होंने देश में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना द्वारा वेदों सहित सभी विषयों की शिक्षा के प्रचार व सुधार के साथ देश की आजादी, समाज सुधार, आर्य व हिन्दू संगठन का कार्य, दलितोद्धार, बिछुड़े बन्धुओं की शुद्धि, निर्भीक साहसपूर्ण पत्रकारिता, अंग्रेजों के अन्यायकारी कार्यों का विरोध, प्रसिद्ध देशभक्तों व आर्यसमाज के विरुद्ध अंग्र्रेजों के मुकदमों आदि नाना कार्यों में अपना उल्लेखनीय योगदान किया। स्वामी श्रद्धानन्द संस्कृत-हिन्दी-अंग्रेजी-उर्दू के जानकार व सिद्ध लेखक भी थे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने अपनी आत्मकथा कल्याण मार्ग का पथिक की भूमिका में महर्षि दयानन्द के प्रति बहुत ही मार्मिक शब्दों का प्रयोग किया है जो हृदय को छूते हैं। उनके इस अनुपम श्रद्धा से युक्त शब्द-संग्रह को प्रस्तुत कर लेख को विराम देते हैं। वह लिखते हैं-ऋषिवर (दयानन्द) ! तुम्हे भौतिक शरीर त्यागे 41 वर्ष हो चुके (यह शब्द स्वामी जी ने सन् 1925 में लिखे थे), परन्तु तुम्हारी दिव्य मूर्ति मेरे हृदयपट पर अब तक ज्योंकीत्यों अंकित है। मेरे निर्बल हृदय के अतिरिक्त कौन मरणधर्मा मनुष्य जान सकता है कि कितनी बार (चरित्र से) गिरतेगिरते तुम्हारे स्मरणमात्र ने मेरी आत्मिक रक्षा की है। तुमने कितनी गिरी हुई आत्माओं की काया पलट दी, इसकी गणना कौन मनुष्य कर सकता है? परमात्मा के बिना, जिसकी पवित्र गोद में तुम इस समय विचर रहे हो, कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में प्रचलित कितने पापों को दग्ध कर दिया है? परन्तु अपने विषय में मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे सत्संग ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से उठाकर सच्चा जीवनलाभ करने के योग्य बनाया? मैं क्या था इसे इस कहानी में मैंने छिपाया नहीं। मैं क्या बन गया और अब क्या हूं, वह सब तुम्हारी कृपा का ही परिणाम है। इसलिए इससे बढ़कर मेरे पास तुम्हारी जन्मशताब्दी (सन् 1925 .) पर और कोई भेंट नहीं हो सकती कि तुम्हारा दिया आत्मिक जीवन तुम्हें ही अर्पण करूं। तुम वाणी द्वारा प्रचार करने वाले केवल तत्ववेत्ता ही थे परन्तु जिन सच्चाइयों का तुम संसार में प्रचार करना चाहते थे उनको क्रिया में लाकर सिद्ध कर देना भी तुम्हारा ही काम था। भगवान् कृष्ण की तरह तुम्हारे लिए भी तीनों लोकों में कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया था, परन्तु तुमने भी मानवसंसार को सीधा मार्ग दिखलाने के लिए कर्म की उपेक्षा नहीं की। भगवन् मैं तुम्हारा ऋणी हूं, उस ऋण से मुक्त होना चाहता हूं। इसलिए जिस परमपिता की असीम गोद में तुम परमानन्द का अनुभव कर रहे हो, उसी से प्रार्थना करता हूं कि मुझे तुम्हारा सच्चा शिष्य बनने की शक्ति प्रदान करे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन अनेक प्रेरणादायक घटनाओं से पूर्ण है। देश व जाति के सुधार के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व अर्पण किया। 23 दिसम्बर, 2015 को 89 वें बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धासुमन प्रस्तुत हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘महान आर्य संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

वैदिक धर्म एवं संस्कृति के उन्नयन में स्वामी श्रद्धानन्द जी का महान योगदान है। उन्होंने अपना सारा जीवन इस कार्य के लिए समर्पित किया। वैदिक धर्म के सभी सिद्धान्तों को उन्होंने अपने जीवन में धारण किया था। देश भक्ति से सराबोर वह विश्व की प्रथम धर्म-संस्कृति के मूल आधार ईश्वरीय ज्ञान ‘‘वेद के अद्वितीय प्रचारकों में से एक थे। शिक्षा जगत, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन, समाज व जाति सुधार, बिछुड़े हुए धर्म बन्धुओं की शुद्धि, दलितों के प्रति दया से भरा हृदय रखने वाले तथा उनकी रक्षा में तत्पर, आर्यसमाज के महान नेताओं में से एक, आदर्श सद्गृहस्थी, कर्तव्य पालन में अपना सर्वस्व व प्राण समर्पित वाले अद्वितीय महापुरुष थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा है कि जिसे जानकर प्रत्येक सात्विक हृदय वाला व्यक्ति उनका अनुयायी बन जाता है। महर्षि दयानन्द के बाद आर्यसमाज और देश में उनके समान गुणों वाला व्यक्ति उत्पन्न नहीं हुआ। प्रसिद्ध आर्य वैदिक संन्यासी स्वामी डा. सत्य प्रकाश सरस्वती ने उनसे सम्बन्धित अपने कुछ संस्मरणों को प्रस्तुत करने के साथ उनके कार्यों पर अपनी राय भी दी है। इसी पर आधारित हमारा यह लेख है।

 

सन् 1916 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अवसर पर लखनऊ में स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती ने महात्मा मुंशीराम  के दर्शन किए थे। 1914-15 में महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे और जनता में गांधी जी की लोकप्रियता बढ़ रही थी। नरम दल के नेता कांग्रेस से अलग हो गए थे और उन्होंने अपनी आल इण्डिया लिबरल फैडरेशन संघटित करना आरम्भ कर दिया था। गरम दल के व्यक्तियों के हृदय सम्राट् लोकमान्य तिलक जी थे। 8 अप्रैल, 1915 को गुरुकुल कांगड़ी में महात्मा मुंशीराम के आश्रम में मिस्टर गांधी आये और ‘‘महात्मा गांधी बन करके वहां से निकले। महात्मा मुंशीराम जी ने ही गांधी जी को गुरुकुल में पधारने पर पहली बार उनको महात्मा शब्द से सम्बोधित किया था, यह महात्मा शब्द इसके बाद आजीवन उनके नाम के साथ जुड़ा रहा। यही गांधी जी के महात्मा गांधी बनने का इतिहास है। सन् 1916 की कांग्रेस में स्वामी सत्यप्रकाश जी ने गांधी जी और मंुशीराम जी दोनों को राष्ट्रभाषा हिन्दी सम्बन्धी एक समारोह में देखा था। दोनों की वेशभूषा की रूपरेखा बराबर उनकी आंखों के समाने बनी रही, ऐसा उन्होंने अपने लेख में वर्णित किया है। तब वहां महात्मा मुंशीराम जी भव्य दाढ़ी, सुदृढ़ शरीर और गले के नीचे पीत वस्त्र तथा गांधी जी अपनी काठियावाड़ी पगड़ी, अंगरखा और नंगे पैर उपस्थित थे। इसके बाद स्वामी सत्यप्रकाश जी प्रयाग आ गये। वहां आर्यकुमार सभा के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानन्द जी आये थे और तब स्वामी सत्यप्रकाश जी ने उन्हें निकट से देखा। स्वामी श्रद्धानन्द जी को प्रयाग में नयी सड़क के एक दुमंजिले मकान में ठहराया गया था।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने यह भी वर्णन किया है कि 26 दिसम्बर 1919 को अमृतसर कांग्रेस में स्वामी श्रद्धानन्द स्वागताध्यक्ष थे और पं. मोतीलाल नेहरू अध्यक्ष। किम्वदन्ती है कि दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना–दोनों सहपाठी थे बनारस, इलाहाबाद, आगरा या बरेली में से किसी स्थान पर। महात्मा मुंशीराम जी की प्रारम्भिक शिक्षा बरेली में हुई, 1873 में उच्च शिक्षा क्वीन्स कालेज बनारस में, 1880 और पुनः 1888 में कानूनी शिक्षा लाहौर में। महात्मा मुंशीराम जी का नाम श्रद्धानन्द संन्यास के बाद पड़ा। संन्यास उन्होंने 12 अप्रैल 1917 को मायापुर (कनखल) में लिया था। स्वामी सत्यप्रकाश जी सन् 1915-16 में इन्द्र विद्वद्यावाचस्पति और पौराणिकों की बातें सुना करते थे, क्योंकि 1912-16 तक सनातन धर्म सभाओं की बड़ी धूम थी–ये सनातन धर्म सभाएं धीरे-धीरे निष्क्रिय हो गयीं।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने अपने संस्मरणों में बताया है कि सन् 1925 ई. में मथुरा में जो महर्षि दयानन्द जन्म शताब्दी मनायी गयी थी उसके अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द थे–तब तक उनका स्वास्थ्य गिर चुका था और महात्मा नारायण स्वामी जी वस्तुतः उस समारोह के कार्यकर्त्ता अध्यक्ष थे। आनन्द भवन में होने वाली कांगे्रस की बैठकों में 1922 ई. के बाद भी स्वामी जी इलाहाबाद कतिपय बार आये। 1921 ई. के अप्रैल मास में पं. मोतीलाल जी की पुत्री विजयलक्ष्मी के विवाह में भी स्वामी श्रद्धानन्द जी सम्मिलित हुए थे पर मोपला काण्ड (मालाबार, केरल) के बाद श्रद्धानन्द जी कांग्रेस से धीरे-धीरे अलग हो गये। स्वामी दयानन्द ने मृत्यु के समय आर्यसमाज का नेतृत्व किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं छोड़ा था। ईश्वर के भरोसे मानों वे चल दिये। 1883 ई. के बाद स्वयं ही आर्यसमाज में व्यक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन व्यक्तियों में श्रद्धानन्द का इतिहास ही आर्यसमाज का इतिहास है। इस युग के अन्य लोगों में महात्मा हंसराज, पं. गुरुदत्त, पं. लेखराम, लाला लाजपतराय, स्वामी दर्शनानन्द और स्वामी नित्यानन्द का भी अभूतपूर्व व्यक्तित्व था।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द ने इस शती के प्रथम पाद में भारत के इतिहास में मार्मिक भूमिका निभायी। आर्यसमाज में दयानन्द के बाद श्रद्धानन्द-सा दूसरा व्यक्ति देखने में नहीं आया। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी की 1924 ई. में प्रकाशित कल्याणमार्ग का पथिक आत्मकथा को पढ़ा, उनके पास उनका और गुरुकुल कांगड़ी में श्रद्धानन्द जी सहयोगी आचार्य रामदेव जी द्वारा सम्पादित आर्यसमाज एण्ड इट्स डिटैक्टर्स विण्डिकेशन प्रसिद्ध ग्रन्थ था। दुःखी दिल की पुरदर्द दास्तान उन्होंने नहीं पढ़ी। ( उर्दू में लिखित यह ग्रन्थ आर्यसमाज के आन्तरिक विग्रह की कष्ट कथा है।  इसका अनुवाद हरिद्वार निवासी हिन्दी कवि श्री सुमन्त सिंह आर्य ने किया है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। कुछ विद्वान इसमें समाहित आलोचनाओं के कारण इसके प्रकाशन की आवश्यकता नहीं समझते। हमारी अनुवादक महोदय से भेंट हुई है। उन्होंने बताया कि यह ग्रन्थ उन्होंने प्रकाशनार्थ आर्यविद्वान डा. महावीर अग्रवाल जी को दिया हुआ है।)। श्रद्धानन्द जी विषयक सबसे अधिक बातें स्वामी सत्यप्रकाश जी को स्वामी श्रद्धानन्द जी पर आस्ट्रेलियाई प्रो. जे.टी.एफ. जार्डन्स की पुस्तक से ज्ञात हुईं।

 

स्वामी सत्यप्रकाश जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी पर कई टिप्पणियां की हैं। वह लिखते हैं कि गुरुकुल के अनगिनत स्नातकों के कुलगुरु महात्मा मुंशीराम थे, न कि श्रद्धानन्द। मुंशीराम और श्रद्धानन्द तो दो अलग व्यक्तित्व हैं। मुंशीराम के रूप में वे महात्मा थे, गांधी के अत्यन्त निकट, गुरुकुलीय प्रणाली के उन्नायक, शिक्षा के क्षेत्र में अनन्य प्रयोगी तथा टैगोर की समकक्षता के शिक्षाशास्त्री। दूसरा उनका स्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द का रहा–सम्प्रदायवादिता मिश्रित राष्ट्र-उलझनों में फंसे हुए–कभी मालवीय के साथ, कभी महासभा के साथ, कभी उनसे दूर भागते हुए अत्यन्त विवादास्पद व्यक्तित्व, कभी-कभी निर्वाचनों की उलझनों में फंस जाने वाले व्यक्ति। उसका उन्हें पुरस्कार मिला–23 दिसम्बर, 1926 ई. को सायंकाल 4 बजे दिल्ली में अब्दुल रशीद की गोलियों से बलिदान । वे सदा के लिए अमर हो गए। अंग्रेजों की संगीनों के सामने छाती खोलकर खड़ा होने वाला वीर राष्ट्रभक्त संन्यासी श्रद्धानन्द का एक यह तेजस्वी रूप था। (महर्षि दयानन्द के बाद वैदिक धर्म के 7 मार्च, 1897 को एक विधर्मी आततायी द्वारा प्रथम शहीद पण्डित) लेखराम की पंक्ति में खड़ा कर देने वाला ऋषि दयानन्द का असीम भक्त अमर शहीद श्रद्धानन्द।

 

स्वामी श्रद्धानन्द ने गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना की और उसे अपने खून से सींचा। आज यह संस्था अपने मूल उद्देश्य व गौरवपूर्ण अतीत से दूर हो चुकी है। यह स्थिति हमें कई बार पीड़ा देती है। 23 दिसम्बर को स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान दिवस है। अतः इस अवसर पर उनके पावन जीवन चरित्र का अध्ययन कर अपने जीवन को सुधारा व पुण्यकारी बनाया जा सकता है। धर्म की वेदी पर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन चरित्र व उनके ग्रन्थों का अध्ययन कर ही उनको श्रद्धांजलि दी जा सकती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रायः सभी ग्रन्थों को श्रद्धानन्द ग्रन्थावली के नाम से लगभग 27 वर्ष पूर्व 11 खण्डों में प्रकाशित किया गया था। इसका नया भव्य एवं आकर्षक संस्करण दो खण्डों में विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली से इसी माह प्रकाशित किया गया है। हम पाठकों को इसे मंगाकर पढ़ने की संस्तुति करते हैं। आईये, स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन व कार्यों को जानकर उनसे प्रेरणा ग्रहण करें और वैदिक धर्म व संस्कृति की सेवा कर अपने जीवन को कृतार्थ एवं सफल करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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‘स्वामी श्रद्धानन्द का पावन चमत्कारिक व्यक्तित्व’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

 

स्वामी श्रद्धानन्द (1856-1926), पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम, महर्षि दयानन्द के प्रमुख शिष्यों में से एक थे जिन्हें अपने धर्मगुरू के शिक्षा सम्बन्धी स्वप्नों को साकार करने के लिए हरिद्वार के निकटवर्ती कांगड़ी ग्राम में आर्ष संस्कृत व्याकरण और समग्र वैदिक साहित्य के अध्ययनार्थ गुरूकुल खोलने का सौभाग्य प्राप्त है। आर्यसमाज के इतिहास में स्वामी श्रद्धानन्द और प्राचीन आदर्शों व मूल्यों पर आधारित शिक्षण संस्था ‘‘गुरुकुल कांगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान है। हम अनुमान करते हैं कि यदि स्वामी श्रद्धानन्द आर्यसमाज में न आये होते तो आर्यसमाज का इतिहास अपने उज्जवल स्वरुप से कुछ निम्नतर होता। स्वामीजी का 23 दिसम्बर 1926 को दिल्ली में बलिदान हुआ था। इस अवसर पर उनके महान व चमत्कारिक व्यक्तित्व को स्मरण करना प्रत्येक देशवासी, आर्य व ऋषिभक्त का पुनीत कर्तव्य है। आर्यजगत के विख्यात विप्र संन्यासी स्वामी वेदानन्द तीर्थ तीन अवसरों पर स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आये और उनके महान व्यक्तित्व से प्रभावित हुए। स्वामी श्रद्धानन्द जी विषयक उनके संस्मरणों को प्रस्तुत कर हम स्वामी श्रद्धानन्द जी की महानता और उनके चमत्कारिक व्यक्तित्व का परिचय इस लेख में दे रहें हैं। आशा है कि पाठकों को पसन्द आयेगा।

 

स्वामी वेदानन्द तीर्थ ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के प्रथम दर्शन लगभग सन् 1910 में किये थे। उस समय वह महात्मा मुंशीराम जी के नाम से विख्यात थे। आर्यसमाज के महात्मा विभाग वा घासपार्टी के उस समय वह एकमात्र नेता थे। उन दिनों आर्यजगत में उनकी ख्याति पूर्ण यौवन पर थी। जब स्वामी वेदानन्द जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के दर्शन किये तो उनकी भव्यमूर्ति, विशालकाय, सुदीर्घ शरीर संस्थान, नग्न सिर, सुन्दर दाढ़ी तथा पीले दुपट्टे ने उनके चित्त पर विचित्र प्रभाव डाला। संकोचवश इस भेट से पूर्व स्वामी वेदानन्द जी उनके सामने न जाना चाहते थे। वह समझते थे कि वे बड़े आदमी हैं और स्वामी वेदानन्द जी एक नगण्य लघुव्यस्क बालक से हैं। भला महात्मा मुंशीराम उनसे क्यों कुछ बातें करेंगे? स्वामी वेदानन्द जी का अनुमान था कि वह तो उनके अभिवादन प्रणाम-नमस्ते का प्रत्युत्तर भी न देंगे। वेदानन्द जी असंजस में थे कि तभी एक माननीय वृद्ध आर्य सज्जन ने उनसे कहा–‘‘हे ब्रह्मचारी जी ! महात्मा जी के दर्शन किये। स्वामी वेदानन्द जी ने उनसे कहा-‘‘नहीं, उन्हें भय लगता है। वह वृद्ध आर्य सज्जन हंसकर बोले ‘‘बिना देखे डरने लगे हैं। आप मेरे साथ चलिये। डर की कोई बात होगी, तो हम रक्षा करेंगे। स्वामी वेदानन्दजी उन वृद्ध सज्जन के उपहास मिश्रित व्यंग्य को समझ गये और साहस करके उनके साथ महात्मा जी के सामने चले गये। ज्यों ही महात्मा जी के उनको दर्शन हुए, उन्होंने तत्काल उनको प्रणाम किया। महात्मा जी ने बहुत प्रीति से उन्हें नमस्ते कह कर अपने पास बिठा लिया और उनका कुशल पूछकर उनसे बातें करने लगे। महात्मा जी के व्यवहार ने स्वामी वेदानन्द जी को मन्त्रमुग्ध कर दिया। इस व्यवहार से वह हैरान थे। बाद में उनकी समझ में आया कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के नेतृत्व का रहस्य उनका यही गुण था। वह किसी भी मनुष्य को तुच्छ समझते थे। 

 

स्वामी वेदानन्द जी ने लिखा है कि वह उस समय आर्यसमाज में नवप्रविष्ट थे। वह अपना भावी कार्यक्रम सोचने की चिन्ता में थे। उन दिनों उन्हें उत्साह एवं भय दोनों घेरे रहते थे। महात्मा मुंशीराम जी के प्रेम भरे प्रथम दर्शन ने उन्हें उत्साहित किया। स्वामी वेदानन्द जी को दूसरी बार सन् 1914 में महात्मा मुंशीराम जी के दर्शन करने का सौभाग्य गुरूकुल कांगड़ी में मिला जो उन दिनों गंगा पार कांगड़ी ग्राम में था। वह गुरुकुल कांगड़ी का वार्षिकोत्सव देखने वहां आये थे। गुंरूकुल पहुंच कर वह सीधे महात्मा जी की गंगा के तीर पर स्थित कुटिया जो उन दिनों बंगला कहलाती थे, गये। उस समय महात्मा जी कार्य में व्यस्त थे। वेदानन्द जी की आहट सुनकर उन्होंने उनके प्रणाम करने से पहले ही स्वयं उनको प्रेम से नमस्ते की। वेदानन्द जी उन दिनों संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो चुके थे। उनके काषाय वस्त्रों को देखकर उन्होंने पूछा ‘यह क्या?’ वेदानन्द जी ने उत्तर दिया, आप ऐसे बूढ़े जब संन्यासी हो तो अनुपात पूरा रखने के लिए मुझ जैसों को ही संन्यासी बनना पड़ता है। उनके इस वचन पर महात्मा जी खिलखिला कर हंस पड़े। बोले–भाई ! तुम्हारा उपालम्भ शीघ्र उतार देंगे। वेदानन्द जी लज्जावश चुप रहे। महात्मा जी ने उन्हें जलपान करा कर कहा-भोजन के समय जाना। मेरे साथ भोजन करना।

 

इस दूसरी भेंट पर टिप्पणी करते हुए स्वामी वेदानन्द जी ने लिखा है–मैं चकित था। मैं समझता था, तीनचार वर्ष पूर्व देखे हुए एक तुच्छ से व्यक्ति को ऐसा महान् महात्मा कैसे स्मरण रख सकता है। किन्तु देखते ही उनका मुझे मेरे पुरातन नाम से पुकारना, मेरा इतने दिनों का वृत्त पूछना, संन्यासी होने के हेतु की जिज्ञासाउनकी इन सारी बातों ने मुझे उनका भक्त बना डाला। वह आगे लिखते हैं कि ‘उस दिन मैं उनके आदेशानुसार भोजन के समय पहुंचा, मैं कुछ उलूलजुलूलसा आदमी हूं। मैं उत्सवमण्डप में जाकर गंगा तीर पर जिधर वह जा रही है, उधर ही चला गया। कुछ दूर जाकर मैं एक स्थान पर बैठ गया। मैं भोजन की बात भूल गया। मैं कोई चार बजे लौटा। मुझसे उनके सेवक ने कहा कि महात्मा जी को आज तुम्हारे कारण उपवास करना पड़ा है। मेरी आंखों में आंसू गये। साथ ही हृदय में भय का संचार भी हुआ। मैं चला उनसे क्षमा मांगने। जब सामने गया और हाथ जोड़ कर क्षमा मांगने लगा तो मेरे हाथ पकड़ कर कहने लगे–‘‘भाई ! उत्सव के दिनों में ऐसी गड़बड़ करो। मैं चुपचाप उनका मुख निहार रहा था। वहां मुझे क्रोध, क्षोभ दीखे। दिल ही दिल में मैंने उन्हें प्रणाम किया। अगले दिन उनका सेवक मुझे भोजन के समय पकड़ लाया। आज सोचता हूं, श्रद्धानन्द की महत्ता के हेतु की घटक ये छोटीछोटी घटनाएं ही है।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी भागलपुर में होने वाले हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति मनोनीत हुये थे। महामना मदनमोहन मालवीय जी ने उस सम्बन्ध में स्वामी वेदानन्द जी को उनकी सेवा में गुरुकुल भेजा और कहा कि उन्हें साथ ले आना। वेदानन्द जी गुरुकुल आकर उनसे मिले। श्रद्धानन्द जी उस दिन किसी कारणवश उनके साथ न जा सके। वेदानन्द जी को वापिस भेज दिया और अगले दिन भागलपुर के लिए रवाना हुए। बनारस छावनी रेलवे स्टेशन पर कई महानुभाव उनके दर्शनों के लिये आये थे। भागलपुर सम्मेलन दो-तीन दिन बाद था, अतः उनको बनारस में उतार लिया गया। उनके आने की सूचना मिलने पर ऋषिकुल के अधिकारी उनसे मिले। उस समय वह कुछ अस्वस्थ थे। ऋषिकुल के अधिकारियों द्वारा प्रार्थना करने पर उन्होंने उनके उत्सव में उपदेश करना स्वीकार कर लिया। ऋषिकुल के अधिकारियों के चले जाने के बाद वहां उपस्थित प्रसिद्ध देशभक्त बाबू शिवप्रसाद गुप्त जी ने कहा, आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, वहां भी आपको अधिक कार्य करना पड़ेगा, आप कहें तो मैं उन्हें निषेध कर भेंजू। इसके उत्तर में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कहा–वचन कैसे तोड़ा जाये और बाबूजी मुझ पर तो ब्रह्मचर्य प्रचार का भूत सवार है। मरते हुए भी इसका प्रचार करना चाहता हूं। स्वामी जी का ़ऋषिकुल में व्याख्यान हुआ। इस व्याख्यान ने ऋषिकुल की बिगड़ी व्यवस्था को संभाल दिया। बनारस में स्वामी श्रद्धानन्द जी के आतिथ्य का भार स्वामी वेदानन्द जी पर था। उन्होंने लिखा है कि ‘‘स्वामी श्रद्धानन्द जी प्रातः चार बजे उठकर शौचस्नान से निवृत्त होकर घंटा डेढ़ घण्टा ईश्वरोपासना किया करते थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी को महान बनाने में नियमित देर तक सन्ध्योपासना करना भी उनका एक मुख्य गुण था।

 

इस लेख का समापन हम स्वामी वेदानन्द जी द्वारा श्रद्धानन्द जी को दी गई श्रद्धाजंलि के शब्दों से कर रहे हैं। वह कहते हैं कि श्रीयुत स्वामी श्रद्धानन्द जी उन महामना मनुष्यघुरीणों में से थे, जो समय की उपज नहीं होते, अपितु समय को बनाया करते हैं। साधारणतया नेता लोकरुचि का प्रवाह देखकर उसमें वेग या प्रचण्डता पैदा करके ख्याति प्राप्त किया करते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द इसका अपवाद हैं। उदाहरण के लिए गुरुकुल स्थापना को ले लीजिए। जिस समय महात्मा मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी) ने इसकी स्थापना का संकल्प किया उस समय लोगों में इसके लिए कोई अनुकूल भावना थी, कदाचित् प्रतिकूल भावना भी जागृत थी। श्रद्धानन्द जी को सत्यार्थ प्रकाश से गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का एक माव मिला, उसको उन्होंने समय प्रवाह की परवाह करते हुए मूर्तरूप दे ही डाला। यह है उनकी काल निर्माण कुशलता, और इसी कारण वे असाधारण महापुरुषों की पंक्ति में समादृत हुए हैं और आचन्द्रदिवाकर होते रहेंगे।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी के विलक्षण व्यक्तित्व पर आर्यजगत के विख्यात विद्वान डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने स्वामी श्रद्धानन्दःएक विलक्षण व्यक्तित्व ग्रन्थ की रचना व सम्पादन किया है। यह ग्रन्थ आर्य प्रकाशक श्रीघूड़़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोनसिंटी से प्रकाशित एवं उपलब्ध है। इस ग्रन्थ व उसमें अनेक महत्वपूर्ण लेखों सहित स्वामी वेदानन्द तीर्थ का संस्मरणात्मक लेख दने के लिए हम डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी का आभार व्यक्त करते हैं। स्वामीजी ने अपने जीवनकाल में आर्यसमाज को नेतृत्व प्रदान करने के साथ विश्व विख्यात गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना व संचालन किया, वह महान देशभक्त एवं देश की आजादी के आन्दोलन के प्रमुख नेता थे, शुद्धि व जाति तोड़क आन्दोलन के प्रणेता सहित धर्मोपदेशक, समाज सुधारक, साहित्यकार, पत्रकार, लेखक और दलितों के मसीहा थे। उनको हमारा शत् शत् प्रमाण।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह के 74 वें बलिदान दिवस पर – चन्दराम आर्य

 

पिछले अंक का शेष भाग…..

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उन्नीस दिन के अनशन से गोचर भूमि छुड़वानाः- आपको गोमाता से बड़ा प्यार था। सन् 1928 में गुरुकुल के लिए चन्दा करने के लिए जीन्द जिले के ललत खेड़ा गाँव में जाना पड़ा । वहाँ दिन में भी गायों को घरों में बन्धा देखा तो बड़े दुःखी हुए। गाँव वालों ने पूछने पर बताया कि गायों को घूमने के लिए गोचर भूमि नहीं है। आपने गाँव के व्यक्तियों को एकत्रित करके कहा कि ‘‘आप भूमि का लोभ न करें गायों के लिए गोचर भूमि छोडें, जिससे ये चल-फिरकर निरोग रह सकें। परन्तु लोग नहीं माने तो आपने पंचायत के सामने घोषणा की – सुनो, मेरे प्यारे भाइयों , तुम गोचर भूमि को नहीं छोड़ते हो तो मैं अपने जीवन को छोड़ने की तैयारी करता हूँ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं तब तक अन्न ग्र्रहण नहीं करुंगा जब तक आप गायों के लिए गोचर भूमि नहीं छोड़ते हैं। आपका अनशन उन्नीसवें दिन पहुँच गया। ’’ शारीरिक रूप से अत्यन्त दुर्बल हो गये। आपको बेहोशी रहने लगी। गाँव के लोगों ने परस्पर समझाते हुए कहा ‘‘भाइयों , भक्त जी को बचाओ। अनशन के कारण भक्त जी की मृत्यु हो गई तो हम तो मुँह दिखाने के योग्य भी नहीं रहेंगे।’’ सबने मिलकर आपके पास आकर कहा ‘‘महाराज, दया करो, अपने इस व्रत को छोड़ो, गोचर के लिए आप जितनी जमीन कहेंगे उतनी जमीन छोड़ देगें। भक्त जी ने सबका धन्यवाद किया। गांव वालों ने गोचर केलिए जमीन छोड़ दी।

धर्म-विमुख बन्धुओं को हिन्दू धर्म में लाने के लिए ग्यारह दिन का अनशनः- जिसके धारण करने से मनुष्य जीवन प्रगति की ओर बढ़ता रहे उसे धर्म कहतेहैं। जो आत्मा से प्रतिकूल हो उसे दूसरे केलिए न करना धर्म है। जिस काम से अन्यों केा दुःख हो उसे अधर्म तथा पाप कहते हैं। संसार में वैदिक धर्म सबसे प्राचीन है। परन्तु इसमें शिथिलता आने के कारण अनेक सप्रदायों ने जन्म लिया। जो एक दूसरे को नीचा दिखाने लगे। गुडगांव जिले के होडल व पलवल गांव के जाट जो आर्य थे वे मुस्लिम धर्म में दीक्षित हो गये और मूले जाट कहलाये। आर्य समाज का प्रचार सुनकर वे पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित होना चाहते थे। परन्तु विवाह आदि सबन्ध भी आर्य जाट उनसे कर लें। आप अपने पण्डितों और साथियों समेत वहाँ पहुचे। परन्तु वहाँ का जैलदार नहीं माना। आपने उस बाधा केा रोकने केलिए 11 (ग्यारह) दिन का अनशन किया चौधरी छोटूराम जी के समझाने पर आपने अनशन समाप्त किया। परन्तु श्ुाद्धि का कार्य जारी रखा।

सबन्धी बनकर शुद्धि को प्रोत्साहनः- सन् 1929 में केहर सिंह नामक युवा को पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया। प्रसिद्ध आर्य समाजी श्री गिरधारी लाल जी मटिण्डू ने उस नवयुवक से अपनी पुत्री का वाग्दान किया। इस विवाह में गठवाला गोत भाती बनकर उपस्थित हुआ। इस सारे कार्य के सूत्रधार भक्त जी ही थे। गठवाला गोत के दादा चौधरी घासी राम जी हाथी पर सवार होकर भात के लिए 1600 रुपये लेकर दलबल सहित विवाह में धूमधाम से पहुँचे। वह दृश्य अद्भूत था और देखते ही बनता था। इससे सारी खापें प्रेम के कारण एक रूप बन गई थी।

जीवन त्याग की शिक्षा से दो कुटुबों की रक्षाः- जागसी गांव में एक बार दो कुटुबों में परस्पर विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि एक कुटुब ने दूसरे कुटुब के आदमी को मार दिया। अब जिस कुटुब का व्यक्ति मारा गया वह भी बदला लेने का निश्चय कर चुका था। आषाढ़ी की खेती खेतों में पकी पड़ी थी। गाँव वाले अपनी-अपनी खेती काटकर खलिहानों में डाल चुके थे। परन्तु उन दोनों परिवारों की खेती उजड़ रही थी। किसी व्यक्ति ने आपको यह घटना सुनाई तो आप तो नर्म दिल थे। आप जागसी गाँव पहुँचे। जिस व्यक्ति ने दूसरे कुटुब का व्यक्ति मारा था आप उसके पास पहुँचे और पूछने लगे भाई-‘‘तुम अपना तथा अपने परिवार का सुख चाहते हो तो सब दुःख मुझे बताओ।’’ यह सुनकर उस व्यक्ति ने सारी घटित-घटना कह सुनाई। उसकी बात सुनकर आपने कहा ‘‘भाई मैं जो कहता हूँ वह सुनो और उस पर आचरण करो। वह यह है कि तुम मरने वाले के भाई के पास जाकर उससे कहो कि भाई, मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई है। अतः तुम अपने हाथों से मुझे मार डालो। यदि इससे तुमको सन्तोष न मिले तो हमारे जितने व्यक्तियों के मारने से तुझे आत्म सन्तोष हो उतने मैं आपके पास भेज दूँगा। उनको मारकर शान्ति लाभ करो। आपकी बात का इतना प्रभाव पड़ा कि वह अकेला उस मरने वाले के भाई के पास गया और उसके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। इसके  बाद उसने कहा भाई मुझ से भूल हो गई है तुम उस भूल का दण्ड मुझे मार कर दो। यदि इससे आपको सन्तोष न हो तो मेरा सारा परिवार आपके चरणों में है। यह कहकर वह बालक की तरह रोने लगा जब उसने अपने विरोधी के अहंकार विहीन, विनम्र शब्द सुने तो वह द्रवित हो गया। उसने उसे चरणों से उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। वह उससे बोला भाई। मेरा सारा दुःख दूर हो गया। आज से तुम मेरे अपने भाई हो। दोनों कुटुब वालों ने आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की।

रोहतक में गोरक्षा समेलन में पं. मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में आर्य समाज की ओर से गोरक्षा का अद्भुत एवं सफल समेलन किया जिसके आप स्वागताध्यक्ष थे। आपको मालवीय जी के साथ हाथी पर बैठने का आग्रह मालवीय जी व आर्यजनों ने किया। परन्तु आप आर्य जनों के साथ पैदल ही चलते रहे।

यवनों से अपहृत कन्या को वापिस लानाः- एक दिन भक्त जी गुरुकुल में बैठे गुरुकुल की आर्थिक दशा को ठीक करने के विषय में गुरुकुल वासियों से मन्त्रणा कर रहे थे। उस समय घबराया हुआ एक व्यक्ति आपके पास आया। रोता हुआ वह आपके पाँवों में गिर पड़ा । उसको धैर्य बन्धाते हुए आपने कहा बताओं मुझसे क्या चाहते हो? मैं तुहारी यथाशक्ति सहायता करुँगा, उसने कहा मेरा नाम नेकीराम है। मै सिरसा जांटी गाँव का रहने वाला हूँ। मेरी पोती को मेरे विरोधियों ने उठवा लिया है। वह अब गूगाहेड़ी के मुसलमान राजपूतों के पास है। मैं कई बार लेने गया परन्तु उन्होंने नहीं दी। भक्त जी ने सारी बात सुनकर कहा तुम जाओ तुहारी पोती तुमको मिल जायेगी। इसके बाद आपने निदाना और फरमाना गाँव की पंचायत की तथा पंचायत में कहा, ‘‘भाइयो, गरीब जाट की लड़की यवन रांग्घड़ राजपूत जबरदस्ती अपने गाँव गुगाहेडी में रोके हुए हैं।’’ पंचायत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने दबाव देकर गुगाहेडी के रांग्घड़ राजपूतों से कहा यह जांटी गांव की लड़की वापिस कर दो नहीं तो अब तुम अपनी लड़कियों की खैर मनाना। इस धमकी के दबाव में आकर वह लड़की उस पंचायत को रांगघड राजपूतों ने सौंप दी और वह लड़की का दादा नेकीराम भक्त जी तथा उन सबका धन्यवाद करके अपनी पोती को प्रसन्नता पूर्वक साथ ले गया।

कन्या गुरुकुल खानपुर की 1936 में स्थापनाः- उस समय कन्याओं को पढ़ाना गांव वाले आवश्यक नहीं मानते थे। फिर भी भक्त जी ने घर-घर जाकर कन्याओं को पाठशाला में भेजने को कहना पड़ा। सत्रह छोटी-छोटी कन्याओं के साथ पाठशाला प्रारभ की अब तो महाविद्यालय के साथ-साथ विश्वविद्यालय बन गया है।

मानापमान का भाव न रखकर विरोधी की भी सेवा करनाः- भैंसवाल गाँव में आर्य समाज का उत्सव था। उसमें भक्त जी भी गुरुकुल के ब्रह्मचारियों व अध्यापकों सहित उपस्थित हुए। ग्राम वालों ने चौधरी लहरी सिंह को भी आमन्त्रित किया हुआ था। भक्त जी ने चुनाव में चौ. टीकाराम जी का साथ दिया था और चौ. लहरी सिंह का विरोध किया था। इससे चौ. लहरी सिंह भक्त जी को अपना विरोधी मानते थे। गर्मी के दिन थे। बहुत गर्मी थी सब पसीने से भीग रहे थे। चौ. लहरी सिंह भी गर्मी से परेशान थे। भक्त जी चौधरी लहरी सिंह के पास जाकर हाथ के पंखे से हवा करने लगे। पंखे की हवा से आनन्द की अनुभूति होने पर जब चौ. लहरी सिंह ने ऊपर क ी और देखा तो आश्चर्य में पड़ गये कि भक्त जी उन पर हवा कर रहे हैं । आपके हाथ से पंखा लेकर स्वयं हवा करते हुए कहने लगे, भक्त जी आप बहुत महान पुरुष है जो मानापमान को भुला देते हैं।

रोहतक में हैदराबाद सत्याग्रह समिति का प्रधान बन कर सफल नेतृत्वः- हैदराबाद निजाम की धर्मविरोधी नीतियों का प्रतिकार करने केलिए सार्वदेशिक सभा के तत्कालीन प्रधान महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व में सन् 1939 में सत्यागृह का बिगुल बजा। हरियाणा में भी इस सत्याग्रह में समिलित होने केलिए उत्साही आर्य युवकों व पुरुषों ने रोहतक आर्य सत्याग्रह समिति का सर्वसमति से आपको प्रधान चुन लिया। आपने गुरुकुल के प्रथम शिष्य आचार्य हरीशचन्द्र के नेतृत्व में पहला जत्था भेजा। दूसरा जत्था स्वामी ब्रह्मानन्द जीके नेतृत्व में भेजा इसमें गुरुकुल के स्नातक, अध्यापक ब्रह्मचारियों व ग्रामीण तथा शहरी जनता ने अपना तन-मन-धन से पूर्ण सहयोग दिया यह युद्ध छः मास तक चला।

दलितों का कुआँ बनवाने केलिए 23 दिन का कठोर अनशनव्रतः- सन् 1940 की बात है कि आप एक दिन प्रातः काल के समय वट-वृक्ष के नीचे कन्या गुरुकुल खानपुर में समाधिस्थ हुए बैठे थे। ईश्वर का गुणगान करते हुए जब आपने आँखे खोली तो आपको सामने प्रतीक्षा करते हुए चार व्यक्ति दिखाई दिए। जब आपने उनकी और दृष्टि घुमाई तो उन चारों व्यक्तियों ने आपके चरण पकड़ कर रो-रोकर आँसुओं से आपके पाँव धो डाले। आपके पूछने पर उन्होंने बताया कि हम मोठ गाँव के  रहने वाले चमार हैं। हम कुएं के जल के बिना बड़े तंग हैं। हमने गाँव के  जमीदारों से इजाजत लेकर कुआं बनाना प्रारभ किया। कुएं में नीमचक भी डाल दिया। किसी के बहकावे में आकर मुसलमान रांघड़ों ने कूएं में डाला हुआ नीमचक निकाल कर बाहर फेंक दिया और हमको डराया धमकाया। हमने बार-बार हाथ जोड़कर  प्रार्थना की परन्तु वे टस से मस नहीं हुए। हमको किसी ने सुझाया कि आप हरियाणे के सन्त भक्त फूलसिंह जी के पास जाओ, वे तुहारे दुःख का निवारण करेंगे। अतः अब हम आपके श्री चरणों में उपस्थित हुए हैं। उनकी बात सुनकर उनको धैर्य बन्धाते हुए आप ने कहा मैने आपकी बात सुन ली, आपके  कष्ट को दूर करने का मैं यथोचित उपाय करुंगा। सोच विचार करने के बाद आप जीन्द से असेबली के सदस्य चौधरी मनसाराम जी को साथ लेकर मोठ गाँव में पधारे। आपने गांव की पंचायत बुलाई और उनके सामने चमारों के कुएं की बात करते हुए कहा ‘‘भाइयो मैं साधु आप लोगों से यह भिक्षा मागंने आया हूँ कि आप पहले की तरह इन भाइयों को कुअां बनाने की आज्ञा प्रदान करें। ये गरीब हैं आप मालिक है। आपकी दया से जब ये कूएं का जल पान करेंगे तो आपको आशीष देंगे। इस समय एक बूढ़े मुसलमान रांग्घड ने उन युवा यवनों की और संकेत करके कहा कि लड़कों तुम इस चमारों के बाबा को पकड़ो और दूर जंगल में छोड़ आओ यहाँ खड़ा-खड़ा तो यह यूं ही बक बक करता रहेगा।’’ वे नवयुवक आपको तथा आपके साथी मनसाराम जी को पकड़ कर अलग-अलग रास्तों से जंगल में दूर छोड़ आये। उस समय रात के ग्यारह बजे थे । वे आपको गालियाँ देते हुए घसीटते हुए मखौल उड़ाते हुए बाल नोचते हुए मारते -पीटते हुए अधमरा करके कहीं जंगल में पटक कर आये थे। गर्मी का मौसम था, भूख प्यास से संतप्त आप पृथ्वी पर पड़े जीवन  की अन्तिम घडियाँ गिन रहे थे तभी वहीं से होकर एक लालाजी दूसरे गाँव में जा रहे थे। तब उस लाला ने देखा कि एक साधु लबी-लबी श्वासें ले रहा है। वह आपके पास गया और आपको कहीं से लाकर पानी पिलाया आपकी दयनीय दशा को देखकर लाला जी ने हाथ का सहारा देकर आपको उठाया तथा पास की ढाणी गाँव में छोड़कर चला गया। गाँव वालों ने आपकी सेवा की और आपकी इच्छानुसार नारनौंद गाँव में पहुँचा दिया। उधर से श्री मनसाराम जी भी जंगल में आपको ढूंढते हुए नारनौंद गाँव में पहुँचे । आपने श्री मनसाराम जी के आते ही इतना कष्ट पाकरभी अनशन व्रत प्रारभ कर दिया । आपके इस अनशन की पांचवें दिन गुरुकुल भैंसवाल तथा कन्या गुरुकुल खानपुर में सूचना पहुँची। सूचना मिलते ही गुरुकुल से चौधरी स्वरूपलाल, आचार्य हरीशचन्द्रजी, आचार्य विष्णुमित्रजी, श्री अभिमन्यु जी बहन सुभाषिणी जी, गुणवती जी अपने छात्र-छात्राओं सहित नारनौद गाँव पहुँचे। इस अवसर पर आपके अनशन व्रत की समाप्ति के लिए आर्य समाज के सर्वस्व स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज, स्वामी ब्रह्मानन्दजी, सेठ जुगलकिशोर जी बिड़ला, श्री वियोगी हरि, चौधरी सूरज मल जी, हिसार, चौ. टीकारामजी सोनीपत, चौ. माडूसिंह जी रोहतक, चौधरी छाजूराम जी जज देहली, चौधरी अमीलालजी रईस सिसाह, चौ. शादीरामजी योगी सोनीपत, दादा घासीराम जी अहुलाना चौधरी जानमुहमद मेयर रोहतक नगर, चौधरी शाफे अली गोहना, चौ. मुत्यार सिंह जी पलवल आदि पहुँचे। अनशन व्रत को समाप्त करवाने के लिये सेठ छाजूराम जी अलखपुरा का कलकता से तार आया। महात्मा गाँधी का भी तार आपको मिला कि अनशन समाप्त कर दें। चौधरी छोटूराम जी ने भी पत्र द्वारा आपको अनशन व्रत तोड़ने की प्रार्थना की । आपको उपवास करते हुए जब 19 दिन हो गये बहुत समझाने पर भी दुराग्रह यवन नहीं माने और अनशन के कारण आपका शरीर बिल्कुल निर्बल हो गया, तब चौधरी छोटूराम जी मन्त्री पंजाब सरकार ने डी.सी. हिसार के नाम एक तार भेजा जिसमें चौधरी साहब ने लिखा कि तुरन्त मोठ में कुआं बनवाया जावे। कुआं भक्त जी की इच्छानुसार बने। जो इस कार्य में रुकावट डाले उसका कठोरता से दमन किया जाये। माननीय मन्त्री जी की आज्ञा मिलते ही डी.सी. ने भक्त जी के पास सूचना भेजी की आप कुआं बनवा लें। कोई भी इसमें रुकावट नहीं डालेगा। यह जिमेदारी मेरी है। आपकी इच्छानुसार तीन दिन में कुआं बनकर तैयार हो गया। जब कुआं बनकर तैयार हो गया तो आपको सूचना भेजी गई। आपने अपने परम विश्वासपात्र चौ. रामनाथ माजरा और चौ. नौनन्द सिंह जी को अपनी तसल्ली के लिए कुएं पर भेजा। उनके बताने पर कि कु आं तैयार हो गया तो आप बहुत प्रसन्न हुए। आपको कुएं पर ले जाने के लिए रथ सजाया गया। आर्य जयघोषों के साथ आपको उस रथ में बिठाया गया। आपके रथ के पीछे सहस्रों नर-नारियाँ पैदल चलकर जयघोषों के साथ आपको आनन्दित कर रहे थे। पतिव्रता देवियाँ दूर से ही सिर झुका-झुकाकर आपको प्रणाम कर रही थी। शरीर से निर्बल हुए जब आप शनैः शनैः लोगों का सहारा लेकर कुएं पर पहुँचे तो वह दृश्य रोंगटे खड़े करने वाला था। आपके शरीर की अतिक्षीणता को देखकर कतिपय भक्त तो वहाँ पर रोने लगे। कुएं पर पहुँचकर आपने एक हरिजन भाई से उसी कुएं का पानी खिंचवाया तथा उस जल का पान किया। उस समय हमारे चमार भाई कितनी कृतज्ञता भरी दृष्टि से आपको देख रहे थे, इसको तो वे ही समझ सकते हैं। जिस युवक ने आपको धक्का देते हुए मोठ गाँव से बाहर निकालते हुए दुःख दिया था वह अब आपका परम भक्त बन गया था, उसने स्वयं अपने हाथ से सन्तरे का रस निकाल कर आपको पिलाया। इतना ही नहीं वह आपके चरणों में गिरकर रोता हुआ क्षमा याचना करने लगा। आपने उसे चरणों से उठाकर अपने गले लगा लिया। इसके बाद स्वास्थ्य लाा के उपरान्त आर्य सार्वदेशिक सभा के तत्वाधान में दिल्ली में आपका भव्य स्वागत किया गया। ठीक ही कहा है-

‘‘सेवा धर्मः परम गहनो योगीनाममप्यगयः।’’

लोहारु काण्डः- सन् 1940 की घटना है। हैदराबाद के निजाम की तरह लोहारु का मुसलमान शासक हिन्दुओं पर तो अत्याचार करता थाऔर मुसलमानों को अधिक अधिकार देकर उनका साहस बढ़ाता था। लोहारु आर्य समाज के मन्त्री ठाकुर भगवान सिंह जी को तो उसने बहुत कष्ट दिये थे। ठाकुर जी आर्य नवयुवक थे। उन्होंने अपनी सहायता के लिए भक्त जी के पास जाना उपयुक्त समझा। समय निकालकर वह स्वयं भक्त जी के पास पहुंचा। भक्त जी ने सहानुभूतिपूर्वक उनकी सारी कष्ट कहानी सुनी। ठाकुर जी को आश्वस्त कर आप स्वयं नवाब से मिलने के लिए गये आपने नवाब को आर्य समाज के प्रचार की सपूर्ण समाज के हित की बातें प्रेम-पूर्वक समझाई। आपकी बातों के उत्तर में नवाब ने कहा कि आपकी बातों से मैं सहमत हूँ। आप आर्य समाज का उत्सव कीजिए उसमें मैं भी समिलित होऊँगा।

सन् 1941 के अप्रैल मास में आर्य समाज लोहारु का उत्सव रखा गया। यह उत्सव आर्य प्र्रतिनिधि सभा पंजाब की ओर से श्रीयुत स्वामी स्वतन्त्रानन्द के नेतृत्व में होना निश्चित हुआ। पण्डित समर सिंह जी वेदालंकार महोपदेदशक व चौ. नौनन्दसिंह अपनी-अपनी भजनमण्डली के साथ उत्सव में पधारे। आप सबके लोहारु पहुंचने पर सबसे पहले जलूस निकालने काआयोजन किया गया। आपने बहुत रोका परन्तु नवयुवकों के जोश के आगे आप चुप हो गये। जलूस में सबसे आगे पूज्य स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी, आप, चौ. नौनन्द सिंह व चौधरी गाहड़ सिंह थे। जलूस जैसे ही नगर के अन्दर पहुँचा तो वहाँ पहले से ही लड़ने के लिए नवाब के सिपाही तैयार खड़े थे। उन्होंने आप सब पर लाठियों से प्रहार करने शुरु कर दिये। प्रहारों से भक्त जी तथा नौनन्द सिंह जी वहीं मूर्छित होकर गिर पड़े आपको 24 घण्टे बाद होश आया। इतना ही नहीं नवाब ने आपको तथा नौनन्द सिंह जी को अपराधी बना दिया । जब यह सूचना गुरुकुल भैंसवाल पहुँची तो वहाँ के अधिकरी गण गुरुकुल से चलकर हिसार के डी.सी. महोदय का पत्र लेकर दादा घासी राम जी श्री स्वरूपलाल जी, श्री हरिशचन्द्र जी, श्री योगेन्द्र सिंह जी लोहारु स्टेट में पहुँचे। वहाँ वे नवाब से मिले और आपको मुक्त करा कर आपका इलाज कराने केलिए इरविन अस्पताल दिल्ली ले गये। आपको स्वास्थ्य लाभ करने में दो मास लग गये। तब आपकी वीरता, धीरता एवं निर्भयता की ूारि-भूरि प्रशंसा की गई।

बलिदानः- बार-बार के अनशनों, व्रतों जलूसों पर लाठी प्रहारों से आपका शरीर काफी दुर्बल होता जा रहा था। दोनों संस्थाओं के संचालन का भार भी काफी बढ़ रहा था। गुरुकुल खानपुर का अधूरापन भी आपको अखर रहा था। इसके अतिरिक्त आपके शुद्धि कार्य से मुसलमान भी आपसे अप्रसन्न हो कर आपके विरोधी बन गये थे। वे आपको मारने के अवसर की तलाश में थे। आपने अपने प्रेमियों से कहना प्रारभ भी कर दिया था कि आप मेरा सहारा छोड़कर इन संस्थाओें को सभालो। भक्त जी महाराज के ये आप्त शब्द थे। 14 अगस्त सन् 1942 तदनुसार श्रावण बदी द्वितीया सवत् 1999 को रात्रि के 9 बजे आप अपने श्रद्धालुओं के साथ भगवत् ध्यान में लीन थे। उस समय बैट्री हाथ में लिये 5 यवन घातक सिपाही के वेश में एक बन्दूक और दो पिस्तोलों के साथ आ धमके। उन नराधमों ने भक्त जी के मुख पर बैट्री से प्रकाश डालते हुए कड़ककर कहा, कि तुम यहाँ फौजी भगोड़ों को रखते हो, तुम सरकार से गद्दारी करते हो। उनकी बात सुनकर भक्त जी महाराज ने कहा, यहाँ कोई फौजी भगोड़ा नहीं है यह स्थान तो लड़कियों के पढ़ने का है। आप हम पर पूर्ण विश्वास करें। उन नराधमों ने भक्त जी क ो दाढ़ी से पहचान लिया फिर उनमें से एक ने आप पर बैट्री का प्रकाश डाला तथा दूसरे ने पिस्तौल के तीन फायर किये। गोली लगी। आपका सिर खाट के नीचे लटक गया। मानों मारने वाले शत्रु को भी प्रणाम कर रहा हो। मुख से ओ3म् निकला पास बैठे असहाय प्र्रेमियों के मुख से आह निकली। आप अपने शरीर का मोह त्याग कर परम पिता परमात्मा की सुन्दर गोद में जा विराजे। जैसा कि आपका जीवन वीरता से भरा था वैसे ही आपकी मृत्यु भी वीरता से हुई।

मरना भला है उसका जो जीता है अपने लिए,

जीता वह है जो मर चुका परोपकार के लिए,

हमदर्द बनकर दर्द न बांटा तो क्या जिए,

कुछ दर्द दिल भी चाहिये इंसान के लिए

अन्य भी कहा हैः-

जीने वाले ऐसे जी, मरने वाले ऐसे मर,

कुछ सबक दे जाय, तेरी जिन्दगी भी मौत भी।

– 1325/38, ‘ओ3म् आर्य निवास’, गली नं. 5, विज्ञान नगर, आदर्श नगर, अजमेर। दूरभाष-09887072505

‘देश के लिए मर मिटने वाले देशभक्त मृत्युंजय भाई परमानन्द’ -मनमोहन कुमार आर्य

ओ३म्

4 नवम्बर 140 वीं जयन्ती पर

स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में भाई परमानन्द जी का त्याग, बलिदान व योगदान अविस्मरणीय है। लाहौर षड्यन्त्र केस में आपको फांसी की सजा दी गई थी। आर्यसमाज के  अन्तर्गत आपने विदेशों में वैदिक धर्म का प्रचार किया। इतिहास के आप प्रोफैसर रहे एवं भारत, यूरोप, महाराष्ट्र तथा पंजाब के इतिहास लिखे जिन्हें सरकार ने राजद्रोह की प्रेरणा देने वाली पुस्तकें माना। देशभक्ति के लिए आपको मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई जो बाद में कालापानी की सजा में बदल दी गई। श्री एण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासों से आप कालापानी अर्थात् सेलुलर जेल, पोर्ट ब्लेयर से रिहा हुए और सन् 1947 में देश विभाजन से आहत होकर संसार छोड़ गये। भारत माता के इस वीर पुत्र का जन्म पश्चिमी पंजाब के जेहलम जिले के करयाला ग्राम में 4 नवम्बर 1876 को मोहयाल कुल में भाई ताराचन्द्र जी के यहां हुआ था। महर्षि दयानन्द जी के बाद वैदिक धर्म के प्रथम शहीद पं. लेखराम, स्वतन्त्रता सेनानी खुशीराम जी जो 7 गोलियां खाकर शहीद हुए तथा लार्ड हार्डिंग बम केस के हुतात्मा भाई बालमुकन्द जी की जन्म भूमि भी पश्चिमी पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान की यही झेलम नगरी थी। भाई बालमुकन्द और भाई परमानन्द जी के परदादा सगे भाई थे। भाई मतिदास भी भाई परमानन्द के पूर्वज थे जिन्हें मुस्लिम क्रूर शासक औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चैक में आरे से चिरवाया था। उनके वंशजों को भाई की उपाधि सिक्खों के गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी ने देते हुए कहा था कि दिल्ली में हमारे पूर्वजों का खून मतिदास जी के खून के साथ मिलकर बहा है इसलिए आप हमारे भाई हैं।

 

आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने सन् 1877 में पंजाब में वैदिक धर्म का व्यापक प्रचार किया था। उनके भक्त अमीचन्द की पंक्तियां – दयानन्द देश हितकारी, तेरी हिम्मत पे बलिहारी पंजाब के गांव-गांव में गूंज रही थी। ऐसे वातावरण में आप बड़े हुए। प्राइमरी तक की भाई परमानन्द की शिक्षा करयाला गांव में हुई। इसके बाद चकवाल के स्कूल में आपका अध्ययन हुआ। कुशाग्र बुद्धि भाई परमानन्द यहां अपने शिक्षकों के प्रिय छात्र बनकर रहे। लगभग 14 वर्ष की आयु में आपकी माता मथुरादेवी जी का देहान्त हो गया। पौराणिक पण्डित के अन्धविश्वासपूर्ण कर्मकाण्ड को देख व अनुभव कर आपने पौराणिकता छोड़ कर आर्यसमाज को अपनाया। प्रसिद्ध दयानन्दभक्त गीतकार अमीचन्द तथा रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी पश्चिमी पंजाब में आपके निकटवर्ती थे। इन दोनों आर्य प्रचारकों का आप पर विशेष प्रभाव था। चकवाल में आपने आर्यसमाज की स्थापना भी की।

 

सन् 1891 में आप लाहौर आये तथा सन् 1901 में एम.ए. करके आपने मैडिकल कालेज में प्रवेश लेकर चिकित्सक बनने का विचार किया। दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक स्कूल व कालेज के मुख्य संस्थापक महात्मा हंसराज की प्रेरणा से आपने अपना यह विचार बदल कर दयानन्द कालेज, लाहौर का प्राध्यापक का पद ग्रहण कर लिया। इस कालेज का आजीवन सदस्य बनकर आपने 75 रुपये मासिक के नाममात्र के वेतन पर अपनी सेवायें डी.ए.वी. कालेज को प्रदान की जबकि आपको अन्यत्र कार्य करके अधिक वेतन मिल सकता था। युवावस्था में तपस्या का कठोर व्रत लेकर आपने जीवन भर उसका पालन किया। राजनीति में प्रवृत्त नेतागण हिन्दुओं के उचित हितों की बात करने वाले को साम्प्रदायिक मानते हैं। ऐसे लोगों से आपकी तालमेल नहीं बैठी। उचित अनुचित बातों को आप यथातथ्य प्रकट करते थे। हिन्दू हितों के विरोधियों को आप कहा करते थे‘‘अमर हमदर्दी निशानी कुफ्र की ठहरी। मेरा इमान लेता जा, मुझे सब कुफ्र देता जा।

 

आपका निवास लाहौर में भारत माता मन्दिर की तीसरी मंजिल पर था। सरकार को आपकी गतिविधियों पर शुरू से ही शक था। इस कारण पुलिस ने एक बार आपके निवास की तलाशी ली। आपके सन्दूक से शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह द्वारा लिखी हुई स्वतन्त्र भारत के संविधान की प्रति तथा बम बनाने के फार्मूले का विवरण बरामद हुआ। इस कारण आपको बन्दी बना लिया गया। श्री रघुनाथ सहायक जी वकील के प्रयास से आप 15 हजार रुपये की जमानत पर रिहा हुए। अभियोग में आप पर देश-विदेश में विदेशी शासन के विरुद्ध प्रचार का आरोप लगाया गया था। 22 फरवरी 1915 को लाहौर षड्यन्त्र केस में आप पुनः बन्दी बनाये गये थे। 30 सितम्बर, 1915 को विशेष ट्रिब्यूनल ने आपको फांसी का दण्ड सुनाया। आपकी पत्नी माता भाग सुधि, श्री रघुनाथ सहाय वकील तथा महामना मदनमोहन मालवीय जी के प्रयासों से 15 नवम्बर 1915 को फांसी का दण्ड दिये गये 24 में 17 अभियुक्तों की सजा को आजीवन कालापानी की सजा में बदल दिया गया। कालापानी में आपको अनेक यातनाओं से त्रस्त होना पड़ा। आपने यहां जेल में आमरण अनशन किया। लम्बी भूख हड़ताल से आप मृत्यु की सी स्थिति में पहुंच गये। सुहृद मित्रों के आग्रह पर आपने भोजन ग्रहण कर अनशन समाप्त कर दिया। बाद में श्री ऐण्ड्रयूज एवं गांधी जी के प्रयासो से आप कालापानी से रिहा किए गये।

 

सन् 1901 में आपने एम.ए. किया था। उन दिनों देश में एम.ए. शिक्षित युवकों की संख्या उंग्लियों पर गिनी जा सकती थी। इस पर भी सादगी एवं मितव्ययता आपके जीवन में अनूठी थी। सन् 1931 में आपने आर्यसमाज नयाबांस, दिल्ली की स्थापना की थी। एक बार जब आप इस समाज में आमन्त्रित किए गये और आपके मित्र श्री पन्नालाल आर्य रेलवे स्टेशन से आपको तांगे में समाज मन्दिर लाना चाहते थे तो आपने पैदल चलने की इच्छा व्यक्त कर तांगे को दिये जाने वाले चार आने बचा लिये। इस व्यय को आपने अपव्यय की संज्ञा दी थी। देश-विदेश में प्रसिद्ध एवं केन्द्रीय असेम्बली (संसद) के सदस्य भाई परमानन्द जी का यह व्यवहार आदर्श एवं पे्ररणादायक व्यवहार था।

 

भाई परमानन्द जी इतिहासवेत्ता भी थे। बीसवीं सदी के आरम्भ में आप इंग्लैण्ड गये। वहां से इंग्लैण्ड के लोगों की अपने इतिहास के प्रति प्रेम व उसकी रक्षा की प्रवृत्ति की प्रशंसा करते हुए तथा भारतीयों की अपने इतिहास की उपेक्षा के उदाहरण देते हुए आपने एक विस्तृत पत्र में स्वामी श्रद्धानन्द जी को लिखा था–‘‘हम कहते हैं कि राजस्थान का कणकण रक्तरंजित है। क्या विदेशियों से जूझते हुए बलिदान देने वाले राजस्थानी वीरों वीरांगनाओं का इतिहास सुरक्षित करने की हमें चिन्ता है?’’ यह प्रश्न स्वामी जी ने अपने पत्र ‘‘सद्धर्म प्रचारक में प्रकाशित किया था। उनके एक जीवनी लेखक प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु ने इस पर व्यंग करते हुए लिखा है कि “दिल्ली में जहां लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने वालों को फांसी का दण्ड दिया गया था, उसी स्थान पर आज मौलाना आजाद के नाम पर मैडीकल कालेज है। यह है हमारी इतिहास की रूचि।

 

सन् 1928 में लाला लाजपतराय के बलिदान के बाद पंजाब में कांग्रेस के पास उनकी जैसी छवि वाला कोई नेता नहीं था। कांग्रेस के एक शिष्ट मण्डल ने भाई परमानन्द जी से पंजाब में कांग्रेस की बागडोर सम्भालने का अनुरोध किया। भाई जी ने मुस्लिम तुष्टिकरण की कांग्रेस की नीति के कारण अपनी असमर्थता व्यक्त की। शिष्ट मण्डल ने लाला लाजपतराय जी की अर्थी में शामिल भारी भीड़ और उन्हें मिले सम्मान का जिक्र किया और कहा कि आप तो देश की आजादी के लिए कालापानी की सजा काट चुके हैं। देश की जनता में आपके लिए बहुत आदर है, इसलिए आप नेतृत्व करें। इस पर भाई जी ने अपनी स्वाभाविक स्पष्टवादिता की शैली में कहा–‘‘भले ही मेरी अर्थी को कंधा देने वाले चार व्यक्ति भी आयें, मेरे मरने पर कोई एक आंसू भी टपकाये, परन्तु मैं अपने सिद्धान्त छोड़कर कांग्रेस में नहीं सकता।

 

मई, 1906 में भाई परमानन्द मुम्बई से जलमार्ग से अफ्रीका महाद्वीप में वैदिकधर्म प्रचारार्थ गये। मार्ग में आपको अनेक कष्ट हुए। एक दिन अफ्रीका में भ्रमण करते हुए आप हब्शियों की बस्ती में जा पहुंचें। वहां एक पुत्री के घर से शहद चुराने के कारण क्रोधित एक मां ने उस चोर कन्या को पेड़ से बांध कर जलाने का प्रयास किया परन्तु अन्तिम क्षणों में कुछ सोच कर उसे वहां छोड़ कर जाना पड़ा। परमानन्द जी जब वहां पहुंचे तो उस कन्या की दशा को देखकर द्रवित हो गये और उसकी सहायता से स्वयं को वहां बांध कर कन्या को वहां से दूर भेज दिया और स्वयं जलने के लिए तैयार हो गये। बस्ती के एक हब्शी ने बाहर आकर जब यह देखा तो अपने साथियों को बुलाया। कन्या की मां ने आकर घटना का सारा वर्णन कह सुनाया। इस घटना से वहां के सभी हब्शी भाई परमानन्द जी के व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्हें उच्च आसन पर बैठा कर उनका सम्मान किया और स्मृति चिन्ह के रूप में उन्हें हाथी दांत से बनी वस्तु देकर विदा किया। उनके एक भक्त श्री विलियम उन्हें ढूंढ़ते हुए वहां आ पहुंचे तो यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह गये। बाद में भाई जी को कालापानी भेजे जाने से श्री विलियम बहुत दुःखी हुए थे और भाईजी के मानवोपकार के कार्यो से प्रभावित होकर उन्होंने आर्यघर्म की दीक्षा ली। अफ्रीका में भाई परमानन्द ने मोम्बासा, डर्बन, जोहन्सबर्ग तथा नैरोबी आदि अनेक स्थानों पर प्रचार किया।

 

डर्बन में एक अवसर पर गांधी जी और भाई परमानन्द जी परस्पर मिले। एक सभा जिसमें भाई परमानन्द जी का व्याख्यान हुआ, उसकी अध्यक्षता गांधी जी ने की थी। भाई जी के जोहन्सबर्ग पहुंचने पर गांधी जी उन्हें अपने निवास पर ले गये थे और श्रद्धावश उनका बिस्तर अपने कंधों पर उठा लिया था। गांधी जी के निवास पर भाई जी एक माह तक रहे भी थे। 

 

डी.ए.वी. कालेज कमेटी की ओर से भाई जी को अध्ययन के लिए लन्दन भेजा गया था परन्तु वह वहां भारत की आजादी के दीवानों से ही मिलते रहे। आपने वहां सन् 1857 की भारत की आजादी की प्रथम लड़ाई के इतिहास पर पुस्तकें एकत्र की और बिना कोई डिग्री लिए पुस्तकें लेकर भारत लौंटे। आपने सारी पुस्तकें डी.ए.वी. कालेज के संस्थापक महात्मा हंसराज जी को सौंप दी जिन्हें महात्मा जी ने अपनी अलमारियों में रख लिया। आर्यसमाज के महान नेता रक्त साक्षी पं. लेखराम के अनुसार भाई परमानन्द जी ऐसे निर्भीक एवं साहसी पुरुष थे जिनमें भय वाली रग थी ही नहीं। वे प्राणों के निर्मोही थे। लाहौर में एक बार बड़ा भारी साम्प्रदायिक दंगा हुआ। भाई जी तथा आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वान पं. चमूपति का घर वहां असुरक्षित था परन्तु इन दोनों आर्य महापुरूषों को अपनी व अपने परिवारों की कोई चिन्ता नहीं थी। स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी ने वहां आर्य विद्वान व नेता पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती को दो युवकों के साथ भेजकर उनके समाचार मंगाये थे।

 

भाई जी ने जोधपुर में महाराजा जसवन्त सिंह के अनुज महाराज कुंवर प्रताप सिंह के निमन्त्रण पर राजकुमारों की शिक्षा के लिए स्थापित स्कूल में एक वर्ष एक पढ़ाने का कार्य किया। श्री प्रतापसिंह की अंग्रेजों की भक्ति एवं राजदरबार में दलबन्दी के कारण खिन्न होकर रातों-राज वह वहां से चल पड़े थे। जब लाहौर में आर्य साहित्य के प्रकाशक महाशय राजपाल जी की कुछ विधर्मियों ने हत्या कराई तो सरकार ने उनके शव की मांग करने वालों को बेरहमी से पीटा।  आप भी पुलिस की लाठियों के प्रहारों का शिकार बने। यदि वहां कुछ आर्ययुवक आपको न बचाते तो कोई अनहोनी हो जाती। भाईजी एक सिद्ध हस्त लेखक भी थे। इतिहास आपका प्रिय विषय था। भारत का इतिहास आपके द्वारा लिखी गई एक पुस्तक है जिसे न्यायालय में आपके विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर अंग्रेज सरकार के सरकारी वकील ने कहा था कि यह पुस्तक विद्रोह की प्रेरणा देती है। यूरोप का इतिहास, महाराष्ट्र  का इतिहास, पंजाब का इतिहास, आपबीती एवं वीर बन्दा बैरागी आपकी कुछ अन्य प्रमुख कृतियां हैं। आपकी सभी पुस्तकों में देश को स्वतन्त्र कराने की प्रेरणा निहित है।

 

भाई परमानन्द अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के प्रधान रहे। सन् 1927 के प्रथम आर्य महासम्मेलन के अध्यक्ष पद पर आप मनोनीत किए गये थे परन्तु किसी कारण आप यह प्रस्ताव स्वीकार न कर सके। कालापानी के कारावास से रिहा होने पर एक पत्र के प्रकाशक की ओर से जब आपको 10 हजार की राशि भेंट कर सम्मान किए जाने का प्रस्ताव किया गया तो निर्लोभी स्वभाव एवं विनयशीता के कारण आपने धन्यवादपूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया था। देश की आजादी के लिए समर्पित देशभक्तों की पत्नियों ने भी अपने पतियों की तरह त्याग, तपस्या व बलिदान का ही जीवन व्यतीत किया। भाई परमानन्द जी की पत्नी माता भागसुधि रावलपिण्डी के सम्पन्न किसान रायजादा किशन दयाल की पुत्री थी। विवाह के समय आप अनपढ़ थी परन्तु भाई जी ने आपको प्रयत्नपूर्वक शिक्षित किया। आप कुशाग्रबुद्धि, हंसमुख, विनोदी स्वभाव वाली तथा गृह कार्यों में दक्ष महिला थी। भाई जी के जेल के दिनों में आपने स्कूल में काम करके तथा कपड़े सिलकर अपना तथा बच्चों का जीवन निर्वाह किया। क्रूर अंग्रेजों ने आपके घर का सारा सामान यहां तक की घर के सभी बर्तन तक छीन लिए थे। लाहौर की एक बस्ती में किराये के एक ऐसे कमरे में आप रहीं जहां धूप की एक किरण तक प्रवेश नहीं कर सकती थी और न ही शुद्ध वायु भी। दीनबन्धु ऐण्ड्रयूज जब आपकी सुध लेने आये तो यह जानकारी प्राप्त कर द्रवित हो गये कि 6 महीने पहले आपकी बड़ी पुत्री तपेदिक से मर चुकी थी।

 

आपकी   पत्नी माता भागसुधि जी को अपने पति भाई परमानन्द जी के आजादी का सिपाही होने के कारण टीचर ट्रेनिगं स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया था। मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए संघर्षरत अपने निर्दोष पति को फांसी से छुड़ाने के लिए आपने कहां-कहां, कैसे भागदौड़ की होगी तथा धन जुटाया होगा, इसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। ऐसे बुरे समय में अंधविश्वासी ससुर ने भी आपको आश्रय नहीं दिया। अपने कड़े परिश्रम से माता भागसुधि जी ने दो कमरे, रसोई एवं बरामदा बनवाया। जेल में अपने पति की तरह आपने चारपाई त्याग दी एवं भोजन वर्तनों में करना छोड़ कर मिट्टी के बर्तनों में किया। 1 जुलाई 1932 तपेदिक के रोग की तीव्रता के कारण माता भागसुधि जी को संसार छोड़ कर जाना पड़ा और वह अपने पति से हमेशा के लिए दूर चली गयी। भाई परमानन्द जी पर इसका क्या प्रभाव हुआ होगा? फिर भी वह 15 वर्षों तक जीवित रहे और देश हित के कार्य करते रहे। प्रो. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने माता भागसुधि जी पर अपने भावों को एक कविता में निम्न रूप में प्रकट किया है।

 

धन्य तुम्हारी सतत साधना, धन्य तुम्हारा जीवन दान।

धन्य तुम्हारा धीरज साहस, धन्य तुम्हारा मां बलिदान।

धन्य धरा तव जन्मदायिनी, धन्य तपस्या का वरदान।

धन्य तुम्हारा शील सुहागिन, धन्य तुम्हारा देश अभिमान।

 

देश विभाजन से भारत माता के लाखों सपूतों के नरसंहार तथा स्त्रियों के सतीत्व-हरण की घटनाओं से आहत भाई जी ने विभाजन एवं इसके परिणाम स्वरूप घटी अमानवीय घटनाओं को राष्ट्रीय अपमान की संज्ञान दी। आपने अन्न त्याग दिया था, फिर बोलना भी छोड़ दिया था। 8 दिसम्बर, 1947 को देश की आजादी के लिए तिल-तिल कर जलने वाले इस महान् देशभक्त ने अपने प्राण त्याग दिये। आज भाई परमानन्द जी के जन्म दिवस पर हम उन्हें, माता भागसुधि व उनके परिवार को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

देशवासियों के आदर्श एवं प्रेरणास्रोत- ‘भारत के लौह पुरुष सरदार पटेल का कृतज्ञ हमारा भारत देश’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

  माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या इस वेद की सूक्ति में निहित मातृभूमि की सेवा व रक्षा की भावना से सराबोर देश की आजादी के अविस्मरणीय योद्धा, देश के प्रथम गृहमंत्री एवं उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देश की आजादी और और उसकी उन्नति के लिए जो सेवा की है वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।                गुजरात प्रान्त के करमसद गांव में 31 अक्तूबर सन् 1885 को आपका जन्म हुआ। आपके पिता श्री झबेर भाई पटेल दूसरे व्यक्तियो की भूमि पर खेती कर जीवनयापन करते थे। आप बहादुर एवं पक्के देश भक्त थे। श्री झबेर भाई पटेल सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में महारानी लक्ष्मी बाई की सेना में भर्ती होकर आप अंग्रेजों एवं उनके भारतीय वफादारों के विरूद्ध लड़े थे। इंदौर के महाराजा ने गिरफ्तार कर आपको अपने यहां बन्दी बनाया जहां संयोग से महाराजा को शंतरज के खेल में अपनी चालों से विजय दिलवाकर आप मुक्त हुए। यहां से आप अपने गांव पहुंचे और पुनः खेती करने लगे।

 

श्री झबेर भाई के दो पुत्र थे। बड़े पुत्र श्री विट्ठल भाई ने असेम्बली के प्रधान के रूप में आश्यर्चजनक प्रतिभा का परिचय दिया। दोनों भाईयों को बहादुरी एवं युद्ध प्रियता के गुण अपने पिता से विरासत में मिले थे। वल्लभ भाई की प्रारंभिक शिक्षा माता-पिता की देखरेख में गांव में हुई। इसके बाद नदियाद एवं बड़ोदा में आपने शिक्षा प्राप्त की। मैट्रिªक की परीक्षा आपने नदियाद से पास की। बचपन में आपकी वीरता का उदाहरण तब मिला जब आपकी कांख के फोड़े को लाल गर्म लोहे की सलाखा से भोंकने वाले व्यक्ति में हिम्मत की कमी देखकर आपने स्वयं ही गर्म लाल लोहे की सलाख से फोड़े को दाग दिया। मौलाना शौकत अली ने एक बार आपके बारे में यथार्थ ही कहा था कि वल्लभ भाई बरफ से ढके ज्वालामुखी के समान हैं। उनके साथियों ने यह अनुभव किया कि उनके हृदय में हमेशा आग धधकती रहती है जो असंख्य लोगों को दग्ध करने की क्षमता रखती है। इसी कारण उनका रक्त सदैव उबाल मारता रहता था, भुजायें फड़कती रहती थी एवं वाणी सदा पाप, अन्याय व अत्याचार के विरूद्ध आग उगलने के लिए तत्पर रहती थी।

 

यद्यपि वल्लभ भाई विदेश जाकर बैरिस्टर बनना चाहते थे परन्तु पारिवारिक विपन्नता के कारण आपने अपने इस विचार को स्थगित कर मुख्तारी की परीक्षा पास करके गोधरा में प्रैक्टिस की। आपकी प्रैक्टिस अच्छी चली और अल्प-काल में ही विदेश यात्रा हेतु आवश्यक धन अर्जित कर लिया। आपके बड़े भाई विट्ठल भाई भी विलायत जाने के इच्छुक थे। स्वर्जित धन से आपने पहले बड़े भाई को विदेश भेजा एवं स्वयं उनके तीन वर्ष बाद सन् 1910 में विलायत गये। कालान्तर में बड़े भाई के राजनीतिक गतिविधियो में भाग लेने के कारण आपने उन्हें पारिवारिक दायित्वों से मुक्त कर कुटुम्ब का पालन किया। गोधरा में गांधी जी की अध्यक्षता में प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में वल्लभ भाई को राजनीतिक कार्यों की उपसमिति का मंत्री बनाया गया। आपके महत्वपूर्ण कार्यों के कारण आप शीघ्र ही गुजरात प्रांत में लोकप्रिय हो गये। सार्वजनिक जीवन में आपको पहली सफलता गुजराज में बेगार प्रथा का उन्मूलन करने पर मिली। आपके द्वारा सत्याग्रह की धमकी से कमिश्नर घबरा गया। आपसे वार्तालाप कर उसने बेगार प्रथा के उन्मूलन की मांग स्वीकार कर ली।

 

गांधी जी के सम्पर्क में आने पर उनकी रीति-नीति के प्रति आपको विशेष रूचि नहीं हुई। आपको लगा कि अहिंसा एवं सत्याग्रह कमजोर आदमी के हथियार हैं। अहमदाबाद के मजदूरों के आन्दोलन की सफलता पर पहली बार आपको गांधी जी केे आत्मबल का परिचय मिला। गांधी जी के प्रति आपके मैत्री भाव ने ही आपको सक्रिय राजनीति में प्रविष्ट कराया। सन् 1917 में खेड़ा जिले में जब फसल खराब हो गई और सरकार द्वारा किसानों की लगान वसूल न करने की मांग को ठुकरा दिया गया तब भी गांधी जी की प्रेरणा पर आपने यह कार्य अपने हाथ में लिया। अहमदाबाद के इस कुशल बैरिस्टर ने गांव-गांव घूमकर चेतना पैदा की। किसान लगान के विरूद्ध सत्याग्रह के लिए कमर कस कर तैयार हो गये। किसानों के तेवर को देखकर सरकार झुक गई। इस सफलता ने गांधी जी के प्रति आपके आदर भाव को और बढ़ा दिया। प्रथम महायुद्ध की समाप्ति पर रालेट एक्ट का विरोध करने के लिए गांधी जी ने देशभर में हड़ताल की घोषणा की। 4 मार्च 1914 को देश ने नये युग में प्रवेश किया। अहमदाबाद में बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में रालेट एक्ट के विरूद्ध की गई हड़ताल को मिली भारी सफलता से सरकार डर गई। जुलूस में सत्याग्रहियों पर गोलियां चलाईं गईं। दिल्ली की हड़ताल का नेतृत्व गुजरात के टंकारा गांव में जन्में महर्षि दयानंद सरस्वती के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। दिल्ली के चांदनी चौक पर अभूतपूर्व जुलूस को जब अंग्रेजी सरकार के गोरखे सैनिकों ने बंदूक की संगीने दिखाकर विफल करना चाहा तो इस वीर पुरूष ने संगीनों के सामने जाकर छाती खोकर ललकार कर कहा कि ‘‘हिम्मत है तो चलाओं गोली। इस घटना ने भी आजादी के आंदोलन में एक नया इतिहास रचा। सन् 1920 में कांग्रेस द्वारा असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित करने पर वल्लभभाई पटेल ने बैरिस्टरी का ही त्याग नहीं किया अपितु अपने दोनों पुत्रों को भी अध्ययन हेतु विलायत जाने से रोक दिया। आप दोनों पुत्रों की उच्च शिक्षा हेतु विलायत जाने की पूरी तैयारी कर चुके थे।

 

गांधी जी के बंदी बना लिए जाने पर गुजरात में कांग्रेस के नेतृत्व का भार आपको सौंपा गया जिसे आपने सफलतापूर्वक निभाया। असहयोग आंदोलन में स्कूल व कालेजों का बहिष्कार करने वाले विद्यार्थियों के लिए आपने ‘‘गुजरात विद्यापीठ की जुलाई 1920 में स्थापना की और इस निमित्त धनसंग्रह कार्य में भी सफलता प्राप्त की। धन संग्रहार्थ आप बर्मा भी गये। इससे पूर्व गुरूकुल कांगड़ी, हरिद्वार हेतु धन संग्रहार्थ आचार्य रामदेव एवं विद्यामार्तण्ड पं. विश्वनाथ विद्यालंकार आदि भी बर्मा गये थे। राष्ट्र  निर्माण में इन दोनों संस्थाओं ने बहुमूल्य सेवायें दी हैं। सन् 1923 में बोरसद के किसानों को एक ओर जहां डाकुओं ने परेशान किया वहीं सरकार ने पुलिस पर अतिरिक्त व्यय को भी लगान में जोड़ दिया। परेशान किसानों ने बल्लभ भाई के पास जाकर अपना रोना रोया। आपने किसानों को बढ़ा लगान देने से मना किया और बोरसद का स्वयं भ्रमण कर स्थिति का जायजा लिया। आपके प्रयास से वहां 200 स्वयं सेवक तैयार किए गए जिन्होंने डाकुओं का मुकाबला करने का संकल्प लिया। परिणाम यह हुआ कि डाकुओं के आक्रमण बंद हो गये और सरकार भी पटेल जी की हुंकार से झुक गई। इस सफलता ने भी आपको देश भर में लोकप्रिय बना दिया।

 

नागपुर के एक भाग में राष्ट्रीय झंडे पर प्रतिबन्ध एवं जमना लाल बजाज की गिरफ्तारी के बाद वल्लभ भाई ने सत्याग्रह का मोर्चा संभाला। पुलिस ने वल्लभ भाई की सक्रियता से भयभीत होकर प्रतिबंध वापिस लेकर उन्हें अजेय योद्धा सिद्ध किया। इसके बाद गुजरात में बाढ़ से हुई तबाही के अवसर पर भी आपने 2,000 स्वयं सेवक तैयार कर सहस्रों बाढ़ पीड़ितों के प्राणों की रक्षा की। इन दिनों आप गुजरात प्रदेश में कांग्रेस के प्रधान के साथ अहमदाबाद म्युनिस्पल बोर्ड के भी अध्यक्ष थे। पांच वर्षों के कार्यकाल में आपने जन कल्याण एवं नागरिकों के स्वास्थ्य संबंधी जो उपयोगी योजनायें बनाई थी, वह देश भर के लिए अनुकरणीय सिद्ध हुईं। गुजरात में जल प्रलय के बाद बाढ़ से खेतियों को हानि से अन्न के अभाव ने स्थानीय किसानों को भुखमरी के कगार पर ला खड़ा किया। इस अवसर पर भी वल्लभ भाई ने दुर्भिक्ष पीड़ितों को सरकार से एक करोड़ पचास लाख रूपयों की सहायता स्वीकृत करवाकर उसके वितरण की सराहनीय व्यवस्था की जिसमें भ्रष्टाचार की लेशमात्र भी कहीं गुंजाइश नहीं थी। सरकार ने भी आपकी प्रबंध व्यवस्था की सराहना की। इस कार्य ने वल्लभ भाई को एक सक्षम नेता के साथ योग्य व्यवस्थापक भी सिद्ध किया।

 

गुजरात के एक ताल्लुके बारदौली में सरकार द्वारा लगान में तीस प्रतिशत की वृद्धि से परेशान किसान वल्लभ भाई के पास आये और उन्हें न्याय दिलाने हेतु प्रार्थना की। वल्लभ भाई ने स्वयं छानबीन कर इस वृद्धि को अन्यायपूर्ण पाया। आपने किसानों को समझाया कि इस अन्याय के विरूद्ध संघर्ष का परिणाम सरकार द्वारा नानाविध किसानों का उत्पीड़न होगा जिसमें कुर्की, बलात्कार, बच्चों की भुखमरी भी शामिल है। किसानों द्वारा हर प्रकार के त्याग का आश्वासन देने पर आपने आंदोलन की बागडोर संभाली। सन् 1928 में गवर्नर से लगान वृद्धि पर पुनर्विचार करने को कहा गया। आपके द्वारा की गई मांग ठुकरा दिये जाने से आंदोलन आरंभ हुआ। सरकार द्वारा लगान चुकाने की तिथि निश्चित कर संवेदनाशून्य होने का परिचय दिया। इस पर वल्लभ भाई ने किसानों को लगान की एक पाई भी सरकार को न देने का एलान किया। इस एलान से मानसिक दृष्टि से असंतुलित सरकार ने उत्पीड़न के सभी साधनों का प्रयोग किया। वल्लभ भाई हर स्थिति से जूझने के लिए पहले से ही तैयार थे। बारदौली को आपने कई भागों में बांटकर वहां छावनियां स्थापित कर दी थीं जिनमें संदेशवाहक निरन्तर सम्पर्क रखते थे एवं आपके गुप्तचर सरकारी गतिविधियों की सभी सूचनायें वल्लभ भाई तक पहुंचातें थे।

