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मेरी समपत्ति

मेरी समपत्ति

– गजानन्द आर्य

पिछले जन्म दिन के अवसर पर आर्यजी ने अपने परिवारजनों के मध्य स्वयं के जीवन से सबन्धित उस महत्त्वपूर्ण भाग पर प्रकाश डाला, जिससे आर्य जी के जीवन की पवित्रता, सहजता और सात्विकता पर प्रकाश पड़ता है। उनका यह वक्तव्य लिखित रूप में है, जिसका शीर्षक है ‘मेरी समपत्ति’ । इसे पढ़ कर आप आर्य जी के जीवन से अवश्य प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे ।– सपादक

मैं जब कलकत्ता में पढ़ता था, तब जीवन में एक ऐसी स्थिति आई, जब कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर अपनी पारिवारिक कपड़े की दुकान पर बैठकर हिसाब-किताब की जिमेवारी मुझे अपने ऊपर लेनी पड़ी। दुकान का सारा क्रय-विक्रय, लेन-देन, बिल, रसीद आदि का लिखना सब कुछ मुझे करना होता था। हमारी दुकान पिताजी और उनके दो अन्य चचेरे भाइयों का साझा व्यापार था, इस कारण हिसाब-किताब की पारदर्शिता बहुत आवश्यक थी । मैंने इस दायित्व को पूरी जिमेवारी व ईमानदारी से निभाया। मैंने इस बात को गाँठ में बाँध लिया था कि जो भी कमाई करनी है, वह इस साझे व्यापार से करनी है। मुझे अपनी व्यक्तिगत कोई पूँजी, जिसे हमारे यहाँ गाँठी कहा जाता था, नहीं रखनी है। लाखों रुपयों का लेने-देन मेरे हाथों से होता था, लेकिन मैंने कभी अपने लिए उसमें से एक रुपया भी नहीं लिया ।

जब मेरा विवाह हो गया और कुछ महीनों के बाद तारामणी कलकत्ता आई, तो मेरे दुकान के सहयोगियों को लगा- अब घर की जिमेवारी बढ़ गयी है, तो फिर वो ईमानदारी कहाँ रहेगी? लोगों की मनःस्थिति समझकर मैंने घर खर्च की एक डायरी डाल ली, जिसमें मैं अपना दैनिक खर्च लिखने लगा। घरगृहस्थी के छोटे से छोटे खर्च का विवरण उसमें रहता। घर का कोइ भी बुजुर्ग डायरी को देख सकता था। मेरी उन डायरियों में से आज भी कुछ मेरे पास पड़ी हैं। मुझे इन सब बातों का यह लाभ हुआ कि मेरा पूरा जीवन उसी स्तर की अर्थ शुचिता के साथ-साथ बीता।

मैंने जीवन में अपने लिए कभी कुछ नहीं रखा। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ की आज 85 वर्ष की आयु में मेरा कोई बैंक बैलेंस नहीं है, नही मेरी कोई जमीन जायदाद है। कोई कपनियों के शेयर नहीं है। नकद के रूप में कुछ नहीं है। केनारा बैंक में एक लॉकर है, जिसमें तारामणी के कुछ जेवर हैं और एक दस हजार रुपयों की फिक्स्ड डिपाजिट की रसीद है। इस लॉकर में मेरा कुछ नहीं है।

जीवन भर पढ़ने और लिखने की रुचि रही, इस कारण मेरे पास सैंकड़ों ग्रंथों का संग्रह बन गया। धीरे-धीरे आँखों की रौशनी क्षीण हो गयी, पढ़ना संभव नहीं रहा। इस अवस्था में मैंने अपनी सबसे बड़ी निधि अपनी किताबों का वितरण शुरू कर दिया। मेरे पास आने वाले जिस सदस्य को जो किताब अच्छी लगी, वह उसे दे दी। अब भी थोड़ी बची है। किसी को चाहिए तो लेले ।

कुछ नहीं होने के उपरान्त भी मैं बहुत भाग्यवान हूँ और अपने-आपको दुनिया का सबसे बड़ा धनवान मानता हॅूँ। मेरे पूरे परिवार से मुझे जो सेवा और सुरक्षा मिली है, उसका कोई मूल्यांकन संभव नहीं है।

लिखने के शौक को सार्थक किया भाई सत्यानन्दने। मेरे लेखों को पत्र-पत्रिकाओं में भेजना, मेरी लिखी किताबों को छपवाना, ये सारा दायित्व भाई ने एक कर्त्तव्य की तरह निभाया। सत्यानन्द के इस निःस्वार्थ सहयोग की कीमत आँकना मेरे लिए संभव नहीं है। समस्त आर्यजगत् में  मेरी छवि एक चिंतक और लेखक के रूप में स्थापित हुई सत्यानन्द के कारण। सत्यानन्द ने मुझे अलखनंदा और ऐसी अन्य ऐतिहासिक स्थलों की यात्रायें करवाईं।

यूँ तो मेरी चारों बहनों ने मुझे हमेशा बहुत आदर सत्कार और स्नेह दिया है, लेकिन सुशीला भारत के पूर्वी हिस्से में होने के कारण मुझसे निरंतर मिलती रही है। उसका आना हमेशा सुखद होता है, हम सब मिलकर सत्संग का आनंद लेते हैं। सभी मिलकर भजन गाते हैं। हमारी बीमारी आदि की परिस्थिति में वह हमेशा हमारे पास आ जाती है। ऐसी बहनें ही तो जीवन की असली निधि हैं। जीवन की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समपत्ति मिली मुझे 1951 में, पत्नी के रूप में देवी तारामणि। मेरे जीवन के हर संघर्ष में उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। तारामणी के कारण मेरी परिवार में और समाज में-दोनों जगह प्रतिष्ठा बढ़ी। वानप्रस्थ जीवन में तो मैं इन्हें माँ जी मानने लग गया हूँ। मेरी अस्वस्थता के सामने ये अपनी सारी अस्वस्थता भूल जाती हैं। जीवन में जो काम मेरे थे, जैसे दैनिक हवन, विद्वानों का आतिथ्य और सन्मान, सब कुछ इन्होंने सँभाल रखा है।

किसी भी व्यक्ति की समपत्ति उसकी योग्य संतति होती है। मुझे भी अपने बच्चों पर गर्व है। मेरी लबी और जटिल बीमारी के समय मुंबई में सविता हर समय मेरे पास बैठी रहती। उसका घर महेंद्र के घर से काफी दूर स्थित है, लेकिन वह कब आती और कब जाती, हमें कुछ पता नहीं लगता। कभी पुस्तकें पढ़कर सुनाती, कभी भजन गाती और हमारी बातें सुनती। महीनों तक ये सिलसिला चला। आजतक जीवन की कोई कठिनाई हो, सविता हमेशा हमें हमारे पास मिलती है। अब जब टेलीविजन पर खबरें देख और सुन नहीं पाता, तब सविता की बेटी शीतल ने एक छोटा-सा रेडियो मुझे भेज दिया है, जो मुझे देश में होनेवाली सभी घटनाओं से जोड़कर रखता है।

बेटे महेन्द्र के बारे में क्या कहूँ? मेरे पिता जी हमेशा सब से मेरे बारे में कहते थे- सामाजिक कामों में मेरा बेटा गजानंद मुझसे आगे निकल गया है। आज मैं वही बात गर्व से अपने बेटे महेन्द्र के विषय में कह सकता हूँ। महेन्द्र समाज सेवा हीन हीं, बल्कि अपने आर्य समाजी चिंतन में मुझसे आगे निकल  गया है। उसके कविता के रूप में अनुवादित मन्त्र बहुत प्रचलित हुए हैं, हम उसकी बहुत सारी कविताओं को रोज गाते हैं। मेरी एक पुस्तक ‘आर्य समाज की मान्यताएँ’’ का उसने बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद और प्रकाशन किया है। मुंबई में लायंस क्लब और मिलेनियम के संस्थापक और संचालक रूप में उसने अपनी नेतृत्व कला को प्रखर किया है। छोटे बेटे नरेन्द्र और बहू रंजना ने भी आर्य समाज बैंगलोर में भाग लेकर हमारी पारिवारिक परंपरा को जारी रखा है।

जीवन के पिछले बीस वर्ष बीमारी के साथ संघर्ष में ही बीते हैं। निरंन्तर इलाज पर खर्च होता रहा है, लेकिन भाइयों और बेटों ने मुझे इस निरंतर चल रहे व्यय का आभास भी नहीं होने दिया। सभी जानते हैं कि मेरे पास कुछ भी नहीं है, शायद इसकारण उनकी सेवा अपेक्षा से भी बहुत अधिक मिलती रही। अगर में अपनी पूँजी जोड़कर बैठा होता तो शायद उन्हें लगता कि मुझे क्या आवश्यकता होगी?

यूँ तो मुझे मेरे सभी पौत्र, पौत्रियाँ, दुहित्र, दुहित्रियाँ प्रिय हैं, लेकिन मेरे इस बुढ़ापे में मेरी यात्राओं का सहारा बना वरुण। जब मैं बहुत अस्वस्थ हो गया, ऐसा लगने लगा कि उस वर्ष अजमेर यात्रा संभव नहीं हो पाएगी, तब वरुण ने यह दायित्व सँभाला। वरुण ट्रैवल के बिजनेस में है। उसने मेरी यात्राओं की हवाई जहाज की टिकटें बनवायीं न जाने कितनी बार। न केवल टिकटें बनवाईं, बल्कि मेरी, तारामणी और हमारे साथ हमारे सेवक मोहन की यात्राओं में हर समय हमारे साथ गया। जयपुर अजमेर जाने की व्यवस्था वही करता। मैं कई बार उससे कहता- वरुण मेरे जैसे ग्राहक से तुमहारा नुकसान ही होता है। वह हँसकर उत्तर देता है- दादाजी आपको पता नहीं, कितना लाभ होता है? वरुण का ये योगदान मेरी अमूल्य निधि है।

भले ही व्यक्तिगत रूप से सभी सदस्यों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ, लेकिन परिवार के सभी सदस्य मुझे इतना प्रेम और आदर देते हैं, ये सभी लोग मेरी निधि हैं। आर्य समाज और परोपकारिणी सभा के कारण कितने ही मित्र और शुभचिंतक जीवन में मिले, ये सब भी मेरी समपत्ति का हिस्सा हैं। इस तरह की निधि का स्वामी होने के नाते क्या मैं सब से धनवान नहीं हूँ?

– कोलकाता

परस्पर पूरक सन्त गुरू रविदास और आर्य समाज

ओ३म्

22 फरवरी, 618 वीं जयन्ती पर

परस्पर पूरक सन्त गुरू रविदास और आर्य समाज

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

भारत के प्रसिद्ध सन्तों में सम्मिलित गुरू रविदास जी ने अपनी अन्तः प्रेरणा पर सांसारिक भोगों में रूचि नहीं ली। बचपन में ही वैराग्य-वृति व धर्म के प्रति लगाव के लक्षण उनमें प्रकट हुए थे। अध्यात्म के प्रति गहरी रूचि उनमें जन्मजात थी और जब कहीं अवसर मिलता तो वह विद्वानों व साधु-सन्तों के उपदेश सुनने पहुंच जाया करते थे। उस समय की अत्यन्त प्रतिकूल सामाजिक व्यवस्थायें व घर में उनके आध्यात्मिक कार्यो के प्रति गहन उपेक्षा का भाव था। बचपन में ही धार्मिक प्रकृति के कारण उनके पिता बाबा सन्तोख दास ने उन्हें जूते-चप्पल बनाने के अपने पारिवारिक व्यवसाय का कार्य करने की प्रेरणा की व दबाव भी डाला। जब इसका कोई विशेष असर नहीं हुआ तो कम उम्र में आर्यदेवी लोनादेवी जी से उनका विवाह कर दिया गया। इस पर भी उनकी धार्मिक लगन कम नहीं हुई। वह अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ते रहे जिसका परिणाम यह हुआ कि आगे चलकर वह अपने समय के विख्यात सन्त बने। सन्त शब्द का जब प्रयोग करते हैं तो अनुभव होता है कि कोई ऐसा ज्ञानी व्यक्ति जिसे वैराग्य हो, जिसने अपने स्वार्थो को छोड़कर देश व समाज के सुधार, उन्नति व उत्थान को अपना मिशन बनाया हो और इसके लिए जो तिल-तिल कर जलता हो जैसा कि दीपक का तेल जलता है। मनुष्य जीवन दो प्रकार का होता है एक भोग प्रधान जीवन दूसरा त्याग पूर्ण जीवन। सन्त का जीवन सदैव त्याग प्रधान ही होता है। भोग या तो होंगे नहीं या होगें तो अत्यल्प व जीवन जीने के लिए जितने आवश्यक हों, उससे अधिक नहीं। ऐसे लोग न तो समाज के लोगों व अपने अनुयायियों को ठगते हैं, न पूंजी व सम्पत्ति एकत्र करते हैं और न सुविधापूर्ण जीवन ही व्यतीत करते हैं। हम अनुभव करते हैं कि इसके विपरीत जीवन शैली भोगों में लिप्त रहने वाले अल्पज्ञानी लोगों की होती है। ऐसा जीवन जीने वाले को सन्त की उपमा नहीं दी सकती। सन्त व गुरू का जीवन सभी लोगों के लिए आदर्श होता है और एक प्रेरक उदाहरण होता है। गुरू व सन्तजनों के जीवन की त्यागपूर्ण घटनाओं को सुनकर बरबस शिर उनके चरणों में झुक जाता है। उनके जीवन की उपलब्ध घटनाओं पर दृष्टि डालने से लगता है कि वह साधारण व्यक्ति नहीं थे अपितु उनमें ईश्वर के प्रति अपार श्रद्धा की भावना थी व समाज के प्रति भी असीम स्नेह व उनके कल्याण की भावना से वह समाहित थे। ऐसा जीवन गुरू रविदास जी का था।

 

इस लेख के चरित्रनायक सन्त गुरू रविदास जी का जन्म सन् 1377 ईस्वी में अनुमान किया जाता है। उनकी मृत्यु के बार में अनुमान है कि वह 1527 में दिवगंत हुए। इस प्रकार से उन्होंने लगभग 130 वर्ष की आयु प्राप्त की। जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के वाराणसी के विख्यात धार्मिक स्थल काशी के पास गोवर्धनपुर स्थान में हुआ था। यह काशी वही स्थान है जहां आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आज से 147 वर्ष पूर्व, सन् 1869 ई. में काशी के सनातनी व पौराणिक मूर्ति पूजकों से वहां के प्रसिद्ध स्थान आनन्द बाग में लगभग 50,000 लोगों की उपस्थिति में काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह की मध्यस्थता व उनके सभापतित्व में लगभग 30 शीर्ष विद्वान पण्डितों से एक साथ अकेले शास्त्रार्थ किया था। स्वामी दयानन्द का पक्ष था कि सृष्टि की आदि में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेदों में ईश्वर की मूर्तिपूजा का विधान नहीं है। काशी के पण्डितों को यह सिद्ध करना था कि वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है। इतिहास साक्षी है कि अकेले दयानन्द जी के साथ 30-35 पण्डित अपना पक्ष सिद्ध न कर सकने के कारण पराजित हो गये थे और आज तक कोई पारौणिक, सनातन धर्मी व अन्य कोई भी वेदों से मूर्ति पूजा को सिद्ध नहीं कर पाया। हम एक बात अपनी ओर से यहां यह कहना चाहते हैं कि प्रायः सारा हिन्दू समाज फलित ज्योतिष की चपेट में है। फलित ज्योतिष का विधान भी सब सत्य विद्याओं की पुस्तक चारों वेदों में नहीं है।  इसके लिए मूर्तिपूजा जैसा बड़ा शास्त्रार्थ तो शायद कभी नहीं हुआ। हो सकता है कि इसका कारण यह मान्यता रही हो कि सभी पाखण्डों व अन्ध-विश्वासों का मुख्य कारण मूर्तिपूजा है और इसकी पराजय में ही फलित ज्योतिष भी मिथ्या सिद्ध माना जायेगा। महर्षि दयानन्द ने अपने कार्यकाल में फलित ज्योतिष का भी प्रमाण पुरस्सर खण्डन किया। आज जो भी बन्धु फलित ज्योतिष में विश्वास रखते हैं, दूरदर्षन व अन्य साधनों से तथाकथित ज्योतिषाचार्य प्रचार करते हैं व ज्योतिष जिनकी आजीविका है, उन पर यह उत्तरदायित्व है कि वह फलित ज्योतिष के प्रचार व समर्थन से पूर्व इसे वेदों से सिद्ध करें। फलित ज्योतिष सत्य इस लिए नहीं हो सकता कि यह ईश्वरीय न्याय व्यवस्था व कर्म-फल सिद्धान्त अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं में सबसे बड़ा बाधक है। ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने से यह स्वतः असत्य सिद्ध हो जाता है। सब सत्य विद्याओं के ग्रन्थ वेदों में यदि फलित ज्योतिष का विधान नहीं है तो इसका अर्थ है कि फलित ज्योतिष सत्य विद्या न होकर काल्पनिक, मिथ्या सिद्धान्त व विश्वास है। हम समझते हैं कि गुरू रविदास जी ने अपने समय में वही कार्य करने का प्रयास किया था जो कार्य महर्षि दयानन्द ने 19वीं शताब्दी के अपने कार्यकाल में किया था। इतना अवश्य कहना होगा कि महर्षि दयानन्द का विद्या का कोश बड़ा था जिसका आधार अनेका गुरुजनों से विद्या की प्रति सहित उनका वेद एवं वैदिक साहित्य का ज्ञान है। कभी कहीं किन्हीं दो महापुरूषों की योग्यता समान नहीं हुआ करती। लेकिन यदि कोई व्यक्ति अन्धकार व अज्ञान के काल में व विपरीत परिस्थितियों में अपने पूर्वजों के धर्म पर स्थित रहता है और त्यागपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए लोगों को अपने धर्म पर स्थिर रहने की शिक्षा देता है तो यह भी जाति व देश के हित में बहुत बड़ा पुण्य कार्य होता है। गुरू रविदास जी ने विपरीत जटिल परिस्थितियों में जीवन व्यतीत किया मुस्लिम काल में स्वधर्म में स्थिर रहते हुए लोगों को स्वधर्म में स्थित रखा, यह उनका बहुत बड़ा योगदान है। यह तो निर्विवाद है कि महाभारत काल के बाद स्वामी दयानन्द जैसा विद्वान अन्य कोई नहीं हुआ। अन्य जो हुए उन्होंने नाना प्रकार के वाद दिये परन्तु वेदों का सत्य वाद त्रैतवाद तो महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ही देश व संसार को दिया है जो सृष्टि की प्रलय तक विद्वानों व विवेकीजनों का आध्यात्मिक जगत में मुख्य व एकमात्र सिद्धान्त रहेगा।

