Category Archives: आर्य वीर और वीरांगनाएँ

स्वामी भास्करानंद सरस्वती

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स्वामी भास्करानन्द सरस्वती

डा. अशोक आर्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा आर्य समाज की स्थापना के लगभग दो वर्ष पश्चात जन्म लेने वाले स्वामी भगवानानन्द सरस्वती के जीवन पर महर्षि के विचारो तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का प्रभाव आवश्यक था । आप संस्कृत के उद्भट विद्वान थे । संस्कृत  का विद्वान होने के साथ ही साथ आप में उच्च कोटि की काव्य प्रतिभा भी थी ।
आप का जन्म जयपुर राज्यांतर्गत गांव भगवाना में सन १८७७ इस्वी को हुआ । आप का नाम भीमसेन रखा गया । अल्पायु में ही अर्थात जब आप मात्र आठ वर्ष के ही थे , आप के पिता जी का देहान्त हो गया । उन दिनों अल्पायु बालक को भारी कटिनाईयों का सामना करना पडा । किसी प्रकार प्राथमिक शिक्षा पाने में सफ़ल हुए तथा फ़िर जब आप सोलह वर्ष की आयु में पहुंचे तो पारिवारिक परम्परा के अनुसार संस्क्रत का ज्ञान  आवश्यक था , जिसे ग्रहण करने के लिए काशी चले गये ।
काशी उन दिनों धर्मं  का ज्ञान  प्राप्त करने का सर्वोत्तम स्थान था । उन दिनों यहां पर पं कृपा राम जी , जो बाद में स्वामी दर्शनानन्द जी सरस्वती के नाम से विख्यात आर्य समाज के उच्चकोटि के विद्वान हुए , ने एक संस्कृत  पाठशाला  स्थापित कर रखी थी । आपने इस पाठ्शाला में ही प्रवेश लेकर संस्कृत  का ज्ञान  अर्जित करना आरम्भ किया ।

इस विद्यालय में उन दिनों एक अन्य संस्कृत  के ख्याति प्राप्त विद्वान पण्डित काशी नाथ शास्त्री जी भी शिक्षा  देने के उद्देश्य से अध्यापन कार्य कर रहे थे । एसे महान विद्वानों का सानिध्य व मार्ग दर्शन भी आप को मिला तथा इन के श्री चरणों में बैट कर आपने सिद्धान्त कोमदी तथा अष्टाध्यायी जैसे संस्कृत  के आधार ग्रन्थों का अध्ययन किया । तत्पश्चात आपने बनारस संस्क्रत कालेज में प्रवेश लिया तथा महामहोपाध्याय पं भगवानाचार्य जी से आप ने संस्कृत  का अच्छा ज्ञान  अर्जित किया । इस कालेज में आप ने लगभग सात वर्ष तक निरन्तर शिक्षा  प्राप्त की तथा खूब मेहनत से आपने संस्कृत  व्याकरण , संस्क्रत साहित्य तथा दर्शन का अच्छा ज्ञान  अर्जित कर लिया ।

स्वामी दर्शनानन्द जैसे गुरु हों और आर्य समाज का प्रभाव न हो , एसा तो सम्भव ही न था । अत: आप पर प्रतिदिन आर्य समाज की छाप गहरी ही होती चली गई । काशी में इन दिनों एक संस्कृत  विद्यालय था , जिसे आर्य संस्कृत  विद्यालय भी कहा जा सकता है । इस की स्थापना आर्य समाज दिल्ली ने की थी । यहां आप की नियुक्ति संस्कृत  अध्यापक के रूप में हुई । आप ने यहां रहते हुए अत्यधिक लगन व मेहनत से कार्य करते हुए लगभग देड वर्ष तक बच्चों को संस्कृत  का शिक्षण  दिया तथा इस के पश्चात आपने अजमेर में आकर वैदिक यन्त्रालय को अपनी सेवाएं दीं । इस यन्त्रालय की स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने की थी तथा यहां से आर्य समाज का साहित्य प्रकाशित होता था तथा आज भी हो रह है । आपने यहां संशोधक के पद पर रहते हुए प्रकाशित हो रही सामग्री का संशोधन आरम्भ किया , जिसे आज की भाषा में प्रूफ़ रीडिंग भी कहते हैं ।
जिन दिनों आप की नियुक्ति अजमेर के वैदिक यन्त्रालय में हुई , उन दिनों यहां चारों वेद की संहिताओं का मूल रूप में प्रकाशन का कार्य चल रहा था । वेद प्रकाशन का यह कार्य आप ही की देख रेख में हुआ तथा इन का संशोधन का सब कार्य आप ही ने किया । अब आप ने सिकन्दराबाद की और प्रस्थान किया । यहां के गुरुकुल में आपकी नियुक्ति हुई तथा यहां पर रहते हुए अनेक वर्ष तक आपने अध्यापन का कार्य किया । यहां से आपने जिला शाहजहां पुर के तिलहर में आये तथा कुछ समय यहां कार्य करने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद  सरस्वती ने आप को आग्रह किया कि आप अपनी सेवाएं गुरुकुल कांगडी को दें । इसे आपने शिरोधार्य किया तथा हरिद्वार आकर गुरुकुल कांगडी के कार्यों में हाथ बंटाने लगे । इन दिनों गुरुकुल कांगडी में अनेक उच्चकोटि के विद्वान कार्यरत थे , जिनमें पमुख रुप से पं. नरदेव शास्त्री , पं गंगादत जी शास्त्री , पं पदमसिंह शर्मा के अतिरिक्त उस समय के गुरुकुल के आचार्य व मुख्याधिष्टता प्रो. रामदेव थे । इन से उत्पन्न विवाद के कारण आप के ह्रदय को भारी टेस पहुंची तथा आपने इसे त्याग कर गुरुकुल ज्वालापुर का दामन थाम लिया ।

पण्डित जी ने इस महाविद्यालय में रहते हुए सन १९०८ से लेकर सन १९२५ तक मुख्याध्यापक स्वरुप कार्य किया तथा इस महाविद्यालय की उन्नति में अपना योग देते रहे । यह अध्यापन व्यवसाय के रुप में आप का अन्तिम कार्य रहा तथा १९२५ में आपने इस व्यवसाय को त्याग दिया । आप के सुपुत्र पं. हरिदत शास्त्री भी आप ही की भान्ति संस्कृत  के अच्छे विद्वान थे ।
महाविद्यालय को छोड आपने संन्यास की दीक्षा  ली तथा स्वामी भास्करानन्द सरस्वती आगरा वाले के नाम से समाज सेवा के कार्यों में जुट गए । आपने आर्य समाज तहा संस्कृत  कोश को अपने लेखन कार्य से भारी बल व साहित्य दिया । आप की पुस्तकों में कुछ इस प्रकार रहीं : पण्डित आत्माराम अम्रतसरी के साथ मिल कर संस्कार चन्द्रिका , आर्य सूक्ति सुधा , काव्य लतिका , संस्क्रतांकुर, योग दर्शन, व्यास भाष्य, भोजव्रति का भाषानुवद, सर्व दर्शन संग्रह टीका आदि ।
आपने आर्य समाज के लिए खूब कार्य किया , व्याख्यान दिये तथा काव्य की भी रचना की । इस प्रकार आर्य समाज की विभिन्न प्रकार से सेवा करते हुए ९ जुलई १९२८ इस्वी को सोमवार के दिन आप ने इस नश्वर चोले को छोड दिया ।

