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सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१९*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! सच्ची रामायण की समीक्षा में १९वीं कड़ी में आपका स्वागत है।पिछली कड़ियों में हमने महाराज दशरथ पर लगे आरोपों का खंडन किया था ।अब अगले अध्याय में पेरियार साहब आराम शीर्षक से भगवान श्रीराम पर 50 से अधिक अधिक बिंदुओं द्वारा आक्षेप किए हैं। अधिकांश बिंदुओं का शब्द प्रमाण ललई सिंह ने “सच्ची रामायण की चाभी” में दिया है परंतु प्रारंभिक छः बिंदुओं का कोई स्पष्टीकरण उन्होंने नहीं दिया अब भगवान श्री राम पर लगे आक्षेपों का खंडन प्रारंभ करते हैं पाठक हमारे उत्तरों को पढ़ कर आनंद लें:-
            *भगवान श्रीराम पर किये आक्षेपों का खंडन*
पेरियार साहब कहते हैं,”अब हमें राम और उसके चरित्र के विषय में विचार करना चाहिए।”
हम भी देखते हैं कि आप क्या खुराफात करते हैं भगवान श्रीराम के चरित्र संबंधी बिंदुओं का उल्लेख हम पीछे कर चुके हैं अब आपकी आक्षेपों को भी देख लेते हैं और उनकी परीक्षा भी कर लेते हैं।
*आक्षेप-१-* राम इस बात को भली भांति जानता था कि, कैकई के विवाह के पूर्व ही अयोध्या का राज्य के कई को सौंप दिया गया था यह बात स्वयं राम ने भरत को बताई थी।(अयोध्याकांड १०७)
*समीक्षा-* हम दशरथ के प्रकरण के प्रथम बिंदु के उत्तर में ही सिद्ध कर चुके हैं कि आप का यह दिया हुआ श्लोक प्रक्षिप्त है अतः इसका प्रमाण नहीं माना जा सकता। श्रीराम जेष्ठ पुत्र होने के कारण ही राजगद्दी के अधिकारी थे।
इस रिश्ते में हम पहले ही स्पष्टीकरण दे चुके हैं।
*आक्षेप-२-* राम को अपने पिता ,कैकई व प्रजा के प्रति सर्वप्रिय व्यवहार अच्छा स्वभाव एवं शील केवल राजगद्दी की अन्याय से छीन लेने के लिए दिखावटी था ।इस प्रकार राम सब की आस्तीन का सांप बना हुआ था।
*समीक्षा-* जरा अपनी बात का प्रमाण तो दिया होता वाह महाराज! यदि श्रीराम का शील स्वभाव सद्व्यवहार बनावटी था तो ,महर्षि वाल्मीकि ने उनका जीवन चरित्र रामायण के रूप में क्यों लिखा? हम पहले भरपूर प्रमाण दे चुके हैं कि श्री राम के मर्यादा युक्त चरित्र को आदर्श मानकर उसका अनुसरण करने के लिए ही रामायण की रचना की गई है। आता आपका उन्मत्त प्रलाप बिना प्रमाण की खारिज करने योग्य है। श्रीराम को अन्याय से राजगद्दी छीनने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी; ज्येष्ठ पुत्र होनअस्तु।
ारण, प्रजा राजा ,मंत्रिमंडल एवं जनपद राजाओं की सम्मति से ही वे राजगद्दी के सच्चे अधिकारी थे। कहिए महाशय यदि उनका शील स्वभाव केवल राजगद्दी के लिए ही था तो वह 14 वर्ष के वनवास में क्यों गए? यदि उनका स्वभाव झूठा था तो अयोध्या के वासी उनके पीछे-पीछे उन्हें वन जाने से रोकने के लिए क्यों गए? यदि उन्हें राज्य प्राप्त करने की ही लिप्सा थी, महाराज दशरथ के कहने पर कि “तुम मुझे बंदी बनाकर राजगद्दी पर अपना अधिकार जमा लो” रामजी ने ऐसा क्यों नहीं किया? आस्तीन  का सांप! मिथ्या आरोप लगाते हुए शर्म तो नहीं आती !ज़रा प्रमाण तो दिया होता जिससे रामजी आस्तीन के सांप सिद्ध होते! आस्तीन का सांप भला प्रजा,मंत्रिमंडल तथा माताओं,जनपद सामंतों का प्यारा कैसे हो सकता है? आपका आंख से बिना प्रमाण के व्यर्थ है।
*आक्षेप-३-* भरत की अनुपस्थिति में अपने पिता द्वारा राजगद्दी के मिलने के प्रपंचों से राम स्वयं संतुष्ट था।
*समीक्षा-* यह बात सर्वथा झूठ है। श्रीराम को राजगद्दी देने में कोई प्रपंच नहीं किया गया उल्टा मूर्खतापूर्ण वरदान मांग कर कैकेयी ने प्रपंच रचा था। ज्येष्ठ पुत्र होने से श्रीराम सर्वथा राज्य के अधिकारी थे और भारत को राजगद्दी मिले ऐसा कोई वचन दिया नहीं गया था- यह हम सिद्ध कर चुके हैं। श्रीराम संतुष्ट इसीलिए थे क्योंकि महाराज की आज्ञा से उनका राज तिलक किया जाना था। राजतिलक की घोषणा और वनवास जाते समय दोनों ही स्थितियों में श्रीराम के मुख मंडल पर कोई फर्क नहीं पड़ा। श्रीराम वीत राग मनुष्य थे। उनको राज्य मिले या ना मिले दोनों ही स्थितियों में वे समान थे। भरत की अनुपस्थिति के विषय में हम पहले स्पष्टीकरण दे चुके हैं। श्री राम बड़े भाई थे और उन के बाद भरत को राजगद्दी मिलनी थी मनुष्य परिस्थितिवश कुछ भी कर सकता है और फिर भरत की माता कैकेई के स्वभाव को जानकर दशरथ यह जानते थे कि वह श्रीराम के राज्याभिषेक मैं अवश्य कोई विघ्न खड़ा करेगी और भारत के लिए राजगद्दी की मांग करेगी, भले ही यह भारत की इच्छा के विरुद्ध ही क्यों न हो। अस्तु।
*आक्षेप-४-* कहीं ऐसा ना हो कि राजगद्दी मिलने के मेरे सौभाग्य के कारण लक्ष्मण मुझसे ईर्ष्या तथा द्वेष करने लगे इस बात से हटकर राम ने लक्ष्मण को खासकर उससे मीठी-मीठी बातें कह कर उससे कहा कि-” मैं केवल तुम्हारे लिए राजगद्दी ले रहा हूं किंतु अयोध्या का राज्य वास्तव में तुम ही करोगे ।”अतः मैं राजा बन जाने के बाद राम ने लक्ष्मण से राजगद्दी के विषय में कोई संबंध नहीं रखा। (अयोध्याकांड ४ अध्याय)
*समीक्षा-* यह बात सत्य है कि श्रीराम ने उपरोक्त बात कही थी परंतु इसका यह अर्थ नहीं की उसके बाद उनका भ्रातृ प्रेम कम हो गया था। आप ने रामायण पढ़ी ही नहीं है और ऐसे ही मन माने आक्षेप जड़ दिए। श्री राम केवल अपने लिए नहीं बल्कि अपने बंधु-बांधवों के लिए ही राजगद्दी चाहते थे। लीजिये प्रमाणों का अवलोकन कीजिए:-
लक्ष्मणेमां मया सार्द्धं प्रशाधि त्वं वसुंधराम् ।
द्वितीयं मेंऽतरात्मानं त्वामियं श्रीरुपस्थिता ॥ ४३ ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे साथ इस पृथ्वीके राज्यका शासन (पालन) करो।तुम मेरे द्वितीय अंतरात्मा हो। ये राजलक्ष्मी तुमको ही प्राप्त हो रही है ॥४३॥
सौमित्रे भुङ्‍क्ष्व भोगांस्त्वमिष्टान् राज्यफलानि च ।
जीवितं चापि राज्यं च त्वदर्थमभिकामये ॥ ४४ ॥
‘सुमित्रानंदन ! (सौमित्र !) तुम अभीष्ट भोग और राज्यका श्रेष्ठ फल का उपभोग करो। तुम्हारे लिये ही मैं जीवन कीतथा राज्यकी अभिलाषा करता हूं” ॥४४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४)
 श्रीराम का लक्ष्मण जी के प्रति प्रेम देखिये:-
स्निग्धो धर्मरतो धीरः सततं सत्पथे स्थितः ।
प्रियः प्राणसमो वश्यो विजयेश्च सखा च मे ॥ १० ॥
‘लक्ष्मण ! तुम मेरे स्नेही, धर्म परायण, धीर-वीर तथा सदा सन्मार्गमें स्थित रहनेवाले हो। मुझे प्राणों के समान प्रिय तथा मेरे वश में रहने वाले, आज्ञापालक और मेरे सखा हो॥१०॥(अयोध्याकांड सर्ग ३१)
आपने कहा इसके बाद श्रीराम ने इस विषय का उल्लेख ही नहीं किया,जो सर्वथा अशुद्ध है,देखिये:-
धर्ममर्थं च कामं च पृथिवीं चापि लक्ष्मण ।
इच्छामि भवतामर्थे एतत् प्रतिश्रृणोमि ते ॥ ५ ॥
’लक्ष्मण ! मैं तुमको प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूं कि धर्म, अर्थ काम और पृथ्वीका राज्यभी मैं तुम्ही लोगों के लिये ही चाहता हूं ॥ ५ ॥
भ्रातॄणां सङ्ग्रहार्थं च सुखार्थं चापि लक्ष्मण ।
राज्यमप्यहमिच्छामि सत्येनायुधमालभे ॥ ६ ॥
’लक्ष्मण ! मैं भाइयों के संग्रह और सुख के लिये ही राज्यकी इच्छा करता हूं और यह बात सत्य है इसके लिये मैं अपने धनुष को स्पर्श करके शपथ लेता हूं॥ ६ ॥(अयोध्याकांड सर्ग ९७)
श्रीरामचंद्र ने रावणवध के बाद अयोध्या लौटकर अपने भाइयों सहित राज्य किया,देखिये:-
सर्वे लक्षणसम्पन्नाः सर्वे धर्मपरायणाः ।
दशवर्षसहस्राणि रामो राज्यमकारयत् ॥ १०६॥
भाइयोंसहित श्रीमान्‌ रामजी ने ग्यारह सहस्र(यहां सहस्र का अर्थ एक दिन से है,यानी =लगभग तीस ) वर्षोंतक राज्य किया ॥१०६॥(युद्धकांड सर्ग ११८)
 अब हुई संतुष्टि?अब तो सिद्ध हो गया कि श्रीराम की प्रतिज्ञा कि ,”मैं अपने भाइयों के लि़े ही राज्य कर रहा हूं,दरअसल लक्ष्मण सहित वे ही राज करेंगे” सर्वथा सत्य है और आपका आक्षेप बिलकुल निराधार ।
*आक्षेप-५-* राज तिलकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हो जाने में राम के हृदय में आद्योपांत संदेह भरा रहा था।
*समीक्षा-* श्रीराम के हृदय में राज तिलक उत्सव सफलतापूर्वक हो जाने में संदेश भरा था-इसका उल्लेख रामायण में कहीं नहीं है। आपको प्रमाण देकर प्रश्न करना था ।बिना प्रमाण लिए आपका आपसे निराधार है ।यदि श्रीराम के मन में संदेह था वह भी इससे उन पर क्या अक्षेप आता है?
*आक्षेप-६-* जब दशरथ ने राम से कहा कि राजतिलक तुम्हें न किया जायेगा,तुम्हें वनवास जाना पड़ेगा -तब राम ने गुप्त रुप से शोक प्रकट किया था।(अयोध्याकांड अध्याय १९)
*समीक्षा-* झूठ ,झूठ ,झूठ !!एक दम सफेद झूठ बोलते हुए आपको लज्जा नहीं आती? अध्याय यानी सर्ग(१३)का पता लिखने के बाद भी आप की कही हुई बात वहां बिल्कुल भी विद्यमान नहीं है।वनवास जाने की बात महाराज दशरथ ने श्रीराम को प्रत्यक्ष नहीं कही थी, अपितु कैकेई के मुंह से उन्हें इस बात का पता चला था और मैं तुरंत वनवास जाने के लिए तैयार हो गए थे।
उस समय श्रीराम ने कोई शोक प्रकट नहीं किया,अपितु वीतराग योगियों की भांति उनके चेहरे पर शमभाव था,देखिये प्रमाण:-
न चास्य महतीं लक्ष्मीं राज्यनाशोऽपकर्षति ।
लोककान्तस्य कान्तत्वाच्छीतरश्मेरिव क्षयः ॥ ३२ ॥
श्रीराम अविनाशी कांतिसेे युक्त थे इसलिये उस समय राज्य न मिलने के कारण उन लोककमनीय श्रीरामकी महान शोभा में कोई भी अंतर पड़ नहीं सका।जिस प्रकार चंद्रमाके क्षीण होने से उसकी सहज शोभाका अपकर्ष नहीं हो ॥३२॥
न वनं गन्तुकामस्य त्यजतश्च वसुंधराम् ।
सर्वलोकातिगस्येव लक्ष्यते चित्तविक्रिया ॥ ३३ ॥
वे वन में जाने के लिये उत्सुक थे और सारी पृथ्वीके राज्य त्याग रहे थे, फिर भी उनके चित्तमें सर्वलोक से जीवन्मुक्त महात्मा के समान कोई भी विकार दिखाई नहीं दिया ॥३३॥(अयोध्याकांड सर्ग १९)
देखा हर राज्य मिले या नहीं, परंतुश्री राम की शोभा में कोई फर्क नहीं था।उनको बिलकुल शोक नहीं हुआ था।सर्ग का पता लिखकर भी ऐसा सफेद झूठ लिखना भी एकदम वीरता है।पेरियार साहब ने जनता की आंख में धूल झोंकने की कोशिश की है।
…………क्रमशः ।
पाठक महाशय!पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।कृपया अधिकाधिक शेयर करें। अगले लेख में आगे के ७ आक्षेपों का उत्तर लिखा जायेगा।आपके समर्थन के लिये हम आपके आभारी हैं।
।।मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र कीजय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
।।ओ३म्।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : अन्य असमर्थताएं