 

पहले गुरूजी के परिवार के बारे में और जान लेते हैं। उनकी माता का नाम कलषी देवी था। जाति से गुरूजी कुटबन्धला जाति जो चर्मकार जाति के अन्तर्गत आती है, जन्मे थे। उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम विजय दास कहा जाता है। उन दिनों सामाजिक व्यवहार में जन्म की जाति का महत्व आज से बहुत अधिक था व व्यक्ति का निजी व्यक्तित्व व गुण गौण थे। इस कारण गुरूजी, उनके परिवार, उनकी जाति व अन्य दलित जातियों के लिए जीवन जीना बहुत दूभर था। समाज में छुआछुत अथवा अस्पर्शयता का विचार व व्यवहार होता था। इन सब अनुचित कठोर सामाजिक बन्धनों को झेलते हुए भी आपने अपना मार्ग बना लिया और आत्मा व ईश्वर के अस्तित्व को जानकर स्वयं भी लाभ उठाया व दूसरों को भी लाभान्वित किया। सच कहें तो गुरूजी अपने समय में एक बहु प्रतिभाशाली आध्यात्मिक भावना व तेज से सम्पन्न महापुरूष थे। यदि उन्हें विद्याध्ययन का अवसर मिलता तो वह समाज में कहीं अधिक प्रभावशाली क्रान्ति कर सकते थे। आगे चल कर हम उनकी कुछ शिक्षाओं, सिद्धान्तों तथा मान्यताओं को भी देखगें जो उस युग में वैदिक धर्म को सुरक्षा प्रदान करती हैं। गुरू रविदास जी ने ईश्वर भक्ति को अपनाया और अपना जीवन उन्नत किया। योग, उपासना व भक्ति शब्दों का प्रयोग आध्यात्मिक उन्नति के लिए किया जाता है। योग, स्वाध्याय व ईश्वर को सिद्ध हुए योगियों के उपदेशों का श्रवण व उनके प्रशिक्षण से ईश्वर का ध्यान करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार करने को कहते हैं। उपासना भी योग के ही अन्तर्गत आती है इसमें भी ईश्वर के गुणों को जानकर स्तुति, प्रार्थना व उपासना से उसे प्राप्त व सि़द्ध किया जाता है। उपासना करना उस ईश्वर का धन्यवाद करना है जिस प्रकार किसी से उपकृत होने पर सामाजिक व्यवहार के रूप में हम सभी करते हैं। उपासना का भी अन्तिम परिणाम ईश्वर की प्राप्ति, साक्षात्कार व जन्म-मरण से छूटकर मुक्ति की प्राप्ति है। भक्ति प्रायः अल्प शिक्षित लोगों द्वारा की जाती है जो योग व उपासना की विधि को भलीप्रकार व सम्यक रूप से नहीं जानते। भक्ति एक प्रकार से ईश्वर के भजन करना व मानव सेवा में संलग्न रहना है। भक्त ईश्वर को स्वामी व स्वयं को सेवक मानकर ईश्वर के भजन व भक्ति गीतों को गाकर अपने मन को ईश्वर में लगाता है जिससे भक्त की आत्मा में सुख, शान्ति, उल्लास उत्पन्न होता है तथा भावी जीवन में वह निरोग, बल व शक्ति से युक्त, दीर्घजीवी, यशः व कीर्ति के धन से सम्पन्न होता है। इसके साथ हि उसका मन व आत्मा शुद्ध होकर ईश्वरीय गुणों दया, करूणा, प्रेम, दूसरों को सहयोग, सहायता, सेवा, परोपकार आदि से भरकर उन्नति व अपवर्ग को प्राप्त होता है।

 

सन्त रविदास जी सन् 1377 में जन्में व सन् 1527 में मृत्यु को प्राप्त हुए। ईश्वर की कृपा से उन्हें काफी लम्बा जीवन मिला। यह उस काल में उत्पन्न हुए जब हमारे देश में अन्य कई सन्त, महात्मा, गुरू, समाज सुधारक पैदा हुए थे। गुरूनानक जी (जन्म 1497), तुलसीदास जी (जन्म 1497), स्वामी रामानन्द (जन्म 1400), सूरदास जी (जन्म 1478), कबीर दास जी (1440-1518), मीराबाई जी (जन्म 1478) आदि उनके समकालीन थे। गुरू रविदास जी के जीवन काल में देश में सन् 1395-1413 अवधि में महमूद नासिरउद्दीन, सन् 1414-1450 अवधि में मुहम्मद बिन सईद तथा सन् 1451 से 1526 तक लोधी वंश का शासन रहा। लोदी वंश के बाद सन् 1526 से 1531 बाबर का राज्य रहा। ऐसे समय में गुरू रविदास जी भी सनातन वैदिक धर्म के रक्षक के रूप में प्राचीन आर्य जाति के सभी वंशजों जिनमें दलित मुख्य रूप से रहे, धर्मोपदेश से उनका मार्गदर्शन करते रहे। धर्म रक्षा समाज सुधार में उनका योगदान अविस्मरणीय है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।

 

परमात्मा ने सभी मनुष्यों को बनाया है। ईश्वर एक और केवल एक है। जिन दैवीय शक्तियों की बात कही जाति है वह सब जड़ हैं तथा उनमें जो भी शक्ति या सामथ्र्य है वह केवल ईश्वर प्रदत्त व निर्मित है तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता के गुण के कारण है।  सभी धर्म, मत, मजहब, सम्प्रदायों, गुरूडमों का अराध्यदेव भिन्न होने पर भी वह अलग-2 न होकर एकमात्र सत्य-चित्त-आनन्द = सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा ही है। इन्हें भिन्न-भिन्न मानना या समझना अज्ञानता व अल्पज्ञता ही है। विज्ञान की भांति भक्तों, सन्मार्ग पर चलने वाले धार्मिक लोगों, उपासकों, स्तोताओं, ईश्वर की प्रार्थना में समय व्यतीत करने वालों को चिन्तन-मनन, विचार, ध्यान, स्वाध्याय कर एवं सत्य ईश्वर का निश्चय कर उसकी उपासना करना ही उचित व उपयोगी है एवं जीवन को उपादेय बनाता है।  वैद, वैदिक साहित्य एवं सभी मत-मतान्तरों-धर्मों, रीलिजियनों, गुरूद्वारों आदि की मान्यताओं, शिक्षाओं व सिद्धान्तों का अध्ययन कर परमात्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तरयामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता ही निर्धारित होता है। जीवात्मा का स्वरूप सत्य, चित्त, आनन्द रहित, आनन्द की पूर्ति ईश्वर की उपासना से प्राप्तव्य, पुण्य-पाप कर्मों के कारण जन्म-मरण के बन्धन में फंसा हुआ, मोक्ष प्राप्ति तक जन्म-मरण लेता हुआ सद्कर्मो-पुण्यकर्मो व उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष व मुक्ति को प्राप्त करता है। ईश्वर, जीव के अतिरिक्त तीसरी सत्ता जड़ प्रकृति की है जो स्वरूप में सूक्ष्म, कारण अवस्था में आकाश में सर्वत्र फैली हुई तथा सत्व-रज-तम गुणों की साम्यवस्था के रूप में विद्यमान होती है। सृष्टि के आरम्भ मे ईश्वर अपने ज्ञान व शक्ति से इसी कारण प्रकृति से कार्य प्रकृति-सृष्टि को रचकर इसे वर्तमान स्वरूप में परिणत करता है। इस प्रकार यह संसार वा ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आता है। सृष्टि बनने के बाद 1,96,08,53,116 वर्ष व्यतीत होकर आज की अवस्था आई है। इससे पूर्व भी असंख्य बार यह सृष्टि बनी, उन सबकी प्रलय हुई और आगे भी असंख्य बार यह क्रम जारी रहेगा।  मनुष्य जन्म धारण होने पर सत्कर्मो को करते हुए ईश्वर की उपासना से ईश्वर का साक्षात्कार करना जीवन का लक्ष्य है। उपासना जिसके साथ स्तुति, प्रार्थना, योगाभ्यास, योगसाधना, ध्यान, समाधि भक्ति आदि भी जुड़े हुए हैं, जीवन के लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति होती है।

 

आर्यसमाज सत्य को ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने व छुड़ाने का एक अपूर्व व अनुपमेय आन्दोलन है। यह सर्व स्वीकार्य सिद्धान्त अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि का प्रबल समर्थक है। यद्यपि आर्य समाज का यह सिद्धान्त विज्ञान के क्षेत्र में शत-प्रतिशत लागू है परन्तु धर्म व मत-मतान्तरों-मजहबों में इस सिद्धान्त के प्रचलित न होने से संसार के सभी प्रचलित भिन्न-2 मान्यता व सिद्धान्तों वाले मत-मतान्तरों-मजहबों के एकीकरण, एकरूपता व सर्वमान्य सिद्धान्तों के निर्माण व सबके द्वारा उसका पालन करने जिससे सबकी धार्मिक व सामाजिक उन्नति का लक्ष्य प्राप्त हो, की प्राप्ति में बाधा आ रही है। आर्य समाज सत्य के ग्रहण, असत्य के त्याग एवं अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि के सिद्धान्त को धर्म, मत-मतान्तर व मजहबों में भी प्रचलित व व्यवहृत कराना चाहता है। बिना इसके मनुष्य जाति का पूर्ण हित सम्भव नहीं है। मनुष्य का मत व धर्म सार्वभौमिक रूप से एक होना चाहिये। सत्याचरण व सत्याग्रह, सत्य मत के पर्याय है। पूर्ण सत्य मत की हर कसौटी पर परीक्षा करने पर केवल वेद मत ही सत्य व यथार्थ सिद्ध होता है। यह वेद मत सायण-महीधर वाले वेद मत के अनुरूप नहीं अपितु पाणिनी, पंतजलि, यास्क, कणाद, गौतम, वेदव्यास, जैमिनी आदि व दयानन्द के वेद भाष्य, दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों के सिद्धान्तों के अनुरूप ही हो सकता है। इसी को आर्यसमाज मान्यता देता है व सबको मानना चाहिये।

 

स्वामी दयानन्द ने पूना में समाज सुधारक ज्योतिबा फूले के निमंत्रण पर उनकी दलितों व पिछड़ों की कन्या पाठशाला में जाकर उन्हें ज्ञान प्राप्ति व जीवन को उन्नत बनाने की प्रेरणा की थी। इसी प्रकार से सब महापुरूषों के प्रति सद्भावना रखते हुए तथा उनके जीवन के गुणों को जानकर, गुण-ग्राहक बन कर, उनके प्रति सम्मान भावना रखते हुए, वेद व वैदिक साहित्य को पढ़कर अपनी सर्वांगीण उन्नति को प्राप्त करना चाहिये।  इसी से समाज वास्तविक अर्थो में, जन्म से सब समान व बराबर, मनुष्य समाज बन पायेगा जिसमें किसी के साथ अन्याय नहीं होगा, किसी का शोषण नहीं होगा और न कोई किसी का शोषण करेगा। सबको आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति के समान अवसर प्राप्त होगें। समाज गुण, कर्म व स्वभाव पर आधारित होगा जिसमें किसी से पक्षपात नहीं होगा व सबके साथ न्याय होगा। गुरू रविवास जी की प्रमुख शिक्षाओं में कहा गया है कि काव्यमय वेद व पुराण वर्णमाला के 34 अक्षरों से मिलकर बनाये गये हैं। महर्षि वेदव्यास का उदाहरण देकर कहा गया है कि ईश्वर के समान संसार में कोई नहीं है अर्थात् ईश्वर सर्वोपरि है। उनके अनुसार वह लोग बड़े भाग्यशाली है जो ईश्वर का ध्यान योगाभ्यास करते हैं और अपने मन को ईश्वर में लगाकर एकाग्र होते हैं। इससे वह सभी द्वन्दों समस्याओं से भविष्य में मुक्त हो जायेगें। गुरू रविदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर की दिव्य जयोति से अपने हृदय को आलोकित करता है वह जन्म, मृत्यु के भय दुखों से मुक्त हो जाता है। उनका सन्देश था कि सब मनुष्य सब प्रकार से समान है। जाति, रंग व भिन्न 2 विश्वासों के होने पर भी सब समान ही हैं। उन्होंने वैश्विक भ्रातृत्व भावना अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम् व सहनशीलता का सन्देश लोगों को दिया। उनके उपदेशों को अमृतवाणी के नाम से प्रकाशित किया गया है जो हिन्दी, अग्रेजी व गुरूमुखी में उनके जन्म स्थान गोवधर्नपुरी, वाराणसी स्थित संस्थान से उपलब्ध है। गुरूजी ने अपने समय में लोगों द्वारा अस्पर्शयता की जो भावना थी उसका भी विरोध कर उसके स्थान पर ईश्वर भक्ति को अपनाने का सन्देश दिया। वह वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी व प्रचारक थे और राम व कृष्ण के जीवन की उदात्त शिक्षाओं का प्रचार भी करते थे। उनकी एक शिक्षा यह भी थी कि ईश्वर ने मनुष्य को बनाया है न कि मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है। यह एक अति गम्भीर बात है जिस पर मनन करने पर अनेक सम्प्रदायों द्वारा इस शिक्षा के विपरीत व्यवहार देखा जाता है। बताया जाता है कि चित्तौड़ के महाराजा व महारानी उनके शिष्य बन गये थे। यह भी संयोग है कि उदयपुराधीश महाराजा उम्मेदसिंह जी स्वामी दयानन्द सरस्वती के परमभक्त थे। मीराबाई को भी गुरूजी की अनुयायी बताया जाता है। गुरू रविदास जी के कई स्तोत्र सिख धर्म पुस्तक गुरू ग्रन्थ साहिब में संग्रहित हंै। सम्भवतः इसी से उनकी वाणी व शिक्षाओं, मान्यताओं व सिद्धान्तों की रक्षा हो सकी है।

 

हम गुरू रविदास जी व अन्य धार्मिक गुरूओं के चित्रो में उन्हें आंखें बन्द किये हुए ध्यान की मुद्रा में एकान्त स्थान पर उपासना करते हुए देखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके अन्दर कुछ ऐसा है, जो उन्हें दिख नही रहा या समझ में नहीं आ रहा, उसे ही वह अपने अन्दर ढूंढ रहें हैं। एकान्त में आंखें बन्द कर उपासना करना निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सच्चिदानन्दस्वरूप, सदैव व हर काल में आत्मा के अन्दर व बाहर विद्यमान एवं दुःखों का निवारण कर सुख देने वाले ईश्वर की उपासना का प्रमाण है। हम तो यहां तक कहेगें कि यदि एक मूर्तिपूजक, मन्दिर या घर में, मूर्ति या किसी चित्र के सामने आंखें बन्द कर खड़ा होकर या बैठकर उपासना करता है, आरती या भजन गाता है, तो यह भी निराकार सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, ईश्वर की उपासना सिद्ध होती है। इसका कारण यह है कि कभी कोई किसी जीवित व दृश्य पदार्थ की उपासना आंखें बन्द करके नहीं करता अपितु आंखें खोलकर ही समस्त व्यवहार करता व किया जाता है। आंखे बन्द कर उपासना करना निश्चित ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, निराकार, जन्म व मृत्यु से रहित ईश्वर की उपासना है। हम व्याख्यान, प्रवचन व परस्पर संवाद आंखें खोलकर ही करते हैं। छोटा शिशु माता-पिता की गोद में जो एक प्रकार से इनकी परस्पर उपासना ही है, आंखे खुली रखते हैं। इसी प्रकार विद्यालय या पाठषाला में विद्यार्थी गुरूजी से आंखें खुली रखकर ही पढ़ते हैं, परन्तु पाठ याद करते समय या भूले विषय को स्मृति पटल में उपस्थित करने के लिए आंखे इसलिए बन्द कर लेते हैं जिससे कि विस्मृत पाठ अन्तर्निहित स्मृति में स्थिर हो जाये। मन व बुद्धि के शरीर के भीतर होने व मन की एकाग्रता व पवित्रता आदि न होने के कारण यदा-कदा हमें कुछ बातें भूल जाते हैं। हमारे प्राचीन गुरूओं व सन्तों ने निराकार व सर्वव्यापक, जन्म-मृत्यु से रहित ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का प्रचार-प्रसार किया या नहीं, नहीं किया तो क्यों नहीं किया, यह हम पाठकों को स्वयं विचार कर निर्णय करने के लिए छोड़ते हैं। हम केवल यह अनुमान लगाते हैं कि आंखे बन्द कर, ध्यान की मुद्रा में एकान्त में बैठ कर उपासना कर रहे हमारे प्राचीन गुरू धर्मवेत्ता ईश्वर के निश्चित ही सच्चिदानन्द, निराकार, अमूर्त, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, परिवर्तन परिणाम रहित, जन्ममरण रहित ईश्वर की उपासना करते थे। हमें भी इसी प्रकार से उपासना करनी चाहिये। ईश्वर के सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ होने के कारण लोकलोकान्तरों गृहउपगृहों पर आधारित फलित ज्योतिष भी एक मिथ्या मान्यता अन्धविश्वास है। ईश्वर कर्मफल प्रदाता है। उसके द्वारा ही पूर्व जन्मों के कर्मफलों अर्थात् प्रारब्ध से तथा वर्तमान जीवन के कर्म पुरूषार्थ से ही हमें सुखदुख अच्छीबुरी स्थिति प्राप्त होती है, यह सबको जानना मानना चाहिये।

