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इन्हें सोने दें

इन्हें सोने दें

आर्यसमाज धारूर महाराष्ट्र का उत्सव था। श्री पण्डित नरेन्द्रजी हैदराबाद से पधारे। रात्रि में सब विद्वान् आर्यसमाज के प्रधान पण्डित आर्यभानुजी के विशाल आंगन में सो गये। इनमें से एक

अतिथि ऐसा था जिसे रात्रि को अधिक ठण्डी अनुभव होती थी, परन्तु संकोचवश ऊपर के लिए मोटा कपड़ा न माँगा।

प्रातःकाल सब लोग बाहर शौच के लिए चलने लगे तो उस अतिथि का नाम लेकर एक ने दूसरे से कहा-इन्हें भी जगा लो सब इकट्ठे चलें। इसपर पण्डित नरेन्द्रजी ने कहा-ऊँचा मत बोलो,

जाग जाएँगे। जगाओ मत, सोने दो। इन्हें रात को बड़ी ठण्डी लगी। सिकुड़े पड़े थे। मैंने ऊपर शाल ओढ़ा दिया। ये शज़्द सुनकर वह सोया हुआ व्यक्ति जाग गया। वह व्यक्ति इन्हीं पंक्तियों का लेखक था। पण्डित नरेन्द्रजी रात्रि में कहीं लघुशङ्का के लिए उठे। मुझे सिकुड़े हुए देखकर ऊपर शाल डाल दिया। इस प्रकार रात्रि के पिछले समय में अच्छी निद्रा आ गई, परन्तु सोये हुए

यह पता न लगा कि किसने ऊपर शाल डाल दिया है।

पण्डित नरेन्द्रजी ने आर्यसमाज लातूर के उत्सव पर भी एक बार मेरे ऊपर रात्रि में उठकर कपड़ा डाला था, जिसका पता प्रातः जागने पर ही लगा। ऐसी थी वे विभूतियाँ जिनके कारण आर्यसमाज

चमका, फूला और फला। इन्हें दूसरों का कितना ध्यान था!

HADEES : HADUD

HADUD

HadUd, the penal law of Islam, is dealt with in the fifteenth book. The ahAdIs in this book relate to measures of punishment defined either in the QurAn or in the Sunnah.  The punishments include the amputation of limbs for theft and simple robbery; stoning to death for adultery; a hundred stripes for fornication; eighty stripes for falsely accusing a married woman, and also for drinking wine; and death for apostasy, as we have already seen.

हदीस : क़सम तोड़ना

क़सम तोड़ना

जरूरत पड़ने पर खुद अल्लाह ने क़सम तोड़ देने की इज़ाज़त दी है। ”अल्लाह ने पहले ही अपनी कसमें तोड़ देने की तुम्हें इजाज़त दे रखी है“ (कुरान 66/2)।

 

ऐसी प्रतिज्ञा को जिसमें अल्लाह की नाफ़रमानी हो या जो ग़ैर-इस्लामी काम के लिए ली गयी हो, पूरा करना जरूरी नहीं है। मुस्लिम कानून के पंडितों में इस बात को लेकर मतभेद है कि जो प्रतिज्ञा अज्ञान की दशा में (अर्थात् इस्लाम क़बूल करने के पहले) की गई हो वह शिक्षा बाध्यकारी है या नहीं। कई-एक का मत है कि अगर वह प्रतिज्ञा इस्लाम की शिक्षा के खिलाफ न हो, तो उसे पूरा करना चाहिए।

 

कोई भी कसम तोड़ी जा सकती है, विशेषकर तब जब कि क़सम खाने वाला कोई बेहतर काम करना चाहता हो। मुहम्मद कहते हैं-”किसी ने कसम ली, पर उससे कुछ बेहतर करने को पा गया तो उसे वह बेहतर काम करना चाहिए“(4057)। कुछ लोगों ने एक बार मुहम्मद से सवारी पाने की मांग की। मुहम्मद ने कसम खायी-”क़सम अल्लाह की ! मैं तुम लोगों को सवारी नहीं दे सकता।“पर लोगों के चले जाने के फौरन बाद उन्होंने उन लोगों को वापस बुलाया और उनसे सवारी के लिए ऊंट देने का प्रस्ताव किया। मुहम्मद ने समझाया-”जहां तक मेरा सम्बन्ध है, अल्लाह की कसम ! अगर अल्लाह चाहे तो मैं कसम नहीं खाऊंगा। पर अगर बाद में मैं कोई बात बेहतर समझूंगा, तो मैं ली हुई कसम तोड़ दूंगा और उसका प्रायश्चित करूँगा और जो बेहतर है वह करूँगा (4044)।

author : ram swarup

आर्यों की देवी व देवता

आर्यों की देवी व देवता

स्वामी वेदानन्दजी तीर्थ जब खेड़ाखुर्द (दिल्ली) का गुरुकुल चलाते थे तो सहदेव नाम का एक गठीला, परन्तु जड़बुद्धि युवक उनके पास रहता था। ब्रह्मचारी में कई गुण भी थे। ब्रह्मचारी में

गुरुभक्ति का भाव तब बहुत था और व्यायाम की सनक थी। गुरुकुल के पास एक धनिक कुज़्भकार रहता था। उसे स्वामी वेदानन्दजी से बड़ी चिढ़ थी। चिढ़ का कारण यह था कि वह

समझता था कि आर्यसमाजी देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामीजी चाहते थे कि इस व्यक्ति को आर्यसमाजी बनाया जाए, यह बड़ा उपयोगी सिद्ध होगा। जब ब्रह्मचारी शिक्षा के लिए निकलते तो यह कभी भी किसी को कुछ भी भिक्षा के लिए न देता। उसका एक ही रोष था कि आर्य लोग देवी-देवताओं को नहीं मानते। स्वामी वेदानन्दजी उसे बताते कि माता, पिता, गुरु आचार्य, अतिथि आदि देव हैं, परन्तु ये बातें उसकी समझ में न आतीं।

एक दिन ब्र0 सहदेव भिक्षा के लिए निकला। उसी धनिक कुज़्भकार के यहाँ गया। उसने अपना प्रश्न दोहरा कर भिक्षा देने से इन्कार कर दिया। ब्रह्मचारी ने कहा-‘‘आर्य लोग भी देवी-देवताओं

को मानते हैं।’’ उसने कहा, स्वामी दयानन्दजी का लिखा दिखाओ। ब्रह्मचारी जी ने वैदिक सन्ध्या आगे करते हुए कहा, यह पढ़ो ज़्या लिखा है?

‘ओ3म् शन्नो देवी’ दिखाकर ब्र0 ने कहा देख ‘देवी’ शज़्द यहाँ है कि नहीं। फिर उसने संस्कार-विधि से देवयज्ञ दिखाया तो वहाँ ‘विश्वानि देव’ पढ़कर वह धनिक दङ्ग रह गया। उसने कहा-

‘‘मुझे तो आज ही पता चला कि आर्यसमाज ‘शन्नो देवी’ तथा ‘विश्वानि देव’ को मानता है, परन्तु स्वामी वेदानन्दजी ने मुझे ज़्यों नहीं बतलाया?’’

इस घटना के पश्चात् वह व्यक्ति दृढ़ आर्य बन गया। स्वामीजी का श्रद्धालु तथा गुरुकुल का सहायक बन गया।1

यही ब्रह्मचारी फिर स्वामी अग्निदेवभीष्म के नाम से जाना जाता था।

 

HADEES : DIYAT (INDEMNITY)

DIYAT (INDEMNITY)

Muhammad retained the old Arab practice of bloodwite (4166-4174).  Thus, when a woman struck her pregnant co-wife with a tent-pole, causing her to have a miscarriage, he fixed �a male or female slave of best quality� as the indemnity �for what was in her womb.� An eloquent relative of the woman pleaded for the cancellation of the indemnity, arguing: �Should we pay indemnity for one who neither ate, nor made any noise, who was just Eke a nonentity?� Muhammad brushed aside his objection, saying that the man was merely talking �rhymed phrases like the rhymed phrases of desert Arabs� (4170).

author : ram swarup

हदीस : प्रतिज्ञाएं और क़समें

प्रतिज्ञाएं और क़समें

बारहवीं और तेरहवीं किताबें क्रमशः प्रतिज्ञाओं (अल-नज़र) और क़समों (अल-ऐलान) पर है। यहां हम दोनों का साथ-साथ विचार करेंगे। मुहम्मद प्रतिज्ञाएं करने को नापसन्द करते हैं, क्योंकि प्रतिज्ञा “न तो (किसी काम को) जल्दी पूरा करने करने में मददगार होती और न ही (इसमें) रुकावट बनती है“ (4020)। अल्लाह को किसी आदमी की प्रतिज्ञाओं की जरूरत नहीं। एक शख़्स ने एक बाद प्रतिज्ञा की कि वह पैदल चल कर काबा जायेगा। तब मुहम्मद ने कहा-”अल्लाह इसके प्रति उदासीन है कि कोई अपने ऊपर कष्ट लाद रहा है।“ और ”उसे सवारी पर जाने का हुक्म दिया“ (4029)।

 

मुहम्मद मोमिनों को लात या उज्जा या अपने पिताओं की क़सम खाने से भी मना करते हैं। वे कहते हैं-”बुतों की क़सम मत खाओ और न अपने पिता की“ (4043)। लेकिन वे अल्लाह की क़सम खाने की अनुमति देते हैं, जिसके लिए ईसामसीह ने मना किया था। मुहम्मद कहते हैं कि ”जिसे क़सम खानी हो उसे अल्लाह की क़सम खानी चाहिए“ (4038)।

author : ram swarup

 

शव का दाह-कर्म ही होगा

शव का दाह-कर्म ही होगा

मारीशस में सरकारी नियमानुसार किसी शव का दाह-कर्म नहीं किया जा सकता था। बीसवीं शताज़्दी के आरज़्भ की घटना है कि मारीशस में एक सैनिक टुकड़ी आई। इनमें से किसी की मृत्यु हो गई। नियमानुसार उसे दबाने के लिए कहा गया। आर्यवीर सैनिकों ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने पुलिस की सहायता से शव को भूमि में गाड़ना चाहा, परन्तु ये सैनिक विद्रोह पर तुल गये। सरकार को ललकारा-देखते हैं कि हमारा शव कौन छूता है? सरकार झुक गई। आर्यों की मारीशस में यह पहली बड़ी जीत थी। मारीशस में यह प्रथम दाह-कर्म था।

यही लोग जाते-जाते सत्यार्थप्रकाश की एक प्रति दो-एक मित्रों को दे गये। आर्यसमाज का बीज बोनेवाले यही थे। आज तो- लहलहाती है खेती दयानन्द की।

निश्चय ही ये सब लोग नींव के पत्थर थे। कृतज्ञता इस बात की माँग करती है कि मैं पाठकों को यह स्मरण कराऊँ कि स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज केवल सेनानी के रूप में ही इतिहास

बनानेवाले न थे, अपितु इतिहास के गज़्भीर विद्वान् तथा इतिहास को सुरक्षित करनेवाले भी थे। मारीशस को भारत से जोड़नेवाले, इस द्वीप के महज़्व को समझने व समझानेवाले तथा इसका इतिहास व भूगोल लिखनेवाले वे प्रथम भारतीय विद्वान् व नेता थे। उस दूरदर्शी साधु की दृष्टि ने तब मारीशस का महज़्व जाना जब भारत के सब राजनैतिक नेता गहरी नींद में सोये हुए थे। यह उपर्युक्त सब सामग्री उन्हीं की पुस्तक से ली गई है।

HADEES : A MUSLIM AND THE DEATH PENALTY

A MUSLIM AND THE DEATH PENALTY

A Muslim who �bears testimony to the fact that there is no God but Allah, and I [Muhammad] am the Messenger of Allah,� can be punished with the death penalty only if he is a married adulterer, or if he has killed someone (i.e., someone who is a Muslim, according to many jurists), or if he is a deserter from Islam (4152-4155).  The translator tells us that there is almost a consensus of opinion among the jurists that apostasy from Islam must be punished with death.  Those who think such a punishment is barbarous should read the translator�s justification and rationale for it (note 2132).

author : ram swarup

हदीस : मुहम्मद की आखि़री वसीयत

मुहम्मद की आखि़री वसीयत

एक जुमेरात को जब उनकी बीमारी भयानक हो उठी, तो मुहम्मद ने कहा-“मैं तीन बातों के बारे में वसीयत करता हूं। बहुदेववादियों को अरब के इलाक़े से निकाल बाहर करो, विदेशी प्रतिनिधियों की वैसी ही मेज़बानी करो जैसी मैं करता रहा हूं।“ तीसरी बात हदीस सुनाने वाला भूल गया (4014)।

 

मुहम्मद अपने आखि़री क्षणों में एक वसीयत भी लिखना चाहते थे। उन्होंने लिखने के उपकरण मांगते हुए कहा-“आओ, मैं तुम्हारे लिए एक दस्तावेज लिख जाता हूं। उसके बाद तुम गुमराह नहीं होंगे।“ लेकिन उमर ने, जो वहां मौजूद थे, कहा कि लोगों के पास कुरान पहले से ही है। उमर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि ”अल्लाह की किताब हमारे लिए काफ़ी है“, और मुहम्मद को उस नाजुक हालत में परेशान नहीं करना चाहिए। जब उनके बिस्तर के इर्द-गिर्द एकत्र लोग आपस में वाद-विवाद करने लगे तो मुहम्मद ने उनसे कहा-”उठो और बाहर चले जाओ“ (4016)।

 

मुमकिन है कि उमर मृतप्राय व्यक्ति के प्रति सच्ची संवेदना से भर उठे हों। लेकिन बाद में अली के समर्थकों ने दावा किया कि मुहम्मद अपनी आखिरी वसीयत में अली को अपना वारिस बनाना चाहते थे और उमर ने अबू बकर से सांठ-गांठ करके एक गंदी चाल द्वारा उन्हें ऐसा करने से रोक दिया।

author : ram swarup

 

1मारीशस में आर्यसमाज

1मारीशस में आर्यसमाज

जब सैनिक विद्रोह पर तुल गये पूज्यपाद स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने लिखा है, ‘‘मारीशस

में आर्यसमाज की स्थापना उसी भाँति हुई जैसे हवा कहीं से किसी बीज को उड़ाकर ले-जाए और किसी दूर की भूमि पर जा पटके और वह बीज वहाँ ही उग आये।’’ मारीशस में आर्यसमाज का बीज बोने और उसे अंकुरित करनेवाले महारथी थे-श्री रामशरणजी मोती, वीर खेमलालजी वकील, श्री केहरसिंह (गाँव चिदा, जिला फिरोज़पुर, पञ्जाब), श्रीरामजीलाल तथा श्री चुन्नीलाल आदि (चीमनी ज़िला हिसार, हरियाणा के) श्री लेखरामजी (आदमपुर गाँव, ज़िला हिसार, हरियाणा), श्री हरनाम सिंह (झज्झर, हरियाणा के), श्री मंसासिंहजी जालन्धर, ज़िला पञ्जाब के तथा श्री गुरप्रसाद गोपालजी आदि मारीशस-निवासी थे।

श्री रामशरणजी मोती ने पञ्जाब से कुछ पुस्तकें मँगवाई थीं। उनमें रद्दी में आर्यपत्रिका लाहौर के कुछ पन्ने थे। इन्हें पढ़कर वे प्रभावित हुए। उस दुकानदार से उन्होंने ‘आर्यपत्रिका’ का पता

लगाया। इस पत्रिका को पढ़ते-पढ़ते वे आर्यसमाजी बन गये। साहस के अङ्गारे वीर खेमलालजी के आर्य बनने की कहानी विचित्र है। एक सैनिक टोली मीराशस आई। उनमें कुछ आर्यपुरुष

भी थे। उनकी बदली हो गई। जाते-जाते वे कुछ पुस्तकें वहीं दे गये। श्री भोलानाथ हवलदार एक सत्यार्थप्रकाश की प्रति श्री खेमलाल को दे गये।

श्री जेमलाल सत्यार्थप्रकाश पढ़कर दृढ़ आर्य बन गये। श्री रामशरण मोती ने रिवरदी जाँगील में आर्यसमाज का आरज़्भ किया तो ज़ेमलालजी ने मारीशस की राजधानी पोर्ट लुइस व ज़्यूर

पाइप में वेद-ध्वजा फहरा दी। पोर्ट लुइस के आर्यपुरुष एक होटल में एकत्र होते थे। ये लोग पाखण्ड-ज़ण्डन खूब करते थे। पोप शज़्द तो सत्यार्थप्रकाश में है ही। वीतराग स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने लिखा है कि इन धर्मवीरों ने पोप के अनुयायियों के लिए ‘पोपियाँ’

शज़्द और गढ़ लिया।

मेरी पाठकों से, आर्य कवियों से व लेखकों से सानुरोध प्रार्थना है कि मारीशस के उन दिलजले दीवानों की स्मृति को स्थिर बनाने के लिए पोप के चेलों के लिए ‘पोपियाँ’ शज़्द का ही प्रयोग किया करें। इस शज़्द को साहित्य में स्थायी स्थान देना चाहिए। अभी से गद्य के साथ पद्य में भी इस अद्भुत शज़्द के प्रयोग का आन्दोलन मैं ही आरज़्भ करता हूँ-

विश्व ने देखा कि पोपों के सभी गढ़ ढह गये।

पोप दल और पोपियाँ सारे बिलखते रह गये॥

वेद के सद्ज्ञान से फिर लोक आलोकित हुआ।

मस्तिष्क मन मानव का जब फिर धर्म से शोभित हुआ॥