अन्य असमर्थताएं

आजाद हो जाने पर भी गुलाम अनेक असमर्थताओं का शिकार रहता है। वह किसी नए पक्ष के साथ मैत्री नहीं कर सकता। न ही वह भूतपूर्व स्वामी की अनुमति पाए बिना किसी पक्ष को मैत्री का प्रस्ताव पठा सकता है। ”जो कोई किसी गुलाम से उसके पहले के मालिक की स्वीकृति के बिना मैत्री करता है उस पर अल्लाह की और उसके फ़रिश्तों की और पूरी मानवजाति की ओर से लानत है“ (3600)।

author : ram swarup

 

श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी

श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी

आर्यसमाज के आदि काल में आर्यों के सामने एक समस्या थी। अच्छा गानेवाले भजनीक कहाँ से लाएँ। इसी के साथ जुड़ी दूसरी समस्या सैद्धान्तिक भजनों की थी। वैदिक मन्तव्यों के अनुसार

भजनों की रचना तो भक्त अर्मीचन्दजी, चौधरी नवलसिंहजी, मुंशी केवलकृष्णजी, वीरवर चिरञ्जीलाल और महाशय लाभचन्दजी ने पूरी कर दी, परन्तु प्रत्येक समाज को साप्ताहिक सत्संग में भजन गाने के लिए अच्छे गायक की आवश्यकता होती थी। नगरकीर्तन आर्यसमाज के प्रचार का अनिवार्य अङ्ग होता था। उत्सव पर नगर कीर्तन करते हुए आर्यलोग बड़ी श्रद्धा व वीरता से धर्मप्रचार किया करते थे।

पंजाब में यह कमी और भी अधिक अखरती थी। इसका एक कारण था। सिखों के गुरुद्वारों में गुरु ग्रन्थसाहब के भजन गाये जाते हैं। ये भजन तबला बजानेवाले रबाबी गाते थे। रबाबी मुसलमान ही हुआ करते थे। मुसलमान रहते हुए ही वे परज़्परा से यही कार्य करते चले आ रहे थे। यह उनकी आजीविका का साधन था।

आर्यसमाज के लोगों को यह ढङ्ग न जंचा। कुछ समाजों ने मुसलमान रबाबी रखे भी थे फिर भी आर्यों का यह कहना था कि मिरासी लोगों या रबाबियों के निजी जीवन का पता लगने पर

श्रोताओं पर उनका कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। लोग सिखों की भाँति भजन सुनना चाहते थे।

तब आर्यों ने भजन-मण्डलियाँ तैयार करनी आरज़्भ कीं। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी मण्डली होती थी।उज़र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सिन्ध में सब प्रमुख समाजों ने भजन मण्डलियाँ बना लीं।