 

सन्त गुरू रविदास जी की जयन्ती पर हम यह समझते है कि प्रत्येक आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को सत्य की खोज करनी चाहिये। सत्य कहीं से भी मिले उसे शिरोधार्य करना चाहिये। यह चिन्ता नही करनी चाहिये कि उससे उसके मत को हानि हो सकती है। सत्य संसार में सबसे बढ़कर है। सत्य से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। सभी मतों के अनुयायियों को सभी मतों सहित वेद, दर्शन व उपनिषदों का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिये। तभी वह सत्य धर्म को प्राप्त हो सकेगें। ईश्वर एक है जिसने मनुष्यों को बनाया है। इस लिए ईश्वर के बनाये हुए सभी मनुष्यों का धर्म भी एक ही है। जो इस सत्य को जानकर व्यवहार करता है उसकी उन्नति होती है और जो मत-मतान्तरों के अन्धकार में फंसा रहता है उसका जीवन सफल नहीं होता। आईये, मानव जीवन को सफल करने के वेद, उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, रामायण, महाभारत व सभी मतों के ग्रन्थों को पढ़कर सत्य धर्म का मंथन करें तथा परीक्षा में सत्य पायी जाने वाली शिक्षा, मान्यताओं, सिद्धान्तों का अध्ययन कर सत्य को अपनाये और उसे अपने आचरण में लाकर अपने जीवन को सफल करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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सूक्ष्म ईश्वर स्थूल न होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता

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सूक्ष्म ईश्वर स्थूल होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

संसार के अधिकांश लोग ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं और बहुत से ऐसे भी है जो ईश्ष्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं  रखते। आंखों से दिखाई न देने के कारण वह ईश्वर की सत्ता से इनकार कर देते हैं। इन भाइयों को यह नहीं पता की सूक्ष्म पदार्थ आंखों से देखे नहीं जा सकते। क्या हम वायु और जल के एक  अणु वा इसके दो तत्वों हाइड्रोजन व आक्सीजन के परमाणुओं को देख पाते हैं? कोई भी वैज्ञानिक आंखों से न दिखने वाले परमाणुओं सहित वायु व अन्य सूक्ष्म पदार्थों के अस्तित्व से इनकार नहीं करता। यदि वैज्ञानिक आंखों से न दिखने वाले अनेक पदार्थों को मान सकते हैं तो फिर ईश्वर  पर ही यह शर्त लगाना हमें अल्प बुद्धि वालों का ही कार्य प्रतीत होता है। हमने किसी अज्ञात व्यक्ति को एक पत्र लिखा और डाक से भेज दिया। पत्र पाने वाला हमें देख नहीं रहा है। हमें जानता भी नहीं है। परन्तु वह पत्र को पढ़कर हमें हमारे पते पर उसका उत्तर भेज देता है। उसे पत्र देखकर ही हमारी सत्ता का विश्वास हो जाता है। हमने पत्र भेजने वाले को नहीं देखा और न उसने हमें देखा परन्तु एक दूसरे की सत्ता को दोनों स्वीकार करते हुए आपस में पत्रव्यवहार करते हैं। यहां हमारा पत्र उसमें लिखी बातें ही हमारे अस्तित्व के होने का प्रमाण है। इसे लक्षण प्रमाण कह सकते हैं। पत्र लक्षण है हमारे विद्यमान होने का। यदि हम न होते तो पत्र भेजा ही नहीं जा सकता था। इसी प्रकार संसार में भिन्नभिन्न पदार्थों की रचना को देखकर इसके रचयिता का ज्ञान प्रत्यक्ष होता है। सूर्य को देखकर इसको बनाने धारण करने वाले का, इसी प्रकार से पृथिवी, पृथिवी पर विद्यमान सभी पदार्थ और समस्त जड़ जंगम जगत एक ईश्वर के होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्वार्थी, अज्ञानी, मूर्ख, हठी, दुराग्रही व अविद्या से ग्रस्त लोग दूसरे मनुष्य के सत्य को भी असत्य ही ठहराते हैं और अपने असत्य को सत्य मान कर व्यवहार करते व दूसरों को भ्रमित कर उसमें फंसाने का काम करते हैं। यही स्थिति हमें ईश्वर को न मानने वालों में से अधिकांश शिक्षित लोगों की लगती है। उनके पास विवेक की कमी है और वह सब मिथ्या प्रचार के शिकार हैं।

आईये, विचार करते हैं कि यदि ईश्वर न होता तो क्या हमारे इस दृश्य संसार का अस्तित्व होता?  हम व वैज्ञानिक जानते हैं कि यह संसार जड़ पदार्थों के परमाणुओं से मिलकर बना है। भिन्न-भिन्न तत्वों के सूक्ष्म परमाणु मिलकर सूक्ष्म अणु बनाते हैं और उन अणुओं की घनीभूत अवस्था यह दृश्य पदार्थ होते हैं। अब प्रश्न यह है कि सृष्टि के उपादान कारण इन परमाणुओं और उन परमाणुओं से अणुओं को किसने बनाया? किसको पता था कि इस सृष्टि में मनुष्य व अन्य प्राणी जन्म लेंगे, वह जल, वायु, अन्न, दूध, फल, मेवे आदि का सेवन कर जीवित रहेंगे, इसलिये उनके लिए आवश्यक सभी पदार्थ बनाने होंगे। यह सोचने योजना बनाने का काम जड़ पदार्थ कदापि नहीं कर सकते। यह कार्य केवल चेतन पदार्थ वा सत्ता द्वारा ही सम्भव होता है। ‘‘ज्ञान जड़ पदार्थों का गुण नहीं है। जड़ता और चेतन गुण परस्पर विरोधी होते हैं। दोनों भिन्न भिन्न पदार्थ है। यह एक दूसरे से नहीं बनते अपितु जड़ पदार्थों का कारण सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति है। चेतन पदार्थों में आने वाले जीवात्मा और ईश्वर अनादि, अजन्मा व नित्य पदार्थ हैं। ईश्वर व जीवात्मा चेतन पदार्थ होने के कारण ही इनमें ज्ञान होता है। ईश्वर अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशतक्तिमान, निराकार, सर्वव्यापक और सच्चिदानन्दस्वरूप है। अनादि होने से उसने एक बार नहीं, सौ हजार बार नहीं अपितु अनन्त बार इसी प्रकार की सृष्टि को बनाया धारण कर संचालन किया है। यदि वह न बनाता तो यह हमारी सृष्टि न बनती। प्रलय अवस्था अर्थात् ब्रह्म रात्रि में में ईश्वर इस सम्पूर्ण सृष्टि को 4.32 अरब वर्षों तक नहीं बनाता है तो यह नहीं बनती। परमाणुओं की पूर्व अवस्था सत्व, रज व तम अवस्था में यह प्रकृति सूर्य न होने के कारण घोर अन्धकार में रहती है। उसके बाद ईश्वर इस सृष्टि को बनाता है तो बन जाती है। अब बनाई है तो इसकी आयु 4.32 अरब वर्ष पूर्ण होने पर यह प्रलय को प्राप्त होगी। प्रलयवस्था का समय पूरा होने पर ईश्वर इसे अपनी शाश्वत व सनातन सन्तान वा प्रजा जीवात्माओं के लिए पुनः बनायेगा। इसी प्रकार उसने इससे पूर्व भी ऐसी ही सृष्टि को अनन्त बार बनाया है। यह सृष्टि चक्र इसी प्रकार से चलता आ रहा है। इसमें शंका व भ्रान्ति अज्ञानियों व अविद्या से ग्रस्त लोगों को होती है। इस दृष्टि से हमारे जो वैज्ञानिक इस वैदिक सत्य सिद्धान्त को नहीं मानते उनके बार में भी यह मानना पड़ता है कि वह इस विषय में, अन्य विषयों में नहीं, अविद्या अर्थात् मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। अतः यह विज्ञान का सिद्धान्त है कि कोई भी रचना तभी होती है जब कोई चेतन सत्ता ईश्वर व मनुष्य उसकी रचना करे। यदि वह नहीं करेंगे तो प्रयोजनवान रचना का अस्तित्व सम्भव नहीं है। अपने आप बिना कर्ता व रचयिता के कोई पदार्थ कदापि नहीं बनता है। इसको अधिक विस्तार से जानने के लिए वेद व दर्शन ग्रन्थों मुख्यतः सांख्य, वैशेषिक, योग, न्याय आदि को देखना व पढ़ना चाहिये। इससे सभी भ्रान्तियां दूर हो जाती हैं।

वेद और वैदिक धर्म को छोड़कर सभी मत-मतान्तर-सम्प्रदाय-धर्म विज्ञान से प्रायः शून्य हैं। यूरोप के जिन देशों में हमारे सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक उत्पन्न हुए, वहां के धर्म व मतों में विज्ञान के विपरीत अन्य सिद्धान्त पाये जाते थे। इस कारण उन्होंने धर्म को विज्ञानहीन व विज्ञान का विरोधी मान लिया और आज तक मानते आ रहे हैं जबकि वेदों में यह बात नहीं है। वेद कहते ही ज्ञान को हैं और वेद पूर्ण ज्ञान विज्ञान सम्मत हैं। हमारा अनुमान और विश्वास है कि यदि यूरोप के सभी विद्वान भारत में उत्पन्न होते, वेद और वेदिक साहित्य को पढ़ते तो वह एक स्वर से ईश्वर जीवात्मा के अस्तित्व को अवश्य स्वीकार करते। यदि आज भी संसार के सभी वैज्ञानिक वेदों व वैदिक साहित्य का सत्य स्वरूप जान लें तो वह अवश्य ही ईश्वर व जीवात्मा विषयक भ्रान्तियों से मुक्त हो सकते हैं।

 

ईश्वर दिखाई नहीं देता, इसका एक कारण यह भी है कि ईश्वर हमसे बहुत दूर, अतिदूर है और निकट से निरटतम भी है। सूर्य पृथिवी से 13 लाख गुणा बड़ा बताया जाता है परन्तु आकाश में यह एक गेद या फुटबाल के समान दिखाई देता है। इसका कारण पृथिवी और सूर्य के बीच की दूरी संबंधी विज्ञान के नियम हैं। ईश्वर सूर्य में व्यापक होने से विद्यमान है व उससे भी कहीं अधिक दूर होने से भी आंखों से दिखाई नहीं देता। हमारी आंख में यदि कोई तिनका पड़ जाये तो भी वह अति निकट होने के कारण दिखाई नहीं देता। उसे आंख से निकाल कर हाथ पर रखकर देख सकते हैं। अतः आंखों में भी समाये होने के कारण ईश्वर हमें दिखाई नहीं देता। आंखों के अन्धे हमारे भाईयों को भी संसार की सभी वस्तुयें होने पर भी दिखाई नहीं देती। दिखाई देने के लिए आंखों का निर्विकार होना भी आवश्यक है। अतः यदि अन्धा व्यक्ति यह कहे कि मुझे संसार दिखाई नहीं देता, अतः यह है ही नहीं, ऐसा ही तर्क उन लोगों का है जो कहते हैं कि ईश्वर दिखाई न देने से नहीं है। फिर ईश्वर का अनुभव व ज्ञान कैसे हो? ईश्वर का ज्ञान किस प्रकार हो इसके लिए हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू आदि अनेक भारतीय व विदेशी भाषाओं में उपलब्ध सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ को पढ़कर जाना व अनुभव किया जा सकता है। योगदर्शन जीवात्मा को परमात्मा वा ईश्वर के साथ जोड़ने की विद्या का ग्रन्थ है। इसे पढ़कर, समझ कर व अभ्यास कर ईश्वर का प्रत्यक्ष किया जा सकता है। वेदों का अध्ययन कर ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जानकर उसे आंखे बन्द कर अपनी आत्मा में खोजने पर वह ईश्वर की कृपा होने पर यथासमय साक्षात् जाना जा सकता है। इसे ईश्वर-साक्षात्कार कहा जाता है। महर्षि दयानन्द व अनेक योगियों ने ईश्वर का साक्षात्कार किया था। आज भी देश में ईश्वर साक्षात्कार किये हुए योगी हो सकते हैं। ईश्वर साक्षात्कार के साधक तो हजारों व लाखों में है जिनके अपने-अपने आश्चर्यजनक अनुभव होते हैं। प्राचीनकाल में हमारे सभी ऋषि-मुनि ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए होते थे जिन्हें आप्त पुरूष कहा जाता था। महर्षि दयानन्द ने सन्ध्योपासना की विधि लिखी है। इसे पढ़कर व समझकर साधनाभ्यास करने से भी ईश्वर को जाना व प्रत्यक्ष किया जा सकता है। ईश्वर का वेद वर्णित संक्षिप्त स्वरूप लिखकर हम इस लेख को विराम देते हैं। वेदों के अनुसार ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्मिान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर कहते हैं। ईश्वर के इसी स्वरूप को सभी धार्मिक बन्धुओं को मानना चाहिये। इससे भिन्न स्वरूप को मानने वाले लोग वस्तुत मिथ्या ज्ञान से ग्रस्त हैं। सत्य को ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना मनुष्य का मुख्य धर्म है। जो ऐसा नहीं करता वह धार्मिक नहीं पाखण्डी ही कहा जा सकता है।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

सन्ति सन्तः कियन्तः

सन्ति सन्तः कियन्तः

इसका अर्थ है- संसार में ऐसे सन्त कितने हैं, जो दूसरे के छोटे-से गुण को बड़ा बना कर उसकी प्रशंसा करते हैं और प्रसन्न होते हैं? हमारी सभा के संरक्षक गजानन्दजी आर्य के लिये यह पंक्ति मुझे सर्वाधिक सटीक लगती है। सभा में आर्यजी का जब से साथ मिला है, मेरे अनुमान और अनुभव से उनकी उदारता को बड़ा ही पाया है। गत दिनों उन्होंने मुझे फिर चकित कर दिया, उस घटना का उल्लेख करना सभा के हित में तथा पाठकों के लिये प्रेरणाप्रद होगा।

विगत तीन वर्षों से निरन्तर आर्यसमाज विधान सरणी के वार्षिक उत्सव में जाने का प्रसंग बना। यह अवसर आर्यसमाज के उत्सव से अधिक मुझे अपनी सभा के प्रधान गजानन्दजी आर्य से मिलने का, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के अवसर के रूप में अधिक आकर्षित करता है। प्रतिवर्ष जब भी कोलकाता जाने का अवसर मिलता है, मेरा उनके घर जाकर दो-तीन बार भेंट करने का संयोग बन जाता है। प्रधान जी को अजमेर पधारे बहुत समय हो गया था। सभा के सभी सदस्यों की इच्छा थी कि प्रधान जी से मिलना चाहिए। सदस्यों के आग्रह पर सभा की एक बैठक कोलकाता में प्रधान जी के घर पर रखी थी, उस समय सभा सदस्यों से उनका अच्छा संवाद हुआ। प्रधान जी को भी सबसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। इस बैठक के समय परोपकारिणी सभा के सदस्यों के आवास एवं भोजन आदि की व्यवस्था आर्यसमाज विधान सरणी ने बड़े स्नेह और उदारता से की। कोलकाता की आर्य समाजें आर्य जी के लिये प्रेम और आदर का भाव रखती हैं। सभी उनको श्रेष्ठ आर्यपुरुष के रूप में देखते हैं।

गत वर्षों की भाँति दिसबर मास में आर्य समाज विधान सरणी के उत्सव में पहुँचने की सूचना आर्य जी को मिल गई थी। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- मिलने का अवसर मिलेगा, अवश्य आओ । कार्यक्रम के अनुसार आर्य समाज के उत्सव के लिये मेरा कोलकाता जाना हुआ। उत्सव का प्रथम दिन शोभा यात्रा का दिन होता है। उस दिन कहीं जाना संभव नहीं था। विचार था, अगले दिन आर्यजी से भेंट करने के लिये जाऊँगा, तभी आर्य जी का दूरभाष आ गया- कब आ रहे हो? मुझे लगा, आर्यजी शीघ्र मिलने की इच्छा रखते हैं। अगले दिन प्रातःकालीन कार्यक्रम सपन्न कर मैं उनके आवास पर पहुँचा। सहज भाव से दरवाजे की घण्टी बजाई। द्वार खुलते ही मैं आर्य जी को नमस्ते कर एक और बैठना चाहता था कि आर्य जी ने अपने स्थान पर खड़े होकर मुझे निर्देश दिया- मैं उनके निकट आकर खड़ा रहूँ। उन्होंने माताजी को बुला लिया। एक शाल लाकर माता जी ने आर्यजी के हाथ में दिया। आर्य जी ने शाल खोलकर मेरे कन्धे पर डालते हुए प्रसन्नता के साथ कहा- आज हमारी सभा के प्रधान हमारे घर पधारे हैं, हम आपका अभिनन्दन करते हैं। माता जी ने भी आशीर्वाद देते हुए अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। मैं अवाक् और चकित था। वहाँ दो-तीन घर के सेवकों के अतिरिक्त कोई नहीं था। मेरे पास अपने भाव व्यक्त करने के लिये शबद नहीं थे। मुझे फिर लगा, आर्य जी मेरी कल्पना से भी बड़े हैं।

पद ने मुझे मेरे कार्य से कभी पृथक् अनुभव नहीं होने दिया। जिस दिन सभा का सदस्य नहीं था, स्वामी ओमानन्दजी महाराज सभा के प्रधान थे, उनके कारण सभा से जुड़ने का सौभाग्य मिला। उस दिन भी सभा का कार्य करते हुए ऋषि दयानन्द के कार्य को कर रहा हॅूँ, यही अनुभव था। सभा ने मुझे सदस्य बनाया, तब भी मेरा यही अनुभव रहा। मुझे पुस्तकाध्यक्ष पुकारा, तब भी मेरा वही काम और वही भाव था। मुझे आर्यजी ने अपने साथ संयुक्तमंत्री बनाया, तब भी मेरे लिये न कार्य के स्तर पर कुछ नया था, न विचारों के स्तर पर। आर्य जी को सभा ने प्रधान बनाया, आर्य जी ने मुझे अपना मंत्री चुना, तब भी मेरे सेवा कार्य का कोई स्वरूप नहीं बदला और आज आर्यजी ने अपने को प्रधान पद से मुक्त करते हुए मुझे अपना दायित्व सौंपा, तब भी मुझे मेरे कार्य में कुछ भी नवीनता नहीं लगी। जो कर रहा हूँ, उसमें बदलने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। पहले उत्तरदायित्व आर्यजी के पास था और मैं मुक्त था, परन्तु आज भी वे सभा के संरक्षक हैं, तब भी मैं उनको उतना ही अपने निकट अनुभव करता हूँ। आर्यजी ने सभा के सदस्यों को परस्पर इस तरह से जोड़ा है कि सभी लोग समान विचार से परस्पर सहयोग करते हैं, जिससे सभा की निरन्तर प्रगति और उन्नति हो रही है।

सभा की वर्तमान कार्य विधि का श्रेय स्वामी सर्वानन्दजी महाराज तथा सभा संरक्षक गजानन्दजी आर्य को है। उनकी उदारता और लोकप्रियता के कारण समाज का उदारतापूर्ण सहयोग सभा को प्राप्त हो सका। पुराने आर्य जन सभा से जुड़े और कार्य में गति आई। हमारे सभाप्रधान आर्य जी सभा की उन्नति क्यों हो रही है- इसका मूल्यांकन इस तरह करते हैं। हमारी सभा में कोई नहीं कहता कि यह कार्य मैंने किया है। सब कहते हैं- यह प्रधानजी के कारण हो सका है। प्रधान जी कहते हैं- सदस्यों के सहयोग से यह कार्य हो सका है। अधिकारी सदस्य, सदस्यों के सहयोग को कारण मानते हैं। सदस्य अधिकारियों की कर्मठता को श्रेय देते हैं। इसका कारण था- स्वामी सर्वानन्दजी और गजानन्दजी का अपने सदस्यों के साथ आत्मीय भाव।

सभा के किसी पद की आर्य जी ने कभी इच्छा नहीं रखी और सभा ने कभी उन्हें मुक्त नहीं होने दिया। आर्य जी ने जब भी पद छोड़ा, अपने आग्रह से छोड़ा और सभा ने उन्हें बलपूर्वक पद पर बनाये रखा। संभवतः यही दुर्लभ बात सभा की प्रगति का कारण है।

आर्य समाज के प्रारभिक काल को छोड़ कर सभा और संगठनों पर कहीं राजनीतिक लोगों का, कहीं जातिवादी लोगों का तो कहीं धनी लोगों का वर्चस्व रहा है। उनका हित ही संगठन का हित समझा जाता है। विद्वान् व् संन्यासियों को तो ये नेता कहलाने वाले लोग यह कह कर दूर कर देते हैं कि आपका काम प्रचार करना है, संगठन चलाना नहीं। कोई इनसे पूछे कि संगठन का काम प्रचार करना नहीं होकर क्या अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये झगड़े करना और सभा समाज की सपत्ति का दुरुपयोग करना है? आज यह परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है कि इसके तेईस सदस्यों में अट्ठारह सदस्य विद्वान् प्रचारक, लेखक और पत्रकार हैं। किसी संस्था में एक भी व्यक्ति कर्मठ, निष्ठावान् होता है तो संस्था उन्नति करती है, आज सभा का प्रत्येक सदस्य तन-मन-धन से सभा की उन्नति में लगा है तो सभा की प्रगति कैसे नहीं होगी? सभा जातिवाद, राजनीतिवाद, धनवाद, वर्गवाद के सभी रोगों से मुक्त है। आर्यजी की कार्यशैली, ऋषि के प्रति दृढ़भक्ति और सिद्धान्तों के प्रतिनिष्ठा का ही यह परिणाम है। सभा के द्वारा जो कार्य हस्तगत हो रहे हैं, उसमें अधिक कार्य ऐसे हैं, जो दिखाई नहीं देते। उनका वर्तमान के लिये विशेष लाभ दिखाई न दे, परन्तु भविष्य के कार्य की वे आधारशिला हैं। इनकी चर्चा किसी और प्रसंग के लिये छोड़ते हैं। सभा द्वारा अपनी गतिविधियों में पठन-पाठन, प्रचार, प्रकाशन के साथ योग साधना शिविरों का आयोज नवर्ष में दो बार किया जाता है। इनमें भाग लेने से व्यक्ति के विचारों में स्पष्टता आती है, सिद्धान्त की मान्यता दृढ़ होती है, कार्य करने का उत्साह बढ़ता है और निराशा समाप्त होती है। इसका एक उदाहरण कभी नहीं भूलता। दिल्ली के लाला श्याम सुन्दर जी, जो मूल रूप से बादली-झज्जर के निवासी थे, आश्रम के शिविरों में आते रहते थे। शिविर की समाप्ति पर शिविरार्थी अपने शिविर काल के अनुभव सुनाते हैं। एक शिविर के अनुभव सुनाते हुए लाला जी ने कहा- मुझे शिविर में आकर पहला अनुभव यह हुआ कि मैं समझने लगा था कि आर्य समाज का कार्य शिथिल हो गया है, उसका वर्चस्व समाप्त हो गया है, परन्तु शिविर का अनुभव कहता है-आज भी आर्यसमाज में जीवन डालने वाले लोग हैं और आर्य समाज का कार्य प्रगति पर है। लाला जी ने दूसरी बात कही- आश्रम में आकर अनुभव हुआ कि यहाँ किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य रुकता नहीं। प्रधान नहीं है तो मन्त्री, मन्त्री नहीं है तो सदस्य, वह नहीं है तो कार्यालय का व्यक्ति, कभी वह भी नहीं हुआ तो सेवक ही सारे काम कर देता है, किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य बाधित नहीं होता। यह सामूहिक रूप से कार्य करने का परिणाम है।

सभा को स्वामी जी और आर्यजी जैसे वीतराग व्यक्तियों का मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त रहा, यही सभा का सौभाग्य है।

प्रधान जी में सरलता और निरभिमानता कूट कूट कर भरी है। अनेक बार मेरी शिकायतें लेकर लोग प्रधान जी के पास पहुँचते हैं, वे मुझे बता देते हैं- कौन आया था और क्या कह रहा था। एक बार एक व्यक्ति के बारे में बता रहे थे, वह व्यक्ति कह रहा था- यह धर्मवीर प्रधान को महत्त्व नहीं देता, स्वयं सब कार्य करता है। मैंने पूछा- आपको यह बात बुरी लगी होगी, तो कहने लगे- मुझे क्यों बुरी लगेगी, जो कार्य तुम करते हो, उसके लिए तुमहें ही उत्तरदायी बनकर आगे आना होगा। पौत्र पराग के विवाह के अवसर पर मुबई में होटल में मिले तो एक तरफ ले जा कर हाथ पकड़ कर कहने लगे- जब कोई व्यक्ति तुमहारे विषय में अन्यथा बात करता है तो मुझे बहुत दुःख होता है, बुरा लगता है। मैंने कहा- मुझे तो बुरा कहने वाले का बुरा नहीं लगता है, आपको भी नहीं लगना चाहिए । बोले- नहीं, यह सहन नहीं होता। ऐसे सहृदय सज्जन संसार में कितने हैं, जो अन्यों के परमाणुतुल्य गुणों को पर्वताकार बनाकर नित्य ही अपने अन्दर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं? प्रधानजी के व्यक्तित्व को देखकर महाराज भृर्तहरि की ये पंक्तियाँ होंठों पर आ जाती हैं-

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा

स्त्रिभुवनमुपकारः श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुणपरमाणून  पर्वतीकृत्य नित्यं,

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

– धर्मवीर

आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति

ओ३म्

जयन्ती पर

आर्यसमाज के गगन मण्डल में चमकते नक्षत्र पं. चमूपति

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द आर्यसमाज के संस्थापक व निर्माता हैं जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान वेदों की सत्य मान्यताओं, सिद्धान्तों व शिक्षाओं का  जनसामान्य में प्रचार करने के लिए 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। वस्तुतः आर्यसमाज संसार से अविद्या का नाश करने तथा विद्या की वृद्धि करने का संसार में अब तक का एक अभूतपूर्व आन्दोलन है। महर्षि दयानन्द अपने समय के एकमात्र वेदों के पारदर्शी मर्मज्ञ विद्वान थे और निजी स्वार्थों, पारिवारिक दायित्वों व चारित्रिक दुर्बलताओं से पूर्णतः मुक्त थे। अतः मानवजाति की उन्नति व देश के पुनरुत्थान के लिए उन्होंने वेद प्रचार के आन्दोलन आर्यसमाज को स्थापित किया और प्राणपण से उसका पोषण किया। उनके प्रयासों का सुप्रभाव देश, समाज व विश्व की मानव जाति पर हुआ। अपने आन्दोलन को गति प्रदान करने के लिए उन्हें जो प्रमुख प्रतिभावान् देशभक्त मिले उनमें शहीद स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, रक्तसाक्षी पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, लाला साईंदास सहित पं. चमूपति, एम.ए. भी थे जिन्होंने आर्यसमाज आन्दोलन की सफलता के लिए अपने जीवन को समर्पित किया। आज के लेख में हम आर्यजगत के उच्च कोटि के वयोवृद्ध विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी के लेख के आधार पर पं. चमूपति जी के जीवन पर प्रकाश डाल रहे हैं। हम समझते हैं कि जीवित विद्वानों का सत्कार व संगति तो लाभदायक होती ही है, इसके साथ अपने पूर्वज विद्वानों, देशहित व धर्महित के लिए प्रमुख योगदान देने वालों महान पुरूषों का समय-समय पर स्मरण करना भी हमारे जीवन की उन्नति में सहायक होता है। इसी आशय से यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

पं. चमूपति जी का जन्म आजादी से पूर्व भारत के एक पिछड़े मुस्लिम राज्य बहावलपुर, जो अब पाकिस्तान में है, वहां 15 फरवरी, सन् 1893 को हुआ था। श्री वसन्दाराम आपके पिता थे और माता थी श्रीमती लक्ष्मी दवी। माता पिता से आपको चम्पतराय नाम मिला। कालान्तर में जब आपकी प्रसिद्धि फैलने लगी तो आपने अपने नाम में संशोधन कर इसको चम्पतराय से चमूपति कर दिया। चमूपति का अर्थ सेनापति होता है। आपके दादा जी का नाम श्री दलपतराय था। बहावलपुर में पं. चमूपति जी का जन्म होने से यह स्थान वैदिक जगत में विख्यात हो गया और भविष्य में भी रहेगा। पं. चमूपति जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। बाल्यकाल से ही आप उर्दू में कविता करने लगे थे।  डा. राधाकृष्ण जी आपके सहपाठी थे। आपके अनुसार मैट्रिक करने के बाद कालेज में अध्ययन करते समय आप फारसी में कविता लिखा करते थे।

 

बहावलपुर एक मुस्लिम रियासत थी और वहां उर्दू फारसी का ही प्रभाव था। हिन्दी व संस्कृत का वहां शायद ही अपवादस्वरुप कोई विद्वान रहा हो। पं. चमूपति भी बी.ए. करने तक देवनागरी के अक्षरों से अपरिचित थे। सत्संग व संगति के प्रभाव से आपको आर्यसमाज का परिचय हुआ और महर्षि दयानन्द के एक प्रमुख ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का परिचय पाकर आपने इस ग्रन्थ के उर्दू अनुवाद को प्राप्त कर उसको पढ़ा। अनुवाद से आपकी सन्तुष्टि नहीं हुई अतः आपने एम.. संस्कृत विषय लेकर किया। बी.. तक देवनागरी अक्षरों वर्णमाला से अपरिचित व्यक्ति का संस्कृत में एम.. करना आश्चर्यजनक है और शायद ये अपने समय का शिक्षा जगत का रिकार्ड भी हो। इसे हम असम्भव को सम्भव करने वाले कार्य की उपमा दे सकते हैं। इस कार्य से आपकी विलक्षण प्रतिभा से सम्पन्न होने का ज्ञान होता है।

 

पं. चमूपति जी सात भाषाओं के विद्वान थे जिनमें संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फारसी आदि भाषायें सम्मिलित हैं। उर्दू और हिन्दी में की गई आपकी कवितायें दैनिक, साप्ताहिक व मासिक रूप से प्रकाशित देश की विख्यात पत्र व पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थीं। आपके समकालीन प्रायः सभी मूर्धन्य साहित्यकारों, कवियों व पत्रकारों ने आपकी रचनाओं की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। आपके प्रशंसक प्रतिष्ठित साहित्यकारों में महाकवि नाथूराम शंकर शर्मा, पं. पद्मसिंह शर्मा, डा. मोहम्मद इकबाल, प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’, कहानीकार सुदर्शन, महाशय जैमिनी सरशार, पं. वितस्ताप्रसाद ‘फिदा’, श्री दत्तात्रय प्रसाद कैफी, महाशय कृष्ण, श्री मनोहरलाल ‘शहीद’ ‘सरोज’ आदि सम्मिलित हैं।  प्रो. त्रिलोकचन्द ‘महरूम’ ने आपसे अपनी एक पुस्तक की भूमिका भी लिखवाई थी। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा के रचयिता डा. इकबाल ने आपको अपना गुरू समान मानकर कहा था कि पं. चमूपति को देख कर मुझे अपने गुरू की याद जाती है। पण्डितजी जब कविता पाठ करते थे तो श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। इसका कारण आपकी रचना की श्रेष्ठता के साथ सुनाने का अपना मौलिक अन्दाज था जो कृत्रिमता से रहित सहज व स्वभाविक होता था। मौलाना आजाद भी आपकी प्रतिभा और लेखन क्षमता से परिचित थे। आपने दैनिक उर्दू पत्र ‘‘तेज में आपका एक लेख गीता और कुरान पढ़कर आपसे इसी लेख की शैली में सारे कुरान का भाष्य करने का अनुरोध किया था।

 

पं. चमूपति जी के गद्य में काव्य का सा रस पाठक को मिलता है। इस संबंध में प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखा है कि आपके गद्य में भी पद्य का सा रस है। हिन्दी में आप द्वारा लिखित सोम सरोवर जीवन ज्योति ग्रन्थों को हम गद्यमय पद्य की संज्ञा दे तो यह कोई अत्युक्ति नहीं है। जवाहिरे जावेद, ‘वैदिक स्वर्ग, ‘मजहब का मकसद चौदहवीं का चांद सरीखी दार्शनिक पुस्तकें इतनी रोचक साहित्यिक भाषा में लिखी गई हैं कि लेखनी उनकी साहित्यिक प्रतिभा की प्रशंसा करने में अक्षम है। आपके साहित्य, गद्य पद्य दोनों में, कौन सा रस नहीं है? वीर रस, भक्ति रस, करूणा रस, हास्यसब कुछ आपको मिलेगा। पं. चमूपति जी ऐसे महामानव थे जिन्होंने स्वेच्छा से धन को धूल समझ कर अपने देश जाति की सेवा, धर्मप्रचार धर्मरक्षा के लिए फकीरी ग्रहण की थी। आप गृहस्थी थे, आपके पुत्र लाजपत जी से हम मिले भी हैं, तथापि आपने परिवार के आर्थिक हितों की उपेक्षा करके तप, त्याग का कांटों भरा मार्ग स्वेच्छा से चुना था। आपके इस जज्बे को हमारा नमन है।

 