डा. अशोक आर्य

 

मुंशी केवल कृष्ण

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मुन्शी केवल  कृष्ण 

डा अशोक आर्य

आर्य समज के आरम्भिक विद्वनों को आर्य समज के सिधान्तों तथा ऋषि  दयानन्द  जी के विचारों पर पूरी आस्था थी । इस का यह तात्पर्य नहीं  कि आज एसे विद्वान नहीं मिलते किन्तु यह सत्य है कि उस समय के विद्वान बिना किसी किन्तु परन्तु के आर्य समाज के लिए कार्य करते थे तथा सिधान्त से किंचित भी न हटते थे । एसे ही विद्वानों , एसे ही दीवानों में मुन्शी केवल कृष्ण जी भी एक थे । मुन्शी जी का जन्म मुन्शी राधाकिशन जी के यहां अश्विन पूर्णिमा १८८५ विक्रमी तद्नुसार सन १८२८ इस्वी को हुआ । इन की विरासत पटियाला राज्य के गांव छत बनूड से थी । भाव  यह है कि इन के पूर्वज बनूड के निवसी थे । परिस्थितिवश मुसलमनी शासन कल में  यह रोहतक आ कर रहने लगे ।

उस काल में मुसलमानी प्रभाव से हमारे हिन्दु लोगो में भी अनेक बुराइयां आ गई थीं । एसी ही बुराईयों के मुन्शी जी भी गुलाम हो गये थे । यह बुराईयां जो मुन्शी जी ने अपना रखी थीं , उनमें मांसाहार करना, मदिरा पान करना । इस सब के साथ ह साथ यह वैश्गयामन तक भी करने लगे थे ।

इन बुराईयों में फ़ंसे मुन्शी जी पर एक चमत्कार हुआ । हुआ यह कि इन दिनों ही स्वामी द्यानन्द सरस्वती का पंजाब में आगमन हुआ । । इन दिनों मुन्शी जी शाहपुर मे मुन्सिफ़ स्वरुप कार्य कर रहे थे । मुन्शी जी ने स्वामी जी के उपदेश सुने । इन उपदेशों पर मनन चिन्तन करने पर इन का मुन्शी जी पर अत्यधिक प्रभाव हुआ । वह स्वामी जी के उपदेशों से धुलकर शुद्ध हो गये । स्वामी  जी के प्रभाव से उन्होंने मांसाहार का सदा के लिए त्याग कर दिया , मदिरा के बर्तन उटा कर फ़ैंक दिये तथा भविष्य मे इस बुराई को भी अपने पास न आने देने का संकल्प लिया तथा वैश्यागमन , जो कि से  बडी बुराई मानी जती है , उसे भी परित्याग कर दिया । इस प्रकार स्वांमी जी के प्रभाव से मुन्शी जी शुद्ध व पवित्र हो गये ओर आर्य समाजी बन गये ।

जब कोई व्यक्ति भयानक बुराईयों को छोड कर सुपथ गामी बन जता है तो लोगो मे उस का आदर स्त्कार बट जाता है, उस की ख्यति दूर दूर तक जती है तथा जिस सधन से उसने यह दोष त्यागे होते हैं , अन्य लोग भी उसका अनुगमन करते हुए उस  पथ के पथिक बन जाते हैं । हुआ भी कुछ एसा ही ।

मुन्शी जी  ने अपने आप को आर्य समाज के सिद्धान्तों के साथ खूब टाला तथा इन्हे अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया । आप ने यत्न पूर्वक उर्दू में परंगकता प्राप्त की तथा अपने समय के उर्दू के उ च्च कोटि के कवि बन गये । आप ने आर्य समाज के सिद्धान्तो व मन्तव्यों के प्रचार के लिए अनेक कवितायें लिखीं ।

मुन्शी जी अनेक वर्ष आर्य समाज गुजरांवाला के प्रधान भी रहे । आप के ही प्रभाव  से आप के भाई नारायण  कृष्ण भी  आर्य समाज को समर्पित हो गए तथा आप के सुपुत्र  कर्ता  कृष्ण भी अपने पिता  के अनुगामी बन कर आर्य समाज के सदस्य बन गए । जिस परिवार में कभी बुराईयों के कारण सदा कलह क्लेश रहता था , वह परिवार आज उत्तमता का ,स्वर्गिक आनंद का एक उदाहरण था  ।

जब लाहोर में डी.ए.वी कालेज की स्थापना हुई , उस समय इस संस्था को चलाने के लिए धन का आभाव सा ही रहता था । इस कमीं के दिनों में आपने कालेज के सहयोगी स्वरूप एक भारी धनराशी इसे सहयोग के लिए अपनी और से दी ।

आप उर्दु के सिद्ध हस्त कवि थे किन्तु आर्य समाज मे प्रवेश से पूर्व आप ने प्रचलित परम्परा को अपनाते हुए श्रंगारिक रचनायें ही लिखीं किन्तु आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही जहां आप ने अपने जीवन की अनेक बुराईयों का त्याग किया  , वहां अपने काव्य को भी नया रूप दिया आप ने अब शृंगार रस को सदा के लिये त्याग दिया तथा इस के स्थान पर शान्त रस को अपना लिया । अब शान्त रस के माध्यम से आप उर्दू मे काव्य की रचना करने लगे । आप ने अपने काव्य में जो विशेष शब्द , जिन्हें तखलुस कहते हैं , वह उर्दू में ” उर्फ़” होता था जब कि हिन्दी मे ” केवल ” होता था ।

मुन्शी जी ने आर्य समाज के प्रचार प्रसार में अपनी लेखनी का भी खूबह सहारा लिया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखी तथा  दिसम्बर १९०९ को इस जीवन लीला को समप्त कर चल बसे ।ध्यान मंजूम,आर्यभिविनय मंजूम, आर्य विनय पत्रिका ,संगीत सुधाकर, भजनमुक्तवली,इन पुस्तकों के अतिरिक्त कुछ एसी पुस्तकें भी लिखीं जो मांसहर आदि दुर्व्यस्नों तथा इन के परिणम स्वरुप होने वले झगडों आदि पर भी प्रकाश दलती हैं । एसी पुस्तकों में विचर पत्र, राजेसरबस्ता,हारेसदाकत या जबाबुलजुबाब आदि ।

इस प्रकर जीवन प्रयन्त  आर्य समाज की सेवा करने वाला यह दीवाना आर्य समज की सेवा करते हुए अन्त में १५ दिसम्बर १९०९ इस्वी को इस चलायमान जगत से चल बसा ।

 

पंडित काशीनाथ शास्त्री

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ओ३म

पण्डित काशीनाथ शास्त्री
डा. आशोक आर्य
पण्डित काशीनाथ शास्त्री आर्य समाज के उच्चकोटि के लेखकों व प्रचारकों में से एक थे । आप अपने जीवन का एक एक पल आर्य समाज के प्रचार व प्रसार के लिए ही लगाया करते थे । आप का जन्म गांव कोडा जहानाबाद जिला फ़तेहपुर में दिनांक १ मई १९११ इस्वी को हुआ था । आपके पिता श्री रघुनाथ जी थे ।
पण्डित जी के पिता जी अनुरूप ही द्रट सिधान्तवादी द्रट समाजी थे । पिता के विचारों का ही आप पर प्रभाव था , जिसके कारण आप न केवल आर्य हुए बल्कि सिद्धान्त वादी आर्य समाजी हुए तथा आर्य समाज के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते थे ।
अपने व्यवसाय के निमित आप फ़तेह्पुर छोड कर गोंदिया ( महाराष्ट्र के विदर्भ क्शेत्र) में चले गये । गोंदिया में आप आर्य समाज के स्तम्भ थे तथा यहां रहते हुए आप ने चिकित्सा का कार्य आरम्भ किया तथा इस व्यवसाय में ही आजीवन निर्वहन करते रहे ।
आपके नाम के साथ जो शास्त्री शब्द जुडा है , उससे स्पष्ट है कि शास्त्री तो आप ने उतीर्ण की ही थी किन्तु गोंदिया आने के पश्चात आप ने नागपुर विश्व विद्यालय से एम. ए. की परीक्शा भी उत्तीर्ण की । इससे पता चला है कि उच्च शिक्शा प्राप्ती के लिए आप निरन्तर प्रयत्नशील रहे ।
आर्य समाज मध्य प्रदेश व विदर्भ का कार्यालय नागपुर में है तथा इस का मुख पत्र आर्य सेवक भी यहां से निकलता है । इस पत्र के सम्पादक का कार्य आर्य समाज के उच्च कोटि के आर्य रहे हैं । हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभुद्रा कुमारी चौहान के पति भी इस पत्रिका के सम्पादक रहे हैं । हमारे पण्डित काशी नाथ शास्त्री भी अपनी उच्च हिन्दी व आर्य समाज समबन्धी योग्यता के कारण इस पत्र के सम्पादक रहे तथा इस पत्र को बहुत आगे ले गये ।
आप को आर्य समाज से इतनी लगन थी कि आर्य समाज के प्रचार व प्रसार के कार्य के लिए सभा की योजना के अनुरूप तो प्रचार करने जाते ही थे , इसके अतिरिक्त भी आप संलग्न क्शेत्रों में प्रचार के ;लिए घूमते ही रहते थे तथा युवकों को उत्साहित करते ही रहते थे । इस सम्बन्ध में जब मेरे श्वसुर लाला कर्मचन्द आर्य जी ने महाराष्ट्र के विदर्भ क्शेत्र के नगर भण्डारा में आर्य समाज की स्थापना की तो आप का इस समाज मं आना जाना आरम्भ हो गया तथा कर्मचन्द जी से पारिवारिक मित्रता का सम्बन्ध जुड गया । आप ही के प्रयत्न का परिणाम था कि मेरा सम्बन्ध इस परिवार से जुड गया । यह आप ही थे जिन्होंने मेरा विवाह संस्कार करवाया । इस अवसर पर पण्डित प्रकाश चन्द कविरत्न जी का रचा गया वैवाहिक सेहरा उन्हीं के शिष्य पं. पन्ना लाल पीयूष आर्योपदेशक जी ने पटा था ।
१२ जनवरी १९७५ से १४ जनवरी १९७५ तक नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ । आप इस सम्मेलन में प्रतिनिधि स्वरुप सम्मिलित होने वाले थे । आप की प्रेरणा व प्रयत्न के परिणाम स्वरूप मुझे भी पंजाब के प्रतिनिधि स्वरूप इस सम्मेलन में सम्मिलित होने का अवसर व सौभाग्य प्राप्त हुआ । मैं जब भी भण्डारा जाता आप मुझे मिलने के लिए अवश्य ही भण्डारा आया करते थे ।
आप शुद्ध हिन्दी लेखव प्रयोग के पक्श में थे । उन्होंने मुझे बताया कि आज हम किस प्रकार से गलत टंग से हिन्दी श्ब्दों का प्रयोग कर रहे हैं कि हमें पता ही नहीं चलता । उन्होंने बताया कि आज स्कूलों में महिला अध्यापक के लिए अध्यापिका शब्द प्रयोग करते हैं किन्तु यह गल्त है । जिस प्रकार वकील की पत्नि को हम वकीलनी कहने लगते है ,जिसका भाव होता है वकील की पत्नी । इस प्रकार ही अध्यापिका का अर्थ हुआ अध्यापक की पत्नी । पटाने वालों के लिए केवल एक ही शब्द है और वह है अध्यापक , चाहे वह पुरूष हो या महिला ।
आपने आर्य समाज का प्रवचनों व लेखनी द्वारा खूब प्रचार किया तथा अनेक पुस्तकें भी लिखीं । आप की पुस्तकों में वैदिक संध्या, रामायण प्रदिप मीमांसा , जल्पवाद खण्डन ,आर्यों का आदि देश , सत्य की खोज, इसाइ मत की छानबीन , वैदिक कालीन भारत , अनुपम मणिमाला आदि थीं । वैदिक कालीन भारत पुस्तक में उन्हों ने भारतीय संस्क्रति का समग्र इतिहास दिया था , यह पुस्तक मुझे भी भेंट स्वरूप दी थी ।
आप का मध्यप्रदेश के होशंगाबाद में यदा कदा जाना होता ही था । एक बार जब आप होशंगाबाद गए हुए थे कि आक्स्मात दिनांक ४ आक्टूबर १९८८ इस्वी को देहान्त हो गया ।

 

स्वामी ध्रुवानन्द

Swami Dhruvanand Sarasvati

स्वामी ध्रुवानन्द

डा. अशोक आर्य

गांव पानी जिला मथुरा उतर प्रदेश में आप का जन्म हुआ । आप का नाम धुरेन्द्र था तथा शास्त्री होने पर नाम के साथ शास्त्री लग गया ओर सन १९३९ में राजा उम्मेद सिंह , नरेश शाहपुर ने आप को राजगुरु की उपाधि दी तो आप के नाम के साथ राजगुरु भी जुड गया । इस प्रकार आप का पूरा नाम धुरेन्द्र शास्त्री , राजगुरु बना ।

