सन्ति सन्तः कियन्तः

सन्ति सन्तः कियन्तः

इसका अर्थ है- संसार में ऐसे सन्त कितने हैं, जो दूसरे के छोटे-से गुण को बड़ा बना कर उसकी प्रशंसा करते हैं और प्रसन्न होते हैं? हमारी सभा के संरक्षक गजानन्दजी आर्य के लिये यह पंक्ति मुझे सर्वाधिक सटीक लगती है। सभा में आर्यजी का जब से साथ मिला है, मेरे अनुमान और अनुभव से उनकी उदारता को बड़ा ही पाया है। गत दिनों उन्होंने मुझे फिर चकित कर दिया, उस घटना का उल्लेख करना सभा के हित में तथा पाठकों के लिये प्रेरणाप्रद होगा।

विगत तीन वर्षों से निरन्तर आर्यसमाज विधान सरणी के वार्षिक उत्सव में जाने का प्रसंग बना। यह अवसर आर्यसमाज के उत्सव से अधिक मुझे अपनी सभा के प्रधान गजानन्दजी आर्य से मिलने का, उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के अवसर के रूप में अधिक आकर्षित करता है। प्रतिवर्ष जब भी कोलकाता जाने का अवसर मिलता है, मेरा उनके घर जाकर दो-तीन बार भेंट करने का संयोग बन जाता है। प्रधान जी को अजमेर पधारे बहुत समय हो गया था। सभा के सभी सदस्यों की इच्छा थी कि प्रधान जी से मिलना चाहिए। सदस्यों के आग्रह पर सभा की एक बैठक कोलकाता में प्रधान जी के घर पर रखी थी, उस समय सभा सदस्यों से उनका अच्छा संवाद हुआ। प्रधान जी को भी सबसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। इस बैठक के समय परोपकारिणी सभा के सदस्यों के आवास एवं भोजन आदि की व्यवस्था आर्यसमाज विधान सरणी ने बड़े स्नेह और उदारता से की। कोलकाता की आर्य समाजें आर्य जी के लिये प्रेम और आदर का भाव रखती हैं। सभी उनको श्रेष्ठ आर्यपुरुष के रूप में देखते हैं।

गत वर्षों की भाँति दिसबर मास में आर्य समाज विधान सरणी के उत्सव में पहुँचने की सूचना आर्य जी को मिल गई थी। उन्होंने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- मिलने का अवसर मिलेगा, अवश्य आओ । कार्यक्रम के अनुसार आर्य समाज के उत्सव के लिये मेरा कोलकाता जाना हुआ। उत्सव का प्रथम दिन शोभा यात्रा का दिन होता है। उस दिन कहीं जाना संभव नहीं था। विचार था, अगले दिन आर्यजी से भेंट करने के लिये जाऊँगा, तभी आर्य जी का दूरभाष आ गया- कब आ रहे हो? मुझे लगा, आर्यजी शीघ्र मिलने की इच्छा रखते हैं। अगले दिन प्रातःकालीन कार्यक्रम सपन्न कर मैं उनके आवास पर पहुँचा। सहज भाव से दरवाजे की घण्टी बजाई। द्वार खुलते ही मैं आर्य जी को नमस्ते कर एक और बैठना चाहता था कि आर्य जी ने अपने स्थान पर खड़े होकर मुझे निर्देश दिया- मैं उनके निकट आकर खड़ा रहूँ। उन्होंने माताजी को बुला लिया। एक शाल लाकर माता जी ने आर्यजी के हाथ में दिया। आर्य जी ने शाल खोलकर मेरे कन्धे पर डालते हुए प्रसन्नता के साथ कहा- आज हमारी सभा के प्रधान हमारे घर पधारे हैं, हम आपका अभिनन्दन करते हैं। माता जी ने भी आशीर्वाद देते हुए अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। मैं अवाक् और चकित था। वहाँ दो-तीन घर के सेवकों के अतिरिक्त कोई नहीं था। मेरे पास अपने भाव व्यक्त करने के लिये शबद नहीं थे। मुझे फिर लगा, आर्य जी मेरी कल्पना से भी बड़े हैं।

पद ने मुझे मेरे कार्य से कभी पृथक् अनुभव नहीं होने दिया। जिस दिन सभा का सदस्य नहीं था, स्वामी ओमानन्दजी महाराज सभा के प्रधान थे, उनके कारण सभा से जुड़ने का सौभाग्य मिला। उस दिन भी सभा का कार्य करते हुए ऋषि दयानन्द के कार्य को कर रहा हॅूँ, यही अनुभव था। सभा ने मुझे सदस्य बनाया, तब भी मेरा यही अनुभव रहा। मुझे पुस्तकाध्यक्ष पुकारा, तब भी मेरा वही काम और वही भाव था। मुझे आर्यजी ने अपने साथ संयुक्तमंत्री बनाया, तब भी मेरे लिये न कार्य के स्तर पर कुछ नया था, न विचारों के स्तर पर। आर्य जी को सभा ने प्रधान बनाया, आर्य जी ने मुझे अपना मंत्री चुना, तब भी मेरे सेवा कार्य का कोई स्वरूप नहीं बदला और आज आर्यजी ने अपने को प्रधान पद से मुक्त करते हुए मुझे अपना दायित्व सौंपा, तब भी मुझे मेरे कार्य में कुछ भी नवीनता नहीं लगी। जो कर रहा हूँ, उसमें बदलने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है। पहले उत्तरदायित्व आर्यजी के पास था और मैं मुक्त था, परन्तु आज भी वे सभा के संरक्षक हैं, तब भी मैं उनको उतना ही अपने निकट अनुभव करता हूँ। आर्यजी ने सभा के सदस्यों को परस्पर इस तरह से जोड़ा है कि सभी लोग समान विचार से परस्पर सहयोग करते हैं, जिससे सभा की निरन्तर प्रगति और उन्नति हो रही है।

सभा की वर्तमान कार्य विधि का श्रेय स्वामी सर्वानन्दजी महाराज तथा सभा संरक्षक गजानन्दजी आर्य को है। उनकी उदारता और लोकप्रियता के कारण समाज का उदारतापूर्ण सहयोग सभा को प्राप्त हो सका। पुराने आर्य जन सभा से जुड़े और कार्य में गति आई। हमारे सभाप्रधान आर्य जी सभा की उन्नति क्यों हो रही है- इसका मूल्यांकन इस तरह करते हैं। हमारी सभा में कोई नहीं कहता कि यह कार्य मैंने किया है। सब कहते हैं- यह प्रधानजी के कारण हो सका है। प्रधान जी कहते हैं- सदस्यों के सहयोग से यह कार्य हो सका है। अधिकारी सदस्य, सदस्यों के सहयोग को कारण मानते हैं। सदस्य अधिकारियों की कर्मठता को श्रेय देते हैं। इसका कारण था- स्वामी सर्वानन्दजी और गजानन्दजी का अपने सदस्यों के साथ आत्मीय भाव।

सभा के किसी पद की आर्य जी ने कभी इच्छा नहीं रखी और सभा ने कभी उन्हें मुक्त नहीं होने दिया। आर्य जी ने जब भी पद छोड़ा, अपने आग्रह से छोड़ा और सभा ने उन्हें बलपूर्वक पद पर बनाये रखा। संभवतः यही दुर्लभ बात सभा की प्रगति का कारण है।

आर्य समाज के प्रारभिक काल को छोड़ कर सभा और संगठनों पर कहीं राजनीतिक लोगों का, कहीं जातिवादी लोगों का तो कहीं धनी लोगों का वर्चस्व रहा है। उनका हित ही संगठन का हित समझा जाता है। विद्वान् व् संन्यासियों को तो ये नेता कहलाने वाले लोग यह कह कर दूर कर देते हैं कि आपका काम प्रचार करना है, संगठन चलाना नहीं। कोई इनसे पूछे कि संगठन का काम प्रचार करना नहीं होकर क्या अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये झगड़े करना और सभा समाज की सपत्ति का दुरुपयोग करना है? आज यह परोपकारिणी सभा के लिये गौरव की बात है कि इसके तेईस सदस्यों में अट्ठारह सदस्य विद्वान् प्रचारक, लेखक और पत्रकार हैं। किसी संस्था में एक भी व्यक्ति कर्मठ, निष्ठावान् होता है तो संस्था उन्नति करती है, आज सभा का प्रत्येक सदस्य तन-मन-धन से सभा की उन्नति में लगा है तो सभा की प्रगति कैसे नहीं होगी? सभा जातिवाद, राजनीतिवाद, धनवाद, वर्गवाद के सभी रोगों से मुक्त है। आर्यजी की कार्यशैली, ऋषि के प्रति दृढ़भक्ति और सिद्धान्तों के प्रतिनिष्ठा का ही यह परिणाम है। सभा के द्वारा जो कार्य हस्तगत हो रहे हैं, उसमें अधिक कार्य ऐसे हैं, जो दिखाई नहीं देते। उनका वर्तमान के लिये विशेष लाभ दिखाई न दे, परन्तु भविष्य के कार्य की वे आधारशिला हैं। इनकी चर्चा किसी और प्रसंग के लिये छोड़ते हैं। सभा द्वारा अपनी गतिविधियों में पठन-पाठन, प्रचार, प्रकाशन के साथ योग साधना शिविरों का आयोज नवर्ष में दो बार किया जाता है। इनमें भाग लेने से व्यक्ति के विचारों में स्पष्टता आती है, सिद्धान्त की मान्यता दृढ़ होती है, कार्य करने का उत्साह बढ़ता है और निराशा समाप्त होती है। इसका एक उदाहरण कभी नहीं भूलता। दिल्ली के लाला श्याम सुन्दर जी, जो मूल रूप से बादली-झज्जर के निवासी थे, आश्रम के शिविरों में आते रहते थे। शिविर की समाप्ति पर शिविरार्थी अपने शिविर काल के अनुभव सुनाते हैं। एक शिविर के अनुभव सुनाते हुए लाला जी ने कहा- मुझे शिविर में आकर पहला अनुभव यह हुआ कि मैं समझने लगा था कि आर्य समाज का कार्य शिथिल हो गया है, उसका वर्चस्व समाप्त हो गया है, परन्तु शिविर का अनुभव कहता है-आज भी आर्यसमाज में जीवन डालने वाले लोग हैं और आर्य समाज का कार्य प्रगति पर है। लाला जी ने दूसरी बात कही- आश्रम में आकर अनुभव हुआ कि यहाँ किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य रुकता नहीं। प्रधान नहीं है तो मन्त्री, मन्त्री नहीं है तो सदस्य, वह नहीं है तो कार्यालय का व्यक्ति, कभी वह भी नहीं हुआ तो सेवक ही सारे काम कर देता है, किसी की अनुपस्थिति से कोई कार्य बाधित नहीं होता। यह सामूहिक रूप से कार्य करने का परिणाम है।

सभा को स्वामी जी और आर्यजी जैसे वीतराग व्यक्तियों का मार्गदर्शन और संरक्षण प्राप्त रहा, यही सभा का सौभाग्य है।

प्रधान जी में सरलता और निरभिमानता कूट कूट कर भरी है। अनेक बार मेरी शिकायतें लेकर लोग प्रधान जी के पास पहुँचते हैं, वे मुझे बता देते हैं- कौन आया था और क्या कह रहा था। एक बार एक व्यक्ति के बारे में बता रहे थे, वह व्यक्ति कह रहा था- यह धर्मवीर प्रधान को महत्त्व नहीं देता, स्वयं सब कार्य करता है। मैंने पूछा- आपको यह बात बुरी लगी होगी, तो कहने लगे- मुझे क्यों बुरी लगेगी, जो कार्य तुम करते हो, उसके लिए तुमहें ही उत्तरदायी बनकर आगे आना होगा। पौत्र पराग के विवाह के अवसर पर मुबई में होटल में मिले तो एक तरफ ले जा कर हाथ पकड़ कर कहने लगे- जब कोई व्यक्ति तुमहारे विषय में अन्यथा बात करता है तो मुझे बहुत दुःख होता है, बुरा लगता है। मैंने कहा- मुझे तो बुरा कहने वाले का बुरा नहीं लगता है, आपको भी नहीं लगना चाहिए । बोले- नहीं, यह सहन नहीं होता। ऐसे सहृदय सज्जन संसार में कितने हैं, जो अन्यों के परमाणुतुल्य गुणों को पर्वताकार बनाकर नित्य ही अपने अन्दर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं? प्रधानजी के व्यक्तित्व को देखकर महाराज भृर्तहरि की ये पंक्तियाँ होंठों पर आ जाती हैं-

मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा

स्त्रिभुवनमुपकारः श्रेणिभिः प्रीणयन्तः।

परगुणपरमाणून  पर्वतीकृत्य नित्यं,

निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।।

– धर्मवीर

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *