भारतीय संस्कृति एवं भाषाओं के रक्षार्थ समर्पित हैदराबाद यात्राः
एक अनुभव
– ब्र. सत्यव्रत
पिछले अंक का शेष भाग…….
8 मई को भोजनोपरांत बस द्वारा हम आर्ष शोध संस्थान व कन्या गुरुकुल अलियाबाद पहुँचे जहाँ आ. आनन्दप्रकाश जी व आ. नीरजा जी ने हमारा स्वागत किया। वहाँ की भव्य कलात्मक यज्ञशाला देखकर हम अति आनन्दित हुये। तत्पश्चात् वहाँ से कुछ दूरी पर स्थित बटुक विद्यालय में आर्ष पाठ्यक्रम उद्घाटन दिवस के अवसर पर आयोजित यज्ञ में हमने श्रद्धापूर्वक भाग लिया। यज्ञोपरांत आचार्य सत्यजित् जी एवं डॉ. धर्मवीर जी के प्रेरक प्रवचन हुये। डॉ. धर्मवीर जी ने कहा कि सच्चा शिक्षक वही हेाता हे जो हमें सोचने के लिये मजबूर कर दे। आ. सज्यजित् जी ने आर्ष शिक्षा के महत्त्व का प्रतिपादन किया। इस कार्यक्रम का मुखय आकर्षण रहा आचार्या नीरजा जी के 8 वर्षीय सुपुत्र और आर्ष पाठ्यक्रम के छात्र द्वारा शुद्ध सस्वर अष्ठाध्यायी का पाठ सुनाना।
आ. नीरजा जी का अपने पुत्रों को आर्ष पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षित करना हमें स्तुत्य लगा।
9 मई 2016 को प्रातः 10.00 बजे संगोष्ठी के संयोजक डॉ. विनीत चैतन्य विद्युत अभियन्ता की अध्यक्षता मे संगोष्ठी का उद्घाटन सत्र प्रारमभ हुआ। ईश स्मरण के पश्चात् स्वयं-परिचय का कार्यक्रम उल्लासपूर्ण वातावरण में समपन्न हुआ। डॉ. चैतन्य जी की टीम में डॉ. सोमा जी भाषा-विज्ञान की शोध छात्रा, सुखदा जी, बहन किशोरी जी भारतीय सांस्कृतिक अध्ययन संस्थान, शिमला की प्राध्यापिका डॉ. अबा कुलकर्णी जी आदि शामिल थे।
तदुपरांत अपने उद्बोधन में डॉ. चैतन्य जी ने भारतीय संस्कृति पर मंडरा रहे खतरों से हमें अवगत कराया और उनके निवारणार्थ हम सबको कुछ कर दिखाने का आह्वान किया। चर्चा में अपने विचार व्यक्त करते हुये डॉ. धर्मवीर जी ने कहा कि वैज्ञानिक लिपि देवनागरी विश्व की सर्वश्रेष्ठ लिपि है जिसकी प्रशंसा स्वर-विज्ञान विशेषज्ञ पश्चिमी विद्वानों नेाी की है।
इस लिपि में जैसा बोलेंगे वैसा ही लिखेंगे और जैसा लिखते हैं वैसा ही पढ़ते हैं, जबकि रोमन लिपि के कारण अंग्रेजी शबदों के उच्चारण में सर्वत्र अराजकता है। आपने चेतन भगत का लेख ‘रोमन लिपि अपनाओं हिन्दी बचाओ’ की व्यर्थता को स्पष्ट किया और कहा कि रोमन लिपि अपनाने पर हम प्राचीन साहित्य से दूर हो जायेंगे। सत्र के अन्त में सूचना दी गई कि आगे से प्रथम सत्र प्रातः 9.00 बजे से 1.00 बजे तक और द्वितीय सत्र अपराह्न 3.00 बजे से 5.30 बजे तक चलेंगे।
डॉ. चैतन्य जी ने जापान में कमप्यूटर (संगणक) तकनीक द्वारा जापानी भाषा से फे्रंच भाषा में हुए सफल मशीनी अनुवाद की जानकारी देते हुये उससे प्रेरणा लेने की बात कही। उन्होंने नागरीलिपि के स्वर और स्वर की मात्रा में क्या संबंध और क्या भिन्नता है-इसे स्पष्ट करने के लिये ‘की’ का उदाहरण देते हुये कहा कि ‘ी’ मात्रा ‘क’ में से ‘अ’ को हटाती और ई को जोड़ती है।
अर्थात्, मात्रा ी= अ+ई
इस पर आ. सत्यजित् जी का मन्तव्य था कि ‘की’ में ी की मात्रा ‘अ’ को हटाती नहीं अपितु व्यंजन ‘क’ में ई के योग को लाघव कर दर्शाती है।
