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हदीस : तस्तहिद्दा

तस्तहिद्दा

मुहम्मद ने उन शब्दों का भी असरदार इस्तेमाल किया है जिन्हें साहित्य समीक्षा में अश्लील अभिव्यक्तियां कहते हैं। एक बार पैगम्बर और उनका दल, एक चढ़ाई से कुछ देर में वापस आये। उनके साथी तुरन्त अपने घरों को जाना चाहते थे। लेकिन पैगम्बर ने उनसे तब तक इन्तज़ार करने को कहा, जब तक कि ”औरत अपने बिखरे बालों को कंघी से संवाल ले और जिसका मर्द बाहर गया था वह अपने को साफ कर ले, ताकि जब तुम भीतर पहुंचो, तो तुम मज़ा ले सको“ (2462)

 

अनुवादक हमें समझाते हैं कि ”अपने को साफ करने“ के अर्थ में एक अरबी शब्द है ”तस्तहिद्दा,“ जिसका अक्षरशः अर्थ होता है ”गुप्तांगों के बाल साफ करना।“ लेकिन यहा उस शब्द को पति के साथ समागम के लिए तैयार हो जाने के लाक्षणिक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है (टि0 1926)।

author : ram swarup

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

तुज़्हें याद हो कि न याद हो

ज़िला बिजनौर के नगीना ग्राम से सब आर्य भाई परिचित हैं। यहाँ के एक ब्राह्मणकुल में जन्मा एक युवक 1908 ई0 में अकेले ही देशभर की तीर्थ-यात्रा पर चल पड़ा। रामेश्वरम् से लौटते हुए

मदुराई नगर पहुँचा। यहाँ मीनाक्षीपुरम् का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस पौराणिक युवक ने ज़्या देखा कि यहाँ मन्दिर के निकट चौक-चौराहों में ईसाई पादरी व मुसलमान मौलवी सोत्साह प्रचार में लगे हैं। हिन्दुओं की भीड़ इन्हें सुनती है। ये हिन्दुओं की मान्यताओं का खण्डन करते हैं। यदा-कदा हिन्दू विधर्मी बनते रहते हैं।

यह दृश्य देखकर इसका हृदय हिल गया। यह युवक वहीं डट गया। वैद्यक का उसे ज्ञान था। ओषधियाँ देकर निर्वाह करने लगा, परन्तु धर्मरक्षा के कार्य में तनिक भी सफलता न मिली। अब ज़्या किया जाए? बिजनौर जिला से गया था, अतः ऋषि के नाम व काम से परिचित था। अब सत्यार्थप्रकाश मँगवाया। स्वामी दर्शनानन्द, पण्डित लेखराम आदि का साहित्य पढ़ा और आर्यसमाज का झण्डा तमिलनाडु में गाड़ दिया। वहीं एक दलित वर्ग की देवी से विवाह करके वैदिक धर्म की सेवा में जुटा रहा। 1914 ई0 में लाहौर से एक आर्य महाशय हरभगवानजी दक्षिण भारत की यात्रा पर गये।

उनके कार्य को देखकर स्वामी श्रद्धानन्द व महात्मा हंसराजजी को इनका परिचय दिया। यह युवक कुछ समय सार्वदेशिक सभा की ओर से वहाँ कार्य करता रहा। स्वामी श्रद्धानन्दजी के बलिदान के पश्चात् उनकी सहायता उक्त सभा ने बन्द कर दी। सात-आठ वर्ष तक प्रादेशिक सभा ने सहयोग किया।

इस वीर पुरुष ने स्वामी दर्शनानन्द जी व उपाध्यायजी के ट्रैज़्ट अनूदित किये। अपने पैसे से तमिल में 35-40 ट्रैज़्ट छपवाये।

हिन्दी पाठशालाएँ खोलीं। धर्मार्थ ओषधालय चलाया। आर्यसमाज के नियमित सत्संग वहाँ पर होते रहे। विशेष उत्सवों पर सहस्रों की उपस्थिति होती थी।

