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‘मैं महानतम पुरुष ईश्वर को जानता हूं’

मैं महानतम पुरुष ईश्वर को जानता हूं

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

यदि किसी मनुष्य ने ईश्वर या सृष्टि आदि विषयों को जानना है तो उसे इन विषयों के जानकार विद्वान व ज्ञानी पुरुषों की शरण लेनी होगी। किसी एक ज्ञानी पुरुष को प्राप्त होकर हम उससे, जितना वह ईश्वर वा सृष्टि के बारे मे  जानता है, ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अब यदि हम उससे पूछे कि आपको यह ज्ञान कहां से प्राप्त हुआ तो वह परम्परा का उल्लेख करेगा व कुछ अपने ऊहापोह, चिन्तन-मनन व अन्वेषण की बात कह सकता है। यह सृष्टि वैदिक मान्यताओं के अनुसार विगत 1.96 अरब वर्षों से अस्तित्व में है। इस अवधि में लगभग 49 करोड़ मनुष्यों की पीढि़यां उत्पन्न होकर कालकवलित हो चुकी हैं। मनुष्य का आत्मा सत्य का जानने वाला होता है परन्तु अविद्या आदि अनेक दोषों के कारण वह सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। इससे यह ज्ञात होता है कि यदि मनुष्य अपनी अविद्या को दूर कर दे तो वह सत्य व ईश्वर एवं सृष्टि का यथावत ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अविद्या को हटाने का एक ही मार्ग है कि हम विद्या प्राप्ति का संकल्प लेकर विद्या से युक्त विद्वानों की संगति करें और अपनी सभी शंकाओं को दूर करने सहित ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि के कारण व कार्य रुप को जानें। स्वयं को, सृष्टि व ईश्वर को जानने की इच्छा व आवश्यकता सृष्टि की प्रथम पीढ़ी में उत्पन्न स्त्री वा पुरूषों को भी अवश्य हुई होगी क्योंकि हम जानते हैं कि आत्मा चेतन तत्व वा पदार्थ है और ज्ञान व कर्म इसके दो स्वाभाविक धर्म वा गुण हैं। ज्ञान की पिपास व जिज्ञासु स्वभाव इसका शाश्वत् गुण वा स्वभाव है।

 

सृष्टि के आरम्भ में पहली पीढ़ी के लोगों के लिए आचार्य व गुरु कहां से आये थे? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है कि उन्हें भी अन्य सामान्य मनुष्यों की भांति ईश्वर ने ही उत्पन्न किया था। इन आचार्यों को ईश्वर ने चार वेदों का ज्ञान दिया और उन्हें इस वेदों के ज्ञान की अन्य मनुष्यों में प्रचार व उपदेश की प्रेरणा की। उन्होंने ऐसा ही किया। परम्परा से ज्ञात होता है कि ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को क्रमशः चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का शब्दार्थ वा वाक्य-पद-अर्थ सहित ज्ञान दिया था। इन चार ऋषियों में अन्य उत्पन्न मनुष्यों में सबसे योग्य ब्रह्मा नाम के ऋषि को क्रमशः एक-एक करके चारों वेदों का ज्ञान दिया। इस प्रकार अन्य मनुष्यों को शिक्षित करने के लिए पांच ऋषि, शिक्षक व आचार्य उपलब्ध हो गये थे जिनसे अध्ययन कर सृष्टि की पहली पीढ़ी के सभी मनुष्य ज्ञानी बने थे। तभी से वेदाध्ययन की परम्परा आरम्भ हुई जो अबाध रूप से महाभारतकाल व उससे कुछ समय पूर्व तक सुचारु रूप से चलती रही। महर्षि दयानन्द के अनुसार यह परम्परा ब्रह्मा से लेकर जैमिनी ऋषि पर्यन्त चली और उसके बाद अवरोध उत्पन्न हुआ। ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी में महर्षि दयानन्द ने अपने पुरुषार्थ और वैदुष्य से उस परम्परा का पुनरुद्धार किया और आज उनके मार्गदर्शन के अनुसार संस्कृत व्याकरण की अष्टाध्यायी-महाभाष्य-निरुक्त पद्धति पर संचालित गुरुकुलों में उस वेदाध्ययन की परम्परा पुनः विद्यमान है। महर्षि दयानन्द को यह श्रेय प्राप्त है कि उन्होंने वेदाध्ययन की प्राचीन विलुप्त असम्भव परम्परा को अपने पुरुषार्थ एवं वैदुष्य से पुनः प्रवर्तित व प्रचलित किया। महर्षि दयानन्द का यह ऋण संसार कभी चुका नहीं सकता।

 

वेद ईश्वर का ज्ञान है जो सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर आदि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को देता है। वेद के मन्त्रों के सत्यार्थ का दर्शन पूर्ण योगी, ज्ञानी, विद्वान व व्याकरण के आचार्यों को होना ही सम्भव होता है। अतः हमारे सभी वेदाचार्य व ऋषि ब्रह्मचारी, ज्ञानी, विद्वान, योगी व व्याकरण ज्ञान से सर्वथा सम्पन्न हुआ करते थे और ऐसे ही महर्षि दयानन्द सरस्वती भी थे। महर्षि दयानन्द ने वेदों के बारे में, वेदों का तलस्पर्शी अध्ययन कर, घोषणा की कि वेद सर्वव्यापक, निराकार, सच्चिदानन्दस्वरुप आदि ईश्वर का ज्ञान हैं और यह चार वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। इस निष्कर्ष पर पहुंच कर उन्होंने संसार के लोगों के उपकारार्थ यह भी कहा है कि वेदों का पढ़ना व पढ़ाना तथा सुनना व सुनाना सभी आर्यों अर्थात् श्रेष्ठ मनुष्यों का परम धर्म है। महर्षि दयानन्द जी ने यह नियम इस लिए बनाया है कि जिससे संसार से अज्ञान का नाश व ज्ञान की वृद्धि हो। इसी बात को उन्होंने एक अन्य नियम में भी कहा है। आर्यसमाज के इस आठवें नियम में कहा गया है कि सभी मनुष्यों को ‘‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये। आईये ईश्वर, वेद और महर्षि दयानन्द विषयक उपर्युक्त विचारों के प्रकाश में वेदों के एक प्रसिद्ध मन्त्र पर विचार करते हैं जिसमें ईश्वर के सत्य स्वरुप का प्रकाशन किया गया है। यह ईश्वर का स्वरुप ऐसा है, जैसा कि अन्य किसी मत व सम्प्रदाय में नहीं पाया जाता। यह मन्त्र यजुर्वेद के अध्याय 31 का 18 हवां मन्त्र है जा निम्नवत् हैः

 

ओ३म् वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।

तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय।। 

 

इस मन्त्र का भावार्थ यह है कि मैंने जान लिया है कि परमात्मा महान् है, सूर्यवत् प्रकशमान है, अन्धकार व अज्ञान से परे है। उसी को जानकर मनुष्य दुःखदायी मृत्यु से तर सकता है, बच सकता या पार हो सकता है। मृत्यु से बचने व उससे पार होने का संसार में अन्य कोई उपाय नहीं है। मृत्यु से बचने का अर्थ है कि जन्म-मरण से अवकाश अर्थात् जीवात्मा की मुक्ति वा मोक्ष। मृत्यु पर विजय व मोक्ष अर्थात् 43 नील वर्षों की दीर्घावधि तक ईश्वर के सान्निध्य में रहकर पूर्णानन्द की उपलब्धि करना।

 

हमें यह मन्त्र ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना का आधार भी लगता है। मृत्यु से बचने के लिए स्वप्रकाशस्वरुप, ज्ञानस्वरुप, सब सृष्टि और विद्या का प्रकाश करने वाले परमेश्वर वा परमात्मा को जानकर ही हमारी अविद्या व अज्ञान का अन्धकार दूर होता है व हो सकता है। इसके लिए वेदाध्ययन अपरिहार्य है। वेदाध्ययन से ईश्वर का सत्य वा प्रमाणिक स्वरुप विदित होकर मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसे ईश्वर के सत्य स्वरुप का ज्ञान, प्रत्यक्ष व साक्षात्कार हो जाता है। महर्षि दयानन्द एवं अनेक ऋषि-मुनियों व योगियों के जीवनादर्श हमारे सामने हैं। सम्भवतः वेद की इसी शिक्षा को विस्तार देने के लिए महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन का प्रणयन किया था जिससे ध्याता योगी अपनी जीवात्मा में निभ्र्रान्त रूप से ईश्वर के प्रकाश व स्वरुप को अनुभव कर उसका प्रत्यक्ष व साक्षात्कार कर सके। योगदर्शन के अनुसार साधना करने व उसके आठवें अंग समाधि की सिद्धि होने पर ईश्वर का साक्षात्कार होता है। समािध अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार का वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के साक्षात्धर्मा ऋषि का निम्न वाक्य वा श्लोक उपलब्ध होता है जिसे प्रमाण मानकर महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में उद्धृत किया है।

 

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे।

 

अर्थात् जब इस जीव के हृदय की अविद्या अज्ञानरूपी गांठ कट (खुल) जाती है, (तब) सब संशय छिन्न होते (हो जाते हैं) और दुष्ट (अशुभ वा पाप) कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं। तभी उस परमात्मा जो कि अपने (ध्याता, उपासक योगसाधक की) आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, (जीवात्मा योगी) उस (परमात्मा) में (निभ्र्रान्त ज्ञान सहित) निवास करता है। इस स्थिति के प्राप्त होने पर मनुष्य को सत्य असत्य का विवेक प्राप्त हो जाता है जो कि मृत्यु से पार होने अर्थात् मोक्ष प्राप्ति की अर्हता है। कालान्तर में म्ृत्यु आने पर मनुष्य जन्म मरण के, कर्मफलभोग के, चक्र से 43 नील वर्षों के लिए मुक्त हो जाता है।

 

आजकल मनुष्य जिस प्रकार अर्थ वा धन तथा सुख-सुविधाओं रूपी भोगों का जीवन व्यतीत कर रहा है उससे वह कर्म-फल बन्धन में फंसता जाता है जिससे मृत्योपरान्त उसकी उन्नति होने के स्थान पर अवनति होती है। किस प्रवृत्ति के मनुष्य का अगला जन्म किस-किस पशु-पक्षी आदि निम्न योनी में हो सकता सकता है इसका अनुमान मनुस्मृति एव दर्शन आदि ग्रन्थों सहित महर्षि दयानन्द के साहित्य को पढ़कर लगाया जा सकता है। इस लेख को लिखने का हमारा प्रयोजन पाठकों का ध्यान वेदों की बहुमूल्य शिक्षाओं की ओर आकर्षित करना है जिससे वह अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त कर सके। आशा है कि यह लेख सामान्य पाठको के लिए उपयोगी होगा। यह भी कहना है कि लेखक एक साधारण व्यक्ति है जिसने यह लेख अपने स्वाध्याय व उससे प्राप्त किेंचित विवेक के आधार पर लिखा है। इस विषय में पाठक महर्षि दयानन्द व वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय कर लाभान्वित हो सकते हैं। इति

 

-मनमोहन कुमार आर्य

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वीर शिवाजी जी की मातृ-भक्ति से जुड़ी विश्व इतिहास की अपूर्व घटना’

वीर शिवाजी जी की मातृभक्ति से जुड़ी विश्व इतिहास की अपूर्व घटना

 

छत्रपति श्विाजी महाराज आर्य महापुरुष थे। आप माता जीजी बाई के पुत्र थे। एक बार शिवाजी की माता जीजाबाई बीमार हो गईं और उनका स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था। शिवाजी अपनी माता से बहुत  प्रेम करते थे, अतः उन्हें अपनी मां की बहुत चिन्ता हुई। शिवाजी एक प्रसिद्ध वैद्य के पास गये और उन्हें अपनी माता का पूरा हाल बताया। वैद्यजी ने शिवाजी को माता के इलाज के लिए शेरनी का दूध लाने को कहा और बताया कि शेरनी के दूध से ही तुम्हारी माताजी स्वस्थ हो सकती हैं।

 

वैद्य जी की बात को सुनकर शिवाजी शेरनी के दूध की तलाश में एक घोर जंगल में निकल पड़ें। उन दिनों शीत ऋतु अपने यौवन पर थी। शिवाजी ने प्रातःकाल की वेला में देखा कि एक शेरनी जंगली में एक वृक्ष की ओट में ठण्ड से कांप रही थी। शिवाजी निर्भयतापूर्वक उस शेरनी के पास गये और एक पात्र में शेरनी का दुग्ध निकाला। दुग्ध लाकर शिवाजी ने वह दुग्ध वैद्यजी को सौंप दिया। वैद्यजी ने उस दुग्ध में औषधियां मिलाकर उसे शिवाजी की माता जीजाबाई जी पिलाया। इस उपचार से शिवाजी की माताजी निरोग हो गईं। अपनी माता को निरोग करने के लिए शेरनी को ढूंढना और उसका दूध निकालना, यह मातृभक्ति व वीरता की इतिहास की सर्वोत्तम स्वर्णिम घटना है और यह शिवाजी की अपनी माता के प्रति भक्ति व उनके समर्पण भाव को प्रस्तुत करती हैं। इस कार्य को करने से वीर शिवाजी इतिहास में अगर हो गये। यह घटना विश्व के सभी पुत्रों के लिए एक आदर्श उदाहरण बन गई है। वीर शिवाजी को नमन।

 

मनमोहन कुमार आर्य

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जन्म-मरण के दु:खों से मुक्ति के विवेक व वैराग्य आदि चार साधन’

ओ३म्

जन्ममरण के दु:खों से मुक्ति के विवेक वैराग्य आदि चार साधन

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य सभी प्रकार के दुःखों से मुक्ति व मोक्ष की प्राप्ति है। मुक्ति व मोक्ष एक प्रकार की जीवात्मा को पूर्ण स्वतन्त्रता है जिसमें शुभ व अशुभ कर्मों के फलों का भोग नहीं होता। यह स्वतन्त्रता वा मुक्ति हमें अपने मिथ्या व अशुभ कर्मों के फलों के भोग से चाहिये। जब भी कोई मनुष्य शुभ व अशुभ कर्म करता है तो उस कर्म की वासना का संस्कार उसके चित्त पर अंकित हो जाता है, प्रायः उसी प्रकार जिस प्रकार से आंखों के सामने चित्र आता है या कैमरे में चित्र अंकित होता है। इस कर्म का फल जब तक कर्म का कर्ता जीवात्मा वा मनुष्य भोग नहीं लेता, उसके जन्म व मृत्यु का क्रम चलता रहता है। यदि जन्म न हो अर्थात् जन्म-मरण का क्रम रूक जाये, तो इसके लिए हमें पूर्व जन्म-जन्मान्तरों में किए हुए सभी अशुभ कर्मों का फल भोग कर भविष्य में जन्म व मृत्यु के कारण शुभ व अशुभ कर्मों को बन्द करना होगा व परमार्थ के कर्म यथा ईश्वरोपासना,  यज्ञ, दान, सत्संगति आदि कर्म ही करने होंगे। हम शुभ व अशुभ कर्म किसी इच्छा व लोभ के कारण ही करते हैं। इसके लिए हमें ज्ञान व विवेक की आवश्यकता है। विवेक से हमें यह ज्ञान हो जाता है कि अमुक कर्म का फल हमें क्या-क्या मिल सकता है। अतः हमें अपने कर्मों के फलों की आसक्ति को हटाना व दूर करना होगा व इसके साथ ही अशुभ कर्म जिससे दूसरे मनुष्य आदि प्राणियों का अपकार होता है, उन्हें भी पूर्णतः छोड़ना होगा। ऐसा होने पर ईश्वर का साक्षात्कार या तो मनुष्य वा योगी को हो जायेगा अन्यथा मनुष्य इस क्षेत्र में उत्तरोत्तर आगे बढ़ सकता है। मोक्ष कब मिलेगा यह तो मनुष्य की अपनी साधना व कर्मों के साथ ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। हमारा व सभी विज्ञ मनुष्यों का उद्देश्य इस बात पर ही केन्द्रित होना चाहिये कि हम मोक्ष के अनुरुप साधना कर रहे हैं वा नहीं। यदि हमारी साधना, वेद व योगदर्शन के अनुसार होगी तो परिणाम भी उसके अनुरुप श्रेयस्कर ही होगा।

 

महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के नवम समुल्लास में एक प्रश्न प्रस्तुत किया है कि कि मुक्ति के क्याक्या साधन हैं? इसका उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि मुक्ति के कुछ साधन वह सत्यार्थप्रकाश में लिख चुके हैं। उन साधनों के अतिरिक्त मुक्ति चाहने वालों को विशेष साधन यह करना है कि वह जीवनमुक्त अर्थात् जिन मिथ्याभाषणादि पाप कर्मों का फल दुःख है, उन को छोड़ सुखरूप फल को देने वाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करे। यह जीवनमुक्त अवस्था है। जो मुनष्य दुःख से छूटना और सुख को प्राप्त करना चाहे वह अधर्म को छोड़कर धर्म के कार्य अवश्य करे क्योंकि दुःख का मूल कारण पापाचरण और सुख का धर्माचरण है। सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात् सत्यासत्य, धर्माधर्म कर्तव्याकर्तव्य का निश्चय अवश्य करें तथा इन्हें पृथकपृथक जानें। शरीर में विद्यमान पंचकोशों का ज्ञान प्राप्त करे व इनका विवेचन करें। एक अन्नमय कोष जो त्वचा से लेकर अस्थिपर्यन्त का समुदाय पृथिवीमय अर्थात् पृथिवी के पदार्थों से निर्मित है। दूसरा प्राणमय कोष जिस में प्राण अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, अपान जो बाहर से भीतर जाता? समान जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुंचाता, उदान जिस से कण्ठस्थ अन्न पान (उदर में) खैंचा जाता और बल पराक्रम होता है, व्यान जिस से सब शरीर में चेष्टा आदि कर्म जीव करता है। तीसरा मनोमय कोष जिस में मन के साथ अहंकार, वाक्, पाद, पाणि, पायु और उपस्थ पांच कर्म-इन्द्रियां हैं। चैथा विज्ञानमय कोष जिस में बुद्धि, चित्त, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका, ये पाचं ज्ञान-इन्द्रियां जिन से जीव ज्ञानादि व्यवहार करता है। पांचवा आनन्दमय कोश जिस में प्रीति प्रसन्नता, न्यून आनन्द, अधिक आनन्द, आनन्द और आधार कारण रूप प्रकृति है, ये पांच कोष कहलाते हैं। इन्हीं से जीव वा मनुष्य सब प्रकार के कर्म, उपासना और ज्ञानादि व्यवहारों को करता है। इन पंच कोषों के ज्ञान से सामान्य जन प्रायः अपरिचित हैं। इनके विस्तृत ज्ञान के लिए योगदर्शन आदि दर्शन ग्रन्थ व उन पर प्राचीन व अर्वाचीन आर्यविद्वानों की टीकायें पढ़कर पाठकों को लाभ उठाना चाहिये।

 

मनुष्य शरीर की तीन अवस्थायें-एक जागृत दूसरी स्वप्न और तीसरी सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। तीन शरीर हैं- एक स्थूल जो यह दीखता है। दूसरा पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच सूक्ष्म भूत और मन तथा बुद्धि इन सतरह तत्वों का समुदाय सूक्ष्म शरीर कहलाता है। यह सूक्ष्म शरीर जन्ममरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इस के दो भेद हैं–एक भौतिक अर्थात् जो सूक्ष्म भूतों के अंशों से बना है। दूसरा स्वाभाविक जो जीव के स्वाभाविक गुण रूप है। यह दूसरा अभौतिक शरीर मुक्ति में भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति मतें सुख को भोगता है। तीसरा शरीर जिस में सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है, वह प्रकृति रूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिए एक वा एक समान है। चौथा तुरीय शरीर वह कहाता है जिस में समाधि को प्राप्त कर मनुष्य वा योगी परमात्मा के आनन्दस्वरूप में मग्न होते हैं। इसी समाधि संस्कारजन्य शुद्ध शरीर का पराक्रम वा प्रभाव मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है। इन पंक्तियों में महर्षि दयानन्द जी ने बहुत गूढ़ ज्ञान प्रस्तुत किया है जिसे पाठकों को बार बार पढ़ना व समझने का प्रयास करना चाहिये और यथासम्भव साधकों व योगियों से इसकी चर्चा करनी चाहिये।

 

जीव वा जीवात्मा इन सब कोषों एवं अवस्थाओं से पृथक है। जब मनुष्य की मृत्यु होती है तब प्रायः सभी लोग कहते हैं कि जीव निकल गया। यही जीव सब का प्रेरक, सब का धर्ता, साक्षीकर्ता व भोक्ता कहलाता है। जो कोई ऐसा कहे कि जीव कर्ता व भोक्ता नहीं है तो जानों कि वह मनुष्य अज्ञानी व अविवेकी है। ऐसे लोगों की संगति करने से मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। जीव से इतर व पृथक जो यह सब जड़ वा भौतिक पदार्थ हैं, इन को सुख-दुःख का भोग वा पाप-पुण्य कर्तृत्व कभी नहीं हो सकता। हां, इन जड़ व भौतिक पदार्थों के सम्बन्ध से जीव पाप-पुण्यों का कर्ता और सुख दुःखों का भोक्ता है।

 

जब इन्द्रियां अर्थों अर्थात् विषयों में, मन इन्द्रियों में और आत्मा मन के साथ संयुक्त होकर प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों में लगाता है तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय आत्मा के भीतर से आनन्द, उत्साह, निर्भयता और बुरे कर्मों को करने में भय, शंका लज्जा उत्पन्न होती है। वह आनन्द, उत्साह, निर्भयता, भय, शंका लज्जा आदि अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्तता है वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है और जो विपरीत वर्तता है वह जन्ममरण के बन्धजन्य दुःख भोगता है।

महर्षि दयानन्द जी ने उपर्युक्त पंक्तियों में मुक्ति में सहायक विवेक अर्थात् यर्थाथ ज्ञान को प्रस्तुत किया है। जन्म-मरण के दुःख से मुक्ति के अन्य उपायों में वैराग्य, ‘षट्क सम्पत्ति तथामुमुक्षुत्व भी सम्मिलित हैं। सत्यार्थप्रकाश में इन पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है जिसके लिए इस ग्रन्थ का नौंवा समुल्लास पढ़ना आवश्यक है। हम आशा करते हैं कि इस समुल्लास को पढ़कर पाठक जीवन विषयक इस यथार्थ ज्ञान से परिचित होकर लाभ उठा सकते हैं और अपने जीवन की सही दिशा देकर अपनी दशा बदल सकते हैं। इससे न केवल मुक्ति के यथार्थ ज्ञान को जानकर लाभान्वित होंगे अपितु समाज, देश व विश्व भी इस ज्ञान से लाभान्वित होगा। हमारी दृष्टि में तो यह ज्ञान व विषय कक्षा प्रथम से स्नात्कोत्तर कक्षा तक अनिवार्य होना चाहिये। यदि हम इस ज्ञान से वंचित रहते हैं तो इसकी व्यक्तिगत हानि हमें तो होगी ही अपितु इससे देश व विश्व भी दुर्दशा को प्राप्त होगा व हो रहा है। आज का सारा विश्व अध्यात्म की उपेक्षा कर भौतिकवादी होकर अपने व अन्यों पर अन्याय व अत्याचार कर रहा है। कुछ व्यक्तियों के पास धन का अम्बार लगा है और कुछ को एक वा दो समय गेहूं की सूखी रोटी भी उपलब्ध नहीं है। युद्ध व युद्ध सामग्री पर देश व विश्व का बहुत बड़ा धन व्यय होता है, युद्ध होते रहते हैं व लाखों लोग अपने प्राणों से हाथ धोते हैं। इसका एक प्रमुख कारण यथार्थ ज्ञान विवेक का होना है। परहित व दान आदि की उच्च भावनायें प्रायः समाप्त हो गई लगती हैं। सर्वत्र स्वार्थ व इसकी पूर्ति के लिए लोग व्यक्तिगत व सामूहिक रूप से लगे हुए हैं। मनुष्य निर्मित विधि-विधान भी लोगों के निजी स्वार्थों के का पोषण करते हैं तथा नैतिक मूल्यों के अनुरूप जीवन व्यतीत करने वाले पीडि़त व दुःखी रहते हैं। यह स्थिति भविष्य में किसी बड़े दुःख का कारण प्रतीत होती है। अतः आज वैदिक-सत्य-यथार्थ व मनुष्य मात्र के एकमात्र वास्तविक धर्म के प्रचार व प्रसार की आवश्यकता सबसे अधिक है। जब तक वेदों को अपना उचित सथान नहीं मिलेगा, इस संसार का कल्याण व पूर्ण हित होना असम्भव है। लोग मत-मतान्तरों में विभक्त रहकर एक दूसरे को दुःख देते हुए स्वयं दुःखी रहेंगे और यह सिलसिला, शायद् इसी प्रकार से, चलता रहेगा।यथार्थ ज्ञान व इसके पोषक वैदिक धर्म के बिना मनुष्य को पूर्ण सुख व शान्ति कभी प्राप्त नहीं होगी। हमें यह भी अनुभव होता है कि वैदिक धर्म के अनुयायी जो प्रचार कर रहे हैं वह अपर्याप्त है जिसका प्रभाव नगण्य ही है। आज की परिस्थितियों के अनुरूप वेदों के प्रचार की प्रभावशाली योजनायें बनाकर व अपने स्वार्थों को दूर रखकर संगठित रूप से वेदों का प्रचार करना होगा। ऐसा होने पर ही भारत की अध्यात्म व परा विद्या बच सकेगी। इसके विपरीत केवल एकांगी भौतिकवादी जीवन व्यतीत करने से परिणाम भयंकर हो सकता है जैसा कुछ अतीत के विश्व युद्धों से हुआ था। हम सभी मित्रों वा पाठकों से सत्यार्थप्रकाश व वेदादि ग्रन्थों को अपने जीवन का एक अंग बनाने का आग्रह करते हैं। स्वाध्याय व साधना के इस कार्य को वह अपनी आजीविका के कार्यों से समय निकालकर कर सकते हैं। इससे उन्हें व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों ही रूपों में लाभ होगा। हम यह भी स्पष्ट कर दें कि हम एक साधारण कोटि के साधक है परन्तु स्वाध्याय व चिन्तन-मनन से हमें यह विचार पाठकों तक पहुंचाने की प्रेरणा हुई। हम आशा करते हैं कि इससे पाठकों को लाभ हो सकता है। इति।

मनमोहन कुमार आर्य

पुस्तक – परिचय पुस्तक का नाम – वेद प्रतिष्ठा लेखक –आचार्य सत्यजित्

पुस्तक – परिचय

पुस्तक का नाम वेद प्रतिष्ठा

लेखक आचार्य सत्यजित्

प्रकाशकवैदिक पुस्तकालय, दयानन्द आश्रम केसरगंज, अजमेर- 305001

पृष्ठ 334     मूल्य – 100/- रु. मात्र

समस्त ऋषियों ने वेद की प्रतिष्ठा को सर्वोपरि रखा है और वेद को स्वतः प्रमाण माना है। वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है, ईश्वर प्रदत्त होने से यह निर्भ्रम और पूर्ण ज्ञान है। वेद मानव मात्र के कल्याण का उपदेश करता है, क्योंकि सर्व कल्याणमय तो ईश्वर ही है, उसके द्वारा बताया गया ज्ञान भी कल्याणमय क्यों न होगा? वेद को मानव मात्र के हितार्थ ईश्वर ने आदि सृष्टि में उत्पन्न किया। आदि सृष्टि से लेकर जब तक मनुष्य समाज वेद के अनुसार अपने जीवन के चलाता रहा, तब तक मानव का आध्यात्मिक भौतिक विकास होता रहा, क्योंकि वेद ही एक ऐसा ज्ञान है, जिसमें सब प्रकार की सत्य विद्याएँ हैं। उन विद्याओं से व्यक्ति अपने अध्यात्म को चरम तक बढ़ा सकता है, ऐसे ही भौतिक विकास को भी चरम तक ले जा सकता है।

वेद स्वतःप्रमाण है, वेद को प्रमाणित करने के लिए किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, जैसे सूर्य को दिखाने के लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। इतना सब होते हुए भी कुछ लोग वेद को ठीक से समझ नहीं पाते, वेद के न समझने में वेद दोषी नहीं है, अपितु वह व्यक्ति ही दोषी है, जो वेद की शैली को नहीं समझा पा रहा। उसके पीछे उसका अपना अज्ञान, हठ, स्वार्थसिद्धि व नास्तिकपना हो सकता है।

आर्य समाज ऋषि की मान्यतानुसार वेद को सर्वोपरि मानता है, वेद के प्रति श्रद्धा रखता है। आर्य समाज में भी कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो अपने को कहते तो आर्य समाजी हैं, किन्तु वेद के प्रति अन्यथा भाव रहते हैं। उनमें से दो व्यक्ति श्री उपेन्द्रराव व श्रीआदित्यमुनि जी थे, दोनों वेद को न तो ईश्वरकृत मानते और न ही वेद को समस्त सृष्टि के लिए मानते। इन लोगों ने वेद पर लगभग 100 आक्षेप किये थे, जिनका उत्तर कुछ विद्वान्  जैसे-तैसे देते रहे अथवा कुछ चुप रहे। जो विद्वान् जैसे-तैसे उत्तर देते रहे, उनसे ये दोनों चुप नहीं हुए, अपितु और अधिक मुखर होकर वेद के विरुद्ध बोलते-लिखते चले गये।

उपेन्द्ररावजी व आदित्यमुनि जी की बोलती तब बन्द हुई, जब परोपकारी पत्रिका में वेद व ऋषि के प्रति आगाध श्रद्धा रखने वाले, ऋषि के मन्तव्यों को जीवन में जीने वाले दर्शनशास्त्रों के मर्मज्ञ, साधनामय जीवन के धनी आचार्य श्री सत्यजित्जी ने ‘‘चतुर्वेद विद्आमने-सामने’’ लेख माला चला कर उनके एक-एक प्रश्न का उत्तर देना प्रारमभ किया। जब परोपकारी में इनको उत्तर दिये जाने लगे, तब ये दोनों बहाने बनाकर बचने लगे, आक्षेप न लगाकर अपने बचाव करने में भलाई समझने लगे। आचार्य श्री सत्यजित् जी की इन लेखमालाओं का प्रभाव यह हुआ कि वे दोनों इन उत्तरों की समालोचना तो दूर, अपनी रक्षा भी नहीं कर पाये। परोपकारी के ‘‘चतुर्वेद विद्आमने-सामने’’ लेखों से उन वेद प्रेमिओं को अपार सन्तोष हुआ जो इनके आक्षेपों से आहत होते रहते थे।

वेद प्रेमियों के लिए प्रसन्नता की बात यह है कि वेद पर किये गये जिन आक्षेपों के उत्तर आचार्य सत्यजित् जी ने दिये, वे उन सब आक्षेपों और उनके उत्तरों को इकट्ठा कर ‘‘वेदप्रतिष्ठा’’ नाम से पुस्तकाकार दे दिया है। इस पुस्तक में उपेन्द्ररावजी द्वारा किये गये 100 प्रश्नों में 28 प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। पुस्तक में 39 विषय व तीन परिशिष्ट हैं। पाठक इस पुस्तक को पढ़कर वेद की प्रतिष्ठा के गौरव को अनुभव करेंगे। यथार्थ में यह पुस्तक वेद को प्रतिष्ठित करने वाली मिलेगी।

पुस्तक में लेखक आचार्य ने अपने विचार रखे- ‘‘पिछले कुछ दशकों से वेदों को अप्रतिष्ठित करने के प्रयास नये तरीके से किये, मूल आक्षेप तो पूर्ववत् ही थे। इनके समाधान भी किये गये, प्रवचनों, लेखों व पुस्तकों के माध्यम से ये समाधान प्रायः परमपरागत शैली में रहे। आक्षेपकों ने यह दुष्प्रचारित किया कि ये समाधान हमारे आक्षेपों का उचित समाधन करने में असमर्थ हैं। आक्षेपकों ने दुराग्रह पूर्वक हठ कर रखी थी कि आक्षेपों के उत्तर मात्र वेद व तर्क युक्ति से दिया जाएँ, अन्य ग्रन्थों का प्रमाण उन्हें स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में विचार हुआ कि क्यों न इन्हें इन्हीं की शैली में उत्तर दिये जाए। साथ ही इनकी इस शैली को इन पर भी लागू करके आक्षेपों की भी समालोचना की जाए। इन्हें इसका बोध कराया जाए कि तर्क-युक्ति की बातें करने वाले आप लोग अपने विचारों-निर्णयों-आक्षेपों में कितने अधिक तर्क हीन व अयुक्ति युक्त हो जाते हैं। उन्हें भी तर्क युक्ति के आधार पर अपने गिरेबान में झँकवाया जाए, अपने मुख को दर्पण में दिखवाया जाए।’’

यह पुस्तक वेद की प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए है, जिसे पढ़कर पाठक लेखक की वेद के प्रति श्रद्धा व उनकी बौद्धिक क्षमता का अनुभव करेंगे। विशेषकर यह पुस्तक वेद प्रेमियों को अत्यधिक रुचिकर लगेगी, वेद के प्रति अधिक श्रद्धा पैदा करनेवाली लगेगी, वेद की शैली का परिचय कराने वाली मिलेगी। सुन्दर आवरण से युक्त, उत्तम छपाई व कागजयुक्त यह पुस्तक प्रत्येक वेद प्रेमी के लिए पठनीय है। गुरुकुलों व पुस्तकालयों के लिए आवश्यक है। आशा है, इस पुस्तक को प्राप्त कर पाठक वेद की प्रतिष्ठा बढ़ाएँगे।

-आ. सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर

 

 

वैदिक त्रैतवाद (वेद मन्त्र भावार्थ)

वेद मन्त्र भावार्थ

-लालचन्द आर्य

आप परोपकारी के सभी अंकों में अनेक स्थानों पर महर्षि दयानन्द जी के वेद मन्त्रों के भावार्थ प्रकाशित करते हो, जिनसे पाठकों को ऋषि की विशेष मान्यताओं का बार-बार बोध होता रहता है। यह वेद प्रचार की एक उत्तम क्रिया है। मैं महर्षि दयानन्द के पाँच वेद मन्त्रों के भावार्थ परोपकारी में प्रकाशन के लिये भेज रहा हूँ, जिनके अध्ययन से वैदिक त्रैतवाद अर्थात् जीव, प्रकृति और परमात्मा के विषय में मेरी सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। इन मन्त्रों के भावार्थ में ऋषि की विशेष मान्यतायें हैं-

  1. भावार्थ- जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर, इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़कर परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं जो जड़, प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़ और न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है। – महर्षि दयानन्द, यजुर्वेद, भावार्थ 40-14
  2. भावार्थ- इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे अग्नि के कारण सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के भी हैं, वैसे सब उत्पन्न हुए पदार्थों के तीन स्वरूप हैं। हे विद्वन्! जैसे तुमहारा विद्या जन्म उत्तम है, वैसा मेरा भी हो। -महर्षि दयानन्द, ऋग्वेद, भावार्थ- मं. 1 सू. 163 म. 4
  3. भावार्थ-हे मनुष्यो! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए- जीवात्मा और परमात्मा वर्तमान है, उन दोनों में एक अल्प, अल्पज्ञ और अल्प देशस्य है। वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, बुद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म फल के समबन्ध से रहित है, तुम लोग निश्चय करो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 4 भावार्थ
  4. भावार्थ- हे मनुष्यो! इस शरीर में सच्चिदानन्द-स्वरूप अपने से प्रकाशित ब्रह्म-द्वितीय, तृतीय-मन, चौथी- इन्द्रियाँ, पाँचवें- प्राण, छठा- शरीर वर्तमान है। ऐसा होने पर समपूर्ण व्यवहार सिद्ध होता है, जिनके मध्य में सबका आधार ईश्वर, देह, अन्तरण, प्राण और इन्द्रियों का धारण करने वाला और जीवादिकों का अधिष्ठान शरीर है, यह जानो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 5 भावार्थ
  5. भावार्थ- जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है। जो जन्म हो गया- वह पहला और जो मृत्यु वा मोक्ष हो के होगा- वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है- वह चौथा जन्म है। यह चार जन्म मिलके एक जन्म, जो मोक्ष के पश्चात् होता है, वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं, यह व्यवस्था ईश्वर के अधीन है। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 31, म. 7
  6. भावार्थ- हे परमेश्वर और जीव! तुम दोनों में बल, विज्ञान तथा कर्मों की प्रेरणा एक साथ होते हैं। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 16, म. 4

– म.नं. 1223/34, शीतलनगर, बागवालीगली, झज्जररोड, रोहतक, हरि.-124001

स्तुता मया वरदा वेदमाता

स्तुता मया वरदा वेदमाता-29
मम पुत्राः शत्रुहणाऽथो मे दुहिता विराट्
तीसरा मन्त्र परिवार के सदस्यों के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाल रहा है। इसकी प्रथम पंक्ति में अपने पुत्र और पुत्रियों की क्या योग्यता है? परिवार में उनका क्या स्थान है?- यह इन शबदों से प्रकाशित होता है। मेरे पुत्र शत्रुओं को नष्ट करने में समर्थ हैं तथा पुत्रियों का व्यक्तित्व विशाल है। उनका प्रभाव क्षेत्र विस्तृत है। आज परिवार में सन्तान तो होती है, परन्तु सभी को अपनी सन्तानों पर गर्व करने का अवसर नहीं मिलता। विशेषकर आज की परिस्थिति में हमारा संकट है- हम उत्साह से सन्तान का पालन-पोषण तो करते हैं, पर सन्तान के बड़े होने पर हमें उतनी ही निराशा हाथ लगती है।
मनुष्य के साथ यह स्वाभाविक नहीं है कि वह सन्तान से प्रेम करता है तो सन्तान भी उससे प्रेम करे। बचपन में बालक माता पर निर्भर रहता है, माँ उस पर समर्पित रहती है। यह परिस्थिति समय के साथ बदलने लगती है। बालक जब परिवार और समाज के दूसरे लोगों के समपर्क में आता है, तब उसके उनसे समबन्ध बनने लगते हैं, तब तक वह घर से बँधा रहता है। बालक घर से दूर होता जाता है तो उसका बन्धन शिथिल होता जाता है, परन्तु माता-पिता का मोह उसे बाँधे रखने के लिये व्याकुल रहता है। धीरे-धीरे यह स्थिति माता-पिता के लिये कष्टप्रद होने लगती है। विशेषकर जब माता-पिता अपनी सन्तानों का विवाह कर देते हैं, तब स्थिति विकट हो जाती है। पुराने समबन्ध अपने अधिकार छोड़ने के लिए तत्पर नहीं होते, वहाँ नये अधिकार उसे जकड़ने लगते हैं। परिवार में संघर्ष की स्थिति बन जाती है।
सन्तान के लिये मोह तो पशुओं में भी होता है, परन्तु जब तक सन्तान उन पर निर्भर रहती है, तभी तक उनका अपनी सन्तान से मोह होता है, उसके बाद वे अपरिचित हो जाते हैं। यह उनकी प्राकृतिक स्थिति है, बाकि तो वे मनुष्य के अधीन होते हैं, जैसा वे चाहें, उन्हें रखे। मनुष्य का मोह यथावत् जीवन भर बना रहता है। इसका उपाय उसे बुद्धि से करना पड़ता है। जब तक कर्त्तव्य का भाव रहेगा, तब तक मनुष्य निर्भय रहेगा, परन्तु मोह का भाव रहेगा, तो हर समय भयभीत रहेगा। माता-पिता अपना अधिकार न मानकर कर्त्तव्य समझें तो उनको कभी सन्तान से दुःख नहीं होगा, न अपने किये पर पश्चात्ताप होगा, न सन्तान के किये की पीड़ा होगी।
सन्तान को यदि माता कर्त्तव्यनिष्ठ बनाने का प्रयास करे तो उनको भी सन्तान की ओर से दुःखी होने के अवसर नहीं आयेगा। इस मन्त्र में एक माता अपने कर्त्तव्य पालन की घोषणा कर रही है। मेरा पुत्र शत्रुओं का नाश करने में समर्थ है, वे शत्रु चाहें आन्तरिक हों अथवा बाह्य। माँ ने अपने बालक को इतना समर्थ बनाया है कि वह अपने आन्तरिक और बाह्य दोनों प्रकार के शत्रुओं को अपने वश में करने में समर्थ है। शत्रुओं को अपने वश में करने की विद्या केवल बाहरी साधनों पर निर्भर नहीं रहती। बाहरी नियम और व्यवस्था से बाहर के शत्रुओं से लड़ा जा सकता है, परन्तु पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों से लड़ाई आन्तरिक साधनों द्वारा ही लड़नी पड़ती है। हम अपने बच्चों को खिला-पिला कर, महँगे कपड़े पहना कर, ऊँचे मूल्य के विद्यालयों में पढ़ाकर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं, परन्तु आन्तरिक संघर्ष करने का सामर्थ्य अपने बच्चों में उत्पन्न नहीं कर पाते। यह संघर्ष आत्मिक गुणों के विकास के बिना समभव नहीं है। आज के युग में माता-पिता, समाज, सरकार किसी के पास भी आत्मा के विकास का विचार नहीं है। अधिकांश को तो इसकी कल्पना ही नहीं है, शेष के पास ऐसा करने का अवसर नहीं है। मनुष्य के अन्दर वह थोड़ा है, जो स्वाभाविक है, अधिकांश तो वह अर्जित है। कुछ वह अपने पुराने जीवन के संस्कारों से लेकर आता है, कुछ माता-पिता से प्राप्त करता है, शेष समाज से उसे मिलता है, अतः हम यदि अपनी सन्तान को अपने शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ बनाना चाहते हैं, तो हमें वैसी शिक्षा और वैसे ही संस्कार देने पड़ेंगे। मनुष्य सिखाने से सीखता है, मनुष्य देखकर सीखता है। परिवार में, समाज में वह अपने लोगों को जैसा करता हुआ पाता है, वैसा स्वयं सीख लेता है, बताने पर भी उसका विचार वैसा बनता है, अतः यह तो सब प्रयास करने से ही समभव है। यह प्रयास प्रथम माता-पिता को करना होता है फिर समाज और शिक्षक की भूमिका आती है।
आज हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा और संस्कार देने में असमर्थ पाते हैं, अतः यह घोषणा नहीं कर पाते हैं कि हमारी सन्तान अपने शत्रुओं को वश में करने में समर्थ है। वेद की माँ कहती है- मैंने माता के रूप में अपने पुत्रों को शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ बनाया है, इसलिये तो शास्त्र कहता है कि एक मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिये माता-पिता, आचार्य का योगदान होता है, अतः कहा गया है –
मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ।
स्वामी दयानन्द प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता यस्य।
अर्थात् धार्मिक और विदुषी माता ही, ऐसे माता-पिता और आचार्य ही मनुष्य को योग्य बना सकते हैं।

(ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है। जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?

(ख) अंजली में जल लेकर जल प्रसेचन हेतु पहले मन्त्र से यज्ञ वेदी की पूर्व दिशा में, दूसरे मन्त्र से पश्चिम दिशा में तथा तीसरे मन्त्र से उत्तर दिशा में जल सींचते हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशा जल सिंचन से शेष रह जाती है। दक्षिण दिशा में जल तभी सींचा जाता है, जब अगले मन्त्र ‘ओ3म् देव सवितः…. नः स्वदतु।’ को बोलकर वेदी के चारों ओर जल प्रसेचन किया जाता है।

जिज्ञासा यह है कि प्रथम बार में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?

उपरोक्त के अतिरिक्त यह भी जिज्ञासा है कि दैनिक कर्म विधि समबन्धित पुस्तकों के कतिपय लेखकों ने जल प्रसेचन की प्रक्रिया निमनानुसार समपन्न करने हेतु निर्देशित किया हैः-

पूर्व में दक्षिण से उत्तर की ओर,

पश्चिम में दक्षिण से उत्तर की ओर तथा

उत्तर में पश्चिम से पूर्व की ओर

जल प्रसेचन करना चाहिये- ऐसा विधान क्यों किया गया है?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान-(ख) पूर्व में भी बताया कि यज्ञ कर्म क्रिया पूर्व और उत्तर की ओर होती है, अर्थात् पश्चिम से पूर्व और दक्षिण से उत्तर। यह प्रक्रिया ब्राह्मण ग्रन्थ में कही है-

‘‘प्राञ्च्युदञ्चि वा कर्माण्यनुतिष्ठेरन्।।’ ’जल प्रसेचन में भी इसी नियम का पालन किया है। पहले पूर्व की दिशा में दक्षिण से उत्तर जल प्रसेचन, फिर पश्चिम दिशा में दक्षिण से उत्तर, पश्चात् उत्तर दिशा में पश्चिम से पूर्व की ओर सिंचन, अन्त में उत्तर और पूर्व के कोने से प्रारमभ कर दक्षिण दिशा में सेचन करते हुए उसी स्थान पर पूर्ण करना जहाँ से चारों ओर जल सेचन प्रारमभ किया था। ऐसा करने पर ही शास्त्र के अनुसार सेचन होगा, अन्यथा क्रिया शास्त्रानुसार न होगी। आपने जो पूछा ऐसा विधान क्यों कर रखा है, तो इसका तो यह उत्तर हो गया।

अब आपकी इस बात पर विचार करें कि दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी? एक दृष्टि से देखें तो दक्षिण दिशा को भी छोड़ा नहीं है, सेचन तो वहाँ भी हुआ है। फिर भी जिस दृष्टि से छोड़ना दिख रहा है, उसको देखते हैं। यहाँ तीन दिशाओं के लिए एक-एक मन्त्र है, किन्तु चौथी दिशा के लिए पृथक् मन्त्र न हो कर चारों दिशाओं के लिए सामान्य मन्त्र दिया है। यहाँ देखने की बात यह है कि अपने यहाँ तीन बार को बहुलता का प्रतीक माना है, तीन बार पूर्ण आहुतियाँ, तीन बार आचमन, तीन समिधाएँ आदि-आदि। यहाँ भी तीन मन्त्रों को बहुलता का प्रतीक मानेंगे तो यह विचार नहीं बनेगा कि चौथी दिशा क्यों छोड़ दी और चौथी दिशा में जल सेचन तो हुआ ही है।

पाठकों को दृष्टि में रखते हुए यह भी यहाँ लिखते हैं कि जल सेचन का उद्देश्य क्या है? ‘‘यजुर्वेद 23.62 के अनुसार यज्ञ इस भुवन की नाभि, बीच है, केन्द्र है। इसके चारों ओर जल छिड़कने का अर्थ हमारी यह घोषणा है कि जैसे जल पवित्र है, शान्तिप्रद है, सुखदायक है, भेषज है, इषुरूप और जग के लिए जीवनदाता है, वैसे ही यह अग्निहोत्र भी जगत् के लिए पवित्र कारक, शान्तिदायक, सुखदायक, औषधरूप, रोगनिवारक, वर्षा के द्वारा प्रजा की दुर्भिक्ष से रक्षा करने वाला और औषधि, वनस्पति एवं समूचे प्राणिजगत् का जीवनदाता है। इस प्रकार जल के साम्य से यज्ञ की सर्वोत्कृष्टता को घोषित करना ही जल सिंचन का उद्देश्य है। जैसे जल अपनी विविध शक्तियों से जगत् का रक्षक है, वैसे ही यज्ञ भी अपनी विविध शक्तियों से जगत् का  रक्षक है….।’’  स्वामी मुनिश्वरानन्द जी और भी-

  1. ‘‘……जीव जन्तु यज्ञाग्नि के पास न पहुँचने पावें।
  2. 2. दूसरा कारण यह है कि यज्ञ की आहुतियाँ लगाने पर कुछ ऐसी गैसें भी पैदा होती हैं, जिनका समीपस्थ जल में शान्त होना आवश्यक है।
  3. 3. तीसरा कारण यह है कि हमने अग्न्याधान के मन्त्र से यज्ञ को भूः भूवः स्वः का रूप दिया, अर्थात् तीनों लोकों का स्वरूप माना है। ब्रह्माण्ड में प्रकाश लोक अर्थात् द्युलोक और पृथिवी लोक के बीच में जल का मार्ग है, अतः यज्ञ कुण्ड में जलती हुई अग्नि को प्रकाश लोक मानो और जहाँ पृथिवी पर यजमान बैठा है, उसे पृथिवी लोक मानो, तब उन दोनों के मध्य जल का मार्ग दिखाना आवश्यक है।
  4. 4. पृथिवी के बीच भी भौम अग्नि रहती है और पृथिवी के चारों ओर पानी भरा है, अतः पृथिवी रूप यज्ञ कुण्ड के गर्भ में भौम अग्नि के रूप में यज्ञाग्नि है और पृथिवी रूप यज्ञकुण्ड के चारों ओर जल दिखाना है।’’ – आचार्य विश्वश्रवा

इन सब में जो युक्ति युक्त और ठीक संगति लगती हो, उसको ग्रहण कर लें और जो उचित न लग रही हो, उसको विचार कर ठीक कर लें या छोड़ दें। अस्तु ।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर

 

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है। जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आचार्य सोमदेव

जिज्ञासाआदरणीय आचार्य जी, नमस्ते। निवेदन है कि आपके स्तर से परोपकारी पत्रिका के माध्यम से जिज्ञासा समाधान के अन्तर्गत समाज के विभिन्न जागरूक सदस्यों की जटिल जिज्ञासाओं का सटीक एवं सन्तुष्टि कारक समाधान किया जाता है, जिसके लिये हम आपके आभारी है। कृपया, पत्रिका के माध्यम से हमारी निमनांकित जिज्ञासाओं का युक्ति युक्त समाधान देने की कृपा करें-

(क) हवन (अग्निहोत्र/ होम) में दो आघाराहुतियाँ दी जाती हैं, पहली ‘ओ3म् अग्नये स्वाहा। इदमग्नये इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग में तथा दूसरी ‘ओ3म् सोमाय स्वाहा। इदं सोमाय इदन्न मम।’ यज्ञ कुण्ड के दक्षिण भाग में दी जाती है।

जिज्ञासा यह है कि ये आहुतियाँ पूर्व या पश्चिम दिशा में अथवा यज्ञ कुण्ड के मध्य भाग में क्यों नहीं देनी चाहिये?

– आर.पी. शर्मा, मन्त्री, आर्यसमाजनईमण्डी, दयानन्दमार्ग, मुजफरनगर, उ.प्र.

समाधान– (क) यज्ञ कर्म कर्मकाण्ड का विषय है। यज्ञ कर्म में अनेक क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनका सीधा-सीधा प्रयोजन हमें ज्ञात नहीं हो पाता। इस विषय में महर्षि दयानन्द का भी कोई उल्लेख नहीं मिलता। हाँ, सूत्रात्मक रूप से संक्षेप में ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलता है, उसको हम कितना समझ पाते हैं, यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है।

आपके प्रश्न भी इसी विषय को लेकर हैं। हमने यहाँ जो विद्वानों ने संगति लगाने का प्रयास किया है, उसको लिखते हैं। पहला जो प्रश्न आपका है, उसके विषय में महर्षि दयानन्द ने दिशानिर्देश नहीं किया है, वहाँ तो यज्ञ कुण्ड के उत्तर भाग, दक्षिण भाग का निर्देश है। यजमान के बैठने के दो स्थान कहे हैं, यजमान या तो पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठे अथवा दक्षिण में बैठ  उत्तराभिमुख रहे। पहली स्थिति में तो यदि सूर्य आधार वाली दिशा लेंगे तो उत्तर-दक्षिण ठीक बनता है, किन्तु यदि दूसरी स्थिति दक्षिण में बैठ उत्तराभिमुख है, तो उत्तर-दक्षिण न होकर पश्चिम-पूर्व बनेगा। इन दिशाओं का निरूपण तो हमने कर लिया है, पर महर्षि ने तो यज्ञ कुण्ड का उत्तर-दक्षिण भाग कहा है।

महर्षि दयानन्द ने जो यजमान के बैठने का विधान किया है, शास्त्र के आधार पर किया है। यज्ञ कर्म में जो अभिधारण क्रिया की जाती है, वह पश्चिम से पूर्व मुख वा उत्तराभिमुख होने पर ही हो पाती है। आपने जो पूछा कि इन दो आहुतियों को मध्य भाग में क्यों नहीं दे देते, तो इसका सामान्य-सा उत्तर तो यह है कि इसका निर्देश मध्य में न करके उत्तर-दक्षिण भाग में किया है, इसलिए मध्य भाग में नहीं देते।

अब जो कुछ अन्य विद्वानों ने इस विषय में कहा, वह लिखते हैं- ‘‘प्रकाश देने वाली प्रधानतया चार वस्तुएँ संसार में हैं- अग्नि, सोम, प्रजापति और इन्द्र। अग्नि तत्त्व उत्तर में और सोम दक्षिण में है, अतः उत्तरायण में सूर्य अधिक प्रचण्ड और दक्षिणायन में अल्प तापवाला होता है। प्रजापति अर्थात् सुर्य और इन्द्र, अर्थात् विद्युत् के लिए कोई दिशा निर्दिष्ट नहीं की जा सकती, अतः यज्ञ कुण्ड के मध्य में आहुति दी जाती है।’

प्रजापति= पालन-पोषण करने वाला गृहस्थ बाहर से सामान लाकर घर के मध्य में डालता है। इन्द्र= राजा राष्ट्र का केन्द्र है, अतः ये दोनों आहुतियाँ मध्य में डाली जाती है। ’’ आचार्य विश्वश्रवा (यज्ञपद्धति मीमांसा)

‘‘यज्ञरूप यह जगत् ‘अग्निषोमात्मकं जगत्’ शतपथ ब्राह्मण के इस वचन के अनुसार अग्निषोमात्मक है, अर्थात् शुष्क और आर्द्र, इन दो भागों में बँटा हुआ है। हमारा यह यज्ञ इस विश्व ब्रह्माण्ड रूपयज्ञ की अनुकृति मात्र है। यह भी अग्नि तथा सोमात्मक है। इसमें भी आधा सूखा और आधा गीला है। समिधाएँ सामग्री सूखी हैं तो घृत तथा पायस आदि गीले हैं। सूखा सब आग्नेय है और गीला सब सोमात्मक है। इस प्रकार ये दोनों आहुतियाँ विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे ईश्वरीय यज्ञ और हमारे यज्ञ में अभिरूपता-एक रूपता समपादन के लिए दी जाती है।

…….नेत्र समबन्धी बात को यों कहा है कि ‘अग्निषोमायां यज्ञश्चक्षुमान्’ अर्थात् अग्नि और सोम से यज्ञ चक्षुमान् है । इसी प्रकार अग्निषोमयोरहं देवयज्यया चक्षुमान्  भूयासम्।। – तै.स. 1.6.2.3

अर्थात्- अग्नि और सोम इन दोनों के यजन से मैं चक्षुमान् हो जाऊँ। इस भाग में इन आहुतियों द्वारा यजमान् अग्नि और सोम के समान चक्षुष्मान् होने की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ देता है।

इस प्रकार (1) विश्व ब्रह्माण्ड में चल रहे यज्ञ के साथ अपने इस यज्ञ की अभिरूपता के लिए (2) मनुष्यों की आँखों की भाँति यज्ञ के दोनों नेत्रों के रूप में तथा (3) अग्नि और सोम के तुल्य तेज और सौमयतायुक्त नेत्रों की प्राप्ति की कामना से ये दो आज्यभागाहुतियाँ दी जाती हैं।

रही बात उत्तर और दक्षिण दिशा की। इसके लिए पहली बात आप यह ध्यान में रखें कि देव यज्ञ में प्रत्येक क्रिया प्रदक्षिणक्रम से की जाती है तथा यज्ञानुष्ठान के लिए यजमान् पुर्वाभिमुख बैठता है। इस अवस्था में प्रदक्षिणक्रम से यज्ञानुष्ठान करते समय यज्ञ की चक्षुस्थानीय पहली आहुति उत्तर में ही देनी होगी और दूसरी दक्षिण में। इन आहुतियों का उत्तर और दक्षिण दिशा से समबन्ध नहीं है, अपितु ये अग्नि और सोम की दो आहुतियाँ यज्ञ (कुण्ड) के वाम (उत्तर) और दक्षिण नेत्र के रूप में दी जाती हैं, क्योंकि नासिका सामने होती है और दोनों आँख-नाक उत्तर और दक्षिण दिशा में होते हैं। यज्ञ की नेत्रस्थानीय होने से ये दोनों आहुतियाँ कुण्ड के मध्य भाग से उत्तर और दक्षिण दिशा में दी जाती हैं। इन आहुतियों के उत्तर और दक्षिण दिशा में देने का यही एक मात्र कारण है।’’ – स्वामी मुनिश्वरानन्दजी (शंका-समाधान)

इस प्रसंग में जैसा स्वामी दयानन्द का कथन है कि यज्ञकुण्ड के उत्तर-दक्षिण भाग में आहुति दें, वैसा ही स्वामी मुनिश्वरानन्दजी ने माना और हमारा भी यही मानना है।

वेद प्रचारार्थ मेरी केरल यात्रा

 वेद प्रचारार्थ मेरी केरल यात्रा

– आचार्य सत्येन्द्रार्य

मनुष्य एक ऐसा चिन्तनशील प्राणी है, जिसे अपने हिताहित के समबन्ध में विचार करने की वैचारिक स्वतन्त्रता स्वस्फूर्त है। इस वैचारिक स्वतन्त्रता के प्रवाह को कोई भी शासक या कानून भले ही कुछ समय के लिए बाह्यरूप से दबा दे या अवरुद्ध कर दे, यह हो सकता है और ऐसा हुआ है कि बाहरी दृष्टि से स्वतन्त्र विचार करने वालों पर रोक लगाई गई, पुनरपि आन्तरिक चिन्तन-मनन की इस नैसर्गिक स्वतन्त्रता को बाहरी बाधाएँ छीन नहीं सकती। इसी प्रकार यात्रा भी मनुष्य के स्वतन्त्र चिन्तन का ही एक अनिवार्य उपक्रम है। मानव जीवन अपने-आप में एक यात्रा ही है, जिसमें कर्त्तव्य पालन करते हुए हमें कई पड़ावों को पार करना पड़ता है। अपनी ऐसी एक यात्रा का प्रारमभ मैंने अजमेर ऋषि उद्यान से किया और लक्ष्य था केरल के हरे-भरे प्रदेश। आचार्य वामदेवजी, जो ऋषि उद्यान के योग्य स्नातकों में से एक हैं, उनमें वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में अहर्निश लग्न देखकर लगा कि मुझे भी विश्व कल्याण के इस महायज्ञ में कुछ आहुतियाँ समर्पित करनी चाहिए। आमन्त्रण था वामदेवजी का जो मुझे कुछ मास पूर्व ही मिल गया था, वह आमन्त्रण भी विशेषरूप से इस बात को ध्यान में रखकर दिया गया था कि केरल में महर्षि दयानन्द जी की विचार धारा का बीज वपन हो और ऋषि मिशन का काम गति पकड़े।

18 दिसबर 2015 को प्रातःकाल अजमेर से आरमभ होने से लेकर यह यात्रा शोरनूर जो केरल के अन्तर्गत है, तक लगभग दो दिन में पूरी हुई। यात्रा लमबी किन्तु उबाऊ न थी, क्योंकि अपने अगल-बगल की सीटों पर बैठे लोगों से स्नेहपूर्वक वार्ता करने से आनन्द का अनुभव हो रहा था। यात्रा करते-करते 20 तारीख की रात्रि को लगभग डेढ़ बजे शोरनूर पहुँचे और वहाँ से वामदेवजी के साथ कारलमन्ना, जहाँ कार्यक्रम रखा गया था, वहीं मेरे ठहरने आदि की व्यवस्था भी की गई थी- लगभग एक घण्टे में पहुँच गया था। 20 दिनांक की प्रातःकाल उपनयन संस्कार का कार्यक्रम रखा गया था, जो पूर्व निर्धारित था। उपनयन संस्कार कराने वालों के मन में संस्कार के प्रति अत्यन्त श्रद्धा व निष्ठा को दृढ़ता से बिठा दिया गया, इसके कारण ही वे सभी लोग जो संस्कार कराने के इच्छुक थे, उन्होंने एक दिन केवल दूध पर ही निकाल दिया था। इसी से उनकी संस्कार के प्रति श्रद्धा व दृढ़ निष्ठा का पता लगता है। यज्ञोपवीत संस्कार के समय जो लोग दर्शक के रूप में वहाँ उपस्थित थे, वे भी बड़ी प्रसन्नता से इस संस्कार का आनन्द ले रहे थे। विधि पूर्वक यह कार्यक्रम सपन्न हुआ।

23 दिसमबर 2015 से शिविर का प्रारमभ और गुरुदत्त भवन तथा उपदेशक विद्यालय का उद्घाटन- उपरोक्त कार्यक्रम के लिए 23 दिसमबर का दिन चुना गया। आर्य जगत् में यह बात सब आर्यजनों को विदित है कि 23 दिसमबर 1926 को श्रद्धेय श्री स्वामी श्रद्धानन्दजी की एक धर्मान्ध मुस्लिम द्वारा, जिसका नाम अबदुल रशीद था, गोलियाँ चला कर उस अवस्था में जब वे रुग्ण शय्या पर पड़े थे, हत्या कर दी गई थी। देश धर्म पर अपना सब कुछ वार देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द के इस अभूत पूर्व बलिदान को आर्यजन विस्मृत न कर दें, इसलिए उपरोक्त कार्यक्रम के आरमभ व उद्घाटन का 23 दिसमबर दिन निश्चित किया गया था। लगभग 10 बजे ध्वजारोहण ‘वन्दे मातरम् और जयति ओम्ध्वज…’ के गीतों से बड़े उल्लास पूर्ण वातावरण में किया गया। ध्वजारोहण के समय वहाँ अनेक गणमान्य लोगों की उपस्थिति से कार्यक्रम भव्य रूप में मनाया गया। उपदेशक विद्यालय के साथ-साथ त्रिदिवसीय शिविर की भी उद्घोषणा कर दी गई थी, कुछ ही देर बार शिविर की कक्षाएँ भी प्रारमभ कर दी गईं।

शिविर समापन समारोह के अवसर पर श्री एम.के. राजनजी जो बहुत ही उत्साही और लग्नशील व्यक्तियों में से एक हैं, ने विद्यालय का उद्देश्य और उद्देश्य की पूर्ति के लिए कई प्रकार की योजनाएँ रखीं, उन योजनाओं में गौशाला और यज्ञशाला निर्माण भी है। इनके निर्माण की ओर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया। इसका सभी ने समर्थन किया। अनेक लोग इस संस्था से जुड़ गए हैं, जुड़ रहे हैं, समभावना है कि शीघ्र ही यह विद्यालय आर्य समाज के प्रचार-प्रसार का एक अच्छा-खासा केन्द्र बनेगा। केरल की देवभूमि में आर्य समाज का बीज तो बो दिया है, अब इस बीज की सुरक्षा हम सभी आर्यों को करनी चाहिए। इसे किसी मनुष्य का कार्य न मान कर वेद भगवान का कार्य है, ऐसा ध्यान में रखकर उसे वृक्ष का रूप प्रदान करना हम सब आर्यों का नैतिक कर्त्तव्य है।

इस प्रकार केरल की यह धर्म प्रचार यात्रा अजमेर से आरमभ होकर अजमेर आकर समाप्त हुई।

– ऋषिउद्यान, पुष्करमार्ग, अजमेर।

परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान

परोपकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान कार्य में एक और कीर्तिमान

-सत्येन्द्र सिंह आर्य

परोपकारी पाक्षिक के वर्ष 2015 के जून द्वितीय अंक में मैंने एक लेख में परोकारिणी सभा द्वारा किये जा रहे अनुसन्धान विषयक कार्य की चर्चा की थी। अनुसन्धान का कार्य सभा द्वारा निरन्तर किया जा रहा है, उसमें समय लगता है, परन्तु देर-सबेर सफलताएँ मिलती रहती हैं।

सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी जी ने ईसाई मत की भी समीक्षा तेरहवें समुल्लास में की है। इस्लाम मतावलमबियों की भाँति ईसाई विद्वान् भी कभी-कभी कहते रहते हैं कि स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में बाइबिल के जिन-जिन स्थलों की समीक्षा की है, वह बातें बाइबिल में ज्यों की त्यों नहीं है। सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव से बाइबिल में भी धीरे-धीरे विभिन्न संस्करणों में बहुत परिवर्तन हुए हैं और वर्तमान संस्करणों में शबद वैसे नहीं हैं, जैसे स्वामी जी ने आयत, पर्व और क्रमांक लिखकर पता दर्शाते हुए लिखे हैं। मेरे मित्र प्रा. कुशलदेव जी बाईबिल के उस पुराने संस्करण की खोज में जीवन भर लगे रहे, परन्तु 19 वीं शताबदी का संस्करण उन्हें नहीं मिल सका। प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने कुरान का पुराना भाष्य खोज कर परोपकारिणी सभा को सौंपकर आर्य जगत् को निश्चिन्त कर दिया, परन्तु बाइबिल का पुराना संस्करण उन्हें भी नहीं मिला। उस पुराने संस्करण की एक प्रति पूज्य श्री अमरस्वामी जी (पूर्व नाम ठा. अमर सिंह आर्य पथिक) के पास थी। उनके निधन के पश्चात् प्रो. रतन सिंह जी ने जिज्ञासु जी को अपने यहाँ बुलाया था और बाइबिल की वह प्रति वे जिज्ञासु जी को सौंपना चाहते थे, परन्तु जब जिज्ञासु जी उन्हें मिलने गए तो जिस व्यक्ति के पास उस पुस्तकालय की चाबी थी, वह उस दिन वहाँ नहीं था। जिज्ञासु जी अबोहर वापस आ गए। बात आई-गई हो गयी। प्रो. रतन सिंह जी दिवंगत हो गए। वह कार्य अपूर्ण ही रहा।

बाईबिल की उस पुराने संस्करण की प्रति प्राप्त करने का प्रयत्न मैंने भी किया, परन्तु मुझे भी बाईबिल का लन्दन से वर्ष 1948 में Bible Society of Great Britain द्वारा प्रकाशित संस्करण मिल सका था। वर्तमान समय में वह प्रति प्रियवर श्री राजवीर आर्य जी के पुस्तकालय में है।

पुराने प्रामाणिक ग्रन्थों के महत्त्व को जो लोग समझते हैं, प्रिय राजवीर जी उन्हीं ऋषि भक्तों में से एक हैं। बाइबिल के पुराने संस्करण की वे भी खोज में थे और निरन्तर प्रयासरत रहे। आर्य जगत के लिए यह प्रसन्नता की बात है कि 19 वीं शताबदी के अन्तिम चतुर्थांश (क्वार्टर) में इलाहाबाद से मुद्रित बाइबिल के उस संस्करण की प्रति श्रीराजवीर जी को प्राप्त हो गयी है, जिसकी भाषा शबदशः उन सन्दर्भों से पूर्णतः मिलती है, जो महर्षि जी ने सत्यार्थ प्रकाश में उद्धृत किए हैं। यह अमूल्य प्रति भी अब परोपकारिणी सभा की समपत्ति होगी। विरोधियों द्वारा किये जा रहे वार-प्रहार का उत्तर देने के लिए ऐसे ग्रन्थों की आवश्यकता पड़ती है। इस दृष्टि से यह एक कीर्तिमान है।

कुछ वर्षों पूर्व आर्य समाज की शिरोमणि सभा के एक स्वयंभू प्रधान सिख नेताओं की सभा में जाकर यह आश्वासन दे आये थे कि सत्यार्थ प्रकाश में उस स्थल पर भाषा में परिवर्तन कर दिया जाएगा, जिस पर उनका कहना है कि गुरु ग्रन्थ साहब में वैसा नहीं लिखा है- यथा- ‘‘वेद पढ़े ब्रह्मा मुए सारे वेद कहानी’’, परन्तु वास्तव में इस प्रकार का भाव वहाँ है। इस प्रकरण का उत्तर पूज्य स्वामी स्वतंत्रानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थ वैदिक धर्म और सिख गुरु में पहले ही दिया हुआ है। गुरु ग्रन्थ साहब में ऐसे कई प्रकरण हिन्दू धर्म के समबन्ध में हैं, जो हिन्दुओं के ग्रन्थों में है ही नहीं, परन्तु सिख नेता और विद्वान् उन स्थानों पर गुरु ग्रन्थ साहब में भाषा-परिवर्तन के लिए सहमत नहीं होंगे। अनुसन्धान का यह कार्य उस समय परोपकारिणी सभा ने ही किया था। वेद, आर्य समाज एवं ऋषि दयानन्द पर वार-प्रहार का उत्तर देने में परोपकारिणी सभा सदैव अग्रणी रही है।

प्रियवर राहुल जी जो पुरानी सामग्री महर्षि के समबन्ध में खोज-खोज कर सभा को दे रहे हैं, उस पर प्रा. जिज्ञासु जी कार्य कर रहे हैं। उस शोध-कार्य का सुफल भी आर्य जनों को देखने को मिलेगा।   – जागृति विहार, मेरठ