द्वितीय सत्र में चैतन्य जी ने कहा कि हमें ऐसी तकनीक विकसित करनी है, जिससे सिद्धान्त (शास्त्र वचन) की हानि न हो और हमारा कार्याी सिद्ध हो जाय। साथ ही व्यावहारिक पाणिनीय व्याकरण का पाठ्यक्रम भारतीय विद्यालयों में पढ़ाया जाना चाहिये।
अगले दिन प्रथम सत्र में लिनेक्स सिस्टम (linux system) से कमप्यूटर संचालन की विधि बताई गई। इसके अन्तर्गत नया फोल्डर बनाना, उसके अन्दर अपना फाइल बनाना उसका उपयोग करना और उसे सुरक्षित (shave) करना बताया गया।
द्वितीय सत्र में माननीया प्रा. अबा कुलकर्णी जी ने दूरभाष संस्कृत हिन्दी मशीन अनुवाद टूल के विषय में जानकारी दी जिसके द्वारा अनुवाद और लिप्यन्तरण की क्रिया समपन्न की जाती है। इस प्रक्रिया में उन्होंने पाणिनीय व्याकरण के सफल उपयोग पर भी प्रकाश डाला जिसका अनुभव हमारे लिये अतिरोमाचकारी रहा। पाणिनीय व्याकरण द्वारा विश्लेषण व संश्लेषण की प्रक्रिया में प्रयोग निर्धारण, कारक निर्धारण व वाक्य रचना विषयों पर उन्होंने प्रकाश डाला। आप्टे और मोनियर विलियम रचित संस्कृ त शबदकोशों पर आधारित संस्कृत हिन्दी अनुवादक मशीन द्वारा उन्होंने पूरी प्रक्रिया का प्रायोगिक दिग्दर्शन भी कराया जो उत्साहवर्धक रहा। उन्होंने अष्टाध्यायी सिमिलेटर और क्रि यापद निष्पादिका पर भी प्रकाश डाला। अगले दो दिनों तक उन्होंने इस विषय को स्पष्ट करने के लिये सैद्धान्तिक कक्षायें ली और उनके सहयोगी संजीव जी आदि ने सभी को संगणक प्रयोगशाला में लेजाकर तद्विषय संगणक पर प्रयोग कराकर विषय को स्पष्ट किया।
अबा जी ने बताया कि भाषा ध्वनि के अर्थ को बताता है जबकि लिपि ध्वनि के दृश्य संकेत को। अष्टाध्यायी के सूत्र संश्लेषण की पूरी प्रक्रिया को बताते हैं। उन्होंने बताया कि मशीन (संगणक) को क्योंकि केवल पदों का ज्ञान है, पदार्थों का नहीं, अतः वह समास का नाम अभी नहीं बता पा रहा जिस पर काम चल रहा है। अगले सत्र में उन्होंने वाल्मीकीय रामायण के श्लोकों का विश्लेषण कर उनके हिन्दी अनुवाद की प्रक्रिया का दिग्दर्शन कराया। इस सत्र के अन्त में डॉ. धर्मवीर जी ने भारतीय कपनी ‘इफोसिस’ के पूर्व अध्यक्ष नारायण मूर्ति के वित्तीय सहायता से संस्कृत शास्त्रों पर काम करने वाले अमेरिकी शेरान पोलक के षड़यंत्रों का पर्दाफाश किया। मोदी के सत्ता में आने के बाद भारत सांस्कृतिक रूप से गुलाम होने से बचा। पूर्व सरकारों ने जहाँ संस्कृत को हटाने का कार्य किया, वहीं अब मोदी जी ने संस्कृत को बढ़ाने की दिशा में कुछ पहल की है। डॉ. धर्मवीर जी की स्पष्टोक्ति ने हम सबको सोचने के लिये मजबूर किया।
अगले दिन श्री चैतन्य जी ने बताया कि व्याकरण के स्तर पर शबद व विन्यास ओर वाक्य संरचना के स्तर पर भारतीय भाषाओं में काफी साखय है-यह जानकर हर्षमिश्रित आश्चर्य हुआ। आपने कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य व भाववाच्य वाले वाक्यों की अनुवाद विधि बताई।
भारतीय संदर्भ में भाषाई दूरियाँ मिटाने के लिये साधन के रूप में आपने व्यावहारिक व्याकरण और तकनीक के उपयोग की बात बताई। उन्होंने इस प्रक्रिया को निम्नलिखित तीन स्तरों पर करने की बात कही-