स्वामी सर्वदानन्द जी ने अलीगट से पच्चीस किलोमीटर दूर काली नदी के तट पर एक सुरम्य स्थान पर गुरुकुल की स्थापना की । इस स्थन का नाम हर्दुआगंज है । वास्तव में यह हरदुआगंज नामक गांव इस गुरुकुल से मात्र पांच किलोमीटर की दूरी पर है । इस गांव में ही स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनन्य सेवक मुकन्द सिंह जी निवास करते थे । उनकी सन्तानें अब भी यहीं रहती हैं । स्वामी जी जब भी इधर आते थे तो काली नदी के पुल के पास स्थापित चौकी पर बैटा करते थे । यह चौकी गुरुकुल के मुख्य द्वार के टीक सामने है । आप की शिक्शा मुख्य रुप से इस गुरुकुल मेम, ही हुई ।

आर्य समाज की सेवा का ही परिणाम था कि आप आर्य प्रतिनिधि सभा संयुक्त प्रान्त के प्रधान बने तथा बाद में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के भी अनेक वर्ष्ज तक प्रधान रहे ।  आर्य समाज के आन्दोलनों में आप स्स्दा ही बट चट कर बाग लेते थे । इस कारण ही आप हैदराबाद सत्याग्रह में भी आगे आए तथा इस आन्दो;लन का नेत्रत्व किया ।

आप ने जब संन्यस लिया तो आप को स्वामी ध्रुवानन्द का नाम दिया गया । आप की सम्पादित  एक पुस्तक सन १९३८ इस्वी में शाहपुर से ही प्रकाशित हुई । इस पुस्तक में विवाह संस्कार के अन्तर्गत ” वरवधू के बोलने योग्य मंत्र ” शीर्षक दिया गया । दिनांक २९ जून १९६५ इस्वी को आप का देहान्त हो गया ।

स्वामी ओमानन्द सरस्वती

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स्वामी ओमानन्द सरस्वती

– डा. अशोक आर्य

स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी का जन्म गांव नरेला ( दिल्ली ) में दिनाक चैत्र शुक्ला ८ सम्वत १९६७ विक्रमी तदनुसार ९ जून १९११ इस्वी को हुआ । आप के पिता गांव के धनाट्य थे जिनका नाम कनक सिंह था । माता का नाम नान्ही देवी था । आप का नाम भगवान सिंह रखा गया ।

आप ने गांव के ही हाई स्कूल में अपनी शिक्शा आरम्भ की । आरम्भिक शिक्शा पूर्ण कर आप दिल्ली के सेंट स्टीफ़ेंस कालेज में उच्च शिक्शा के लिए प्रवेश लिया । यहां से आप ने एफ़ ए की उपाधि की परीक्शा उतीर्ण कर देश के स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पडे तथा देश को स्वाधीन कराने के प्रयास में समय लगाने के लिए आप ने आगे की शिक्शा को छोडने का निर्णय लिया ।

अब आप ने नियमित रुप से आर्य समाज के साथ ही साथ कांग्रेस की कार्य योजनाओं का भाग बनकर इन के लिए कार्य आरम्भ कर दिया । आप की पटने की इच्छा अभी पूरी प्रकार से समाप्त न हुई थी , इस कारण आप ने दयानन्द वेद विद्यालय निगम बोध घाट में प्रवेश लिया तथा यहां रहते हुए आप ने संस्क्रत व्याकरण का खूब अध्ययन किया । इतना ही नहीं आप ने गुरुकुल चितौड में प्रवेश ले कर कुछ समय यहां से शास्त्रों का भी अध्ययन किया ।

अब तक आप एक अच्छे शिक्शक के योग्य बन चुके थे । अत: सन १९४२ में आपने गुरुकुल झज्जर में आचार्य पद की नियुक्ति प्राप्त की तथा आप इस संस्था की निरन्तर उन्नति के लिए जुट गये । आप के नेत्रत्व ने इस गुरुकुल ने भरपूर उन्नति की । आप के प्रयत्नों से गुरुकुल झज्जर ने एक महाविद्यालय का रुप लिया तथा देश के उतम गुरुकुलों में स्थान बनाने में सफ़ल हुआ । इतना ही नहीं यह आर्ष शिक्शा का भी उत्तम केन्द्र बन गया । इस मध्य ही आप न जाने कब भगवान सिंह से भगवान देव बन गए किसी को पता हि न चला ।

आप देश के पूर्व वैभव के प्रमाण चुन चुनकर एकत्र करते रह्ते थे । प्राचीन इतिहास तथा पुरातत्व के कार्यों में आप की अत्य दिक रुचि थी । इस कारण ही जब आप इन सिक्कों व कंक्ड – पत्थरों को साफ़ कर रहे होते थे तो लोग आप का मजाक उडाया करते थे किन्तु इस सब के परिणाम स्वरुप गुरुकुल में एक उच्चकोटि का संग्रहालय बन गया है , जिसे देखने के लिए विदेश के लोग भी आते हैं । इस संग्रहालय में कुछ एसी सामग्री भी है , जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं । १९६५ में व १९७१ में जो भारत का पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ , उस सम्बन्ध में जब आप अबोहर आये तथा फ़ाजिलका सैनिकों से मिलने गये तो मैं भी आप के साथ गया । यहां तोपों के अनेक खाली गोले तो आप को भेंट किये ही गये , एक एसा टोप भी भेंट किया गया , जिसके एक ओर से गोली अन्दर जाकर दूसरी ओर से निकल गयी थी किन्तु जिस सैनिक के सिर पर यह टोप था वह पूरी प्रकार से बच गया था । यह सामग्री भी आज इस संग्रहालय की शोभा बना हुआ है । आप का सैनिकों में प्रचार करना एक उपलब्धि थी ।

आप ने १९७० इस्वी में स्वामी सर्वानन्द सरस्वती जी से संन्यास की दीक्शा ली तथा स्वामी ओमानन्द सरस्वती बन गये । आप परोपकारिणी सभा अजमेर के प्रधान रहे तथा सार्वदेशिक सभा के भी । आप ने अनेक देशों में भी आर्य समाज का सन्देश दिया । एसे देशों में यूरोप , अमेरिका , अफ़्रीका , पूर्वी एशिया के अनेक देश सम्मिलित हैं ।

आप एक अच्छे लेखक व सम्पादक भी थे । आप ने आर्य समाज को धरोहर रुप में अनेक पुस्तकें भी दीं । इन में आर्य समाज के बलिदान , स्वप्न्दोष ओर उसकी चिकित्सा, व्यायाम का महत्व,नेत्र रक्शा, भोजन आदि पुस्तकों के अतिरिक्त अपनी विदेश यात्राओं इंग्लैण्ड, नैरौबी , जापान तथा काला पानी का भी उल्लेख किया तथा गुरुकुल पत्रिका सुधारक के सम्पादक भी रहे ।

