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वेदों का वनस्पति-विभाग -सुश्री सूर्या देवी आचार्या

सृष्टि के पदार्थों का वर्णीकरण या विभाजन इतना सरल, सुकर नहीं है जितना कि हम समझते हैं, क्योंकि पदार्थ निर्माता परमात्मा अनन्त ज्ञान वाला है अतः उसके निर्माण भी अनन्त हैं दुज्र्ञेय हैं। पृथिवी के जिन पदार्थों को हम अहर्निश देखते हैं, उनमें बाहुल्य उन पदार्थों का होता है जिनके हम नाम तक नहीं जानते, गुण, कर्म को जानता तो दूर की बात है, उनमें कुछ एक ही ऐसे पदार्थ होते हैं जिनके रूप, रंग, नाम, गुण आदि से परिचय रखते हैं, पुनरपि हमारे ऋषि मुनियों ने पदार्थों के वर्गीकरण में उनके विभाजन में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है, अपनी ऊहा से तीनों लोकों के पदार्थों का स्वरूप वैदिक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है।

            पृथिवी के जिन पदार्थों को वृक्ष, पेड़, बेल, तृण, घास, फूस आदि नामों से पहचानते हैं और नित्य रोपते, उखाड़ते, रौंदते, फेंकते हैं उनका विभाजन आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत ग्रन्थों में तथा अन्य चिकित्सकीय शास्त्रों में वनस्पति, ओषधि आदि नामों से किया जाता है। वनस्पतियों का यह विभाजन सुगन्धित छिलके वाली, फल-फूल या बीज की समानता रखने वाली गोंद पाली गांठदार जड़ वाली इत्यादि प्रकार के आधारों पर किया है।

            चरक में इन वनस्पतियों का विभाग औद्रिद द्रव्य के नाम से चतुर्धा वर्णित है-

            भौममौषधमुद्दिष्टम् औद्रिदं तु चतुर्विधम्।

            वनस्पतिर्वीरूधश्र्व वानसपत्यस्तथौषधिः।

            फलैर्वनस्पतिः पुष्पैर्वानस्पत्यः फलैरपि।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः प्रतानैर्वीरूधः स्मृताः।।

                                                                                                चरक. सू. १। ७०, ७१ ।।

            अर्थात् वनस्पति, वीरूध, वानस्पत्य और ओषधि ये चार प्रकार के औद्रिद द्रव्य हैं। फलवाले पौधे, वनस्पति, जिनमें फल और फूल दोनों प्रकार होते हैं वे वानस्पत्य, फल पकने बाद नष्ट होने वाले औषधि तथा बहुत विस्तार वाले वीरूध कहे जाते हैं।

            इसी प्रकार सुश्रुत में भी-

           तासां स्थावराश्र्वतुर्विधाः- वनस्पतियोवृक्षावीरूधऔषधय इति। तासु अपुष्पाः फलवन्तो वानस्पत्यः। पुष्पफलवन्तो वृक्षाः। प्रतानवत्यः स्तम्बिन्यश्र्व वीरूधः, फलपाकनिष्ठा ओषधय इति।                                            -सुश्रुत.सू. १।३७।।

            अर्थात् स्थावर द्रव्य चार प्रकार के हैं-वनस्पति, वृक्ष, वीरूध और ओषधि। जिन पौधों में पुष्प् न हो फल आते हों वे वनस्पति जिनमें पुष्प, फल दोनों आते हो, वह वृक्ष जो फैलने वाले और गुल्म=झाड़ वाले हैं वे वीरूध तथा जो फलों के पकने तक ही जीवित रहते हैं अर्थात् पकने के बाद स्वयं सूखकर गिर पड़ते हैं उन्हें ओषधि कहा जाता है। चरक और सुश्रुत के वचनों में कुछ थोड़ा सा अन्तर है। चरक जिसे वानस्पत्य कहता है सुश्रुत उसे वृक्ष नाम से अभिहित करता है।

            पाणिनीय सूत्र ‘‘विभाषौषधि वनस्पतिभ्यः’’पा. ८।४।६ के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य ने भी वनस्पतियों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है- फलीवनस्पतिज्र्ञेयो वृक्षाः पुष्पफलोपगाः ।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः लतागुल्माश्र्व विरूधः।।  – कशिका, ८।४।६।।

            इस वचन की व्याख्या करते हुये न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि तथा पदमञ्चजरीकार हरदत्त मिश्र ने वनस्पतिः = उदुम्बर, प्लक्ष, अश्र्वत्थ आदि, पुष्पोपगाः = वेतस् बाँस आदि, फलोपगाः = उदुम्बर, प्लक्ष आदि तथा पुष्पफलोपगाः = आम्र इत्यादि वृक्ष होते हैं, अर्थात् जो वपस्पति होता है वह निश्चित वृक्ष होता है, और जो वृक्ष होता है उसका निश्चित रूप से वनस्पति होना आवश्यक नहीं है। औषध्यः = शालि = धान, गेहूं कदली आदि, लता – मालती इत्यादि, गुल्माः = हृस्व शाखाओं वाले होते हैं और वीरूधः = बहुत व पत्तों वाले कहलाते हैं ऐसा व्याख्यान किया है।

            मनु महाराज ने भी वनस्पतियों का विभाग दर्शाया है-

            उद्रिजाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः।

            ओषध्यः फलपाकान्ताः बहुपुष्पफलोपगाः।

            अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः।

            पुष्पिणः फलिनश्रै्वव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः।

            गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः।

            बीजकाण्डरूहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च।।

                                                                                                – मनु. १।४६, ४७, ४८

            बीज तथा शाखा से लगने वाले स्थावन जीव उद्रिज होते हैं। फल के पकने पर जिनके पौधे नष्ट हो जाते हैं और जिनमें बहुत फल, फूल लगते हैं वे ओषधि कहाते हैं, बिना फूल लगे फलने वालों को वनस्पति और फूल लगने के बाद फलने वाले को वृक्ष कहते हैं।

            इस प्रकार लोक में फल, फूल आदि के आधार पर वनस्पति, वीरूध, ओषधि आदि का विभाजन पृथक्-पृथक् किया गया है, यानी इनका जातिगत भेद स्थापित किया गया है, पर वेदों में वनस्पति, वीरूध औषधि आदि शब्द पर्याय रूप में ही आये हुए हैं अतः वनस्पतियों के विभाग का फल, फूल आदि के आधार पर स्पष्ट संकेत नहीं प्राप्त है अपितु वनस्पतियों के रंग, रूप, गुण आदि द्वारा उनका विभाजन स्पष्ट लक्षित होता है।

            वैसे तो चारों वेदों में ही औषधियों का वर्णन है तथापि अथर्ववेद में बहुलता से दृष्टिगोचर होता है, एतदर्थ ही अथर्ववेद भैषज्य वेद भी कहा जाता है।

            वनस्पतियों के वर्गीकरण के लिये अथर्ववेद के ८ वें काण्ड का ७ वाँ सूक्त विशेष रूप से द्रष्टव्य है। सांकेतिक सूक्त में रूप, रंग, आकार द्वारा वनस्पतियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार है-

रूपभेद- प्रस्तृणती स्ताम्बिनीरेकशुगाः प्रतन्वतीरोषधीरा वदामि।

अंशुमतीः काण्डिनीर्या विशाखा ह्नयामि ते वीरूधो वैश्र्वदेवी रूग्राः पुरूषजीवनीः।।                                                                                                                        – अर्थव. ८।७।४।।

            प्रस्तृणतीः = (स्तृञ् आच्छादने) बहुत छादन करने वाली अर्थात् मूल से ही विभिन्न शाखाओं में फैलने वाली अनार, मेंहदी आदि, स्तम्बिनीः = (स्था + अम्बच्, इनिः) एक तने रूप खम्भे वाली अशोक, कदम्ब आदि, एकशुगाः = एक अकुर, कोपल वाली, आक आदि, प्रतन्वतीः = बहुत फैली हुई ब्राह्मी, हेलेञ्चा, पुदीना आदि, ओषधीः = ओषधियों को, आ वदामि = (मैं परमात्मा या वैद्य) आदेश देता हूँ, बुलाता हूँ, तथा याः = जो, अंशमतीः = काटों वाली, नागफनी, भटकटैय्या, ऊँटकटारा आदि, काण्डिनीः = बहुत काण्ड = शाखा वाली ईख, सरकण्डा, दूर्वा आदि, विशाखाः = शाखाहीन खजूर, ताड़ आदि (विगताः शाखाः) तथा शाखा सहित आम, अमरूद आदि (विशिष्टाः शाखाः), वैश्र्वदैवीः = सभी धारण कराने वाली, वीरूधः = विशेष रूप से उगती हुई ओषधियाँ (विशेषण रोहन्तीति वीरूधः) ते ह्नयामि = तुम्हारे लिये बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में रूप भेद सेऔषधियों का वर्णन है। विभिन्न शाखा, एक तना, काँटा आदि विशेषण औषधियों के रूप को बता रहे हैं। मन्त्र में  ‘ओषधी’ तथा ‘वीरूधः’पद आये हैं जो लोकोक्त अर्थों के वाचक नहीं है। अपितु वनस्पति इस सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हैं।

            रंगभेद- या बभ्रवो याश्र्व शुक्रा रोहिणीरूत पृश्रयः।

            असिक्रीः कृष्णा ओषधीः सर्वा अच्छावदामसि।।                                                                                                -अथर्व. ८।७।१।।

            याः = जो, बभ्रवः = भूरे रंग वाली पोषण, धारण करने वाली, कत्था आदि (डुभृञ् धारणपोषणयोः) याश्र्व = और जो, शुक्राः = श्वेत रंग वाली, वीर्य बढ़ाने वाली, सफेद फूल की कटेरी आदि, रोहिणीः = लाल रंग की अथवा स्वास्थ्य उत्पन्न करने वाली, कुटकी, मजीठ आदि (रूह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च) उत = और, पृश्नयः = चितकबरी (व्याघ्र रूपं वै पृश्निः त्रै. ४।२।२४) , असिक्नीः = श्याम = नील वर्ण वाली, अबद्ध शक्ति वाली, बाकुची आदि, कृष्णाः = आकर्षण करने वाली, काले वर्ण वाली पिपरामूल, पीपल आदि, औषधीः = औषधियाँ हैं, सर्वाः = उन सबको, अच्छ्रावदामसि = अच्छे प्रकार, मैं वैद्य आदेश देता हूँ।

            यह मन्त्र ओषधियों को रंगभेद से वर्णन कर रहा है। औषधीः शब्द सामान्य अर्थ वाली है, फल पाकान्त ओषधि के लिये नहीं।

            टाकर भेद- मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरूधां बभूव।

            मधुमत् पर्णं मधुमत् पुष्पमासां मधोः संभक्ता अमृतस्य भक्षो

            घृतमत्रं दुहृतां गोपुरोगवम्।।                                                -अथर्व. ८।७।१२।।

            आसां वीरूधाम् = इन ओषधियों का, मूलं मधुमत् = जड़ माधुर्य वाला, अग्रम् = ऊपरीभाग – सिरा, मधुमत् = माधुर्य युक्त, मध्यमम् = मध्य भाग, मधुमत् = माधुर्य युक्त, पर्णम् = पत्ते, मधुमत् = माधुर्य वाले, पुष्पम् = फूल, मधुमत् = मधुर्य वाले, बभूव = हैं, आसाम् = इन ओषधियों का, अमृतस्य भक्षः = अमृत का भोजन है अर्थात् अमरता देने वाला है मधोः संभक्ताः = मधुरता से परिपूर्ण हैं, गोपुरोगवम् = गौओं का पालन करने वाले या गौओं का प्राधान्य मानने वाले इन ओषधियों से , घृतम् = घी, अन्नम् = अन्न का, दुहृताम् = दोहन करें।

            यहाँ ओषधियों का आकार रूप से वर्णन है तथा गौओं को इन ओषधियों का भक्षण कराके घृतादि पदार्थ ग्रहण करें, यह निर्दिष्ट किया है। मन्त्र का ‘वीरूधाम्’ पद सामान्य रूप से ओषधि अर्थ में प्रयुक्त है। प्रतान विशिष्ट वनस्पतियों के  लिये नहीं।

            यावतीः कितयीश्रे्वमाः पृथिव्यामध्योषधीः।

            ता मा सहसुपण्र्यो मृत्योर्मृञ्चन्त्वहंसः।।                           -अथर्व. ८।७।१३।।

            यावतीः = जितनी, च = और, कियतीः = कितनी भी अर्थात् विभिन्न परिमाण वाली, इमाः = ये, पृथिव्याम् अधि = पृथिवी के ऊपर, ओषधिः = ओषधियाँ है, ताः = वे, सहस्त्रपण्र्यः = सहस्त्र पत्तों वाली, हजार प्रकार से पोषण करने वाली, सफेद दूब आदि (प पालनपूरणयोः) मा = मुझको, मृत्योः = मृत्यु से अहंसः = पाप से, मुञ्चन्तु = छुड़ावें।

            यहाँ पत्तों के आकार रूप से ओषधियों का वर्गीकरण है, और ‘ओषधी’ पद सामान्य अर्थवाला है, फल पाकान्त अर्थ वाला नहीं।

            मुमुचाना ओषधयोऽग्नेर्वैश्वानरादधि।

            भूमिं संतन्वतीरित यासां राजा वनस्पतिः।                        -अथर्व. ८।७।१६।।

            मुमुचानाः = रोगों को छुड़ाने वाली, ओषधयः = ओषधियाँ हैं वे, वैश्वानरात् अग्नेः = सब मनुष्यों को ले जाने वाले, प्रेरक अग्रगणी परमेश्वर से, अधि = अधिकृत होकर, भूमिम् = भूमि पर, सन्तन्वतीः विस्तृत होती हुई दूब, पुनर्नवा आदि लतायें, इतः = गई हुई हैं, यासाम् = जिन ओषधियों का, राजा = राजा, वनस्पतिः = सोम है (सोमो वै वनस्पतिः मै. १।१०।९।।)

            परमेश्वर द्वारा विस्तृत की हुई जो ओषधियाँ हैं, जो रोगों को दूर करती हैं उनका फैलने के आकार रूप से वर्णन है। मन्त्र में आये ‘ओषधयः’ एवं ‘वनस्पतिः’ पद लोक प्रसिद्ध अर्थ वाले नहीं हैं।

            पुष्पवतीः प्रसूमतीः फलिनीरफला उत।

            संमातर इव दुह्नामस्मा अरिष्टतातये।                  -अथर्व. ८।७।२७।।

            पुष्पवतीः = पुष्पों वाली, प्रसूमतीः = सुन्दर, कोमल पलव अकुर वाली, फलिनीः = फलवाली, उत = और, अफलाः = फलरहित ओषधियाँ, संमातर इव = सहयोगी माताओं के समान, अस्मै = इस रूग्ण मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण के लिये, स्वास्थ्य के लिये, दुहाम् = दूध देवें।