अज़्टूबर 1937 में आप उज़रप्रदेश सभा की जयन्ती देखने अपने प्रदेश में आये। स्वामी सत्यप्रकाश जी ने भी जयन्ती पर इन्हें देखा था। नगीना भी गये। वहीं विशूचिका रोग के कारण उनका निधन हो गया। यह मई 1938 की दुःखद घटना है। ज़्या आप जानते हैं कि इस साहसी आर्यपुरुष का ज़्या नाम था? यह एम0जी0 शर्मा के नाम से विज़्यात थे। आइए, इनके जीवन से कुछ प्रेरणा ग्रहण करें।

HADEES : NO MAINTENANCE ALLOWANCE FOR A DIVORCEE

NO MAINTENANCE ALLOWANCE FOR A DIVORCEE

FAtima hint Quais was divorced by her husband �when he was away from home.� She was very angry and went to Muhammad, who told her: �There is no lodging and maintenance allowance for a woman who has been given irrevocable divorce.� But he mercifully helped her to find another husband.  She had two suitors, AbU Jahm and Mu�Awiya.  Muhammad advised against them both, for the former did �not put down his staff from his shoulder� (i.e., he beat his wives), and the latter was poor.  In their place, he proposed the name of UsAma b. Zaid, the son of his slave and adopted son, Zaid (3512).

Later on a more generous sentiment prevailed.  �Umar ruled that husbands should provide their divorced wives with a maintenance allowance during the period of �idda on the ground that the true purpose of the Prophet�s words had been misunderstood by FAtima, a mere woman.  �We cannot abandon the Book of Allah and the Sunnah of our Apostle for the words of a woman� (3524).

�Idda is a period of waiting during which a woman cannot remarry.  It normally lasts four months and ten days but ends sooner if the woman gives birth to a child.  Once �idda has ended, the woman can contract another marriage (3536-3538).

Having to provide an allowance for four months at the most was not very difficult.  Thus, since husbands had almost no fear of any future burden, and could get rid of their wives so easily, the threat of divorce hung heavily on Muslim women.

author : ram swarup

हदीस : कुंवारी से ब्याह

कुंवारी से ब्याह

अन्य अहादीस में पैगम्बर कुंवारी से ब्याह करने की विशेषताएं बतलाते हैं (3458-3464) जाबिर के अनुसार रसूल-अल्लाह ने कहा-”जाबिर ! क्या तुमने शादी की है। मैं बोला हां। उन्होंने कहा-कुंवारी से या पहले की शादीशुदा से ? मैं बोला-पहले की शादीशुदा से। इस पर वे बोले-तुमने एक कुंवारी से ब्याह क्यों नहीं किया, जिसके साथ तुम क्रीड़ा कर सकते थे ?“ (3458) अथवा “जो तुम्हारा मन बहला सकती थी और जिसका मन तुम बहला सकते थे“ (3464)।

author : ram swarup

प्रभात से रात हो गई

प्रभात से रात हो गई

मैंने अपने द्वारा लिखित ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ पुस्तक में पण्डित लेखराम जी की एक घटना दी है जो मुझे अत्यन्त प्ररेणाप्रद लगती है। वीरवर लेखराम के बलिदान से एक वर्ष पूर्व की बात है। पण्डितजी करनाल पधारे। वहाँ से दिल्ली गये। उनके साथ एक आर्य सज्जन भी गये। साथ जानेवाले महाशय का नाम श्रीमान् लाला बनवारी लालजी आर्य था। वे पण्डितजी के बड़े भक्त थे।

पण्डितजी दिल्ली में एक दुकान से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर जाते। एक बाज़ार से दूसरे में जाते। एक पुस्तक की खोज में प्रातःकाल से वे लगे हुए थे। उन दिनों रिज़्शा, स्कूटर, टैज़्सियाँ तो थीं नहीं। वह युग पैदल चलनेवालों का युग था।

पण्डित लेखराम सारा दिन पैदल ही इस कार्य में घूमते रहे। कहाँ खाना और कहाँ पीना, सब-कुछ भूल गये।

साथी ने कहा-‘‘पण्डितजी ऐसी कौन-सी आवश्यक पुस्तक है, जिसके लिए आप इतने परेशान हो रहे हैं? प्रभात से रात होने को है।’’

पण्डितजी ने कहा-‘‘मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी ने आर्यजाति पर एक वार किया है। उनके उज़र में मैंने एक पुस्तक लिखी है। उसमें इस पुस्तक का प्रमाण देना है। यह पुस्तक मुसलमानी

मत की एक प्रामाणिक पुस्तक है। प्रमाण तो मुझे कण्ठस्त है फिर भी इसका मेरे पास होना आवश्यक है। इसमें इस्लाम के मसला ‘लफ़ हरीरी’ का विस्तार से वर्णन है। यह मसला शिया मुलसमानों के ‘मुता’ से भी कुछ आगे है।

अन्त में पण्डितजी को एक बड़ी दुकान से वह पुस्तक मिल गई। कुछ और पुस्तकें भी पसन्द आईं। वे भी ले-लीं। इन सब पुस्तकों का मूल्य पन्द्रह रुपये बनता था। पण्डितजी जब यह राशि

देने लगे तो दुकानदार को यह विचार आया कि ऐसी पुस्तकें कोई साधारण व्यक्ति तो क्रय नहीं करता। यह ग्राहक कोई नामी स्कालर ही हो सकता है।

दुकानदार संयोग से एक आर्यपुरुष था। उसने पैसों की ओर हाथ बढ़ाने की बजाए ग्राहक से यह प्रश्न कर दिया कि आपका शुभ नाम ज़्या है? आप कौन हैं?

इससे पूर्व कि रक्तसाक्षी वीरवर लेखराम बोलते, उनके साथी ने एकदम कहा-‘‘आप हैं धर्मरक्षक, जातिरक्षक आर्यपथिक पण्डित लेखरामजी।’’

यह सुनते ही दुकानदार ने पण्डितजी को नमस्ते की। उसने प्रथम बार ही वीरजी के दर्शन किये थे। पैसे लेने से इन्कार कर दिया।

इस घटना के दो पहलू हैं। पण्डितजी की लगन देखिए कि धर्म-रक्षा के लिए पैदल चलते-चलते प्रभात से रात कर दी और उस प्रतिष्ठित आर्य चरणानुरागी महाशय बनवारी लालजी की धुन का भी मूल्यांकन कीजिए जो अपने धर्माचार्य के साथ दीवाना बनकर घूम रहा है। इस घटना का एक दूसरा पहलू भी है। पण्डितजी को 25-30 रुपया मासिक दक्षिणा मिलती थी। अपनी मासिक आय का आधा या आधे से भी अधिक धर्मरक्षा में लगा देना कितना बड़ा त्याग है। कहना सरल है, परन्तु करना अति कठिन है। पाठकवृन्द उस दुकानदार के धर्मानुराग को भी हम भूल नहीं सकते जिसने पण्डितजी से अपनी प्रथम भेंट में ही यह कह दिया कि मैं पन्द्रह रुपये नहीं

लूँगा। आप कौन-सा किसी निजी धन्धे में लगे हैं। यह आर्यधर्म की रक्षा का प्रश्न है, यह हिन्दूजाति की रक्षा का प्रश्न है।

ज़्या आप जानते हैं कि वह दुकानदार कौन था? उसका नाम था श्री बाबू दुर्गाप्रसादजी। आर्यों! आइए! अपने अतीत को वर्तमान करके दिखा दें। तब के रुपये का मूल्य ज़्या था?

HADEES : OPTION OF DIVORCE DIFFERENT FROM DIVORCE

OPTION OF DIVORCE DIFFERENT FROM DIVORCE

It seems there were other occasions of domestic discord, some of them centering round money.  These must have occurred in the early days at Medina, when Muhammad lacked funds.  Once AbU Bakr and �Umar went to Muhammad and found him �sitting sad and silent with his wives around him.� He told the two fathers: �They [his wives and their daughters] are around me as you see, asking for extra money.� Then AbU Bakr �got up, went to �Aisha and slapped her on the neck; and �Umar stood up and slapped Hafza� (3506).

On this occasion, the Prophet also gave his wives the option of a goodly departure if they �cared more for this world and its adornments than for Allah and His Apostle and the abode of the Hereafter� (QurAn 33:28-29).  The wives chose the latter.