आप का पुरातत्व के लिए जो प्रेम था उसके कारण आप ने इतिहास, प्राचीन मुद्राओं . प्राचीन सिक्कों , वीर योधेय आदि पर अपने खोज पूर्ण व एक उतम गवेषक के रुप में कई ग्रन्थ दिये । सत्यार्थ प्रकाश को ताम्बे की प्लेटों पर उत्कीर्ण करवा कर यह प्लेटें भी गुरुकुल के संग्रहालय का अंग बना दी गई हैं । अन्त में आर्य समाज का यह योद्धा दिनांक २३ मार्च २००३ इस्वी को इस संसार से विदा हुए ।

स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती

Swami Rameshwaranand Saraswati

स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती 

-डा. अशोक आर्य

स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्ती जी आर्य समाज के तेजस्वी संन्यसी थे । आप उच्चकोटि के वक्ता थे तथा उतम विद्वान व विचारक थे । सन १८९० मे आप का जन्म एक क्रष्क परिवार में हुआ । आप आरम्भ से ही मेधावी होने के साथ ही साथ विरक्त व्रति के थे । आप उच्च शिक्शा न पा सके गांव में ही पाट्शाला की साधारण सी शिक्शा प्राप्त की ।

आरम्भ से ही विरक्ति की धुन के कारण आप शीघ्र ही घर छोड कर चल दिए तथा काशी जा पहुंचे । यहां पर आप ने स्वामी क्रष्णानन्द जी से संन्यास की दीक्शा  ली  । संन्यासी होने पर भी आप कुछ समय पौराणिक विचारों में रहते हुए इस का ही अनुगमन करते रहे किन्तु कुछ समय पश्चात ही आपका झुकाव आर्य समाज की ओर हुआ । आर्य समाज में प्रवेश के साथ ही आप को विद्या उपार्जन की धुन सवार हुई तथा आप गुरुकुल ज्वाला पुर जा पहुंचे तथा आचार्य स्वामी शुद्ध बोध तीर्थ जी से संस्क्रत व्याकरण पटा ।

यहां से आप खुर्जा आए तथा यहां के निवास काल में दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया । इसके पस्चात आप काशी चले गए । काशी में रहते हुए आप ने की शास्त्रों का गहन व विस्त्रत अध्ययन किया । इस प्रकार आपका अधययन का कार्य २१ वर्ष का रहा , जो सन १९३५ इस्वी में पूर्ण किया ।

स्वामी जी ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भी खूब भाग लिया । सन १९३९ मे जब हैदराबाद सत्याग्रह का शंखनाद हुआ तो आप इस में भी कूद पडे । इस मध्य आप को ओरंगाबाद की जेल को अपना निवास बनाना पडा । १७ अप्रैल १९३९ को आपने जिला करनाल , हरियाणा के गांव घरौण्डा में गुरुकुल की स्थापना की । आप ने आर्य समाज के अन्य आन्दोलनों में भी बट चट कर भाग लिया । जब पंजाब की कांग्रेस की सर्कार के मुखिया सरदार प्रताप सिंह कैरो ने पंजाब से हिन्दी को समाप्त करने के लिए कार्य आरम्भ कर दिया तो आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब को हिन्दी रक्शा के लिए एक बहुत विशाल आन्दोलन करना पडा । आप ने इस आन्दोलन में भी खूब भाग लिया तथा पंजाबी सूबा विरूध आन्दोलन में भी आपने बलिदानी कार्य किया ।

आप की देश व धर्म की सेवाओं को देखते हुए लोगों ने आप को सांसद चुन लिया तथा आप लोक सभा के सदस्य भी बने । आप ने अनेक पुस्तकें भी लिखीं , यथा महर्षि दयनन्द ओर राजनीति , महर्षि दयानन्द का योग , संध्या भाष्यम , नमस्ते प्रदीप , महर्षि दयानन्द ओर आर्य समाजी पण्डित , विवाह पद्ध्ति , भ्रमोच्छेदन आदि । देश के इस नि:स्वार्थी तथा निर्भीक वक्ता का ८ मई १९९० इस्वी को निधन हो गया ।

पण्डित प्रकाश वीर शास्त्री

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-डा. अशोक आर्य

आर्य समाज के जो प्रमुख वक्ता हुए, कुशल राजनेता हुए उनमें पं. प्रकाश वीर शास्त्री जी का नाम प्रमुख रुप से लिया जाता है । आप का नाम प्रकाशचन्द्र रखा गया । आप का जन्म गांव रहरा जिला मुरादाबाद , उतर प्रदेश मे हुआ । आप के पिता का नाम श्री दिलीपसिंह त्यागी था , जो आर्य विचारों के थे ।

उस काल का प्रत्येक आर्य परिवार अपनी सन्तान को गुरुकुल की शिक्शा देना चाहता था । इस कारण आप का प्रवेश भी पिता जी ने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में किया ।  इस गुरुकुल में एक अन्य विद्यार्थी भी आप ही के नाम का होने से आप का नाम बदल कर प्रकाशवीर कर दिया गया । इस गुरुकुल में अपने पुरुषार्थ से आपने विद्याभास्कर तथा शास्त्री की प्रीक्शाएं उतीर्ण कीं । तत्पश्चात आप ने संस्क्रत विषय में आगरा विश्व विद्यालय से एम ए की परीक्शा प्रथम श्रेणी से पास की ।

पण्डित जी स्वामी दयानन्द जी तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों में पूरी आस्था रखते थे । इस कारण ही आर्य समाज की अस्मिता को बनाए रखने के लिए आपने १९३९ में मात्र १६ वर्ष की आयु में ही हैदराबद के धर्म युद्ध में भाग लेते हुए सत्याग्रह किया तथा जेल गये ।

आप की आर्य समाज के प्रति अगाध आस्था थी , इस कारण आप अपनी शिक्शा पूर्ण करने पर आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के माध्यम से उपदेशक स्वरुप कार्य करने लगे । आप इतना ओजस्वी व्याख्यान देते थे कि कुछ ही समय में आप का नाम देश के दूरस्थ भागों में चला गया तथा सब स्थानोण से आपके व्याख्य्तान के लिए आप की मांग देश के विभिन्न भागों से होने लगी ।

पंजाब में सरदार प्रताप सिंह कैरो के नेत्रत्व में कार्य कर रही कांग्रेस सरकार ने हिन्दी का विनाश करने की योजना बनाई । आर्य समाज ने पूरा यत्न हिन्दी को बचाने का किया किन्तु जब कुछ बात न बनी तो यहां हिन्दी रक्शा समिति ने सत्याग्रह आन्दोलन करने का निर्णय लिया तथा शीघ्र ही सत्याग्रह का शंखनाद १९५८ इस्वी में हो गया । आप ने भी इस समय अपनी आर्य समाज के प्रति निष्टा व कर्तव्य दिखाते हुए सत्याग्रह में भाग लिया । इस आन्दोलन ने आप को आर्य समाज का सर्व मान्य नेता बना दिया ।

