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HADEES : SELF-CONFESSED ADULTERY

SELF-CONFESSED ADULTERY

There are some gruesome cases.  A fellow named MA�iz came to Muhammad and told him that he had committed adultery.  He repeated his confession four times.  Confessing four times stands for the four witnesses who are required to testify in case of adultery.  Upon finding that the man was married and also not mad, Muhammad ordered him to be stoned to death.  �I was one of those who stoned him,� says JAbir b. �Abdullah, the narrator of this hadIs (4196).

After this incident Muhammad harangued his followers: �Behold, as we set out for JihAd in the cause of Allah, one of you lagged behind and shrieked like the bleating of a male goat, and gave a small quantity of milk.  By Allah, in case I get hold of him, I shall certainly punish him� (4198).  The translator explains that by the metaphor of goat and milk, the Prophet means sexual lust and semen.

Similarly, a woman of GhAmid, a branch of Azd, came to Muhammad and told him that she had become pregnant as a result of fornication.  She was spared till she had given birth to her child.  An ansAr took the responsibility of suckling the infant and �she was then stoned to death� (4025).  Another hadIs tells us how it was done.  �She was put in a ditch up to her chest and he [Muhammad] commanded people and they stoned her� (4206).  Other traditions tell us that the Prophet himself cast the first stone.

