प्रभात से रात हो गई

प्रभात से रात हो गई

मैंने अपने द्वारा लिखित ‘रक्तसाक्षी पण्डित लेखराम’ पुस्तक में पण्डित लेखराम जी की एक घटना दी है जो मुझे अत्यन्त प्ररेणाप्रद लगती है। वीरवर लेखराम के बलिदान से एक वर्ष पूर्व की बात है। पण्डितजी करनाल पधारे। वहाँ से दिल्ली गये। उनके साथ एक आर्य सज्जन भी गये। साथ जानेवाले महाशय का नाम श्रीमान् लाला बनवारी लालजी आर्य था। वे पण्डितजी के बड़े भक्त थे।

पण्डितजी दिल्ली में एक दुकान से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर जाते। एक बाज़ार से दूसरे में जाते। एक पुस्तक की खोज में प्रातःकाल से वे लगे हुए थे। उन दिनों रिज़्शा, स्कूटर, टैज़्सियाँ तो थीं नहीं। वह युग पैदल चलनेवालों का युग था।

पण्डित लेखराम सारा दिन पैदल ही इस कार्य में घूमते रहे। कहाँ खाना और कहाँ पीना, सब-कुछ भूल गये।

साथी ने कहा-‘‘पण्डितजी ऐसी कौन-सी आवश्यक पुस्तक है, जिसके लिए आप इतने परेशान हो रहे हैं? प्रभात से रात होने को है।’’

पण्डितजी ने कहा-‘‘मिर्ज़ा गुलाम अहमद कादियानी ने आर्यजाति पर एक वार किया है। उनके उज़र में मैंने एक पुस्तक लिखी है। उसमें इस पुस्तक का प्रमाण देना है। यह पुस्तक मुसलमानी

मत की एक प्रामाणिक पुस्तक है। प्रमाण तो मुझे कण्ठस्त है फिर भी इसका मेरे पास होना आवश्यक है। इसमें इस्लाम के मसला ‘लफ़ हरीरी’ का विस्तार से वर्णन है। यह मसला शिया मुलसमानों के ‘मुता’ से भी कुछ आगे है।

अन्त में पण्डितजी को एक बड़ी दुकान से वह पुस्तक मिल गई। कुछ और पुस्तकें भी पसन्द आईं। वे भी ले-लीं। इन सब पुस्तकों का मूल्य पन्द्रह रुपये बनता था। पण्डितजी जब यह राशि

देने लगे तो दुकानदार को यह विचार आया कि ऐसी पुस्तकें कोई साधारण व्यक्ति तो क्रय नहीं करता। यह ग्राहक कोई नामी स्कालर ही हो सकता है।

दुकानदार संयोग से एक आर्यपुरुष था। उसने पैसों की ओर हाथ बढ़ाने की बजाए ग्राहक से यह प्रश्न कर दिया कि आपका शुभ नाम ज़्या है? आप कौन हैं?

इससे पूर्व कि रक्तसाक्षी वीरवर लेखराम बोलते, उनके साथी ने एकदम कहा-‘‘आप हैं धर्मरक्षक, जातिरक्षक आर्यपथिक पण्डित लेखरामजी।’’

यह सुनते ही दुकानदार ने पण्डितजी को नमस्ते की। उसने प्रथम बार ही वीरजी के दर्शन किये थे। पैसे लेने से इन्कार कर दिया।

इस घटना के दो पहलू हैं। पण्डितजी की लगन देखिए कि धर्म-रक्षा के लिए पैदल चलते-चलते प्रभात से रात कर दी और उस प्रतिष्ठित आर्य चरणानुरागी महाशय बनवारी लालजी की धुन का भी मूल्यांकन कीजिए जो अपने धर्माचार्य के साथ दीवाना बनकर घूम रहा है। इस घटना का एक दूसरा पहलू भी है। पण्डितजी को 25-30 रुपया मासिक दक्षिणा मिलती थी। अपनी मासिक आय का आधा या आधे से भी अधिक धर्मरक्षा में लगा देना कितना बड़ा त्याग है। कहना सरल है, परन्तु करना अति कठिन है। पाठकवृन्द उस दुकानदार के धर्मानुराग को भी हम भूल नहीं सकते जिसने पण्डितजी से अपनी प्रथम भेंट में ही यह कह दिया कि मैं पन्द्रह रुपये नहीं

लूँगा। आप कौन-सा किसी निजी धन्धे में लगे हैं। यह आर्यधर्म की रक्षा का प्रश्न है, यह हिन्दूजाति की रक्षा का प्रश्न है।

ज़्या आप जानते हैं कि वह दुकानदार कौन था? उसका नाम था श्री बाबू दुर्गाप्रसादजी। आर्यों! आइए! अपने अतीत को वर्तमान करके दिखा दें। तब के रुपये का मूल्य ज़्या था?

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