इस समय आर्य समाज के उपदेशकों की स्थिति कुछ अच्छी न थी । इन की स्थिति को सुधारने के लिए आप ने अखिल भारतीय आर्य उपदेशक सम्मेलन स्थापित किया तथा लखनउ तथा हैदराबद में इस के दो सम्मेलन भी आयोजित किये । इससे स्पष्ट होता है कि आप अर्योपदेशकों कितने हितैषी थे ।

आप की कीर्ति ने इतना परिवर्तन लिया कि १९५८ इस्वी को आप को लोक सभा का गुड्गम्व्से सदस्य चुन लिया गया । इस प्रकार अब आप न केवल आर्य नेता ही बल्कि देश के नेता बन कर रजनीति में उभरे । १९६२ तथा फ़िर १९६७ में फ़िर दो बार आप स्वतन्त्र प्रत्याशी स्वरूप लोक सभा के लिए चुने गए । एक सांसद के रूप में आप ने आर्य समाज के बहुत से कार्य निकलवाये ।

१९७५ में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन, जो नागपुर में सम्पान्न हुआ , में भी आप ने खूब कार्य किया तथा आर्य प्रतिनिधि सभा मंगलवारी नागपुर के सभागार में , सम्मेलन मे पधारे आर्यों की एक सबा का आयोजन भी किया । इस सभा में( हिन्दी सम्मेलन में पंजाब के प्रतिनिधि स्वरुप भाग लेने के कारण) मैं भी उपस्थित था , आप के भाव प्रवाह व्याख्यान से जन जन भाव विभोर हो गया ।

आप ने अनेक देशों में भ्रमण किया तथा जहां भी गए, वहां आर्य समाज का सन्देश साथ लेकर गये तथा सर्वत्र आर्य समज के गौरव को बटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे । जिस आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के उपदेशक बनकर आपने कार्य क्शेत्र में कदम बटाया था , उस आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के आप अनेक वर्ष तक प्रधान रहे । आप के ही पुरुषार्थ से मेरट, कानपुर तथा वाराणसी में आर्य समाज स्थापना शताब्दी सम्बन्धी सम्मेलनों को सफ़लता मिली । इतना ही नहीं आप की योग्यता के कारण सन १९७४ इस्वी में आप को परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया गया ।

आप का जीवन यात्राओं में ही बीता तथा अन्त समय तक यात्राएं ही करते रहे । अन्त में जयपुर से दिल्ली की ओर आते हुए एक रेल दुघटना हुई । इस रेल गाडी में आप भी यात्रा कर रहे थे । इस दुर्घटना के कारण २३ नवम्बर १९७७ इस्वी को आप की जीवन यात्रा भी पूर्ण हो गई तथा आर्य समाज का यह महान योद्धा हमें सदा के लिए छोड कर चला गया ।

पं. राजाराम शास्त्री

Pandit Rajaram Shastri

पं. राजाराम शास्त्री       

-डा. अशोक आर्य

पंण्डित राजाराम शास्स्त्री जी अपने काल में अनेक शास्त्रों के अति मर्मग्य तथा इन के टीका कार के रुप में सुप्रसिद्ध विद्वान के रुप में जाने गये । आप का जन्म अखण्ड भारत के अविभाजित पंजाब क्शेत्र के गांव किला मिहां सिंह जिला गुजरांवाला मे हुआ , जो अब पाकिसतान में है ।  आप के पिता का नाम पं. सुबा मल था । इन्हीं सुबामल जी के सान्निध्य में ही आपने अपनी आरम्भिक शिक्शा आरम्भ की ।

आप अति मेधावी थे तथा शीघ्र ही प्राथमीक शिक्शा पूर्ण की ओर छात्रव्रति प्राप्त करने का गौरव पाया किन्तु इन दिनों एक आकस्मिक घटना ने आप के मन में अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली के प्रति घ्रणा पैदा कर दी तथा संस्क्रत के प्रति आक्रष्ट किया । यह घटना एक शिक्शित युवक को ईसाई बनाने की थी । जब आप ने देखा कि एक अंग्रेजी पटे लिखे नौजवान को ईसाई बनाया जा रहा है तो आप के अन्दर के धर्म ने करवट ली । आप जान गये कि यह अंग्रेजी शिक्शा प्रणाली हमारे देश व धर्म का नाश करने वाली है । इस के दूरगामी विनाश को आप की द्रष्टी ने देख लिया तथा आप ने इस शिक्शा प्रणाली के विरोध में आवाज उटाते हुए इस प्रणाली में शिक्शा पाने से इन्कार कर दिया तथा संस्क्रत के विद्यार्थी बन गए ।

जब आप ने संस्क्रत पटने का संकल्प लिया उन्हीं दिनों ही आप के हाथ कहीं से स्त्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आ लगा । स्वामी दयानन्द सरस्वती क्रत यह ग्रन्थ आप के लिए क्रान्तिकारी परिवर्तन का कारण बना तथा इस ग्रन्थ के अध्ययन मात्र से आप में संस्क्रत आदि शास्त्रों के गहनता पूर्वक अध्ययन करने की रुचि आप में उदय हुई । इस ग्रन्थ के विचारणीय प्रश्नों पर चिन्तन करने के मध्य ही आप में इस का दूर्गामी प्रभाव स्पष्ट दिखाई दिया तथा आपने तत्काल व्याकरण , काव्य तथा न्याय दर्शन आदि का विधिवत टंग से अध्ययन करना आरम्भ कर दिया । इतना ही नहीं इस काल में आपने शंकरभाष्य तथा उपनिषदों का , पटन , स्वाध्याय तथा खूब लगन से अनुशीलन किया ओर फ़िर महाभाष्य पटने का निर्णय लिया । अपने इस निर्णय को कार्य रुप देते हुए आपने जम्मू की ओर प्रस्थान किया ।

आपने १८८९ में अपना अध्ययन का कार्य पूर्ण किया तथा अपने घर लौट आए । यहां आ कर आप ने एक हिन्दी पाट्शाला का संचालन किया । कुछ ही समय पश्चात आपने अम्रतसर आकर आर्य समाज द्वारा संचालित एक विद्यालय में नियुक्ति पा कर अध्यापन का कार्य करते हुए वेद के सिद्धान्तों का ग्यान भी विद्यार्थियों को देना आरम्भ किया । किन्तु उत्साही व लगन शील व्यक्ति को सब लोग अपनी ओर ही खैंचने का प्रयास करते हैं । इस लगन का ही परिणाम था कि डी ए वी कालेज के प्रिन्सिपल महात्मा हंसराज जी ने इन्हें १८९२ में लाहौर बुला लिया । यहां आप को डी ए वी स्कूल में संस्क्रत अध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया ।

