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हदीस : अन्य असमर्थताएं
अन्य असमर्थताएं
आजाद हो जाने पर भी गुलाम अनेक असमर्थताओं का शिकार रहता है। वह किसी नए पक्ष के साथ मैत्री नहीं कर सकता। न ही वह भूतपूर्व स्वामी की अनुमति पाए बिना किसी पक्ष को मैत्री का प्रस्ताव पठा सकता है। ”जो कोई किसी गुलाम से उसके पहले के मालिक की स्वीकृति के बिना मैत्री करता है उस पर अल्लाह की और उसके फ़रिश्तों की और पूरी मानवजाति की ओर से लानत है“ (3600)।
author : ram swarup
श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी
श्रद्धा सजीव होकर झूमती थी
आर्यसमाज के आदि काल में आर्यों के सामने एक समस्या थी। अच्छा गानेवाले भजनीक कहाँ से लाएँ। इसी के साथ जुड़ी दूसरी समस्या सैद्धान्तिक भजनों की थी। वैदिक मन्तव्यों के अनुसार
भजनों की रचना तो भक्त अर्मीचन्दजी, चौधरी नवलसिंहजी, मुंशी केवलकृष्णजी, वीरवर चिरञ्जीलाल और महाशय लाभचन्दजी ने पूरी कर दी, परन्तु प्रत्येक समाज को साप्ताहिक सत्संग में भजन गाने के लिए अच्छे गायक की आवश्यकता होती थी। नगरकीर्तन आर्यसमाज के प्रचार का अनिवार्य अङ्ग होता था। उत्सव पर नगर कीर्तन करते हुए आर्यलोग बड़ी श्रद्धा व वीरता से धर्मप्रचार किया करते थे।
पंजाब में यह कमी और भी अधिक अखरती थी। इसका एक कारण था। सिखों के गुरुद्वारों में गुरु ग्रन्थसाहब के भजन गाये जाते हैं। ये भजन तबला बजानेवाले रबाबी गाते थे। रबाबी मुसलमान ही हुआ करते थे। मुसलमान रहते हुए ही वे परज़्परा से यही कार्य करते चले आ रहे थे। यह उनकी आजीविका का साधन था।
आर्यसमाज के लोगों को यह ढङ्ग न जंचा। कुछ समाजों ने मुसलमान रबाबी रखे भी थे फिर भी आर्यों का यह कहना था कि मिरासी लोगों या रबाबियों के निजी जीवन का पता लगने पर
श्रोताओं पर उनका कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा। लोग सिखों की भाँति भजन सुनना चाहते थे।
तब आर्यों ने भजन-मण्डलियाँ तैयार करनी आरज़्भ कीं। प्रत्येक समाज की अपनी-अपनी मण्डली होती थी।उज़र प्रदेश, हरियाणा, पंजाब सिन्ध में सब प्रमुख समाजों ने भजन मण्डलियाँ बना लीं।
महात्मा मुंशीराम वकील, पं0 गुरुदज़जी, न्यायाधीश केवलकृष्णजी (मुंशी), महाशय शहजादानन्दजी लाहौर, चौधरी नवलसिंहजी जैसे प्रतिष्ठित आर्यपुरुष नगरकीर्तनों में आगे-आगे गाया करते थे। टोहाना (हरियाणा) के समाज की मण्डली में हिसार जिले के ग्रामीण चौधरी जब जुड़कर दूरस्थ समाजों में जसवन्तसिंह वर्माजी के साथ गर्जना करते थे तो समाँ बँध जाता था।
लाहौर में महाशय शहजादानन्दजी (स्वामी सदानन्द) को भजन मण्डली तैयार करने का कार्य सौंपा गया। वे रेलवे में एक ऊँचे पद पर आसीन थे। उन्हें रेलवे में नौकरी का समय तो विवशता में देना ही पड़ता था, उनका शेष सारा समय आर्यसमाज में ही व्यतीत होता था। नये-नये भजन तैयार करने की धुन लगी रहती। सब छोटे-बड़े कार्य आर्यलोग आप ही करते थे। समाज के उत्सव पर पैसे देकर अन्यों से कार्य करवाने की प्रवृज़ि न थी।
इसका अनूठा परिणाम निकला। आर्यों की श्रद्धा-भक्ति से खिंच-खिंचकर लोग आर्यसमाज में आने लगे। लाला सुन्दरदास भारत की सबसे बड़ी आर्यसमाज (बच्छोवाली) के प्रधान थे। आर्यसमाज
के वार्षिकोत्सव पर जब कोई भजन गाने के लिए वेदी पर बैठता तो लाला सुन्दरसजी तबला बजाते थे। जो कार्य मिरासियों से लिया जाता था, उसी कार्य को जब ऐसे पूज्य पुरुष करने
लग गये तो यह दृश्य देखकर अपने बेगाने भाव-विभोर हो उठते थे।
HADEES : THE PROPHET AS A LANDLORD
THE PROPHET AS A LANDLORD
Several ahAdIs (3758-3763) show that Muhammad�s own business practices could be sharp. �Abdullah, the son of �Umar, reports that �when Khaibar had been conquered, it came under the sway of Allah, that of his Messenger and that of the Muslims� (3763). Muhammad made an agreement with the Jews of Khaibar that they could retain the date-palms and the land on the condition that they worked them with their own wealth (seeds, implements) and gave �half of the yield to Allah�s Messenger� (3762). Out of this half, �Allah�s Apostle got the fifth part,� and the rest was �distributed� (3761). This lends credence to the common observation that those who control the funds, whether in the name of Allah or the state or the poor, are apt to spend them first on themselves.