महात्मा मुंशीराम वकील, पं0 गुरुदज़जी, न्यायाधीश केवलकृष्णजी (मुंशी), महाशय शहजादानन्दजी लाहौर, चौधरी नवलसिंहजी जैसे प्रतिष्ठित आर्यपुरुष नगरकीर्तनों में आगे-आगे गाया करते थे। टोहाना (हरियाणा) के समाज की मण्डली में हिसार जिले के ग्रामीण चौधरी जब जुड़कर दूरस्थ समाजों में जसवन्तसिंह वर्माजी के साथ गर्जना करते थे तो समाँ बँध जाता था।

लाहौर में महाशय शहजादानन्दजी (स्वामी सदानन्द) को भजन मण्डली तैयार करने का कार्य सौंपा गया। वे रेलवे में एक ऊँचे पद पर आसीन थे। उन्हें रेलवे में नौकरी का समय तो विवशता में देना ही पड़ता था, उनका शेष सारा समय आर्यसमाज में ही व्यतीत होता था। नये-नये भजन तैयार करने की धुन लगी रहती। सब छोटे-बड़े कार्य आर्यलोग आप ही करते थे। समाज के उत्सव पर पैसे देकर अन्यों से कार्य करवाने की प्रवृज़ि न थी।

इसका अनूठा परिणाम निकला। आर्यों की श्रद्धा-भक्ति से खिंच-खिंचकर लोग आर्यसमाज में आने लगे। लाला सुन्दरदास भारत की सबसे बड़ी आर्यसमाज (बच्छोवाली) के प्रधान थे। आर्यसमाज

के वार्षिकोत्सव पर जब कोई भजन गाने के लिए वेदी पर बैठता तो लाला सुन्दरसजी तबला बजाते थे। जो कार्य मिरासियों से लिया जाता था, उसी कार्य को जब ऐसे पूज्य पुरुष करने

लग गये तो यह दृश्य देखकर अपने बेगाने भाव-विभोर हो उठते थे।

HADEES : THE PROPHET AS A LANDLORD

THE PROPHET AS A LANDLORD

Several ahAdIs (3758-3763) show that Muhammad�s own business practices could be sharp.  �Abdullah, the son of �Umar, reports that �when Khaibar had been conquered, it came under the sway of Allah, that of his Messenger and that of the Muslims� (3763).  Muhammad made an agreement with the Jews of Khaibar that they could retain the date-palms and the land on the condition that they worked them with their own wealth (seeds, implements) and gave �half of the yield to Allah�s Messenger� (3762).  Out of this half, �Allah�s Apostle got the fifth part,� and the rest was �distributed� (3761).  This lends credence to the common observation that those who control the funds, whether in the name of Allah or the state or the poor, are apt to spend them first on themselves.

These acquisitions enabled Muhammad to give each of his wives 100 wasqs (1 wasq = about 425 English pounds), 80 wasqs of dates, and 20 wasqs of barley per year.  When �Umar became the KhalIfa he distributed the land and gave the wives of Allah�s Apostle the option of taking the land or the yearly wasqs.  Their reactions to this offer differed.  �Aisha and Hafza, two wives of the Prophet, �opted for land and water� (3759).

author : ram swarup

सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८

*सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८*
*अर्थात् पेरियार द्वारा रामायण पर किये आक्षेपों का मुंहतोड़ जवाब*
*-कार्तिक अय्यर*
नमस्ते मित्रों! पेरियार के खंडन में आगे बढ़ते हैं।महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों की कड़ी में यह अंतिम लेख है।
गतांक से आगे-
*प्रश्न-१४-* राम वन जाने के पहले दशरथ अपनी प्रजा और ऋषियों की अनुमति ज्ञात कर चुका था कि राम वन को ना जावे फिर भी उससे दूसरों की चिंता किए बिना राम को वनवास भेज दिया ।यह दूसरों की इच्छा का अपमान करना तथा  घमंड है।
*समीक्षा-* *आपके तो दोनों हाथों में लड्डू है!* यदि श्री राम वन में चले जाएं तो आप कहेंगे कि दशरथ में प्रजा और ऋषियों का अपमान किया ;यदि यदि वह मन में ना जाए तो आप कह देंगे कि दशरथ ने अपने वचन पूरे नहीं किए ।बहुत खूब साहब चित भी आपकी और पट भी आपकी!
महोदय, महाराज दशरथ कैकई को वरदान दे चुके थे और अपने पिता के वचन को सत्य सिद्ध करने के लिए श्री राम का वन में जाना अवश्यंभावी था। सत्य कहें,तो उनके मन जाने में राक्षसों का नाश करना ही प्रमुख उद्देश्य था, क्योंकि कई ऋषि मुनि उनके पास आकर राक्षसों द्वारा किए गए अत्याचारों का वर्णन करते थे। इस तरह ऋषियों का कार्य सिद्ध करने और अपने पिता की आज्ञा सत्य सिद्ध करने के लिए वे वन को गए। वे अपने पिता की आज्ञा का पालन करना ही परम धर्म मानते थे।
*न ह्यतो धर्मचरणं किंचिदस्ति महत्तरम्।*
*यथा पितरि शुश्रूषा तस्य वा वचनक्रिया।।*
(अयोध्याकांड सर्ग १९ श्लोक २२)
*अर्थात्-* “जैसी पिता की सेवा और उनकी आज्ञा का पालन करना है, इससे बढ़कर संसार में दूसरा कोई धर्म नहीं है।”
 और बीच में चाहे उन्हें रोकने के लिए पर जो भी आए चाहे वह प्रजा या  ऋषि मुनि ही क्यों न हो,वे अपनी प्रतिज्ञा से कभी भी नहीं डिग सकते थे।
क्योंकि *रामो द्विर्नभाषते*-अर्थात्-राम दो बातें नहीं बोलते,यानी एक बार कही बात पर ढृढ रहते थे।
 रघुकुल की रीति थी कि भले ही प्राण चले जाएं, परंतु दिया हुआ वचन मिथ्या नहीं होना चाहिए। अपनी कुल परंपरा को बचाने के लिए राज्य त्यागकर वनवास जाना अत्यंत आवश्यक था। यह श्रीराम का पितृ धर्म है ,और धर्म का अनुसरण करने के लिए  किसी के रोके रुकना नहीं चाहिए।
यह गलत है कि महाराज दशरथ ने प्रजाजनों और ऋषि यों का घमंड के कारण अपमान करके श्रीराम को वनवास भेज दिया ।महाराज दशरथ तो श्रीराम से यह कह चुके थे कि,” तुम मुझे गद्दी से उतार कर राजा बन जाओ” परंतु उन्होंने तो दिल पर पत्थर रखकर उन्हें वन को जाने की आज्ञा दी।  इसको अहंकार या घमंड के कारण नहीं अपितु ऋषियों के कल्याण तथा अपने कुल की गरिमा की रक्षा करने के कारण वनवास देने की आज्ञा कहना अधिक उचित होगा। आपका आदेश बिना प्रमाण के निराधार और अयुक्त है।
*आक्षेप-१५-* इसीलिए अपमानित प्रजा और  ऋषियों किस विषय पर ना कोई आपत्ति  और न राम को वनवास जाने से रोका।
*समीक्षा-* या बेईमानी तेरा आसरा !झूठ बोलने की तो हद पार कर दी। पहला झूठी है कि प्रजा को अपमानित किया गया। कोई प्रमाण तो दिया होता कि प्रजा को अपमानित किया गया।दूसरा झूठ है कि किसी ने श्री राम को वनवास जाने से नहीं रोका। श्रीमान!जब श्री राम वनवास जा रहे थे तब केवल प्रजा और ऋषि मुनि ही नहीं अपितु पशु-पक्षी भी उनके साथ वन की ओर चल पड़े। जब श्री रामचंद्र जीवन में जाने लगे तब प्रजा के अधिकांश लोग प्रेम में पागल होकर उनके पीछे-पीछे चल पड़े। भगवान श्रीराम ने बहुत कुछ अनुनय-विनय की; किंतु चेष्टा करने पर भी वह प्रजा को ना लौटा सके ।आखिर उन्हें सोते हुए छोड़कर ही श्री राम को वन में जाना पड़ा। उनके लिए श्रीराम का वियोग असहनीय था ।लीजिए, कुछ प्रमाणों का अवलोकन कीजिये-
अनुरक्ता महात्मानं रामं सत्यपराक्रमम् ।
अनुजग्मुः प्रयान्तं तं वनवासाय मानवाः ॥ १ ॥
यहां  सत्यपराक्रमी महात्मा श्रीराम जब वन की ओर जाने लगे  तब उनके प्रति अनुराग रखने वाले कई अयोध्यावासी (नागरिक) वन में निवास करने के लिये उनके  पीछे-पीछे चलने लगे ॥१॥
निवर्तितेतीव बलात् सुहृद्‌धर्मेण राजनि ।
नैव ते सन्न्यवर्तंत रामस्यानुगता रथम् ॥ २ ॥
‘जिनके संबंधियों की जल्दी लौटने की कामना की जाती है उन स्वजनों को दूरतक पहुंचाने के लिये नहीं जाना चाहिये’ – इत्यादि रूप से बताने के बाद सुहृद धर्म के अनुसार जिस समय दशरथ राजा को बलपूर्वक पीछे किया गया उसी समय श्रीरामाके रथके पीछे-पीछे भागने वाले वे अयोध्यावासी मात्र अपने घरों की ओर न लौटे ॥२॥
अयोध्यानिलयानां हि पुरुषाणां महायशाः ।
बभूव गुणसम्पन्नः पूर्णचंद्र इव प्रियः ॥ ३ ॥
क्योंकि अयोध्यावासी पुरुषों के लिये सद्‌गुण संपन्न महायशस्वी राम पूर्ण चंद्राके समान प्रिय हो गये थे ॥३॥
स याच्यमानः काकुत्स्थस्ताभिः प्रकृतिभिस्तदा ।
कुर्वाणः पितरं सत्यं वनमेवान्वपद्यत ॥ ४ ॥
उन प्रजाजनों ने रामजी घर वापस आवे इसलिये खूब प्रार्थना की परंतु वे पिताके सत्यकी रक्षा करनेके लिये वनकी ओर आगे-आगेे जाते रहे ॥४॥(अयोध्याकांड सर्ग ४५)
किंतु श्रीराम ने सबको लौटै दिया फिर भी कुछ वृद्ध ब्राह्मण उनके पीछे-पीछे तमसा नदी के तट तक चले आयो।(देखिये यही सर्ग,श्लोक १३-३१)
अयोध्याकांड सर्ग ४६ में वर्णन है कि श्रीराम ने रात को सोते हुये अयोध्यावासियों को वहीं छोड़कर सुमंत्र की सहायता से आगे वन की ओर प्रस्थान किया।
देखिये,
यथैते नियमं पौराः कुर्वन्त्यस्मन्निवर्तने ।
अपि प्राणान् न्यसिष्यन्ति न तु त्यक्ष्यन्ति निश्चयम् ॥ २० ॥
यावदेव तु संसुप्तास्तावदेव वयं लघु ।
रथमारुह्य गच्छामः पन्थानमकुतोभयम् ॥ २१ ॥
अतो भूयोऽपि नेदानीमिक्ष्वाकुपुरवासिनः ।
स्वपेयुरनुरक्ता मा वृक्षमूलेषु संश्रिताः ॥ २२ ।।
अतः आप का कहना कि अयोध्या की प्रजा ने श्री राम को वनवास से रोकने की कोई कोशिश नहीं की सर्वता अज्ञान का द्योतक है।
*आक्षेप-१६-* राम अपनी उत्पत्ति तथा दशरथ द्वारा भारत को राजगद्दी देने के के के के प्रति किए गए वचनों को भली भांति जानता था तथापि यह बात बिना अपने पिता को बताएं मौन रहा और राज गद्दी का इच्छुक बना था।
*आक्षेप-१७-* इसका सार है कि महाराज दशरथ का मानना था कि भारत के ननिहाल से लौटने के पहले श्री राम का राज्यभिषेक हो जाना चाहिए। इस प्रकार भारत को अपना उचित अधिकार प्राप्त करने में धोखा दिया गया और चुपके से राम को रास्ते अलग करने का निश्चय किया गया राम ने भी इस षड्यंत्र को चुपचाप स्वीकार कर लिया।
*समीक्षा-* हम पहले आक्षेप के उत्तर में यह सिद्ध कर चुके हैं कि भारत को राजगद्दी देने का वचन पूर्ण रुप से मिलावट  और असत्य है। श्री राम राज गद्दी के इच्छुक नहीं थे ,अपितु ज्येष्ठ पुत्र होने से वे उसके सच्चे अधिकारी थे।
 महाराज दशरथ के उपर्युक्त कथन के बारे में भी हम स्पष्टीकरण दे चुके हैं। सार यह है कि श्री राम को राजगद्दी देने का कोई षड्यंत्र रचा नहीं गया उल्टा कैकेयी ने ही नहीं अपने वरदान से रघुवंश की परंपरा और जनता की इच्छा के विरुद्ध मांगकर षड्यंत्र रचा। इस विषय पर अधिक लिखना व्यर्थ है।
*आक्षेप-१८-* जनक को आमंत्रण न दिया गया था- क्योंकि कदाचित भारत को राजगद्दी दे दी जाती तो राम के राज्याधिकार होने से वह असंतुष्ट हो जाता।
*समीक्षा-* क्योंकि दशरथ ने कैकई के पिता को कोई वचन दिया ही नहीं था, इसलिए जनक भी यह जानते थे कि श्री राम ही सच्चे राज्य अधिकारी हैं। हां यह ठीक है कि कैकई के मूर्खतापूर्ण वरदान के कारण श्री राम के वनवास जाने का तथा भरत के राज्य मिलने का वह अवश्य विरोध करते। जरा बताइए कि जनक को न बुलाने का कारण आपने कहां से आविष्कृत कर लिया?रामायण में तो इसका उल्लेख ही नहीं है। हमारे मत में,संभवतः महाराज जनक का राज्य बहुत दूर होगा वहां तक पहुंचने में समय लगता होगा और अगले ही दिन पुष्य नक्षत्र में राज्य अभिषेक किया जाना था। इसीलिए शायद उन्हें निमंत्रण न दिया गया हो क्योंकि वे परिवार के ही सदस्य थे। आमतौर पर परिवार के सदस्यों को प्रायः निमंत्रण नहीं दिया जाता क्योंकि यह मान लिया जाता है कि उनको पीछे से शुभ समाचार मिल ही जाएगा। जो भी हो, किंतु आप का दिया हुआ है तू बिलकुल अशुद्ध है, क्योंकि हम वचन वाली बात को मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं।अस्तु।
*आक्षेप-१९-* कैकेई के पिता को निमंत्रण दिया गया था क्योंकि भारत के प्रति किए गए वचनों को न मानकर यदि राजगद्दी दे दी जाती  तो वह नाराज हो जाता।
*समीक्षा-* हम पहले ही वचन वाली बात को मिथ्या सिद्ध कर चुके हैं इसलिए कैकेई के पिता कैकयराज अश्वपति को निमंत्रण न देने के विचार में यह हेतु देना सर्वथा गलत है। क्या यह बात आपकी कपोलकल्पित नहीं है? दरअसल कैकय देश अयोध्या से बहुत दूर था। आप जब संदेशवाहक का भरत को महाराज दशरथ की मृत्यु की सूचना देते समय उसके मार्ग का वर्णन पढ़ेंगे, तो आपको स्वतः ज्ञात हो जाएगा। मार्ग में कई पर्वतों और नदियों का भी वर्णन है ।वहां तक तो पहुंचने में बहुत समय लगता था ।कब निमंत्रण दिया और जाता कब कैकयराज आते ,इतने में तो राज्याभिषेक का समय ही बीत जाता।रघुकुल की परंपरा  और तब समय की अनुकूलता थी कि पुष्य नक्षत्र में ही श्रीराम का राज्याभिषेक होना था। साथ ही महाराज दशरथ अत्यंत वृद्ध हो गए थे,उनका जीवन अनिश्चित था।शत्रुपक्ष के राज्यों से युद्ध का भाई भी उपस्थित था।ऐसे में राज्य में अराजकता फैलने का भय था। इसलिए श्री राम का जल्दी राजा बनना अत्यंत आवश्यक एवं राष्ट्र के लिए भी जरुरी था। अतः कैकयराज को निमंत्रण दिए बिना ही अभिषेक संपन्न करने का निश्चय किया गया यह सोच लिया गया कि उनको यह शुभ समाचार पीछे से प्राप्त हो जाएगा।कारण चाहे जो भी हो परंतु आप का दिया कारण कपोल कल्पित और अमान्य है।
*आक्षेप-२०-* उपरोक्त कारणों से अन्य राजाओं को भी राम राज तिलकोत्सव में  नहीं बुलाया गया था। कैकई मंथरा के कार्य तथा अधिकारों के विषय में पर्याप्त तर्क हैं। बिना इस पर विचार किये कैकेयी आदि पर दोषारोपण करना तथा गाली देना न्याय संगत नहीं है।
*समीक्षा-* “राम राज्य अभिषेक में अन्य राजाओं को नहीं बुलाया गया-“यह बात आपने वाल्मीकि रामायण पढ़ कर लिखी है या फिर ऐसे ही लिख मारी? हमें तो आपके तर्क पढ़कर ऐसा लगता है कि आपने तो अपने जीवन में वाल्मीकि रामायण के दर्शन तक।देखिये ,अयोध्याकांड सर्ग-१
नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि ।
समानिनाय मेदिन्यां प्रधानान् पृथिवीपतिः ॥ ४६ ॥
नाना नगरों के प्रधान-प्रधान राजाओं को सम्मान के साथ बुलाया गया॥४६॥
तान् वेश्मनानाभरणैर्यथार्हं प्रतिपूजितान् ।
ददर्शालंकृतो राजा प्रजापतिरिव प्रजाः ॥ ४७ ॥
उन सबके रहने के लिये आवास देकर नाना प्रकारके आभूषणों द्वारा उनका यथायोग्य सत्कार किया गया। तब स्वतः ही अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे, प्रजापति ब्रह्मदेव जिस प्रकार प्रजावर्ग से मिलते हैं,उसी प्रकार मिले॥४७॥
न तु केकयराजानं जनकं वा नराधिपः ।
त्वरया चानयामास पश्चात्तौ श्रोष्यतः प्रियम् ॥ ४८ ॥
कैकयराज और राजा जनक को निमंत्रण नहीं दिया गया,यह जानकर कि उनको शुभसमाचार पीछे मिल ही जायेगा।।४८।।
इन्हीं राजाओं से भरी राज्यसभा में राम राज्याभिषेक की घोषणा की गई और इसके अगले दिन ही सब राजा अभिषेक में अपनी उपस्थिती दर्ज करने के लिये मौजूद थे।कहिये श्रीमान,अब तसल्ली हो गई?
कैकेयी और मंथरा का कृत्य न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता।मंथरा ने कैकेयी को उसके धरोहर रूप रखे वरदानों का दुरुपयोग करने की पट्टी पढ़ाई और कैकेयी ने प्रजा और परंपरा के विरुद्ध वरदान मांगे।
ऐसे मूर्खतापूर्ण, जनादेशविरोधी और परंपराभंजक वरदान मांगने वाले तथा इस कारण से राजा दशरथ को पुत्रवियोग का दुख देने वालों को बुरा-भला कहकर दशरथ, प्रजा और मंत्रियों ने कुछ गलत नहीं किया।यद्यपि किसी को कोसना सही नहीं है,तथापि उन्होंने उनको कोसकर कोई महापाप न किया।
*।।महाराज दशरथ पर लगे आक्षेपों का उत्तर समाप्त हुआ।।*
पाठक मित्रों!हमने महाराज दशरथ पर किये आक्षेपों का युक्तियुक्त खंडन कर दिया है।आपने देखा कि पेरियार ने किस तरह बेसिर-पैर के अनर्गल आरोप दशरथ पर लगाये।कहीं झूठ का सहारा लिया,कहीं तथ्यों तोड़ा-मरोड़ा।कहीं अपने जैसे मिथ्यीवादी साक्षियों को उद्धृत किया कहीं सुनी-सुनाई बातों से गप्पें जड़ दी।”येन-केन प्रकारेण कुर्यात् सर्वस्व खंडनम्”-के आधार पर महाराज दशरथ पर आक्षेप करने का प्रयास किया,पर सफल न हो सके।इससे सिद्ध है कि महाराज दशरथ पर किये सारे आक्षेप मिथ्या और अनर्गल प्रलाप है।
मित्रों!यहां महाराज दशरथ का प्रकरण समाप्त हुआ।अगले लेखों की श्रृंखला में भगवान श्रीराम पर “राम” नामक शीर्षक से किये गये आक्षेपों का खंडन कार्य आरंभ किया जायेगा।ललई सिंह यादव ने पेरियार के स्पष्टीकरण में जो प्रमाण दिये हैं,साथ ही साथ उनकी भी परीक्षा की जायेगी।पूरा लेख पढ़ने के लिये धन्यवाद।
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।।मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र की जय।।
।।योगेश्वर श्रीकृष्ण चंद्रकी जय।।
नोट : इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आर्यमंतव्य  टीम  या पंडित लेखराम वैदिक मिशन  उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है. |

हदीस : गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?

गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?

अगर एक गुलाम को आजाद भी कर दिया जाये, तो भी उसकी संपत्ति मुक्तिदाता की होगी (3584-3595)। आयशा एक गुलाम लौंडी, वरीरा, की मदद करना चाहती थी। वह उसकी आजादी इस शर्त पर खरीदने को तैयार थी कि ”मुझे तुम्हारी सम्पत्ति पर अधिकार मिलेगा। लेकिन लौंडी का स्वामी नगद दाम लेकर ही उसको तो आज़ाद करने का इच्छुक था। वह लौंडी की सम्पत्ति का हक़ अपने पास रखना चाहता था। मुहम्मद ने आयशा के हक़ में यह फैसला दिया-”उसे खरीद लो और मुक्त कर दो, क्योंकि संपत्ति का उत्तराधिकार उसका होता है, जो मुक्त करता है।“ फिर मुहम्मद ने फटकार लगाई-”लोगों को क्या हो गया है, जो वे ऐसी शर्तें रखते हैं जो अल्लाह की किताब में नहीं पायीं जातीं“ (3585)

author : ram swarup

 

आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव

आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव

संस्थाओं के झमेलों ने आर्यसमाज के संगठन और प्रचार को बड़ी क्षति पहुँचाई है। संस्थाओं के कारण अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति आर्यसमाज में घुसकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर अधिकार जमाने में सफल हो गये हैं। लोग ऐसे पुरुषों को देखकर यह समझते हैं कि आर्यसमाजियों में श्रद्धा नहीं है।

आर्यवीरों ने देश-धर्म के लिए कितने बलिदान दिये हैं। आर्यों की श्रद्धा तथा सेवाभाव का एक उदाहरण यहाँ देते हैं। लाहौर में एक महाशय सीतारामजी आर्य होते थे। इन्हीं को चौधरी सीताराम कहा जाता था। ये आर्यसमाज के सब कार्यों में आगे-आगे होते थे, इसलिए इन्हें चौधरी सीताराम आर्य कहा जाता था। लाला जीवनदासजी की चर्चा करते हुए भी हमने इनका उल्लेख किया था।

वे लकड़ी का कार्य करते थे। इनकी दुकान आर्यसमाज के प्रमुख लोगों के मिलन तथा विचार-विमर्श करने का एक मुज़्य स्थान होता था। आर्ययुवक जो स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ते थे, वे

उनकी दुकान का चक्कर लगाये बिना न रह सकते थे।

एक बार महाशय सीतारामजी को निमोनिया हो गया। वे कई दिन तक अचेत रहे। उनके आर्यसमाजी मित्रों ने उनकी इतनी सेवाकी कि बड़े-बड़े धनवानों की सन्तान भी ऐसी देखभाल न करे।

लाहौर के बड़े-से-बड़े डॉज़्टर को आर्यलोग बुलाकर लाये। अपने-आप ओषधियाँ लाते। आर्यवीरों ने दिन-रात अपना समय बाँट रखा था। हर घड़ी उनकी सेवा और देखभाल के लिए आर्यपुरुष उनके

पास रहते।

वे गृहस्थी थे। पत्नी आज्ञाकारिणी थी। पुत्र भी धर्मप्रेमी थे। महाशय राजपालजी का मुसलमान हत्यारा इल्मुद्दीन जब छुरे का वार करके भागा था तो इन्हीं महाशयजी के सुपुत्र श्री विद्यारत्न ने ही उसे पकड़ा था। एक और आक्रमण के समय क्रूर घातक को स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने धर दबोचा था।

हमारा इस प्रसङ्ग को छेड़ने का अभिप्राय यह है कि ऐसे सद्गृहस्थी के घर में सब-कुछ था तथापि आर्य भाइयों में अपने इस आदर्श कर्मवीर के लिए इतना ह्रश्वयार था, उनके प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उनके रुग्ण होने पर उनकी सेवा करने के लिए आर्यों में एक होड़ और दौड़-सी थी। जब महाशयजी स्वस्थ हुए तो इस सेवाभाव, इस भ्रातृभाव से इतने प्रभावित हुए कि अब वे पहले से भी कहीं अधिक आर्यसामाजिक कार्यों में जुटे रहते। वे दुकानदार भी थे और प्रचारक भी। वे कार्यकर्ज़ा भी थे और संगठन की कला के कलाकार भी थे।

हदीस : कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?

कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?

सिर्फ़ मोमिन गुलाम ही आजादी का पात्र है। किसी ने एक बार अपनी गुलाम बांदी को थप्पड़ जमा दिया और तब पछतावे की भावना से उसे आज़ाद करना चाहा। मुहम्मद से सलाह ली गयी। वे बोले-”उसे मेरे पास लाओ।“ वह लायी गयी। मुहम्मद ने उससे पूछा-”अल्लाह कहां है ?“ वह बोली-”वह जन्नत में है।“ मुहम्मद ने पूछा-मैं कौन हूं ?“ उसने जवाब दिया-”आप अल्लाह के पैगम्बर हैं।“ मुहम्मद ने यह फैसला सुनाया-”उसे आजाद कर दो। वह मोमिन औरत है“ (1094)।

 

इस प्रकार एक गुलाम को आजाद करने से पुण्य प्राप्त होता है। ”उस मुसलमान को जो एक मुसलमान (गुलाम) को मुक्त करता है, अल्लाह दोज़ख की आग से बचायेगा। गुलाम के हर अंग के एवज में मुक्त करने वाले का वही अंग आग से बचाया जायेगा। यहां तक कि उनके गुप्तांगों के बदले में मुक्ति दाता के गुप्तांग बचाये जायेंगे“ (3604)।

 

अपने साझे गुलाम को भी व्यक्ति अपने हिस्से की हद तक मुक्त कर सकता है। बाकी के लिए उस गुलाम के दाम तय किए जा सकते हैं। और गुलाम से ”अपनी आजादी के लिए काम करने को कहा जायेगा। लेकिन उसके ऊपर बहुत ज्यादा बोझा नहीं डालना चाहिए“ (3582)।

author : ram swarup

वे कैसे चरित्रवान् थे

वे कैसे चरित्रवान् थे

इन्हीं महाशय देवकृष्णजी को राज्य की ओर से एक शीशमहल क्रय करने के लिए मुज़्बई भेजा गया। वहाँ उन्हें दस सहस्न रुपया कमिशन (दलाली) के रूप में भेंट किया गया। आपने लौटकर यह राशि महाराज नाहरसिंह के सामने रख दी। उनकी इस ईमानदारी (honesty) और सत्यनिष्ठा से सब पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें लोग चलता-फिरता आर्यसमाजी समझते थे। उस युग में दस सहस्र की राशि कितनी बड़ी होती थी! इसका हमारे पाठक सहज रीति से अनुमान लगा सकते हैं।