आपकी एक उर्दू रचना दयानन्द आनन्द सागर है जिसमें आपने महर्षि दयानन्द के विभिन्न पहलुओं पर कविताओं की रचना कर प्रस्तुत किया है। उनकी इस रचना से बहावलपुर रियासत में विवाद व बवाल हो गया। मुसलिम रियासत होने के कारण स्वामी दयानन्द की शान में लिखे गये दो शब्दों पर रियासत के मुसलमानों ने आपत्ति की। रियासत के मुसलमान हाथ धोकर आपके पीछे पड़ गये। बवाल को शान्त करने के लिए रिसासत के नवाब की ओर से आपको अपने इन शब्दों पर खेद व्यक्त करने को कहा गया। पं. चमूपति का पक्ष था कि जब उन्होंने कुछ अनुचित लिखा ही नहीं है तो खेद प्रकट करने का कोई कारण नहीं। महर्षि दयानन्द, वेद और आर्यसमाज के प्रति अपनी निष्ठा के लिए आपने अपना परिवार, जन्मभूमि, सगे संबंधी और इष्ट मित्रों का त्याग कर दिया परन्तु झुके नहीं। आज बहावलपुर में उस समय जैसी असहिष्णुता की प्रवृति अनेक तथाकथित बुद्धिजीवियों में देश भर में देखने को मिल रही है। पं. चमूपति का यह त्याग विचारों की स्वतन्त्रता के लिए था। सत्य की वाणी मनुष्यों की हितकारी होती है और ब्राह्मण की गौ कहलाती है। उसे दबाने का मतलब होता है देश को अधोगति में ले जाना। चमूपति जी ने अपनी आत्मा की आवाज को दबने नहीं दिया और स्वयं एक प्रकार का देश निकाला ले लिया। यह भी बता दे कि पण्डित जी हिन्दी कविता में अपना उपनाम चातक और उर्दू रचनाओं में सादिक का प्रयोग करते थे। धर्म, दर्शन, इतिहास उनके मुख्य विषय थे। उन्होंने जो लिखा बहुत सुन्दर व प्रभावशाली लिखा। उनकी भाषा में सौन्दर्य था, ओज था, रस था और प्रवाह था। आपकी भाषा में श्रेष्ठता के सभी गुण थे। अंग्रेजी पर भी आपका अधिकार था। इस भाषा में भी आपने सैकड़ों पृष्ठों की सामग्री दी है।

 

प्रा. जिज्ञासु जी ने पं. चमूपति जी के जीवन की एक छोटी परन्तु सदाचार संबंधी एक बड़ी घटना प्रस्तुत की है। उनके अनुसार एक बार पण्डित जी सपरिवार रेल यात्रा कर रहे थे। आरक्षण करवा रखा था। टिकट चैकर आया। टिकट देखकर आगे चलने लगा तो पण्डित जी ने आधा टिकट बनाने के लिए कहा। उसने कहा, ‘‘आधा टिकट किसके लिए?’’ पण्डित जी ने अपने नन्हें पुत्र लाजपत की ओर संकेत किया। टीटी ने कहा, ‘‘इसकी क्या आवश्यकता, यह तो चलता है। पण्डित जी ने कहा, ‘‘यह कल तीन वर्ष का हो गया सो आज इसका आधा टिकट बनना ही चाहिए। तीन वर्ष से एक दिन ऊपर हो गया है। इस पर टीटी ने कहा, ‘‘लगता है कि आप आर्यसमाजी हैं। ऐसा सिद्धान्तवादी तो एक आर्य ही हो सकता है। पं. चमूपति जी बहावलपुर में कालेज में प्राध्यापक रहे। आप गुरुकुल मुलतान व गुरुकुल कांगड़ी में भी कुछ वर्ष तक विभिन्न पदों पर रहे। एक आदर्श आचार्य के रूप में आपने अपने शिष्यों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। हमने आपके जिन ग्रन्थों को पढ़ा है, उससे हम भी अपने आप को आपका शिष्य ही मानते हैं। आपका व्यक्तित्व कितना महान था, इसका उदाहरण है कि आपकी सरलता विनम्रता, योग्यता आत्मा की निर्मलता के कारण आपके समकालीन आर्यसमाज के मूर्धन्य नेता श्री महाशय कृष्ण जी दीवान बद्री दास जी खड़े होकर आपका अभिवादन करते थे। आपके निधन से पूर्व आपकी पत्नी ने आपके बारे में कहा था कि पण्डित चमूपति जी हंसी विनोद में भी कभी असत्य भाषण नहीं किया करते थे। सन् 1915 व उसके बाद जब एम.ए. पढ़े लोग उंगलियों पर गिने जाते थे, तब भी आपने अपने नाम के साथ इस उपाधि का प्रयोग नहीं किया जबकि अनेक विख्यात लोगों के नाम के साथ एम.एम. की तुलना में निम्न उपाधि बी.ए. लिखा जाता रहा। आप कहा करते थे कि लेाग मेरे लेख और साहित्य को मेरे नाम से पढ़े, मेरी उपाधि को देखकर नहीं। आपका यह गुण आपकी वैराग्य भावना और आत्मगौरव को पुष्ट करता है।

 

15 जून सन् 1937 को 44 वर्ष की आयु में आपने मृत्यु का वरण किया। आप देशभक्त, वैदिक विद्वान, कवि, लेखक, उपदेशक, प्रचारक, ईश्वर-वेद-दयानन्द-भारत भक्त, आचार्य, तपस्वी और सच्चे ईश्वर उपासक थे। आर्यजगत के महान संन्यासी स्वामी श्रद्धानन्द आपको आर्यसमाज का दूसरा गुरुदत्त विद्यार्थी मानते थे। पण्डित जी की मृत्यु पर उर्दू के प्रसिद्ध कवि श्री रोशन पटियालवी ने साप्ताहिक उर्दू प़त्र आर्य  मुसाफिर में उन पर श्रद्धाभाव से परिपूर्ण यह पंक्तियां लिखी थीं-खुश बयां शीरीं दहन सैफ जबां हरदिल अजीज। अल्लाह अल्लाह खाक के पुतले में इतनी खूबियां।  प्रा. जिज्ञासु जी ने इनका अनुवाद कर लिखा वह सुवक्ता मधुरभाषी लौह लेखक पूज्यपाद। वाह ! वाह! इतना गुणी पंचतत्व का पुतला प्रभो। इन्हीं शब्दों के साथ पं. चमूपति जी की 123 वीं जयन्ती पर हम उन्हें अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आर्यसमाज को एक और दयानन्द और चमूपति प्रदान करें।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्म-मरण-जन्म के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध

ओ३म्

अनादि अविनाशी जीवात्मा कर्मानुसार जन्ममरणजन्म

 के चक्र अर्थात् पुनर्जन्म में आबद्ध

-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य संसार में जन्म लेता है, अधिकतर 100 वर्ष जीवित रहता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। जिस संसार व पृथिवी  पर हम रहते हैं उसे हमने व हमारे पूर्वजों ने बनाया नहीं है अपितु उन्हें यह सृष्टि बनी बनाई मिली थी। इस संसार को किसने बनाया, इसका शास्त्र व बुद्धि संगत वैज्ञानिक उत्तर है कि इसे एक अदृश्य, अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व सर्वव्यापक सत्ता ईश्वर ने बनाया है। वह ईश्वर जो जीवात्माओं को मनुष्य आदि योनियों में जन्म देता है, उनका पालन-पोषण करता है और शरीर के निर्बल व वृद्ध हो जाने पर उसकी आत्मा को शरीर से निकाल कर पुनः व वारंवार मनुष्य आदि योनियों में नया जन्म देता है। यह ऐसा ही होता है जैसे कि हम पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करते हैं। साधारण मनुष्य जन्म लेकर व कुछ पढ़ाई लिखाई करके अपनी कुल व समुदाय की परम्परा व रीति-रिवाजों के अनुसार किसी मत व सम्प्रदाय की कुछ सत्यासत्य मान्यताओं के अनुसार कर्म करते हुए अपना जीवन व्यतीत कर स्वयं को धन्य समझ लेते हैं परन्तु कुछ प्रखर बुद्धि व बुलन्द जीवात्मा वाले लोग मैं कौन हूं, मैं कहां से आया हूं, मेरे जन्म का उद्देश्य क्या है? मरने के बाद लोग कहां जाते हैं, क्या गर्भवास, जीवन में आने वाले मृत्यु आदि के दुःखों से बचा जा सकता है? जैसे अनेकानेक प्रश्नों पर विचार करते हैं और इसके लिए अपनी समस्त सामर्थ्य को लगाते हैं। इससे उनको जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसी के अनुसार वह अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ऐसे मनुष्यों में एक सर्वोपरि नाम है और वह है स्वामी दयानन्द सरस्वती। संसार के अनेक बुद्धिमान अपने गुरुओं से यह प्रश्न करते हैं व कुछ पुस्तकों एवं शास्त्रों आदि का अध्ययन करते हैं तो उन्हें इसका उत्तर मिलता है कि संसार में तीन सत्तायें हैं, ईश्वर, जीव व प्रकृति। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अमर आदि गुणों वाला है। वह सूक्ष्म जीवात्माओं को उनके जन्म-जन्मान्तरों के कर्मानुसार मनुष्य व अन्य योनियों में जन्म देकर उसके पूर्व कृत कर्मों का भोग कराता है। सिद्धान्त है कि जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है। अतः हम मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जन्म लेकर उस योनि के शरीरों की अवधि पूरी होने पर मृत्यु को प्राप्त होते जाते हैं। शेष कर्मों का फल भोगने के लिए हमारा पुनः जन्म होता है। ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनको शास्त्रों व जन्म-मृत्यु विषयक ज्ञान तो होता नहीं, कुछ छोटी-मोटी बातों के आधार पर पुनर्जन्म का खण्डन कर देते हैं। वेदों का अध्ययन करने की उन्हें फुर्सत नहीं। वह समझते हैं कि वह जितना जानते हैं उतना ही पर्याप्त है और उनके अलावा सभी अज्ञानी व उनसे ज्ञानस्तर में निम्नकोटि के हैं।

 

जीवात्मा जन्म लेता है और माता-पिता बनकर अपनी सन्तानों को जन्म देता है। यह तथ्य है परन्तु जीवात्मा को मनुष्य जन्म ईश्वर से मिलता है। उसी ने इस सृष्टि को रचा है। अतः इन प्रश्नों का उत्तर उसी ईश्वर से मिल सकता है। उससे यदि उत्तर जानना है तो वह समाधि अवस्था में जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर ने ही सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया था। उससे भी सहायता ली जा सकती है। वेदों के अनुसार जीवात्मा को जन्म व मृत्यु ईश्वर के द्वारा प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म एक सत्य, तर्क संगत व वैज्ञानिक सिद्धान्त है। महर्षि दयानन्द वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों का भाष्य करने का उपक्रम किया था और सबसे पहले चारों वेदों की भूमिका ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नामक ग्रन्थ लिखकर वेदभाष्य कार्य को आरम्भ किया था। इस ग्रन्थ का उन्नीसवां अध्याय ‘पुनर्जन्मविषय’ है। आज इस अध्याय में लिखे उनके उपदेशों को ही प्रस्तुत कर हम पुर्नजन्म का स्वरूप पाठकों के समस्त प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

महर्षि दयानन्द ने पुनर्जन्म विषयक ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के मन्त्रों सहित निरुक्त व न्याय दर्शन आदि के वचन उद्धृत किये हैं। यहां हम केवल ऋग्वेद के दो मन्त्रों को देकर सभी वचनों का हिन्दी भावार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। ऋग्वेद के मन्त्र हैं असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम! ज्योक् पश्येम सूय्र्यमुच्चरन्तमनुमते मृळया नः स्वस्ति।। एवं दूसरा मन्त्र पुनर्नो असुं पृथिवी ददातु पुनद्र्यौर्देवी पुनरन्तरिक्षम्। पुनर्नः सोमस्तन्वं ददातु पुनः पूषा पथ्यां३ या स्वस्तिः।। इन मन्त्रों का तात्पर्य है कि हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म अर्थात् परजन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्र आदि सब इन्द्रियां स्थापन कीजिये। प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि युक्त शरीर पुनर्जन्म में दीजिये। हे जगदीश्वर ! इस संसार अर्थात् इस जन्म और परजन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों तथा हे भगवन् ! आपकी कृपा से सूर्यलोक और आपको विज्ञान तथा प्रेम से हम सदा देखते रहें। हे अनुमते=सबको मान देने हारे सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये जिससे हम लोगों का कल्याण हो। दूसरे मन्त्र का अर्थ-हे सर्वशक्तिमन् ! आपके अनुग्रह से हमारे लिये वारंवार पृथिवी प्राण को, प्रकाश चक्षु को, और अन्तरिक्ष स्थानादि अवकाशों को देते रहें। पुनर्जन्म में सोम अर्थात् ओषधियों का रस हमको उत्तम शरीर देने में अनुकूल रहे तथा पुष्टि करनेवाला परमेश्वर कृपा करके सब जन्मों में हमको सब दुःख निवारण करनेवाली पथ्यरूप स्वस्ति को देवे।

 

महर्षि दयानन्द द्वारा यजुर्वेद के एक तथा अथर्ववेद के दो उद्धृत मऩ्त्रों का अर्थ इस प्रकार है। हे सर्वज्ञ ईश्वर ! जब जब हम जन्म लेवें, तब तब हमको शुद्ध मन, पूर्ण आयु, आरोग्यता, प्राण, कुशलतायुक्त जीवात्मा, उत्तम चक्षु और श्रोत्र प्राप्त हों। जो विश्व में विराजमान ईश्वर है, वह सब जन्मों में हमारे शरीरों का पालन करे। सब पापों के नाश करनेवाले आप हमको बुरे कामों और सब दुःखों से पुनर्जन्म में अलग रक्खें। हे जगदीश्वर आप की कृपा से पुनर्जन्म में मन आदि ग्यारह इन्द्रिय मुझ को प्राप्त हों अर्थात् सर्वदा मनुष्य देह ही प्राप्त होता रहे अर्थात् प्राणों को धारण करनेहारा सामथ्र्य मुझ को प्राप्त होता रहे जिससे दूसरे जन्म में भी हम लोग सौ वर्ष वा अच्छे आचरण से अधिक आयु तक भी जीवें। सत्यविद्यादि श्रेष्ठ धन भी हमें पुनर्जन्म में प्राप्त होते रहें। सदा के लिये ब्रह्म जो वेद है, उसका व्याख्यानसहित विज्ञान तथा आप ही में हमारी निष्ठा बनी रहे। सब जगत् के उपकार के अर्थ हम लोग अग्निहोत्रादि यज्ञ को करते रहें। हे जगदीश्वर ! हम लोग जैसे पूर्वजन्मों में शुभ गुण धारण करनेवाली बुद्धि से उत्तम शरीर और इन्द्रियों से युक्त थे, वैसे ही इस संसार में पुनर्जन्म में भी बुद्धि के साथ मनुष्य देह के कृत्य करने में समर्थ हों। ये सब शुद्ध बुद्धि के साथ मुझको यथावत् प्राप्त हों। हम लोग इस संसार में मनुष्य जन्म को धारण करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सदा सिद्ध करें और इस सामग्र से आपकी भक्ति को प्रेम से सदा किया करें। ऐसा करके किसी जन्म में हमको कभी दुःख प्राप्त न हो।

 

मनुष्य पूर्वजन्म में धर्माचरण करता है, उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है। अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीर को प्राप्त होता है। पूर्वजन्म में किये हुए पाप पुण्य के फलों का भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़़ के वायु के साथ रहता, पुनः जल ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है वैसा ही यथावत् जान के बोलता है और धर्म ही में यथावत् स्थित रहता है, वह मनुष्ययोनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट पतंग पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है। इस संसार में हम दो प्रकार के जन्मों को सुनते हैं। एक मनुष्य शरीर का धारण करना और दूसरा नीच गति से पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि का होना। इनमें मनुष्यशरीर के तीन भेद हैं-एक पितृ अर्थात् ज्ञानी होना, दूसरा देव अर्थात् सब विद्याओं को पढ़के विद्वान होना, तीसरा मत्र्य अर्थात् साधारण मनुष्यशरीर का धारण करना। इनमें प्रथम गति अर्थात् मनुष्यशरीर पुण्यात्माओं और पुण्यपाप तुल्य वालों का होता है और दूसरा जो जीव अधिक पाप करते हैं उनके लिये है। इन्हीं भेदों से सब जगत् के जीव अपने अपने पुण्य और पापों के फल भोग रहे हैं। जीवों को माता और पिता के शरीर में प्रवेश करके जन्मधारण करना, पुनः शरीर को छोड़ना, फिर जन्म को प्राप्त होना, वारंवार होता है।

 

जैसा वेदों में पूर्वापरजन्म के धारण करने का विधान किया है वैसा ही निरुक्तकार ने भी प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार जब मनुष्य को ज्ञान होता है तब वह ठीक ठीक जानता है कि मैंने अनेक वार जन्ममरण को प्राप्त होकर नाना प्रकार के हजारों गर्भाशयों का सेवन किया है। अनेक प्रकार के भोजन किये हैं, अनेक माताओं के स्तनों का दुग्ध पिया, अनेक माता पिता और सुहृदों को देखा है। मैंने गर्भ में नीचे मुख ऊपर पग इत्यादि नाना प्रकार की पीड़ाओं से युक्त होके अनेक जन्म धारण किये। परन्तु अब इन महादुःखों से तभी छूटूंगा कि जब परमेश्वर में पूर्ण प्रेम और उसकी आज्ञा का पालन करूंगा, नहीं तो इस जन्मरणरूप दुःखसागर के पार जाना कभी नहीं हो सकता। योगशास्त्र में भी पुनर्जन्म का विधान किया है। हर एक प्राणी की यह इच्छा नित्य देखने में आती है कि मैं सदैव सुखी बना रहूं। मरूं नहीं। यह इच्छा कोई भी नहीं करता कि मैं न रहूं अर्थात् मर जाऊं। ऐसी इच्छा पूर्वजन्म के अभाव से कभी नहीं हो सकती। यह अभिनिवेशक्लेश कहलाता है जो कि कृमिपर्य्यन्त को भी मृत्यु का भय बराबर होता है। यह व्यवहार पूर्वजन्म की सिद्धि को जनाता है। न्यायदर्शन के वात्स्यायन भाष्य में भी कहा है कि जो उत्पन्न होता है अर्थात् शरीर को धारण करता है, वह मरण अर्थात् शरीर को छोड़ के, पुनरुत्पन्न दूसरे शरीर को भी अवश्य प्राप्त होता है।

 

अनेक मनुष्य ऐसा प्रश्न करते हैं कि जो पूर्वजन्म होता है, तो हमको उसका ज्ञान इस जन्म में क्यों नहीं होता? इसका उत्तर है कि आंख खोल के देखों कि जब इसी जन्म में जो जो सुख दुःख तुमने बाल्यावस्था में अर्थात् जन्म से पांच वर्ष पर्य्यन्त पाये हैं, उनका ज्ञान नहीं रहता अथवा जो कि नित्य पठन पाठन और व्यवहार करते है, उनमें से भी कितनी ही बातें भूल जाते हैं तथा निद्रा में भी यही हाल हो जाता है कि अब के किये का भी ज्ञान नहीं रहता। जब इसी जन्म के व्यवहारों को इसी शरीर में भूल जाते हैं, तो पूर्व शरीर के व्यवहारों का कब ज्ञान रह सकता है? ऐसा भी प्रश्न करते हैं कि जब हमको पूर्वजन्म के पाप पुण्य का ज्ञान नहीं होता और ईश्वर उनका फल दुःख वा सुख देता है, इससे ईश्वर का न्याय वा जीवों का सुधार कभी नहीं हो सकता। इसका उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि ज्ञान दो प्रकार का होता है–एक प्रत्यक्ष व दूसरा अनुमान आदि से। जैसे कि एक वैद्य और दूसरा अवैद्य, इन दोनों को ज्वर आने से वैद्य तो इसका पूर्व निदान जान लेता है और दूसरा नहीं जान सकता। परन्तु उस पूर्व कुपथ्य का कार्य जो ज्वर है, वह दोनों को प्रत्यक्ष होने से वे जान लेते है कि किसी कुपथ्य से ही यह ज्वर हुआ है, अन्यथा नहीं। इसमें इतना विशेष है कि विद्वान् ठीक ठीक रोग के कारण और कार्य को निश्चय करके जानता और वह अविद्वान् कार्य को तो ठीक ठीक जानता है परन्तु कारण में उसको यथावत् निश्चय नहीं होता। वैसे ही ईश्वर न्यायकारी होने से किसी को विना कारण से सुख वा दुःख कभी नहीं देता। जब हम को पुण्य पाप का कार्य सुख और दुःख प्रत्यक्ष हैं, तब हमको ठीक निश्चय होता है कि पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना उत्तम मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते। इससे हम लोग निश्चय करके जानते हैं कि ईश्वर का न्याय और हमारा सुधार ये दोनों काम यथावत् बनते हैं। प्रकरण की समाप्ति पर महर्षि दयानन्द कहते हैं कि उपर्युक्त विवेचन विश्लेषण से बुद्धिमान् लोग पुनर्जन्म विषयक सिद्धान्त उससे सम्बन्धित सभी  पहलुओं को अपने विचार चिन्तन से यथावत् जान लेवें।

 

हम अनुभव करते हैं कि इस लेख में पुनर्जन्म विषयक वेद व शास्त्रों में पुनर्जन्म के विधान सहित इसके सभी पहलुओं का युक्ति व तर्कों के आधार पर स्पष्टीकरण हो गया है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनुष्यों को पापकर्मों से दूर रखता है। यदि हम कोई भी बुरा काम करेंगे तो ईश्वर की व्यवस्था से उसका फल हमें अवश्य ही भोगना होगा। यदि बुरे काम अधिक होंगे तो हमें परजन्म में पशु, पक्षी, कीट, पतंग, सुअर, सर्प व गधा आदि भी बनना पड़ सकता है। यह भी विचारणीय है कि जीवात्मा और ईश्वर अनादि व नित्य हैं और यह सृष्टि भी अनन्त काल से बनती व बिगड़ती चली आ रही है। इस अनन्त काल में हम अनेकानेक बार सभी योनियों में रहकर अपने कर्मानुसार सुख व दुःख भोगते रहे हैं और आगे भी भोगेंगे। मनुष्यादि जन्म मरण सहित अनेक बार हम मुक्ति की अवस्था में भी गये व रहे हैं। क्या कोई मनुष्य परजन्म में पशु, घोड़ा व गधा बनना चाहेगा, यदि नहीं हो उसे सद्कर्म ही करने होंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं।

मनमोहन कुमार आर्य

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आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है ।

अध्यात्मवाद

– कृष्णचन्द्र गर्ग

आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, इन दोनों का आपस में सबन्ध क्या है- इस विषय का नाम अध्यात्मवाद है । आत्मा और परमात्मा दोनों ही भौतिक पदार्थ नहीं हैं। इन्हें आँख से देखा नहीं जा सकता, कान से सुना नहीं जा सकता, नाक से सूँघा नहीं जा सकता, जिह्वा से चखा नहीं जा सकता, त्वचा से छुआ नहीं जा सकता।

परमात्मा एक है, अनेक नहीं । ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि उसी एक ईश्वर के नाम हैं। (एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति। ऋग्वेद – 1-164-46 ) अर्थात् एक ही परमात्मा शक्ति को विद्वान लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। संसार में जीवधारी प्राणी अनन्त हैं, इसलिए आत्माएँ भी अनन्त हैं। न्यायदर्शन के अनुसार ज्ञान, प्रयत्न, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख- ये छः गुण जिसमें हैं, उसमें आत्मा है। ज्ञान और प्रयत्न आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, बाकी चार गुण इसमें शरीर के मेल से आते हैं। आत्मा की उपस्थिति के कारण ही यह शरीर प्रकाशित है, नहीं तो मुर्दा अप्रकाशित और अपवित्र है। यह संसार भी परमात्मा की विद्यमानता के कारण ही प्रकाशित है।

आत्मा और परमात्मा- दोनों ही अजन्मा व अनन्त हैं। ये न कभी पैदा होते हैं और नही कभी मरते हैं, ये सदा रहते हैं। इनका बनाने वाला कोई नहीं है। आत्मा परमात्मा का अंश नहीं है। हर आत्मा एक अलग और स्वतन्त्र सत्ता है।

आत्मा अणु है, बेहद छोटी है। परमात्मा आकाश की तरह सर्व व्यापक है। आत्मा का ज्ञान सीमित है, थोड़ा है। परमात्मा सर्वज्ञ है, वह सब कुछ जानता है। जो कुछ हो चुका है और हो रहा है, सब कुछ उसके संज्ञान में है। अन्तर्यामी होने से वह सभी के मनों में क्या है- यह भी जानता है। आत्मा की शक्ति सीमित है, थोड़ी है, परन्तु परमात्मा सर्वशक्तिमान है। सृष्टि को बनाना, चलाना, प्रलय करना- आदि अपने सभी काम करने में वह समर्थ है। पीर, पैगबर, अवतार आदि नाम से कोई एजैंट या बिचौलिए उसने नहीं रखे हैं। ईश्वर सभी काम अपने अन्दर से करता है, क्योंकि उसके बाहर कुछ भी नहीं है। ईश्वर जो भी करता है, वह हाथ-पैर आदि से नहीं करता, क्योंकि उसके ये अंग है ही नहीं। वह सब कुछ इच्छा मात्र से करता है।

ईश्वर आनन्द स्वरूप है। वह सदा एकरस आनन्द में रहता है। वह किसी से राग-द्वेष नहीं करता। वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से परे है। ईश्वर की उपासना करने से अर्थात् उसके समीप जाने से आनन्द प्राप्त होता है, जैसे सर्दी में आग के पास जाने से सुख मिलता है। ईश्वर निराकार है। उसे शुद्ध मन से जाना जा सकता है, जैसे हम सुख-दुःख मन में अनुभव करते हैं।

यह आत्मा जब मनुष्य शरीर में होती है, तब वह कार्य करने में स्वतन्त्र रहती है। उस समय किए कार्यों के अनुसार ही उसे परमात्मा सुख, दुःख तथा अगला जन्म देता है। दूसरी योनियाँ या तो किसी दूसरे के आदेश पर चलती हैं या स्वभाव से काम करती हैं। उनमें विचार शक्ति नहीं होती, इसलिए उन योनियों में की गई क्रियाओं का उन्हें अच्छा या बुरा फल नहीं मिलता। वे केवल भोग योनियाँ हैं जो पहले किए कर्मों का फल भोग रही हैं। मनुष्य योनि में कर्म और भोग दोनों का मिश्रण है। मनुष्य स्वतन्त्र रूप से कर्म भी करता है और कर्मफल भी भोगता है।

मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ। शरीर मेरा संसार में व्यवहार करने का साधन है। कर्ता और भोक्ता आत्मा है। सुख-दुःख आत्मा को होता है।

जीवात्मा न स्त्रीलिंग है, न पुलिंग है और न ही नपुंसक है। यह जैसा शरीर पाता है, वैसा कहा जाता है। (श्वेताश्वतर उपनिषद्)

ईश्वर की पूजा ऐसे नहीं की जाती, जैसे मनुष्यों की पूजा अर्थात सेवा सत्कार किया जाता है। ईश्वर की आज्ञा का पालन अर्थात सत्य और न्याय का आचरण- यही ईश्वर की पूजा है।

कठोपनिषद में मनुष्य-शरीर की तुलना घोड़ागाड़ी से की गई है। इसमें आत्मा गाड़ी का मालिक अर्थात सवार है। बुद्धि सारथी अर्थात् कोचवान है, मन लगाम है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। इन्द्रियों के विषय वे मार्ग हैं, जिन पर इन्द्रियाँरूपी घोड़े दौड़ते हैं। आत्मारूपी सवार अपने लक्ष्य तक तभी पहुँचेगा, जब बुद्धिरूपी सारथी मनरूपी लगाम को अपने वश में रखकर इन्द्रियाँरूपी घोड़ों को सन्मार्ग पर चलाएगा।

उपनिषद में घोड़ागाड़ी को रथ कहा जाता है और रथ पर सवार को रथी। मनुष्य शरीर में आत्मा रथी है। जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर अरथी रह जाता है।

परमात्मा हम सबका माता, पिता और मित्र है। हम सब प्राणियों का भला चाहता है। जब मनुष्य कोई अच्छा काम करने लगता है तो उसे आनन्द, उत्साह, निर्भयता महसूस होती है । वह परमात्मा की तरफ से होता है, और जब वह कोई बुरा काम करने लगता है, तब उसे भय, शंका, लज्जा महसूस होती है। वह भी परमात्मा की तरफ से ही होता है ।

 

– 831 सैक्टर 10, पंचकूला, हरियाणा।

दूरभाषः 095014-67456

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

ओ३म्

वेद में पशु हत्या निषेध, पशु रक्षा का विधान और मांसाहार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

अनेक अज्ञानी व स्वार्थी लोग बिना प्रमाणों के प्राचीन आर्यों पर मांसाहार का मिथ्या आरोप लगाते हैं। वह स्वयं मांसाहार करते हैं अतः समझते हैं कि इस आरोप को लगाकार उनका मांसाहार करना उचित ठहरा दिया जायेगा और कम से कम वेदों के मानने वाले आर्य तो उनका विरोध नहीं कर सकेंगे। ईश्वर ने ही मनुष्यों सहित सभी प्राणियों व वनस्पति जगत को भी बनाया है। यदि ईश्वर के लिए मनुष्यों को पशुओं के मांस का आहार कराना ही अभिप्रेत होता तो फिर वह नाना प्रकार की खाद्यान्न की श्रेणी में परिगणित वनस्पतियां, अन्न, साग व सब्जिययों को शायद उत्पन्न ही न करता और पशुओं की संख्या को इतना बढ़ा देता कि मनुष्य केवल मांसाहार कर ही अपना जीवन व्यतीत करते। ईश्वर को ऐसा अभीष्ट नहीं था अतः उन्होंने किसी विशेष प्रयोजन के लिए पशुओं को बनाया और मनुयों के आहार के लिए पृथक से नाना प्रकार की वनस्पतियों एवं शाकाहार के अन्तर्गत आने वाले अनेकानेक अन्न, फल, साग-सब्जियां और गोदुग्ध आदि पदार्थों को बनाया है। हमें नहीं लगता कि संसार में कोई मांसाहारी ऐसा हो सकता है जो केवल मांस ही खाता हो तथा अन्न, फल, गोदुग्ध आदि पदार्थों का सेवन न करता हो। इस उदाहरण से अन्न, फल व गोदुग्धादि पदार्थ तो मनुष्यों का भोजन सिद्ध होते हैं परन्तु मांस मनुष्य का भोजन सिद्ध नहीं होता।

 

पशुओं व मनुष्यों मांस क्यों नहीं खाना चाहिये? इसलिए नहीं खाना चाहिये क्योंकि मांस हिंसा से प्राप्त होता है और निर्दोष प्राणियों की हिंसा करना मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध है। मनुष्य के स्वभाव में ईश्वर ने दया, करूणा, प्रेम, स्नेह, ममता, संवेदना, सहिष्णुता आदि अनेक गुणों को उत्पन्न किया है व स्वभाव इसमें सनातन से हैं। मांसाहार करने से इन मानवीय गुणों का न्यूनाधिक हनन होता है, अतः मांसाहार वर्जित व त्याज्य है। मांसाहार का आरम्भ किसी पशु को प्राप्त करना, किसी छुरे व तलवार आदि से उसका वध करना, उसके शरीर के एक-एक अंग प्रत्यंग को काटना, उसे रसोईघर में तेल, घृत, मसालों आदि में भूनना व उसका गेहूं आदि की रोटी, चावल व दही आदि मिलाकर सेवन करना होता है। स्वाभाविक है कि इतने पदार्थों के संयोग से जो पदार्थ बनेगा उसका अपना स्वाद होगा। कईयों को वह प्रिय हो सकता है और बहुतों को अप्रिय। हमने देखा है कि पहली बार जो व्यक्ति जाने व अनजाने मांसाहार करता है उसका शरीर उसको स्वीकार नहीं करता और वह उसे उगल देता है या उल्टी कर देता है। यह प्रकृति का वा ईश्वर का सन्देश होता है कि यह पदार्थ खाने योग्य नहीं है। बहुत से लोग मांसाहारियों की संगति में रहते हैं जिससे उन्हें यह दोष लग जाता है। ईश्वर एक, दो, तीन बार तो उसको उलटी आदि कराकर रोकता है परन्तु जब वह नहीं मानता तो ईश्वर भी उसे अपराधी मानकर उसका जीवन पूरा होने की प्रतीक्षा करता है जिससे उसे मृत्यु होने के बाद उसके अगले पुनर्जन्म में इन अमानवीय कार्यों के अनुरूप दण्ड दे सके। हमें लगता है कि बहुत से मनुष्य पुनर्जन्म पाकर पशु बनते होंगे जिनका मांस दूसरे मनुष्य व पशु आदि खाते होंगे। अतः मांसाहार का सर्वथा त्याग ही मनुष्य को सुखी, स्वस्थ, दीर्घायु बनाता है। शाकाहारी मनुष्यों में मांसाहारी मनुष्यों की तुलना में बल, शारीरिक सामथ्र्य, बौद्धिक व आत्मिक क्षमता, साहस, निर्भयता, सेवा, परोपकार व धर्म-कर्म की भावना अधिक होती है जिसे प्रमाणों व उदाहरणों से सिद्ध किया जा सकता है।

 