The moral of these ahAdIs (3498-3506) as drawn by the translator is that �mere giving option to women to divorce does not make the divorce effective, but when it is really intended.�

author : ram swarup

हदीस : रातों के जश्न

रातों के जश्न

एक महत्त्वपूर्ण हदीस है, जो मोमिनों को एक और सुविधा देती है तथा पैगम्बर की यौन-संहिता पर कुछ प्रकाश भी डालती है। निष्पक्षता के लिए यह आवश्यक है कि मोमिन अपनी बीवियों के पास बारी-बारी से जाये। लेकिन जब वह उनमें से एक के साथ हम-बिस्तर हो, तो वह दूसरी बीवियों को अपने आस-पास रख सकता है। मुहम्मद के नौकरों में से एक अनस बतलाता है-”अल्लाह के पैगम्बर की सभी बीवियां हर रात उस के घर में इकट्ठा हो जाती थीं जिसके घर में ये (रसूल) होते थे …. एक रात वे आयशा के घर में थे कि जैनब वहां आयी। उन्होंने (पाक पैगम्बर ने) अपना हाथ उसकी (जैनब की) ओर पसारा। तभी वह (आयशा) बोल उठी यही वह जैनब है। रसूल अल्लाह ने अपना हाथ खींच लिया। उन दोनों के बीच तब तक कहा-सुनी होती रही जब तक कि उनकी आवाजें तेज़ न हो गयीं।“ सुबह जब नमाज का ऐलान हुआ तब अबू बकर मुहम्मद को ले जाने के लिए आये। आवाजें सुनकर वे बोले, ”रसूल-उल्लाह ! नमाज़ के लिए चलिये और इन के मुंह में खाक फेंकिये“ (3450)।

author : ram swarup

एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर

एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकर

ऋषिजी को गाली देने पर देश-विभाजन से पूर्व की बात है। शास्त्रार्थ महारथी पण्डित श्री शान्तिप्रकाशजी के जन्म-स्थान कोट छुट्टा ज़िला डेरागाजीखाँ में एक पौराणिक कथावाचक आया। वह अच्छा गायक था। उसने ग्राम की सनातनधर्म सभा से कहा कि मेरे साथ किसी तबला वादक का प्रबन्ध कर दीजिए। फिर कथा का आप लोगों को अधिक आनन्द आएगा। पौराणिक बन्धुओं ने कहा इस ग्राम में कोई तबला वादक नहीं मिलेगा। जब पौराणिक कथावाचक ने तबला वादक के लिए बहुत आग्रह किया तो सनातनधर्म सभा वालों ने कहा, ‘‘आर्यसमाज के एक निष्ठावान् सपूत महाशय मूलशंकरजी बड़े प्रतिष्ठित सज्जन हैं और इस ग्राम में उन्हें ही तबला बजाना आता है, हम उनसे विनती कर देखते हैं।’’

कुछ पौराणिक भाई आर्यसमाज के लिए समर्पित, सिद्धान्तनिष्ठ, श्री महाशय मूलशंकरजी के पास गये और अपनी समस्या रखी।

श्री मूलशंकरजी ने कहा, कोई बात नहीं, आपका सङ्कट टाल दूँगा। मैं अपने काम-काज समय पर निपटाकर आपकी कथा में आ जाया करूँगा। तबला बजा दूँगा।

कथा आरज़्भ हो गई। आर्यसमाज का सपूत उसमें जाकर तबला बजा देता। पौराणिक कथावाचक को पता ही था कि तबला बजानेवाले महाशय आर्यसमाजी हैं। पौराणिक लोगों को तब तक

रोटी-पचती नहीं, जब तक ऋषि दयानन्द को दस-बीस गालियाँ न दे लें। ये ईसा और मुहज़्मद की तो स्तुति कर सकते हैं, ऋषि दयानन्द की नहीं। श्री विवेकानन्द स्वामी ने ‘प्रभुदूत ईसा’ नाम जैसी एक पोथी लिखी है। पौराणिक आरती, ‘जय जगदीश हरे’ के रचयिता श्रद्धाराम फ़िलौरी ने ईसा की स्तुति में पैसे लेकर गीत रचे।

यह सब-कुछ ये लोग करेंगे, परन्तु ऋषि दयानन्द जी को गाली देना इनका स्वभाव बन चुका है।

उस पौराणिक कथावाचक ने, यह जानते हुए भी कि तबला बजानेवाले महाशयजी आर्यसमाज के सैनिक हैं, कथा करते-करते बिना किसी प्रसङ्ग के ऋषि दयानन्दजी महाराज को गालियाँ देनी

आरज़्भ कर दीं। किसी ने उन्हें रोका-टाका नहीं, महाशय मूलशंकरजी ने दो-तीन मिनट तक उनका विष-वमन सुना व सहन किया, जब वह नहीं रुका तो आपने तबला उठाकर उस कथावाचक के सिर पर यह कहते हुए दे मारा-‘‘मेरे होते हुए तुम महान् परोपकारी, वेदोद्धारक, निष्कलंक, बालब्रह्मचारी दयानन्द को गोलियाँ देते हो!’’

ऐसी गर्जना करते हुए ऋषिभक्त मूलशंकरजी पौराणिकों की सभा को चीरते हुए बाहर आ गये। सभा में सन्नाटा छा गया। सब जन उनके हावभाव को देखकर चकित रहे गये। ऐसे थे वे शूरवीर जो आर्यसमाज की नींव का पत्थर बनने का गौरव प्राप्त कर पाये।

इन महाशयजी ने दीर्घ आयु पाई। शास्त्रार्थमहारथी पण्डित शान्तिप्रकाशजी पर धर्म का गूढ़ा रङ्ग चढ़ानेवाले भी यही थे।

HADEES : MUHAMMAD�S SEPARATION FROM HIS WIVES

MUHAMMAD�S SEPARATION FROM HIS WIVES

IlA� is a temporary separation from one�s wife.  In this sense of the term, the believers are indeed fortunate in having a �model pattern� in an example provided by the Prophet.

Muhammad himself had to undergo separation from his wives for a period which lasted twenty-nine days.  The SahIh Muslim narrates this incident in several ahAdIs; but before we take them up, let us provide some background information.

In visiting his numerous wives, Muhammad observed a rough-and-ready rule of rotation.  In fact, the days in his life were known by the name of the wife he was visiting.  One day Muhammad was supposed to be with Hafza, but instead she found him with Mary, the beautiful Coptic concubine.  Hafza was furious.  �In my room, on my day and in my own bed,� she shouted.  Muhammad, trying to pacify her, promised never to visit Mary again, but he wanted Hafza to keep the incident a secret.

Hafza, however, told �Aisha, and very soon everybody knew about it.  Muhammad�s Quraish wives detested Mary and were jealous of the servile wretch, who had even given Muhammad a son.  Soon the harem was filled with gossip, excitement, and jeering.  Muhammad was very angry, and he told his wives that he would have nothing to do with them.  He separated himself from them, and soon the news was afloat that he was divorcing them all.  In fact, in the eyes of the believers this rumor was more newsworthy and significant than the reports that Medina was soon to be attacked by GhassAn (the Arab auxiliaries of Byzantium).

In a long hadIs, �Umar b. al-KhattAb (Hafza�s father) reports: �When Allah�s Apostle kept himself away from his wives, I entered the mosque, and found the people striking the ground with pebbles and saying: Allah�s Messenger has divorced his wives.� �Umar decided to find out what was actually happening.  First he asked �Aisha if she had �gone to the extent of giving trouble to Allah�s Messenger.� �Aisha told him to mind his own business.  �I have nothing to do with you.  You should look to your own receptacle [Hafza].� �Umar next sought out Hafza and chided her.  �You know that Allah�s Messenger does not love you, and had I not been your father he would have divorced you,� he told her.  She wept bitterly.

Then �Umar sought permission to be admitted into the presence of Muhammad.  The request was disregarded, but he insisted.  �O RahAb, seek permission for me from Allah�s Messenger. I think that Allah�s Messenger is under the impression that I have come for the sake of Hafza.  By Allah, if Allah�s Messenger would command me to strike her neck, I would certainly do that,� he told RahAb, Muhammad�s doorman.  He was admitted.

As �Umar entered, he saw �the signs of anger on his [Muhammad�s] face,� so he tried to calm him down.  He told him �how we the people of Quraish had domination over women but when we came to Medina we found people whom their women dominated.  So our women began to learn from their women.�

He also told him: �Messenger of Allah, what trouble do you feel from your wives, and if you had divorced them, verily Allah is with you, His angels, Gabriel, Mika�il, I and AbU Bakr and the believers are with you.�

Muhammad relaxed.  �I went on talking to him until the signs of anger disappeared on his face . . . and he laughed,� �Umar narrates.  In this new mood, the famous verses descended on the Prophet, freeing him from his oath respecting Mary, threatening his wives with divorce, and incorporating �Umar�s assurance that all the angels and believers supported him: �O Prophet!� said Allah.  �Why do you prohibit thyself what God has made lawful to you, craving to please thy wives? . . . Allah has already ordained for you the dissolution of your oaths.� Allah also told the Prophet�s wives in no uncertain terms that �his Lord if he divorces you will give him in exchange wives better than you.� Allah warned them, particularly �Aisha and Hafza, in the following terms: �If ye both turn repentant unto God,-for your hearts have swerved!-but if you back each other up against him, verily, Allah, He is the sovereign; and Gabriel, and the righteous of the believers, and the angels after that will back him up.� Allah also told them that if they misbehaved, being the Prophet�s wives would avail them nothing on the Day of Judgment.  �God strikes out a parable to those who misbelieve: the wife of Noah and the wife of Lot; they were under two of our righteous servants, but they betrayed them: and they availed them nothing against God; and it was said, �Enter the Fire with those who enter� � (QurAn 66:1-10).

The matter blew over, and they became his wives again.  The Holy Prophet �had taken an oath of remaining away from them [his wives] for a month, and by now only twenty-nine days had passed, [but] he visited them.� �Aisha mischievously reminded the Prophet that it was not yet one month but only twenty-nine days, to which Muhammad replied: �At times, the month consists of twenty-nine days� (3507-3511).

Now �Umar stood at the door of the mosque and called out at the top of his voice: �The Messenger of Allah has not divorced his wives.� A verse chiding his followers for so readily believing in rumors also descended on Muhammad: �And if any matter pertaining to peace or alarm comes within their ken, they broadcast it.  But if they had only referred it to the Apostle, or to those charged with authority among them, the proper investigators would indeed know it� (QurAn 4:83; hadIs 3507).

author : ram swarup

वन्दे मातरम् (संस्कृत में राष्ट्रगीत के ‘वन्दे’ शब्द की समीक्षा)

वन्दे मातरम्
(संस्कृत में राष्ट्रगीत के ‘वन्दे’ शब्द की समीक्षा)

आजकल “वन्दे मातरम्” गीत पर बहुत विवाद चल रहा है। कुछ समुदाय इसके विरोध मे हैं। उनके अनुसार इससे इनकी धार्मिक मान्यताओ से विरोध होता है। वे निराकार ईश्वर या खुदा के अतिरिक्त किसी जड़ वस्तु या भूमि की उपासना भक्ति या इबादत नहीं करते। कुछ नास्तिक निरीश्वरवादी किसी ईश्वर को नहीं मानते, न भक्ति, उपासना, इबादत करते हैं। इसी विवाद का विषय बने ‘वन्दे’ शब्द की हम समीक्षा कर रहे हैं-