विद्वान की विद्वता के लोहे को मानते हुए शास्त्री जी को १८९४ मे डी ए वी कालेज लाहौर में संस्क्रत के प्राध्यापक स्वरुप नियुक्त किया गया । कालेज ने आप की योग्यता का सदुपयोग करते हुए आप की इच्छाशक्ति का भी ध्यान रखा तथा कालेज की मात्र लगभग पांच वर्ष की सेवा के पश्चात अगस्त १८९९ में आप को साट रुपए मासिक की छात्र व्रति आरम्भ की इस छात्र व्रति से आपने काशी जा कर मीमांसा आदि दर्शनों का अध्ययन करने के लिए काशी की ओर प्रस्थान किया ।

काशी रहते हुए आपने पण्डित शिवकुमार शास्त्री जी से मीमान्सा एवं वेद का अध्ययन किया । यहां ही रहते हुए आपने पण्डित सोमनाथ सोमयाजी से यग्य प्रक्रिया का बिधिवत परिचय प्राप्त करते हुए इसका अध्ययन किया । आप का काशी में अध्ययन कार्य १९०१ में समाप्त हुआ तथा इसी वर्ष आप काशी से लौट कर लाहौर आ गये ओर काले ज मेम फ़िर से कार्य आरम्भ कर दिया किन्तु कालेज प्रबन्ध समिति ने आप का कार्य बदल कर एक अत्यन्त ही जिम्मेदारी का कार्य सौंपा । यह कार्य था विभिन्न शास्त्रीय ग्रन्थों के भाषान्तर का । इस कार्य का भी आपने व्बखूबी निर्वहन किया । इसके साथ ही आप ने रजा राम शस्त्री पर भाषय तथा टीका लिखने का कार्य भी आरम्भ कर दिया ।

वर्ष १९०४ म३ं शस्त्री जी ने पत्रकारिता में प्रवेश किया । आप ने अधिशाषी अभियन्ता अहिताग्नि राय शिवनाथ के सहयोग से आर्ष ग्रथावलीनाम से एक मासिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ कर दिया । यह ही वह पत्र था जिसके माध्यम से आपने जो भी शास्त्र ग्रन्थों के भाष्य किये थे , उनका प्रकाशन हुआ । इस प्रकार आपके प्रकाशित भाष्यों का अब जन जन्को लाभ मिलने लगा । आर्य सामाजिक संस्थाओं मं कार्य रत रहते हुए आपने अनेक प्रकार का साहित्य भी दिया किन्तु आप के कार्यों से एसा लगता है कि आप के विचार आर्य समाज व रिषि दयानन्द के दार्शणिक सिद्धान्तों से पूरी तरह से मेल न खा सके तथा यह अन्तर बटते बटते विकराल होता चला गया ।

इस सब का यह परिणाम हुआ कि १९३१ में  पं. विश्वबन्धु जी के सहयोग से आर्य समाज के कई विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । शास्त्रार्थ का विषय रहा निरुक्त कार यास्क वेद में इतिहास मानते थे , या नहीं । इस विषय पर पं भगवद्दत जी, पं. ब्रह्मदत जिग्यासु, प. प्रियरत्न आर्ष , टाकुर अमर सिंह जी आदि से १८ मई से २२ मई १९३१ तक यह शास्त्रार्थ महत्मा हंसराज जी की अध्यक्शता में लाहौर में ही हुए ।

इस प्रकार समाज के इस सेवक ने समाज की सेवा करते हुए १८ अगस्त १९४८ को इस संसार से सदा सदा के लिए विदा ली । आपने अपने जीवन काल में अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमें अथर्ववेद भाष्य चार भाग (सायण शैली में ),वेद व्याख्यात्मक ग्रन्थ, वेद ओर महाभारत के उपदेश, वेद ओर रामायण के उपदेश, वेद , मनु ओर गीता के उपदेश, वेदांग , दर्शन शास्त्र , उपनिषद आदि शास्त्रों तथा इतिहास व जीवन चरित हिन्दी तथा संस्कत भाषा व्याकरण आदि सहित अनेक स्फ़ुट विष्यों पर अनेक ग्रन्थ लिखे ।

पण्डित कालीचरण शर्मा

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पण्डित कालीचरण शर्मा

-डा. अशोक आर्य

वैसे तो विश्व की विभिन्न भाषाओं का प्रचलन इस देश में बहुत पहले से ही रहा है किन्तु आर्य समाज के जन्म के साथ ही इस देश में विदेशी भाषाओं को सीखने के अभिलाषी , जानने के इच्छुक लोगों की संख्या में अत्यधिक व्रद्धि देखी गई । इस का कारण था विदेशी मत पन्थों की कमियां खोजना । इस समय आर्य समाज भारत की वह मजबूत सामाजिक संस्था बन चुकी थी , जो सामाजिक बुराईयों तथा कुरीतियों और अन्ध विश्वासों  को दूर करने का बीडा उटा चुकी थी । इस का लाभ विधर्मी , विदेशी उटाने का यत्न कर रहे थे । इस कारण इन के मतों को भी जनना आवश्यक हो गया था किन्तु यह ग्रन्थ अरबी , फ़ार्सी और हिब्रू आदि विदेशी भाषाओं में होने के कारण इन भाषाओं का सीखना आर्यों के लिए अति आवश्यक हो गया था । विदेशी भाषा सीख कर उसमें पारंगत होने वाले एसे आर्य विद्वानों में पं. कालीचरण शर्मा भी एक थे ।

पं कालीचरण जी का जन्म आर्य समाज की स्थापना के मात्र तीन वर्ष पश्चात सन १८७८ इस्वी में बदायूं  जिला के अन्तर्गत एक गांव में हुआ । आप ने आगरा के सुविख्यात विद्यालय “मुसाफ़िर विद्यालय” से शिक्शा प्राप्त की । इस विद्यालय की स्थापना पं. भोजदत शर्मा ने की था । यह विद्यालय आर्य समाज के शहीद पं. लेखराम के स्मारक स्वरुप स्थापित किया गया था । इस कारण यहां से आर्य समाज सम्बन्धी शिक्शा तथा वेद सम्बन्धी ग्यान का मिलना अनिवार्य ही था । इस विद्यालय के विद्यार्थी प्रतिदिन संध्या – हवन आदि करते थे तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों का ग्यान भी इन्हें दिया जाता था । अत: इस विद्यालय से पटने वाले विद्यार्थियों पर आर्य समाज  का प्रभाव स्पष्ट रुप में देखा जा सकता था ।