वेद संसार के सभी मनुष्यों का आदि ग्रन्थ है जिसमें धर्म व कर्म अर्थात् कर्तव्य, अकर्तव्य का विधि व निषेधात्मक ज्ञान है। विदेशियों ने अपने मांसाहार का दोष छिपाने वा अपनी बौद्धिक अक्षमता के कारण यह आरोप लगाया कि सृष्टि की आदि में हमारे पूर्वज आर्य व ऋषिगण पत्थरों के हथियार बनाकर पशुवध कर मांसाहार किया करते हैं। यह बात सर्वथा अनुचित व मिथ्या है। सृष्टि के आदि काल में हमारे व समस्त मानवजाति के पूर्वज फल, कन्द, मूल व गोदुग्धादि का आहार व भोजन किया करते थे। चारों वेदों के एक मन्त्र में भी मांसाहार करने का संकेत नहीं है अपितु पशुओं की रक्षा करने का विधान है जो स्पष्ट रूप से घोषणा करता है कि यजमान के पशु गाय, घोड़ा, बकरी, भेड़ आदि अवध्य=हत्या न करने व न मारने योग्य है जिनकी आर्यों व सभी मनुष्यों को अपने सुख व कल्याण के लिए रक्षा करनी है। इसका एक ठोस प्रमाण यह है कि हिरण सहित जितने भी शाकाहारी पशु हैं यह जंगल में शेर आदि हिंसक पशुओं को देख कर भाग जाते हैं। इन्हें ईश्वर ने गन्ध के आधार पर यह समझ प्रदान की हुई है कि कौन सा प्राणी हिंसक है और कौन अहिंसक, कौन इनका घातक है और कौन इनका रक्षक। इन शाकाहारी पशुओं के सम्मुख जब भी कोई हिंसक पशु, शेर, चीता आदि आते हैं तो यह दूर से ही उनके आने व होने की  गन्ध को भांप कर भाग खड़े होते हैं परन्तु मनुष्य को देखकर यह दूर भागने के स्थान पर उसके पास आकर उससे अपना प्रेम प्रदर्शित करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य शाकाहारी प्राणी है, मांसाहारी नहीं है तथा इसी कारण पशु मनुष्यों से डरते नहीं, दूर भागते नहीं व उसके समीप प्रसन्नता से आते हैं। अतः मनुष्यों द्वारा भोजन के लिए पशुओं की हत्या करना उसके ईश्वर व प्रकृति प्रदत्त स्वभाव व गुण के विरुद्ध होने से सर्वथा निन्दनीय है।

 

वेदों ने पशुओं की रक्षा व मांसाहार विषयक क्या विचार हैं, इसका संक्षेप में अवलोकन करते हैं। यजुर्वेद के 40/7 मन्त्र यस्मिनित्सर्वाणी भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः। तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः।। में कहा गया है कि जो व्यक्ति सम्पूर्ण प्राणियों को केवल अपने जैसी आत्माओं के रूप में ही देखता है (स्त्री, पुरुष, बच्चे, गौ, हरिण, मोर, चीते तथा सांप आदि के रूप में नहीं) उसे उनको देखने पर मोह अथवा शोक (ग्लानि वा घृणा) नहीं होता, क्योंकि उन सब प्राणियों के साथ वह एकत्व (समानता तथा साम्यता) का अनुभव करता है। इस मन्त्र में यह सन्देह दिया गया है शोक व मोह से बचने के लिए मनुष्य को सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान व रूप में ही देखना चाहिये। इससे वह शोक व मोह से बच सकते हैं। आर्यजगत के विद्वान श्री पं. सत्यानन्द शास्त्री अपनी प्रसिद्ध पुस्तक क्या प्राचीन आर्यलोग मांसाहारी थे?’ में लिखते हैं कि जो लोग आत्मा की अमरता, पुनर्जन्म तथा एकत्व (समानता=साम्यता) के सिद्धान्तों में विश्वास रखते थे (जैसा कि आर्यों को समझा जाता है), वे अपने क्षणिक स्वाद की तृप्ति अथवा भूखे पेट की पूर्ति के लिये उन पशुओं को कैसे मार सकते थे जिनमें उन्हें अपने ही पूर्वजन्मों के प्रियजनों की आत्माओं के दर्शन होते थे? वास्तव में ऐसा कभी नहीं हो सकता। यजुर्वेद मन्त्र 36/18 में कहा गया है कि मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम्। मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे। इस मन्त्र का अभिप्राय है कि मुझे सब प्राणी अपना मित्र समझें तथा मैं भी उनसे अपने मित्रों जैसा व्यवहार करूं। हे परमात्मा ! कुछ ऐसी विधि मिलाओं कि हम सब प्राणी एक दूसरे से सच्चे मित्रों जैसा व्यवहार करें। प्राचीन आर्य लोग प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के उपर्युक्त वैदिक सिद्धान्त में न केवल आस्था ही रखते थे, अपितु इसे ईश्वर प्रदत्त धर्म का अंग जानकर अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करते थे। उन आर्येां के सम्बन्ध में यह धारणा रखना कि वे अपनी जैह्विक लालसा की क्षणिक तृप्ति के लिये उन प्राणियों का, जिन्हें वे मित्रतुल्य प्रिय जानते थे, वध करते थे, अनर्गल नहीं तो और क्या है।

 

प्राणीमात्र के लिये अथाह मैत्री के इस वैदिक सिद्धान्त का पारिणााम यह निकला कि समाज में दोपायों (मनुष्यों) और चैपायों की हिंसा पूर्ण रूपेण निषिद्ध कर दी गई। यजुर्वेद मानव के प्रति अहिंसाभाव का कठोर आदेश देते हुए कहता है कि ‘…… मा हिंसीः पुरुषम् …’ (यजुर्वेद 16/3) अर्थात् पुरुष किसी भी प्राणी की  हिंसा न करे। यजुर्वेद पशुओं के मारे जाने पर कठोर प्रतिबन्ध लगाता है। वह कहता है कि ‘मा हिंसीस्तन्वा प्रजाः‘ (यजुर्वेद मन्त्र 12/32) तथा ‘इमं मा हिंसीद्विपाद पशुम् …’ (यजुर्वेद 13/47)। इसी प्रकार यजुर्वेद में गोवध का निषेध किया गया है क्योंकि मानव जाति के लिये गौ शक्तिवर्द्धक घी प्रदान करती है। ‘… गां मा हिंसीरदितिं विराजम्’ (यजुर्वेद 13/43 एवं ‘….. घृतं दुहानार्मादति जनाय …. मा हिंसीः’। (यजुर्वेद 13/49)। इसी प्रकार से अश्व, बकरी व भेड़ आदि पशुओं का वध न करने के प्रति भी वेद में अनेक आज्ञायें उपलब्ध हैं। इससे सिद्ध हो जाता है कि समस्त वैदिक साहित्य के प्रतिनिधि वेद पशुओं की हिंसा के सर्वथा विरोधी हैं, मांसाहार का तो प्रश्न ही नहीं होता। आर्य विद्वानों ने वेदों में पशुहत्या व मांसाहार पर अनेक ग्रन्थ लिखकर शास्त्रीय उदाहरण, युक्ति, तर्क आदि देकर वेदों में इनका विधान होने का प्रतिवाद किया है। आर्य संन्यासी स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने भी स्वास्थ्य के शत्रु अण्डे व मांस पुस्तक लिखकर इन पदार्थों का सेवन स्वास्थ्य के हानिकारक सिद्ध किया है। एक विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार बर्नाडशा के जीवन की एक घटना का उललेख कर हम इस लेख को विराम देंगे। बर्नाडशा को डाक्टरों ने मांस-सेवन की सम्मति दी थी जिसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था–“My situation is a solemn one. Life is offered to me on condition of eating beef steaks.  But death is better than cannibalism.  My will contains directions for my funeral, which will be followed not by mourning coaches, but by oxen, sheep, flocks of poultry and a small travelling aquarium of  live fish, all wearing white scarfs in honour of the man who perished rather than eat his fellow creatures. It will be with the exception of Noah’s ark, the most remarkable thing of the kind seen.” अर्थात् ‘‘मेरी स्थिति गम्भीर है। मुझे कहा जाता है कि गो-मांस खाओ तुम जीवित रहोगे। इस राक्षसपन की अपेक्षा मृत्यु अधिक उत्तम है। मैंने अपनी वसीयत लिख दी है। मेरी मृत्यु पर मेरी अरथी के साथ विलाप करती गाडि़यों की आवश्यकता नहीं है। मेरे साथ बैल, भेड़ें, मुर्गे और जीवित मछलियों का एक चलता-फिरता घर होगा। इन सभी पशु और पक्षियों के गले में सफेद दुपट्टे होंगे, उस मनुष्य के सम्मान में जिसने अपने साथी प्राणियों को खाने की अपेक्षा मरना उत्तम समझा। हजरत नूह की नौका को छोड़कर यह दृश्य सबसे अधिक उत्तम और महत्वपूर्ण होगा।”

 

लेख की समाप्ती पर निवेदन है कि वेदों व प्रमाणिक वैदिक साहित्य में मांसाहार का विधान नहीं है। यदि कहीं ऐसी प्रतीती होती है तो यह इंटरप्रीटेशन व मिलावट के कारण हो सकती है। मानवीय आधार पर भी पशु हत्या और मांसाहार दूषित व पाप कर्म है। इसका करना इस जीवन को कुछ समय के लिए स्वादयुक्त बना सकता है परन्तु मृत्यु के बाद के जन्मों में मांसाहारी मनुष्य को पशु बनाकर इस अपकार का बदला ईश्वर के द्वारा अवश्य चुकाया जायेगा। कोई इससे बच नहीं सकेगा। ईश्वर किसी की दलील भी नहीं सुनता क्योंकि वह मनुष्य के मन व आत्मा के विचारों व उसकी सभी क्रियाओं का साक्षी होने के साथ किसी बात व घटना को भूलने की प्रवृत्ति से रहित है। अतः सभी मनुष्य को मांसाहार के घृणित कार्य से स्वयं को दूर रखना चाहिये। यदि नहीं रख सकते तो ईश्वर की दण्ड व्यवस्था की प्रतीक्षा करें और जैसी करनी वैसी भरनी के सिद्धान्त के अनुसार अपने कर्मों का भोग करें।

मनमोहन कुमार आर्य

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गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

ओ३म्

गृहस्थ आश्रम पर महर्षि दयानन्द के कुछ ग्राह्य विचार

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

महर्षि दयानन्द सिद्ध योगी और बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने समस्त वेदों एवं वैदिक साहित्य का तलस्पर्शी अध्ययन किया था और अपनी ऊहापोह व तर्कणा शक्ति से उसका मन्थन कर सत्य व असत्य विचारों व मान्यताओं को पृथक-पृथक किया था। देश हित में उन्होंने वेदों का उद्धार व समाज सुधार के अनेकानेक कार्य किये जिससे देश व समाज को अभूतपूर्व लाभ हुआ और वह अनेक भावी कठिन व जटिल विपदाओं से बच गया। उनके बाद उनके अनुयायियों से इतर लोगों में उन जैसा ज्ञान, सामर्थ्य, सोच, योजना, त्याग व समर्पण न होने के कारण उनका वह स्वप्न आज भी अधूरा है। आज देश के जो हालात हैं, वह भारत के इतिहास का एक कठिनतम दौर है और भविष्य क्या होगा? यह अनुमान लगाना कठिन है जिसके प्रति अनेक आशंकायें हैं। आज इतना ही कहना समीचीन है कि सभी राष्ट्रवादियों को एक जुट होना होगा और छद्म राष्ट्रवादियों को बेनकाब कर उन्हें वैचारिक आधार पर परास्त करना होगा।

 

वैदिक आश्रम व्यवस्था में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम को लेकर अनेकानेक भ्रान्तियां प्रचलित रही हैं जिनका निराकरण नहीं हो पा रहा था। महर्षि दयानन्द जी ने अपने समय में अपने अपूर्व ज्ञान से सभी भ्रान्तियों का निराकारण किया। आश्रम व्यवस्था में गृहस्थाश्रम पर आपने अपने बहुमूल्य विचार प्रस्तुत किये हैं जिन पर इस लेख में दृष्टि डाल रहे हैं। महर्षि दयानन्द प्रश्न करते हैं कि गृहस्थाश्रम अन्य तीन ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों में सब से छोटा है वा बड़ा है? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि अपनेअपने कर्तव्यकर्मों में सब आश्रम बड़े् हैं। परन्तु–

 

यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्।।1।।

 

यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः।

तथा गृहस्थमाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वं आश्रमाः।।2।। 

 

उपर्युक्त दोनों श्लोक मनुस्मृति के हैं। महर्षि दयानन्द ने इस प्रसंग में अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में अन्य दो श्लोक भी दिये हैं। इन चारों श्लोकों का अर्थ करते हुए वह कहते हैं कि जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमण करते व बहते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते है।।1।। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।।2।। जिस से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को गृहस्थाश्रमी दान और अन्नादि देके प्रतिदिन ही धारण करते हैं इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहलाता है। इसलिये जो मनुष्य वा स्त्री-पुरुष अक्षय मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम को धारण करे। यह गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने से अयोग्य है। इसको (ब्रह्मचारीगण) अच्छे प्रकार से वरण कर धारण करें। यह मनुजी के विचार व आदेश हैं। मनु जी के इन विचारों को प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि इस कारण से जितना कुछ व्यवहार संसार में है उस का आधार गृहस्थाश्रम है। जो यह गृहाश्रम होता तो सन्तानोत्पत्ति के होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहां से हो सकते? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु गृहाश्रम में तभी सुख होता है जब स्त्री पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और स्वयंवर (वरवधु द्वारा विवेकपूर्वक स्वयं निश्चित) विवाह है।

 

वैवाहिक जीवन में संयम रखने और ब्रह्मचर्य का पालन करने की ओर भी महर्षि दयानन्द गृहस्थियों का ध्यान दिलाते हैं। वह कहते हैं कि गृहस्थ के स्त्री व पुरुषों को यह ध्यान रखना चाहिये कि उनके शरीर में सन्तान उत्पन्न करने के ईश्वर ने जो पदार्थ रज व वीर्य बनाये हैं उनको वह अमूल्य समझे। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं वे महामूर्ख होते हैं। किसान वा माली मूर्ख होकर भी अपने खेत वा वाटिका के विना अन्यत्र बीज नहीं बोते। जब साधारण बीज और मूर्ख किसान वा माली का ऐसा वर्तमान है तो जो सर्वोत्तम मनुष्य-शरीर रूप के बीज को कुक्षेत्र में खोता है वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उस का उत्तम फल उस मानव बीज की महत्ता न समझने वाले को नहीं मिलता। आत्मा वै जायते पुत्रः यह ब्राह्मण ग्रन्थ और निम्न श्लोक सामवेद के ब्राह्मण ग्रन्थ का है।

 

अंगादंगात् सम्भवसि हृदयादधि जायसे।

            आत्मासि पुत्र मा मृथाः जीव शरदः शतम्।।

 

इस श्लोक में पिता कहता है कि हे पुत्र ! तू अंग -अंग से उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है। इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझ से पूर्व मत मरना किन्तु सौ वर्ष तक जीवत रहना। जिस पौरूष शक्ति वीर्य से ऐसे-ऐसे महात्मा और महाशयों के शरीर उत्पन्न होते हैं उस को वैश्यादि दुष्ट क्षेत्र में बोना वा दुष्टबीज अच्छे क्षेत्र में बुवाना महापाप का काम है। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में जो बात कही है वह चिकित्साशास्त्र और वैदिक ज्ञान का निष्कर्ष है और सदाचार का आधार है।

 

एक समय था जब यूरोप में लोग बिना विवाह किये स्वेच्छाचार करते थे। तब वहां के एक सदाचारी पुरूष वैलेण्टाइन ने आन्दोलन किया और लोगों को विवाह के लिए सहमत किया था। वैलेण्टाइन अल्पायु में ही मृत्यु का ग्रास बन गये थे अन्यथा वह इस दिशा और बहुत कार्य करते। उनके नाम पर ही वैलेण्टाइन दिवस मनाया जाता है परन्तु उनकी भावनाओं को भुला दिया गया है। भारत में विवाह का प्रचलन सृष्टि के आदि काल में ही वेदों की शिक्षाओं के आधार पर अस्तित्व में आ गया था। अनेक दुर्मति लोग भी विवाह के विषय में समय-समय पर प्रश्न उठाते रहते हैं। महर्षि दयानन्द ने भी इन प्रश्नों को उठाया और उनके उत्तर दिये हैं। उन्होंने प्रश्न किया है कि विवाह क्यों करना चाहिये? क्योंकि इस से स्त्री पुरुष को बन्धन में पड़के बहुत संकोच करना और दुःख भोगना पड़ता है इसलिये जिस के साथ जिस की प्रीति हो तब तक वह मिले रहें, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द कहते हैं कि यह पशु पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम रहे तो गृहाश्रम के अच्छेअच्छे व्यवहार सब नष्ट भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी की सेवा भी करे। और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्रशीघ्र मर जायें। कोई किसी से भय लज्जा करे। वृद्धाश्रम में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्याभिचार बढ़ कर सब रोगी निर्बल और अल्पायु होकर कुलों के कुल नष्ट हो जायें। कोई किसी के पदार्थों का स्वामी वा दायभागी भी हो सके और किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकालपर्यन्त स्वत्व वा अधिकार रहे, इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह ही होना सर्वथा योग्य है। महर्षि दयानन्द ने विवाह के पक्ष में इन तर्कों को देकर विवाह विषयक कुतर्क करने वालों के मुंह पर ताला लागा दिया है। आज के समाज में लिवइनरिलेशन व होमोसेक्सुअलिटी के अमर्यादित, ईश्वर व सृष्टि के नियमों के विरुद्ध, व्यवहार व मांगों के परिप्रेक्ष्य में भी महर्षि दयानन्द का विवाह के समर्थन में दिया गया उत्तर विचारणीय एवं महत्वपूर्ण हैं।

 