सस्कृत में ‘वन्दे’ शब्द क्रियापद है। जो “वदि- अभिवादनस्तुत्योः” (= अभिवादन/प्रणाम करना एवं स्तुति/गुणगान करना) धातु से लट् लकार (वर्तमान काल) में उत्तम पुरुष के एकवचन में बनता है। वन्द् + शप् + लट् = वन्द् अ इट् = वन्दे। इस धातुरूप के इसके धात्वर्थ के अनुसार दो अर्थ हैं। 1. मैं वन्दना अर्थात् अभिवादन, प्रणाम, भक्ति, उपासना, धोक मारना करता हूं। यह अर्थ चेतन माता-पिता गुरु-आचार्य आदि को अभिवादन या नमस्ते करने के लिए एवं परमेश्वर की भक्ति उपासना, इबादत करने के लिए प्रयुक्त होता है। तथा 2. मैं स्तुति, गुणगान, प्रशंसा, नामवरी, बढ़ाई करता हूं। यह अर्थ चेतन एवं जड़ याने निर्जीव पदार्थों या वस्तुओं के प्रति होता है। क्योंकि जड़ वस्तुओं की उपासना भक्ति इबादत का तो औचित्य नहीं है। किन्तु प्रशंसा, गुणगान, नामवरी तो चेतन के साथ-साथ जड़ वस्तुओं की भी हो सकती है। जैसे प्रत्येक दुकानदार अपने बेचने के वस्तुओं की प्रशंसा, गुणगान, बढ़ाई करता है। फल-विक्रेता कहता है ये फल ताजे हैं, मीठे हैं आदि। सब्जी बेचनेवाला कहता है ये तरकारी ताजी है, बहुत अच्छी है, सस्ती है आदि। मूंगफली विक्रेता जोर-जोर से बोलता है- जाड़े की मेवा मूंगफली, करारी भुनी मूंगफली आदि। टी.वी., रेडियो, अखबार में दिन-रात लोग कंपनियां अपने उत्पादों की जोर-शोर से वन्दना, प्रशंसा, स्तुति, गुणगान, बड़ाई करते हैं। जिससे उनका माल अधिक बिकता है। अर्थात् प्रत्येक मालविक्रेता अपनी वस्तुओं की वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बढ़ाई, नामवरी करता है। यदि वह वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बढ़ाई, गुणगान न करे तो उसका माल धरा रह जाएगा। यदि कोई विक्रेता कहे कि मैं इन वस्तुओं की वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, गुणगान नहीं करूंगा, तुम्हें वस्तु लेनी है तो लो, नहीं तो आगे बढ़ो तो दुकान नहीं चल सकती। मैंने प्रत्येक दुकानदार को अपने माल की वन्दना प्रशंसा, स्तुति, बढ़ाई करते देखा है। चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान, ईसाई हो या सिक्ख, नास्तिक हो या आस्तिक, स्त्री हो या पुरुष सभी वन्दना, स्तुति, प्रशंसा, बढ़ाई करते हैं।

संस्कृत के भारतीय राष्ट्रगीत में भी मातृभूमि की स्तुति, प्रशंसा ही की गई है।

वन्दे मातरम्
सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्
शस्यशामलाम् मातरम् वन्दे
शुभ्र ज्यात्स्नां पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां-वरदां मातरम्.. वन्दे मातरम्

अर्थात् मैं (पृथ्वी-पुत्र) अपनी मातृभूमि (जन्म-भूमि) की वन्दना, गुणगान, प्रशसा, नामवरी करता हूं। जो सुन्दर मीठे जलवाली मीठे रसीले फल-फूलवाली, ठंड़ी-सुगन्धित वायुवाली, हरी-भरी फसलों से सजी हुई, चमकीले प्रकाशवाली, शान्तिप्रद रात्रियोंवाली है। यह फूलते-फलते वृक्षों से सुशोभित है। यहां के वासी हंसते-खेलते मधुरभाषी हैं। यह मेरी मातृभूमि सुख देनेवाली और वरदान देनेवाली (लक्ष्य को पाने की शक्ति देनेवाली) है। ऐसी अद्भुत मातृभूमि की मैं वन्दना, प्रशंसा, गुणगान, नामवारी करता हूं।

इस गीत में गुणगान, प्रशंसा करनेवाले ही शब्द हैं। धोक मारने, उपासना, इबादत करने को नहीं कहा गया। जिस देश की मिट्टी में हम पले-बढ़े हैं, उसकी प्रशंसा, गुणगान करना तो हमारा स्वाभाविक धर्म है। अन्यथा कृतघ्नता याने अहसान-फरामोशी का पाप लगेगा।

मैं यह व्याख्या अपनी मन-मानी खींचातानी से नहीं कर रहा हूं। अपितु हजारों लाखों वर्षों से उक्त दोनों अर्थों में यह धातु प्रयुक्त की जाती आ रहा है जिससे वन्दना (अभिवादन, प्रणाम और स्तुति-प्रशंसा) शब्द बनता है। इसका जो अर्थ हजारों वर्षों पूर्व था वही अब है। और यही दोनों अर्थ वर्षों बाद भी रहेंगे।

