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HADEES : Crime and Punishment (QasAmah, QisAs, HadUd)

Crime and Punishment (QasAmah, QisAs, HadUd)

The fourteenth, fifteenth, and sixteenth books all relate to the subject of crime: the forms and categories of crime, the procedure of investigating them, and the punishments resultant from having committed them.

Muslim fiqh (law) divides punishment into three heads: hadd, qisAs, and ta�zIr.  Hadd (pl. HadUd) comprises punishments that are prescribed and defined in the QurAn and the HadIs.  These include stoning to death (rajm) for adultery (zinA); one hundred lashes for fornication (QurAn 24:2-5); eighty lashes for slandering an �honorable� woman (husun), i.e., accusing her of adultery; death for apostatizing from Islam (irtidAd); eighty lashes for drinking wine (shurb); cutting off the right hand for theft (sariqah, QurAn 5:38-39); cutting off of feet and hands for highway robbery; and death by sword or crucifixion for robbery accompanied by murder.

The law also permits qisAs, or retaliation.  It is permitted only in cases where someone has deliberately and unjustly wounded, mutilated, or killed another, and only if the injured and the guilty hold the same status.  As slaves and unbelievers are inferior in status to Muslims, they are not entitled to qisAs according to most Muslim faqIhs (jurists).

In cases of murder, the right of revenge belongs to the victim�s heir.  But the heir can forgo this right and accept the blood-price (diyah) in exchange.  For the death of a woman, only half of the blood-price is due.  The same applies to the death of a Jew or a Christian, but according to one school, only one-third is permissible in such cases.  If a slave is killed, his heirs are not entitled to qisAs and indemnity; but since a slave is a piece of property, his owner must be compensated with his full value.

The Muslim law on crime and punishment is quite complicated.  Though the QurAn gives the broad outline, the HadIsalone provides a living source and image.

author : ram swarup

हदीस : भेंट-उपहार

भेंट-उपहार

कोई भी चीज जो भेंट या दान में दे दी जाय, वापस नहीं ली जानी चाहिए। उमर ने अल्लाह के रास्ते पर (यानी जिहाद के लिए) एक घोड़ा दान में दे दिया था। उसने देखा कि उसका घोड़ा दान पाने वाले के हाथों पड़ कर क्षीण हो रहा है, क्योंकि वह व्यक्ति बहुत गरीब था। उमर ने उसे वापस खरीदने का विचार किया। मुहम्मद ने उससे कहा कि ”उसे अब वापस मत खरीदो ….. क्योंकि वह जो दान को वापस लेता है, उस कुत्ते की तरह है जो अपनी उलटी निगलता है“ (3950)।

author : ram swarup

 

सचमुच वे बेधड़क थे

सचमुच वे बेधड़क थे

हरियाणा के श्री स्वामी बेधड़क आर्यसमाज के निष्ठावान् सेवक और अद्भुत प्रचारक थे। वे दलित वर्ग में जन्मे थे। शिक्षा पाने का प्रश्न ही नहीं था। आर्यसमाजी बने तो कुछ शिक्षा भी प्राप्त कर ली। कुछ समय सेना में भी रहे थे। आर्यसमाज सिरसा हरियाणा में सेवक के रूप में कार्य करते थे। ईश्वर ने बड़ा मीठा गला दे रखा था। जवानी के दिन थे। खड़तालें बजानी आती थीं। कुछ भजन कण्ठाग्र कर लिये। एक बार सिरसा में श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज का शुभ आगमन हुआ। बेधड़कजी ने कुछ भजन सुनाये। श्री यशवन्तसिंह वर्मा टोहानवी का भजन-

सुनिये दीनों की पुकार दीनानाथ कहानेवाले तथा है आर्यसमाज केवल सबकी भलाई चाहनेवाला।

बड़ी मस्ती से गाया करते थे। स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज गुणियों के पारखी थे। आपने श्री बेधड़क के जोश को देखा, लगन को देखा, धर्मभाव को देखा और संगीत में रुचि तथा योग्यता को देखा। आपने बेधड़कजी को विस्तृत क्षेत्र में आकर धर्मप्रचार करने के लिए प्रोत्साहित किया।

बेधड़कजी उज़रप्रदेश, हरियाणा, पञ्जाब, सिंध, सीमाप्रान्त, बिलोचिस्तान, हिमाचल में प्रचारार्थ दूर-दूर तक गये। हरियाणा प्रान्त में विशेष कार्य किया। वे आठ बार देश के स्वाधीनता संग्राम

में जेल गये। आर्यसमाज के हैदराबाद सत्याग्रह तथा अन्य आन्दोलनों में भी जेल गये। संन्यासी बनकर हैदराबाद दक्षिण तक प्रचारार्थ गये। अपने प्रचार से आपने धूम मचा दी।

बड़े स्वाध्यायशील थे। अपने प्रचार की मुनादी आप ही कर दिया करते थे। किस प्रकार के ऋषिभक्त थे, इसका पता इस बात से लगता है कि एक बार पञ्जाब के मुज़्यमन्त्री प्रतापसिंह कैरों ने उन्हें कांग्रेस के टिकट पर एक सुरक्षित क्षेत्र से हरियाणा में चुनाव लड़ने को कहा। तब हरियाणा राज्य नहीं बना था। काँग्रेस की वह सीट खतरे में थी। बेधड़क ही जीत सकते थे।

स्वामी बेधड़कजी ने विधानसभा का टिकट ठुकरा दिया। आपने कहा ‘‘मैं संन्यासी हूँ। चुनाव तथा दलगत राजनीति मेरे लिए वर्जित है। ऋषि दयानन्द ने तो मुझे दलित से ब्राह्मण तथा संन्यासी तक बना दिया। आर्यसमाज ने मुझे ऊँचा मान देकर पूज्य बनाया है और आप मुझे जातिपाँति के पचड़े में फिर डालना चाहते हैं।’’ पाठकवृन्द! कैसा त्याग है? कैसी पवित्र भावना है? जब वे अपने जीवन के उत्थान की कहानी सुनाया करते थे कि वे कहाँ-से-कहाँ पहुँचे तो वे ऋषि के उपकारों का स्मरण करके भावविभोर होकर पूज्य दादा बस्तीराम का यह गीत गाया करते थे-

‘लहलहाती है खेती दयानन्द की’।

इन पंक्तियों के लेखक ने उन-जैसा दूसरा मिशनरी नहीं देखा। लगनशील, विद्वान् सेवक तो कई देखे हैं, परन्तु वे अपने ढंग के एक ही व्यक्ति थे। बड़े वीर, स्पष्टवादी वक्ता, तपस्वी, त्यागी और परम पुरुषार्थी थे। शरीर टूट गया, परन्तु उन्होंने प्रचार कार्य बन्द नहीं किया। खान-पान और पहरावे में सादा तथा राग-द्वेष से दूर थे। बस, यूँ कहिए कि ऋषि के पक्के और सच्चे शिष्य थे।

HADEES : THE �GOD WILLING� CLAUSE

THE �GOD WILLING� CLAUSE

If one includes the proviso �God willing� (InshA AllAh) when taking an oath, the vow must be fulfilled.  SulaimAn (Solomon) had sixty wives.  One day he said, �I will certainly have intercourse with them during the night and everyone will give birth to a male child who will all be horsemen and fight in the cause of Allah.  � But only one of them became pregnant, and she gave birth to a premature child.  �But if he had said InshA� Allah he would have not failed,� observes Muhammad.  In other ahAdIs about the same story, the number of wives increases from sixty to seventy and then to ninety (4066-4070).

author : ram swarup

हदीस : विरासत, भेंट-उपहार, और वसीयतें

विरासत, भेंट-उपहार, और वसीयतें

अगली तीन किताबें हैं ”विरासत की किताब (अल-फराइज), भेंट-उपहार की किताब (अल-हिबात), और वसीयत की किताब (अल-वसीय्या)।“ कई पक्षों में वे परस्पर सम्बद्ध हैं। उनसे निःसृत कानून जटिल हैं और हम यहां उनका उल्लेख-भर करेंगे।

author : ram swarup

पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये

पण्डित भोजदज़जी आगरावाले आगे निकल गये

श्री पण्डित भोजदज़जी आर्यपथिक पश्चिमी पञ्जाब में तहसील कबीरवाला में पटवारी थे। आर्यसमाजी विचारों के कारण पण्डित सालिगरामजी वकील प्रधान मिण्टगुमरी समाज के निकट आ गये।

पण्डित सालिगराम कश्मीरी पण्डित थे। कश्मीरी पण्डित अत्यन्त  रूढ़िवादी होते हैं इसी कारण आप तो डूबे ही हैं साथ ही जाति का, इनकी अदूरदर्शिता तथा अनुदारता से बड़ा अहित हुआ है। आज कश्मीर में मुसलमानों ने (कश्मीरी पण्डित ही तो मुसलमान बने) इन बचे-खुचे कश्मीरी ब्राह्मणों का जीना दूभर कर दिया और अब कोई हिन्दू इस राज में-कश्मीर में रह ही नहीं सकता।

पण्डित सालिगराम बड़े खरे, लगनशील आर्यपुरुष थे। आपने बरादरी की परवाह न करते हुए अपने पौत्र का मुण्डन-संस्कार विशुद्ध वैदिक रीति से करवाया। ऐसे उत्साही आर्यपुरुष ने पण्डित

भोजदज़जी की योग्यता देखकर उन्हें आर्यसमाज के खुले क्षेत्र में आने की प्रेरणा दी। पण्डित भोजदज़ पहले पञ्जाब सभा में उपदेशक रहे फिर आगरा को केन्द्र बनाकर आपने ऐसा सुन्दर, ठोस तथा ऐतिहासिक कार्य किया कि सब देखकर दंग रह गये। आपने मुसाफिर1 पत्रिका भी निकाली। सरकारी नौकरी पर लात मार कर आपने आर्यसमाज की सेवा का कण्टकाकीर्ण मार्ग अपनाया। इस उत्साह के लिए जहाँ पण्डित भोजदज़जी वन्दनीय हैं वहाँ पण्डित सालिगरामजी को हम कैसे भुला सकते हैं जिन्होंने इस रत्न को खोज निकाला, परखा तथा उभारा।

HADEES : ABROGATION OF AN OATH

ABROGATION OF AN OATH

Allah Himself allowed abrogation of oaths if need be.  �God has already ordained for you the dissolution of your oaths� (QurAn 66:2).

A vow which is in disobedience to Allah or which is taken for un-Islamic ends is not to be fulfilled.  Muslim jurists differ as to whether a vow taken during the days of ignorance (i.e., before one embraces Islam) is binding or not.  Some hold that such a vow should be fulfilled if it is not against the teachings of Islam.

An oath can be broken, particularly if the oath-taker finds something better to do.  �He who took an oath, but he found something else better than that, should do that which is better and break his oath,� says Muhammad (4057).  Some people once asked Muhammad to provide them with mounts.  Muhammad swore: �By Allah, I cannot provide you a mount.� But immediately after they were gone, he called them back and offered them camels to ride.  Muhammad explained: �So far as I am concerned, by Allah, if He so wills, I would not swear, but if later on, I would see better than it, I would break the vow and expiate it and do that which is better� (4044).

हदीस : रिबा

रिबा

मुहम्मद ने रिबा भी हराम ठहराया, जिसमें सूदखोरी और ब्याज लेना दोनों शामिल हैं। उन्होंने ”ब्याज लेने वाले और देने वाले और उसे दर्ज करने वाले और दोनों (ओर के) गवाहों पर लानत भेजी“ और कहा “वे सब बराबर हैं“ (3881)।

 

यद्यपि मुहम्मद ने ब्याज लेना मना किया, तथापि उन्होंने अबू बकर को मदीना के कैनुका कबीले के पास इस पैगाम के साथ भेजा कि ”अल्लाह को अच्छे सूद पर कर्ज दो।“ वे कुरान (5/12) के उन शब्दों को दोहरा रहे थे जिनमें ”अल्लाह को समुचित कर्ज़ दो“ कहा गया है। यहूदियों ने देने से इन्कार किया तो उनके भाग्य का निबटारा हो गया।

author : ram swarup

वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे

वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे

आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के नेताओं तथा विद्वानों में श्री पण्डित सीतारामजी शास्त्री कविरंजन रावलपिण्डी का नाम उल्लेखनीय है। आप पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी के साथी-संगियों में से एक थे। अष्टाध्यायी के बड़े पण्डित थे। आपने वर्षों आर्यसमाज के उपदेशक के रूप में आर्य प्रतिनिधि सभा पञ्जाब में कार्य किया। फिर स्वतन्त्र धन्धा करने का विचार आया तो कलकज़ा चले गये। वहाँ भारत प्रसिद्ध वैद्य कविराज विजय रत्नसेन के चरणों में बैठकर कविरंजन की उपाधि प्राप्त करके पहले अमृतसर फिर रावलपिण्डी में औषधालय खोलकर बड़ा नाम कमाया।

आप वेद, शास्त्र, ब्राह्मणग्रन्थों के बड़े मर्मज्ञ विद्वान् थे। अष्टाध्यायी के बड़े प्रचारक थे। यदि कोई कहता कि अष्टाध्यायी का पढ़ना-पढ़ाना अति कठिन है तो उसकी पूरी बात सुनकर उसका

ऐसा युक्तियुक्त उज़र देते कि सुनने वाला सन्तुष्ट हो जाता था।

कविराजजी की कृपा से ही डॉज़्टर केशवदेवजी शास्त्री बन पाये। आपकी प्रेरणा से आर्यसमाज को और भी कई संस्कृतज्ञ प्राप्त हुए। आपने कलकज़ा में अध्ययन करते हुए, वहाँ भी आर्यसमाज

की धूम मचा दी। आपका वहाँ ब्राह्मसमाज के पण्डितों से तथा नेताओं से गहरा सज़्पर्क रहा।

एक समय ऐसा आया कि सारा ब्राह्मसमाज आर्यसमाज में मिलने की सोचने लगा फिर कोई विघ्न पड़ गया। ब्राह्मसमाजियों में आर्यसमाज में विलीन होने का विचार पैदा हुआ तो इसका कारण मुज़्यरूप से कविराज सीतारामजी के प्रयास थे। यह सारी कहानी हम कभी इतिहास प्रेमियों के सामने रखेंगे। सब तथ्य हमने एक लेख में पढ़े थे। वह लेख खोजकर फिर विस्तार से इस विषय पर लिखा जाएगा।

कविराज ने अपनी विद्वज़ा तथा अपनी वैद्यक से आर्यसमाज को बहुत लाभान्वित किया। उन दिनों आर्यसमाज में संस्कृतज्ञ बहुत कम थे। अमृतसर में यह देखा गया कि जब कभी किसी

संस्कार में या किसी समारोह में कविराज जी को बुलाया गया तो आप एकदम सब कार्य छोड़कर अपनी आर्थिक हानि की चिन्ता न करते हुए वहाँ पहुँच जाते। बस, उन्हें आर्यसमाज की सूचना

मिलनी चाहिए। वे शरीर से स्वस्थ थे। जीवन बड़ा नियमबद्ध था।

स्वाध्याय तथा सन्ध्या में प्रमाद करने का प्रश्न ही न था। वे मास्टर आत्माराम अमृतसरी के अभिन्न मित्र थे। वैसे शास्त्रीजी की मित्र-मण्डली बहुत बड़ी थी। उन्हें मित्र बनाने की कला आती

थी।

HADEES : VOWS AND OATHS

VOWS AND OATHS

The twelfth and thirteenth books, on vows (al-nazar) and oaths (al-aiman), respectively, can be treated together.  Muhammad discourages taking vows, for a vow �neither hastens anything nor defers anything� (4020).  Allah has no need of a man�s vows.  A man once took a vow to walk on foot to the Ka�ba, but Muhammad said that �Allah is indifferent to his inflicting upon himself chastisement,� and �commanded him to ride� (4029).

Muhammad also forbids believers to swear by LAt or �UzzA or by their fathers.  �Do not swear by idols, nor by your father,� says Muhammad (4043).  But he allows you to swear by God, something which Jesus forbade.  �He who has to take an oath, he must take it by Allah or keep quiet,� Muhammad says (4038).

author : ram swarup