 

बारदौली का यह सत्याग्रह देश भर में चर्चित हुआ। मुम्बई असेम्बली के अनेक सदस्यों ने सदस्यता से त्यागपत्र देकर सरकार के विरूद्ध अपना असन्तोष प्रकट किया। अन्ततः सरकार को झुकना पड़ा। इस सत्याग्रह की सफलता ने आपको देश का प्रथम पंक्ति का नेता बना दिया। सरदार की उपाधि भी आपको इस अवसर पर मिली। इसके बाद आप सरदार पटेल के नाम से जाने गये। 31 दिसम्बर 1929 को लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वाधीनता का प्रस्ताव पारित हुआ। इसके अनुसार गांधी जी ने डांडी यात्रा की तैयारी की। सरदार पटेल ने गुजरात के एक गांव ‘‘रास में सभा करके इलाके के कलेक्टर के प्रतिबन्ध को चुनौती दी। परिणामतः आपको गिरफ्तार किया गया और पांच सौ रूपये जुर्माने के साथ तीन माह की कैद का दंड मिला। बंदीगृह में आपका भार पन्द्रह पौण्ड घट गया। इस कारण 26 जून 1930 को आप रिहा हुए। यह आपका आजादी के आंदोलन में प्रथम कारावास था।

 

जब आप बाहर आये तो स्वतंत्रता आंदोलन पूरे यौवन पर था। आंदोलन की बागडोर पं. मोतीलाल नेहरू के हाथों में थी। उन्होंने जेल जाते समय सरदार पटेल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर देश का नेतृत्व उन्हें सौंप दिया था। मुम्बई से आपने स्वतंत्रता आंदोलन का संचालन किया। 1 अगस्त को लोकमान्य तिलक की बरसी पर लाखों लोगों की अनुशासित भीड़ ने मुम्बई में जुलूस निकाला। बोरी बंदर स्टेशन से आगे पुलिस ने जुलूस को जाने नहीं दिया। शक्ति परीक्षण हुआ। लाखों की भीड़ ने वहां रात्रि भर बैठकर मोर्चा संभाला। रूष्ट पुलिस ने लाठी और गोलियां चलाई। सैकड़ों को गोलियां लगी और लोगों के सिर फूटे। सरदार पटेल को जिम्मेदार मानकर उन्हें गिरफ्तार किया गया एवं मुकदमा चलाया। तीन माह का कारावास का आपको दंड मिला। इसी बीच गांधी-इरविन समझौता हो जाने पर 25 जनवरी 1931 को आप रिहा कर दिए गए।

 

कांग्रेस में सरदार पटेल का गांधी जी के पश्चात दूसरा स्थान बन गया। यही कारण था कि आपको कांग्रेस के अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया गया। कराची का मार्च 1931 का अधिवेशन घटनापूर्ण रहा। अधिवेशन से कुछ दिन पूर्व ही भगत सिंह को फांसी पर चढ़ाया गया था। आर्य विद्वान अनूप सिंह का मानना था कि यदि गांधी जी चाहते तो भगत सिंह को फांसी से बचा सकते थे। अहिंसा को समर्पित बापू ने प्रसिद्ध क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के इस संबंध में निवेदन को भी गंभीरता से नहीं लिया था। यह तथ्य भगत सिंह के साथी शहीद सुखदेव लिखित पुस्तक में दिए गए थे। भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरू की शहादत से आहत कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष सरदार पटेल ने सभापति के जुलूस का समारोह इन देशभक्तों की याद में स्थगित कर अद्भुत साहस का परिचय दिया। अध्यक्ष पद से सरदार पटेल द्वारा दिया गया भाषण ऐहितहासिक सारगर्भित एवं अनोखा था।

 

कराची कांग्रेस में सत्याग्रह की घोषणा की गई। गांधी जी विलायत से खाली हाथ लौटे थे। सरदार पटेल को सरकार ने पुनः गिरफ्तार कर लिया । जेल में आपका स्वास्थ्य अत्यधिक गिर जाने के कारण आपको रिहा कर दिया गया। स्वास्थ्य की परवाह न कर आपने चुनाव युद्ध में कांग्रेस के प्रत्याशियों को सफल बनाने के लिए देश का व्यापक दौरा किया। आप कांग्रेस पार्लियामेंटरी बोर्ड के अध्यक्ष थे। आठ प्रांतों में कांग्रेस का मंत्रिगंडल सत्तारूढ़ था। मंत्रियों पर सरदार पटेल का कड़ा अनुशासन था जिसके परिणामस्वरूप मध्य प्रांत के मुख्य मंत्री डाक्टर खरे को पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था। सन् 1942 के स्वाधीनता के निर्णायक युद्ध में कांग्रेस कार्य समिति के सदस्यों के साथ 9 अगस्त 1942 को आपको अहमदनगर जेल में बंद कर दिया गया। 15 जून 1945 को आप जेल से मुक्त हुए। इसी दिन अंग्रेजी सरकार ने भारत को स्वतंत्रता प्रदान करने की अपने संकल्प की घोषणा भी की। मुस्लिम लीग द्वारा आजादी के रास्ते में डाली जा रही अड़चनों का आपने मुंहतोड़ करारा उत्तर दिया और जिन्ना को लताड़ते हुए कहा कि तलवारों का जवाब तलवारों से दिया जायेगा और आजादी विरोधी बातें करने वालों को कड़ी सजा दी जायेगी। सरदार पटेल ने आत्मरक्षा के लिए जनता को हथियार उठाने के उनके अधिकार की पुष्टि की और कहा कि कायर की तरह मरने से हथियार चलाते हुए स्वाभिमान से मरना अधिक अच्छा है। देश की आजादी के बाद हैदराबाद रियासत के नवाब उस्मान अली की कार पर बम फेंकने वाले दो आर्य युवकों को भी आपने दिल्ली में बुलाकर सम्मानित किया था। 21 सितम्बर 1946 को कांग्रेस मंत्री-मण्डल बनने पर आपको रियासती विभाग, गृह विभाग एवं प्रचार मंत्री के साथ उप प्रधानमंत्री बनाया गया। आपने अपनी बुद्धिमत्ता से जो सफलतायें प्राप्त कीं उसने देश विदेश के राजनीतिज्ञों को आपका प्रशंसक बना दिया। मुस्लिम लीग के विरोध एवं अंग्रेज सरकार के उसके प्रति सहयोगी रूख के बावजूद 9 दिसम्बर, 1946 को संविधान सभा का अधिवेशन करवाकर आपने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति, दृणता एवं दूरदर्शिता का परिचय दिया। आपने चुनौती पूर्ण शब्दों में कहा था कि आकाश चाहे गिर पड़े, पृथिवी चाहे फट जाये, विधान सभा का अधिवेशन 9 दिसम्बर से पीछे नहीं होगा। आपने अपनी चुनौती को सत्य सिद्ध कर दिखाया।

 

पाकिस्तान को पृथक राष्ट्र बनाकर लगभग 600 रियासतों को स्वतंत्रता प्रदान कर एवं मुसलमानों में हिन्दू विरोधी भावनायें भरकर अंग्रेजों ने विप्लव एवं अराजकता की स्थिति पैदा कर दी थी। सरदार पटेल ने इस विषम परिस्थिति में अपनी कूटनीतिज्ञता से देश के शत्रुओं के सभी षडयंत्रों को विफल कर भारत के इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया। 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अल्पकाल में 552 रियासतों के भारत में विलय की घटना सरदार पटेल के यश को सदैव अक्षुण रखेगी। यह ऐसी घटना है जिसके लिए यह देश हमेशा सरदार पटेल का कृतज्ञ रहेगा। कश्मीर, जूनागढ़, एवं हैदराबाद रियासतों के असहयोगी रूख का भी आपने यथोचित समाधान किया। कश्मीर पर पाकिस्तान के आक्रमण ने कश्मीर के भारत में विलय का कार्य प्रशस्त किया। जूनागढ़ के नवाब की बुद्धि भी आपने बिग्रेडियर गुरदयाल सिंह के नेतृत्व में भारतीय सेनायें भेज कर ठिकाने लगाई। नवाब रियासत छोड़कर ही भाग गया। 12 नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ पहुंचकर आपने हैदराबाद के नवाब को खबरदार करते हुए कहा कि उसका भी वही हश्र होगा जो जूनागढ़ का हुआ है। 17 सितम्बर, 1948 को आपने मात्र 4 दिन के पुलिस एक्शन में हैदराबाद रियासत के घुटने टिकवा दिये। इस प्रकार आपने अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र सभी रियासतो का भारत में विलय करवाकर राष्ट्र यज्ञ को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया।

 

सरदार पटेल ने स्वाभिमान का जीवन जीकर स्वयं में लौह पुरूष के व्यक्तित्व को चरितार्थ किया। गांधी जी के शब्दों में आपकी निमर्मता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता था कि जब अदालत में वकील की हैसियत से बहस करते हुए आपको अपनी पत्नी की मृत्यु (11 जनवरी, सन् 1909) का समाचार मिला तब भी आपने अपना कर्तव्य नहीं छोड़ा और बहस जारी रखी। मृत्यु के तार को पढ़ लिया औरे मोड़कर जेब में रख लिया। बहस समाप्त होने के बाद आपने अदालत से विदा ली। 15 दिसम्बर, सन् 1950 को प्रातः 9.30 बजे मुम्बई में हृदयरोग से आपकी मृत्यु हुई। इससे पूर्व स्वास्थ्य लाभ हेतु आप देहरादून भी आये थे। आपकी मृत्यु से देश ने अपने सबसे बहुमूल्य रत्न को खो दिया। भारत की राजनीति में यह महापुरूष भूतो भविष्यति सिद्ध हुआ।

 

लौहपुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अंग्रेजों द्वारा स्वतंत्र सभी रियासतों को भारत में मिलाकर जो उदाहरण प्रस्तुत किया उसकी संसार के इतिहास में कोई मिसाल नहीं है। आपने वह असम्भव कार्य कर दिखाया जो सम्राट अशोक और चन्द्रगुप्त भी नहीं कर सके और अन्य किसी नेता में यह क्षमता नहीं थी। उन्होंने विधर्मियों द्वारा लूटे गये सोम मन्दिर का भी पुनरूद्धार कर एक अविस्मरणीय कार्य किया। यह देश का सौभाग्य था कि उन दिनों सरदार पटेल हमारे पास थे अन्यथा इतिहास हमारे लिए अत्यन्त दुःखद होता। देश के हित में किए गए यशस्वी कार्यों के कारण यह देश उनका हमेशा ऋणी रहेगा। भारत के इतिहास में आप सदा-सदा के लिए अमर हैं और देश की राजनीति में नेताओं के प्रेरणास्रोत रहेंगे। हम यह भी कहना चाहते हैं कि श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्रीय सरकार ने सरदार पटेल की स्मृति को अक्षुण बनाने के लिए जिन कार्यों की घोषणायें की हैं, वह स्वागत योग्य है। उनके जन्म दिवस 31 अक्तूबर, 2014 को भी केन्द्र सरकार के नेतृत्व में आजाद देश के इतिहास में पहली बार सरदार पटेल की गरिमा के अनुरूप देश की ‘‘एकता एवं अखण्डता दिवस के रूप में मनाया गया। उनकी जो 182 मीटर की देश की सबसे ऊंची और भव्य मूर्ति बनाई जा रही है वह भी सरदार की ओर से उनको यथोचित एक स्तुत्य कार्य है। किसी को भी इस कार्य को मूर्ति पूजा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। सरदार पटेल के आकार व शारीरिक रूप के अनुरूप ही यह मूर्ति बनेगी और वहां जो भवन व संग्रहालय बनेगा उसमें उनसे सम्बन्धित पुष्ट जानकारी के साथ देश भर में उनके योगदान की चर्चा होगी। पर्यटल स्थल बनने के कारण देश विदेश के लोगों सहित हमारी वर्तमान और भावी पीढ़ी इनकी गरिमा को जान सकेगी। हमें लगता है कि सरदार पटेल के साथ न्याय किए जाने से सीमित अर्थों में देश में अच्छे दिन आ गये हैं। सरदार पटेल की स्मृति को कोटिशः नमन। हम यह भी कहना चाहते हैं कि देश में एक व्यक्तित्व और ऐसा है जिसके साथ देश ने न्याय नहीं किया है। उसका नाम है महर्षि दयानन्द सरस्वती। उन्होंने विलुप्त वेदों के आधार पर सत्य सनातन धर्म और संस्कृति का पुनरूद्धार करने के साथ कांग्रेस की स्थापना से 10 वर्ष पूर्व सन् 1875 में अपने कालजयी ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के माध्यम से देश को स्वतन्त्रता और स्वराज्य का सर्व प्रथम मूलमन्त्र दिया था। देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां व पाखण्डों को दूर कर देश को आधुनिक युग के अनुरूप बनाने में सर्वाधिक योगदान किया। देश को विधर्मियों द्वारा षडयन्त्र पूर्वक किए जा रहे धर्मान्तरण से बचाया। क्या इनके साथ देश कभी न्याय करेगा?

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः 09412985121

 

‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम सहित महर्षि वाल्मिकी भी विश्व के आदरणीय एवं पूज्य’ -मनमोहन कुमार आर्य,

ओ३म्

हमारे पौराणिक भाईयों ने वैदिक वा आर्य गुण सम्पन्न मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र जी को ईश्वर का अवतार स्वीकार किया है और अपने मन्दिरों में उनकी मूर्ति स्थापित कर पूजा अर्चना करते हैं। अनुमान है कि विगत ढाई हजार वर्षों में, जब भी मूर्ति पूजा का आरम्भ हुआ, सबसे पहले जिस महापुरूष की मूर्ति की पूजा आरम्भ की गई उनमें प्रथम श्री राम चन्द्र जी ही रहे हैं। योगेश्वर श्री कृष्ण जी को भी अपना आराध्य देव बनाया गया और इनकी मूर्ति की पूजा का इतिहास भी श्री राम के समान पुराना व उसके किंचित बाद का हो सकता है। 6 गुणों वा ऐश्वयों से सम्पन्न होने के कारण श्री राम भगवान कहे व माने जाते हैं। आर्यसमाज को भी श्री राम को भगवान कहने पर शास्त्रीय दृष्टि से कोई आपत्ति नहीं है। हम भी राम चन्द्र जी को भगवान कहते हैं परन्तु वह इस सृष्टि की रचना व उसका पालन करने वाले ईश्वर जो कि सच्चिदानन्द, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, निराकार, अनादि, अनुत्पन्न, अजन्मा, सर्वशक्तिमान तथा जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म देने वाला है, वह ईश्वर नहीं थे, अपितु सर्वश्रेष्ठ जीवात्मा थे। यजुर्वेंद के अध्याय 40 के मन्त्र 14 में ईश्वर को स्पष्ट रुप से अजन्मा बताया गया है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है और इस बात को हमारे पौराणिक बन्धु भी स्वीकार करते हैं। अब यदि ईश्वर स्वयं यह कहे कि मैं जन्म नहीं लेता या मैं अजन्मा हूं तो फिर उसका जन्म मानना, हमारी बुद्धि में विवेक न होने के कारण ही सम्भव है। महर्षि दयानन्द ने इस विषय पर सत्यार्थ प्रकाश में सम्यक प्रकाश डाला है। जो भी हो, ईश्वर सारे संसार के सभी लोगों का समान रूप से उपासनीय है। सभी को उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना प्रातः व सायं, दोनों समय तो करनी ही है। इसके साथ यदि कभी मनुष्य को खाली समय मिले तो ईश्वर के निज नाम ‘‘ओ३म् का जप मन, ज्ञान व ध्यान पूर्वक करना चाहिए। इतिहास में हुए आदर्श पुरूषों में भगवान राम के आदर्श जीवन को भी बाल्मिकी रामायण में पढ़कर उनके गुणों को अपने जीवन में ढालने का प्रयत्न करना चाहिये। यह वैदिक धर्म के सिद्धान्तों व मान्यताओं के पूर्णतया अनुरूप व अनुकूल है।

 

आज हमें भगवान राम का आदर्श जीवन यदि ज्ञात है तो उसका सारा श्रेय महर्षि वाल्मिकी जी को है। यदि वह न होते तो आज हम भगवान राम चन्द्र जी के सभी मर्यादाओं से पूर्ण आदर्श जीवन से वंचित होते। महर्षि वाल्मिकी रामचन्द्र जी के समकालीन थे। उनका रामचन्द्र जी के जीवन की घटनाओं से सीधा सम्पर्क व सम्बन्ध अवश्य रहा होगा। उन्होंने अपने विवेक व योग की सिद्धियों से भी उनके जीवन की घटनाओं को प्रत्यक्ष किया होगा, इसका अनुमान होता है। यदि ऐसा न होता तो वाल्मिकी रामायण जैसे विशाल आद्य महाकाव्य का प्रणयन व रचना सम्भव नहीं थी। महर्षि वाल्मिकी जी ने रामायण जैसे महाकाव्य की रचना कर अपनी जिस क्षमता, योग्यता व सूझबूझ का परिचय दिया है, वह बाद के विद्वानों व महापुरुषों में महर्षि वेदव्यास जी के अतिरिक्त किसी अन्य में दृष्टिगोचर नहीं हुई। यह दोनों ही महापुरूष व महात्मा मानव जाति के लिए पूज्य व स्तुत्य हैं। यह हमारा सौभाग्य है कि श्री रामचन्द्र जी के युग में महर्षि वाल्मिकी जैसे महात्मा भारत की भूमि पर विद्यमान थे जिससे रामायण जैसे आद्य महाकाव्य की रचना सम्भव हो सकी। वाल्मिकी जी के रामायण की रचना के महान व अभूतपूर्व योगदान के लिए सारी धरती के मानव उनके कृतज्ञ है और उनके इस ऋण को हमें सदैव अपनी स्मृति में रखना चाहिये। हमारा कर्तव्य है कि हम रामायण का बार-बार अध्ययन व अधिकाधिक पाठ करें और रामायण में वाल्मिकी जी द्वारा दर्शाये गये श्री रामचन्द्र जी के पावन चारित्रिक गुणों को जानकर उन्हें अपने जीवन में धारण करें। यदि ऐसा नहीं करते तो हम वाल्मिकी जी के तो ऋणी रहेंगे ही, साथ हि हम श्री रामचन्द्र जी के आदर्श जीवन की अनुपस्थिति में श्रेष्ठ मनुष्य नहीं बन सकेंगे।

 

वाल्मिकी जी के नाम के साथ प्राचीन समय से महर्षि शब्द सुशोभित है जिससे ज्ञात होता है कि वह वेदों के उच्च कोटि के विद्वान महात्मा थे। महर्षि शब्द का प्रयोग वेदों के ज्ञान को आत्मसात कर उसके अनुरूप आचरण करने वाले निर्भीक साहसी मनुष्य जो कर्मों आचरण से पूर्ण धर्मात्मा, योगी आप्त पुरुष हों, के लिए ही प्रयोग में लाया जाता है। अतः महर्षि वाल्मिकी अपने समय के वेदों के उच्च कोटि के विद्वान महात्मा थे। निश्चय ही वह ईश्वर का ध्यान सन्ध्या करते थे, यज्ञ करते थे, वेदों का अध्ययन, उनका अध्यापन प्रचारप्रसार करते थे। अज्ञान का नाश और ज्ञान का प्रकाश वा प्रचार ही उनके जीवन का उद्देश्य था। वह सच्चे ब्राह्मण अपने समय के सभी ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्यादि जनों के सर्वपूज्य विद्वान वा महात्मा थे। हमें नहीं लगता कि वह शूद्र वर्ण में जन्में होंगे। यह सम्भव हो सकता है परन्तु संदिग्ध है। लाखों वर्ष पूर्व हुए महर्षि महात्मा वाल्मिकी जी के ठीक ठीक इतिहास का ज्ञान होना सम्भव नहीं है। इस पर कोई प्रामाणिक ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है। बाद में मध्यकाल में लोगों ने उनके बारे में किंवदन्तियां प्रचलित कर दी। जो सत्य भी हो सकती हैं और नहीं भी। यदि वह सत्य भी हों तो भी इससे वाल्मिकी जी की योग्यता, ऋषित्व में व उनके समस्त मानवजाति के पूज्य होने में कहीं कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती। इससे तो वह और भी अधिक गौरवान्वित होते हंै। श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर श्रेष्ठ बनना सरल है परन्तु निम्न कुल में उत्पन्न होकर उस श्रेष्ठता की चरम पर पहुंचना जहां श्रेष्ठ कुलों के लोग भी अपवाद स्वरूप पहुंचते हैं, यह बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। यदि ऐसा है तो यह सोने में सुहागा जैसी बात है। अतः महर्षि बाल्मिकी ब्राह्मणों, पौराणिक गुरुओं, सभी आर्य वर्णो व संसार के लोगों के पूज्य हैं। हम यद्यपि मूर्तिपूजा को वेदसम्मत व करणीय नहीं मानते फिर भी परिस्थितियों के अनुरुप हम यह आवश्यक समझते हैं कि रामचन्द्र जी के मन्दिरों में महर्षि वाल्मिकी जी का चित्र आदर व सम्मानपूर्वक रखा जाये जिससे भक्तों व दर्शकों को यह ज्ञान हो कि श्री रामचन्द्र जी के आदर्श, धवल व निष्पाप चरित्र को प्रकाश में लाने वाले महर्षि वाल्मिकी जी हैं।

 

यदा कदा ऐसी घटनायें भी सुनने को मिलती है कि किन्हीं पौराणिक मन्दिरों में ईश्वर के प्रिय हरिजन भाईयों को पण्डित-पुजारियों ने प्रवेश नहीं करने दिया। हमें यह कार्य अमानवीय लगता है। ईश्वर व उसके अवतार के पास पहुंचने का ईश्वर द्वारा उत्पन्न प्रत्येक प्राणी को स्वतः सिद्ध अधिकार है। पिता-पुत्र के संबंधों की भांति बिचैलियों की इसमें कहीं कोई आवश्यकता नहीं होती। मन्दिरों व मूर्तियों को बनाने वाले अधिकांशतः हमारे हरिजन भाई ही होते हैं। उनको ही मन्दिर में प्रवेश करने से रोकना कुछ नासमझ लोगों का अमानवीय कार्य ही कहा जा सकता है। वेद व सत्शास्त्रों से अनभिज्ञ किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि धर्म की मर्यादायें व व्यवस्थायें बताये। मनुष्य छोटा व बड़ा कर्म से होता है न कि जन्म से। जन्म से तो सभी शूद्र उत्पन्न होते है जन्मना जायते शूद्रः संस्कार द्विज उच्यते, यह शास्त्रों का कथन वा विधान है। संस्कार वा सद्गुण ही मनुष्यों को द्विज बनाते हैं। मनुस्मृति में भी कहा गया है कि शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम। क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।। अर्थात् जो शूद्रकुम में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य के समान गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय। वैसे ही जो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पनन हुआ हो और उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के सदृश हों तो वह शूद्र हो जायं। वैसे क्षत्रिय-वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण वा शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। अर्थात् चारों वर्णों में जिस जिस वर्ण के सदृश जो जो पुरुष या स्त्री हो, वह वह उसी वर्ण में मानी जावें। यह भी निवेदन है कि हमारे पण्डित-पुजारियों को भी अपने जीवन व आचरण पर ध्यान देना चाहिये कि वह किस सीमा तक वेदानुकूल वा वेदसम्मत शास्त्रानुकूल हैं। बिना वेद पढ़े व उसका ज्ञान प्राप्त किये, हमारी दृष्टि में कोई पण्डित कहलाने का अधिकारी नहीं होता। यह मध्यकाल से पूर्व तक की लगभग 2 अरब वर्षों की परमपरा है जिसका दिग्दर्शन वेद मर्मज्ञ महर्षि दयानन्द ने वर्तमान युग में कराया है। हम आशा करते हैं हमारा पौराणिक समाज मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम चन्द्र जी की वैदिक पूजा के साथ समाज में महर्षि वाल्मिकी जी को भी यथोचित सम्मान देगा। यह मनुष्य के अपने हित, समाज हित व देश हित में है। इसके साथ हम यह भी अनुभव करते हैं कि प्रत्येक मूर्तिपजक व महर्षि दयानन्द भक्त को बाल्मिकी मन्दिरों में जाकर वहां के बहिन, भाईयों व बच्चों से मधुर सम्बन्ध स्थापित कर उन्हें सत्यार्थ प्रकाश व संक्षिप्त बाल्मीकि रामायण जैसी पुस्तकों को पढ़ने के साथ सन्ध्या व हवन करने की प्रेरणा भी करनी चाहिये। ऐसा करके कोई व्यक्ति छोटा नहीं होता है अपितु यही मनुष्य होने की कसौटी है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

 

अमर हुतात्मा श्रद्धेय भक्त फूल सिंह: – चन्दराम आर्य

पिछले अंक का शेष भाग……

बरकत अली को उसकी नीचता का उचित दण्डः- बुवाना लाखू के पटवारी बरकत अली और गिरदावर को उनकी इस नीचता का दण्ड देने के लिए आपने अपने छोटे भाई चौधरी रिछुराम को अपने पास बुलाया और अपना सारा हिसाब किताब उनको समझा दिया। आप उन दोनों नराधमों को संसार से मिटाने के लिए उद्यत हो गये। उसी समय एक पत्रवाहक एक पत्र लेकर आपके सामने उपस्थित हुआ वह पत्र उसने आपको दिया। आपने उसे पढ़ा। वह एक आर्य समाजी जिलेदार का था, जिसमें उसने लिखा था आप अत्यावश्यक कार्य छोड़  कर मुझ से मिलें। वे तुरन्त उनसे मिलने चले गये। दोनों की परस्पर आवश्यक बातें हुई। बातों-बातों में आपने दोनों यवनों को मारने का अपना निश्चय भी बतलाया। जिलेदार ने पटवारी फूल सिंह को समझाते हुए कहा- पटवारी जी, शत्रु से प्रतिकार लेने का यह उत्तम उपाय नहीं है। आप एकदम पटवार का अवकाश स्थगित करा लीजिए। कागजात सभाल कर बरकत अली से ले लीजिए वह कहीं न कहीं गलती में अवश्य फंसा मिलेगा उस चोट से उस पर प्रहार कीजिये जिस चोट को वह जीवन भर स्मरण रखे। ऐसा करने पर आपको एक पत्र मिल गया जिसमें अदुल हक गिरदावर ने लिखा था कि पटवारी जी मुझे गाँव वालों से गाय दिलाओ, रूपये दिलाओ इत्यादि। उचित समय पाकर आपने उन पर मुकदमा दायर कर दिया और अपने पक्ष के सही कागजात अदालत में उपस्थित कर दिये। इसका परिणाम वही हुआ जो आप चाहते थे। अपराधी सिद्ध होने पर दोनों ही अपने-अपने पदों से नीचे गिरा दिये गये। अपने किये का फल पाकर वे दोनो बड़े लज्जित हुए।

महर्षि दयानन्द की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए पटवार से त्याग पत्रः- समाज सेवा व दुःखियों के दुःख दूर करना आपके जीवन का लक्ष्य हो गया था। सेवा करने में अब आपको पटवार की नौकरी भी रुकावट दिखाई देने लगी आपने अपने परिजनों से सर्विस छोड़ने का विचार बताया। सभी ने आपको समझाया की नौकरी बड़ी मुश्किल से मिलती है। आय का अन्य स्रोत भी नहीं है। परन्तु धुन के धनी ने किसी की बात न मानते हुए पटवार से त्याग पत्र दे ही दिया। आपके द्वारा 1918 में प्रेषित त्याग पत्र जब आपके महकमे के उच्च अधिकारियों के पास पहुँचा तो इस त्याग-पत्र से बहुत दुःखी हुए। उन्होंने आपका त्यागपत्र आपको वापिस भेज दिया। आपने पुनः उनके प्रेम के लिए धन्यवाद करते हुए अपने जीवन के लौकिक सुख के मार्ग को छोड़कर पारलौकिक मार्ग को अपनाने की इच्छा व्यक्त की। आध्यात्मिक जगत में ही मेरी प्रीति हो चली है। अतः आप मेरे त्यागपत्र को स्वीकार कर मुझे पटवार की सेवा से मुक्त करने का कष्ट करें। मुयाधिकारियों ने अनिच्छा होते हुए भी आपकी महान कार्य करनेकी अभिलाषा जानकर आपका त्याग-पत्र स्वीकार किया।

स्नेही भाई कूड़े राम का महाप्रयाणः- इन्हीं दिनों आपके बड़े भाई कूड़ेराम जी अस्वस्थ चल रहे थे। आप त्यागपत्र देकर अपने पैतृक गांव माहरा आ गये । बड़े भाई को रुग्न देखकर आप बहुत चिन्तित हुए आपने उनकी चिकित्सा कराने का पूरा प्रयत्न किया। अपना अन्तिम समय आया जानकर आपको अपने पास बुलाकर ये शब्द कहे- ‘‘भाई मेरा तो अब अन्तिम समय आ गया है। आप जैसे भाई के साथ अब मैं रह न सकूंगा। यदि मुझसे कोई भूल हो गई हो तो मुझे आप क्षमा कर देना। आपके जीवन का उद्देश्य महान है। मेरी प्रभु से बार-बार यही प्रार्थना है कि वह तुहारे जीवन के लक्ष्य को पूर्ण करे।’’ ये शब्द कहकर उन्होंने सदा के लिए आँख बन्दकर ली। आप भाई के असह्य वियोग को सहकर धैर्य धारण करके जीवन-मरण की गति को निश्चित मानकर सेवा के लिए उद्यत होकर आगे बढ़े।

गुरुकुल की स्थापनाः- पटवार के कार्य से मुक्त होकर सेवाव्रती बनकर विचारने लगे कि बालकों को युवाओं को धार्मिक ग्रन्थ पढ़ाये जायें जिससे उनको अपने कर्त्तव्याकर्त्तव्य का बोध हो। इस सारे कार्य क ो पूर्ण कने के लिए ‘‘आर्य युवक विद्यालय’’ खोला जावे। इस महान उद्देश्य को पूर्ण करने केलिए अपने गुरु स्वामी ब्रह्मानन्द जी के सामने अपने विचार रखे। स्वामी जी ने उनको समझाते हुए कहा, ‘‘कि आप गुरुकुल खोलिये और उसमें छोटे छोटे बालकों को प्रवेश दीजिए। छोटे बालक जब उत्तम शिक्षा से शिक्षित होकर संसार में काम करेंगे, वे अधिक सफल हो सकेंगे। छोटे बच्चों में ही उत्तम संस्कार डाले जा सकते हैं। उन्हें आप जैसा बनाना चाहेंगे वैसा बना भी सकेंगे। आप भी गुरुकुल कांगड़ी की तरह हरियाणा में आदर्श गुरुकुल खोलिये। इसी से आर्य जाति का कल्याण होगा। स्वामी जी के विचारों का भक्त जी पर बड़ा प्रभाव पड़ा। अब गुरुकुल खोलने के लिए उचित स्थान ढूढ़ने लगे। इस तरह घूमते-घूमते तीन वर्ष व्यतीत हो गये। इसी प्रकार घूमते हुए वे जिला रोहतक के ग्राम आवंली पहुँचे। आँवली ग्राम के प्रसिद्ध पंचायती आर्य पुरुष श्री गणेशी राम जी अपने भतीजे बलदेव का दसूटन धूम-धाम से कर रहे थे आप भी उस स्थान पर अन्य प्रतिष्ठित पुरुषों के साथ पहुँचे। आपने  देखा जिस स्थान पर लोग बैठे हैं वह स्थान बहुत मैला (गन्दा) है। आपने पास पड़ी झाडू उठाई और सफाई करने लगे। उसी समय श्री गणेशी राम की द़ृष्टि लबी काली दाढ़ी वाले उस तेजस्वी व्यक्ति पर पड़ी जो झाडू से सफाई कर रहा था। उन्होंने आप से झाडू लेकर स्वयं स्थान को साफ किया। तदन्तर उस तेजस्वी व्यक्ति से सभी ने पूछा आप कहाँ से आये हो? आपके आने का उद्देश्य क्या है? उन सबकी बातों को सुनकर आपने कहा- ‘‘भाइयों मैं हरियाणा की सेवा के लिये तथा बालकों को आर्य बनाने के लिए सकंल्प क रके घर से निकला हूँ। मैं तीन वर्ष से गुरुकुल खोलने के लिए उत्तम स्थान प्राप्त करने की इच्छा से सर्वत्र घूम रहा हूँ।’’

दसूटन की समाप्ति पर उपस्थित आर्यजन भैंसवाल ग्राम में आये। सब ग्राम वासियों को इकट्ठा कर आपने बड़े मार्मिक शब्दों  में अपनी भावना प्रकट की। आपने कहा कि मैंने आपके गांव का जंगल देखा है, वह गाँव से दूर है, रमणीक है, उस स्थान पर यदि गुरुकुल खुल जाये तो बड़ा भारी कल्याण हो सकता है। इस काम के लिए सब भाई मिलकर गुरुकुल केलिए भूमि दान करें। गा्रम के प्रायः सभी लोगों ने आपकी प्रार्थना स्वीकार की। परन्तु जो जन उस जंगल की भूमि का उपयोग कर रहे थे, वे उस भूमि को देने में आना-कानी करने लगे। उन विरोधियों को सहमत करने के लिए आप जेठ मास की कठोर गर्मी की धूप में अनशन पर बैठ गये। धूप तथा भूख से आप मरणासन्न हो गये।

जब ग्राम वासियों ने देखा कि यह साधु प्राण त्याग देगा पर कठोर साधना नहीं छोड़ेगा। तब वे विरोध करने वाले भाई हाथ जोड़कर आपके सामने उपस्थित हुए और बोले – ‘‘भक्त जी छाया में बैठो, भोजन करो। अब हम भूमि के साथ आपक ो गुरुकुल के लिए रूपये भी देगें।’’ भक्त जी ने प्रेम भरे शब्द सुने। अपना कठोर अनशन व्रत तोड़ा। सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। गांव वालों ने 150 बीघा भूमि गुरुकुल खोलने क ो दी। सन् 1919 को गुरुकुल की आधार – शिला अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द जी से रखवाने का निश्चय किया। निश्चित तिथि को स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज देहली से सोनीपत के रेलवे स्टेशन पहुँच गये।  जब स्वामी जी रेलगाड़ी से नीचे उतरे तो आर्य बन्धुओं ने वैदिक धर्म की जय महर्षि दयानन्द की जय, स्वामी श्रद्धानन्द की जय के जयघोषों से आकाश गुंजायमान कर दिया।

सोनीपत से भैंसवाल तक का मार्ग 12 कोस का है। स्वामी श्रद्धानन्द जी के लिए रथ की व्यवस्था आर्य जनों ने की परन्तु स्वामी जी रथ में एक बार बैठकर पैदल हीअपने प्रेमियों के साथ चल पड़े। गैरिक वस्त्रधारी विशालकाय स्वामी श्रद्धानन्द जनसमूह के साथचलते हुए देदीप्यमान दिखाई दे रहे थे। गुरुकुल भैंसवाल की भूमि पर पहुँचकर आधार शिला रखने के उपरान्त आर्यजनों को सबोधित करते हुए कहा हरियाणा की भूमि आर्य भूमि कहलाने की अधिकारिणी है। यहाँ के मनुष्य माँस-मदिरा आदि दुर्गुणों से सर्वथा दूर हैं। यहाँ का भोजन दूध, दही और घी पर आश्रित है। मैंने जो उत्साह यहाँ की आर्य जनता में देखा है, वैसा उत्साह दूसरे स्थानों में कम मिलता है। मैं आशा करता हूँ कि यह कुल-भूमि हरयाणा के आर्यों का नेतृत्व करेगी।

गुरुकुल का प्रथम महोत्सवः- सन् 1920 में ज्येष्ठ मास के गुरुकुल भैंसवाल का प्रथम वार्षिक उत्सव धूम-धाम से सपन्न हुआ । इस उत्सव में उत्तम विद्वान्, सन्यासी, भजनोपदेशक समिलित हुए थे। उत्सव में कई हजार नर-नारियों की उपस्थिति रही। जनता में अपार हर्ष था। इस अवसर पर भक्त फूल सिंह के महान् कार्य की प्रशंसाा करते हुए स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती ने जनता से धन की अपील की। इस अपील से प्राावित होकर आर्य जनता ने बीस हजार रूपये की विशाल धन राशि प्रदान की। इससे गुरुकुल केावनों का निर्माण हुआ। इसी अवसर पर गुरुकुल में पचास छोटे-छोटे बालकों को प्रवेश दिया गया, जिनका वेदारभ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कराया। उनकी ओर से सब विधि स्वामी ब्रह्मानन्द जी कर रहे थे।

गुरुकुल भूमि के इन्तकाल के लिए घोर तपस्याः- गुरुकुल तो चालू हो गया था। परन्तु उसकी भूमि का इन्तकाल अभी तक नहीं चढ़ पाया था। इससे आप बहुत बेचैन रहते थे। जिन लोगों की वह भूमि थी उन में से कुछ व्यक्ति इन्तकाल चढ़ाने में बाधा उपस्थित कर रहे थे। आपने घोषणा की या तो मेरे भाई गुरुकुल के नाम भूमि का इन्तकाल करा देंगे नहीं तो ज्येष्ठ मास की इस कड़कडाती धूप में अन्न जल का सर्वथा त्याग कर अपने प्राणों को त्याग दूंगा। यह कहकर उस भंयकर धूप में गाँव के बाहर बैठ गये। उस भीषण गर्मी में अन्न तथा जल के स्वीकार न करने से आप मूर्च्छित होकर गिर पड़े। लबे-लबे श्वास चलने लगे, शरीर पसीने से तर-बतर हो गया, नाड़ी की गति मन्द पड़ गई। ऐसा प्रतीत होने लगा कि आप कुछ काल के ही मेहमान हैं।

जब गाँव के अग्रणी लोगों ने भक्त जी की यह अवस्था देखी तो विरोध करने वाले व्यक्तियों को समझाया और वे भी भक्त जी को मूर्च्छित अवस्था में देखकर अश्रु बहाते हुए आपसे बोले भक्त जी हमसे बड़ा पाप हुआ, आप हमें माफ करें, छाया में बैठिये। भोजन तथा जल पीकर स्वस्थ होकर हमें पाप से बचाइये। आप जो कहोगे हम वहीं करेंगे। आप ने उन्हें छाती से लगाया इस प्रकार भूमिका इन्तकाल भी चढ़ गया और साथ में भाईयों का प्रेम भी प्राप्त कर लिया।

पटवार काल में ली हुई रिश्वत का लौटानाः- प्रजा की सेवा करते-करते आपका मन निर्मल हो गया। पटवार काल में आपने जो रिश्वत ली थी वो सारी की सारी अक्षरों में अंकित थी। जब कभी आप इन रिश्वत के लिए हुए रूपयों को देखते तो आपको बहुत मानसिक कष्ट होता। अन्त में आपने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो यह ली हुई रिश्वत वापिस करनी है। यह संया में पाँच हजार थी। आपने बहुत सोच विचार कर निर्णय किया कि अपने हिस्से की जो जमीन पैतृक गाँव माहरा में है, उसको बेचकर रिश्वत वापिस की जावे। आपने अपने मन की यह इच्छा अपने छोटे भाई चौधरी रिच्छुराम व अन्य हितैषियों को बताई। आपके भाई ने कहा, ‘‘मैं आपके धार्मिक विचारों को बदलना नहीं चाहता हूँ। आप रिश्वत में लिया हुआ रूपया अवश्य वापिस करें परन्तु मेरा आपसे निवेदन है कि भूमि को बेचे नहीं, गिरवी रख दें और रूपये प्राप्त कर लें। जब कभी मेरे पास रूपयों का प्रबन्ध होगा तब मैं उस भूमि को छुड़ा लूंगा। आपकी इच्छा भी पूरी हो जायेगी और पैतृक जायदाद भी रह जायेगी। अपने भाई की बात मानकर आपने ग्राम माहरा की पंचायत बुलाई और उनसे कहा, ‘‘भाईयों कोई गांव वाला मेरे नाम की भूमि पांच हजार रूपये में गिरवी रख ले जिस रूपये को लेकर मैं ली हुई रिश्वत को वापिस करना चाहता हूँ। गाँव का कोई भी व्यक्ति उक्त राशि देने को तैयार नहीं हुआ। तब सबको चुप देखकर खानपुर गाँव के प्रसिद्ध पंचायती श्री जयराम जी ने हाथ उठा कर ‘‘कहा माहरा गाँव के भाईयों, सुनो अगर कोई बाहर का व्यक्ति जमीन लेगा तो गांव की निन्दा होगी और कहेंगे सारा गाँव कंगाल है।’’ जयराम जी की बात सुनकर गाँव के धनी-मानी प्रतिष्ठित चौ. सुण्डूराम जी ने पाँच हजार रूपये देकर वह भूमि ले ली। उसे रूपये से आपने जिस-जिस से रिश्वत ली थी वह सब वापिस कर दी। संसार के इतिहास में यह एक अद्भूत घटना है। वाह रे, भक्त जी आपने वो काम किया जो संसार में कोई नहीं कर सका।

वृद्ध चमार को अपने सिर पर जूता मारने को कहनाः- मानव जीवन में समय-समय पर सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी वृत्तियों का उदय होता है। सतोगुणी वृत्ति से कल्याण होता है रजोगुणी, तमोगुणी वृत्तियाँ पाप का कारण बन जाती हैं। जिन दिनों आप पटवारी थे और युवा थे तथा नशे में आकर एक चमार के सिर पर आपने जूते मारे थे, जिसकी याद आपको सदा बनी रहती थी।

वानप्रस्थाश्रम में दीक्षित होकर गुरुकुल के काम से उसी गाँव में आपको आना हुआ। आप तेजी से चमार के घर की ओर बढ़े। अचानक आपकी नजर उस वृद्ध चमार पर पड़ी तो आप आगे बढ़कर उसके पांवों में लिपट कर पिता जी, पिताजी, आप मेरे पाप के अपराध को क्षमा करो। मैं बड़ा पापी हूँ। अपना जूता निकालकर उनके  हाथ में देते हुए कहा आप मेरे सिर पर मारकर मेरे सिर पर टिके हुए पाप के भार को उतार दो। वह चमार इस प्रकार रोते हुए देख कर घबराते हुए अपने पैर छुड़ाते हुए बोला, आप इतने बड़े साधु मुझ नाचीज के पाँव पकड़े हुए हो, मुझे इससे पाप चढ़ता है। तब आपने अपने पटवार काल की सारी घटना कह सुनाई। उस चमार ने यह सुनने के बाद कहा ‘‘उस समय आपने नहीं पटवार काल ने जूते मरवाये थे। अब आप महात्मा हैं। वह चमार आपसे लिपट कर बहुत समय तक रोता हुआ आपको भी रुलाता रहा। मन ही मन आपकी प्रशंसा करने के उपरान्त बोला आप तो ऋषि हैं देवता हैं जो अपने किये हुए पाप से दुःखी हैं। मैं प्रभु से बार-बार यही प्रार्थना करता हूँ कि वह आपको सफल करे। जिससे आप मुझ जैसे अनेक दुःखियों का दुःख दूर कर सकें।’’

एक लाख रूपये का संग्रह करने का व्रतः- आचार्य युधिष्ठिर जी के गुरुकुल में आ जाने से गुरुकुल की पठन-पाठन की व्यवस्था सुचारु रूप से चलने लगी। आप गुरुकुल की आर्थिक स्थिति को सुधारने की सोचने लगे। उन्हीं दिनों आपके परम हितैषी गुमाना निवासी श्री थानसिंह जी आपसे मिलने गुरुकुल में पधारे। बातों-बातों में आपने उनसे कहा भाई- लोगों के  संस्कार बिगड़ गये हैं जब तक संस्कार ठीक नहीं होगे देश का कल्याण नहीं होगा। श्री थान सिंह जी ने अपने पोते का ‘‘मुण्डन संस्कार’’ गुरुकुल के अध्यापकों से करवाने की इच्छा व्यक्त की। आपने प्रसन्नता से इसकी स्वीकृति दी। गुरुकुल केआचार्य युधिष्ठिर जी के साथ आप गुमाना गाँव पहुँचे। वहाँ पर विधि पूर्वक मुण्डन संस्कार सपन्न हुआ। उत्तम प्रवचन तथा भजनोपदेश से प्रभावित होकर श्री थान सिंह जी ने एक हजार रूपये का विपुल दान गुरुकुल को दिया। अपने इस अवसर पर श्री थानसिंह जी को धन्यवाद एवं पोते को अपना शुभाशीर्वाद प्रदान किया।

श्री थानसिंह जी द्वारा एक सहस्त्र रूपये प्राप्त करने के उपरान्त आपने गुरुकुल के भली प्रकार संचालन हेतु एक लाख रूपये एकत्रित करने का दृढ़ संकल्प किया। साथ में यह भी प्रतिज्ञा की कि जब तक उक्त रूपया इकट्टा नहीं करुंगा । तब तक दिन भर खड़ा रहूंगा, सायंकाल पाव भर जौ के आटे की ही रोटियाँ खाऊँगा तथा गुरुकुल भूमि में भी प्रवेश नहीं करुंगा। उस समय हरियाणा में भयंकर अकाल पड़ा हुआ था। पशु चारे-पानी के अभाव में मर रहे थे, लोगों के पास खाने को कुछ भी नहीं था।फिर भी गांव वालों ने आपके इस प्रण को सामर्थ्यानुसार पूरा करने का प्रयास करके 55000 रूपये एकत्रित किये। शेष राशि 45000 रु. की रिवाड़े गाँव के व्यक्तियों ने मन्त्रणा करके 100 बीघा जमीन गुरुकुल को दान कर दी। इस प्रकार आपका यह कठोर व्रत लगभग 4 वर्ष में पूर्ण हुआ।

उपकार से विरोधी को अपनानाः- आवली गाँव के एक प्रतिष्ठित पुरुष नबरदार रतीराम जी किन्हीं लोगों के बहकावे में आकर आपको अपना शत्रु मान बैठे  परन्तु भक्त जी की तो शत्रु हो या मित्र सब पर समदृष्टि रहती थी। रात्रि में चोरों ने रतीराम जी का सहस्त्रों रूपये का धन निकाल लिया। आप इस घटना से अत्यन्त खिन्न हुए। आपने अपने सूत्रों के द्वारा चोरों का पता लगा लिया कि इस समय चोर जंगल में बैठकर धन का बंटवारा कर रहे हैं। आपने तुरन्त पुलिस को इसकी सूचना दी। पुलिस ने घटना स्थल पर पहुँचकर रंगे हाथों उन चोरों को पकड़ा और नबरदार को उसका सारा धन वापिस मिल गया। नबरदार को जब इस बात का पता चला तो वह आपके पास आया और आपके चरणों में गिरकर क्षमा याचना की। भक्त जी ने भी उनको उठाकर अपनी छाती से लगा लिया

गान्धरा में विशाल पंचायतः- गाँव वालों को अनेक निकृष्ट रिवाजों ने घेर लिया, उनसे छुडवाने के लिए आपने सन् 1925 में सब खापों की एक विशाल पंचायत बुलाई। जिसमें पंचायत का सारा व्यय का भार भी आपने आपने आप ही वहन किया। उसमें विवाह, मृत्युभोज आदि पर अनर्गल खर्च पर प्रतिबन्ध लगाया और पंचायत द्वारा निर्मित उत्तम रिवाजों का प्रचलन हुआ।

बीधल गाँव की परस्पर कलह के कारण रुकी हुई चौपाल का बनवानाः- बीधल गाँव की पार्टी बाजी के कारण चौपाल नहीं बनने दे रहे थे। चौपाल बनानेके इच्छुक व्यक्ति लड़ाई से बचना चाहते थे। कुछ व्यक्तियों ने गुरुकुल में जाकर अपनी कष्ट कथा सुनाई। उसको सुनकर आप उनसे बोले – ‘‘मैं कल समय पर आऊँगा, आप सब वहाँ उपस्थित रहना।’’ आपने ठीक समय पर जाकर उन भाईयों को बार-बार समझाने का प्रयास किया। परन्तु वे माने नहीं। अन्त में आपने कहा ‘‘अच्छा लो मैं नींव में घुसता हूँ और खोदना प्रारभ करता हूँ। तुम मुझे मार डालो या चौपाल बनने दो। यह कहकर वहाँ गर्दन झुका कर खड़े हो गये। विरोधी उस समय पिघल गये। सबने आपसे क्षमा मांगी और चौपाल बनाने की सहमति दी।’’

डबरपुर गाँव के नेकीराम और भरतसिंह का जमीन सबन्धी विवाद समाप्त कराना।

शेष भाग अगले अंक में……

 

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वैदिक धर्म प्रेमी एवं दयानन्दभक्त श्री शिवनाथ आर्य’ -मनमोहन कुमार आर्य

यस्य कीर्ति सः जीवति

श्री शिवनाथ आर्य हमारी युवावस्था के दिनों के निकटस्थ मित्र थे। उनसे हमारा परिचय आर्यसमाज धामावाला देहरादून में सन् 1970 से 1975 के बीच हुआ था। दोनों की उम्र में अधिक अन्तर नहीं था। वह अद्भुत प्रकृति वाले आर्यसमाजी थे। उनके विलक्षण व्यक्तित्व के कारण मैं उनकी ओर खिंचा और हम दोनों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बन गये जो समय के साथ साथ निकटतर व निकटतम होते गये। श्री शिवनाथ जी हमारे ही मोहल्ले में हमारे घर से लगभग 500 मीटर की दूरी पर एक किराये के भवन में रहते थे। पांच पुत्रों और दो पुत्रियों का आपका भरापूरा परिवार था। आप देहरादून के कपड़ों के प्रसिद्ध बाजार रामा मार्किट में एक दर्जी की दुकान पर कपड़े सिलने का काम करते थे। आप पुरूषों की कमीजें सिलते थे और आपको प्रति कमीज के हिसाब से पारिश्रमिक मिलता था। रात दिन आपको आर्यसमाज के प्रचार की धुन रहती थी। दुकान के मालिक आपकी प्रकृति व प्रवृत्ति से भलीभांति परिचित थे। जब आपको कोई बात सूझती तो आप दुकान से निकल पड़ते और घंटे दो घंटे बाद दुकान पर आ जाते और काम करने लगते। हम भी यदा कदा आपकी दुकान पर जाते आते थे और दुकान के स्वामी से बातें करते थे जो बहुत सज्जन व व्यवहार कुशल थे। शिवनाथ जी अच्छी बातें सीखने की प्रवृत्ति भी थी। यही कारण था कि आपने अपने बच्चों से कामचलाऊ हिन्दी पढ़ना व लिखना सीख लिया था। आप आर्यसमाज की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं को पढ़ते थे और अपनी प्रतिक्रियायें भी भेजते थे जो यदाकदा पत्रों में छप जाती थीं। हमने भी ऐसी कई प्रतिक्रियायें पढ़़ी थी।

 

कुछ समय बाद आपने एक किराये की दुकान ली और स्वतन्त्र रूप से वस्त्र सिलने का काम आरम्भ कर दिया। हमने भी एक बार पैण्ट शर्ट सिलवाया परन्तु हमारा अनुभव अच्छा नहीं रहा क्योंकि फिटिंग में कमियां थी। हमारे मोहल्ले में अन्य कई मित्र भी रहते थे जो आर्यसमाज से संबंधित थे। प्रमुख व्यक्ति इंजीनियर सत्यदेव सैनी थे। इनका निवास हमारे और श्री शिवनाथ जी के निवास के मध्य में था। सैनी जी आवास विकास परिषद में अवर अभियंता-जेई के रूप में सर्विस करते थे। देहरादून में जब हरिद्वार रोड़ पर नेहरू कालोनी के नाम से आवासीय भवनों का निर्माण हुआ तो, श्री सैनी जी ने मार्गदर्शन कर शिवनाथ जी के लिये भी एक आवास बुक करा दिया था जो उन्हें आवास बन जाने व उनको अलाट होने पर किस्तों में लिया था। आज भी आपका परिवार इसी मकान में रहता है। हमारे मोहल्ले के एक अन्य महत्वपूर्ण आर्यसमाजी बन्धु श्री धर्मपाल सिंह थे जो पहले पोस्टमैन बने, फिर केन्द्रीय जल संसाधन कार्यालय में नियुक्त हुए और बाद में उत्तर प्रदेश लेखकीय सेवा में नियुक्त हुए थे। आपका निवास हमारे निवास से कुछ मकानों के अन्तर पर ही था। हम दोनों एक ही स्कूल श्री गुरूनानक इण्टर कालेज में पढ़े थे। घर्मपाल जी कला विषय पढ़ते थे और मैं विज्ञान व गणित का विद्यार्थी था, अतः दोनों की कक्षायें अलग अलग थी। पता नहीं कैसे, हम दोनों में निकटता हो गई और उन्हीं की निकटता, मित्रता, व्यवहार एवं प्रेरणा से मैं भी आर्यसमाजी बन गया। धर्मपाल जी को आर्यसमाज की पुस्तके पढ़ने का बहुत शौक था और सैकड़ों की संख्या में उनके यहां साहित्य था। मैं भी उनसे प्रेरित होकर पुस्तके खरीदने और पढ़ने लगा था और पढ़ने का मेरी प्रवृत्ति, रूचि वा शौक आज भी पूर्ववत जारी है। उनके व अन्य मित्रों के साथ अनेक बार दिल्ली व अन्यत्र अनेक कार्यकर्मो में जाने का अवसर मिला था। 31 अक्तूबर सन् 2000 को वह अपने विभागीय कार्य से ट्रैकर से पौडी जा रहे थे जो ऋषिकेश पास दुर्घटनाग्रस्थ हो गया था जिससे उनकी मृत्यु हो गई और वह हमसे सदा सदा के लिए बिछुड़ गये।

 

श्री शिवनाथ जी ने अपने आर्य एवं आर्यसमाजी बनने की घटना हमें दो या तीन अवसरों पर सुनाई थी जो अत्यन्त मार्मिक एवं प्रभावकारी है। उन्होंने बताया था कि एक बार वह किसी आर्यसमाज के सत्संग में जा पहुंचे। वहां एक विद्वान का प्रवचन चल रहा था। उन्होंने प्रवचन सुना। वक्ता महोदय ने एक घटना सुनाते हुए कहा था कि एक पिता अपने किशोर अवस्था वाले पुत्र को पढ़ाई करने के लिए बहुत ताड़ना किया करते थे। वह पुत्र इससे उनका विरोधी हो गया और उसने उन्हें समाप्त करने की योजना बना डाली। एक दिन वह बालक स्कूल जाने के बजाये एक बड़ा पत्थर लेकर घर की छत पर जा पहुंचा। वहां एक ऐसा स्थान बना था कि यदि वह उसे छोड़ता तो वह सीधा कार्यालय जाने से पूर्व नाश्ता कर रहे पिता के सिर पर गिरता और इससे उनकी मृत्यु हो जाती। इससे पूर्व कि बालक अपनी योजना को अंजाम देता, नाश्ता करने से पूर्व उस बालक की मां ने पिता को पुत्र की ताड़ना करने वा डांटने का विरोध करते हुए उन्हें उससे प्रेम पूर्वक व्यवहार करने की विनती की। इस पर पिता ने अपनी धर्मपत्नी को बताया कि वह अपने पुत्र उससे कम प्यार नहीं करते अपितु सभी पिताओं से कुछ अधिक प्यार करते हैं। वह चाहते हैं कि उनका पुत्र बड़ा होकर बहुत योग्य मनुष्य बने। ऐसा न हो कि बड़ा होकर वह अपने मित्रों से पिछड़ जाये और उसे सारा जीवन पछताना पड़े। यही कारण है कि वह पढ़ाई में उससे सख्ती करते हैं क्योंकि इसी से उसका जीवन बनेगा। बालक ने पिता की बातें ध्यान से सुनी तो उसके मन से उनके प्रति घृणा व ईर्ष्या दूर हो गई। वह नीचे उतरा और पिता के पास गया और उन्हें अपनी योजना के बारे में बताकर क्षमा याचना की और भविष्य में अपनी पूरी क्षमता से पढ़ाई करने का उन्हें आश्वासन दिया। सत्संग में व्याख्यान दे रहे वक्ता ने बताया कि बाद में यह बच्चा अपने सभी मित्रों से आगे निकल गया और विद्वान व धनी व्यक्ति बना। शिवनाथ जी जब इस घटना को सुनाते थे तो उनकी व सुनने वालों की आंखों में अश्रुधारा प्रवाहित हो जाती थी। इस प्रवचन वा घटना से प्रभावित होकर वह आर्य समाजी बने थे और उन्होंने सच्चा धार्मिक व सामाजिक जीवन व्यतीत किया।

 

श्री शिवनाथ आर्य की प्ररेणा पर हमने वेदों व आर्यसमाज का प्रचार करने के लिए एक वेद प्रचार समिति, देहरादून का गठन भी किया जिसके प्रधान श्री सत्यदेव सैनी बनाये गये थे। मैं भी कुछ कार्य देखता था। श्री शिवनाथ आर्य, श्री धर्मपाल सिंह एवं एलआईसी में कार्यरत बहिन श्रीमति फूलवती जी, उनके पति शर्मा जी, माता सुभद्रा जी आदि इसके सक्रिय सदस्य थे। हम सब लोग मिल कर प्रत्येक रविवार को पारिवारिक वैदिक सत्संग करते थे। आरम्भ में यज्ञ, फिर भजन और अन्त में प्रवचन होता था। इस समिति के अन्तर्गत एक बार देहरादून के प्रमख सरकारी अस्पताल दून चिकित्सालय में वृहत यज्ञ व सत्संग का आयोजन किया गया था। देहरादून में एलआईसी का जब भव्य नवीन भवन बना तो उसका उदघाटन भी यज्ञ व सत्संग से ही किया गया था। एक वृहत योग शिविर एवं वेद विद्या पर स्वामी सम्बुद्धानन्द जी के आर्यसमाज धामावाला देहरादून में एक सप्ताह तक योग प्रशिक्षण एवं प्रवचन आदि सम्पन्न किये गये थे। ऐसी अनेक गतिविधियां श्री शिवनाथ जी के साथ मिलकर हमने 1990 व 2000 के दशक में की थी। एक बार आर्यजगत के विख्यात विद्वान, नेता और संन्यासी स्वामी नारायण स्वामी जी की कर्मस्थली नैनीताल से कुछ दूरी पर स्थित रामगढ़़ तल्ला में एक तीन दिवसीय आयोजन हुआ। हमने अपने और कुछ मित्रों के रेल टिकट बुक करा लिये थे और शिवनाथ जी को कार्यक्रम के बारे में सूचित कर दिया था। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब हमारे वहां पहुंचने के कुछ समय बाद वह भी अनेक असुविधायें झेलते हुए पहुंच गये थे। आर्यसमाज व वैदिक धर्म में उनकी आस्था व श्रद्धा निःसन्देह प्रशंसनीय थी। श्री शिवनाथ जी की कमजोर आर्थिक स्थिति व बड़े परिवार को देखते हुए उनके लिए यह जोखिम का कार्य था। इससे उनको कार्य करके मिलने वाले धन की क्षति होने के साथ व्यय भी करना पड़ा था। मित्रता के नाते उन्होंने वहां पहुंच कर हमें अनेक उलाहने दिये। कहा कि आप मुझे अपने साथ नहीं लाये आदि। एक बार एक सन्यासी देहरादून में उन्हें मिल गये और वह उनके साथ अपने परिवार वालों को बिना बताये उत्तराखण्ड के पर्वतों की ओर भ्रमण पर निकल गये। घरवाले व हम परेशान थे। अनिष्ट की आंशका भी हुई। मोबाइल फोन उन्होंने कभी रखा नहीं था। हमने देहरादून के सरकारी अस्पतालों व पुलिस स्टेशन आदि जाकर पता किया परन्तु कुछ पता नहीं चला। लगभग 1 सप्ताह बाद वह घर आ गये तब पूरी बात का पता चल सका। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं थी कि उनकी अनुपस्थिति में घर वालों पर क्या बीती थी। इससे यह पता चलता है कि वह अपनी घुन के धुनी थे और परिवार के मोहपाश में कम ही बंधे हुए थे।

 

श्री शिवनाथ जी को प्रवचन करने का अभ्यास भी हो गया था। हम जहां सत्संग करते थे वहां अन्य विद्वानों के साथ श्री शिवनाथ जी प्रायः प्रवचन भी किया करते थे। इन पंक्तियों को टाइप करते हुए सन् 1995 के देहरादून के कुछ समाचार पत्रों की कतरने हमारे सम्मुख आ गईं हैं जिनमें श्री शिवनाथ जी के प्रवचन प्रकाशित हुए हैं। एक समाचार का शीर्षक है श्रेष्ठ कर्म मनुष्य को द्विज बनाते हैं: आर्य’, अन्य समाचारों के शीर्षक हैंजन्म से सभी शूद्र होते हैं: शिवनाथ आर्य,  ‘कायर लोग ही धर्मान्तरण करते हैं: शिवनाथ तथाराम, कृष्ण एवं दयानन्द गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की देन थे: शिवनाथ आदि।

 

श्री शिवनाथ जी स्वयं को राजनीति से भी जोड़कर रखते थे। जब भी देहरादून नगर पालिका के सभासदों वा पाषर्दों के चुनाव होते थे तो वह भी चुनाव में खड़े होते थे। उन्हें कोई वोट मिलेगा या नहीं, इसकी चिन्ता उन्हें नहीं थी। इसी बहाने वह अपना चुनाव प्रचार करते थे और साथ में आर्यसमाज का भी प्रचार उसमें शामिल कर लेते थे। उनकी एक दो सभाओं में हम भी गये और उन्होंने वहां हमसे भी भाषण दिलवाया था। इसी प्रकार से वह दलित समाज के भी अनेक कार्यक्रमों में जाते थे। हमें प्रायः साथ रखते थे और वहां वह प्रवचन भी करते थे। लोगों को हमारा परिचय देते हुए हमारी दिल खोल कर प्रशंसा करते थे। एक बार कृष्ण जन्माष्टी के पर्व पर उन्होंने हमें भी अपने विचार व्यक्त करने के लिए विवश किया था। हमने उस समय श्री कृष्णजी के बारे में आर्यसमाज का दृष्टिकोण रख दिया था। इसके साथ ही हमने वहां लोगों को अपने बच्चों को शिक्षित करने तथा अपने परिवारों को शराब व मांस के रोग से मुक्त रखने व शुद्ध शाकाहारी भोजन करने के लिए समझाया था। अनेक अवसरों पर अनेक दलित परिवारों में भी उन्होंने पारिवारिक यज्ञ एवं सत्संग का आयोजन किया और सभी जगह वह हमें अपने साथ ले जाते थे। इससे हमें दलित बन्धुओं से मिल कर उनकी कुछ समस्याओं का ज्ञान भी होता था। हिन्दू समाज का यह दुर्भाग्य है कि यह परमात्मा की सन्तानों, अपने भाईयों से छुआ-छूत, ऊंच-नीच जैसा अमानवीय व्यवहार करते हैं। आर्यजगत के प्रसिद्ध गीतकार एवं गायक कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर ने गुलामी के दिनों में एक बार पेशावर में कहा था कि हिन्दू कुत्ते व बिल्ली के बच्चों को तो प्यार करते हैं, अपनी गोद में उठा लेते हैं परन्तु अपने ही भाईयों को दुतकारते व अपने से दूर रखते हैं। इस पर पेशावर में कुंवर सुखलाल जी पर अंग्रेज सरकार द्वारा अभियोग भी चलाया गया था।

 

श्री शिवनाथ जी बहुत पुरूषार्थ करते थे तथा इसके विपरीत उन्हें पौष्टिक भोजन, अन्न, दुग्ध, फल व मेवे आदि शायद ही कभी भली प्रकार से प्राप्त हुए हों। इसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक था। इससे सम्बन्धित भी हमारी स्मृति में कुछ घटनायें हैं। सन् 2001 में देहरादून में आर्यसमाज के प्रमुख विद्वान श्री अनूप सिंह जी कैंन्सर रोग से पीडि़त थे। श्री अनूपसिंह जी का हमारे व्यक्तित्व के निर्माण में बहुत मनोवैज्ञानिक प्रभाव रहा है। उनसे व उनके परिवार से हमारे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध थे। 21 जून, 2001 को उनकी दिल्ली के पन्त हास्पीटल में मृत्यु हुई थी। उन्हें देहरादून लाया गया और उसके अगले दिन हरिद्वार में गंगा के तट पर उनका वैदिक रीति से अन्तिम संस्कार किया गया था। मृत्यु से कुछ दिन पूर्व उन्होंने हरिद्वार में गंगा के तट पर साधारण तरीके से अन्त्येष्टि की हमसे इच्छा भी व्यक्त की थी। मृत्यु का समाचार मिलने पर श्री शिवनाथ जी उनकी शवयात्रा में भाग लेने के लिए उनके घर साइकिल चलाकर आ रहे थे। तभी रास्ते में उनके सीने में दर्द हुआ। शायद यह हल्का हृदयाघात था। उन्होंने सड़क के किनारे लेट कर कुछ क्षण आराम किया और उसके कुछ समय बाद अनूपसिंह जी के घर पहुंच गये। वह शवयात्रा के साथ हरिद्वार गये और अन्त्येष्टि में शामिल हुए। वहां उन्होंने हमसे कभी कभी होने वाले अपनी पीठ के दर्द की चर्चा की थी और किसी अच्छे डाक्टर के बारे में पूछा था। हमने सरकारी अस्पताल दून चिकित्सालय का नाम उन्हें बताया था। हरिद्वार से देहरादून की वापिसी में वह हरिद्वार ही छूट गये। कारण यह था उन्हें पुनः हृदय में दर्द उठा। उन्होंने एक दर्द की गोली ली और उसे खा कर सड़क पर ही आराम किया। हम सभी मित्रों में किसी का भी उनकी ओर ध्यान नहीं गया। उनके रोग से भी हम अपरिचित थे। किसी तरह रात्रि को वह घर पहुंचे और मेहमानों से बातें कर रहे थे। तभी उन्हें पुनः हृदयाघात हुआ। बच्चे उन्हें तुरन्त कारोनेशन चिकित्सालय ले गये जहां परीक्षा के दौरान ही डाक्टर की बाहों में ही उनका प्राणान्त हो गया। यह दिन 22 जून, सन् 2001 था। इस प्रकार से हमारा यह पुराना व सुख दुख का साथी व सहयोगी हमसे दूर चला गया। उनके जाने के बाद हमारे अनेक मित्र एक एक करके संसार से चले गये परन्तु उनका स्थान लेने वाला उन जैसा मित्र हमें नहीं मिला। आज भी हमें उनका अभाव अनुभव होता है। अपनी श्रद्धाजंलि के रूप में हमने यह कुछ शब्द लिखे हैं। श्री शिवनाथ आर्य जी को हम विनम्र श्रद्धाजंली अर्पित करते हैं।

 

                        ‘‘पत्ता  टूटा  पेड़ सेले  गई  पवन उड़ाये।

            अबके बिछड़े कभी मिलेंगे दूर पड़ेगें जाये।।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

दयानन्द भक्त और क्रान्तिकारियों के प्रथम गुरू पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा’ -मनमोहन कुमार आर्य

गुजरात की भूमि में महर्षि दयानन्द के बाद जो दूसरे प्रसिद्ध क्रान्तिकारी देशभक्त महापुरूष उत्पन्न हुए, वह पं. श्यामजी  कृष्ण वर्म्मा के नाम से विख्यात हैं। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने देश से बाहर इंग्लैण्ड, पेरिस और जेनेवा में रहकर देश को अंग्रेजों की दासता से पूर्ण स्वतन्त्र कराने के लिए अनेक विध प्रशंसनीय कार्य किये। उनका जन्म 4 अक्तूबर, सन् 1857 को गुजरात के कच्छ भूभाग के माण्डवी नामक कस्बे में श्री कृष्णजी भणसाली के यहां एक निर्धन वैश्य परिवार में हुआ था। आप आयु में महर्षि दयानन्द जी से लगभग साढ़े बत्तीस वर्ष छोटे थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा माण्डवी की ही एक प्राइमरी पाठशाला में हुई। जब आप 10 वर्ष के हुए तो आपकी माताजी का देहान्त हो गया। इसके बाद आपका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ। आपने ननिहाल भुजनगर में रहकर वहां के हाईस्कूल में अपनी शिक्षा को जारी रखा। आप 12 वर्ष की आयु में एक विदुषी संन्यासिनी माता हरिकुंवर बा के सम्पर्क में आये। उनकी प्रेरणा से आपने संस्कृत भाषा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। कच्छ निवासी सेठ मथुरादास भाटिया आपकी प्रतिभा से प्रभावित होकर आपको अध्ययनार्थ मुम्बई ले गये और वहां विलसन हाईस्कूल में प्रविष्ट कराया। यहां सर्वोच्च अंक प्राप्त कर आपने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और आपको सेठ गोकुलदास काहनदास छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इस छात्रवृत्ति के आधार पर आपने मुम्बई के प्रसिद्ध एल्फिंस्टन हाईस्कूल में अध्ययनार्थ प्रवेश ले लिया। बम्बई के एक धनी सेठ श्री छबीलदास लल्लू भाई का पुत्र रामदास श्यामजी का सहपाठी था। दोनों में मित्रता हो गई। सेठ छबीलदास जी को इसका पता चला तो पुत्र को कहकर श्यामजी को अपने घर पर बुलाया। आप श्यामजी के व्यक्तित्व, सौम्य व गम्भीर प्रकृति तथा आदर भाव आदि गुणों से प्रभावित हुए और आपने उन्हें अपना जामाता-दामाद बनाने का निर्णय ले लिया। इसके कुछ दिनों बाद उनकी 13 वर्षीय पुत्री भानुमति जी से 18 वर्षीय श्यामजी का सन् 1875 में विवाह सम्पन्न हो गया।

 

मुम्बई आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा प्रार्थना समाज के समाज सुधार आन्दोलन से जुड़ गये थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 29 जनवरी से 20 जून, 1875 तक वेदों का प्रचार करते हुए मुम्बई में प्रवास किया था। मुम्बई में उन दिनों बुद्धिजीवी लोगों में उनके प्रवचनों की चर्चा होती थी। आप स्वामीजी के सम्पर्क में आये और उनके न केवल व्यक्तित्व व वैदिक ज्ञान से ही परिचय प्राप्त किया अपितु उनकी सर्वांगीण विचारधारा व कार्यों को जान कर वह उनके अनुयायी बन गये। 10 अप्रैल, सन् 1875 को जब मुम्बई के गिरिगांवकाकड़वाड़ी मोहल्ले में प्रथम आर्यसमाज की स्थापना की गई तो वहां उपस्थित लगभग 100 से कुछ अधिक लोगों में पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहित उनके श्वसुर श्री छबीलदास जी श्याला श्री रामदास बतौर संस्थापक सदस्य उपस्थित थे। 12 जून, सन् 1875 को महर्षि दयानन्द जी का रामानुज सम्प्रदाय के आचार्य पं. कमलनयन के साथ मूर्तिपूजा विषय पर शास्त्रार्थ होने के अवसर पर भी आप इस शास्त्रार्थ में श्रोता व दर्शक के रूप में उपस्थित थे। इस शास्त्रार्थ में दयानन्द जी की विद्वता का लोहा सभी ने स्वीकार किया था। इसके प्रभाव से आप महर्षि दयानन्द के और निकट आये और उनकी प्रेरणा व अपनी इच्छा से आपने वैदिक सहित्य का अध्ययन किया तथा उनके शिष्य बन गये। स्वामी दयानन्द जी के सान्निध्य से उनका संस्कृत का ज्ञान और अधिक परिष्कृत, परिपक्व व समृद्ध हुआ। स्वामी दयानन्द की प्रेरणा से पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ने नासिक की यात्रा कर 1 व 2 अप्रैल, 1877 को वहां संस्कृत में वेदों पर व्याख्यान दिये। लोग एक ब्राह्मणेतर व्यक्ति से संस्कृत में धारा प्रवाह व्याख्यान की अपेक्षा नहीं रखते थे। इन व्याख्यानों का वहां की जनता पर गहरा प्रभाव हुआ। इसके बाद आपने अहमदाबाद, बड़ौदा, भड़ौच, भुज और माण्डवी सहित लाहौर में जाकर वेदों पर व्याख्यान दिये। आपके संस्कृत व्याख्यानों से घूम मच गई और श्रोताओं ने आपकी भूरि भूरि प्रशंसा की। पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने स्वामी दयानन्द जी के यजुर्वेद व ऋग्वेद भाष्य के प्रकाशन व उसके डाक से प्रेषण के प्रबन्धकत्र्ता का कार्य भी पर्याप्त अवधि तक किया। इंग्लैण्ड जाने तक आप यह कार्य करते रहे थे।

 

आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, लन्दन में संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष सर मोनियर विलियम सन् 1878 में भारत आये थे। महर्षि के निकटवर्ती शिष्य श्री गोपाल हरि देशमुख की अध्यक्षता में पूना में उनका व्याख्यान आयोजित किया गया था। पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा इस व्याख्यान में न केवल सम्मिलित ही हुए अपितु उनका भी धारा प्रवाह संस्कृत में व्याख्यान हुआ जिसका गहरा प्रभाव सर मोनियर विलियम और श्रोताओं पर भी हुआ। उन्होंने पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के सहायक प्रोफेसर के पद का प्रस्ताव दिया। वह इस प्रस्ताव से सहमत हुए। स्वामी दयानन्द जी को भी पंण्डित जी ने जानकारी दी। स्वामी दयानन्द जी ने न केवल अपनी सहमति व्यक्त की अपितु उन्हें इंग्लैण्ड जाकर करणीय कार्यों के बारे में मार्गदर्शन दिया। बाद में स्वामीजी ने उन्हें जो पत्र लिखे उससे भी स्वामीजी के श्यामजी के मध्य गहरे गुरू शिष्य संबंध का अनुमान होता है। श्यामजी ने लन्दन पहुंच कर 21 अप्रैल, सन् 1879 को पदभार सम्भाला था। लन्दन में आपने बैरिस्ट्री की परीक्षा पास करने हेतु भी इनर टैम्पल में प्रवेश लिया। आपने सन् 1881 के आरम्भ में रायल एशियाटिक सोसायटी के निमन्त्रण पर भारत में लेखन कला का आरम्भ विषय पर अपना शोध प्रबन्ध पढ़ा। इस प्रस्तुति से प्रभावित होकर आपको रायल एशियाटिक सोसायटी का सदस्य बना लिया गया। इंग्लैण्ड एम्पायर क्लब एक ऐसा क्लब था जिसमें राज परिवार के लोग ही सदस्य बन सकते थे। श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा ऐसे पहले भारतीय थे जिन्हें क्लब की सदस्यता दी गई थी। सन् 1881 में ही इंग्लैण्ड में भारत मंत्री ने आपको प्राच्य विद्या विशारदों के बर्लिन सम्मेलन में भाग लेने के लिए अपने प्रतिनिधि के रूप में भेजा था। सन् 1883 में आपने लन्दन में बी.ए. की परीक्षा पास की और भारत आ गये। स्वामी दयानन्द जी ने अपने इच्छा पत्र में श्यामजी कृष्ण वर्म्मा को अपनी उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया था। 28-29 दिसम्बर, 1883 को हुए सभा की अजमेर के मेवाड़दरबार की कोठी में आयोजित प्रथम बैठक में आप सम्मिलित हुए। मार्च, 1884 में आप सपत्नीक लन्दन लौट गये थे और नवम्बर, 1884 में आपने बैरिस्ट्री की सम्मानजनक परीक्षा उत्तीर्ण की। आप पहले भारतीय थे जिन्होंने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन से बैरिस्ट्री पास की थी। आप जनवरी, 1885 में पुनः स्वदेश लौट आये थे।

 

भारत आकर श्यामजी कृष्ण वर्मा रतलाम राज्य के सन् 1885 से सन् 1888 तक दीवान रहे। इसके बाद उन्होंने अजमेर में वकालत की। उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह जी ने उन्हें दिसम्बर 1892 में अपने राज्य की मंत्रि परिषद में सदस्य मनोनीत किया। उदयपुर में आप दो वर्षों तक राज्य कौंसिल के सदस्य रहे। 6 फरवरी 1894 को आप जूनागढ़ रियासत के दीवान बने परन्तु जूनागढ़ के कुछ कटु अनुभवों से अंग्रेज जाति के प्रति उनके विश्वास को गहरी चोट लगी। इंडियन नेशलन कांग्रेस की दब्बू नीति उन्हें पसन्द नहीं थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी से उनकी मैत्री थी। चापेकर बन्धुओं द्वारा जब प्लेग कमिश्नर मिस्टर रैण्ड और लेफ्टिनेंट अर्येस्ट की हत्या की गई, तब अंग्रेज सरकार ने तिलक जी को अठारह मास का कारावास का दण्ड दिया। इससे श्यामजी का अंग्रेजों के प्रति विश्वास समाप्त हो गया। श्याम जी का महर्षि दयानन्द के वेद सम्मत राजनीतिक विचारों में पूर्ण विश्वास था। इसका क्रियान्वयन उन दिनों कांग्रेस द्वारा किंचित परिवर्तन के साथ किया जा रहा था जिससे पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा सहमत थे एवं इसके द्वारा शुभपरिणामों की आशा भी रखते थे।

 

पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने विवेक से विदेश में जाकर भारत की स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने का निर्णय किया। वह उदारवादी विचारों से स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नहीं थे। अतः सन् 1897 के अन्तिम दिनों में वह इंग्लैण्ड आ गये। यहां रहकर आपने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जिन्हें पूर्णरूपेण इस संक्षिप्त लेख में प्रस्तुत करना कठिन है। प्रमुख कार्यों में से एक कार्य आपके द्वारा लन्दन में एक मकान खरीदा जिसे इण्डिया हाउस का नाम दिया। यह मकान क्रामवेल एवेन्यू हाईगेट का मकान नं. 65 था। यह इण्डिया हाउस ही हमारे क्रान्तिकारियों का इंग्लैण्ड में मुख्य निवास स्थान व क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बना। पं. श्याम जी ने  भारत से इंग्लैण्ड जाने वाले विद्यार्थियों को छात्रवृतियां देना भी आरम्भ किया जिसमें एक शर्त यह होती थी कि छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाला व्यक्ति अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेगा और न उनसे कोई लाभ प्राप्त करेगा। डा. सत्यकेतु विद्यालंकार के अनुसार यह इण्डिया हाउस इंग्लैण्ड में भारतीय क्रान्तिकारी गतिविधियों और क्रिया-कलापों का सबसे बड़ा केन्द्र बना रहा। जिन लोगों ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर इंग्लैण्ड में आकर इण्डिया हाउस में निवास किया। इन छात्रों में प्रसिद्ध क्रान्तिकारी वीर विनायक दामोदर सावरकर भी थे जो सन् 1906 में वहां पहुंचे थे। इंग्लैण्ड में रहते हुए सन् 1905 में पं. श्यामी जी कृष्ण वर्मा ने एक अंगे्रजी मासिक पत्रिका इंडियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन आरम्भ किया जिसका उद्देश्य उन्होंने भारत में राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक सुधार घोषित किया। अपने आरम्भिक लेख में आपने लिखा कि यह पत्र बताएगा कि ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में भारतीयों के साथ कैसा दुर्व्यवहार किया जाता है और उस शासन के प्रति भारतीयों के मन में क्या भावनाएं हैं। पंण्डित जी ने यह पत्र इंग्लैण्ड व विदेशों में लोकमत को जाग्रत करने की दृष्टि से आरम्भ किया था। पं. श्यामजी का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य इंग्लैण्ड में इंडियन होमरूल सोसायटी की स्थापना करना था। यह सोसायटी 18 फरवरी, 1905 को स्थापित की गई थी। इसका पहला उद्देश्य भारत में होमरूल अर्थात् स्वशासन स्थापित करना था। दूसरा उद्देश्य पहले लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इंग्लैण्ड में रहकर सभी आवश्यक कार्य करना था जिससे स्वशासन का अधिकार प्राप्त हो सके। संस्था का तीसरा उद्देश्य देशवासियों में स्वाधीनता तथा राष्ट्रीय एकता से संबंधित बौद्धिक सामग्री व ज्ञान को उलब्ध कराना था। श्यामजी कृष्ण वम्र्मा इस सोसायटी के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष सरदार सिंह राणा, जे. एम. पारीख, अब्दुल्ला सुहरावर्दी और गोडरेज तथा मन्त्री जे. सी. मुखर्जी बनाये गये थे। इन सभी लोगों द्वारा यह घोषणा की गई थी कि उनका उद्देश्य ‘‘भारतीयों के लिए, भारतीयों के द्वारा और भारतीयों की सरकार स्थापित करना है। एक प्रकार से सन् 1905 में उठाया गया यह कदम पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति की दिशा मे बहुंत बड़ा निर्णय व कार्य था जिसे कांग्रेस ने बहुत बाद में अपनाया। वम्र्मा जी की गतिविधियां दिन प्रतिदिन तीव्रतर होती जा रही थी। मई और जून 1907 में पं. श्यामजी कृष्ण वर्म्मा के इण्डियन सोशियोलोजिस्ट में लेखों से समूचे इंग्लैण्ड में खलबली मच गई। इसका परिणाम विचार कर जून, 1907 में वह पेरिस चले गए और वहीं से भारत के क्रान्तिकारियों का मार्गदर्शन करने लगे। उनके पेरिस जाने के कारण इंडियन होमरूल सोसायटी का मुख्यालय भी उनके पास पेरिस स्थानान्तरित हो गया। 19 सितम्बर, 1907 को इण्डियन सोशियोलोजिस्ट पत्र पर अंगे्रज सरकार ने पाबन्दी लगा दी। इस पत्र के मुद्रकों श्री आर्थर बोर्सले और एल्फ्रेड एल्ड्रेड को गिरफतार कर लिया गया और उन्हें एक एक वर्ष के कारावास का सजा सुनाई गई। श्यामजी पेरिस में रह रहे थे और वहीं इण्डियन सोशियोलोजिस्ट का प्रकाशन कर रहे थे। सन् 1914 में पेरिस में भी परिस्थितियां उनके लिए प्रतिकूल हो गईं अतः वह पेरिस छोड़कर जून, 1914 में जेनेवा (स्विटजरलैण्ड) चले गये। यहां रहते हुए भी आप अपना पत्र अंग्रेजी व फ्रेंच भाषाओं में निकालते रहे। इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। राजनैतिक कारणों से आपको अपने पत्र का प्रकाशन स्थगित करना पड़ा। इस प्रकार निरन्तर कार्य करते रह कर वह आप वृद्ध हो गये थे। अब आप अधिक सक्रिय भूमिका नहीं निभा सकते थे। अतः देश में चल रहे सत्याग्रह आन्दोलन को आपने अपना समर्थन दिया। 31 मई, 1930 को लगभग 73 वर्ष की आयु में जेनेवा में ही महर्षि दयानन्द के इस शिष्य और भारत माता के योग्य पुत्र पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा का निधन हो गया। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी नेता श्री सरदार सिंह राणा, मैडम भीखाजी रूस्तम जी कामा, जे.एम. पारीख, लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मौलवी मोहम्मद बर्कतुल्लाह, नीतिसेन द्वारकादास, मिर्जा अब्बाज उर्फ मुहम्मद अब्बास आदि उनके देशभक्ति के कार्यों में उनके सहयोगी रहे।

 

श्री श्यामजी कृष्ण वर्म्मा महर्षि दयानन्द जी के योग्य शिष्य, संस्कृत व वैदिक साहित्य के विद्वान होने के साथ भारत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले तथा क्रान्ति को स्वतन्त्रता प्राप्ति का साधन मानने वाले प्रथम चिन्तक, विचारक व अपने विचारों को क्रियात्मक रूप देने वाले आद्य महापुरूष थे। देश की आजादी में उनका योगदान प्रशंसनीय एवं महत्वपूर्ण है। उनके विचारों की अग्नि व कार्यों से देश को अनेक क्रान्ति धर्मी युवक मिले जिन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश किया था। उनकी आज 159 वीं जयन्ती पर उन्हें शत शत नमन है।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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