These acquisitions enabled Muhammad to give each of his wives 100 wasqs (1 wasq = about 425 English pounds), 80 wasqs of dates, and 20 wasqs of barley per year. When �Umar became the KhalIfa he distributed the land and gave the wives of Allah�s Apostle the option of taking the land or the yearly wasqs. Their reactions to this offer differed. �Aisha and Hafza, two wives of the Prophet, �opted for land and water� (3759).
author : ram swarup
सच्ची रामायण का खंडन-भाग-१८
हदीस : गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?
गुलाम की संपत्ति का वारिस कौन ?
अगर एक गुलाम को आजाद भी कर दिया जाये, तो भी उसकी संपत्ति मुक्तिदाता की होगी (3584-3595)। आयशा एक गुलाम लौंडी, वरीरा, की मदद करना चाहती थी। वह उसकी आजादी इस शर्त पर खरीदने को तैयार थी कि ”मुझे तुम्हारी सम्पत्ति पर अधिकार मिलेगा। लेकिन लौंडी का स्वामी नगद दाम लेकर ही उसको तो आज़ाद करने का इच्छुक था। वह लौंडी की सम्पत्ति का हक़ अपने पास रखना चाहता था। मुहम्मद ने आयशा के हक़ में यह फैसला दिया-”उसे खरीद लो और मुक्त कर दो, क्योंकि संपत्ति का उत्तराधिकार उसका होता है, जो मुक्त करता है।“ फिर मुहम्मद ने फटकार लगाई-”लोगों को क्या हो गया है, जो वे ऐसी शर्तें रखते हैं जो अल्लाह की किताब में नहीं पायीं जातीं“ (3585)
author : ram swarup
आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव
आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव
संस्थाओं के झमेलों ने आर्यसमाज के संगठन और प्रचार को बड़ी क्षति पहुँचाई है। संस्थाओं के कारण अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति आर्यसमाज में घुसकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर अधिकार जमाने में सफल हो गये हैं। लोग ऐसे पुरुषों को देखकर यह समझते हैं कि आर्यसमाजियों में श्रद्धा नहीं है।
आर्यवीरों ने देश-धर्म के लिए कितने बलिदान दिये हैं। आर्यों की श्रद्धा तथा सेवाभाव का एक उदाहरण यहाँ देते हैं। लाहौर में एक महाशय सीतारामजी आर्य होते थे। इन्हीं को चौधरी सीताराम कहा जाता था। ये आर्यसमाज के सब कार्यों में आगे-आगे होते थे, इसलिए इन्हें चौधरी सीताराम आर्य कहा जाता था। लाला जीवनदासजी की चर्चा करते हुए भी हमने इनका उल्लेख किया था।
वे लकड़ी का कार्य करते थे। इनकी दुकान आर्यसमाज के प्रमुख लोगों के मिलन तथा विचार-विमर्श करने का एक मुज़्य स्थान होता था। आर्ययुवक जो स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ते थे, वे
उनकी दुकान का चक्कर लगाये बिना न रह सकते थे।
एक बार महाशय सीतारामजी को निमोनिया हो गया। वे कई दिन तक अचेत रहे। उनके आर्यसमाजी मित्रों ने उनकी इतनी सेवाकी कि बड़े-बड़े धनवानों की सन्तान भी ऐसी देखभाल न करे।
लाहौर के बड़े-से-बड़े डॉज़्टर को आर्यलोग बुलाकर लाये। अपने-आप ओषधियाँ लाते। आर्यवीरों ने दिन-रात अपना समय बाँट रखा था। हर घड़ी उनकी सेवा और देखभाल के लिए आर्यपुरुष उनके
पास रहते।
वे गृहस्थी थे। पत्नी आज्ञाकारिणी थी। पुत्र भी धर्मप्रेमी थे। महाशय राजपालजी का मुसलमान हत्यारा इल्मुद्दीन जब छुरे का वार करके भागा था तो इन्हीं महाशयजी के सुपुत्र श्री विद्यारत्न ने ही उसे पकड़ा था। एक और आक्रमण के समय क्रूर घातक को स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने धर दबोचा था।
हमारा इस प्रसङ्ग को छेड़ने का अभिप्राय यह है कि ऐसे सद्गृहस्थी के घर में सब-कुछ था तथापि आर्य भाइयों में अपने इस आदर्श कर्मवीर के लिए इतना ह्रश्वयार था, उनके प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उनके रुग्ण होने पर उनकी सेवा करने के लिए आर्यों में एक होड़ और दौड़-सी थी। जब महाशयजी स्वस्थ हुए तो इस सेवाभाव, इस भ्रातृभाव से इतने प्रभावित हुए कि अब वे पहले से भी कहीं अधिक आर्यसामाजिक कार्यों में जुटे रहते। वे दुकानदार भी थे और प्रचारक भी। वे कार्यकर्ज़ा भी थे और संगठन की कला के कलाकार भी थे।
HADEES : TENANCY
TENANCY
Muhammad also forbade the leasing of land. �He who has land should cultivate it, but if he does not find it possible, he should lend it to his Muslim brother, but he should not accept rent from him� (3719).
author : ram swarup
हदीस : कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?
कौन-से गुलाम मुक्ति के पात्र हैं ?
सिर्फ़ मोमिन गुलाम ही आजादी का पात्र है। किसी ने एक बार अपनी गुलाम बांदी को थप्पड़ जमा दिया और तब पछतावे की भावना से उसे आज़ाद करना चाहा। मुहम्मद से सलाह ली गयी। वे बोले-”उसे मेरे पास लाओ।“ वह लायी गयी। मुहम्मद ने उससे पूछा-”अल्लाह कहां है ?“ वह बोली-”वह जन्नत में है।“ मुहम्मद ने पूछा-मैं कौन हूं ?“ उसने जवाब दिया-”आप अल्लाह के पैगम्बर हैं।“ मुहम्मद ने यह फैसला सुनाया-”उसे आजाद कर दो। वह मोमिन औरत है“ (1094)।
इस प्रकार एक गुलाम को आजाद करने से पुण्य प्राप्त होता है। ”उस मुसलमान को जो एक मुसलमान (गुलाम) को मुक्त करता है, अल्लाह दोज़ख की आग से बचायेगा। गुलाम के हर अंग के एवज में मुक्त करने वाले का वही अंग आग से बचाया जायेगा। यहां तक कि उनके गुप्तांगों के बदले में मुक्ति दाता के गुप्तांग बचाये जायेंगे“ (3604)।
अपने साझे गुलाम को भी व्यक्ति अपने हिस्से की हद तक मुक्त कर सकता है। बाकी के लिए उस गुलाम के दाम तय किए जा सकते हैं। और गुलाम से ”अपनी आजादी के लिए काम करने को कहा जायेगा। लेकिन उसके ऊपर बहुत ज्यादा बोझा नहीं डालना चाहिए“ (3582)।
author : ram swarup
वे कैसे चरित्रवान् थे
वे कैसे चरित्रवान् थे
इन्हीं महाशय देवकृष्णजी को राज्य की ओर से एक शीशमहल क्रय करने के लिए मुज़्बई भेजा गया। वहाँ उन्हें दस सहस्न रुपया कमिशन (दलाली) के रूप में भेंट किया गया। आपने लौटकर यह राशि महाराज नाहरसिंह के सामने रख दी। उनकी इस ईमानदारी (honesty) और सत्यनिष्ठा से सब पर गहरा प्रभाव पड़ा। उन्हें लोग चलता-फिरता आर्यसमाजी समझते थे। उस युग में दस सहस्र की राशि कितनी बड़ी होती थी! इसका हमारे पाठक सहज रीति से अनुमान लगा सकते हैं।