- पाणिनीय व्याकरण का प्रयोग 2. जन-सहकारी मॉडल 3. कार्य को छोटे-छोटे टुकडों में बाँटकर जिमेदार व्यक्तियों को सौंपना। इस कार्य से होने वाले लाभों को परिगणित करते हुये आपने बताया कि इससेआम भारतीय आदमी सशक्त होगा, भाषा के कारण वह ज्ञान-विज्ञान में पीछे नहीं रहेगा व उदात्त भारतीय मूल्यों से सामान्य जन का परिचय होगा। तदुपरांत संगणक प्रयोगशाला में सबको ले जा कर तत-सबन्धित प्रयोग राये गये जो रोमांचक लगे। लगभग प्रतिदिन सैद्धांतिक कक्षा के बाद प्रायोगिक कक्षा भी कराई गई। अनुवाद की प्रक्रिया में प्रकरण के अनुसार शबदों के अर्थ का निर्धारण करने की विधि बताई गई जो रुचिकर लगी। अंग्रेजी-हिन्दी टाइपिंग कीविधि भी सीखायी गयी। ट्री-बैंक (tree bank) की जानकारी देते हुये बताया गया कि वृक्ष की शाखाओं की तरह वाक्य संरचना व वाक्य-विन्यास में कारक विभक्ति पदों का एक-दूसरे से संबंध होता है जो प्रायोगिक रूप से भी बताया और कराया गया। मशीन द्वारा अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करते समय प्र्रकरणानुसार व्याकरण शबदों के सही अर्थ चुनने की प्रक्रिया बताई गई।
अगले दिनों के सत्रों में बताया गया कि मशीनी अनुवाद करते समय कृदन्त विशेषण, विशेष्य-विशेषण, कारक, विभक्ति, क्रिया विशेषण, आदि का विशेष ध्यान रखना चाहिये। एतद् विषयक प्रयोग भी कराये गये। उत्तर व दक्षिण की भाषाओं में अंतर को रेखांकित करते हुये बताया गया कि ‘ने’ चिह्न का प्रयोग केवल हिन्दी में होता है। साथ ही दक्षिण की भाषाओं में वाक्य का मुखय भाग पहले आता है जबकि उत्तर की भाषाओं में प्रायः बीच में। सभी प्रतिभागियों को संगणक के ‘sysnet’ फाइल के अन्तर्गत एक शबद की विभिन्न अर्थों की सूची में विद्यमान अशुद्धियाँ ठीक करने व अधूरे अर्थों को टाइप करने का कार्यभार सौंपा गया जो अत्यन्त रोचक लगा। साथ ही ‘विभक्ति’ फाइल के अन्तर्गत विभक्ति युक्त वाक्यों के उदाहरणों को पढ़कर विभक्ति के सामान्य नियम बनाने को कहा गया जो अत्यन्त बुद्धिगय लगा। सैद्धान्तिक कक्षा में बताया गया कि वाक्य में वैयाकरण की दृष्टि से सबसे मुखय क्रि या (धातु)होता है, मीमांसको की दृष्टि में तिङ् मुखय होता और नैयायिकों के मतानुसार प्रथमा (कर्त्ता) मुखय होता है। सभी कारकों का क्रिया के साथ सीधा संमबंध होता है।
23 मई को समापन सत्र में चैतन्य जी ने बताया कि अष्टाध्यायी में पाणिनी ने कमप्यूटर प्रोगाम की तरह ही प्रोग्रामिंग की है-यह जानकर सबने आत्मगौरव का अनुभव किया। तदुपरांत अनुभव श्रावण व धन्यवाद ज्ञापन कार्यक्रम को प्रारमभ करते हुये आ. सत्यजित् जी ने कहा कि इस संगोष्ठी से ट्रिपल आई.टी. जैसी अग्रणी संस्था का परिचय गरुकुल के ब्रह्मचारियों को भी मिला, जिससे उनमें आत्म-विश्वास का स्फुरण हुआ और वे परोपकारिणी सभा की व्यवस्था का महत्त्व समझे। आपने संगोष्ठी के संयोजक और उनके सभी सहयोगियों को हार्दिक धन्यवाद देते हुए कहा कि सिर्फ स्तरीय भाषाविद् लोगों क ो जोड़ने से ही यह कार्य शुद्धतापूर्वक पूर्ण होगा। आपने कहा वेदार्थ समस्या का समाधान अभी कप्यूटर से नहीं हो सकेगा। तत्पश्चात् डॉ. धर्मवीर जी ने आयोजकों को धन्यवाद देते हुये कहा कि-मुखिया ठीक होता हैतो सारी व्यवस्था ठीक होती है। ऋषि उद्यान गुरुकुल की सुव्यवस्था का मल कारण आचार्य सत्यजित् जी हैं। आपने कहा कि जिसके पास ज्ञान है या ज्ञान जिसे पहले प्राप्त होता है, दुनिया में जीत उसी की होती है। देशाटन व संगोष्ठी आदि से अंदर से प्रेरणा मिलती है कि हम कर क्या सकते हैं। लक्ष्य यदि अच्छा है तो बाकी कमियों का कोई अर्थ नहीं। चैतन्य जी ने सबका आभार व्यक्त किया।