            यह मन्त्र भी फूलों वाली, पलवों वाली, फलों वाली एवं बिना फलवाली ओषधियों का आकार भेद से वर्णन कर रहा है।

           गुणभेद- जीवलां नघारिषां जीवन्तीमोषधीमहम्।    अरून्धतीमुन्नयन्तीं पुष्पां मधुमतीमिह हुवेऽस्मा अरिष्टतातये।

                                                                                                           -अथर्व. ८।७।६।।

            जीवलाम् = जीवन देने वाली, नघारिषाम् = कभी भी हानि न करने वाली, जीवन्तीम् = प्राण धारण करने वाली, गिलोय आदि, अरून्धतीम् = बाधा न डालने वाली, चोट आदि प्रहारों को भरने वाली, औधा हेली, भंगरैला आदि, उन्नन्तीम् = उन्नत बनाने वाली, पुष्पाम् = फूलों वाली, मधुमतीम् = माधुर्य रस वाली, ओषधीम् = ताप नाशक, अन्नादि ओषधि को (ओषद् (दहत्) धयन्तीति वा ओषति दहति एनाः धयन्तीति वा, दोष धयन्तीति वा। निरू. ९।२६। धेर पाने) इह = यहाँ, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अरिष्टतातये = कल्याण करने के लिये, अहम् = परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            इस मन्त्र में जीवन आदि देने वाली ओषधियों के गुणों का वर्णन है। मन्त्र का ‘ओषधीः’ शब्द सामान्य वनस्पति वाचक है।

            इहा यन्तु प्रचेतसो मेदिनीर्वचसो मम।

            यथेमं पारमामसि पुरूषं दुरितादधि।।                      -अथर्व. ८।७।७।।

            प्रचेतसः = चेतनता देने वाली, मेदिनीः = प्रीति करने वाली, (ञमिदा स्नेहने + अच्, इनिः, डीष्) रूक्षता हटाकर स्निग्धता प्रदान करने वाली ओषधियाँ, इह = यहाँ मेरे पास, मम वचसा = मुझ चिकित्सक के वनन के साथ अर्थात् चिकित्सा का विचार करने पर, आयन्तु = आवें, यथा = जिससे, इमं पुरूषम् = इस मनुष्य को दुरितात्, अधि = कष्ट से ऊपर, दूर, पारयामसि = पार लगा दूँ।

            यह मन्त्र भी ओषधियों के गुणों का वर्णन कर रहा है।

            उन्मुञ्चन्तीर्विवरूणा उग्रा या विषदूषणीः।

            अथो बलासनाशनीः कृत्यादूषणीश्र्व यास्ता इहा यन्त्वोषधीः।

                                                                                                             -अथर्व. ८।७।१०।।

            याः = जो, उन्मुञ्चन्तीः = रोग से मुक्त करने वाली, विवरूणाः = विशेष करके स्वीकार करने योग्य, उग्राः = तीक्ष्ण, बल, गन्ध रसादि वाली, विषदूषणीः = विष हरण करने वाली, इलायची आदि, अथ = और, यः = जो, बलासनाशनीः = बल गिराने वाले सन्निपात, कफ आदि को नाश करने वाली ( बल + असु क्षेपणे + अण्, बलम् अस्यति क्षिपतीति = बलासः, तस्य नाशनीः इति बलासनाशनीः), च = और, कृत्यादूषणीः = हिंसा, पीड़ा मिटाने वाली अजवाइन, लाक्षा गुग्गुल आदि (कृञ् हिंसायाम् + क्यप्, टाप), ओषधीः = ओषधियाँ हैं ताः = वे, आयन्तु = आवें, प्राप्त होवें।

            यहाँ पर विष नाशक औषधियों के गुणों का वर्णन है। ‘ओषधिः’ पद का पूर्वतम् सामान्य अर्थ है।

            उत्पत्ति भेद- अवकोल्बा उदकात्मान ओषधयः।

                           व्यृषन्तु दुरितं तीक्ष्णश्रृड्ग्यः।।    -अथर्व. ८।७।९।।

            अवकोल्बाः = पीड़ा को जलाने वाली, नष्ट करने वाली, शैवाल, काई ये युक्त (अव हिंसायाम् +वुन्, टाप्, उल्वम् ऊर्णोतेः वृणोतेर्वा रिरू. ६।३६। ऊर्णुन्ध्या वृञ् + वन्, वस्य बः रेफस्य लत्वम्, वकारस्य उत्वम् इति उल्बाः)  उदकात्मानः = जल जीवन वाली, जलकुम्भी, कमल, सिंघाड़ा आदि, तीक्ष्णशृड्ग्यः = तीक्ष्ण काट करने वाली, तीक्ष्ण अग्रभाग वाली गोखुरू आदि, ओषधयः = ओषधियाँ, दुरितम् = रोग को, वि ऋषन्तु = बाहर रिकालें (ऋषी गतौ)।

            यह मन्त्र जलीय ओषधियों का उत्पत्ति भेद से वर्णन करता है। ‘ओषधीः’ पद सामान्यार्थक है।

            या रोहन्त्यागिरसीः पर्वतेषु समेषु च।

            ता नः पयस्वतीः शिवा ओषधीः सन्तु शं हृदे।                    -अथर्व. ८।७।१७।।

            आगिरसी = अग्नि, विद्युत् आदि गुणों से युक्त या अगों में रस भरने वाली, पर्वततेषु = पर्वतों में, च = और, समेषु = चैरस भू प्रदेशों में, रोहन्ति = उगती हैं, ताः = वें, पयस्वतीः = दुग्ध तथा रस वाली, शिवाः = कल्याण करने वाली,

 ओषधीः = ओषधियाँ, नः = हमारे, हृदे = हृदय के लिये शम् = शान्तिदायक, सन्तु – होवें।

            इस मन्त्र में पर्वत आदि स्थानों में होने वाली ओषधियों का औत्पत्तिक भेद दर्शाया है। ‘ओषधीः’ पद का अर्थ पूर्ववत् है।

  ओषधि प्रधान भेद- अश्र्वत्थो दर्भो वीरूधां सोमो राजामृतं हविः।   वीहिर्यवश्र्व भेषजौ दिवस्पुत्रावमत्र्यौ।।

                                                                                                -अथर्व. ८।७।२०।।

            अश्र्त्थः = ‘‘वृक्षों में’’ पीपल, दर्भः = ‘‘तृणों में’’ दाभ, कांस, वीरूधाम् = ‘‘लताओं में’’ (विशेषेण रून्धन्ति अन्यान् वृक्षान् इति वीरूधः) सोमः = सोमलता, राजा = ओषधि राज है, अमृतम् = ‘‘प्राकृतिक द्रव पदार्थों में’’ जल (अमृतमिति उदक नाम, निघं. १।१२), हविः = ‘‘जगमज वस्तुओं में’’ यज्ञीय घृत और ‘‘अन्नों में’’ व्रीहि = चावल, च = और, यवः = जौ, तथा दिवस्पुत्रौ = ‘‘आकाशीय पदार्थों में’’ द्यौलोक के पुत्र सूर्य और चाँद, अमत्र्यौ भेषजौ = अगर भेषज हैं, भय निवारक पदार्थ हैं (भेषं भयं जयति = भेषजम्)।

            इस मन्त्र में अश्र्वत्थ, दर्भ, सोमलता आदि को महा औषधि के रूप में वर्णित किया है। विरूधाम् पद वनस्पति सामान्यार्थ का द्योतक है।

            ऋतु भेद- अग्नेर्धासो अपां गर्भों या रोहन्ति पुनर्णघ्वाः।

            ध्रुवाः सहस्त्रनाम्नीर्भेषजीः सन्त्वाभृताः ।। – अथर्व. ८।७।८।।

            अग्नेः = अग्नि का (जठराग्नि का). घासः = जो, पुनर्णवाः = बार-बार नवीन औषधियाँ, ऋतु-ऋतु में, रोहन्ति = उगती हैं वे, ध्रवाः = दृढ़ गुणवाली, सहस्त्रनाम्नीः = हजारों नामों वाली, आभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, भेषजीः = भय निवारक औषधियाँ, सन्तु = प्राप्त होवें।

            मन्त्र में प्रति ऋतु में पुनः पुनः होने वाली औषधियों का संकेत है जो मनुष्य के लिये उपयोगी हैं तथा शरीर बल बढ़ाने वाली हैं।

            उज्जिहीध्वे स्तनयत्यभिक्रन्दत्योषधीः।

            यदा वः पृश्निमातरः पर्जन्यो रेतसावति।                           -अथर्व. ८।७।२१।।

            पृश्निमातरः = पृथिवी को माता मानने वाली अर्थात् पृथिवी से उत्पन्न होने वाली (इयं पृथिवी वै पृश्निः तै. ब्रा. १।४।१।५), ओषधीः = ओषधियों, उज्जिहीध्वे = तुम खड़ी हो जाती हो, उत्पन्न हो जाती हो (ओहाड्. गतौ) यदा = जब, पर्जन्यः = मेघ, स्तनयति = गरजता है, अभ्रिक्रन्दति = कड़कता है और वः = तुमको, रेतसा = जल से (रेतः उदक नामसु, निघ. १।१२) अवति = तृप्त करता है (अव तृप्तौ)।

            इस मन्त्र में वर्षा ऋतु में होने वाली औषधियों का संकेत है। औषधीः समान्यार्थक है।

            उपयोग भेद- वराहो वेद वीरूधं नकुलो वेद भेषजीम्।

                          सर्पा गन्धर्वा या विदुस्ता अस्या अवसे हुवे।।                   -अथर्व. ८।७।२३।।

            वराहः = सूअर, वीरूधम् = औषधी को, वेद = जानता है, नकुलः = नेवला, भेषजीम् = रोग जीतने वाली, भय दूर करने वाली औषधियों को, वेद = जानता है, सर्पाः = साँप् और गन्र्धवाः = गौ-पृथिवी को धारण करने वाले अर्थात् = भूमि में बिल बनाकर रहने वाले चूहे, छछुन्दर, गोह आदि प्राणी (गौः इति पृथिव्याः नामधेयम् निघ. १।१), याः = जिन औषधियों को, विदुः =जानते हैं, ताः = उन को, अस्मै = इस पुरूष के लिये, अवसे = रक्षा हेतु, मैं वैद्य अथवा परमेश्वर, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लाता हूँ।

            मन्त्र में जंगली पशुओं, जन्तुओं द्वारा उपयोग में ली जाने वाली औषधियों का उपयोग भेद से वर्णन है। यहाँ बताया गया है कि जिन कन्द आदि औषधियों को सूअर आदि उपयोग में लाते हैं, बलिष्ठ बनते हैं उनसे मनुष्यों को भी अपना उपचार करना चाहिये। मन्त्र में ‘वीरूधम्’, ‘भेषजीम्’ पद पर्यायार्थक हैं।

            याः सुपर्णा आगिरसीर्दिव्या या रघटो विदुः।

            वयांसि हंसा या विदुर्याश्र्व सर्वे पतत्रिणः।।

            मृगा या विदुरोषधीस्ता अस्मा अवसे हुवे।।                        -अथर्व. ८।७।२४।।

            याः = जिन, आगिरसीः = अगों में गति लाने वाली तथा अग्नि, विद्युत् आदि गुणों वाली औषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = गरूड़, गिद्ध आदि, याः दिव्याः = जिन दिव्य ओषधियों को, रसायन पदार्थों को रघटः = आकाश में उड़ने वाले पक्षी (रघि गतौ + अच्, अट गतौ + क्पि् = रघटः, रघे गन्तवे आकाशे अटन शीलाः = रघटः), विदुः = जानते हैं, याः = जिनको, वयांसि = जिन ओषधियों को मृगाः = सभी पंख वाले जीव, विदुः = जानते हैं, याः ओषधीः = जिन ओषधियों को मृगाः = वन्य पशु, विदुः = जानते हैं, ताः = उन सबको, अस्मै = इस मनुष्य के लिये, अवसे = रक्षणार्थ, मैं परमात्मा या वैद्य, हुवे = बुलाता हूँ, उपयोग में लेता हूँ।

            यह मन्त्र भी औषधियों के उपयोग भेद का वर्णन कर रहा है। गरूड़ आदि पक्षी जिन औषधियों को व्यवहार में लाते हैं उनसे विष नाश, दूर दृष्टि, स्फूर्ति आदि का लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ उठाते हैं उनसे मनुष्य को भी लाभ लेना चाहिये यह मन्त्र में स्पष्ट किया गया है। ‘ओषधीः’ पद का पूर्ववत् सामान्य अर्थ है।

            यावतीनामोषधीनां गावः प्राश्नन्त्यध्न्या यावतीनामजावयः।

            तावतीस्तुभ्यमोषधीः शर्म यच्छन्त्वाभृताः।।                                -अथर्वं. ८।७।२५।।

मारने योग्य गौवें और, यावतीनाम् = जितनी औषधियों का, अजावयः = भेड़, बकरियाँ, प्राश्नन्ति = चारा करती हैं, खाती हैं, तावतीः = वे सभी अभृताः = भली भाँति पुष्ट की हुई, ओषधीः औषधियों, तुभ्यम् = तुझ मनुष्य को, शर्म = सुख, यच्छुन्तु – देवें।

            इस मन्त्र में गाँव, नगर में रहने वाले पशुओं द्वारा चारा के रूप में उपयोग में आने वाली औषधियों का वर्णन है। ‘ओषधीः’ औषधीनाम्, पद सामान्य अर्थ वाले हैं।

            यावतीषु मनुष्या भेषजं भिषजो विदुः।

            तावतीर्विश्र्व भेषजीरा भरामि त्वामभि।।                                       -अथर्व, ८।७।२६।।

            यावतीषु = जितनी ओषधियों में, भिषजः मनुष्याः = वैद्य लोग (भिषज् चिकित्सायाम् क्विप्, भिषक्), भेषजम् = चिकित्सा, विदुः = जानते हैं, तावतीः = उतनी, विश्र्वभेषजीः = सब रोगों को जीतने वाली ओषधियों को, त्वाम् अभि = तुम्हारी ओर मैं परमात्मा और वैद्य, आभरामि = लाता हूँ।

            मन्त्र में वैद्य जनों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली क्वाथ, कषाय, चूर्ण, अवलेह, भस्म आदि औषधियों का वर्गीकरण है।

            अथर्ववेद के उपर्युक्त सूक्त में विभिन्न प्रकार की औषधियों का वर्गीकरण अपने ढंग का है। जिन औषधियों को लोक में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि अलग-अलग नामों से विभाजित करके जाना जाता है। उन्हें वेद में रूप, रंग, आकार, गुण, उत्पत्ति, औषधि महौषधि प्राधान्य = ऋतु एवं उपयोग के आधार पर विभाजित किया गया है।

            तात्पर्य यह हुआ वेद में वनस्पति, वीरूध, औषधि आदि शब्द जो उद्धिज पदार्थों का ज्ञान करा रहे हैं वे परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं, जैसा कि मन्त्रों में आये वीरूध, वनस्पति आदि पदों से स्पष्ट है। यानी वनस्पति आदि शब्द फल वाले पौधों के लिये ही प्रयुक्त नहीं है अपितु सामान्यतः पौधे अर्थ में प्रयुक्त हैं अर्थात् वे शब्द यौगिकता, व्यापकता के अर्थ को लिये हुये हैं, यथा- वनस्पति- वनानां पाता वा पालयिता वा। निरू. ८।३।।

            जो वन = जल को, रस को सुरक्षित रखते हैं वे वनस्पति।

            औषधी- औषद् (दहत्) धयन्तीति वा, औषधि एनाः धयन्तीति वा। दोषं धयन्तीति वा। निरू. ९।२६।।

            जलते हुये अर्थात् ताप को जो पीते हैं अथवा ताप में इनको पीते हैं तथा जो दोष को पीते हैं वे औषधि हैं।

            वीरूध- विशेषण रून्धन्ति, रोहन्तीति वा वीरूधः। निरू. ६।३।९।।

            जो विशेष रूप से रोकते हैं या उगते हैं वे वीरूध हैं।

            इन व्युत्पत्तियों के अनुसार इन शब्दों का पर्यायवाचित्व समुचित है, और उपर्युक्त विभाग ही वनस्पतियों का वेदोक्त वर्गीकरण है जिसे वेद से ही जानना चाहिये।

            वैसे रोगानुसार औषधियों के निर्माणनुसार, अन्य कई और विभाग बन सकते हैं जो वस्तुतः औषधियों के गुणादि वर्गीकरण में ही समाहित हो जाते हैं।

पाणिनि कन्या महाविद्यालय, वाराणसी- १० (उ. प्र.)

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य–डॉ. कृष्णलाल

वैदिक विज्ञान के मूल तत्व-ऋत और सत्य (पदार्थ विद्या के विशेष सन्दर्भ में) -डॉ. कृष्णलाल

आधुनिक विज्ञान की सभी गवेषणाओं का लक्ष्य सृष्टि के तत्वों के मूल तक पहुंचना है। विज्ञान समस्त दृष्टि में क्या, क्यों और कैसे की खोज करता है। सभी पदार्थों में कोई मूल तत्व, अपरिवर्तित गुण की खेज करके विज्ञान यथार्थ की गहराई तक उत्तर कर सूक्ष्मेक्षिका द्वारा मूल सूत्र को ढूँढता है। एक ओर इससे जहां नये तथ्य उद्घाटित होते हैं, वहीं उस सूत्र को मानवता के उपकार में लगाया जा सकता है।

            वेद के अनुसार सृष्टि का मूल सूत्र ही ऋत और सत्य है जो सब ओर समिद्ध तप या उष्णता से उत्पन्न होते हैं। उन्हीं से व्यक्त संसार से पहले अव्यक्त प्रकृतिरूप रात्रि उत्पन्न होती है (विद्यमान रहती है) और गतिशील सूक्ष्म कणों के रूप में व्यापक जल बनता है।

            ऋत वह मूलभूत तत्व है जो निरन्तर अपने स्वाभाविक रूप में गतिशील रहता है। वह गति प्रत्येक पदार्थ की गति, सापेक्ष गति भी हो सकती है, वह काल अबाध गति भी हो सकती है और वही प्रत्येक पदार्थ या तत्व के केन्द्र में विद्यमान परमाणुओं की गति भी हो सकती है। सार यह कि इस गति के बिना सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। उस समय की स्थिति में सत् असत् का विश्लेषण हो ही नहीं सकता।

            थ्जसे उपरिनिर्दिष्ट मन्त्र में समुद्र अर्णव कहा गया है उसके मूल में भी गति (ऋ-क्षत) तत्व विद्यमान है। इसे ही एक अन्य स्थल पर सब देवों (तत्वों) का मिलना अथवा गति करना कहा गया है।

            उपर्युक्त ऋत के साथ-साथ सत्य भी सृष्टि के आधार में स्थायी तत्व है। ऋत गतिशील या गति प्रदान करने वाला तत्व है तो सत्य वास्तविकता है, अरितत्व है। (सन्तमर्थमाययति)। सम्भवतः दोनों तत्वों के इस मौलिक तथा सभी पदार्थों के आधार में समान महत्व के कारण बहुत स्थानों पर वेद में ही इन दोनों का प्रयोग पर्यायवाची रूप में भी हुआ है।

            अथर्ववेद (१२.१.१) के अनुसार पृथ्वी को धारण करने वाले ये दो प्रमुख तत्व हैं। सम्य जहाँ बृहत् महान् या व्यापक हैं, वहीं ऋत् उग्र, कठोर, शाश्र्वत है। ‘एक अन्य मन्त्र’ में कहा गया है कि पृथ्वी सत्य के द्वारा थामी गई है.. द्युलोक भी सत्य के द्वारा थामा गया है, ऋत अर्थात् निरन्तर गति से आदित्य अपने स्थान पर स्थिर है। इसी प्रकार ऋत से ही सोम (चन्द्रमा) द्युलोक में स्थित है।

            ऋत गति है क्योंकि सभी आदित्यादि ज्योतिःपिण्ड अपने-अपने मार्ग में निश्चित गति करते हैं। इस गति के प्रतीक रूप में ऋत की व्याख्या निरूक्त में जल के रूप में सब ओर पहुंचने वाला बताकर दी गई है। ऋत के मूल में गत्यर्थक ऋ धातु है। सदा एक ही स्थिति में निर्विकार रहने वाले परमेश्वर की तुलना में समस्त व्यक्त सृष्टि में गति मूल तत्व है। साम्यावस्था में सृष्टि हो ही नहीं सकती। जब तत्व, रजस्, तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था में विक्षोभ होता है, तभी सृष्टि का आरम्भ होता है। विक्षोभी अथवा हलचल गति का ही दूसरा नाम है। यह गति प्रत्येक तत्व के एक-एक कण में विद्यमान है जिसके नाभिक अथवा केन्द्र में निरन्तर प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन गति करते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने इनसे भी सूक्ष्म परमाणुओं का पता लगाया है जिन्हें न्यूट्रॉन नाम दिया गया है। इन न्यूट्रॉन का प्रतिकण भी होता है। इन दोनों में से एक अपने कक्ष पर दक्षिणावर्त घूमना है तो उसका प्रतिकण वामावर्त घूमता है। यह अत्यधिक ऊर्जा का कण है। इसकी गति प्रकाश की गति के समान होती है।

            एक मन्त्र में नदियों (धाराओं) की गति के बताने के लिए ऋत शब्द प्रयुक्त है और सूर्य को सत्य का विस्तार करने वाला कहा गया है। क्या यहाँ नदियों से सूक्ष्म कणों की धाराओं की गति अभिप्रेत नहीं हे? अन्यथा भी ऋत गति का द्योतक तो है ही।

            जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये ऋत और सत्य दोनों ही नाम वेदों में ही अनेक स्थानों पर समानार्थक हो गये हैं। एक मन्त्र में सत्य के साथ असत्य के अर्थ में अनृत के प्रयोग से इस तथ्य की पुष्टि होती है। वह मन्त्र आपः (व्यापक सृष्टि-जल) के सम्बन्ध में बताता है कि सूक्ष्म वाष्प-कणों के रूप में यह जल सम्पदा मध्यमस्थान (अन्तरिक्ष) में व्यास (आप्) रहता है और वहीं अपनी व्याप्ति के द्वारा वरूण (व्यापक परमेश्वर) सबका राजा होकर पहुँचा रहता है और वहीं से समस्त जनों के सत्य और असत्य आचरणों को देखता रहता है।

            वैदिक दृष्टि से सत्याचरण के साथ-साथ सत्य वास्तविक तत्व भी है। तभी तो अन्यत्र कहा गया है कि प्रजापति ने सत्य और असत्य (अवास्तविक) दोनों को अलग किया और केवल सत्य (वास्तविकता) में श्रद्धा (विश्वास) का आधान किया, अनृत (अवास्तविक, मिथ्या) में नहीं।

            पदार्थों की ऊपरी, बाह्म रूप-रचना देख्कार जिसे हम वास्तविक समझ बैठते हैं, वास्तविक तत्व वह नहीं है। उस वास्तविक तत्व को जानने पर पहचानने के लिए ऊपरी अवारनण हटाकर उसके पीछे देखना पड़ता है। तब वास्तविक सत्य तत्व ज्ञान होता है। वही तत्व सृष्टि के सभी पदार्थों के मूल में है।

            अग्नि भी अपने स्वरूप से और अपने दाहक तथा दान और आदान (हु दानादानयोः) -अग्नि सभी कुछ लेकर भस्म करके वायुमण्डल में उसका प्रभाव और दग्ध पदार्थों का भस्म देता है करने वाले तत्वों से युक्त है और क्रान्त (स्थूल दृष्टि से न देखे-जाने योग्य) कार्य करता है। इसलिए वह सत्य है और अद्भुत कीर्ति वाला है। विज्ञान उसके इस स्वरूप को समझ उसके विविध प्रयोग करता है। अगिन का स्वरूप सत्य इसलिए भी है क्योंकि विद्युत् और सूर्य में भी यही रूप होने के कारण उन्हें भी अग्नि ही कहा गया है।

            वेद सभी पदार्थों, या मौलिक भौतिक तत्वों में एक ऋत, सदास्थायी सूत्र कहाँ है और अनृत मिथ्या तत्व कौन सा है, इसकी खोज करता हे। वहां प्रेरणा दी गई है कि पृथ्वी और आकाश को प्रत्यक्ष जानने वाले विद्वान् इस तथ्य का अन्वेषण करें क्योंकि विज्ञान का रहस्य इस अन्वेषण में छिपा हुआ है।

            इससे अगले मन्त्र में फिर ऋत की खोज कर स्वर मुखर हुआ है क्योंकि वहाँ फिर प्रश्न है कि हे देवो अथवा मूल तत्वों, तुम्हारे ऋत (शाश्र्वत नियम) का स्थान क्या है और सर्वव्यापक वरूण (आवरक तत्व) की दृष्टि कहाँ है? हम महान् अर्यमा (शत्रुओं के नियामक सूर्य) के किस सत्य मार्ग से दुरूह ग्रन्थियों का उत्क्रमण करें। निश्चय ही हम शाश्र्वत नियम का मार्ग है।

            ऋत ही ऐसा तत्व है जो पदार्थों को उनके मूल रूप में स्थिर रखता है। इस मूलभूत स्थिरता, शाश्र्वतरूपता का नाम ऋत है। इसके विपरीत पदार्थों का परिवर्तनशील रूप अनृत है। यह रूप आयु से सीमित है। वा.सं. ७.४० के मन्त्र ‘‘एष ते योनिर्ऋतायुभ्यां त्वा’’ की व्याख्या करते हुए शतपथ में कहा गया है कि ब्रह्म ही ऋत है, ब्रह्म ही मित्र है, ब्रह्म ही ऋत है। वरूण ही आयु है, वरूण संवत्सर है (क्योंकि वह परिवर्तनशील है), वरूण ही संवत्सर है, आयु है।

            बृहस्पति, परमेश्वर (बृहतां पाता वा पालयिता वा) भी ऋतप्रजात (ऋ. २.२३.१५) है क्योंकि उससे ही ऋत, शाश्र्वत नियम का जन्म होता है। अग्रि को भी ऋतप्रजात कहा गया है क्योंकि वह ऋत का वाहक है (ऋ. १.६५.५) उसके मूल में शाश्र्वत नियम निरन्तर रहता है, जल से सम्बद्ध विद्युत् रूप अग्नि में भी वही शाश्र्वत तत्व विद्यमान रहता है। ऋ. १०.६७.१ में भी बुद्धि को ऋतप्रजाता कहा गया है क्योंकि वही उत्तम स्थिति में ऋत को उत्पन्न करती है। उत्कृष्ट रूप मे बुद्धि, अध्याम अथवा विज्ञान के माध्यम से ऋत का ही अन्वेषण करती है।

            इसी क्रम में उषा को भी ऋतपा और ऋतेजा कहा गया है क्योंकि वह शाश्र्वत नियम का पालन करती हुई चलती है।

                        ऋत को सभी पदार्थों की आद्य शक्ति के रूप में देखा गया है। यह शक्ति विनाशकारक भी है। वैज्ञानिक इस विषय में निश्चित ज्ञान रखते हैं कि ऋतरूप परमाणुओं के विखण्डन में कितनी शक्ति निहित है जो विनाशक भी हो सकती है। यही नहीं, ऋत के, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ के मूल सूक्ष्म तत्व के धारणस्थान सुदृढ़ और सुनिश्चित होते हैं। एक-एक पदार्थ-शरीर के लिए वे ही बहुत आह्लादक अर्थात् उसे उसके रूप में धारणा कर महत्व प्रदान करने वाले होते हैं। अन्न भी उस ऋत का फल है और ऋत से ही गौएं (सूर्य-किरणें) ऋत में (शाश्र्वत नियम में) प्रविष्ट होती हैं। सार यह कि वेद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ, और उसकी गति में मूल तत्व के रूप में ऋत विद्यमान है। विस्तार के कारण बहुत रूपों वाले पृथ्वी और अनतरिक्ष को पृथ्वी बताकर उन्हें गम्भीर कहा गया है क्योंकि उनमें विद्यमान प्रत्येक तत्व का अभी तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो सका है। ये दोनों ही परम गौएं कही जाती हैं जो ऋत अर्थात् शाश्र्वत तत्व के लिए (उसके नियमानुसार) दोहन करती हैं अर्थात्  असंख्य पदार्थों को उत्पन्न करती रहती हैं (प्रकट करती हैं)।

                        एक मन्त्र में अग्नि (परमेश्वर) को सम्बोधित करके कहा गया है कि अविनाशिनी, अखण्ड रूप में बहने वाली, मधुर जलों वाली दिव्य नदियाँ (अर्थात् सर्वत्र व्याप्त जलकण) ऋत या शाश्र्वत नियम से प्रेरित होकर सदैव बहने के लिए धारण की गई है, निरन्तर गति करती है।

            जिन नदियों का वर्णन ऊपर किया गया है, ये सामान्य जल की नदियाँ नहीं हैं। ये अमर हैं और अबाधित हैं। इससे संकेत मिलता है कि ये सृष्टि के आरम्भ से ब्रह्माण्ड में व्याप्त सूक्ष्म जलकणों (आपः) की धारायें हैं जो ऋत (शाश्र्वत नियम, निरन्तर गति) से प्रेरित हैं। यह गति ऐसी है जैसी युद्ध के लिए सदैव तैयार घोड़े की होती है, अर्थात् निरन्तर गति है। ऋत निरन्तर गति का ही नाम है।

            सूर्यरूपी पौरूषयुक्त बलिष्ठ अग्नि वृषभ अर्थात् वर्षा के रूप में कामनाओं का वर्षक है। वह भी ऋत से अर्थात् निरन्तर गतिरूपी शाश्र्वत नियम से लिपटा हुआ अर्थात् युक्त है। वह स्पन्दित न होता हुआ अथवा स्तिमित गति से विचरण करता है। सबकी आयु को धारण करने वाला वह वर्षक पृश्नि अन्तरिक्षरूपी ऊध का दोहन करता है और शुक्र अर्थात् बलिष्ठ जल की वृष्टि करता है।

            इससे अगले ही मन्त्र में ऋत (नियमित गति) के साथ अंगिरसों (वायु सहित विद्युतों), गौओं (किरणों), ऊषा, सूर्य और अग्नि का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि इस ऋत के द्वारा ही अंगिरस विद्युत् मेघ का भेदन करते हुए उसे (खाली करके) दूर फेंक देते हैं और (गतिशील) किरणों के साथ संयुक्त होकर प्रशंसित होते हैं, वे नेतृत्वगुणयुक्त (ऋतपालक) उषा के पास रहते हैं और जब (उषा का तीव्र प्रकाश रूप) अग्नि प्रकट होता है तो सूर्य दिखाई देता है। अग्नि, सूर्य, उषा-तीनों अग्निरूप होने के कारण ऋत (शाश्र्वत गतिमय नियम) से ही सम्बद्ध हैं। सब प्राणियों के सुख के लिए उनकी यह क्रिया-प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। मन्त्र से मेघस्थ विद्युत, वायु और अग्नि का गतियुक्त स्थायी सम्बन्ध स्पष्ट होता है।

            बहुत काव्यात्मक शब्दों में एक मन्त्र मं प्रश्न किया गया है। कि पहले वाला (पुराना) ऋत कहाँ गया और नया कौन उसे धारणा करता है? द्युलोक और पृथ्वी-ये दोनों ही मेरे लिए उस तत्व को जानती हैं (और बताती हैं)।

            मरूत् (विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार से चलने वाली वायएँ) ऋतसाप हैं अर्थात् ऋत से संयुक्त हैं। वे ऋत अर्थात् शाश्र्वत नियम के अनुसार चलती हैं। इस ऋत के द्वारा ही वे सत्य को प्राप्त होती हैं। मेघ, वर्षा, विद्युत, आदि के माध्यम से उनका सत्य स्वरूप प्रकट होता है, उनके वास्तविक कार्य उनके दीर्घकालिक हित से प्रकट होते हैं। कारण यह है कि वे शुचिज मा हैं, उनका जन्म ही पवित्रता से पवित्रता के लिए हुआ है। वे पवित्र हैं। अथवा वे ज्वलनशील तत्वों से युक्त हैं।

            उषाओं को ऋत (शाश्र्वत नियम) से युक्त घोड़ों अर्थात् किरणों के द्वारा सब लोकों पर फैल जाने वाली कहा गया है। किरणों की यह गति ही ऋत है-यह ऐसा ऋत है जिससे विज्ञान ज्योतिःपिण्डों की दूरी मापता है। विज्ञान के शाश्र्वत नियम के अनुसार सदा से ये उषायें एक सी हैं; अतः इसके लिए यह कहना असम्भव है कि इनमें से कौन सी पुरानी है और वह कहां है? वे सब एक जैसी चमक वाली चलती हैं और जीर्ण न होने वाली वे नये पुराने के भेद से नहीं जानी जातीं। विज्ञान भी इन्हीं शाश्र्वत रूपों और नियमों की खोज करता है। उषाओं के पीछे एक ही तत्व की समानता है जिसे ऋत कहा जाता है। उसके प्रकाश में, गति में, काल में, स्वरूप में वही एक समान तत्व विद्यमान रहता है। उसे ही सत्य कहा जाता है।

            इस प्रसंग में उषा का ‘ऋतावरी’ विशेषण ध्यान देने योग्य है जिससे स्पष्ट होता है कि उषा ऋत अथवा शाश्र्वत नियम अथावा सत्य को धारण करने वाली है और उससे ही प्रकाशित होने वाली या उसको अपने व्यवहार से प्रकाशित करने वाली है। यह ऋत अथवा सत्य उषा के मूल रूप सूर्य से ही अनुप्रेरित है। अनेक वेदमन्त्रों में उषा/उषाओं के प्रसंग में ‘ऋतावरी’ विशेषण का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार विद्युत और अन्तरिक्ष ऋतावरी है, द्युलोक और पृथ्वी भी ऋतावरी है क्योंकि सबके पीछे ऋत अथवा सत्य-नियम कार्य कर रहा है। ये दोनों बलिष्ठ हैं, देवों-विभिन्न दानादिगुणयुक्त पदार्थों को उत्पन्न करने वाली (और इस प्रकार) ये यज्ञ को आगे ले जाने वाली बढ़ाने वाली हैं।

            इसी प्रकार सूर्य और पवन अथवा रस और ज्योतिरूप अश्र्वितनौ भी ऋत अथवा शाश्र्वत नियम से बढ़ने वाले बताये गये हैं। मित्रावरूणौ अर्थात् सूर्य और वायु भी सत्यनियम से बढ़ने वाले हैं।

            सूर्य के विभिन्न रूप तथा वरूण (व्यापक प्रकाश वाला और अन्धकाररोधक), मित्र (मित्र के समान हितकारी और सुखकरग) तथा अर्यमा (शत्रुओं को नियन्त्रित करने वाला) ऋत से युक्त हैं, अपनी क्रियाओं और गति में ऋत का स्पर्श करने वाले, गतिशील जनों को आगे ले जाने वाले, शोभनदानी और शोभन नेतृत्व करने वाले हैं।

           इस प्रकार वेद में ऋत और सत्य देवों अथवा दानादिगुणयुक्त प्राकृतिक पदार्थों के मूल में बताये गये हैं। उनके पीछे शाश्र्वत नियम और सतत गति की प्रच्छन्न प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है

पाद -टिप्पणी

१. त्रतं च सत्यं चाभीद्वात्तपसोऽध्यजायत। रान्न्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः।। ऋ.१०.१९०.१

२. नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम्। ऋ. १०.१२९.१

३. तभिद्गर्भं प्रथमं दघ्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे। ऋ. १०.६३.६

४. सत्यं बृहद् ऋतमुग्रं……………………पृथिवीं धारयन्ति।

५. सत्येनोत्तभिता भूमिः सत्येनोत्तभिता द्यौः। ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो अधिष्ठितः।। ऋ. १०.८५.१

६. ऋतभित्युदकनाम। प्रत्यृतं भवति। नि. २.२५

७. Every particle is accompanied by another particle called neutrino. It is high energy particle. Its speed is eqyal to hight speed. ¼ Atomic energy-Macmillon and Co. Ltd., London½

८. ऋतमर्षन्ति सिन्धवः सत्यं तातान सूर्यः। ऋ. १.१०५.१२

९. यासां राजा वरूषो याति सत्यानृते अवपश्यन् जनानाम्। ऋ. ९.४९.३

१०. दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापतिः। अश्रद्धामनुतेऽदधाच्छद्वां सत्ये प्रजापतिः।। वा.सं. १९.७७

११. हिरण्यमवेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।। वा.सं. ४०.१७

१२. अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः। ऋ. १.१.५

१३. अप्येते उत्तरे ज्योतिषी अग्नी उच्येते। निरूक्त ७.१६

१४. अभी ये देवाः स्थन त्रिष्वा रोचने दिवः।

   कद्व ऋतं कदनृतं क्व प्रत्ना व आहुतिर्वित्तं मे अस्य रोदसी ।। ऋ. १.१०५.५

१५. कद्व ऋतस्य धर्णसि कद्वरूणस्य चक्षणम्। कदर्यम्णो महस्पथाति महस्पथाति कामेम दूढ्यः ।। ऋ. १.१०५.६

१६. ब्रह्म वा ऋतं ब्रह्म हि मित्रो ब्रह्मो ह्यृतं वरूण एवायुः संवत्सरो हि

   वरूणः संवत्सर आयुः। श. ब्रा. ४.१.४.१०

१७. ऋ. १.११३.१२

१८. ऋतस्य हि शुरूधः सन्ति पूर्वी। ऋ. ४.२३.८

१९. ऋतस्य दृव्व्हा धरूणानि सन्ति पुरूणि चन्द्रा वपुषे वपूंषि।

      ऋतेन दीर्घ मिषणन्त पृक्ष ऋतेन गाव ऋतमा विवेशुः ।। ऋ. ४.२३.९

२०. ऋताय पृथ्वी बहुले गभीरे ऋताय धेनू परमे दुहाते।। ऋ. ४.२३.१०

२१. ऋतेन देवीरमृता अमृक्ता अर्णोभिरापो मधुमद्भिरग्ने।

       बजी न सगेंषु प्रस्तुभानः प्र सदमित्स्त्रवितवे दधन्युः।। ऋ. ४.३.१२

२२. ऋतावरि – ऋ. २.१.१, ऋतावरी – ऋ. ६.६१.९, ऋ. ३.५४.४, ३.६१.६, ऋ. ४.५२.२, ऋतावरीम्   – ऋ. ५.८०.१, ऋतावरीः – ३.५६.५

२३. ऋ. १.१६०.१

२४. ऋ. ४.५६.२ देवी देवेभिर्यजते यजत्रैरमिनती तस्थतुरूक्षमाणे।

ऋतावरी अद्रुहा देवपुत्रे यज्ञस्य नेत्री शुचयद्भिरकैः।।

२५. ऋ. १.४७.१ (ऋतावृधा) तुं अश्र्विनौ यद्व्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषान्यः।

(रिरूक्त १२१)

२६. ऋ. १.२.८ (ऋतावधौ)

२७. ते हि सत्या ऋतस्पृश ऋतावानो जने जने।

सुनीथासः सुदानवोंऽहोश्चिदुरूचक्रयः ।। ऋ. ५.३७.४

वेद और भौतिक – विज्ञान -डॉ. महावीर मीमांसक

वेद का विषय बहुत लम्बे समय से विवादास्पद रहा है। वेद के प्राचीन प्रामाणिक विद्वान् ऋषि आचार्य यास्क ने अपने वेदार्थ-पद्धति के पुरोधा ग्रन्थ निरूक्त के वेदार्थ के ज्ञाताओं की तीन पीढ़ियों का उल्लेख किया है। पहली पीढ़ी वेदार्थ ज्ञान की साक्षात् द्रष्टा थी जिसे वेदार्थ ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी सन्देह नही था। (साक्षात्कृत धर्माण, सृषमो बभुवः।) दूसरी पीढ़ी उन वैदिक विद्वानों की हुई जिन्हें वेदार्थ ज्ञान साक्षात् नहीं था, उन्होंने अपने से पुरानी ऋषियों की उस पीढ़ी से जो साक्षात्कृत धर्मार्थी, उपदेश के द्वारा वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस दूसरी पीढ़ी को भी वेदार्थ ज्ञान सर्वथा शुद्ध और अपने वास्तविक रूप में ही मिला (ते पुनरवरेभ्योऽसाक्षात्कृत धर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः।) और तीसरी पीढ़ी उन लोगों की आयी जो उपदेश के द्वारा भी वेदार्थ ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ थी। उन्होंने वेद वेदाग आदि ग्रन्थों का सम्मान किया और उन ग्रन्थों की सहायता से वेदार्थ ज्ञान प्राप्त किया। इस तीसरी पीढ़ी को वेदार्थ ज्ञान साक्षात् रूप में नहीं हुआ अपितु परोक्ष रूप में प्राप्त हुआ। अतः इनका ज्ञान परतः प्रामाण्य ग्रन्थों पर आधारित था, वेद का स्वतः प्रामाण्य ज्ञान तो वेदार्थ को साक्षात् वेद की अन्तःसाक्षी के आधार पर समझने वाले लोगों को था। फिर इन तीनों पीढ़ियों में समय का परस्पर अन्तराल बहुत था। और इस तीसरी पीढ़ी के बाद तो उत्तरवर्ती लोगों को वेद-वेदाग आदि ग्रन्थ जो वेदार्थ के लिये परतः प्रामाण्य के ग्रन्थ हैं, और भी अधिक दुरूह और समझ से दूर हो गये। यास्क के समय तक आते-आते यह परिणाम हुआ कि वेदार्थ अधिकतर ओझल हो गया। विद्वान् वेद का मनमाना अर्थ करने लगे। एक-एक मन्त्र का अर्थ करने की परम्परा १०, ११ प्रकार की चल पड़ी, यह स्वयं यास्क ने लिखा है, ‘‘इति याज्ञिकाः, इति पौराणिंका, इत्यैतिहासिकाः, इति वैयाकरणाः, इत्यन्ये, इन्यपरे, इत्येके”, इन शब्दों में यास्क ने अपने ग्रन्थ निरूक्त में एक मन्त्र की व्याख्या अनेक प्रकार से करनेका ब्यौरा दिया है। परिणामस्वरूप वेदार्थ इतना अनिश्चित, विवादास्पद बन गया कि एक सम्प्रदाय वैदिक विद्वानों की इसी कमी का दुरूपयोग और लाभ उठाकर कहने लगा कि वेद जब इतना अस्पष्ट विवादस्पद और अज्ञात है तो वेद के मन्त्र अनर्थक हैं, उसका कोई अर्थ नहीं है (‘‘अनर्थकाः मन्त्रा इति कौत्सः”) यह वेदार्थ के अत्यन्त अन्धकार की स्थिति भी जो यास्क के समय तक थी।

            यास्क ने वेदार्थ उद्धार का बीड़ा उठाया। सर्वप्रथम यास्क आचार्य ने उन वैदिक शब्दों और वैदिक धातुओं का संकलन अपने निघण्टु में किया जो वेदार्थ के लिये उस समय दुरूह तथा अधिक आवश्यक थे। फिर यास्क ने निरूक्त की रचना की। जिसमें पहले वेदार्थ पद्धति का प्रतिष्ठापन किया। वेद को अनर्थक मानने वाले सम्प्रदाय का उन्हीं की युक्तियों से खण्डन किया, उन्हीं का जूता उन्हीं के सिर पर मारा। यास्क ने उद्घोष दिया कि सब नाम आख्यातज हैं और वेदार्थ करने के लियें वे यौगिक होते हुवे भी किसी एक निश्चितार्थ में रूढ़ हैं, उदाहरणार्थ परिव्राजक, भूमिज इत्यादि जिनको पूर्व पक्षी भी यौगिक मानते हुवे भी योगरूढ़ मानता है, जिससे शब्दों की यौगिक व्युत्पत्ति करने के बावजूद भी मनमाना काल्पनिक अर्थ न किया जा सके। यह उन लोगों के लिये करारा जवाब था जो यौगिक पद्धति पर आक्षेप करके कहते थे कि तृण शब्द का अर्थ केवल तिनका न करके वे सब अर्थ तृण शब्द के होने चाहिये जो भी कुरेदने का काम करते हैं। खैर हमारा यहां यह विषय नहीं है, इस पर हम अन्यत्र विस्तार से लिख चुके हैं (द्र. ले. द्वारा वेदभाष्य पद्धति और स्वामी दयानन्द एक सर्वेक्षण।)

            यास्क सर्वप्रथम वैदिक विद्धान् थे जिनका लिखित ग्रन्थ न केवल यह कहता है कि वेद में भैतिक विज्ञान है, अपितु वेद की व्याख्या भी इस आधार पर करता है। यास्क ने अपने निरूक्त के प्रारम्भ में ही देवता शब्द की परिभाषा दी जो देवता वेद के प्रत्येक सूक्त  या अध्याय के प्रारम्भ में दिये हुवे होते हैं। ‘‘यास्क ऋषि र्यस्यां देवतायामार्थपत्यमिच्छत् स्तुतिं प्रगुड्.क्ते तद्दैवतः स मन्त्रो भवति” इस यास्कीय परिभाषा के अनुसार देवता उस सूक्त का वर्णनीय विषय होता है जो शीर्षक के रूप् में प्रत्येक सूक्त या अध्याय के प्रारम्भ में वेद में दिया हुआ होता है ताकि पाठक को निश्चय रहे कि अमुक्त मन्त्रों का वर्णनीय विषय अमुक है। यास्क ने समूचे वेदों के अध्याय के आधार पर यह निर्णय दिया कि सभी वैदिक मन्त्रों के देवता अर्थात् वर्णनीय विषय केवल तीन ही हैं, वे या तो पृथ्वी स्थानीय भौतिक विज्ञान अग्नि है, या अन्तरिक्ष स्थानीय भौतिक विज्ञान इन्द्र मेघ या विद्युत आदि हैं, या द्युस्थानीय भौतिक विज्ञान सूर्य है। (र्द्रतिस्त्र एव देवताः इत्यादि) अग्निः पृथ्वीस्थानीय इन्द्रन्तरिक्षास्थानीयः, सूर्यो द्युस्थानीयः। समग्र विश्व मण्डल की सृष्टि (समष्टि) इन्हीं तीन भौतिक भागों में विभक्त है, और वेद इसी समृद्धि के विज्ञान की व्याख्या है जिनमें आत्मा और परमात्मा चेतन तत्व भी समाहित हैं, अतः वेद के मन्त्रों के ये तीन ही विषय या देवता है। निरूक्तकार यास्क ने इस स्थापना के बाद वेद के सभी देवताओं का इन्हीं तीनों भागों में बांट कर इनकी भौतिक वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत की। यहां इस दिशा में रिरूक्त के दो उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ।

            वेद में ‘असुर’ शब्द सूर्य के विशेषण के रूप में प्रयक्त किया गया है यथा असुरत्व मे कम जिसका शब्दिक अर्थ हुआ कि एकमात्र सूर्य ही असुर हैं। अब यहां ‘असुर’ शब्द का अर्थ बड़ा ही आपत्तिजनक और अनर्थक है जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और आधुनिक भाष्यकारों ने किया भी है, जिससे सूर्य असुर कहते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि सूर्य वेद में असुर इसलिये कहा गया क्योंकि वह संसार में प्राणदायक शक्ति है तो वह केवल मात्र सूर्य है। यह कितना महत्वपूर्ण भौतिक विज्ञान का रहस्य वेद में छुपा हुवा है। आज संसार के वैज्ञानिक कह रहे हैं कि संसार में जीवन (प्राणी) तभी तक है जब तक सूर्य है, यदि सूर्य नष्ट होता है तो विश्व में जीवन प्राणी भी समाप्त हो जायेंगे। यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य वेद में बड़े ही सहज भाव से कह दिया गया है। सूर्य से ही सब प्राणी वनस्पति आदि जीवित हैं।

            दूसरा उदाहरण ‘वैश्र्वानर’ शब्द का है। वैदिक शब्द ‘वैश्र्वानर’ का क्या अर्थ है? यह यास्क के समय बड़ा विवादास्पद बन गया था। अतः यास्क ने निरूक्त में प्रश्न उठाया ‘अथ को वैश्र्वानर?’ इसका समाधान भी यास्क ने इस शब्द की व्युत्पत्ति से किया है। वैश्र्वानरः की व्युत्पत्ति है ‘‘विश्र्वानराज्जायते इति वैश्र्वानरः’’ अर्थात् विश्र्वानर से पैदा होने वाले को वैश्र्वानरः कहते हैं। विश्र्वानरः का अर्थ है सूर्य। सूर्य से साक्षात् क्या वस्तु उत्पन्न होती है इसका परीक्षण यास्क ने वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा किया। यास्क ने कहा कि एक आतिशी शीशे का एक भाग सूर्य की ओर रखो और उसके दूसरी तरफ से सूर्य की किरणों को गुजारने दो। जिधर सूर्य की किरणें गुजर रही हैं उधर किरणों के समक्ष सूखा गोबर (शुष्क गोमय) ऐसे रखो कि सूर्य की किरणें उस गोबर पर पड़े। थोड़ी देर बाद उस गोबर में धुआं क उठेगा और आग पैदा हो जायेंगी। यह अग्नि ही वैश्र्वानर है क्योंकि यह विश्र्वानर अर्थात् सूर्य से पैदा होती है। इस प्रकार यास्क ने यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य स्थिर किया कि समूची पार्थिव अग्नि वैश्र्वानर है क्योंकि यह सूर्य से पैदा होती है। यही आज की सौर ऊर्जा (Solar Energy) है जिसे आज के वैज्ञानिक अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। यही तथ्य यजुर्वेद के प्रथम मन्त्र में ही कह दिया गया जिसका देवता सविता है ‘‘इषे त्वोज्र्जे त्वा’’ अर्थात् हे सूर्य हम तेरा उपयोग ऊर्जा शक्ति की प्राप्ति के लिये करें।

            यह भौतिक वैज्ञानिक तथ्य ब्राह्मण ग्रन्थ और पूर्व मीमांसा के याज्ञिक दर्शन में भी भरे पड़े हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में कहा गया है ‘‘अग्नीषोमी यमिन्द्रं जगत’’ यह संसार अग्नि और सोम दो भौतिक शक्तियों से निर्मित है। यही अग्नि और सोम आज की ऋणात्मक और धनात्मक, सरकार और नकारात्मक (Positive और Negative) शक्तियाँ हैं। यही वे दो धुरी हैं जिन पर आज का कम्प्यूटर विज्ञान केन्द्रित है जिसका आधार (Binary System) (द्विधुरीय पद्धति) है। पूर्व मीमांसा का समग्र यज्ञ विज्ञान इसी दर्शन पर आधारित है। उदाहरणार्थ वर्षा की आवश्यकता होने पर वर्षा करवाने के लिये वर्षेष्टि याग जो इसी वैज्ञानिक ज्ञान पर आधारित है कि वर्षा करवाने वाली भौतिक शक्तियों को कैसे वृष्टि-अनुकूल वातावरण पैदा करने के लिये यज्ञ द्वारा आवर्जित किया जाये।

            भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण अतिवृष्टि और अनावृष्टि की समस्या जो कृषि को एकदम सीधे विनाशकारी रूप से प्रभावित करती है, का समाधान ढूंढने के लिये बड़ी वैज्ञानिक खोजें प्राचीनकाल में हुई थीं। इन्हीं समस्याओं का समाधान, वृष्टियाग है जो आज भी देश की आर्थिक दशा जिसका आधार कृषि है को सुधारने के लिये अत्यन्त उपयोगी और प्रासगिक है। वेद में इसीलिये एक पूरा सूक्त कृषि सूक्त है। प्राचीनकाल में कृषि विज्ञान पर भारत से बढ़ कर वैज्ञानिक खोज और किसी देश में नहीं हुई। कौटिल्यार्थ शास्त्र इसी के विस्तार से भरा पड़ा है। आज तो इसके साथ पर्यावरण की समस्या भी जुड़ गई है जो कृषि और छोटे वृक्षों को नष्ट करने तथा यज्ञ-याग आदि के अभाव के कारण पैदा हुई हैं।

            इसी प्रकार अन्य याग हैं जो भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिये की गई कामनाओं की पूर्ति के निमित्त किये जाते हैं। इसीलिये पूर्व मीमांसा में महर्षि जैमिनि ने यज्ञ की परिभाषा दी है ‘‘देवतोद्देश्येन द्रव्यत्यणः याग’’।

            वैदिक विज्ञान की यह धारा वैदिक दर्शनों में विशेष विषय के रूप में निष्पन्दित हुई जिसमें न्याय और वैशेषिक दर्शन में भौतिक विज्ञान के (Physics) आधारभूत पांच महाभूत, सांख्य दर्शन में प्राणिक विज्ञान (Biologycal Science) के प्रमुख तत्व बुद्धि, मन, चित्त, अहकार, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा तन्मात्रायें आदि और वेदान्त दर्शन में आध्यात्मिक (Metaphysics) चेतना तत्व का विशेष गम्भीर और व्यापक विश्लेषण किया गया। पद्धति और प्रक्रिया का विशद् प्रतिपादन किया गया। इनमें एक-एक दर्शन के प्रत्येक भौतिक वैज्ञानिक तत्व पर गम्भीर और स्वतन्त्र खोज और चिन्तन करने की आवश्यकता है।

            यास्क के बाद मध्यवर्ती काल में यह वैदिक विज्ञान लुप्त हो गया और आधुनिक काल में ऋषि दयानन्द ने इसे फिर से मूल रूप में समझा। उन्होंने घोषणा कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है’’ और इसमें समूचा भौतिक विज्ञान मौजूद है। उन्होंने सभी वेदों का भाष्य करने का बीड़ा उठाया और भूमिका के रूप में ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पुस्तक लिखी। इसमें उन्होंने न केवल यह घोषणा की अपितु स्थान-स्थान पर भौतिक विज्ञान के नमूने वेदमन्त्रों की व्याख्या करके प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक विज्ञान प्रथम कोटि का विज्ञान है और आत्मा और परमात्मा का भी विज्ञान है। भौतिक विज्ञान बिना आध्यात्मिक विज्ञान के अधूरा पगु और अप्रासगिक है। आधुनिक विज्ञान में यह उन्होंने नया अध्याय जोड़ा जो कोरे और नंगे भौतिक विज्ञान की पूर्ति की पराकाष्ठा ही नहीं अपितु विज्ञान जन्य अनेक कमियों और समस्याओं का एकमात्र समाधान भी है। वायुयान विज्ञान, तार विज्ञान, विद्युत् विज्ञान आदि अनेक भौतिक विज्ञानों के नमूने ऋषि दयानन्द ने वेदमऩ्त्रों की व्याख्या करके उस समय प्रस्तुत किये जब इन विज्ञानों का आधुनिक आविष्कार भी नहीं हुआ था। वेदों में भौतिक विज्ञान का उद्घोष ऋषि दयानन्द का आधुनिक युग का अद्वितीय नारा था।

            वेदों में विज्ञान के कुछ नमूने हम पेश करते हैं। ऋग्वेद का सर्वप्रथम प्रारम्भिक मन्त्र है ‘‘अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्’’।। इसी मन्त्र में ईळे क्रियावाची शब्द है। इसका अर्थ अन्य सभी वेद भाष्यकारों ने अशुद्ध किया है। स्वामी दयानन्द ने इसके वास्तविक अर्थ को निरूक्त के आधार पर किया है।

            निघण्टु में वेद के पा्रणाणिक भाष्य पद्धति के व्याख्याता यास्क ने कहा है, ‘‘ईळिरध्येषणा कर्मा”, अर्थात् ईळ धातु अध्येषणार्थक है। अध्येषणा का अर्थ यास्क ने किया है ‘‘अध्येषणा सत्कार पूर्व को व्यापारः”, अर्थात् अध्येषणा का अर्थ है किसी वस्तु के गुणों और क्रियाओं को ठीक-ठीक समझ कर उसके उन गुणों के उपयोगार्थ उस वस्तु को उसी प्रकार के काम में लाना। यही अर्थ स्वामी दयानन्द ने भी किया है। यहां इस मन्त्र का देवता-वर्णनीय विषय-अग्नि है। अतः इसका अर्थ हुआ कि मैं (मनुष्य) अग्नि (भौतिक पदार्थ) को उसके गुण और क्रिया समझ कर उस का उसी प्रकार का उपयोग करूं। यहां अग्नि के कुछ गुण दिये हैं। यहां अग्नि को ‘देवम्’ कहा गया है, देव का अर्थ है प्रकाश और गति। (दिवु धातु द्युति और गति अर्थ वाली) स्पष्ट है कि अग्नि के दो गुण प्रकाश और गति का भौतिक विज्ञान में अत्यधिक महत्व है। अग्नि के लिये एक और शब्द ‘होतारम्’ का यहां प्रयोग है जिसका अर्थ है ध्वनि करने वाला (ह्नेञ् शब्दे) तथा वस्तुओं को खाने या नष्ट करने वाला (हू दानांदनयोः धातु) । अग्नि का विस्फोटक रूप और विध्वंसकारी ध्वनि सर्वविदित ही है। तथा अग्नि अपने में डाली गयी प्रत्येक वस्तु को खा डालती, जला डालती या नष्ट कर डालती है। इसी प्रथम मण्डल के प्रथम सूक्त का पांचवा मन्त्र हैः- अग्निर्होता कविक्रतु सत्यश्र्वित्रश्रवस्तमः। देवो देवे भिरागमत्।। यहां भौतिक अग्नि को दो औरू विशेषणों का प्रयोग है। एक है कविक्रतुः जिसका अर्थ पारदर्शक कर्म वाला (कविः, क्रान्तदर्शी भक्ति यास्क) (क्रतु कर्मपर्याय)। अग्नि पारदर्शक होने से, आधुनिक टेलिविजन, एक्सरे आदि के काम में लाया जाता है। दूसरा गुण है ‘चित्रश्रवस्तमः’, अग्नि अद्भुत तरीके  से ध्वनि का श्रवण करवाता है, यह गुण टेलिफोन आदि के कार्यों को सम्भव और सयोग आविष्कार का कारण बना है। हमने अग्नि आदि अनेक भौतिक पदार्थों के गुणों को भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक (Glorious Vision Of The Vedas)में वर्णित किया है, जो हौलेण्ड से छपी है, पाठक विस्तार से वहीं से देख सकते हैं।

            वेद में सविता और सूर्य इन दो भिन्न-भिन्न शब्दों से सूर्य का वर्णन मिलता है, यह क्यों? सविता शब्द की व्युत्पत्ति सर्जनार्थक षुञ् धातु से है अतः सविता का अर्थ है सर्जन करने वाला, सविता सूर्य का वह रूप है जो सर्जन करने वाला है अतः सविता के वर्णन में सूर्य के सभी सर्जनात्मक रूपों का वर्णन है। और सूर्य शब्द की व्युत्पत्ति है गत्यर्थक सृ धातु से जिसका अर्थ है गति देने वाला। अतः सूर्य के वर्णन में उन रूपों का समावेश है जो सूर्य के गतिप्रद रूप हैं। इसी प्रकार किरणों के १५ नाम निघण्टु में दिये हैं जो किरणों के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के निदर्शक हैं। आधुनिक विज्ञान को अभी तक सात प्रकार की किरणें ही विदित हैं वेद की शेष किरणों पर शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार यास्क ने वैदिक निघुण्टु में पानी के एक सौ नाम दिये हैं जो पानी के भिन्न-भिन्न स्वरूपों के वाचक हैं। अभी तक पानी के रूप, पानी, बादल, भाप, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन आदि ही ज्ञात हैं, शेष पानी के कौन से रूप हैं? शोध करके पता लगाने की आवश्यकता है। वैदिक देवता मरूत और वायु आदि में भी मौलिक अन्तर हैं, ये एक ही भौतिक पदार्थ के पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक भौतिक विज्ञान का बहुत व्यापक विश्नल क्षेय है जो खोज चाहता है। हम यहां केवल एक ही और वेद में भौतिक विज्ञान का आधुनिकतम उदाहरण देकर अपनी लेखनी को विराम देंगे।

           आइन्सटाइन आधुनिक युग के महान्-वैज्ञानिक माने जाते हैं। उन्होंने देश और काल (Time & Space) के विषय में भौतिक विज्ञान के अद्भुत सिद्धान्तों का आविष्कार करके सृष्टि-विज्ञान की नयी व्याख्या प्रस्तुत की। आइन्सटाइन को अभी-अभी मात दी है स्टीफन्स हौकिग ने। स्टीफन हौकिग की आधुनिकतम वैज्ञानिक खोज यह है कि प्रलय काल में भी समय की सत्ता रहती है। यह तथ्य उन्होंने अपने आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर नये फामूर्ले पेश करके सिद्ध किया है। प्रलय-अवस्था के काल की गण्ना करने के फामूर्ले भी उन्होंने दिये हैं। इस अपनी वैज्ञानिक नयी खोज का बड़ा रोचक वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘‘Story of Creation: From Big-Bang to Big Crunch” में बड़े विस्तार से किया है।

            यह वैज्ञानिक तथ्य वेद में पहले से ही वर्णित हैं। यह हमने खोजा है। ऋग्वेद के चार सूक्त अर्थात् मं. १०, सू. १२९, मं. १०, सूक्त १५४, मं. १०, सूक्म १९१, ये चार सूक्त भाववृत्तम् नाम से प्रसिद्ध हैं क्योंकि इन चारों सूक्तों में सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय अवस्था का वर्णन है, अतः ये चारों सूक्त ऋग्वेद के सृष्टि विज्ञान के सूक्त कहे जाते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि सृष्टि विज्ञान के विषय पर स्टीफन्स हौकिग की पुस्तक (Story of Creation) का नाम भी यही ‘भाववृत्तम्’बनता है। लगता है (Story of Creation) ‘भाववृत्तम्’ का ही अनुवाद हो यह अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है। अस्तु ऋग्वेद के प्रथम भाववृत्तम् सूक्त अर्थात् १०वें मण्डल का १२९वां सूक्त जो नासदीय सूक्त से भी जाना जाता है, इन शब्दों से प्रारम्भ होता हैः- नासदासीत्रो सदासीत्तदानीम्। मन्त्र के इस प्रथम चरण में सृष्टि के पहले प्रलय अवस्था का वर्णन है जिसमें कहा गया है कि प्रलय अवस्था में सत् और असत् देनों ही नहीं थे। यहां यह उल्लेखनीय है कि ‘सत्’ और असत् में दोनों ही वैदिक शब्द बड़े वैज्ञानिक तकनीकी अर्थ में प्रयुक्त हैं जिनकी व्याख्या का यहां अवकाश नहीं है। यहां हम यह बतलाना चाह रहे हैं कि उस प्रयावस्था में जिस अवस्था का वर्णन यहां ऋग्वेद में ‘सत्’ और ‘असत्’ के अभाव के रूप में किया है, एक पदार्थ का भाव स्पष्ट माना है और वह है काल, जिसे ‘तदानीम’ शब्द से विज्ञात घोषित किया है। ‘तदानीम्’ अर्थात् उस समय-जब ‘सत्’ और ‘असत’ भी नहीं थे, किन्तु समय (काल) था। स्टीफन्स हौकिग और आइन्स्टाइन की काल सम्बन्धी प्रमुख खोज को वेद ने एक ही सहज और सरल शब्द ‘तदानीम्’ से धाराशायी कर दिया। वैदिक विद्धानों का अभी तक समूचे भाववृत्त सूक्त की वैज्ञानिक व्याख्या तथा इस मन्त्र की इस व्याख्या पर ध्यान नहीं गया है। प्रलय अवस्था में काल की सत्ता और प्रलय अवस्था के काल की गणना जो एक अत्यन्त कठिन वैज्ञानिक चुनौती है, भारतीय दर्शनों में बड़े विस्तार से दी है। प्रलय अवस्था में सूर्य के अभाव में काल गणना का मापक दण्ड या साधन यन्त्र क्या हो यह बड़ी वैज्ञानिक समस्या है। किन्तु प्राचीन भारतीय ऋषियों ने इस गुत्थी को बड़े वैज्ञानिक कार्ल सागम ने इस तथ्य की पुष्टि को ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में २६ जनवरी १९९७ को छपे अपने साक्षात्कार में बड़े प्रशंसनीय शब्दों में स्वीकारा है। यहां यह सब यहां लिखना सम्भव नहीं है। दो वर्ष पूर्व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में हमने इस विषय पर शोधलेख पढ़ा था, जिसकी चर्चा स्थानीय समाचार पत्रों में खूब रही थी।

            इस खोजपूर्ण तथ्य के उद्घाटन के साथ ही हम अपने लेख समाप्त करने से पहले २१वीं सदी और वैदिक विज्ञान की याद दिलाना चाहेंगे। २१वीं सदी पश्चिम के विज्ञान की आंधी और तूफान लेकर विश्व में आयेगी। वैज्ञानिक आविष्कार प्रकृति के रहस्यों को खोल कर रख देंगे। भौतिक विज्ञान की उपलब्धियां मानव को इतना साधन सम्पन्न बना देंगे कि जीवन के तौर तरीके सर्वथा बदल जायेंगे। समाज और राष्ट्र का एक नया भौतिक रूप उभर कर सामने आयेगा। आधुनिक Information Technology, रोबोट, शरीर विज्ञान की नयी खोजें, आने वाले समय का पूर्वाभास करवा रही हैं। ऐसे समय में आर्यसमाज की ही नहीं अपितु समूचे भारत राष्ट्र की परिचायक सत्ता का प्रश्न होगा। वेद और प्राचीन भारतीय भारतीय शास्त्रों का ज्ञान-विज्ञान पश्र्विम की इस आन्धी के साथ टक्कर लेने की पूरी क्षमता रखते हैं, देश की गरिमा को वैदिक ज्ञान-विज्ञान ही सर्वोपरि स्थान पर रख पायेगा, यही देश और समाज की सबसे महत्वपूर्ण धरोहर होगी जिस पर राष्ट्र गर्व करके पश्र्विम के भौतिक अन्धकार में सूर्य के समान विश्व को प्रकाश दिखला सकता है। परोपकारिणी सभा जो स्वामी दयानन्द जी महाराज की एकमात्र उत्तराधिकारिणी सभा है, का विशेष रूप सेयह दायित्व बन जाता है कि ऐसेसमय में वैदिक ज्ञान विज्ञान की खोज करके मानव मात्र का प्रकाश स्तम्भ बने, जिससे दयानन्द और वेद की पताका सर्वोपरि लहराती रहेगी। आधुनिक भौतिक विज्ञान में अपने आप को भूलते हुवे मानव को ज्ञान-विज्ञान की चरम पराकाष्ठा आध्यात्मिक चेतना की याद दिलाती रहे। जो अखण्ड समाप्ति के दश्ज्र्ञन की समूची वैज्ञानिक व्याख्या है।

ए-३।११, पश्चिम विहार देहली-११००६३

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है-रामनाथ विद्यालंकार

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः गोतमः । देवता अग्निः । छन्दः आर्षी त्रिष्टुप्

अग्नाग्निश्चरति प्रविष्टुऽऋषीणां पुत्रोऽअभिशस्तिपावा। नः स्योनः सुयजा यजेह देवेभ्यो हुव्यसमप्रयुच्छन्त्स्वाहा ।।

-यजु० ५।४

(अग्नौ ) यज्ञाग्नि में (अग्निः ) परमात्माग्नि ( प्रविष्टः ) प्रविष्ट हुआ (चरति ) विचरता है। यज्ञाग्नि ( ऋषीणां पुत्रः ) ऋषियों का पुत्र है, ( अभिशस्तिपावा) निन्दाओं और शत्रुओं से बचानेवाला है। हे यजमान ! (न: स्योनः ) हमारे लिए सुखकारी (सः ) वह प्रसिद्ध तू ( सुयजा ) सुयज्ञ से (इह) यहाँ (सदं ) सदा ( देवेभ्यः ) वायु, जल आदि दिव्य पदार्थों को सुगन्धित करने के लिए अथवा विद्वानों के हितार्थ (अप्रयुच्छन्) बिना प्रमाद किये ( स्वाहा ) स्वाहापूर्वक अग्नि में (हव्यं यज) हव्य का दान किया कर।।

हे यजमान ! क्या यज्ञकुण्ड में ज्वालाओं से ऊर्ध्वगामिनी होती हुई यज्ञाग्नि के अन्दर एक और अग्नि मुस्कराता हुआ नहीं दीखता ? ध्यान से देख, इस भौतिक अग्नि के अन्दर एक अभौतिक दिव्य अग्नि तेजस्वी परमेश्वर बैठा हुआ है, वही इसे आभा, ज्योति और प्रकाश दे रहा है। यज्ञाग्नि की ज्वालाओं में उस दिव्य अग्नि के दर्शन कर लेगा, तो यज्ञ का दुहरा लाभ तुझे प्राप्त हो सकेगा। एक तो पर्यावरणशुद्धि का, दूसरा परमेश के दर्शन का। यज्ञकुण्ड में प्रदीप्त यज्ञाग्नि का परिचय भी जान ले। यह ऋषियों का पुत्र है,, महाव्रती ऋषि-मुनि प्रतिदिन सायं-प्रात: अरणिमन्थन द्वारा इसे यज्ञकुण्ड में उत्पन्न करते रहे हैं। यह निन्दाओं से और काम, क्रोध, रोग आदि शत्रुओं से बचानेवाला है। घृत एवं अन्य शुद्ध सुगन्धप्रद रोगहर हव्यों की आहुति से बढ़ती हुई निष्कलङ्क ज्योति को देख कर यजमान के मन में भी यह . भाव आता है कि मैं अपने जीवन को उज्वल और ज्योतिष्मान् करूँ, निन्दनीय कर्मों को छोड़कर सत्कर्म करूं, काम-क्रोध-अविद्या आदि आन्तरिक तथा दुर्गन्ध रोग आदि बाह्य शत्रुओं को नष्ट करूं, जिससे मेरी निन्दा न होकर सर्वत्र प्रशंसा हो। यज्ञ द्वारा यजमान जो जल, वायु, वृक्ष-वनस्पति आदि की शुद्धि करता है, उससे भी वह प्रशंसाभाजन बनता है।

मन्त्र प्रेरणा कर रहा है कि हे यजमान! तू शुभ यज्ञ द्वारा सदा बिना प्रमाद के सायं-प्रात: सुगन्धि, मिष्ट, पुष्टिप्रद, रोगहर हव्यों की स्वाहापूर्वक आहुति देकर वातावरण को शुद्ध करता रह। यह ‘स्वाहा’ शब्द हविर्द्रव्यों की अग्नि में आहुति के अतिरिक्त अन्य द्रव्यों की सत्पात्रों में दान करने की भावना को भी जगाता है। ‘सु-आ-हा’ का अर्थ है सुन्दरता के साथ चारों ओर त्याग करना।

आओ, हम भी अग्नि आदि प्राकृतिक पदार्थों के अन्दर प्रभुसत्ता की झाँकी लें, हम भी अग्निहोत्र के व्रती बनकर प्रशंसाभाजन हों।

अग्नि में एक और अग्नि प्रविष्ठ है।- रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का क्रय-विक्रय – रामनाथ विद्यालंकार

यज्ञ का क्रय-विक्रय  – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः  और्णवाभः ।  देवता  यज्ञः ।  छन्दः  आर्षी अनुष्टुप् ।

पूर्णा दर्वि परा पत सुपूर्णा पुनरार्पत। वस्नेव विक्रीणावहाऽइषमूर्ज शतक्रतो॥

-यजु० ३।४९

(दर्वि) हे सुवा! तू (पूर्णा) घृत से भरी हुई (परापत) यज्ञकुण्ड में जाकर गिर। वहाँ से (सुपूर्णा) खूब भरी हुई (पुनः आ पत) फिर हमारे पास आ । इस प्रकार हे (शतक्रतो) सैंकड़ों यज्ञों के कर्ता इन्द्र परमेश्वर ! हम (वस्ना इव) जैसे मूल्य से किसी वस्तु का क्रय-विक्रय किया जाता है, वैसे ही (इषम्) अन्न, रस आदि तथा (ऊर्जम्) बल, प्राण, स्वास्थ्य आदि (वि क्रीणावहै) विशेषरूप से खरीदें।

क्या तुम सोचते हो कि यज्ञ में घृत से भरी हुई खुवा जब अग्नि में घृत उंडेलती है, तब हमारे पास वापिस आती हुई वह खाली होती है? यदि ऐसा सोचते हो तो तुम भ्रम में हो। यदि ऐसा होता तो वेदादि शास्त्रों में यज्ञ की असीम महिमा वर्णित न होती। यज्ञ तो देने-लेने का व्यापार है। उसमें व्यय भी है, आय भी है। भौतिकता की दृष्टि से देखें तो हम अग्नि को हवि देते हैं, बदले में अग्नि जल-वायु की शुद्धि करके तथा हमारे शरीर में श्वास के साथ स्वास्थ्यवर्धक हवि का अंश पहुँचा कर हमें स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य प्रदान करता है।

अग्नि की ऊर्ध्वगामी ज्वालाओं से हम ऊर्ध्वगामी होने की प्रेरणा लेते हैं। अग्नि के ताप और प्रकाश से हम तपस्वी और प्रकाशवान् होने का सन्देश ग्रहण करते हैं। अग्नि के मलिनताओं को भस्म करने के गुण से हम अपने पाप-ताप को भस्म करने का व्रत लेते हैं। जब हम ‘इन्द्राय स्वाहा’ बोलकर इन्द्र को आहुति प्रदान करते हैं, तब शतक्रतु इन्द्र से अर्थात् इन्द्र प्रभु के सृष्ट्युत्पत्ति, सृष्टिसञ्चालन, ऋतु-निर्माण, संवत्सर-रचना, जल-वाष्पीकरण, वृक्षारोपण, पुष्प-विकास, नदी-प्रवाह, ग्रहोपग्रह-व्यवस्था, तारकावलि-प्रकाशन आदि शत-शत यज्ञों की साधनारूप खुवा से हम यज्ञभावना को अपने अन्दर जागृत करते हैं।

इस प्रकार यज्ञ की खुवा जब अग्नि में आहुति डाल कर वापिस आती है, तब वह खाली नहीं होती, प्रत्युत वह स्वास्थ्य, दीर्घायुष्य, ऊध्र्वज्वलन, तप, प्रकाश, निष्पापता, त्याग, आस्तिकता आदि से भरपूर होती है। जितनी बार सुवा से हम अग्नि में हवि का त्याग करते हैं, उतनी ही बार वह उत्तम ऐश्वर्यों से भरी-पूरी होती हुई हमारे पास वापिस आकर उन ऐश्वर्यों को हमारे मानस में उंडेल देती है। इस प्रकार जैसे कोई मूल्य देकर बदले में बहुमूल्य वस्तुएँ प्राप्त करता है वैसे ही अग्नि में हवि देकर बदले में हम नाना भौतिक एवं आध्यात्मिक ऐश्वर्यों को प्राप्त कर लेते हैं। एवं यह क्रय विक्रय का व्यापार अग्निहोत्र में निरन्तर चलता रहता है।

इस मन्त्र के दयानन्दभाष्य के भावार्थ में लिखा है-“जो मनुष्यों द्वारा सुगन्धि आदि द्रव्य अग्नि में होम किया जाता है। वह ऊपर जाकर वायु, वृष्टिजल आदि को शुद्ध करके पुनः पृथिवी पर आ जाता है, जिससे यव आदि ओषधियाँ शुद्ध होकर सुख और पराक्रम को देनेवाली हो जाती हैं। जैसे व्यापारी रुपया आदि दे-लेकर अन्न आदि अन्य द्रव्यों को खरीदते-बेचते हैं, वैसे ही अग्नि में द्रव्यों की आहुति देकर वृष्टि, सुख आदि को खरीदता है और वृष्टि, ओषधि आदि को लेकर पुनः वृष्टि के लिए अग्नि में होम करता है।”

यज्ञ का क्रय-विक्रय  – रामनाथ विद्यालंकार

 

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

ऋषिः  अवत्सारः ।  देवता  अग्निः ।  छन्दः  आर्षी त्रिष्टुप् ।

तुनूपाऽअग्नेऽसि तुन्वं मे पाह्यायुर्दाऽअग्नेऽस्यायुर्मे देहि वर्षोदाऽ अग्नेऽसि वर्षों में देहि।अग्ने यन्मे न्वाऽनं तन्मऽआपृण।।

-यजु० ३ । १७

(अग्ने ) हे अग्रनायक जगदीश्वर और भौतिक अग्नि! तुम ( तनूपाः असि ) शरीरों के पालक व रक्षक हो, अतः ( मे तन्वं पाहि ) मेरे शरीर को पालित-रक्षित करो। (अग्ने ) हे परमात्मन् तथा अग्नि-विद्युत्-सूर्य रूप अग्नि! तुम ( आयुर्दाः असि ) आयु देने वाले हो, अत: ( मे आयुः देहि ) मुझे आयु दो। ( अग्ने ) हे परमेश्वर तथा उक्त अग्नियो ! तुम ( वच्चदा: असि ) वर्चस् देने वाले हो, अतः (मे वर्चः३ देहि ) मुझे वर्चस् दो। ( यत् ) जो ( मे तन्वाः ) मेरे शरीर का ( ऊनं ) न्यून है ( तत् मे ) मेरे उस सामर्थ्य को ( आ पृण) पूर्ण करो।।

प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि मैं सुपालित और सुरक्षित रहूँ, मुझ पर दैवी आपदाएँ न आयें, भूकम्प, अतिवृष्टि, नदी की बाढ़ों आदि का शिकार में न होऊँ, मुझे दीर्घायुष्य प्राप्त हो, मैं यशस्वी-वर्चस्वी बनूं, मेरे अन्दर जो न्यूनताएँ हैं, वे न रहें। किन्तु इसका उपाय क्या है? इसका उपाय है ‘अग्नि’ । अग्नि अग्रनायक, तेजस्वी, महिमाशाली परमेश्वर का नाम भी है और भौतिक अग्नि को भी अग्नि कहते हैं। भौतिक अग्नि में पार्थिव अग्नि, अन्तरिक्ष की विद्युत् और द्युलोक का सूर्य सभी आ जाते हैं। इनके अतिरिक्त भी जहाँ-कहीं अग्नि-तत्त्व है, वह भी अग्नि से गृहीत हो जाता है।

हे अग्नि! तू शरीरों का रक्षक है, मेरे शरीर की भी रक्षा कर। संसार में जितने भी जड़-चेतन शरीर हैं, वे सब ईश्वरीय छत्रछाया से ही रक्षित– पालित हो रहे हैं, अतः ईश्वर की वह छत्रछाया मेरे शरीर को भी प्राप्त होती रहे। इसके अतिरिक्त भौतिक अग्नि भी शरीरों की रक्षा कर रहा है। आग, बिजली और सूर्य हमारे कितने अधिक काम आने वाले तत्त्व हैं। कल्पना कीजिए ये तीनों हमसे छिन जाएँ तो न हम भोजन पका सकेंगे, न घरों, कारखानों आदि में विद्युत् का प्रकाश पा सकेंगे, न हमें दिन में सूर्य का प्रकाश मिलेगा, सदा हम रात्रि से ही घिरे पड़े रहेंगे। इन तीनों प्रकार की अग्नियों का प्रयोग करके सदा हम पालित-रक्षित होते रहें। साथ ही यदि शत्रु हमारी हिंसा करने का मनसूबा बाँधे, तो आग्नेयास्त्रों से उन्हें पराजित करके भी हम रक्षित होते रहें।

हे अग्नि! तू दीर्घायुष्य देनेवाला है, मुझे भी दीर्घायुष्य प्रदान कर। जगदीश्वररूप अग्नि के नियमों का हम पालन करते रहें, तो भी हमें दीर्घायुष्य प्राप्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उपर्युक्त तीनों प्रकार की भौतिक अग्नियों से लाभान्वित होकर भी हम दीर्घायु हो सकते हैं। अल्पायु होने में शारीरिक और मानसिक रोग बहुत बड़े कारण हैं। वैज्ञानिकों ने तीनों अग्नियों द्वारा रोगनिवारण के अनेक उपाय आविष्कृत किये हैं। चिकित्सकों द्वारा उन उपायों को अपने शरीर पर प्रयोग करवा कर भी हम दीर्घायुष्य पा सकते हैं।

हे अग्नि! तू वर्चस् को देनेवाला है, मुझे भी वर्चस्विता प्रदान कर। वर्चस् में ब्राह्म तेज, आत्मबल, विद्या और विद्वत्ता का तेज आदि आते हैं। परमेश्वराग्नि सब वर्चस्विताओं का स्रोत और पुञ्ज है। उसकी वर्चस्विताओं को अपना आदर्श बना कर हम भी वर्चस्वी बन सकते हैं। आग, विद्युत् और सूर्य के बल और प्रकाश का चिन्तन भी हमें वर्चस्वी बना सकता है।

हे अग्नियो ! मेरे शरीर में, शारीरिक अङ्गों में, रक्तसंस्थान, पाचनसंस्थान, मलविसर्जनसंस्थान, मन, मस्तिष्क आदि में जो कोई न्यूनता आ गयी है, बुद्धिबल, शौर्य आदि की कमी हो गयी है, उसे भी तुम दूर कर दो, जिससे मेरा शरीर संस्कृत, निर्दोष, सबल और प्रफुल्ल होकर अपने आत्मा को भी उपकृत करता रहे और परोपकार में भी संलग्न रहे।

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

पादटिप्पणियाँ

१. (तनूपाः) यस्तनूः सर्वपदार्थदेहान् पाति रक्षति स जगदीश्वरः पालनहेतुर्भोतिको वा-द०भा० ।

२. (वर्षोदा:) यो वर्षो विज्ञानं ददाताति, तत्प्राप्तिहेतुर्वा-द०भा० ।

३. (वर्च:) विद्याप्राप्तिं दीप्तिं वा-द०भा० ।

४. पृण-पृ पालनपूरणयोः, क्रयादिः ।

तनूपाः अग्नि से प्रार्थना

अग्न्याधान

अग्न्याधान

ऋषिः प्रजापतिः।   देवताः अग्नि-वायु-सूर्याः।   छन्दः क. दैवीबृहती, र. निवृद् आर्षी बृहती।

भूर्भुवः स्वर्’ द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा। तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमुन्नाद्ययोदधे।

-यजु०३।५

( भूःभुवःस्वः ) सत्-चित्-आनन्द, पृथिवी-अन्तरिक्षद्यौ, अग्नि-वायु-आदित्य, ब्रह्म-क्षत्र-विट् का ध्यान करता हूँ।

मैं ( भूम्ना) बाहुल्य से ( द्यौःइव) द्युलोक के समान हो जाऊँ, ( वरिम्णा) विस्तार से ( पृथिवी इव) भूमि के समान हो जाऊँ। ( देवयजनिपृथिवि ) हे देव यज्ञ की स्थली भूमि! ( तस्याःतेपृष्ठे ) उस तुझे भूमि के पृष्ठ पर ( अन्नादम्अग्निम्) हव्यान्न का भक्षण करने वाली अग्नि को ( अन्नाद्याय) अदनीय अन्नादि का भक्षण करने के लिए ( आदधे ) आधान करता हूँ/करती हूँ।

अग्न्याधान से पूर्व व्याहृतियों द्वारा सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर का स्मरण करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में भूः, भुवः, स्व: पूर्वक आहवनीय अग्नि के आधान का विधान करते हुए इन का सम्बन्ध क्रमशः पृथिवी-अन्तरिक्ष-द्यौ, ब्रह्म-क्षत्र-विट् तथा आत्मा-प्रजा-पशुओं से बताया गया है। इन सब में अपने-अपने प्रकार की अग्नि का वास है। तैत्तिरीय आरण्यक एवं तैत्तिरीय उपनिषद्में इन व्याहृतियों को क्रमशः भूलोक अन्तरिक्ष लोक-द्युलोक, अग्नि-वायु-आदित्य, ऋक्-साम-यजुः और प्राण-अपान-उदान का वाचक कहा है। वहाँ इनके द्वारा विधि करने का फल यह बताया गया है कि भू: के द्वारा अग्नि में, भुवः के द्वारा वायु में और स्वः के द्वारा आदित्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, अर्थात् इन-इन के ऐश्वर्य का अधिकारी हो जाता है। इनका ध्यान करने वाला आत्मराज्य को और मन सस्पति को प्राप्त कर लेता है। वह वाक्पति, चक्षुष्पति, श्रोत्रपति हो जाता है, क्योंकि अध्यात्म में भूः, भुवः, स्व: का सम्बन्ध वाक्, चक्षु और श्रोत्र से भी है।

आगे यजमान कहता है कि बाहुल्य (भूमा) में मैं द्युलोक के समान हो जाऊँ, अर्थात जैसे द्यलोक में बहत-से नक्षत्र हैं। और इनकी रश्मियाँ हैं, वैसे ही मेरे अन्दर भी बहुत से सद्गुण रूप नक्षत्र एवं दिव्य अन्त: प्रकाश की किरणें उत्पन्न हों। फिर कहता है कि विस्तार में मैं पृथिवी के समान हो जाऊँ, अर्थात् मेरे आत्मा में अपनत्व का विकास इतना हो जाए कि सारी वसुधा को ही अपना कुटुम्ब मानने लगूं। फिर वह पृथिवी को सम्बोधन कर कहता है कि तुम ‘देवयजनी’ हो, अर्थात् तुम्हारे पृष्ठ पर सदा ही देवयज्ञ या अग्निहोत्र होते रहे हैं। अतः मैं भी तुम्हारे पृष्ठ पर अन्नाद (हव्यान्नभक्षी) अग्नि का आधान करता हूँ, जिससे वह अग्नि अदनीय (भक्षणीय) अन्नादि हव्य का भक्षण करके उसकी सुगन्ध को चारों ओर फैलाकर वातावरण को शुद्ध एवं रोग-परमाणुओं से रहित कर सके। शतपथ ब्राह्मण कहता है कि जैसे नवजात बच्चे को उस के भक्षण योग्य मातृ स्तन का दूध दिया जाता है, ऐसे ही नवजात अग्नि को उसके अदन के योग्य ही हव्यान्न दिया जाना चाहिए, अतःअन्नाद्य ( अद्य-अन्न) शब्द रखा गया है। * अन्नाद्याय’ का दूसरा भाव यह भी हो सकता है कि ‘भक्षणीयअन्न’ की प्राप्ति के लिए मैं अग्नि का आधान करता हूँ। अग्नि में डाली हुई आहुति आकाश में मेघमण्डल उत्पन्न करके वृष्टि द्वारा अन्नोत्पत्ति में कारण बनेगी और मुझे भक्षणीय अन्न प्राप्त होगा।*

अग्न्याधान

पादटिप्पणियाँ

१.श०२.१.४.१०-१४॥

२. तै०आ०७.५.१-३, तै०उ०शिक्षावल्ली५.१-४।।

३. भूरित्यग्नौप्रतितिष्ठति।भुवइतिवायौ।सुवरियादित्ये।

| मह इतिब्रह्मणि।आप्नोति स्वाराज्यम्।आप्नोतिमनसस्पतिम्।।

वाक्पतिश्चक्षुष्पतिः।श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिःएतत्ततोभवति।

-तै० आ०७.६.१.२, तै०उ०शिक्षावल्ली६.१,२।

४. यथासौद्यौर्बह्नी नक्षत्रैरैवंबहुर्भूयासम्इत्येवैतदाहयदाहद्यौरिवभूम्नेति।

| –शे०२.१.४.८५.पृथिवीव वरिण्णेति । यथेयं पृथिवी उर्वी एवम् उरुर्भूयासम् इत्येवैतदाह।

—श० २.१.४.२८अन्नाद्याय। अन्नं च तद् अद्यं चेति अन्नाद्यम् । ‘अद्यान्नाय’ इति प्राप्त

आहिताग्न्यादित्वात्परनिपातः, पा० २.२.३६ ।।७. श० २.१.५.१।

अग्न्याधान

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण :रामनाथ विद्यालंकार

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

ऋषिः वामदेवः। देवता पितरः। छन्दः निवृद्आर्षीगायत्री।

आर्धत्तपितरोगर्भकुमारंपुष्करस्रजम्।यथेहपुरुषोऽसत्॥

-यजु० २। ३३ |

हे ( पितर:१) पालनकता गुरुजनो! आचार्यो ! आप ( पुष्करस्त्रजं कुमारं ) कमल फूलों की माला पहने हुए इस कुमार को ( गर्भम् आधत्त ) गर्भ रूप में धारण करो, ( यथा ) जिससे यह (इह ) यहाँ, गुरुकुल में ( पुरुषः ) विद्वान् पुरुष ( असत्) ही जाए।

वेद के आदेश और अनुभवी शिक्षाविज्ञों के अनुभव के अनुसार राष्ट्र में बालक-बालिकाओं की शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए। एक महान् शिक्षाशास्त्री के वचन हैं—“इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज देवे। जो न भेजे वह दण्डनीय हो ।” जब बालक या बालिका गुरुकुल, विद्यालय या पाठशाला में विद्या पढ़ने आचार्य या आचार्या के पास जाते हैं, तब आचार्य या आचार्या उनका उपनयन संस्कार करते हैं।

अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सृक्त में लिखा है कि ”जब आचार्य ब्रह्मचारी का उपनयन संस्कार करता है, तब वह उसे अपने गर्भ में धारण करता है।” प्रस्तुत मन्त्र में पितरः’ को सम्बोधन है। ‘पितर:’ को अर्थ पालनकर्ता गुरुजन और आचार्यगण है। माता-पिताअपने बालक को स्वच्छ वस्त्र पहना कर, उसके गले में कमलफूलों की माला डाल कर गुरुकुल में प्रवेशार्थ उपनयन संस्कार के लिए आचार्य के समीप लाये हैं। वे बालक को आचार्यों के हाथों में सौंपते हुए कहते हैं-‘ हे आचार्य आदि गुरुजनो ! कमल-फूलों की माला धारण किये हुए इस कुमार को आप अपने गर्भ में धारण कीजिए।’

गर्भ में धारण करना सामीप्य-सम्बन्ध का प्रतीक है। जैसे गर्भस्थ सन्तान का माता के साथ अतिनिकट का सम्बन्ध होता है, ऐसे ही कुमार बालक या ब्रह्मचारी का आचार्य तथा गुरुजनों के साथ निकट का सम्बन्ध रहना चाहिए। निकटता में रह कर ही गुरुजन विद्यार्थी की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान दे सकते हैं, उसके गुण-दोषों को देख सकते हैं तथा गुणों को प्रोत्साहित एवं दोषों को दूर कर सकते हैं। पाठ्यपुस्तकों द्वारा अध्यापन भी निकटता की अपेक्षा रखता है। पाठभूल जाने पर या कोई शङ्का होने पर तुरन्त छात्र गुरुजनों से पूछ सकता है। गुरुजन छात्र को अपने पास रख कर उसकी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति पर भी ध्यान दे सकते हैं । गर्भ में धारण करने का लाभ क्या होगा इस विषय में मन्त्र कह रहा है कि यह अशिक्षित कुमार गुरु-सान्निध्य में शिक्षित होकर सत्पुरुष तथा उत्तम नागरिक बन जायेगा।

इस मन्त्र के भावार्थ में भाष्यकार” लिखते हैं—” विद्वानों और विदुषियों को चाहिए कि विद्यार्थी कुमारों और विद्यार्थिनी कुमारियों को विद्या देने के लिए गर्भ के समान धारण करें । जैसे गर्भ में देह क्रम-क्रम से बढ़ता है, वैसे अध्यापक लोगों को चाहिए कि सुशिक्षा से ही ब्रह्मचारी, कुमार वा कुमारी की सविद्या में वृद्धि करें तथा उनका पालन करें, जिससे वे विद्या के योग से धर्मात्मा और पुरुषार्थ युक्त होकर सदैव सुखी हों।”

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

पाद-टिप्पणियाँ

१. (पितरः) ये पान्ति विद्यान्नादिदानेन, तत्सम्बुद्धौ–द०भा०।

२. विद्याग्रहणार्था स्रग् धारिता येन तम् कुमारं ब्रह्मचारिणम्-द०भा० ।

३. असत् भवेत्-अस भुवि, अदादिः, लेट् लकार।

४. स्वामी दयानन्द सरस्वती ।

आचार्यों द्वारा कुमार का गर्भ में धारण

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ    -रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता अग्निः सरस्वती च। छन्दः भुरिग् ब्राह्मी त्रिष्टुप् ।

अग्नेऽदब्धायोऽशीतम पाहि मा दिद्योः पाहि प्रसित्यै पहि दुरिष्ट्यै पाहि दुरद्मन्याऽअविषं नः पितुं कृणु सुषदा योनौ स्वाहा वाडग्नये संवेशपतये स्वाहा सरस्वत्यै यशोभूगिन्यै स्वाहा ।।।

-यजु० २ । २० |

हे ( अदब्धायो ) मनुष्य को अहिंसित, अक्षत रखने वाले, (अशीतम ) सर्वव्यापक (अग्ने ) अग्ननायक जगदीश्वर! आप हमें ( पाहि ) बचाओ ( दिद्यो:) वज्र से, ( पाहि ) बचाओ (प्रसियै ) जाल से, ( पाहि ) बचाओ ( दुरिष्ट्यै ) दुर्यज्ञ से, ( पाहि) बचाओ (दुरद्मन्यै ) दुर्भोजन से, ( अविषं ) विषरहित (नः पितुं कृणु ) हमारे भोजन को करो। हे सरस्वती ! तू हमारे ( योनौ ) घर में ( सुषदा ) सुस्थित हो। ( स्वाहा ) एतदर्थ हम प्रार्थना करते हैं, ( वाड्) पुरुषार्थ करते हैं । ( संवेशपतये अग्नये स्वाहा ) समाधि के रक्षक आप जगदीश्वर का हम स्वागत करते हैं। ( यशोभगिन्यै सरस्वत्यै स्वाहा ) यश का भागी बनाने वाली सरस्वती का हम स्वागत करते हैं।

जगदीश्वर इस जड़-चेतन जगत् की रचना करता है और वही इसकी रक्षा भी करता है। मनुष्य भी यद्यपि सर्वोत्कृष्ट प्राणी है, तो भी वह उसकी रक्षा के बिना रक्षित नहीं रह सकता। सच तो यह है कि मनुष्य स्वयं अपनी हिंसा को निमन्त्रण देता रहता है। यदि उसे चेतानेवाला उसका संरक्षक परमेश्वर न हो तो वह शत वर्ष क्या, कुछ वर्ष भी जीवित नहीं रह सकता । परमेश्वर की सर्वव्यापकता का ध्यान भी मनुष्य को ऐसे कुकर्मों को करने से रोकता है, जिनसे उसकी हिंसा या क्षति होती हो। शत्रु का वज्र या उसके संहारक अस्त्र-शस्त्र भी मनुष्य को मृत्यु के घाट उतारने के लिए पर्याप्त हैं।

हे जगदीश! आप ही उसे शत्रु से लोहा लेकर उस पर विजय पाने का महाबल प्रदान कर सकते हो। काम, क्रोध आदि आन्तरिक षड् रिपु भी अपना जाल फैला कर संसार सागर में तैरते हुए मनुष्य को ऐसे ही फँसाने के लिए तत्पर हैं, जैसे मछुआरा मछलियों को अपने जाल में फँसाता है।

हे प्रभु, आप ही उसे उस जाल के प्रलोभन से दूर रहने की प्रेरणा कर सकते हो। मानव कुसङ्गति में पड़ कर दुर्भोजन भी करने लगता है। उसका स्वाभाविक भोजन तो फल, कन्दमूल, दूध, नवनीत, अन्न, रस, बादाम, किशमिश, छुहारा आदि ही हैं, किन्तु वह अण्डे, मांस, मदिरा आदि का भी सेवन करने लगता है। वह जिह्वा के स्वाद के वश होकर विषैले खाद्य और पये को भी अपने दैनिक भोजन का अङ्ग बना लेता है। उसे इसका परिज्ञान ही नहीं होता कि व्यापारिक कम्पनियाँ धन कमाने के लिए उसके आगे खट्टे, मीठे, तीखे, चरपरे, स्वादिष्ठ विषैले खाद्य और पेयों को परोस रही हैं। उसे तो स्वाद का आकर्षण होता है ।

हे महेश्वर ! आप ही किसी साधु बाबा को भेज कर मनुष्य को यह शिक्षा दिलाते हो कि वह इन विषैली वस्तुओं का बहिष्कार करे। आप हमें यह सीख दो और बल दो कि हम शत्रु के वज्र को निर्वीर्य करने का सामर्थ्य जुटायें, आन्तरिक रिपुओं के जाल में न फैंसने की दूर-दर्शिता प्राप्त करें और दुर्भोजन का विषपान न करें। हे परमात्मन्! मनुष्य जब योगाभ्यास में तत्पर होता है और यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की क्रियाओं को करता हुआ समाधि तक पहुँचता है, तब उसकी उस समाधि के रक्षक भी आप ही होते हो। इस योगैश्वर्य के दाता के रूप में भी हम आपका स्वागत करते हैं।

हे अग्निसम तेजस्वी देवाधिदेव ! जैसे हम आपका स्वागत कर रहे हैं, वैसे ही आपकी दी हुई सरस्वती अर्थात् वेदविद्या का भी स्वागत करते हैं, उसका अध्ययन-अध्यापन करते हैं। और उसके उपदेशों को जीवन में चरितार्थ करते हैं। हमारे घरों में वह सरस्वती सदा ‘सुषदा’ रहे, सुस्थिर रहे। हे वेदविद्यारूप सरस्वती ! तू ‘यशोभगिनी’ है, हमें यश का भागी बनाने वाली है। तेरा स्वागत है।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

पदटिप्पणियाँ

१. अदब्धो ऽ नुपहंसितः आयुर्मनुष्यो यजमानो यस्य सो ऽ दब्धायु: म० । आयु=मनुष्य, निघं० २.३।

२. अशू व्याप्तौ । अश्नुते व्याप्नोति इत्यशी, अतिशयेन अशी अशीतमः, दीर्घश्छान्दस:-म० ।

३. दिद्युत्=वज्र, निघं० २.२०, तकारलोप । अथवा दिवु मर्दने चुरादिः । देवयति मृनाति अनेन इति दिद्युः वज्रः । दिव धातो: बाहुलकाद् उणादिः कुः प्रत्ययः, द्वित्वं च ।

४. प्रसितिः प्रसयनात् तन्तुर्वा जालं वा । निरु० ६.१२।।

५. अदनम् अद्मनी, दुष्टा अद्मनी दुरद्मनी दुर्भोजनम्-म० ।।

६. पितु=अन्न, निघं० २.७।।

७. योनि=गृह, निघं० ३.४

८. (वाड्) क्रियार्थे–२०भा० ।

९. संवेश–निद्रा, योगक्षेत्र में समाधि।

१०.यशांसि भजितुं शीलं यस्याः तस्यै–द०भा० ।

हमें वज्र, जाल, दुर्यज्ञ और दुर्भोजन से बचाओ 

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ -रामनाथ विद्यालंकार

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

ऋषिः परमेष्ठी प्रजापतिः । देवता: अग्निवायू यज्ञश्च । छन्दः भुरिक् पङिः।

घृताची स्थो धुर्यों पात सुम्ने स्थः सुम्ने मा धत्तम्। यज्ञ नमश्च तऽउप च यज्ञस्य शिवे सन्तिष्ठस्व स्विष्टे मे सन्तिष्ठस्व।

-यजु० २ । १९

हे अग्नि और वायु ! तुम (घृताची ) घृत आदि हवि को फैलाने वाले और मेघ-जल को भूमि पर लाने वाले, तथा ( धुर्यों ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के धुरे को वहन करने वाले (स्थः ) हो, ( पातं ) मेरी रक्षा करो। तुम (सुम्ने स्थः ) सुखदायक हो, ( सुम्ने मा धत्तम् ) सुख में मुझे रखो। ( यज्ञ ) हे सब जनों के पूजनीय परमेश्वर । ( नमः च ते ) आपको नमस्कार है। आप ( यज्ञस्य शिवे ) होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ के मङ्गलप्रद सुख प्राप्त कराने हेतु ( उप सं तिष्ठस्व ) सामीप्य के साथ संनद्ध हों, (मे स्विष्टे ) मेरे यज्ञ का सुफल प्राप्त कराने हेतु ( सं तिष्ठस्व) संनद्ध हों।

मन्त्र के देवता अग्नि-वायु और यज्ञ हैं। अग्नि से पार्थिव अग्नि, विद्युत् और सूर्य तीनों ग्राह्य हैं। यज्ञ से होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ दोनों अभीष्ट हैं। होमयज्ञ में यज्ञाग्नि और वायु घृत आदि हव्य द्रव्य को दूर-दूर तक फैलाने का कार्य करते हैं। वे हविर्द्रव्य के सूक्ष्म परमाणुओं को अन्तरिक्षस्थ मेघजल तक भी ले जाते हैं, जिससे जल उन परमाणुओं से भरपूर तथा सुगन्धित हो जाता है। अग्नि-वायु मेघस्थ जल को बरसाने का काम भी करते हैं। इस वृष्टि में यज्ञाग्नि, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्य तीनों अग्नियाँ कारण बनती हैं। सुगन्धित जल बरस कर वनस्पतियों और प्राणियों को प्राप्त होता है तथा रोगों को नष्ट करता एवं प्राण प्रदान करता है और सुख देता है। इस प्रकार अग्नि और वायु होमयज्ञ के धुर्य (धुरे को वहन करने वाले) होते हैं। तीनों अग्नियाँ और वायु शिल्पयज्ञ के भी धूर्वह या साधक बनते हैं। ये भूमियानों, जलयानों और विमानों को तथा विविध यन्त्रों एवं कल-कारखानों को चलाने के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं और मनुष्यों को सुख देते हैं।

मन्त्र के उत्तरार्ध में ‘यज्ञ’ सम्बोधन पूजनीय परमेश्वर के लिए प्रयुक्त हुआ है। उसे नमस्कार करके उससे प्रार्थना की गयी है कि आप होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ का मङ्गलप्रद सुखदायक फल हमें प्राप्त कराते रहें, क्योंकि अग्नि-वायु भी ईश्वरीय नियमों के अनुसार ही कार्य करते हैं।

उवट एवं महीधर ने यज्ञ के शिव में संस्थित होने का आशय लिया है यज्ञ को न्यून या अधिक न होने देना और उसके लिए श्रुतिप्रमाण भी प्रस्तुत किया है।

होमयज्ञ और शिल्पयज्ञ

 

पाद टिप्पणियाँ

१. घृतम् आज्यम् उदकं च अञ्चयत: स्थानान्तरं प्रापयत: इति घृताच्यौ। घृताची+औ, पूर्वसवर्णदीर्घघृताची। अञ्चु गतिपूजनयोः, भ्वादिः ।

२. सुम्नम्-सुखम्, निघं० ३.६।।

३. इज्यते सर्वैर्जनैः स यज्ञ: ईश्वर:-द०भा० ।

४. यज्ञस्य शिवे संतिष्ठस्व अन्यूनातिरिक्तं यज्ञं कुर्वित्यर्थः ।। ‘यद्वै यज्ञस्यान्यूनातिरिक्तं तच्छिवं, तेन तदुभयं शमयति’ इति श्रुतेः म० ।

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