महर्षि दयानन्द जी ने गृहस्थाश्रम के विषय में सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास सहित संस्कारविधि व अपने वेदभाष्य में बहुत ही महत्वूपर्ण विचारों व वैदिक सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है जो आज भी प्रासंगिक एवं उपादेय हैं। अनेक वैदिक विद्वानों ने भी इस विषय में कुछ लाभकारी ग्रन्थों की रचना की है जिनसे लाभ उठाया जा सकता है। आधुनिक युग में महर्षि दयानन्द स्त्री जाति के सर्वाधिक हितैषी महापुरूष हुए हैं। विवाह की व्यवस्था का आरम्भ वेदों से संसार में हुआ है जिसको इस पृथिवी के सभी भूभागों के लोगों द्वारा अपनाया गया। कालान्तर में विवाह विषयक कुछ नियमों व व्यवहारों को लोग भूल बैठे थे जिससे अनेक समस्यायें उत्पन्न हुईं। आज महर्षि दयानन्द ने विवाह विषयक सभी समस्याओं एवं गृहस्वामी व गृहसम्राज्ञी अर्थात् पति व धर्मपत्नी के विषय में विवाह की अर्हतायें, गुणकर्मस्वभाव की समानता, आयुभेद, गृहस्थ आश्रम में पति व पत्नी के कर्तव्य वा दायित्व आदि विषयों पर पड़े अज्ञानता व रूढि़वाद के आवरण को हटा दिया है। महर्षि दयानन्द के विचार सभी मतों व धर्मों के लोगों के लिए उपादेय व प्रगतिसूचक हैं। सभी को इनका अध्ययन कर इनसे लाभ उठाना चाहिये।

मनमोहन कुमार आर्य

पताः 196 चुक्खूवाला-2

देहरादून-248001

फोनः09412985121

देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।

देश में असहिष्णुता बढ़ रही है, क्योंकि हमें मोदी सहन नहीं है।

बिहार चुनाव के समय असहिष्णुता पर बड़ी बहस चल रही थी जिसको देखो, वह इस देश की बढ़ती हुई असहिष्णुता से चिन्तित दिखाई दे रहा था। देश के राष्ट्रपति से लेकर गली के नेता तक प्रतिदिन वक्तव्य दे रहे थे। असहिष्णुता कोई नई घटना है या किसी परिवर्तन का परिणाम ! गत दिनों असहिष्णुता पर लेख लिखते हुए एक लेखक ने ऑक्सफोर्ड शब्दकोष के आधार पर असहिष्णुता की परिभाषा को दो भागों में बाँटा था-

(क) किसी ऐसी बात की उपस्थितिया अभिव्यक्ति को ( जो कि उसे पसन्द नहीं है या जिससे उसकी सहमति नहीं है ) बिना विरोध सहन करने की सामर्थ्य या सहनशीलता।

(ख) किसी अप्रसन्नता वाली वस्तु ( दवाई आदि भी ) को बिना विपरीत प्रतिक्रिया के सहन करना।

यह परिभाषा एक प्रामाणिक कोष की परिभाषा है, ठीक ही होगी। भारत में सहिष्णुता-असहिष्णुता का मूल्यांकन इस परिभाषा पर नहीं किया जा सकता। भारत में स्वतन्त्रता के बाद से जो हो रहा था, उसकी परिभाषा गाँधी जी की दी हुई थी। उनके विचार से इस देश में दो ही विचारधाराएँ हैं- एक हिन्दू समर्थक, एक हिन्दू विरोधी । भारत की सहिष्णुता केवल हिन्दू-विरोध का दूसरा नाम है। यह हिन्दू विरोध मुस्लिम, ईसाई विरोधी हो जाये तो असहिष्णुता है और हिन्दू अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का विरोध करे तो वह भी घोर असहिष्णुता है।

यदि ईसाई चर्च प्रलोभन अथवा भय से हिन्दुओं का धर्मान्तरण कराये तो यह उदारता सहिष्णुता है, यदि हिन्दू इसका विरोध करने लगे तो यह असहिष्णुता है। कहीं किसी ईसाई को हिन्दू बनाने की बात की तो यह असहिष्णुता बढ़ाना है। कश्मीर में कई हजार हिन्दूस्थानों का नाम एक आदेश से बदल देना और किसी के द्वारा विरोध में स्वर न उठाना, यह सहनशीलता है और दिल्ली के औरंगजेब मार्ग का नाम कलाम के नाम पर करना, यह असहिष्णुता है।

कोलकाता में दुर्गा-पूजा पर पण्डाल तोड़ना सहिष्णुता है और मुसलमानों को सड़क पर यातायात अवरुद्ध करने से रोकना असहिष्णुता है। मन्दिर तोड़ना, हिन्दू महिलाओं को निर्वस्त्र कर दौड़ाना सहिष्णुता है, मस्जिद में इकट्ठे होकर देशद्रोह के व्यायानों की निन्दा करना असहिष्णुता है। साध्वी प्रज्ञा को आतंकी मान, बिना अपराध जेल में रखना सहिष्णुता है। आतंकी को न्यायालय द्वारा फाँसी दिया जाना असहिष्णुता है। गोधरा में गाड़ी के डिब्बे बन्द करके पैट्रोल डालकर जला डालना सहिष्णुता है। प्रतिक्रिया में हिन्दुओं का आक्रामक होना असहिष्णुता है। संसद के अन्दर वन्दे मातरम का  गान होते समय गान का अपमान करनेवाले की प्रशंसा करना सहिष्णुता है और वन्देमातरम गानेवाले की प्रशंसा करना असहिष्णुता है। आजम खाँ का संघ को आतंकी कहना सहिष्णुता है और तिवारी द्वारा बदले में इस्लाम पर टिप्पणी करना असहिष्णुता है। हिन्दुओं द्वारा आत्मरक्षा में उठाया गया काम असहिष्णुता और अपराध है, मुसलमानों द्वारा नवादा में गाड़ियों को जला देना, थाने पर आक्रमण करके आग लगा देना सहिष्णुता की परिभाषा में आता है। ओड़िशा में एक सन्त को कुल्हाड़ी से काट देना सहिष्णुता है और पादरी को जला देना असहिष्णुता है। मुसलमानों द्वारा गाय-ऊँट को मारने पर रोक लगाना असहिष्णुता है, चौराहे पर गोवध करना सहिष्णुता है।

इतिहास में इससे पहले भी बड़ी-बड़ी घटनायें घटीं, तब भी किसी को असहिष्णुता का बोध नहीं हुआ। इन्दिरा गाँधी ने 1975 में आपात्काल की घोषणा की, तब साहित्यकारों ने पुरस्कार स्वीकारना भी बन्द नहीं किया, लौटाना तो दूर की बात है। 1984 में इन्दिरा गाँधी की हत्या की प्रतिक्रिया में तीन हजार से अधिक सिक्खों की हत्या कर दी गई और बदले में सहिष्णु लोगों की प्रतिक्रिया थी। जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। इससे पता लगता है कि सहिष्णुता की दिशा क्या है ? भागलपुर के दंगे प्रसिद्ध हैं, तब भी असहिष्णुता का कोई अवसर नहीं था। विचारों की स्वतन्त्रता का ढोंग करनेवाले वामपन्थी, कांग्रेसी और तथाकथित प्रगतिशील लोग हिन्दूदेवी-देवताओं को गाली देना, विचार-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति का अधिकार मानते हैं। तसलीमा नसरीन के देश निकाले और जान से मार देने के फतवे को सुनकर कबूतर की तरह बिल्ली के आने पर आँखें बन्द कर लेते हैं। विचार-स्वतन्त्रता और अभिव्यक्ति की बात करनेवाले ये ही लोग भारत में रुशदी की पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करते हैं। रुशदी के भारत में आने पर उसका विरोध करते हैं। जयपुर कार्यक्रम से बाहर जाने के लिये बाध्य करते हैं। केरल में एक ईसाई प्रोफेसर का हाथ इसलिये काट दिया जाता है कि उसने इस्लाम के विरोध में लिखा था, यह भी इस देश की सहिष्णुता का उदाहरण है। इन प्रगतिशील विचारकों की सहिष्णुता प्रशंसनीय है।

एक बार मुझे रेल में जाते हुए सीमा सुरक्षा बल के अधिकारी ने अपने अनुभव बताते हुए कहा था- कश्मीर चुनाव में एक मतदान केन्द्र पर उसकी नियुक्ति थी। वहाँ केवल दो मतदाता थे, वह गाँव कश्मीरी पण्डितों का था। उस अधिकारी ने बताया- गाँव के वृद्ध ने कश्मीरी पण्डितों को भगाने की घटना सुनाते हुये कहा था कि इसी वृक्ष के नीचे छबीस कश्मीरी पण्डितों की हत्या की गई थी।जहाँ सैंकड़ों लोगों की हत्या हुई हो और जिस देश में अपने ही घर से बेघर कर बीस वर्षों से भी अधिक समय से शेष लोगों को शरणार्थी बना दिया गया हो- क्या यह हमारी सहिष्णुता का प्रमाण नहीं है? कश्मीर में पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाना सहिष्णुता नहीं है? जब कश्मीर में भारतीय सेना के जवान आतंकियों की छानबीन करते हैं, उन्हें मार गिराते है, तब निःसन्देह भारत की सहिष्णुता खतरे में होती है। हिन्दू लड़कियों को भगाना, बलात्कार करना, हत्या कर देना, आदि को एक सामान्य बात मानना, इस देश में सहिष्णुता का ही प्रमाण है। कौन इसके विरोध में आवाज उठाता है? कौन अपने पुरस्कार लौटाता है? एक दादरी काण्ड पर सारा देश पुरस्कार लौटाने के लिये पंक्ति में खड़ा हो जाता है। यहाँ आतंकियों का सम्मान करने में होड़ लगती है। चाहे दिल्ली का बटाला हाउस काण्ड हो या गुजरात में इशरतजहाँ का मारा जाना। आतंकियों के घर पुरस्कार के रूप में लाखों रुपये के चेक लेकर सहिष्णु लोग ही तो पहुँचते हैं।ये थोड़े से उदाहरण धार्मिक सहिष्णुता के हैं।

इस देश में दो वर्ग विशेष रूप से असहिष्णुता से पीड़ित हैं- राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस और उसके पिछलग्गू लोग। इनका असहिष्णु होना बनता भी है। कांग्रेस की सत्ता छिन गई और ये लोग सोचते हैं कि देश में सहिष्णुता रहनी चाहिये। जो लोग साठ साल से इस देश पर राज्य कर रहे थे और उन्होंने इसे अपना पैतृक अधिकार समझ रखा था, उनको इस देश की जनता ने पराजित कर सत्ता से बाहर कर दिया तो जनता का इससे बड़ा उनके साथ अन्याय क्या हो सकता है? ऐसे लोगों में आक्रोश होना स्वाभाविक है, वे असहिष्णुता की बात करें तो ठीक ही है, इस देश की जनता ने उनको सहने से इन्कार कर दिया, क्या इस देश की जनता असहिष्णु नहीं हो गई है? केवल सत्ता ही गई हो, ऐसा तो नहीं है। सत्ता के जाने से सम्पत्ति और समान भी तो जाता है। सत्ता से एक महिला इंग्लैण्ड की महारानी से भी अधिक सम्पत्ति उपार्जित कर लेती है, क्या बिना सत्ता के ऐसा सभव है? बिना सरकार में हुए सरकार से बड़ा पद मिल जाना, क्या सत्ता के बिना संभव है? राजा के घर पैदा होकर राज्य का अधिकार मिलने की सहज  परम्परा का टूट जाना, क्या सहन करने योग्य बात है ? इसके कारण देश के लोगों में असहिष्णुता बढ़ना सहज बात है। उनकी सरकार के रहते मन्त्री और अधिकारियों और नेताओं ने जो लूट मचा रखी थी, क्या उसके रुक जाने पर कोई शान्तिपाठ कर सकता है? मुझे गत दिनों आर्यसमाज शामली के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला। वहाँ के आर्य सज्जन रघुवीर सिंह आर्यजी के साथ छः दिन रहने का अवसर मिला। उनका लोहे का कारखाना है, गाड़ी के धुरे आदि बनाते हैं। उनके पुत्र ने एक बात बताई कि मोदीजी के आने से उनको व्यापार में घाटा हुआ, परन्तु देश को लाभ। पूछने पर उन्होंने बताया कि मोदी सरकार के आने से भारत का कच्चा लोहा बाहर जाना बन्द हो गया। लोहे का निर्यात बन्द हुआ तो लोहा भारत के बाजार में सस्ता हो गया। इससे देश के व्यापारी को तो तत्काल हानि हो गई, पर कच्चे लोहे का निर्यात बन्द होने से उपभोक्ता को लोहा सस्ता मिल रहा है और देश में ही लोहे का निर्माण हो रहा है। कांग्रेसराज में खनिज निर्यात करके दलाल लोग अपनी जेबें भर रहे थे और देश को हानि हो रही थी। इसी प्रकार खाद्यान्न आदि में भी हो रहा है। इससे जिनलोगों की बेनामी बेहिसाब सम्पत्ति मिल रही थी, क्या उनमें असहिष्णुता नहीं बढ़ेगी । जिस-जिस के भी स्वार्थ पर चोट पड़ेगी, वह असहिष्णु तो होगा ही। इस देश में कांग्रेस ने कुछ सहिष्णुता के केन्द्र बनाये थे, जिनमें देश के अन्दर सहिष्णुता उत्पन्न की जाती है।उनमें से एक है- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय। यह विश्वविद्यालय प्रगति और आधुनिकता का जनक है।जब यह विश्वविद्यालय बना तो इसमें सब भाषाओं के विभाग खोले गये, परन्तु संस्कृत भाषा का विभाग नहीं खोला गया, क्योंकि इस देश के लोगों में संस्कृत पढ़ने से असहिष्णुता बढ़ती है। जब मुरली मनोहर जोशी ने इस विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग खोलने की अनुमति दी तो यहाँ पर विरोध, हड़ताल और आन्दोलन किये गये, परन्तु संस्कृत विभाग तो खुल गया, फिर असहिष्णुता तो इस देश में बढ़नी ही है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की सहिष्णुता का एक उदाहरण देना असंगत नहीं होगा। इस विश्वविद्यालय में एक छात्र जितेन्द्र धाकड़ संस्कृत विषय में एम.फिल. का छात्र है।यह परिवार से आर्यसमाजी है। यह प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन हवन, यज्ञ करके ही मनाता है। इसने इस वर्ष 21 नवम्बर को विश्वविद्यालय में छात्रावास के अपने कक्ष में मित्रों के साथ यज्ञ का आयोजन किया।फिर क्या था, छात्रावास के कामरेडों ने इसकी शिकायत छात्रावास अधीक्षक से कर दी। छात्रावासअधीक्षक (वार्डन) भी एक ईसाई बर्टेनक्लेट्स है, वह तुरन्त कक्ष संख्या 130 में पहुँचा । उसके साथ कामरेड शिकायत करनेवाले भी थे। इन्होंने जबरदस्ती उस छात्र का हवन बन्द करा दिया।छात्रावास मुस्लिम छात्रों को जब नमाज पढ़ने से नहीं रोकता, ईद मनाने से नहीं रोकता, क्रिसमस धूमधाम से मनाया जाता है, बीफपार्टी का आयोजन करने की अनुमति मिल सकती है। फिर हवन को जबरदस्ती बन्द कराना कौन-सी सहिष्णुता का उदाहरण है- ये असहिष्णुता से पीड़ित लोग बता सकेंगे। देश के प्रधानमन्त्री को अलीगढ़ में न बुलाने देना, यह भी सहिष्णुता का ही उदाहरण है। जिन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं से इतनी पीड़ा है कि उन्हें अपने देश में अपनी परम्परा का निर्वाह करने में विरोध सहना पड़ रहा है, वे मुस्लिम देशों की सहिष्णुता से कुछ क्यों नहीं सीखते? पिछले दिनों 22 दिसम्बर को ब्रुनेई के सुल्तान ने क्रिसमस का पर्व मनाने पर बड़ी सजा देने की घोषणा की तथा ऐसा करने वालों को पाँच साल की जेल या बीस हजार डॉलर का दण्ड देना होगा। यदि कोई घर में अकेले मनाना चाहता है तो उसे प्रशासन से अनुमति लेनी होगी । 24 दिसम्बर को अफ्रीकी देश सोमालिया के मन्त्री शेखमोहमद खेचरो ने अपने देश के लोगों को आदेश दिया कि क्रिसमस और नव वर्ष न मनाया जाय, यह ईसाइयों का पर्व है,  इससे मुसलमानों का कोई सम्बन्ध नहीं। गुप्तचर विभाग को निगरानी करने के लिये कहा है।

इन घटनाओं के चलते भारत में असहिष्णुता दीखती है तो वह चाहे धार्मिक हो, जातीय हो या राजनैतिक, मूल कारण है मोदी का प्रधानमन्त्री बनना और हिन्दुओं का अन्याय के विरुद्ध मुखर होना। जो लोग कहते हैं कि मोदी से पहले देश में शान्ति और भाईचारा था, यहाँ गंगाजमुनी संस्कृति है- यह झूठ और आत्मप्रवञ्चना है। इस देश में अल्पसंखयकों और सरकार द्वारा हिन्दुओं पर जितने अत्याचार हुए हैं, उनकी कोई गिनती नहीं, फिर भी यह देश सहिष्णु था तो इसका असहिष्णु होना ही ठीक है। अच्छा होता, यह देश एक हजार वर्ष पूर्व असहिष्णु हो जाता तो दास न बना होता। नीतिकार ने कहा है- जन्मान्ध नहीं देखता, कामान्ध नहीं देखता, उन्मत्त-पागल नहीं देखता और स्वार्थी भी नहीं देखता। इन अन्धों की सहिष्णुता पर क्या कहा जा सकता है-

नैव पश्यति जन्मान्धो कामान्धो नैव पश्यति।

मदोन्मत्ता न पश्यन्ति हयर्थो दोषं न पश्यति।।

 

– धर्मवीर