author : ram swarup

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०

सच्ची रामायण का खंडन भाग-२०
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*- कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पिछले लेख में हमने *भगवान श्रीराम* पर किये ६ आक्षेपों का खंडन किया।अब आगे के आक्षेपों में पेरियार  साहब के आक्षेपों का स्पष्टीकरण और शब्द प्रमाण ललई सिंह यादव ने *”सच्ची रामायण की चाबी”*में दिया है।हम दोनों को साथ में उद्धृत करके उनकी आलोचना कर रहे हैं।पाठकगण हमारी समीक्षा पढ़कर आनंद उठायें।आगे-
*आक्षेप-७-* उसने शोक प्रकट करते हुए अपनी माता से कहा था कि ऐसा प्रबंध किया गया है  कि मुझे राज्य से हाथ धोना पडेंगा ।राजवंशीय भोग विलास एवं स्वादिष्ट मांस की थालियां छोड़कर मुझे वन में जाना होगा। मुझे वनवास जाना होगा और वन के कंद मूल खाने पड़ेंगे। (अयोध्या कांड अध्याय  २०)
*आक्षेप-८-* राम ने भारी हृदय से अपनी माता व स्त्री से कहा था कि जो गद्दी मुझे मिलनी चाहिए थी वह मेरे हाथों से निकल गई और मेरे वनवास के जाने के लिए प्रबंध किया गया है।(अयोध्याकांड २०,२६,१४)
*आक्षेप-९-* राम ने लक्ष्मण के पास जाकर पिता दशरथ को दोषी तथा दंडनीय बताते हुए कहा -“क्या कोई ऐसा भी मूर्ख होगा जो अपने उस पुत्र को वनवास दे जो सब है उस की आज्ञाओं का पालन करता रहा?”(अयोध्याकांड अध्याय ५३)
इसका स्पष्टीकरण देते हुये ललई सिंह ने वाल्मीकीय रामायण सर्ग २०/२८,२९ का प्रमाण देकर लिखा है कि श्रीराम ने अपनी माता से कहा कि -” मैं तो दंडकारण्य जाने को तैयार हूं फिर इस आसन से क्या सरोकार अब तो मेरे लिए बिस्तर मुनियों वाले आसन का समय उपस्थित हुआ है अब मैं सभी सांसारिक लोगों का त्याग करके 14 वर्ष तक कंदमूल खाते हुए मुनियों के साथ रह कर मुनियों के साथ जीवन बिताऊंगा।”
स्पष्टीकर :- सांसारिक भोग का अर्थ है राजवंशीय भोग विलास और स्वादिष्ट मांस की थालियां।
*समीक्षा-*
१:- पेरियार साहब लोगों और तथ्यों को तोड़ मरोड़ का आक्षेप लगाने की कला में निपुण हैं। कृपया बताइए श्री राम ने शोक प्रकट करते हुए कहा यह कौन से शब्दों का अर्थ है रामायण में तो शोक प्रकट करना लिखा ही नहीं है अपितु रामायण में तो लिखा है कि राज्य अभिषेक की घोषणा के समय एवं वनवास जाते समय श्री राम के मुख्य मंडल पर कोई विकार नहीं आया हम पिछले आक्षेप ६ के उत्तर में यह प्रमाण दे चुके हैं (अयोध्याकांड १९/३२,३३)।
ललई सिंह की भी परीक्षा कर लेते हैं:-
देखिये,अयोध्याकांड सर्ग २०
देवि नूनं न जानीषे महद् भयमुपस्थितम् ।
इदं तव च दुःखाय वैदेह्या लक्ष्मणस्य च ॥ २७ ॥
श्रीराम ने देनी कौसल्या से कहा- ‘देवि ! निश्चितही तुमको पता नहीं कि तुमको महान भय उपस्थित हुआ है।इस समय मैं जो बात बताने वाला हूं वह सुनकर तुमको, सीताकोऔर लक्ष्मणको भी दुःख होगा, तथापि मैं बताऊंगा॥२७॥
गमिष्ये दण्डकारण्यं किमनेनासनेन मे ।
विष्टरासनयोग्यो हि कालोऽयं मामुपस्थितः ॥ २८ ॥
अब तो मैं दण्डकारण्य को जाऊंगा, इसलिये ऐसे बहुमूल्य आसनों की मुझे क्या आवश्यकता है ? अब मेरे लिये  कुश की चटाई पर बैठने का समय आया है ॥२८॥
चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजने वने ।
कन्दमूलफलैर्जीवन् हित्वा मुनिवदामिषम् ॥ २९ ॥
मैं राजभोग्य वस्तुओं का त्याग करके मुनियों के समान कंद, मूल और फलों से जीवन-निर्वाह करते हुये चौदह वर्षों तक निर्जन वनमें निवास करूंगा ॥२९॥
भरताय महाराजो यौवराज्यं प्रयच्छति ।
मां पुनर्दण्डकारण्यं विवासयति तापसम् ॥ ३० ॥
महाराज युवराज पद भरतको दे रहे हैं और मुझे तपस्वी बनाकर दण्डकारण्य जाने की आज्ञा दी है॥३०॥
कहिये महाशय! श्लोक २९ में तो केवल इतना लिखा है कि श्री राम ने देवी कौशल्या को वनवास जाने का समाचार दिया यहां कहीं भी नहीं लिखा कि श्रीराम ने शोक प्रकट किया। हां, श्रीराम ने यह अवश्य कहा कि यह बात सुनकर कौशल्या लक्ष्मण और सीता को दुख अवश्य होगा।
श्लोक २९  में श्री राम कहते हैं कि राजवंशीय भोग त्याग कर मुझे ऋषि मुनियों की तरह कंद मूल और फल खाने होंगे। यहां  पर स्वादिष्ट मांस की थालियां यह अर्थ कहां से उठा लाए?शायद कुंभकर्ण को उठाने के लिये राक्षसों ने लाये होंगे-उसके धोखे में श्रीराम पर आरोप लिख दिया। प्रतीत होता है कि “आमिष” से शब्द से आपको भ्रम हुआ होगा। आपने मान रखा है कि आमिष का अर्थ हर जगह मांस ही होगा परंतु यह सत्य नहीं है आमिष का अर्थ राजसी भोग भी होता है। और यहां पर आम इसका यही अर्थ रहना समीचीन है। देखिये,इसी सर्ग में कौसल्या देवी श्रीराम को लड्डू,खीर आदि देती हैं,देखो-
देवकार्यनिमित्तं च तत्रापश्यत् समुद्यतम् ।
दध्यक्षतघृतं चैव मोदकान् हविषस्तथा ॥ १७ ॥
लाजान् माल्यानि शुक्लानि पायसं कृसरं तथा ।
समिधः पूर्णकुम्भांश्च ददर्श रघुनन्दनः ॥ १८ ॥
रघुनंदन ने देखा कि वहां देवकार्यके लिये(अग्निहोत्र) बहुत सी सामग्री संग्रह करके रखी हुई थी।दही, अक्षत, घी, मोदक, हविष्य, धान्य की लाही, (शुभ्र) सफेद माला, खीर, खिचडी, समिधा और भरे हुयेकलश – ये सब वहां दृष्टिगोचर हुये ॥१७-१८॥
श्रीराम ने इनको ही “आमिष” खाने से मना किया और कहा कि मैं इनको नहीं खा सकता;अब तो केवल मैं कंद-मूल-फल का ही सेवन कर सकता हूं।अब प्रश्न है कि वहां तो मांस था ही नहीं तो श्रीराम आमिष किसे कह रहे हैं?देखिये,आमिष शब्द के कई अर्थ हैं जिसमे एक अर्थ है– राजभोग ! देखिये— मेदिनी कोष – आकर्षणेपि पुन्सि स्यादामिषं पुन्नपुन्सकम् ! भोग्य वस्तुनि संभोगेप्युत्कोचे पललेपि च !! —यहा भोग्यवस्तु भी आमिष शब्द का अर्थ बतलायी गयी है और वह भोग्य वस्तु है– खीर तथा लड्डू आदि !उसे ही श्रीरामने आमिष कहकर नहीं खाया।अतः सिद्ध है कि श्रीराम मांसाहार न तो पहले करते थे न बाद में।दरअसल उस समय आर्य मांसाहार करते ही न थे।