वन्दे मातरम् पर आपत्ति का कारण मैं समझता हूं कि वे वन्दे शब्द का एकमात्र अर्थ अभिवादन करना या प्रणाम करना, इबादत करना ही समझते हैं। जो कि इस शब्द के प्रति घोर अन्याय है। और पचास प्रतिशत झूठ है। इस वन्दे शब्द का अर्थ अभिवादन भी है किन्तु अभिवादन ही नहीं अपितु स्तुति (प्रशंसा, गुणगान) करना भी है। वही दूसरा अर्थ इस गीत में लेना अभीष्ट है।

अतः मेरा निवेदन है कि सभी लोग अपने देश की प्रशंसा करनेवाले गीत को मातृभूमि की स्तुति, प्रशंसा, गुणगान, नामवारी करनेवाला मानकर निःसकोच प्रसन्नता से गावें। अन्य क्षेत्रिय भाषाओं में तो एक शब्द के अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। जैसे मराठी भाषा में ताई का अर्थ है- दीदी (बड़ी बहन) किन्तु हिन्दी भाषा में ताई का अर्थ ताऊ की पत्नी या माता की जेठानी होता है। अतः यदि आप उ.प्र. में किसी युवती को ताई कहकर बुलाएंगे तो वह नाराज होगी, थप्पड़ जड़ देगी या गाली देगी जबकि यदि यही शब्द से महाराष्ट्र में किसी युवती को सम्बोधन करेंगे तो वह प्रसन्नता से उत्तर देगी। किन्तु संस्कृत भाषा में ऐसी भ्रान्ति नहीं होती। स्थिति के अनुसार उसका अर्र्थ स्पष्ट हो जाता है।

यदि आप इस राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत वन्दे मातरम् के पद-समूह को देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि इस गीत में भारत का नाम नहीं है अतः यह पाकीस्तान, चीन, जापान, अमेरिका, यूरोप, अफ्रिका आदि सभी देशवासियों का अपना राष्ट्रगीत हो सकता है। अर्थात् यह किसी एक देश विशेष याने भारत का ही गीत नहीं अपितु पृथ्वीवासी प्रत्येक देशवासियों के गाने योग्य है। मेरा मान्य प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी से निवेदन है कि इस वन्दे मातरम् गीत को संयुक्त राष्ट्र-संघ (यू.एन.) में विश्व राष्ट्र-गीत की मान्यता दिलाने के लिए प्रयत्न करें। क्योंकि हम सब धरतीवासी एक कुटुम्ब हैं (वसुधैव कुटुम्बकम्)। यदि आगे कभी हमें मंगल-ग्रहवासियों या बृहस्पति ग्रहवासियों के साथ मिलने का अवसर मिले तो हम गर्व से कह सकें कि हम ऐसी पृथ्वी ग्रह के वासी हैं जैसी इस गीत में वर्णित है।

इस गीत के शीर्षक के मातरम् शब्द पर भी विवाद है। कि हम भूमि को मातरम् क्यों कहें ? सो इसका अर्थ समझें कि यह शब्द वाचक लुप्तोपमालंकार में है। अर्थात् माता के समान सुख देनेवाली, जीवन देनेवाली भूमि हमारी मातृभूमि है।

इसी सादृश्य से बहुत से शब्द बोले जा ते हैं जैसे नरशार्दूलः, रामसिंह, रणसिह, धर्मसिंह, गोविन्दसिंह आदि। सिक्ख बन्धुओं के नाम ही अधिकतर सिंह उपपद लिए होते हैं। इन सबका अर्थ है सिंह याने शेर के समान पराक्रमी, उत्साही न कि बड़े-बड़े दातों और पंजोंवाला जानवर। आशा है कि सभी मत के लोग सभी देशों के मनुष्य इस वन्दे मातरम् गीत को खुशी-खुशी से गाकर स्वयं भी प्रफुल्लित होंगे।

निवेदक

आचार्य आनन्दप्रकाश
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आर्ष शोध संस्थान
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दि. 15 अगस्त 2017, जन्माष्टमी