इस अनुभव के वृतान्त में प्रिय पुलकित दिलीप वेलाणी जी की चर्चा के बिना चर्चा अधूरी रहेगी। आप आर्य समाज के उद्भट विद्वान्, प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु के दौहित्र हैं और ट्रिपल आई.टी.के अति मेधावी छात्र हैं। 23 मार्च 2016 को आपको ट्रिपल आई.टी. के छात्रों के लिये सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार-‘बेनियान पुरस्कार’ से पुरस्कृ त किया गया, जिसे जानकर हम सभी आर्य बन्धु गौरवान्वित हुये। यात्रा समाप्ति तक इनका हार्दिक सहयोग और प्रेम हम सबको भाव विभोर कर देने वाला रहा। एक दिन संगोष्ठी के सत्रावसानोपरीत ‘आन्ध्रभूमि’ दैनिक के समपादक श्री एम.वी.आर. शास्त्री जी के निमन्त्रण पर हमारे प्रधान जी कुछ ब्रह्मचारियों के साथ उनसे मिलने गये। वहाँ राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याओं पर प्रधान जी के साथ उनकी गहन चर्चा के अन्तर्गत उन्होंने कहा कि वेदों व दयानन्द की शिक्षाओं में ही हमारी सभी समस्यायों का समाधान है। इसी बीच हैदराबाद निवासी पूर्व अभियंता एवं सप्रति इन्जिनियरिंग कॉलेज के संस्थापक आर्यसज्जन श्री सत्यानन्द रेड्डी जी अपने आर्य मित्रों के साथ हमसे मिलने आये। आप ‘वेद विज्ञान वेदिका’ नामक संस्था के माध्यम से ‘वेदों में विभिन्न विज्ञान’ विषय पर शोध पत्र व पुस्तकें प्रकाशित करते हैं। आपकी संस्था का जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय से भी शोध-संबंध है- इस तथ्य को जानकर हम सभी आह्लादित हुये।
ट्रिपल आई.टी. के आर्य सज्जनों द्वारा प्रतिदिन प्रातः देवयज्ञ किया जाता है। जिसमें हम सभी श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन सममिलित हुये। यज्ञोपरांत पूज्य प्रधान जी के अति प्रेरक व ज्ञानवर्धक प्रवचनों से हम सब लाभान्वित हुये। रविवार के दिन अधिक संखया में उपस्थित आर्य सज्जनों को संबोधित करते हुये आपने कहा कि मानव मात्र के लिये वैदिक धर्म ऐच्छिक नहीं अपितु अनिवार्य है, जिसका पालन करने से लाभ और न करने से हानि होती है तथा धर्म का केाई विकल्प नहीं है। पूज्य आ. सत्यजित् जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि मानव जीवन की सार्थकता वेदानुसार आचरण करने में ही है। जो धर्मपूर्वक कमायेगा और दान देगा-उसमें धार्मिक गुण आयेंगे ही।
12 मई को अति विनम्र व सेवाभावी अभियंता सौरभ जी की पत्नी अमृता जी का आचार्य द्वय की उपस्थिति में आचार्या नीरजा जी द्वारा अत्यंत श्रद्धापूर्वक सीमन्तोनयन संस्कार किया गया, जिसमें हम सभी सममिलित होकर आनन्दित हुये।
21 मई रविवार को आचार्यद्वय के प्रेरक प्रवचनोपरांत महाराष्ट्र वाले स्वामी श्रद्धानन्द जी के सुयोग्य शिष्य और कमप्यूटर वैज्ञानिक श्री डॉ. हात्रे के वेद और महर्षि दयानन्द के विचारों को वैज्ञानिकों तक पहुँचाने के जीवंत अनुभव को सुनकर हम सभी भाव विह्वल हो गये।