यह वचन भी उन्होंने शमभाव में कहा है शोक में नहीं। इससे सिद्ध है कि श्री राम पर मांस भक्षण, शोक करने ,भारी हृदय से राज्य छिनने की बात कहनेके आरोप मिथ्या हैं शोक तो अयोध्यावासी, भरत, कौसल्या, दशरथ ,लक्ष्मण, सीता आदि ने व्यक्त किया था श्रीराम तो संभव में स्थित थे।स्पष्टीकरण मैं ललई सिंह ने स्वादिष्ट मांस की खा लिया जो लिखा है वह पूर्णतः गलत है।
ललई सिंह ने जो उत्तरकांड ४२/१७-२२का प्रमाण देकर श्रीराम का मद्यपान,अप्सराओं नृत्य आदि लिखा है,वो उत्तरकांड के प्रक्षिप्त होने से अप्रामाणिक है। अयोध्याकांड २६/२१-२३ में श्रीराम का मां सीता को वनवास की सूचना देना लिखा है।आपके दिये उद्धरण में आक्षेप लायक कुछ नहीं है।यहां श्रीराम कोई शोक नहीं कर रहे,केवल सूचना दे रहे हैं।हां,आपने अयोध्याकांड सर्ग ५३/१०उद्धृत किया है कि,”हे लक्ष्मण! संसार में ऐसा कौन अपढ़(मूर्ख)मनुष्य भी भला कौन होगा -जो अपनी स्त्री के लिये मेरे जैसे आज्ञाकारी पुत्र को त्याग देगा?”इसका स्पष्टीकरण यह है कि यह श्रीराम के मूलविचार नहीं थे। इस सर्ग के
श्लोक ६सेश्लोक २६ तक श्रीरामचद्रने जो बातें कही हैं वो लक्ष्मणकी परीक्षा लेने के लिये और उनको अयोध्या में वापस भेजने के लिये कही हैं,वास्तविकता में उनकी ऐसी मान्यता न थी।यही बात यहां सब(व्याख्याकारों) टीकाकारों ने स्वीकार की है। अतः श्रीराम के ऊपर यहां कोई आप सेव नहीं हो सकता है कि कैकेयी, भरत,दशरथ आदि के प्रति श्री राम की ऐसी भावना नहीं थी यह हम आगे स्पष्ट करेंगे।
*आक्षेप-१०-* इसका सार है कि श्रीराम ने अनेक स्त्रियों से अपने ऐंद्रिक विषयों की तृप्ति के लिये विवाह किया।यहां तक कि नौकरों की स्त्रियों को भी न छोड़ा।मन्मथ दातार आदि अपने साक्षियों का उल्लेख करके यह आक्षेप किया है।
आइटम नं ९ के शीर्षक से ललई सिंह ने इसके स्पष्टीकरण में निम्न प्रमाण दिये हैं,वे संक्षेप में लिखते हैं:-
१:-विमलसूचरि रचित पउमचरिउ में सुग्रीव का रामजी को १३ कन्यायें भेंट करना।उत्तरचरित में लक्ष्मण की १६००० और राम की ८००० पत्नियां लिखी हैं।
२:-गुणभद्र कृत उत्तरपुराण में लक्ष्मण की १६००० और राम की ८००० रानियों का उल्लेख।
३:-भुषुंडि रामायण में सहस्रों पत्नियां,खोतानी रामायण में सीता का राम लक्ष्मण दोनों की स्त्री होनाइत्यादि।
४:- कामिल बुल्के की रामकथा का संदर्भ देकर लिखा वाल्मीकि ने अपनी रचना में यत्र-तत्र राम की एक से अधिक पत्नियों का उल्लेख किया है।दो प्रमाण दिये हैं:-
पहला:- अयोध्याकांड सर्ग ८/१२-“हृष्टा खलु भविष्यंति रामस्य परमा स्त्रियः”-मंथरा ने कहा कि राम के अभिषेक के बाद उनकी स्त्रियां फूली नहीं समायेंगी।”
दूसरा-“युद्ध कांड २१/३ समुद्र तट पर प्रयोपवेशन के वर्णन में अनेकधा परम नारियों की भुजाओं से पुष्ट राम की बांह का उल्लेख ।
*समीक्षा-* हम यह डंके की चोट पर कहते हैं कि मां सीता को छोड़कर भगवान श्री राम की और कोई पत्नी नहीं थी। आपने जो चार बिंदुओं में प्रमाण दिए हैं उन से सिद्ध नहीं होता कि श्री राम की एक से अधिक पत्नियां थी सबसे पहले तो पउमचरिउ, उत्तरपुराण,भुषुंडि रामायण आदि  नवीन ग्रंथों का हम प्रमाण नहीं मानते क्योंकि यह सब अनार्ष होने से अप्रमाणिक हैं। वैसे भी इनमेंजोे 16000 और 8000 रानियां होना असंभव गप्पें भरी पड़ी हैं। हमें केवल वाल्मीकीय रामायण आर्ष होने प्रामाणिक है इसीलिए उसके जो आपने दो प्रमाण दिए हैं उन पर विचार करते हैं:-
पहला,अयोध्याकांड ८/१२:-
हृष्टाः खलु भविष्यन्ति रामस्य परमाः स्त्रियः ।
अप्रहृष्टा भविष्यन्ति स्नुषास्ते भरतक्षये ॥ १२ ॥
श्रीरामाके अंतःपुर की परम सुंदर स्त्रियां- सीतादेवी और उनकी सखियां निश्चितही खूब प्रसन्न होंगी और भरतके प्रभुत्वका नाश होने से तेरी बहुयें(और अंतःपुर की स्त्रियां) शोकमग्न होंगी॥१२॥
यहां पर “परमा स्त्रियः” का अर्थ नागेश भट्ट और अन्य टीकाकारों ने “मां सीता और उनकी सहेलियां”किया है।जो कि बिलकुल उपयुक्त है।क्योंकि राम लक्ष्मण की सीता और उर्मिला के सिवा अन्य कियी स्त्री का नाम तक वाल्मीकीय रामायण में नहीं है।
 हम पेरियार कंपनी को चैलेंज देते हैं, कि श्रीराम और लक्ष्मण की एक से अधिक स्त्रियों के नाम वाल्मीकि रामायण से निकालकर दिखायें अन्यथा चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
दूसरा,युद्ध कांड २१/३:-मणिकाञ्चनकेयूर मुक्ताप्रवरभूषणैः ।
भुजैः परमनारीणां अभिमृष्टमनेकधा ॥ ३ ॥
अयोध्या में रहते समय मातृकोटिकी अनेक उत्तम नारियों ने मणि और स्वर्णसे बने केयूर वैसे ही  मोती के श्रेष्ठ आभूषणों से विभूषित अपने कर-कमलों द्वारा स्नान-मालिश आदि करते समय अनेक बार श्रीरामकी इस भुजा को सहलाीे, दबाती थीं॥३॥
यहां “परमनारी” श्रीराम के बचपन की धाइयों एवं परिचारिकाओं का वाचक है,जिन्होंने स्नान एवं मालिश के समय सहलाया व दबाया था।नागेश भट्टादि टीकाकार भी यही अर्थ करते हैं। वरना कौन मानेगा कि रामजी की रानियों ने उनको नहलाया और मालिश की,वो भी उनके बचपन में!क्या बचपन में ही बहुत से विवाह कर रखे थे?
हां,एक बात बताते जाइये।यदि श्रीराम की अनेक स्त्रियां थीं तो वनवास के समय केवल सीताजी को क्यों समाचार दिया? और उन्हींको साथ क्यों ले गये?एक सीता ने वन जाने के लिये इतना हठ किया,यदि ८००० रानियां थीं तो बाकी ७९९९ रानियां तो विलाप करके और वन जाने का हठ करके रामजी की जान खा जातीं।उनका कहीं वर्णन नहीं है।और यदि कई स्त्रियां थीं तो केवल एक सीता के लिये “हे सीते!”,” हाय सीते!” करते क्यों फिरे और रावण से दुश्मनी करली? इतना जोखिम उठाने की जगह खाली हाथ लौट जाते। ८००० में से एक गई तो कौन सा तूफान आ गया? कई सुंदर स्त्रियां रही होंगी,उनमें से एक को मुख्य महिषी बना देते!
  पाठकगण! सिद्ध है कि श्रीराम एकपत्नीकव्रत थे।यहां तक कि *”उत्तरकांड का प्रणेता प्रक्षेप कर्ता भी उनको एकपत्नीकव्रत मानता है।उत्तरकांड लेखक भी मानता है कि श्रीराम ने सीता त्याग के बाद सीता की जगह किसी और को रानी नहीं बनाया,अपितु सीताजी की स्वर्ण प्रतिमाओं का यज्ञ में प्रयोग किया।
श्रीराम आपकी तरह एक से अधिक विवाह करने वाले न थे।जितेंद्रिय एवं संयमी थे।(पेरियार की दो पत्नियां थीं)।
हम पेरियार मंडली को डबल चैलेंज देते हैं कि सीताजी के अलावा वाल्मीकीय रामायण में से रामजी की किसी और पत्नी का नाम भी निकालकर दिखावें अन्यथा मुंह काला करके चुल्लू भर पानी में डूब मरें।
ऐसे इंद्रियविजयी पर विलासी होने का आक्षेप लगाना मानसिक दिवालियापन,हठ और धूर्तपना है।
*अतिरिक्त प्रमाण*:-
श्रीराम के एकपत्नीकव्रत पर कुछ अन्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं:-
१:-उत्तरकांड का प्रणेता और मिलावट कर्ता भी श्रीराम को एकपत्नीकव्रत ही मानता है:-
इष्टयज्ञो नरपतिः पुत्रद्वयसमन्वितः ॥ ७ ॥
न सीतायाः परां भार्यां वव्रे स रघुनन्दनः ।
यज्ञे यज्ञे च पत्‍न्यौर्थं जानकी काञ्चनी भवत् ॥ ८ ॥
यज्ञ पूरा करके रघुनंदन राजा श्रीराम अपने दोनों पुत्रों के साथ रहने लगे।उन्होंने सीता के अतिरिक्त दूसरी किसी भी स्त्रीसे विवाह नहीं किया। प्रत्येक यज्ञमें जब भी धर्मपत्‍नीकी आवश्यकता होती श्रीरघुनाथ सीताकी सुवर्णमयी प्रतिमा बनाकर उसका प्रयोग करते थे ॥७-८॥(उत्तरकांड सर्ग ७७)
२:-आनंदरामायण विलासखंड ७ “अन्य सीतां विनाSन्या स्त्री कौशल्या सदृशी मम। न क्रियते परा पत्नी मनसाSपि न चिंतये।।”
श्रीराम कहते हैं कि सीता को छोड़कर सारी स्त्रियां मेरे लिये मां कौसल्या के समान है।किसी और को पत्नी करना तो दूर,मैं पराई स्त्री के बारे में चिंतन तक नहीं कर सकता।
३:- रामाभिराम टीकाकार श्रीनागेश भट्ट ने अयोध्याकांड ८/१२ में परमा स्त्रियः का यह अर्थ किया है:-
“स्त्रियः इति बहुचनेन सीतासख्या इत्यर्थः” अर्थात् परम स्त्रियों का तात्पर्य सीता जी की सखियों आदि से है।
४:- युद्ध कांड २१/३ का अर्थ श्रीनागेश भट्ट ने में परमनारियों का अर्थ एकपत्नीकव्रत होने से अन्य पत्नियों का अभाव माना है। यहां इसका अर्थ “भुजैरकनेधा स्नपलंकरणादिकालेsभिमृष्टम् स्पृष्टम” यानी उत्तम धाइयां श्रीराम को स्नान कराने,आभूषण धारण कराने आदि के समय अपनी दिव्य तथा अलंकृत भुजाओं से उनकी भुजा का स्पर्श करती थीं,इससे है सिद्ध है कि श्रीराम की सीताजी के सिवा और कोई पत्नी न थीं।
५:
इस विषय पर अभी इतना ही पर्याप्त है।
*आक्षेप-११-* यद्यपि राम के प्रति कैकई का प्रेम संदेह युक्त नहीं था किंतु राम का प्रेम कैकेयी के प्रति बनावटी था।
*आक्षेप-१२-* राम कहकर के प्रति स्वाभाविक एवं सच्चा होने का बहाना करता रहा और अंत में उसने कहकर पर दुष्ट स्त्री होने का आरोप लगाया। अयोध्याकांड ३१,५३
*आक्षेप-१३-* यद्यपि कैकेई दुष्टतापूर्ण पूर्ण तथा नीच विचारों से रहते थे तथापि राम ने उस पर दोषारोपण किया कि वह मेरी माता के साथ नीचता का व्यवहार कर सकती है। (अयोध्या कांड ३१,५३)
*आक्षेप-१४-* राम ने कहा कि कैकेयी ही मेरे बाप को मरवा सकती है इस प्रकार उसने कैकई पर दोषारोपण किया।(अयोध्याकांड ५३)
इस पर ललई सिंह ने स्पष्टीकरण किया है:-
१:-अयोध्याकांड सर्ग ३१/१३,१७ देकर आपने लिखा है कि -“राजा अश्वपति की पुत्री के के राज्य कर अपने दुखिया सौतों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेगी।”
(सा हि राज्यमिदं प्राप्य नृपस्याश्वपतेः सुता ।
दुःखितानां सपत्‍नीनां न करिष्यति शोभनम् ॥ १३ ॥ )[नोट:-ललई जी ने संस्कृत श्लोक नहीं दिया है,यह हम ही हर जगह प्रस्तुत कर रहे हैं।]
२:- अयोध्याकांड ५३/६,७,१४ का प्रमाण देकर लिखा है कि श्रीराम के अनुसार कैकेयी उनके पिता को मरवा देगी,पूरा राज्य हस्तगत कर लेगी इत्यादि।
*समीक्षा-* १:-महाशय आप इस सर्ग का अवलोकन करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि लक्ष्मण श्री राम और सीता का संवाद सुन लेते हैं और श्रीराम से वनवास जाने का आग्रह करते हैं परंतु राम जी उनको कई प्रकार से मनाने की कोशिश करते हैं परंतु अंततः उन्हें लक्ष्मण को साथ वन में जाने की आज्ञा देनी पड़ी।राम लक्ष्मण को अयोध्या में ही रहकर सुमित्रा ,कौशल्या, पिता दशरथ आदि की सेवा के लिए नियुक्त करना चाहते हैं। यह श्लोक श्रीराम ने लक्ष्मण को अयोध्या में रोकने के लिए ही कहा था यह आवश्यक नहीं कि श्रीराम के मन में भी यही भावना थी। देखा जाए तो श्रीराम का यह कथन बिल्कुल भी अनुचित नहीं है ,क्योंकि राज्य मिल जाने के बाद कैकेई अपनी सौतों को पीड़ा पहुंचा सकती थी।मंथरा ने स्वयं कहा था कि कैकेई ने कौशल्या के साथ बहुत बार अनुचित व्यवहार किया था इसे संक्षेप में लिखकर हम कैकेई के चरित्र चित्रण में इसका विस्तार करेंगे और प्रमाणों के साथ सत्य को स्पष्ट करेंगे। फिलहाल इतना जानना चाहिए श्री राम उक्त कथन बिल्कुल भी अनुचित या गलत नहीं है। उनका कथन धरातल की सच्चाई ही प्रकट करता है।
२:- सर्ग 53 का स्पष्टीकरण हम पीछे दे चुके हैं इस सर्ग में श्रीराम ने लक्ष्मण को वापस अयोध्या लौट आने के लिए लक्ष्मण जी की बातों को दोहराया है । श्रीराम के मन में ऐसी भावनाएं नहीं थीं। इस संदर्भ में अभी इतना ही।
……..क्रमशः।
मित्रों! पूरी पोस्ट पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के आक्षेपों का उत्तर दिया जायेगा।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर कृष्ण चंद्र की जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : क़सामाह

क़सामाह

चौदहवीं किताब ”क़समों की किताब“ (अल-क़सामाह) है। क़सामाह का शब्दशः अर्थ है ”क़सम खाना।“ लेकिन शरीयाह की पदावली में इसका अर्थ है एक विशेष प्रकार की तथा विशेष परिस्थितियों में ली जाने वाली कसम। उदाहरण के लिए, कोई आदमी कहीं मार डाला गया पाया जाता है और उसको कत्ल करने वाले का पता नहीं चलता। ऐसी स्थिति में जिस जगह वह मृत व्यक्ति पाया जाता है उसके पास के क्षेत्र से पचास व्यक्ति बुलाये जाते हैं और उन्हें क़सम खानी पड़ती है कि उन्होंने उस आदमी को नहीं मारा और न ही वे उसके मारने वाले को जानते हैं। इस क़सम से उन लोगों को निर्दोषिता साबित हो जाती है।1

 

लगता है कि इस्लाम-पूर्व अरब में यह प्रथा प्रचलित थी और मुहम्मद ने इसे अपना लिया। एक बार एक मुसलमान मरा पाया गया। उसके रिश्तेदारों ने पड़ोस के यहूदियों पर अभियोग लगाया। मुहम्मद ने रिश्तेदारों से कहा-”तुम में से पचास लोग क़सम खाकर उनमें से किसी व्यक्ति पर हत्या का अभियोग लगाओ तो वह व्यक्ति तुम्हारे सामने पेश कर दिया जायेगा।“ उन्होंने कसम खाने से इन्कार कर दिया, क्योंकि वे हत्या के गवाह नहीं थे। तब मुहम्मद ने उनसे कहा-“यदि पचास यहूदी कसम खा लें तो वे निर्दोष मान लिये जाएंगे।“ इस पर मुसलमानों ने कहा-”अल्लाह के पैगम्बर ! हम गैर-मोमिनों की क़सम को कैसे स्वीकार कर सकते हैं ?“ इस पर मुहम्मद ने उस मारे गये व्यक्ति के एवज में सौ ऊंट रक्तपात-शोध के रूप में अपने निजी ख़जाने से दे दिए (4119-4125)।

 

  1. यह विधान (बाइबल के ओल्ड टेस्टामेंट पर आधारित है। मूसा के कानून की यह व्यवस्था है कि जब कोई व्यक्ति किसी खुली जगह में मार डाला गया पाया जाये और हत्यारे की पहचान न हो सके, तब उस जगह के सबसे पास के कस्बे के प्रमुख लोग एक किशोर बछड़े को पास के किसी बहते हुए सोते पर ले जाते हैं, वहां उसकी गर्दन मार देते हैं और फिर उसके ऊपर अपने हाथ धोकर घोषित करते हैं-“हमने यह रक्तपात नहीं किया, न ही हमारी आंखों ने रक्तपात होते देखा।“ (डयूटरोनाॅसी 21/1/9)।

 

एक दूसरी हदीस हमें स्पष्टतः बतलाती है कि अल्लाह के पैगम्बर ने ”कसामा की प्रथा की इस्लाम-पूर्व के दिनों की तरह कायम रखा“ (4127)।

author : ram swarup

टाँगा किस लिए लाये?

टाँगा किस लिए लाये?

आर्यसमाज नयाबाँस, दिल्ली-6 की आधारशिला पूज्य भाई परमानन्दजी ने रखी। भाईजी के प्रति इस समाज के सदस्यों को बहुत श्रद्धा थी। एक बार इसी समाज के किसी कार्यक्रम पर देवतास्वरूप भाई परमानन्दजी आमन्त्रित थे। श्री पन्नालाल आर्य उन्हें स्टेशन पर लेने के लिए गये। नयाबाँस का समाज-मन्दिर स्टेशन के समीप ही तो है।

श्री पन्नालाल जी भाईजी के लिए टाँगा ले-आये। टाँगेवाले उन दिनों एक सवार का एक आना (आज के छह पैसे) लिया करते थे। आर्यसमाज की आर्थिक स्थिति से भाईजी परिचित ही थे।

भाईजी को जब टाँगे पर बैठने के लिए कहा गया तो आप बोले, ‘‘पन्नालाल! टाँगा ज़्यों कर लिया? पास ही तो समाज-मन्दिर है।

आर्यसमाजों में धन कहाँ है? कितने कार्य समाज ने हाथ में ले-रखे हैं!’’ गुरुकुल, पाठशाला, गोशाला व अनाथालय, शुद्धि और पीड़ितों की सहायता………न जाने किन-किन कार्यों के लिए आर्यसमाजों को धन जुटाना पड़ता है।

श्री पन्नालालजी ने उज़र में कुछ कहा, परन्तु भाईजी का यही कहना था कि यूँ ही समाज के धन का अपव्यय नहीं होना चाहिए। मैं तो पैदल ही पहुँच जाता। ऐसा सोचते थे आर्यसमाज के निर्माता। आज अनेक अन- आर्यसमाजी लोग, आर्यसमाजों में घुसकर समाज की धन-सज़्पज़ि

को हड़पने में जुटे हैं। सारे देश का सामाजिक जीवन दूषित हो चुका है। आर्य लोग अपनी मर्यादाओं को न भूलें तो मानवजाति व देश का बड़ा हित होगा।

यह घटना श्री पन्नालालजी ने स्वयं सन् 1975 में मुझे सुनाई थी। भाईजी की सहारनपुर की भी एक ऐसी ही घटना सुनाई। तब भाईजी केन्द्रीय विधानसभा (संसद्) के सदस्य थे। वहाँ भी

पन्नालालजी आर्य टाँगा लेकर आये। भाईजी ने टाँगा देखते ही कहा-‘‘पन्नालाल! मेरी दिल्ली में कही हुई बात भूल गये ज़्या?’’

HADEES : ADULTERY AND FORNICATION

ADULTERY AND FORNICATION

Adultery is severely punished.  �UbAda reports the Prophet as saying: �Receive teaching from me, receive teaching from me.  Allah has ordained. . . . When an unmarried male commits adultery with an unmarried female, they should receive one hundred lashes and banishment for one year.  And in case of a married male committing adultery with a married female, they shall receive one hundred lashes and be stoned to death� (4191).

�Umar adds his own emphasis: �Verily Allah sent Muhammad with truth and He sent down the Book upon him, and the verse of stoning was included in what was sent down to him.� �Umar is emphatic because in the QurAn there is no punishment for adultery as such, though there is one for the larger category of zinA, which means sexual intercourse between parties not married to each other.  In this sense, the term includes adultery as well as fornication.  And the punishment provided for both is one hundred stripes and not stoning to death as enjoined in the Sunnah for adultery.  �The whore and the whoremonger.  Flog each of them with a hundred stripes,� preaches the QurAn (24:2).

�Umar was apprehensive that people might neglect the Sunnah and appeal to the Book as grounds for a lenient punishment for their adultery.  Therefore, he said quite emphatically: �I am afraid that, with the lapse of time, the people may forget it and may say, �We do not find the punishment of stoning in the Book of Allah,� and thus go astray by abandoning this duty prescribed by Allah.  Stoning is a duty laid down in Allah�s Book for married men and women who commit adultery� (4194).

author : ram swarup

Can India ignore the Rohingya crisis?

Can India ignore the Rohingya crisis?

Rohingya refugees stretch their hands to receive food distributed in Kutupalong, Bangladesh .   | Photo Credit: DANISH SIDDIQUI

LEFT | NEHGINPAO KIPGEN

 

Since the refugees have no home to return to right now, New Delhi must show some magnanimity

Nehginpao Kipgen

Over 379,000 Rohingyas have fled Myanmar to neighbouring Bangladesh. India should come forward to help the refugees. The reasons are threefold: maintaining a tradition of generosity, and economic and strategic factors.

A welcoming nation

First, not only as a major power in the region but also as the largest democracy in the world, there are expectations that India should extend help to the fleeing Rohingya, at least on humanitarian grounds, and contribute to help resolve the conundrum. India has been historically known to be benevolent to refugees. During the late 1980s and early 1990s, it welcomed thousands of refugees from Myanmar. New Delhi not only provided basic necessities such as food and shelter but also provided refugees the necessary logistics to continue their pro-democratic movement from India.

Another extant example of India’s magnanimity in welcoming refugees is the presence of approximately 120,000 Tibetan refugees, residing in different parts of India. From the first Indian Prime Minister Jawaharlal Nehru to the incumbent Narendra Modi, India has been providing all necessary assistance to the Tibetans, including the government-in-exile in McLeodganj, a suburb of Dharamshala in Himachal Pradesh. India is also a home for hundreds of thousands of refugees from countries such as Sri Lanka, Afghanistan, Pakistan, Bangladesh, internal refugees from Kashmir, and even some 40,000 Rohingyas from Myanmar.

It is understandable about the concerns in some quarters in India that the Islamist terrorist groups may expand their networks through some hard-line Rohingyas. However, since the refugees have no home to return to, at least at the moment, New Delhi should reconsider the idea of deporting them. The question one should seriously ponder is of where the refugees would go if they are deported at a time when both the Myanmar and Bangladesh governments are refusing to accept them as citizens.

Projects at stake

Second, peace and stability in the Rakhine state is important for India’s economic investment. During his September 5-7 visit to Myanmar, PM Modi said India shares Myanmar’s concerns over “extremist violence” in Rakhine. He also emphasized the need to bring about overall socio-economic development in the state by undertaking both infrastructure and socio-economic projects. The continued violence in Rakhine state is affecting India’s Kaladan Multi-modal Transit Transport project, aimed at developing transport infrastructure in south-west Myanmar and India’s Northeast. The project includes the construction of a deepwater port at the mouth of the Kaladan river in Sittwe, the capital of Rakhine state on the Bay of Bengal. Reconciliation between the Rohingya Muslims and the Rakhine Buddhists is necessary for peace to prevail. It is therefore in the economic interest of India to show its generosity and reach out to all peoples of the state.

Third, it is understandable that India does not want a strained relationship with Myanmar at this juncture when New Delhi is exploring ways to enhance its presence and influence in Myanmar and the Southeast Asia region through its Act East policy. But this does not have to be at the expense of alienating or marginalizing the Rohingya population.

When there are growing calls from the international community to the Myanmar government to end violence in Rakhine state and address the Rohingya conundrum, it would not be a wise strategic move for India to ignore them. While the government may take a conscious decision to publicly support Myanmarese leader Aung San Suu Kyi, at the same time it should gently prod her government to adopt a positive attitude toward resolving the Rohingya problem with the help of the international community.

Nehginpao Kipgen is Assistant Professor and Executive Director of the Centre for Southeast Asian Studies, O.P. Jindal Global University

RIGHT | CHANDAN MITRA

 

Myanmar’s unwanted children cannot become India’s moral burden no matter how tragic their fate

Chandan Mitra

Had the subject not been so tragic, the lecture to India by the UN High Commissioner for Human Rights, Zeid Ra’ad al-Hussein, would have been amusing. He conveniently directed his diatribe at New Delhi and Yangon while skipping reference to Dhaka where the bulk of Rohingya Muslim refugees have sought refuge.

Selective outrage

The UN apparatchik has described the Myanmar government’s action against the Rohingya as “ethnic cleansing”. He may well be right in that description. But when India faced a similar situation in Jammu and Kashmir in the 1990s, and Kashmiri Pandits were “cleansed” out of the Valley by forces aided and abetted by Pakistan, the UN authorities stayed stupefyingly silent. Similarly, the systematic eviction of Hindus from Pakistan that continues 70 years after Partition has never caused outrage among the self-appointed guardians of human rights.

As far as the Rohingya are concerned, all advice needs to be directed at the Myanmar government led by Aung San Suu Kyi, winner of the Nobel Peace Prize for her valiant struggle to re-establish democracy. There is no doubt that the Myanmar government has, for decades, discriminated viciously against the Rohingya, denying them citizenship and other basic rights.

In recent months violent attacks on them by Myanmarese security forces have increased manifold, forcing many to flee to neighbouring but hostile Bangladesh.

Some have managed to sneak into India too, although they are particularly unwelcome in the Northeast already reeling under a steady deluge of illegal infiltrators from Bangladesh, including Buddhist Chakmas turfed out from their homes in the Chittagong Hill Tracts.

It is argued by India’s bleeding hearts that this country has a tradition of sheltering those seeking to escape persecution in the neighbourhood, be they Tibetans, Afghans or many hill tribes of the Northeast. But there is a limit to which our overpopulated country can accommodate without triggering socio-economic tensions. The presence of a large number of immigrants from Bangladesh flooding into India for better jobs, incidentally, has little to do with the persecution of minorities in that country.

Onus on others

Initially, our government did try to accommodate some Rohingya, resettling a few thousand in Jammu. But this immediately led to protests in that region. There are genuine fears that destitute Rohingya youth would be easy prey to Pakistan’s Inter-Services Intelligence and international jihadist outfits such as al-Qaeda among others.

Arguably, we have a natural compassion for those persecuted by their own governments in South Asia. But whereas India cannot deny shelter to persecuted Hindus from Pakistan or Bangladesh for they have no other country to turn to, that is not the case with Rohingya Muslims.

It is a measure of the abject failure of the Myanmar regime that after 70 years of Independence it has still not integrated many of the tribes living in that country, particularly the Rohingya. Why should India pay the price for this failure? Further, Pakistan (including Bangladesh or erstwhile East Pakistan) was carved out of India with the avowed purpose of creating a Muslim homeland. Considering Myanmar was part of British India and ruled from Delhi till 1948, it can be argued that Myanmarese Muslim refugees too should be accommodated in that “homeland” if necessary.

Home is home

But the home of the Rohingya is Myanmar and they have a right to live there. Myanmar’s unwanted children cannot become India’s moral burden no matter how tragic their fate has become under a ruthless military which has run amok.

Chandan Mitra is managing director and editor of The Pioneer and a former Member of Parliament

CENTRE | RAJIV BHATIA

 

India may have to play a quiet role to urge and nurture a long-term solution to the problem

Rajiv Bhatia

 

On the reported presence of 40,000 Rohingya in India, my view is that this is a complex problem. It is difficult to envisage, given the present circumstances, use of force to send the unfortunate and suffering people back as neither Myanmar nor Bangladesh will accept them. At the same time, we obviously cannot send a message that India is willing to receive a huge number of displaced people from Myanmar.

There are thousands of people in Jammu and other places in India. The authorities are repeatedly saying that they are engaged in the process of careful scrutiny in order to look at the specific situation, identity, background, etc. of these people. This should be done through a blend of vigilance, prudence, and compassion.

As for the larger question of what is happening in Myanmar and its impact on Bangladesh now and on other Southeast Asian countries earlier, we have to recognise this is an extremely sensitive issue within Myanmar. The problem is not unidimensional. First, there is undoubtedly the dimension of terrorism. As a result of whatever has been happening in the Rakhine state in the past, terrorism has raised its ugly head there and this has clear links to our western neighbour. Hence, it makes sense for New Delhi to develop convergence with the Myanmar authorities. Second, there is the angle of development deficit. I have been to this region, although many years ago. The socio-economic development of this region has not improved — this has been a root cause. Besides, there is the underlying angle of perceived discrimination and the way in which Rakhine Muslims have been treated virtually as second-class citizens.

A very heavy responsibility rests on the shoulders of Myanmar’s political elite that runs the government, the military and Aung San Suu Kyi. Putting the blame only on her betrays ignorance of the complex political reality within Myanmar. We need to understand the intricacies of Myanmar’s polity and the vulnerability of democratic elements.

The government of Myanmar took the right step to appoint the Kofi Annan-led Advisory Commission on Rakhine state some time back, with notable Myanmar experts included in it. It has come out with a comprehensive report, which needs to be considered seriously by the authorities in Myanmar. We, as neighbours, should also study it carefully as it points a way out of the very complex and tragic problem.

High stakes for India

The stakes for India are very high. The issue does impact us in multiple ways. We also have to take into consideration that it impacts negatively on Bangladesh which is our close friend, neighbour and valued partner in South Asia. We also have good relations with Myanmar, which stand further strengthened with the recent visit of Prime Minister Narendra Modi. India is in the process of rejuvenating BIMSTEC (Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation), of which both countries are members. So, India may have to play a quiet role to urge and nurture a long-term solution to the problem.

Even in the past, India was able to undertake a creative tightrope walk in Myanmar. We could nurture good relations with the military government while maintaining a cordial relationship with the pro-democracy movement. The world expects us to contribute to a lasting solution to this problem. This is our region. Our Act East policy demands it. We should take an apolitical, pragmatic position that is free from ideological inclinations.

Rajiv Bhatia is Distinguished Fellow at Gateway House and a former Ambassador to Myanmar

(As told to Anuradha Raman)

source : http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/can-india-ignore-the-rohingya-crisis/article19686341.ece

हदीस : अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)

. अपराध और दंड विधान (क़सामाह, किसास, हदूद)

चौदहवीं, पन्द्रहवीं और सोलहवीं किताबें अपराध के विषय में हैं। अपराधों के प्रकार और उनकी कोटियां, उनकी छानबीन की प्रक्रिया और अपराध करने पर दिये जाने वाले दंडों की व्यवस्था इनमें वर्णित है।

 

मुस्लिम फिक़ह (क़ानून) दंड को तीन शीर्षकों में बांटता है-हद्द, क़िसास और ताज़ीर। हद्द (बहुवचन हदूद) में उन अपराधों के दंड शामिल हैं, जो कुरान और हदीस में निर्णीत और निरूपित किये गये हैं। ये दण्ड है-पथराव करके मारना (रज्म) जो कि परस्त्रीगमन (ज़िना) के लिए दिया जाता है: कुमारी-गमन के लिए एक-सौ कोड़े (क़ुरान 24/2-5); किसी “इज्जतदार“ स्त्री (हुसुन) के खि़लाफ मिथ्यापवाद अर्थात् उस पर व्यभिचार का आरोप लगाने पर 80 कोड़े, इस्लाम छोड़ने (इर्तिदाद) पर मौत; शराब पीने (शुर्ब) पर 80 कोड़े; चोरी करने पर दाहिना हाथ काट डालना (सरीक़ा, क़ुरान 9/38-39); बटमारी-डकैती करने पर हाथ और पांव काट डालना; और डकैती के साथ हत्या करने पर तलवार से वध अथवा सूली।

 

(इस्लामी) कानून क़िसास अर्थात् प्रतिरोध की अनुमति देता हैं। इस की अनुमति सिर्फ उन मामलों में है, जहां किसी ने जान-बूझकर और अन्यायपूर्वक किसी को घायल किया हो, किसी का अंग-भंग किया हो अथवा उनकी हत्या की हो। और इसकी इज़ाज़त सिर्फ उसी अवस्था में है जब अपराधी और पीड़ित व्यक्ति की हैसियत एक-समान हो। गुलाम और काफ़िर हैसियत की दृष्टि से, मुसलमानों की तुलना में हेय हैं। इसलिए अधिकांश मुस्लिम फक़ीहों (न्यायविदों) के अनुसार वे लोग क़िसास के अधिकारी नहीं हैं।

 

हत्या के मामलों में प्रतिरोध का हक़, मारे जाने वाले के वारिस को मिलता है। लेकिन वह वारिस इस हक़ को छोड़ सकता है और उसके बदले में रक्तपात-शोध (दियाह) स्वीकार कर सकता है। स्त्री की हत्या होने पर सिर्फ़ आधा दियाह ही देय होता है। यहूदी और ईसाई के मामले में भी आधा ही दियाह देय होता है। किन्तु कानून के एक सम्प्रदाय के अनुसार ईसाइयों और यहूदियों के मामले में सिर्फ़ एक तिहाई दियाह देने की इज़ाज़त है। अगर कोई गुलाम मार डाला जाता है, तो क़िसास और हरजाने का हक़ उसके वारिसों को नहीं मिलता। गुलाम को सम्पत्ति का एक प्रकार माना गया है, इसलिए गुलाम के मालिक को उसकी पूरी क़ीमत हरजाने के तौर पर दी जानी चाहिए।

 

अपराध और दंड के विषय में मुस्लिम कानून बहुत जटिल है। यद्यपि कुरान में एक सामान्य रूपरेखा मिलती है, दंड-विधान का मूर्त रूप हदीस में ही प्रकट होता है।

author : ram swarup

एक शास्त्रार्थ

एक शास्त्रार्थ

हरियाणा के लोककवि पण्डित बस्तीराम ने ऋषि के दर्शन किये और जीवनभर वैदिक धर्म का प्रचार किया। शास्त्रार्थ की भी अच्छी सूझ थी। एक बार पौराणिकों से पाषाण-पूजा पर उनका शास्त्रार्थ हुआ। पौराणिक पण्डित से जब और कुछ न बन पड़ा तो अपनी परज़्परागत कुटिल, कुचाल चलकर बोला-‘‘आपका ओ3म् किस धातु से बना है?’’

पण्डितजी व्याकरण के चक्र में पड़कर विषय से दूर जाना चाहते थे। पण्डित बस्तीरामजी सूझवाले थे। श्रोताओं को सज़्बोधित करके बोले, ‘‘ग्रामीण भाई-बहिनो! देखो, कैसा विचित्र प्रश्न यह मूर्ज़िपूजक पण्डित पूछ रहा है कि तुज़्हारा ओ3म् किस धातु से बना है। अरे! सारा संसार जाने कि हम प्रतिमा-पूजन नहीं मानते। इसी विषय पर तो शास्त्रार्थ हो रहा है। अरे पण्डितजी! हमारा ‘ओ3म्’ तो निराकार है, सर्वव्यापक है। वह न पत्थर से बना, न तांबे से, न पीतल से और न चाँदी-सोने से। तुज़्हारा गणेश किसी भी धातु से बना हो, भले ही मिट्टी का गणेश बना लो। हमारा ओ3म् तो सब जानें किसी भी धातु से नहीं बना।’’ सब ग्रामीण श्रोता पण्डित

बस्तीराम व वैदिक धर्म का जय-जयकार करने लगे। पौराणिक पण्डित भी बड़ा चकराया कि ज़्या उज़र दे वह आप ही अपने जाल में ऐसा फँसा कि निकलने का समय ही न मिला।

HADEES : PUNISMENT FOR THEFT

PUNISMENT FOR THEFT

�Aisha reports that �Allah�s Messenger cut off the hands of a thief for a quarter of dInAr and upwards� (4175).  AbU Huraira reports the Prophet as saying: �Let there be the curse of Allah upon the thief who steals an egg and his hand is cut off, and steals a rope and his hand is cut off� (4185).

The HadIs merely confirms the QurAn, which also prescribes: �And as for the man who steals and the woman who steals, cut off their hand as a punishment for what they have done, an exemplary punishment from Allah, and Allah is Mighty and Wise� (5:38).  The translator, in a long two-page note, tells us that �it is against the background of this social security scheme envisaged by Islam that the QurAn imposes the severe sentence of hand-cutting as deterrent punishment for theft� (note 2150).

�Aisha reports a similar case.  At the time of the victorious expedition to Mecca, a woman committed some theft.  Although UsAma b. Zaid, the beloved of Muhammad, interceded in her behalf, her hand was cut off.  �Hers was a good repentance,�  �Aisha adds (4188).  The translator assures us that after the punishment �There was a wonderful change in her soul� (note 2152).

author : ram swarup

हदीस : ”इंशा अल्लाह“ की शर्त

”इंशा अल्लाह“ की शर्त

अगर कोई क़सम लेते वक्त ”अल्लाह ने चाहा तो“ (इंशाअल्लाह) कह देता है तो वह प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करनी चाहिए। सुलेमान के 60 बीवियां थीं। एक दिन उसने कहा-“मैं निश्चित ही इनमें से हरेक के साथ रात में मैथुन करूँगा और उनमें से हरेक एक मर्द बच्चे को जन्म देगी जो घुड़सवार बनेगा और अल्लाह के काम के लिए लड़ेगा।“ लेकिन उनमें से सिर्फ एक गर्भवती हुई और उसने भी एक अधूरे बच्चे को जन्म दिया। मुहम्मद ने कहा-“अगर उसने इंशा अल्लाह कहा होता, तो वह असफल नहीं होता।“ कई-एक अन्य हदीस भी ऐसा ही किस्सा बयान करती है। उनमें बीवियों की संख्या 60 से बढ़ कर 70 और फिर 90 हो जाती है (4066-4070)।

author : ram swarup