पण्डित जी ने प्रयत्न पूर्वक फ़ारसी और अरबी का खूब अध्ययन किया और वह इस भाषा का अच्छा ग्यान पाने में सफ़ल हुए । इस ग्यान के कारण ही आप अपने समय के इस्लाम मत के उत्तम मर्मग्य बन गए थे । आप ने इस्लाम तथा इसाई मत का गहन अध्ययन किया । इस्लाम व ईसाई मत के इस गहन अध्ययन के परिणाम स्वरूप आप ने मुसलमानों तथा इसाईयों से सैंकडों शास्त्रार्थ किये तथा सदा विजयी रहे । परिस्थितियां एसी बन गयी कि इसाई और मुसलमान शास्त्रर्थ के लिए आप के सामने आने से डरने लगे ।

आप ने अध्यापन के लिए भी धर्म को ही चुना तथा निरन्तर अटारह वर्ष तक डी. ए. वी कालेज कानपुर में धर्म शिक्शा के अध्यापक के रुप में कार्य करते रहे । इस काल में ही आपने कानपुर में ” आर्य तर्क मण्डल” नाम से एक संस्था को स्थापित किया । इस सभा के सद्स्यों को दूसरे मतों द्वारा आर्य समाज पर किये जा रहे आक्शेपों का उत्तर देने के लिए तैयार किया गया तथा इस  के सदस्यों ने बडी सूझ से विधर्मियों के इन आक्रमणों का उत्तर दे कर उनके मुंह बन्द करने का कार्य किया ।

जब आप का कालेज सेवा से अवकाश हो गया तो आप ने राजस्थान को अपना कार्य क्शेत्र बना लिया । यहां आ कर भी आपने आर्य समाज का खूब कार्य किया तथा शास्त्रार्थ किये । आप ने “कुराने मजीद” के प्रथम भाग का हिन्दी अनुवाद कर इसे प्रकाशित करवाया, इस के अतिरिक्त आप ने विचित्र “जीवन चरित” नाम से पैगम्बर मोहम्मद की जीवनी भी प्रकाशित करवाई । इन पुस्तकों का आर्यों ने खूब लाभ उटाया । इस प्रकार जीवन भर आर्य समाज करने वाले इस शात्रार्थ महारथी का ९० वर्ष की आयु में राजस्थान के ही नगर बांदीकुईं में दिनांक १३ सितम्बर १९६८ इस्वी को देहान्त हो गया ।

स्वामी आत्मानन्द सरस्वती

Swami Aatmanand saraswati

स्वामी आत्मानन्द सरस्वती

-डा. अशोक आर्य

स्वामी आत्मानन्द जी सरस्वती आर्य समाज के महान विचारक तथा प्रचारक थे । आप का जन्म गांव अंछाड जिला मेरट उतर प्रदेश में संवत १९३६ विक्रमी तदानुसार सन १८७९ इस्वी को हुआ । आअपका नाम मुक्ति राम रखा गया । आपके पिता जी का नाम पं. दीनदयालु जी था । आपकी आरम्भिक शिक्शा मेरट में हुई तत्पश्चात उतम व उच्च शिक्शा के लिए आप को काशी भेजा गया ।

आप बडे ही मेहनती प्रव्रति के थे । अत: आप ने काशी में बडी लग्न , बडी श्रद्धा व पुरुषार्थ से विद्याध्ययन किया । यहां रहते हुए आप ने व्याकरण व साहित्य के अध्ययन के साथ ही साथ वेदान्तिक दर्शनों का भी अध्ययन किया । यहां शिक्शा काल में ही आप आर्य समाज के सम्पर्क में आये । आप ने आर्य समाज के सम्पर्क में आने के पश्चात आर्य समाज के सिद्धान्तों का बडी बारिकी से चिन्तन मनन व अनुशीलन कर , इन सिद्दन्तों को आत्मसात किया ।

काशी से अपनी शिक्शा पूर्ण कर आप रावल पिण्डी ( अब पाकिस्तान में ) आ गये तथा रावलपिण्डी के गांव चोहा भक्तां में उन दिनों जो गुरुकुल चल रहा था , उस में अध्यापन का कार्य करने लगे । इस गुरुकुल की आपने लम,बेर समय तक सेवा की तथा यहाम पर सन १९१६ से४ सन १९४७ अर्थात देश के विभाजन काल तक आप इस गुरुकुल के आचार्यत्व को सुशोभित करते रहे ।

आप को सब लोग पण्डित मुक्ति राम के नाम से ही अब तक जानते थे किन्तु शीघ्र ही आप ने संन्यास लेने का मन बनाया तथा इसे कार्य रुप देते हुए संन्यास ले कर अपना नाम स्वामी आत्मा राम रख लिया ।

देश के विभाजन के पश्चात जब पाकिस्तान का हिन्दु , सिक्ख तथा आर्य समुदाय भारत आने लगा तो आप भी रावलपिण्डी से भारत आ गये तथा यमुनानगर (हरियाणा) को आपने अपना केन्द्र बना लिया । आप आरम्भ से ही पुरुषार्थी व मेहनती थे । यह आप के पुरुषार्थ का ही परिणाम था कि रावल पिण्डी का गुरुकुल बडे ही उतम व्यवस्था के साथ चलता रहा तथा भारत आने पर भी आप के मन में एक उतम गुरुकुल चलाने की उत्कट इच्छा शक्ति बनी हुई थी । अत: इस विचार पर कार्य करते हुए आप ने यमुना नगर में वैदिक साधना आश्रम की स्थापना की  तथा इस आश्रम के अन्तर्गत उपदेशक विद्यालय आरम्भ किया ।

आप के अथक प्रयत्न का ही परिणम था कि यमुना नगर का उपदेशक विद्यालय कुछ काल में ही आर्य समाज की श्रोमणी संस्थाओं में गिना जाने लगा तथा इससे पटकर निकलने वाले उच्चकोटि के विद्वानों की एक लम्बी पंक्ति दिखाई देने लगी । गुरुकुल कांगडी महाविद्यालय के वेद विभाग के पूर्व अध्यक्श आचार्य स्वर्गीय सत्यव्रत जी राजेश भी इस विद्यालय की ही देन थे ।

आप की लगन , आपके रिषि मिशन से लगाव को तथा आप की आर्य समाज के प्रचार व प्रसार की लगन को देखते हुए आप को आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रधान भी नियुक्त किया गय । आप ने अपने पुरुषार्थ से आर्य समाज्के कार्य को भर पूर प्रगति दी । इन्हीं दिनों पंजाब में हिन्दी आन्दोलन का भी निर्नय हुआ । आपको इस आन्दोलन की बागदॊर सौंपी गयी तथा यह पूरा व सफ़ल आन्दोलन आप ही के नेत्रत्व में लडा गया ।

यह रीषि का सच्चा भक्त जीवन प्रयन्त आर्य समाज के प्रचार व प्रसार में लगा रहा तथा अन्त में जब वह किसी कार्य वश गुरुकुल झज्जर गये हुए थे , अक्स्मात दिनांक १८ दिसम्बर १९६० इस्वी को उनका देहान्त हो गया ।