इस यात्रा के अंतिम दो दिन स्थानीय दर्शनीय स्थलों व गुरुकुलों के भ्रमण के लिये निश्चित किये गये थे। इस क्र म में 24 मई को हम हैदाराबाद स्थित सुप्रसिद्ध चारमीनार देखने गये। शिया शासक कुली कुतुबशाह द्वारा 16 वीं शताबदी में निर्मित इस भवन के चारों किनारों पर एक-एक अतिसुंदर नक्काशीदार मीनार बने हुये हैं।
तदुपरांत हम हैदाराबद का प्रसिद्ध 1951 में स्थापित सालारजग संग्रहालय देखने गये जो भारत के बड़े एवं सुव्यवस्थित संग्रहालयों में से एक है। संग्रहालय में कुतुबशाही व निजामशाही राजाओं की वस्तुओं के संग्रह के अतिरिक्त पाश्चात्य यूरोपीय, मध्यपूर्व, सुदूर पूर्व के देशों तथा भारतीय मौर्यवंश से लेकर मुगल वंश तक की कलाकृत्तियों, मूर्तियों का संग्रह है। संग्रहालय स्थित यूजिकल घड़ी को देखकर हम बहुत आनन्दित हुये। तत्पश्चात् हम बिरला साइंस यूजियम ‘संग्रहालय’ देखने गये। जहाँ विज्ञान के अजूबों से हम रूबरू हुये। संग्रहालय स्थित अनन्त गहराई वाला कुआं देखकर हम आश्चर्य चकित रह गये। पुनः बिरला मंदिर गये।
2 जुलाई को हम प्रातः 5.00 बजे बस द्वारा हमारे सहपाठी ब्र. सोमशेखर जी के भाव भरे निमंत्रण पर शादनगर स्थित उनके गृह पर पहुँचकर उनके परिवार द्वारा आयोजित अग्निहोत्र यज्ञ में समिलित हुये। आर.एस.एस. से जुडे उनके परिवार का हमारे प्रति प्रेम और सेवा का व्यवहार सदा स्मरणीय रहेगा। तदुपरांत हम गोलकुण्डा का किला देखने गये हिन्दू राजाओं द्वारा निर्मित इस किले पर 16 वीं शताबदी में छल से यवन कुतुबशाह ने कबजा कर लिया था। इस किले में मानव के अद्भुत प्रयास का दर्शन कर हम रोमाचित हो गये। किले की वास्तुकला की प्रमुख विशेषता संवाद प्रेषित करने में प्रतिध्वनि के उपयोग की है।
25 मई को हम बस द्वारा आ. उदयनाचार्य द्वारा स्थापित व संचालित, ग्राम-पिचिपेड जिला मेदक स्थित निगम-नीडम (वेद गुरुकुल) गए, जहाँ गुरुकुल के आचार्य उदयनाचार्य ने हम सबका भावभरा स्वागत किया। तेलंगाना राज्य में आर्ष पाठ्यक्रम वाले गुरुकुल के सुयोग्य आचार्य और ब्रह्मचारियों से मिलकर हम सब को संतोष का अनुभव हुआ। इसके पश्चात् हम दयानन्द नगर, टी मांदापुर स्थित आर्ष वैदिक कन्या गुरुकुल गये। जहाँ की प्रधानाचार्या सुनीति जी ने हमारा स्वागत किया। आचार्या जी ने तेलंगाना में ईसाई मिशनरियों द्वारा कराये जा रहे धर्मान्तरण पर चिंता व्यक्त की और तीव्र वैदिक प्रचार कार्य करने का संकल्प लिया। तत्पश्चात् हम आर्ष गुरुकुल न्यास वड्लूर गये जहाँ स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी के साथ हमारे प्रधान जी का विचार-विमर्श हुआ। प्रधान जी ने स्वामी जी द्वारा आर्ष पाठ्यक्रम समाप्त कर दिये जाने पर अत्यन्त खेद व्यक्त किया। वहाँ से हम ट्रिपल आई.टी. लौट आये। शीघ्र तैयार हो सांय 6.30 बजे रेलगाड़ी से अजमेर के लिये प्रस्थान किया। इस पूरी यात्रा में आ. डॉ. धर्मवीर जी और आचार्य सत्यजित् जी हमारे सदा साथ रहे, जिनके मार्गदर्शन व सुव्यवस्था में हमें कोई कष्ट नहीं हुआ। जहाँ आचार्य जी के अद्भुत प्रबन्ध कौशल से हमें बहुत कुछ सीखने को मिला वही आ. डॉ. धर्मवीर जी की अद्भुत ज्ञान चर्चा से हमारी शंकाओं का निवारण व सैद्धान्तिक ज्ञान की अभिवृद्धि हुई। अंत में सबके प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जिनका सहयोग हमें प्राप्त हुआ।
– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर