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तो क्या? ( वैदिक धर्म में गौ मांस भक्षण एक झूठ) – संजय शास्त्री, कनाडा

महाराष्ट्र में गोमांस पर राज्य सरकार द्वारा प्रतिबन्ध लगाते ही कुछ लोगों की मानवीय संवेदनाएँ आहत हो उठीं और उनको लगा, जैसे मानवाधिकारों पर कयामत टूट पड़ी हो। कुछ लोग भारतीय इतिहास की दुहाई देते हुए संस्कृत शास्त्रों से गोमांस-भक्षण के उदाहरण देते हुए हिन्दुओं को सलाह देने लगे कि अपने शास्त्रों की बात मानोगे या आधुनिक हिन्दुत्ववादियों की? (इस विषय में मुसलमानों का एक मतान्ध किन्तु अति मन्दगति वर्ग बहुत सक्रिय हो गया है, इसलिये इस लेख में मुसलमानों की चर्चा करने पर बाध्य हुआ हूँ।) कुछ लोगों के हृदय में आर्य और अनार्य का कथित शाश्वत वैर जाग उठा और वे चिल्ला उठे कि गोमांस-भक्षण अनार्यों की प्राचीन परम्परा रही है, विदेश से आए आर्यों ने ही इस पर प्रतिबन्ध लगाया। यह कैसी षड्यन्त्रानुप्राणित ऐतिहासिक शिक्षा है जो हमें इतना मूर्ख बनाने में सफल रही है कि हम दो परस्पर विरोधी ‘ऐतिहासिक तथ्यों’ को मानने लगे हैं। अजीब है- एक तरफ तो यह सिद्ध किया जाता है कि गोमांस-भक्षण आर्यों के समाज में होता था, और दूसरी तरफ यह भी बताया जाता है कि गोमांस-भक्षण भारत के मूल निवासी अनार्यों की परम्परा रही है और बाहर से आये आर्यों ने ही इस पर जबर्दस्ती प्रतिबन्ध लगाया। खैर, जो भी हो, एक बात अवश्य ही स्पष्ट है कि जो लोग इन उदाहरणों को देकर गोमांस-भक्षण को आर्यों की सामान्य परम्परा सिद्ध करना चाहते हैं, वे उन प्रसंगों की सच्चाई छुपा कर ही ऐसा करते हैं। (इसका खुलासा नीचे भारतीय आदर्श के प्रसंग में किया गया है।) लेकिन इस विषय पर फिर कभी बात करूँगा। अभी तो बस इतना ही कहना है कि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों का इस युग से क्या सम्बन्ध है, और उनकी उपयुक्तता क्या है। इस लेख में मैं प्राचीन भारतीय शास्त्रों में गोमांस-भक्षण के उदाहरणों की समीक्षा नहीं करना चाहता। वह इस लेख की सीमा से बाहर है। ऐसी समीक्षा निष्फल भी है, क्योंकि सामान्यतः अतीत की व्याख्या व्यक्ति के मानसिक परिप्रेक्ष्य में तैयार होती है – वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से बँधी होती है और जब तक कोई व्यक्ति इस तरह की सीमाओं से बाहर निकलने को तैयार नहीं हो, तब तक मतभेदों का समाधान असम्भवप्रायः होता है। इसको ऐसे समझा जा सकता है-

१. जिन लोगों को गोमांस-भक्षण से ऐतराज नहीं है, उनको भारतीय इतिहास के इस प्रसंग में प्रायः उद्धृत उदाहरणों की व्याख्या गोमांस-भक्षणपरक करने से भी कोई ऐतराज नहीं होगा। यदि वे गोमांस खाते हैं, तो वे कदापि नहीं चाहेंगे कि इस पर प्रतिबन्ध लगे और वे इतिहास की ढाल लेकर मैदान में कूद पड़ेंगे।

२. लेकिन जिनको गोमांस-भक्षण संास्कृतिक पाप मालूम होता है, वे उन्हीं सन्दर्भों की व्याख्या गोमांस-भक्षण परक नहीं करेंगे। और यदि ऐसे सन्दर्भ कहीं मिलते भी हैं तो उनको प्रक्षिप्त मानकर अमान्य कर देंगे।

३. तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इतिहास की ऐसी बातों को गोमांस-भक्षण  के विरोधी हिन्दुओं को द्वेष भावना से केवल नीचा दिखाने के लिये कहते हैं। उन्हें न तो इतिहास से कुछ लेना-देना है, और न ही गोमांस-भक्षण से। ये वे बच्चे हैं, जिनको साथी बच्चों की शान्ति भंग करने में ही मजा आता है।

४. कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनको यह मान लेने से कोई ऐतराज नहीं है कि अतीत में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, लेकिन ऐसा मानने वाले यह भी मानते हैं कि इतिहास अतीत की बदलती हुई राजनीतिक और सामाजिक धाराओं का प्रवाह मात्र है, जिसको पढ़कर हम वर्तमान को सुधारने के लिये शिक्षा तो ले सकते हैं, लेकिन उसे हम आज न तो अनुभव कर सकते हैं और न ही उसको जी सकते हैं।

जो भी हो, एक बात स्पष्ट है कि ऐसे उदाहरणों की व्याख्या व्यक्ति के वैचारिक और नैतिक मानदण्डों से प्रेरित होती है, जिसका त्वरित समाधान सम्भव नहीं है, इसलिये यह लेख दुर्जनपरितोषन्याय से लिखा गया है। माना कि प्राचीन काल में कुछ लोगों ने गोमांस खाया होगा, तो क्या?

गोमांस-भक्षण के उदाहरण

जो गोमांस-भक्षण के उदाहरण दिये जाते हैं, वे इतने छिटपुट और प्रसंगतः क्षुद्र हैं कि उनके आधार पर गोमांस-भक्षण को सिद्ध करने की बात पर प्रमाण-शास्त्र को मानने वाला कोई भी व्यक्ति हँसेगा। उसका कारण है कि गौ के प्रति आर्यों की पवित्र भावना शाश्वत है। वेदों और दूसरे संस्कृत ग्रन्थों में गोमांस-भक्षण के उदाहरण देने वाले भी यह मानते हैं कि हिन्दुओं के प्राचीनतम शास्त्र ऋग्वेद से लेकर आज तक गौ के प्रति पवित्रभावना अविच्छिन्न रूप से मिलती है। ऋग्वेद में गाय को अघ्न्या (जिसको नहीं मारना चाहिये) कहा गया है और यही भावना बाद के ग्रन्थों में विस्तार से मिलती है। यदि गोमांस-भक्षण के उदाहरणों और गोहत्या को पाप तथा गोरक्षा को पुण्य मानने वाले उदाहरणों का परिमाण देखा जाए तो तुलना ऐसी होगी-गोहत्या से पाप और गोरक्षा से पुण्य मिलने का बखान करने वाले उदाहरण एक महासागर की तरह हैं, जिसमें गो मांस खाने के उदाहरण कुछेक तिनकों की तरह हैं। ऐसा क्यों है कि ये लोग उन छिटपुट उदाहरणों को तो प्रमाण मान रहे हैं, लेकिन बाकी महासागर की उपेक्षा कर रहे हैं? ऐसा किसी न किसी स्वार्थ या काम के वशीभूत होकर दुराग्रही होने पर ही होता है। प्रमाण-शास्त्र को मानने वालों के लिये यह हास्यास्पद ही होगा कि गोरक्षा की असीम विच्छिन्नधारा की उपेक्षा कर दो-चार वाक्यों को प्रमाण मानकर सांस्कृतिक  ऐतिहासिक धारा को मोड़ने का प्रयास किया जाए।

किसी घटना के केवल उदाहरण मिलने से ही ऐसी घटनाएँ विधान तो नहीं बन जाती हैं। यह सोचना चाहिये कि उस युग में भी आदर्श क्या था? इस विषय में भी इतिहासकारों को कोई संन्देह नहीं है कि तब भी गौ के प्रति सम्मान भावना रखना ही आदर्श माना जाता था। न केवल इतना, बल्कि किसी प्रकार के मांस को न खाना ही उनका आदर्श था। तो फिर आदर्श आचार से उनके आचार को सिद्ध करने में इतना परिश्रम क्यों कर रहे हैं ये लोग?

और फिर मनुष्य कभी भी धर्मशास्त्र का सर्वथा अक्षरशः पालन नहीं करता है। कितने ईसाई और मुसलमान हैं, जो बाइबिल और कुरान की अच्छी शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं? मनुष्य पहले स्वभावतः मनुष्य ही होता है, उसकी धार्मिक पहचान भी अक्सर उसके स्वभाव के नीचे दबकर रह जाती है। जैसे ईसाई या मुसलमान अपने धर्म का अक्षरशः पालन नहीं करते हैं, वैसे ही कुछ हिन्दू भी नही करते हैं। ऋषि कपूर जैसे सुविख्यात कलाकार, जिनका परिचय हिन्दू के रूप में ही है, आज भी गोमांस खाते हैं। उन्होंने लिखा था कि ‘‘मुझे गुस्सा आ रहा है। खाने को धर्म से आप क्यों जोड़ रहे हैं? मैं बीफ खाने वाला एक हिन्दू हूँ। तो क्या, इसका मतलब यह है कि मैं बीफ नहीं खाने वाले की अपेक्षा कम धार्मिक हूँ? सोचो!’’ और यह महोदय यहाँ तक लिख बैठते हैं कि ‘‘वैसे मुझे मेरे उन मुस्लिम दोस्तों की तरह पार्क चॉप्स भी बेहद पसंद हैं जो मेरी तरह सोचते हैं। जब आप धर्म को खाने से जोड़ते हैं तो वे भी आप पर हँसते हैं।’’ भारत के अहिंसा के आदर्श और गौ के प्रति देवी तथा मातृवत् भाव के इतिहास से परिचित व्यक्ति इसका क्या उत्तर  देगा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इसका उत्तर  मशहूर शायर गालिब से मिलता है । १८५७ के स्वतन्त्रता संग्राम के बाद पुनः अंग्रेजी शासन की प्रतिष्ठा हो गयी और अंग्रेजों ने दिल्ली में संदिग्ध लोगों की धरपकड़ शुरू की । इसी प्रसंग में एक बर्न नाम के कर्नल ने अपनी टूटी-फूटी उर्दू में गालिब से पूछा, ‘‘तुम मुसलमान हो?’’ गालिब ने कहा, ‘‘आधा।’’ ‘‘इसका मतलब?’’ कर्नल ने पूछा तो गालिब ने जवाब दिया, ‘‘मैं शराब पीता हॅूँ, लेकिन सूअर नहीं खाता।’’ अर्थात् यदि गालिब शराब भी नहीं पीते तो पूरे मुसलमान होते और यदि शराब पीते और सूअर भी खाते तो मुसलमान ही नहीं रहते। खैर, जो भी हो, क्या यह उचित है कि ऋषि कपूर जैसे लोगों के उदाहरण से यह सिद्ध किया जाए कि आज हिन्दुओं में गोमांस खाना मान्य है? यदि नहीं तो, इतिहास में क्यों इस तरह की मानसिकता थोपने की कोशिश हो रही है? इन्द्रियों का दास हो चुके मनुष्य के लिये धर्मशास्त्र व्यर्थ हैं। धर्म का ज्ञान केवल उन्हीं को होता है, या हो सकता है, जो स्वार्थ और काम की भावना के वशीभूत नहीं हैं। स्वार्थान्ध और कामान्ध व्यक्ति के लिये तो शास्त्र नियम अभिशाप की तरह हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन है। ऋषि कपूर जैसे लोगों की यही करुण व्यथा है- गोवध पर प्रतिबन्ध से उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।

इसी प्रसंग में एक बात और। यदि इन लोगों को भारत के  अतीत से इतना ही प्यार और मान्य-भावना है, तो इनको यह भी समझना चाहिये कि उस युग के आचरणों की यथावत् प्रतिष्ठा के लिये जितना महत्वपूर्ण उस युग की बातों के होने का है, उतना ही महत्वपूर्ण कुछ बातों का नही होना भी है। उस समय ईसाइयत और इस्लाम भारत में तो क्या दुनिया मैं भी नहीं थे। तो जो लोग प्राचीन हिन्दू धर्म में गोमांस-भक्षण को प्रमाण मानकर आचरणीय मानते हैं, तो क्या उनको हिन्दू धर्म को स्वीकार कर अपनी आस्था को खुले रूप में प्रकट नहीं करना चाहिये? जब तक ऐसे लोग वैदिक धर्म और आचरण को स्वीकार न कर लें, तब तक उन्हें वैदिक या हिन्दू धर्म में आस्था रखने वालों को ‘‘अतीत की किस परम्परा का अनुसरण करना चाहिये’’ के विषय में बोलने का कोई अधिकार ही नहीं है।

इतिहास में किसी घटना के उदाहरण मिलना भी उनको हर युग और देश में स्वीकार करने का कारण नहीं हो सकता। भारतीय परम्परा में संस्कृति को प्रवाहमान माना गया है, जो हर युग में बदलती रहती है। इतिहास में इस तरह की परम्पराएँ रही हैं, जिनके विषय में आज सोचना भी मन में जुगुप्साभाव पैदा करता है। जैसे कि ईरान में सगे सम्बन्धियों में आपस में शादी की  परम्परा थी, जिसको पूरी धार्मिक और कानूनी मान्यता थी। यहाँ तक कि माँ-बेटे, बहन-भाई और पिता-बेटी की शादी की भी बहुप्रचलित परम्परा थी। यदि ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस को प्रमाण माना जाए तो ऐसी परम्पराएँ भी थीं, जब किसी के बीमार होने पर उसी के सम्बन्धी उसको मारकर, पकाकर उसका भोग लगाते थे। क्या गोमांस के छिटपुट उदाहरणों के आधार पर हिन्दुओं की धार्मिक भावना से खिलवाड़ करने को जायज ठहराने से पहले सगे सम्बन्धियों से शादी करने और बीमार सम्बन्धियों का भोग लगाने की परम्परा को कानूनी रूप से स्वीकार कर लिया जाये?

शास्त्र में कही गयी बातों के आचरणीय या अनाचरणीय होने के विषय में कामसूत्र में एक ही बात दो बार सावधान करने के लिये कही गयी है-

न शास्त्रमस्तीत्येतेन प्रयोगो हि समीक्ष्यते/न शास्त्रमस्तीत्येतावत् प्रयोगे कारणं भवेत्। शास्त्रार्थान् व्यापिनो विद्यात् प्रयोगांस्त्वेकदेशिकान्।।

(कामसूत्र, २.९.४१,७.२.५५)।

शास्त्र में किसी बात की चर्चा है, केवल इसी आधार पर उसका प्रयोग या आचरण नहीं किया जा सकता, क्योंकि शास्त्र का विषय व्यापक होता है, जबकि प्रयोग एकदेशिक होते हैं, अर्थात् शास्त्र विभिन्न देश और काल की चर्चा करते हैं, उनका रिकार्ड रखते हैं, लेकिन प्रयोग प्रयोक्ता की शक्ति, समय, देश और परम्परा के अनुसार ही होते हैं, सर्वकालीन और सर्वजनीन नहीं। यही कारण है कि काम शास्त्र में रागवर्धक विचित्र प्रयोगों का विवरण देने के बाद उनका यत्नपूर्वक निवारण भी कर दिया गया है (कामसूत्र ७.२.५४)।

भारतीय आदर्श अब आते हैं भारतीय आदर्श पर। गोमांस की बात छोड़ो, भारतीय परम्परा में तो किसी भी प्राणी के मांस भक्षण से सर्वथा निवृत्ति  को ही आदर्श माना जाता था। मुसलमानों के इस धूर्त वर्ग ने मनु का भी एक श्लोक भारत में मांस भक्षण के पक्ष में प्रमाण के रूप में प्रचारित किया है। इसमें कहा गया है कि भोक्ता अपने खाने लायक पदार्थों  को खाने से किसी दोष का भागी नहीं होता है। इन खाने लायक भोजनों में प्राणियों को भी गिना गया है (मनु ५.३०)। विशेष बात यह है कि भारतीय विद्वानों ने इसको प्राण-संकट होने पर मान्य माना है। जैसे कि मनु के व्याख्याकार मेधातिथि ने इस श्लोक की व्याख्या में कहा है कि इसका मतलब यह है कि प्राणसंकट में हों तो मांस भी अवश्य खा लेना चाहिये (तस्मात् प्राणात्यये मांसमवश्यं भक्षणीयमिति त्रिश्लोकीविधेरर्थवादः।) ऐसा भी नहीं है कि यह मेधातिथि की मनमर्जी से की गई व्याख्या है। यह मनु के अनुरूप ही है। ऊपर उद्धृत श्लोक के बाद मनु ने प्राणियों की अहिंसा का गुणगान कई श्लोकों में करते हुए मांस भक्षण को पुण्यफल का विरोधी माना है। उन्होंने यहाँ तक कहा है कि यदि कोई व्यक्ति सौ साल तक हर साल अश्वमेध यज्ञ करता रहे और यदि कोई व्यक्ति मांस न खाए तो उनका पुण्यफल समान होता है (५.५३)। सन्तों के पवित्र फल-फूल भोजन मात्र पर निर्वाह करने वाले को भी वह पुण्यफल नहीं मिलता है जो कि केवल मांस छोड़ने वाले को मिलता है। मनु ने मांस की बड़ी अच्छी परिभाषा देते हुए कहा है कि-

मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमदाम्यहम्।

एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः।।

– समझदार लोग कहते हैं कि मांस को मांस इसलिये कहा जाता है, क्योंकि मैं आज जिसको खा रहा हॅूँ (मां) मुझे भी (सः) वह परलोक में ऐसे ही खाएगा। और मनु गौ को तो सर्वथा अवध्य मानते हैं और उसकी रक्षा करना मनुष्य मात्र का कर्तव्य  मानते हैं। इसी प्रसंग में ऊपर दिया कामसूत्र विषयक परिच्छेद (भारतीय आदर्श शीर्षक से पहले) एक बार और देख लें तो विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। एक शास्त्र होने के नाते मनुस्मृति में चाहे मांस-भक्षण की चर्चा है, लेकिन जिस विस्तृत स्पष्टता  के साथ इसको अपुण्यशील माना है, वह मांस-भक्षण की स्वीकृति के पक्ष में नहीं, अपितु उसके साक्षात् विरोध में खड़ा है। तब भी यदि कोई इसमें मांस-भक्षण की स्वीकृति को सिद्ध करने की चेष्टा करता है, तो या तो वह मूढ़ अज्ञानी है, या धूर्त है।

हिन्दू बनाम गैर-हिन्दू

यह तर्क भी दिया जाता है कि गोहत्या केवल हिन्दुओं के लिये पाप है, दूसरे धर्मावलम्बियों (ईसाई और मुसलमानों) के लिये तो नहीं। भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और शासन को एक धर्म की मान्यताओं के आधार पर दूसरे धर्मावलम्बियों के मानवाधिकारों का हनन नहीं करना चाहिये।

तर्क तो ठीक है, लेकिन बाकी तर्कों की ही तरह पक्षपाती है। कुरान केवल मुसलमानों के लिये ही तो पवित्र है, पैगम्बर मुहम्मद साहब भी केवल मुसलमानों के लिये पैगम्बर हैं, तो क्या मुसलमान यह स्वीकार करेंगे कि दूसरे धर्मावलम्बी कुरान के साथ जैसा चाहे व्यवहार कर सकते हैं? क्या ईसाईयों को यह स्वीकार होगा कि यदि कोई सूली पर लटके ईसा की काष्ठमूर्ति को जलाकर ठण्ड से सिकुड़ते बदन को सेक ले? यदि मुसलमानों और ईसाइयों को यह स्वीकार नहीं होगा तो उनको हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का ध्यान रखना ही चाहिये। गाय का प्रश्न केवल खाने-पीने तक नहीं है, गाय को श्रद्धाभाव से, पवित्र देवी के रूप में देखा जाता है। यदि एक-दूसरे की भावनाओं का ध्यान  नहीं रखेंगे, तो अतीत की तरह दंगों की आग दोनों ही तरफ के लोगों को झुलसाती रहेगी। समय-समय की बात है – कभी मुसलमानों-ईसाइयों का पलड़ा भारी होगा तो कभी हिन्दुओं का, लेकिन इस हठधर्मिता से कोई समाधान नहीं होगा। समाधान केवल तभी होगा जब आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्। – ‘‘जो व्यवहार अपने प्रति पसन्द नहीं, वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी न करें’’ का पालन किया जाए।

और ऐसा भी क्यों है कि मुसलमानों का एक वर्ग हिन्दुओं के प्रति विद्वेषभावना से बाबर, हुमायूँ, औरंगजेब जैसे कट्टरपन्थी मुगलों की केवल गन्दी विरासत को ही ढोने और उसके लिये मर मिटने के लिये तैयार रहता है? यह वर्ग इन शासकों की उन बातों पर कभी ध्यान क्यों नहीं देता, जिनसे भारतीय समाज में सौहार्दभाव को बढ़ावा मिले और शान्ति स्थापित हो सके? इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि हिन्दुओं की धार्मिक/सांस्कृतिक भावनाओं के भड़क जाने के भय से बाबर ने न केवल अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी, बल्कि अपने बेटे हुमायूँ को भी इसको जारी रखने का हुक्म दिया था। अकबर ने भी अपने शासन में गोवध पर पाबन्दी लगा रखी थी। यहाँ तक कि औरंगजेब जैसे कट्टर और परधर्मद्वेषी शासक ने भी गोवध पर मृत्युदण्ड घोषित कर रखा था और इसी परम्परा को आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने भी जारी रखा था।

जहाँ तक बात है अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की रक्षा की, तो यह रक्षा यदि बहुसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं को आहत करके  होती है तो सर्वथा अनुचित है। और फिर केवल कुछेक व्यक्तियों के मानवाधिकारों की ही बात क्यों हो? क्या बहुसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा नहीं होनी चाहिये? ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकार द्वारा पारित यह नियम केवल अल्पसंख्यकों पर लागू होगा, यह तो सभी पर लागू होगा- ऋषि कपूर जैसे और भी लोग होंगे जो अल्पसंख्यकों की श्रेणी में नहीं आते हैं। उन पर भी लागू होगा। इस तरह की सर्वजन-समभाव की सुविधा गैर-मुस्लिमों को मुगल सल्तनत में कभी नहीं मिली।

इन्हीं अधिकारों की भाषा बोलते-बोलते मुसलमानों का यह वर्ग एक और देश विभाजन हो जाने की धमकी देने लगा है। देश विभाजन होगा या नहीं, इसका जवाब तो समय ही देगा, लेकिन मुसलमानों के भारत में अधिकार की चर्चा के विषय में मैं इस्लामी धर्मशास्त्र, परम्परा, और इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में से एक मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ। सन् २००७ में बीबीसी ने आजादी के साठ वर्ष पूरे होने के अवसर पर एक लेखमाला छापी थी, जिसमें मौलाना वहीदुद्दीन खान के मन्तव्य भी छपे थे। उसका एक अंश बीबीसी से ही उद्धृत करता हूँ-

इस्लामी मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं कि मुसलमानों को भारत में जो कुछ मिला है, वह हिन्दू समुदाय की मेहरबानी है और उन्हें इस देश में जो कुछ भी मिला है, उसका उन्हें अधिकार ही नहीं था, इसलिए उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। इस्लामी विद्वान् मौलाना वहीदुद्दीन खान कहते हैं, ‘‘स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने जो बलिदान दिए, उनके बदले उन्हें पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश मिल गया और इस तरह उन्होंने अपनी कुर्बानियों को भुना लिया। विभाजन की दलील ही यह थी कि भारत हिन्दू का और पाकिस्तान मुसलमान का, तो फिर अब भारत में उनका अधिकार कैसा? इसके विपरीत हिन्दू समुदाय ने बड़ी बात की है कि आजाद भारत में भी मुसलमानों को बराबरी का दर्जा दे दिया।’’

उपसंहार इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केवल मूर्ख व्यक्ति ही ऐसा दुराग्रह करेगा कि चूँकि पहले कुछ लोगों ने ऐसा किया था, इसलिये आज भी ऐसा करना चाहिये। युग बदल गया है, कुछ  आचार-विचार बदल गये हैं और कुछ आचार-विचार समाप्त-प्राय हैं। कुछ परम्पराएँ क्षीण हो गयी हैं, तो कुछ बलवती हो गयी हैं। आधुनिक भारतीय इतिहास को सप्रमाण जानने वाला हर विद्वान् यह मानता है कि पिछले कुछ सौ वर्षों में हुए हिन्दू-मुस्लिम द्वेष और दंगों के पीछे सबसे बड़ा कारण गोहत्या से जुड़ी घटनाओं का होना रहा है। १८५७ में हुए स्वतन्त्रता संग्राम के दिल्ली में विफल हो जाने का एक कारण गोहत्या के कारण हिन्दू-मुस्लिम लोगों का बँट जाना भी था, जिसका अंग्रेजों ने पूरा लाभ उठाया। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि पहले भारत में क्या होता था और क्या नहीं होता था। सवाल यह है कि आज की असलियत क्या है? आज हिन्दुओं के लिये गौ एक धार्मिक पहचान है और उसकी रक्षा करना धार्मिक कर्तव्य । जबकि गोमांस खाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये न किसी त्यौहार पर और न किसी दूसरे अवसर पर गोमांस खाना धार्मिक या सांस्कृतिक कर्तव्य है। भारत के अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने गोहत्या पर पाबन्दी लगाई और गोवध करने वाले को तोप से उड़ा दिये जाने की घोषणा की तो दिल्ली के दो सौ प्रतिष्ठित मुसलमानों ने उनके पास जाकर गुहार लगाई कि ईद के मौके पर उनको गोहत्या करने दी जाए। जफर आग-बबूला हो गये और बोले कि मुसलमान का धर्म गाय की बलि पर निर्भर नहीं है। जैसा पहले कहा गया है, यहाँ तक कि धार्मिक रूप से क्रूर पहचान रखने वाले मुगल बादशाह भी कुछ हद तक हिन्दुओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गोहत्या पर पाबन्दी लगा सकते हैं, तो क्या धर्म-निरपेक्ष भारत में सामाजिक समरसता और शान्ति बनाए रखने के लिये गोवध पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है? क्या गोवध पर प्रतिबन्ध के खिलाफ लड़ाई केवल खाने की लड़ाई है या इसके पीछे सामाजिक समरसता को भंग करने वाले कुछ धूर्त हैं? क्या हम भारत में परस्पर वैमनस्य ही फैलाते रहेंगे?

– बी.बी.सी. हिन्दी,

शुक्रवार, ०५ अक्टूबर २००७

हमारा परम मित्र – ईश्वर – सुकामा आर्या

हम सब बचपन से एक तत्व  के विषय में बहुत कुछ सुनते आए हैं, पर आज भी ध्यान से देखें तो उस तत्व  के विषय में हमारी प्रवृत्ति  वैसी नहीं बन पाई है, जैसी की होनी चाहिए। कारण, हमारी स्थिति श्रवण तक रही-

न श्रवणमात्रात् तत् सिद्धिः।

सिर्फ सुनने मात्र से किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। मान लीजिए- हम रुग्ण हो गए। किसी मित्र ने बताया कि अमुक दवा ले लीजिए, तो क्या हम सुनने मात्र से स्वस्थ हो जाएँगे? नहीं, हमें बाजार से दवा लानी पड़ेगी, यथोचित समय पर उसका सेवन करना पड़ेगा, तब कहीं जाकर सम्भावना है कि हम स्वस्थ हो पाएँ। ठीक यही बात उस एक तत्व  के विषय में भी घटती है। उस तत्व को हमें व्यक्तिगत स्तर पर, अनुभूति के स्तर पर लाना है, तभी हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं। वह अद्भुत त           व है- ईश्वर।

ईश्वर को समझने में सहायक उसका सबसे सरलतम गुण है- सर्वव्यापकता। किसी वस्तु को हम उसके गुणों से ही जानते हैं। इसी एक गुण को समझ लेने से उसके कई प्रमुख गुण भली प्रकार से समझ में आ जाते हैं।

ईश्वर सर्वज्ञ है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वान्तर्यामी है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

ईश्वर सर्वरक्षक है, क्योंकि वह सर्वव्यापक है,

वेद कहता है- स पर्यगात्- वह पहले से वहाँ पहुँचा हुआ है।

त्वं हि विश्वतोमुख विश्वतः परिभूरसि सब तरफ उसके मुख हैं।

विश्वतो चक्षुः सब जगह उसकी आँखें हैं।

अर्थात् वह ईश्वर इस जगत् के कण-कण में विद्यमान है। ‘‘प्रभु सब में, सब कुछ है प्रभु में।’’ यूँ समझें कि सारा संसार ईश्वर में डूबा हुआ है। हर दिशा में, हर सिम्त वह है-

जिधर देखता हूँ, खुदा ही खुदा है,

खुदा से नहीं चीज कोई जुदा है।

जब अव्वल और आखिर खुदा ही खुदा है,

तो अब भी वही कौन उसके सिवा है।

एक क्षण के लिए विचार करें कि माँ-बाप, भाई-बहन, सखा-मित्र आदि तब तक ही हमारी रक्षा कर पाते हैं, जब तक वे हमारे साथ हैं, हमारे साथ उपस्थित हैं। अपनी अनुपस्थिति में वे हमारा सहयोग नहीं कर पाते हैं, उनकी विवशता होती है। ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर देखें, तो पता चलेगा कि वह हर क्षण हमारे पास है, हम उसकी उपस्थिति में उपस्थित हैं। उसकी हाजिरी में हाजिर हैं।

हम मुश्किल परिस्थिति में किससे सहायता माँगते हैं- माँ-बाप से, मित्रों से- जिनकी देने की शक्ति व सीमा सीमित है, जो दोहरे मापदण्ड वाले हैं। आज-इस क्षण अच्छे तो अगले ही क्षण बुरे, जिनके व्यवहार का हम अनुमान ही नहीं लगा पाते। दुनिया में सबसे अधिक अपूर्वानुमेय व्यवहार किसी प्राणी का है, तो वह इस छः फूट के मानव नाम के प्राणी का है। जानवरों का व्यवहार भी अधिकतम सीमा तक निर्धारित रहता है। कुत्ते को रोटी डालोगे तो वह स्नेह से पूँछ हिलाएगा, डण्डा दिखाओगे तो डरेगा, भौंकेगा, पर इस मनुष्य नामक प्राणी का तो पता ही नहीं चलता, जाने कब कौन-से पत्ते  फेंक दे? परन्तु ईश्वर हमेशा एकरस है, उसके नियम अटल हैं, वह पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक व्यवहार करता है, हर देश, काल व परिस्थिति में एक-सा ही रहता है। वस्तुतः वह ईश्वर ही हमारी मैत्री के सर्वाधिक लायक है।

यूँ ही काल की दृष्टि से देखें तो इस  लोक के सम्बन्ध- माता-पिता, भाई-बन्धु, गुरुजन- सभी इस जीवन तक ही सीमित हैं। हम समाप्त तो सब सम्बन्ध समाप्त, पर ईश्वर से हमारा सम्बन्ध तो अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहेगा। इस शरीर के छूटने के बाद भी- हमेशा। लोक में भी जो वस्तुएँ या सम्बन्ध या मैत्री लम्बे काल तक चलती हैं, उनको हम अच्छा समझते हैं, मूल्यवान समझते हैं। ओल्ड इज गोल्ड मानते हैं। इस दृष्टि से भी ईश्वर हमारी मैत्री के मापदण्डों पर पूर्णतया खरा उतरता है, इसलिए हमें उससे मित्रता बढ़ाने व बनाए रखने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

हमें समस्या कहाँ आती है? हम लोक के मित्रों व सम्बन्धों को तो समय देते हैं, पर ईश्वर के लिए समय निकालना हमें मुश्किल लगता है। इसका मुख्य कारण यह है कि हमें ईश्वर के मह       व का पता नहीं, इसलिए सन्ध्या व ध्यान के लिए समय निकालना अत्यन्त कठिन लगता है। रुचि नहीं बनती है। हमें अपने पिता जी की १-२ करोड़ की संपत्ति  नजर आती है। मित्रों की योग्यता, धन-वैभव, गुरुजनों का ज्ञान नजर आता है, परन्तु ईश्वर का परम ऐश्वर्य हमारी आँखों से प्रायः ओझल ही रहता है। यह विचार कर लें कि जो पिताओं का भी पिता है, गुरुओं का भी गुरु है, माताओं की भी माता है- वह कितना मह                    वपूर्ण, विशिष्ट, वरिष्ठ सहयोगी सिद्ध होगा।

दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें- अगर हम जरा-सा कुछ पिता जी के खिलाफ गए तो पिता जी जायदाद से बेदखल कर देंगे। कक्षा में अध्यापक की आज्ञा का उल्लंघन किया तो वे कक्षा से बाहर जाने को कह देंगे। संस्था के अधिकारी रुष्ठ हो गए तो वे संस्था से बाहर निकाल देंगे। एक क्षण के लिए विचार करें कि क्या ईश्वर कभी हमें अपने दायरे से बाहर निकाल सकता है? कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, क्योंकि वह सर्वव्यापक है, हर स्थान पर है। यहाँ से इस लोक से निकालेगा, तो दूसरे लोक में रख लेगा, लेकिन हमेशा अपने सान्निध्य में, अपने पास हमें रखेगा। क्या इस ईश्वरीय प्रेम के तुल्य कोई अन्य सांसारिक व्यक्ति का प्रेम हो सकता है? विचार करेंगे तो स्वयमेव ही उस परम सत्ता  के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, समर्पण व प्रेम का भाव उद्भूत हो जाएगा।

हम विकट-से-विकट परिस्थिति में डगमगाएँगे नहीं। एक बार समुद्र में कोई नवविवाहित जोड़ा नाव में बैठ कर जा रहा था। अन्य लोग भी नाव में सवार हो कर जा रहे थे। अचानक तूफान आया और नाव डगमगाने लगी। सभी लोग चिल्लाने लगे, परन्तु वह युवक प्रेम से ईश्वर का ध्यान करने लगा, ताकि अपने मन को विचलित होने से बचाकर अपनी सुरक्षा का समाधान ढूंढ सके। उसकी पत्नी ने पूछा कि सब लोग हाहाकार मचा रहे हैं और तुम ध्यान कर रहे हो? क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? तो उसने तत्काल पिस्तौल निकाल कर पत्नी की कनपटी पर रख दी। पत्नी मुस्कुराने लगी। युवक ने पूछा- क्या तुम्हें भय नहीं लग रहा? उसने कहा- नहीं। युवक ने पूछा- क्यों? पत्नी बोली- क्योंकि मैं जानती हूँ कि पिस्तौल मेरे प्रियतम के हाथ में है, वह मेरा नुकसान कर ही नहीं सकता। वह युवक बोला- ठीक इसी प्रकार यह नाव भी मेरे परमप्रिय मित्र, सखा ईश्वर के हाथ में है, जो उसको अभीष्ट मानकर करेगा, वही सुझाये हुए उपायों के  भय से रहित होगा। यह विश्वास तभी बनता है, जब हम ईश्वर की सत्ता  को सर्वव्यापक समझ लेते हैं-

आ गया तेरी शरण जब तो मुझे अब भय कहाँ?

मैं तेरा, किश्ती तेरी, साहिल तेरा, दरिया तेरा।

हमारी कमी, न्यूनता यहाँ रह जाती है, हम मानते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर ईश्वर की अनुभूति नहीं रख पाते हैं। यूँ कहें कि थ्योरी की परीक्षा में तो सफल हो जाते हैं पर प्रैक्टिकल की परीक्षा में या तो उपस्थित ही नहीं होते या होते हैं तो अनुत्तीर्ण  हो जाते हैं। हमें दोनों परीक्षाओं में पास होना है।

इसके लिए आवश्यक है कि जीवन जीते हुए, दिनचर्या करते हुए, हम अपने परम मित्र की याद बनाए रखें। हमें हर क्षण महसूस हो कि हमारा परमप्रिय मित्र साथ है-

नहीं कहता हूँ, दुनिया से जुदा हो।

मगर हर काम में यादे खुदा हो।।

हम जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति का चिन्तन करते हैं, उससे अनुराग हो ही जाता है या यूँ कहें कि जिस-जिस वस्तु या व्यक्ति से अनुराग होता है, उस-उस का चिन्तन करने से हमें सुख मिलता है, आनन्द मिलता है, तो क्यों न उस परम आनन्दमय, सुख के भण्डार हमारे परम मित्र का चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते चिन्तन किया जाए, उसको स्मरण में रखा जाए। इसको करने से दूसरा लाभ यह होगा कि हम गलत, बुरे कर्मों को करने से बच जाएँगे। जैसे अगर ट्रैफिक पुलिस वाला चौक में खड़ा हो तो हम लाल बत्ती  का उल्लंघन नहीं करते हैं, हमें डर, भय होता है- चालान काट दिए जाने का। ठीक उसी प्रकार हम दिनचर्या में चलते हुए भी नियमों को नहीं तोड़ेंगे, क्योंकि हमारा ट्रैफिक पुलिस वाला मित्र तो हर क्षण ड्यूटी पर तैनात है, कभी भी कहीं भी हमें अकेला नहीं छोड़ता। हाँ, हम उसे समझने महसूस करने में नाकाबिल साबित होते हैं-

दिलबर तेरा तेरे आगे खड़ा है,

मगर नुक्स तेरी नजर में पड़ा है।

बचपन से लेकर आज तक कई मित्र बनाए, कई छोड़े, कई मिले, कई बिछुड़े, आज से एक उसकी मैत्री को बनाने में लगें, जो न केवल मित्रता-दिवस पर हमें याद आए, परन्तु हमेशा के लिए हमारे साथ आत्मसात् हो जाए। हम अपने पक्ष को उस मैत्री के लिए योग्य सिद्ध करें, तभी हम इस मित्रता को सही ढंग से, प्रेम से, कृतज्ञता से निभा पाने में सफल हो पाएँगे।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर

नहीं बचेगा अत्याचारी – पं. नन्दलाल निर्भय भजनोपदेशक

सन्तों के लक्षण सुनों, आज लगाकर ध्यान।
ईश भक्त, धर्मात्मा, वेदों के विद्वान्।।
वेदों के विद्वान्, सदाचारी, गृहत्यागी।
धैर्यवान्,विनम्र,परोपकारी, वैरागी।।
सादा जीवन उच्च-विचारों के जो स्वामी।
वेदों का उपदेश करें, वे सन्त हैं नामी।।
जगत् गुरु दयानन्द थे, ईश्वर भक्त महान्।
दयासिन्धु धर्मात्मा, थे वैदिक विद्वान्।।
थे वैदिक विद्वान्, ब्रह्मचारी, तपधारी।
दुखियों के हमदर्द, सदाचारी, उपकारी।।
किया घोर विषपान, भयंकर कष्ट उठाया।
किया वेद प्रचार, सकल संसार जगाया।।
दयानन्द ऋषिराज का, जग पर है अहसान।
दोष लगाता था उन्हें, रामपाल शैतान।।
रामपाल शैतान, स्वयं बनता था ईश्वर।
करता था उत्पात, रात-दिन कामी पामर।।
बरवाला में किलानुमा, आश्रम बनाया।
उस पापी ने बड़ा-जुल्म प्रजा पर ढाया।।
उसके कुकर्म देखकर, जागे आर्य कुमार।
पोल खोल दी दुष्ट की, किया वेद प्रचार।।
किया वेद प्रचार, नहीं योद्धा दहलाए।
आचार्य बलदेव-तपस्वी आगे आए।।
किया गजब का काम, चलाया फिर आन्दोलन।
बन्द करो पाखण्ड दहाड़े मिल आर्य जन।
‘‘नन्दलाल’’ कह, नहीं बचेगा अत्याचारी।।
– ग्राम पत्रालय बहीन, जनपद पलवल (हरियाणा)

अग्निहोत्र का आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व – प्रो. डी.के. माहेश्वरी

पिछले अंक का शेष भाग…..

मीठे पदार्थ

शक्कर, सूखे अंगूर, शहद, छुआरा आदि भी यज्ञ के समय प्रयोग होते हैं। आजकल हवन सामग्री एक कच्चे पाउडर के रूप में बाजार में आसानी से उपलब्ध  है जो निम्न पदार्थों से निर्मित की जाती है- चन्दन तथा देवदार की लकड़ी का बुरादा, अगर और तगर की लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़े, कपूर-कचरी, गुग्गुल, नागर मोथा, बलछार, जटामासी, सुगन्धवाला, लौंग, इलायची, दालचीनी, जायफल आदि। आजकल विभिन्न संस्थान हवन सामग्री निर्मित कर रहे हैं, जिनमें ये सभी पदार्थ एक अलग अनुपात में होते हैं।

यज्ञ के चिकित्सीय पहलू

प्राचीन समय से आयुर्वेदिक पौधों के धुएँ का प्रयोग मनुष्य विभिन्न प्रकार की बीमारियों से निदान पाने के लिए करते आ रहे हैं। यज्ञ से उत्पन्न धुएँ को खाँसी, जुकाम, जलन, सूजन आदि बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। मध्यकालीन युग में प्लेग जैसी घातक बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए धूप, जड़ी-बूटी तथा सुगन्धित पदार्थों का धूम्रीकरण किया जाता था।

यज्ञ द्वारा प्राप्त हुई रोगनाशक उत्तम  औषधियों की सुगन्ध प्राणवायु द्वारा सीधे हमारे रक्त को प्रभावित कर शरीर के समस्त रोगों को नष्ट कर देती है तथा हमें स्वस्थ और सबल बनाती है। तपेदिक का रोगी भी यदि यक्ष्मानाशक औषधियों से प्रतिदिन यज्ञ करे तो औषधि सेवन की अपेक्षा बहुत जल्दी ठीक हो सकता है। वेदों में कहा गया है- हे मनुष्य! मैं तेरे जीवन को स्वस्थ, निरोग तथा सुखमय बनाने के लिए तेरे शरीर में जो गुप्त रूप से छिपे रोग है, उनसे और राजयक्ष्मा (तपेदिक) जैसे असाध्य रोग से भी यज्ञ की हवियों से छुड़ाता हूँ। विभिन्न रोगों की औषधियों द्वारा किया हुआ यज्ञ जहाँ उन औषधियों की रोग नाशक सुगन्ध नासिका तथ रोम कूपों द्वारा सारे शरीर में पहुँचाता है, वहाँ यही यज्ञ, यज्ञ के पश्चात् यज्ञशेष को प्रसाद रूप में खिलाकर औषध सेवन का भी काम करता है। इससे रोग के कीटाणु बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं। वेदों में कहा गया है कि-

हे मनुष्य! यह यज्ञ में प्रदान की हुई रोगनाशक हवि तेरे रोगोत्पादक  कीटाणुओं को तेरे शरीर में से सदा के लिए बाहर निकाल दे अर्थात् यज्ञ की रोगनाशक गन्ध शरीर में प्रविष्ट होकर रोग के कीटाणुओं के विरुद्ध अपना कार्य कर उन्हें नष्ट कर देती है।

अग्निहोत्र से पौधों को पोषण मिलता है, जिससे उनकी आयु में वृद्धि होती है। अग्निहोत्र जल के स्रोतों को भी शुद्ध करता है। यज्ञ के उपरान्त वायु में धूम्रीकरण के प्रभाव को वैज्ञानिक रूप से सत्यापित करने के लिए डॉ. सी. एस. नौटियाल, निदेशक, सी.आई.आर.-राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ व अन्य शोधकर्ताओं  ने वायु प्रतिचयन यन्त्र का प्रयोग किया। उन्होंने यज्ञ से पूर्व वायु का नमूना लिया तथा यज्ञ के उपरान्त एक निश्चित अन्तराल में २४ घण्टे तक वायु का नमूना लिया और पाया कि यज्ञ के उपरान्त वायु में उपस्थित वायुजनित जीवाणुओं की संख्या कम थी। कुछ आँकड़ों के अनुसार, औषधीय धुएँ से ६० मिनट में ९४ प्रतिशत वायु में उपस्थित जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। सुगन्धित और औषधीय धुएँ से अनेक पौधों के रोग जनक जीवाणु, जैसे बरखोलडेरिया ग्लूमी जो चावल में सीडलींग रॉट (Seedling rot of rice), कटोबैक्टीरियम लैक्युमफेशियन्स जो फलियों में विल्टिंग (Wilting in beans), स्यूडोमोनास सीरिन्जी जो आडू में नैक्रोसिस (Necrosis of peach tree tissue), जैन्थोमोनास कम्पैस्ट्रिस जो क्रूसीफर्स में       लैक रॉट (Black rot in crueifers) करते हैं, आदि को नष्ट किया जा सकता है।

वायुजनित प्रसारण रोग के संक्रमण का एक मुख्य मार्ग है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O. 2004) के अनुसार, विश्व में ५७ लाख मृत्यु में से १५ लाख (>२५त्न) वायुजनित संक्रमित रोगों के कारण होती है। औषधीय धुएँ से मनुष्य में रोग फैलाने वाले रोगजनक जीवाणुओं जैसे-कॉर्नीबैक्टीरियम यूरीलाइटिकम जो यूरीनरी ट्रैक्ट इन्फैक्शन, कॉकूरिया रोजिया जो कैथेटर रिलेटिड बैक्टीरीमिया, स्टेफाइलोकोकस लैन्टस जो स्प्लीनिक ऐ  सेस स्टेफाइलोकोकस जाइलोसस जो एक्यूट पॉलीनैफ्रिइटिस ऐन्टेरोबैक्टर ऐयरोजन्स जो नोजोकॉमियल इन्फैक्षन करते हैं आदि को नष्ट किया जा सकता है। सुगन्धित तथा औषधीय धुएँ का प्रयोग त्वचा सम्बन्धी तथा मूत्र-तन्त्र सम्बन्धी विकारों को दूर करने में भी किया जाता है। धुएँ के प्रश्वसन से (Inhalation) फुफ्फुसीय और तन्त्रिका सम्बन्धी विकार दूर हो जाते हैं।

औषधीय धुएँ का बीजांकुरण में मह                          व

एक दिलचस्प खोज में पता चला है कि प्रकृति में धुँआ बीज अंकुरण को उत्तेजित  करता है। विभिन्न प्रकार के कार्बनिक पदार्थों का १८०-२००ष्ट सेल्सियस तापमान पर दहन एक अधिक सक्रिय, ऊष्मीय रूप से स्थिर 3-methy1-2H-furo[2,3-C] pyron-2-one यौगिक बनाता है जो कि बीज अंकुरण को उत्तेजित करता है। धुएँ से अंकुरित पौधों की भी वृद्धि होती है, क्योंकि धुँआ बीज और अंकुरित पौधों को सूक्ष्मजीवी के आक्रमण से बचाता है, जिससे पौधे निरोगी तथा हृष्ट-पुष्ट रहते हैं।

यज्ञ के भौतिकीय पहलू

भौतिक संसार में ऊर्जा की दो प्रणालियाँ ऊष्मा और ध्वनि हैं। यज्ञ के दौरान ये दोनों ऊर्जाएँ (यज्ञ से उत्पन्न होने वाली अग्नि और गायत्री तथा अन्य मन्त्रों द्वारा उत्पन्न ध्वनि) मिलकर हमारी वांछित शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक इच्छाओं को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करती है। यज्ञ की अग्नि में जो विशेष पदार्थ आहुत किये जाते हैं, उन्हें अग्नि में आहुत करने का एक वैज्ञानिक आधार है। वैज्ञानिकों का दृष्टिकोण है कि मन्त्रों द्वारा उत्पन्न विद्युत-चुम्बकीय तरंगें हमारी आत्मिक इच्छाओं को लौकिक स्तर पर प्रसारित करने में मदद करती है।

यज्ञ में दहन के उत्पाद से सम्बन्धित अभी तक कुछ वैज्ञानिक पहेलियाँ अनसुलझी हुई हैं, जैसे-भौतिक विज्ञान के सन्दर्भ में यज्ञ में दहन प्रक्रिया की व्याख्या करना कठिन है, जिसके निम्न कारण हैं-

* यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थों के गुण भिन्न-भिन्न होते हैं।

* जिन स्थितियों में यज्ञ होता है, वह अनिश्चित होती हैं।

पदार्थों का दहन निम्न कारकों पर निर्भर करता है-

* दहन में प्रयोग किये गये पदार्थों की प्रकृति और उनका अनुपात।

* तापमान।

* वायु की नियन्त्रित आपूर्ति

* निर्मित हुए पदार्थों के बीच आकर्षण।

यज्ञ की प्रक्रिया में औषधीय व सुगन्धित पदार्थों का वाष्पीकरण

पौधों (लकड़ी) के अन्दर प्रचुर मात्रा में सेलुलोज होता है, जिसका पूर्ण दहन होने से पहले इसका वाष्पीकरण होता है। अग्निकुण्ड में जिस प्रकार से समिधाओं को व्यवस्थित किया जाता है, उस पर अग्निकुण्ड का तापमान और वायु की आपूर्ति निर्भर करती है। अग्निकुण्ड का तापमान सामान्यतः २५० सेल्सियस से ६०० सेल्सियस तक होता है, जबकि इसकी ज्वाला का तापमान १२०० सेल्सियस से १५०० सेल्सियस तक होता है। यह तापमान यज्ञ में प्रयुक्त होने वाले मुख्यतः सभी वाष्पीय पदार्थों का वाष्पीकरण करने में सक्षम होता है। जब सेलुलोज व अन्य पदार्थों, जैसे कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन आदि का दहन किया जाता है तो पर्याप्त मात्रा में वाष्प उत्पन्न होती है, जिसमें हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बनिक पदार्थों का मिश्रण होता है, जिसमें ठोस कण अत्यधिक विभाजित अवस्था में होते हैं, जो यान्त्रिक प्रसार के लिए पर्याप्त सतह प्रदान कराते हैं। इस प्रकार धुआँ कोलॉइडल कणों के रूप में कार्य करता है, जो सुगन्धित पदार्थों को वायु के तापमान और दिशा के आधार पर प्रसारित करने का कार्य करता है। कोई भी पदार्थ जलकर गैस रूप में असंख्य गुना व्यापक हो जाता है। यह बात वैज्ञानिक रूप में भी सिद्ध हो चुकी है। १९६६ में आयोजित कैलिफोर्निया यूनीवर्सिटी की एक गोष्ठी में वैज्ञानिकों ने माना कि अग्नि में किसी भी हव्य को ‘ऑक्सीकृत’ कर अनन्त आकाश में पहुँचा देने की क्षमता है।

वसायुक्त पदार्थों का दहन

यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाले पदार्थ मुख्य रूप से घी तथा वनस्पति मूल के अन्य वसायुक्त पदार्थ हैं। घी, लकड़ी के तीव्र दहन में मुख्य सहायक है। सभी वसायुक्त पदार्थ फैटी एसिड (वसीय अम्ल) के संयोजन से बने होते हैं, जो आसानी से वाष्प में परिवर्तित हो जाते हैं। ग्लिसरॅाल के दहन से ऐसीटोन निकाय, पायरुविक ऐल्डिहाइड, ग्लायऑक्जल आदि बनते हैं। इन प्रक्रियाओं में उत्पादित हाइड्रोकार्बन पुनः धीमे दहन से गुजरते हैं, जिसके फलस्वरूप मिथाइल और इथाइल एल्कोहॉल, फॉर्मेल्डिहाइड, एसिटेल्डिहाइड, फॉर्मिक एसिड, ऐसिटिक एसिड आदि का निर्माण होता है।

प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया

जब सभी वाष्पशील पदार्थ वातावरण में दूर तक फैल जाते हैं, तब यह प्रक्रिया प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया कहलाती है, जो सूर्य की किरणों की उपस्थिति में होती है। ऋषि-मुनियों ने इसी कारण यज्ञ को बाहर खुले में अर्थात् धूप में करने को प्राथमिकता दी है। इस प्रकार धूम्रीकरण से उत्पन्न उत्पाद ऑक्सीकरण, अपचयन व प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया में जाते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड के अपचयन के बाद फॉर्मेल्डिहाइड का निर्माण होता है, जिसे निम्नलिखित रासायनिक क्रिया से दर्शाया गया है-

CO2+H2O+112,000 Cal=HCHO+O2

जैसा कि विदित है, फॉल्डिहाइड वातावरण में उपस्थित हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट करता है, इसी प्रकार यज्ञ से उत्पन्न हुए अन्य पदार्थ, जैसे फॉर्मिक अम्ल व एसिटिक अम्ल भी अच्छे रोगाणुरोधक का कार्य करते हैं। प्रकाश रासायनिक प्रक्रिया के अन्तर्गत कार्बन डाइऑक्साइड की सान्द्रता में कमी व ऑक्सीजन की सान्द्रता में वृद्धि होती है, यही कारण है कि यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध हो जाता है।

यज्ञ में जो धूम्रीकारक पदार्थ प्रयोग में लाये जाते हैं, उनके धूम्रीकरण से कुछ प्रभाव कीट-पतंगों पर भी पड़ता है। जैसे- कपूर के धूम्रीकरण से कीट-पतंगे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वाष्पशील पदार्थों के धुएँ के सम्पर्क में आने से अनेक घातक कीट भी नष्ट हो जाते हैं।

आजकल औषधीय धुएँ का उपयोग विज्ञान की अनेक शाखाओं जैसे-कृषि, खरपतवार नियन्त्रण, उद्यान-कृषि, पारिस्थितिक प्रबन्धन, प्राकृतिक वास नवीनीकरण आदि में किया जा रहा है। इस लेख में वायुवाहित जीवाणुओं पर प्राकृतिक उत्पादों के धुएँ के पुराऔषध गुण सम्बन्धी दृष्टिकोण के मह                  व और व्यापक विश्लेषण तथा वैज्ञानिक पुष्टीकरण को दर्शाया गया है, अतः आधुनिक युग में औषधीय वायु एवं धुएँ के मह   व को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि अगर हम प्रदूषण मुक्त और रोगमुक्त जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो हमें अग्निहोत्र का अपने दैनिक कार्यों में समावेश करना होगा तथा यज्ञ से हम समस्त सुख, समृद्धि एवं शान्ति को प्राप्त कर सकते हैं।

(लेखक का ऐसा मानना है।)

विज्ञान प्रगति से साभारः

सम्पर्क सूत्रः– पूर्व डीन, फैकल्टी ऑफ लाइफ सांइसेज डिपार्टमेंट ऑफ बॉटनी एण्ड माइक्रोबायोलॉजी, गुरुकुल कांगड़ी यूनीवर्सिटी, हरिद्वार-२४९४०४ (उत्तराखण्ड )

मो.: ०९८३७३०८८९७

वह विछोना वही ओढ़ना है- – पं. संजीव आर्य

आओ साथी बनाएँ भगवान को।
वही दूर करेगा अज्ञान को।।
कोई उसके समान नहीं है
और उससे महान नहीं है
सुख देता वो हर इंसान को।।
वह बिछोना वही ओढ़ना है
उसका आँचल नहीं छोड़ना है
ध्यान सबका है करुणा निधान को।।
दूर मंजिल कठिन रास्ते हैं
कोई साथी हो सब चाहते हैं
चुनें उससे महाबलवान को।।
सत्य श्री से सुसज्जित करेगा
सारे जग में प्रतिष्ठित करेगा
बस करते रहें गुणगान को।।
रूप ईश्वर के हम गीत गाए
दुर्व्यसन दुःख दुर्गुण मिटाएँ
तभी पाएँगे सुख की खान को।।
– गुधनीं, बदायुँ, उ.प्र.

भगवानों की सूची जारी करोः- प्रा राजेन्द्र जिज्ञासु

राजनेताओं की धार्मिकता व भक्ति भावना देख-देख कर आश्चर्य होता है। लोकसभा के चुनाव के दिनों काशी में गंगा स्नान और गंगा जी की आरती की प्रतियोगिता देखी गई। केजरीवाल भी धर्मात्मा बनकर साथियों सहित गंगा में डुबकियाँ लगाते हुए मोदी को गंगा की आरती में सम्मिलित होने के लिए ललकार रहा था। अजमेर की कबर-यात्रा पर एक-एक करके कई नेता पहुँचे। चुनाव समाप्त होते ही दिग्विजय के गुरु स्वरूपानन्द जी ने साई बाबा भगवान् का विवाद छेड़ दिया। सन्तों का सम्मेलन होने लगा। स्वरूपानन्द जी संघ परिवार विरोधी माने जाते हैं। इन्हें हिन्दू हितों का ध्यान आ गया। हिन्दुओं को जोड़ने व हिन्दुओं की रक्षा के लिए कभी कोई आन्दोलन छेड़ा?

क्या ब्राह्मणेतर कुल में जन्मे किसी व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी  बनाने का साहस आप में है? क्या दलित वर्ग में जन्मे किसी भक्त से जल लेकर आचमन कर सकते हैं?

हिन्दुओं के कितने भगवान् हैं? यह उमा जी ने चर्चा छेड़ी है। संघ परिवार को और स्वरूपानन्द जी को हिन्दुओं के भगवानों की अपनी-अपनी सूची जारी करनी चाहिये। यह भी बताना होगा कि भगवान् एक है या अनेक? भगवानों की संख्या निश्चित है या घटती-बढ़ती रहती है। अमरनाथ यात्रा वाले अब लिंग की बजाय ‘बर्फानी बाबा’ का शोर मचाने लगे हैं। यात्री बम-बम भोले रटते हुए ‘ऊपर वाले’ की दुहाई देते हैं। क्या भगवान् सर्वत्र नहीं? ऊपर ही है? यह संघ व स्वरूपानन्द जी को स्पष्ट करना चाहिये। अमरनाथ यात्री टी.वी. में बता रहे थे कि ऊपर वाले की कृपा से हमें कुछ नहीं होगा। यदि भगवान् ऊपर ही है तो ‘ईशावास्य’ यह ऋचा ही मिथ्या हो गई। प्रभु कण-कण में है- यह मान्यता निरर्थक हो गई। हिन्दुओं को हिन्दू साधु, आचार्य, सन्त भ्रमित कर रहे हैं। धर्म रक्षा व धर्म प्रचार कैसे हो? एकता का कोई सूत्र तो हो।

मन्नतें पूरी होती हैंः साई बाबा विवाद में उमा जी ने यह भी कहा है कि अनेक भक्तों की मन्नतें साई बाबा ने पूरी कीं। मन्नतें पूरी करने वाले देश में सैकड़ों ठिकाने हैं। उमा जी जैसे भक्तों को राम मन्दिर निर्माण, कश्मीर के हिन्दुओं का पुनर्वास, धारा ३७०, निर्धनता निवारण, आतंकवाद से छुटकारे के लिए मन्नत माँग कर देश में सुख चैन का युग लाना चाहिए।

मन्नतों का अन्धविश्वास फैलाकर देश को डुबोया जा रहा है। केदारनाथ, बद्रीनाथ यात्रा की त्रासदी को कौन भूल सकता है? मन्नतें माँगने गये सैकड़ों भक्त जीवित घरों को नहीं लौटे। कई भगवान् बाढ़ में बह गये। इससे क्या सीखा? आँखें फिर भी न खुलीं।

भावुकता से अन्धे होकरः जामपुर (पश्चिमी पंजाब) में एक आर्य कन्या ने आर्यसमाज के सत्संग में एक कविता सुनाई। उसकी एक पंक्ति थी-

मेरी मिट्टी से बूये वफ़ा आयेगी।

अर्थात् मरने के पश्चात् मेरी कबर से निष्ठा की गन्ध आयेगी। पं. चमूपति जी ने वहीं बोलते हुए कहा, क्या शिक्षा दे रहे हो? क्या मेरी यह पुत्री मुसलमान के रूप में मरना चाहती है? चिता की, दाहकर्म की बजाय कबर की बात जो कर रही है। बोलते और लिखते समय अन्धविश्वास तथा भ्रामक विचार फैलाने से बचने के लिए सद्ग्रन्थों के आधार पर ही कुछ लिखना-बोलना चाहिए।

आर्यसमाज की हानिः संघ का गुरु दक्षिणा उत्सव था। संघ वाले स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी के पास अपने कार्यक्रम की अध्यक्षता करने का प्रस्ताव लेकर आये। लोकैषणा से कोसों दूर महाराज ने यह कहकर उनकी विनती ठुकरा दी कि इसमें आर्यसमाज की हानि है।

उन्होंने पूछा, ‘क्या हानि है?’

स्वामी जी ने कहा, ‘मेरी अध्यक्षता में आप जड़ पूजा करेंगे। झण्डे को गुरु मानकर दक्षिणा चढ़ायेंगे, इससे आर्यसमाज में क्या सन्देश जायेगा?’

आर्यसमाज अपनी मर्यादा, अपने इतिहास को भूलकर योगेश्वर नामधारी थोथेश्वरों को अपना पथ प्रदर्शक मानकर भटक रहा है। एक योग गुरु ने मिर्जापुर में मजार पर चादर चढ़ाई। कोई गंगा की आरती उतार रहा है तो कोई म.प्र. जाकर मूर्ति पर जल चढ़ा रहा है।

ऋषि ने लिखा है, उसी की उपासना करनी योग्य है। यही वेदादेश है।

 

 

महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह- प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

राव बहादुरसिंह मसूदा-इतिहास के लुप्त पृष्ठः-

महर्षि दयानन्द जी की जीवनी लिखने वाले पुराने विद्वान् लेखकों ने मसूदा राजस्थान के राव बहादुरसिंह जी की अच्छी चर्चा की है, परन्तु उन पर कुछ विशेष खोज करने का उद्यम न तो मसूदा के किसी गवेषक ने किया और न ही राजस्थान के आर्यों ने राव जी की ठोस सेवाओं तथा व्यक्तित्व के अनुरूप ही करणीय पुरुषार्थ किया। वास्तव में ऐसे कार्य धन से ही नहीं होते। इनके लिए पण्डित लेखराम की आग, स्वामी स्वतन्त्रानन्द की ललक और इतिहासकार पं. विष्णुदत्त  जैसी लगन चाहिए। हमने राव बहादुरसिंह की विशेष देन तथा आर्यसमाज के इतिहास में उनके स्थान का नये सिरे से मूल्याङ्कन करके ऋषि जीवन तथा ‘परोपकारी’ पाक्षिक में कुछ नया प्रकाश डाला है।
हमारी खोज अभी जारी है। महर्षि के मिशन के सबसे पहले ब्राह्मणेतर शास्त्रार्थ महारथी राव बहादुरसिंह थे। परोपकारिणी सभा के निर्माण, दयानन्द आश्रम आदि की स्थापना तथा सभा के आरम्भिक काल के उत्सवों के आयोजन में आपने दिल खोलकर दान दिया। आपके दान से परोपकारिणी सभा तथा राजस्थान का आर्यसमाज ही लाभान्वित नहीं हुआ, वरन अन्य-अन्य प्रदेशों के समाजों व संस्थाओं को भी आपने उदारतापूर्वक दान दिया-
१. देशहितैषी मासिक को उस युग में ६५/- रु. दान दिये।
२. आर्यसमाज मन्दिर अजमेर के लिये ४००/- रु. प्रदान किये।
३. आर्य अनाथालय फीरोजपुर को १५०/- रु. दिये।
४. फर्रुखाबाद की पाठशाला के लिए १००/- रु. दिये।
५. आर्यसमाज शिमला (हिमाचल) के मन्दिर निर्माण के लिए ५०/- रु. दिये।
६. स्वामी आत्मानन्द जी को उस युग में १००/- रु. भेंट किये।
उनके एक और बड़े दान की फिर चर्चा की जायेगी। जब दयानन्द आश्रम की स्थापना के उत्सव पर देशभर से भारी संख्या में आर्यगण पधारे, तब एक समय के भोजन का सब व्यय आपने दिया था।

बाइबल में परिवर्तन – राजेन्द्र जिज्ञासु

सत्यार्थप्रकाश की वैचारिक क्रान्तिःभले ही ईसाई मत, इस्लाम व अन्य-अन्य वेद विरोधी मतों की सर्विस के लिए कुछ व्यक्ति आर्यसमाज का विध्वंस करने के लिए सब पापड़ बेल रहे हैं, परन्तु महर्षि दयानन्द का अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश निरन्तर अन्धकार का निवारण करके ज्ञान उजाला देकर वैचारिक क्रान्ति कर रहा है। पुराने आर्य विद्वान् अपने अनुकूल व प्रतिकूल प्रत्येक लेख व कथन पर ध्यान देते थे। अब वर्ष में एक बार जलसा करवाकर संस्थाओं की तृप्ति हो जाती है। ऋषि जीवन व ऋषि मिशन विषयक खोज में उनकी रुचि ही नहीं।

लीजिये संक्षेप में वैचारिक क्रान्ति के कुछ उदाहरण यहाँ देते हैंः-

पहले बाइबिल का आरम्भ इन शब्दों से होता थाः-

१. “In the beginning God created the heaven and the earth. And the earth was waste and void, and the darkness was upon the face of the deep and the spirit of god moved upon the face of the waters.”

अब ऋषि की समीक्षा का चमत्कार देखिये। अब ये दो आयतें इस प्रकार से छपने लगी हैंः-

“In the beginning God created the heavens and the earth. Now the earth was formless and empty, darkness was over the surface of the deep, and the spirit of god was hovering over the waters.”

प्रबुद्ध विद्वान् इस परिवर्तन पर गम्भीरता से विचार करें। हम आज इस परिवर्तन की समीक्षा नहीं स्वागत ही करते हैं। इस अदल-बदल से ऋषि की समीक्षा सार्थक ही हो रही है, क्या हुआ जो (पोल) से आपका पिण्ड ऋषि ने छुड़ा दिया। ऋषि का प्रश्न तो ज्यों का त्यों बना हुआ है।

“And God said, Behold, I have given you every herb yelding seed, which is upon the face of all the earth, and every tree, in which is the fruit of a tree yielding seed; to you it shall be for meat: and to every beast of the earth, and to every fowl of the air and to every thing that creepth upon the earth, wherein there is life, I have given every herb for meat: and it was so.”

पाठकवृन्द! यह बाइबिल की उत्पत्ति की पुस्तक के प्रथम अध्याय की आयत संख्या २९, ३० हैं। सत्यार्थप्रकाश के प्रकाश में हमारे विद्वान् मास्टर आत्माराम आदि इनकी चर्चा शास्त्रार्थों में करते आये हैं। अब ये आयतें अपने नये स्वरूप में ऐसे हैं। इन पर विचार कीजियेः-

Then God said, “I give you every seed-bearing plant on the face of the whole earth and every tree that has fruit with seed in it. They will be yours for food. And to all the beasts of the earth and all the birds in the sky and all the creatures that move on the ground-everything that has the breath of life in it- I give every green plant for food.”

ये दोनों अवतरण बाइबिल के हैं। दोनों का मिलान करके देखिये कि सत्यार्थप्रकाश की वैचारिक क्रान्ति के कितने दूरगामी परिणाम निकले हैं। हम इस नये परिवर्तन, संशोधन की क्या समीक्षा करें? हम हृदय से इस वैचारिक क्रान्ति का स्वागत करते हैं। ऋषि की कृपा से ईसाइयत के माथे से मांस का कलंक धुल गया। मांसाहार का स्थान शाकाहार को दे दिया गया है। मनुष्य का भोजन अन्न, फल और दूध को स्वीकार किया गया है। यह मनुजता की विजय है। यह सत्य की विजय है। यह ईश्वर के नित्य अनादि सिद्धान्तों की विजय है। यह क्रूरता, हिंसा की पराजय है। यह विश्व शान्ति का ईश्वरीय मार्ग है। बाइबिल के इस वैदिक रंग पर सब ईसाई बन्धुओं को हमारी बधाई स्वीकार हो।

अल्लाह की रजिस्टर्ड डाक गुम – प्रा राजेंद्र जिज्ञासु

महर्षि दयानन्द ने प्रबल युक्तियों से यह सिध्ध किया है कि ईश्वर के गुण कर्म व स्वभाव नहीं बदलते. ईश्वर नित्य है उसका ज्ञान भी नित्य है . महर्षि के इस कालजयी ग्रन्थ व उनकी समीक्षाओं का ही यह प्रभाव है की मौलाना अख़लाक़ हुसैन जी ने अपनी पुस्तक “ वैदिक धर्म और इस्लाम “ में एक से अधिक बार वेद को ईश्वर प्रदत्त ज्ञान स्वीकार किया है . यह भी लिखा है कि वेद का आविर्भाव सृष्टि के आदि में हुआ . आपने चारों वेदों के नाम भी इस पुस्तक में दिए हैं और जिन चार ऋषियों की ह्रदय गुहा में एक एक वेद का प्रकाश हुआ मौलाना ने उनके नाम भी ठीक ठीक दिए हैं . इस्लामी साहित्य से वेद के ईश्वरीय ज्ञान होने के आपने कई प्रमाण दिए हैं . उक्त पुस्तक में एक से अधिक बार आपने वेद को ईश्वरीय वाणी लिखा है .

हम डॉ जेलानी की पुस्तक से ये प्रमाण दे चुके हैं कि धर्म अनादि होता है और समय समय पर धर्म ( ईश्वरीय ज्ञान ) नहीं बदलता . ये स्वस्थ चिंतन सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं का स्पष्ट व ठोस प्रभाव है . अब तक जो कुरान की भाषा व शैली लालित्य को उसके ईश्वरीय ज्ञान होने का प्रमाण माना जाता रहा था . उसे तो सर सैयद अहमद खां व मौलाना शिबली आदि कई मुसलिम विचारकों ने ही नकार दिया . महर्षि दयानन्द जी ने ही फैजी के बेनुक्त ( बिना बिंदु के ) कुरान की अनुपमता का उदहारण दे कर मुसलमानों के इस कथन कोई चुनौती दी थी . प्रत्येक भाषा में ऐसे ग्रन्थ मिलते हैं जिनकी अपनी अपनी विशिष्ठता होती है .

मुसलमान कुरान से पहले मध्य एशिया के सभी ग्रंथों यथा बाइबल आदि को निरस्त हो चुकी बताते रहे हैं . अल्लाह ने एक के पश्चात् अपनी दूसरी पुस्तक को निरस्त करते हुए अन्त में कुरान प्रदान किया . यह अल्लाह का अंतिम ज्ञान ग्रन्थ है और मुहम्मद अंतिम नबी है . पहले के ग्रंथों में हटावत मिलावट हुयी यह कहा जाता है . पहली पुस्तकों में यदि परिवर्तन हुआ है तो इसके लिए दोषी कौन ? पण्डित चमूपति का कथन यथार्थ है कि दोषी मनुष्यों अथवा अल्लाह मियां को मानना पड़ेगा.

वे ग्रन्थ अल्लाह की ही देन थे. पण्डित चमूपति जी ने प्रश्न उठाया है कि यदि पहले के ग्रंथों में गड़बड़ हो गई तो कुरान कैसे बचा रहा या बचा रहेगा ? अल्लाह भी वही है और मनुष्य भी वही हैं . समय पाकर किसका स्वभाव बदल गया ? या तो अल्लाह मियां के ज्ञान में दोष मानना पड़ेगा अथवा उसकी भावना सदाशय समय पाकर दोषयुक्त सिद्ध हुयी ?

शिया मित्रों की मान्यता है की जो कुरान हजरत मुहम्मद पर नाजिल हुआ था उसकी आयतों की संख्या १७००० थी और वर्तमान कुरान की आयतों की संख्या के बारे भी भिन्न भिन्न मत हैं . मुख्य रूप से कुछ विद्वान ६३५६ आयतें मानते हैं और कुछ भाई ६२३६ आयतें बताते हैं . इसका तो सीधा सीधा अर्थ यही हुआ कि कुरान का २/३ भाग गुम कर दिया गया है .

दो तिहाई कुरान गुम

केवल एक तिहाई कुरान बच पाया . अल्लाह ने इसकी रक्षा का दायित्व लिया था . अच्छा दायित्व निभाया ! कुरान में इतनी गड़बड़ हो गई और मुसलमान चुप बैठे हैं . हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं . सत्यार्थ प्रकाश की समीक्षाओं के विरुद्ध इनकी लेखनी व वाणी दोनों चलती रहती हैं , परन्तु दो तिहाई कुरान देखते देखते उड़ा दिया गया .

“हक प्रकाश “ में तो यह दावा किया गया कि कुरान शरीफ रजिस्टर्ड डाक समान सुरक्षित व व्यवस्थित हो गया है . नई नई युक्तियाँ व नये नये दृष्टान्त घड़ने में तो मौलवियों ने प्रशंसनीय पुरुषार्थ किया है . पुरुषार्थ में क्या कमी छोडी ? परन्तु रजिस्टर्ड डाक की क्या दुर्दशा हुयी यह मौलाना मुहम्मद मंजूर जी की पुस्तक का प्रमाण देकर हमने ऊपर बता दिया है .

स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूढोऽभिनिवेशः-९ – स्वामी विष्वङ्

 

क्लेशों के पाँच विभागों में से चार विभागों (अविद्या, अस्मिता, राग और द्वेष) की परिभाषाएँ बताकर महर्षि पतञ्जलि अन्तिम पाँचवें विभाग की चर्चा प्रस्तुत सूत्र में कर रहे हैं। महर्षि कहते हैं- प्रवाह (परम्परा) से चला आ रहा, यह मृत्यु का डर सर्वसाधारण मनुष्यों में तो रहता ही है, परन्तु विद्वानों में भी निरन्तर बना रहता है। इस मृत्युभय को ही अभिनिवेश नाम से कहा जाता है। यहाँ महर्षि ने ‘स्वरसवाही’ शब्द का प्रयोग किया है। स्वरस का अभिप्राय है- स्वभाव और वाही का अभिप्राय बनाये रखना, इस प्रकार स्वभाव को बनाया रखना अर्थ प्रकट होता है। स्वभाव दो प्रकार का होता है- एक नित्य स्वभाव और दूसरा अनित्य स्वभाव। यहाँ अनित्य स्वभाव को लिया गया है और यह अनित्य स्वभाव परम्परा से निरन्तर चला आ रहा है। इस कारण इसे प्रवाह से अनादि कहते हैं। यह मृत्युभय प्रवाह से-अनादि काल से निरन्तर चला आ रहा है और यह भय प्राणिमात्र को होता है। चाहे वह भय पशु, पक्षी, कीट-पतंगादि को होता हो, चाहे साधारण-से-साधारण मनुष्य को होता हो। मनुष्येतर प्राणियों को मृत्यु का भय होना और साधारण मनुष्यों को भी होना कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं है, परन्तु जो पण्डित-विद्वान् हैं, शास्त्रों को आदि से अन्त तक जानने वाले हैं, उन्हें बोध रहता है कि जो जन्म लेता है, वह मरता (शरीर त्याग करता) भी है। इतना सब कुछ जानने के पश्चात् भी अज्ञानियों के समान मृत्यु से घबराते-डरते हैं। इसी डर-भय को महर्षि ने अभिनिवेश नाम से कथन किया है।

प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए महर्षि वेदव्यास लिखते हैं-

सर्वस्य प्राणिन इयमात्माशीर्नित्या भवति,

मा न भूवं भूयासमिति।

अर्थात् प्रत्येक प्राणि को अपनी आत्मा के विषय में अभिलाषा होती है कि ‘मैं सदा ऐसा ही बना रहूँ, ऐसा कभी न हो कि मैं न रहूँ।’ ऐसी अभिलाषा नित्य होती है अर्थात् जब-जब आत्मा शरीर धारण करता है तब-तब आत्मा को ऐसा ही अनुभव होता है, इसलिए इसे सदा रहने वाली अभिलाषा कहा जाता है। इस कारण मनुष्य मृत्युभय को लेकर सदा सतर्क और सावधान रहता है। मनुष्य में एक स्वभाव है कि वह किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति आकर्षण रखता है या विकर्षण (अलगाव) रखता है। यह तब होता है, जब उसने, उस व्यक्ति या वस्तु का पहले अनुभव किया हो। यदि ऐसा नहीं है, अर्थात् पहले अनुभव नहीं किया, परन्तु आकर्षण या विकर्षण हो रहा है, ऐसा कभी सम्भव नहीं हो सकता, इसलिए महर्षि ने कहा है-

न चाननुभूतमरणधर्मकस्यैषा भवत्यात्माशीः।

अर्थात् जिस मनुष्य ने पूर्व जन्म में मृत्यु क्रिया का अनुभव न किया हो, उसकी यह आत्मा-सम्बन्धी अभिलाषा नहीं हो सकती। किसी भी आत्मा ने मरने के कष्ट का अनुभव कभी किया ही न हो, तो भला वह मरने से निरन्तर क्यों डरेगा? इससे यह स्पष्ट होता है कि-

एतया च पूर्वजन्मानुभवः प्रतीयते।

अर्थात् इसी अभिलाषा के कारण से पूर्व जन्म में अनुभव किये मरण दुःख का अनुभव इस वर्तमान जन्म में भी हो रहा है, ऐसी स्पष्ट प्रतीति होती है। वही यह मृत्युभय अपने संस्कारों के रूप में मन में विद्यमान होकर सदा मनुष्य को भयभीत करता रहता है। इस भयभीत करने वाले मृत्युभय को महर्षि ने अभिनिवेश नाम से पाँचवें क्लेश के रूप में प्रस्तुत किया है।

यद्यपि मनुष्य को इस संसार में नाना प्रकार के भय प्राप्त होते रहते हैं, जैसे अन्न न मिलने का भय, वस्त्र न मिलने का भय, घर न मिलने का भय अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान के प्रति सदा भय बना रहता है। यह भय सामान्य रूप से प्रत्येक मनुष्य को होता है, परन्तु कुछ विशेष साधनों के अभाव में विशेष मनुष्यों को ही भय सताता रहता है, ऐसा भय सबको नहीं होता। चाहे जड़ वस्तुओं से सम्बन्धित भय हो या चेतन वस्तुओं से सम्बन्धित भय हो, यह अलग-अलग व्यक्तियों की अलग-अलग योग्यताओं के कारण हो सकता है, परन्तु अभिनिवेश नामक भय, ऐसा भय है जिससे कोई भी मनुष्य अछूता नहीं रह सकता। न केवल मनुष्य, मनुष्येतर समस्त प्राणियों को भी यह भय आतंकित करता है, इसलिए महर्षि वेदव्यास कहते हैं-

स चायमभिनिवेशः क्लेशः स्वरसवाही कृमेरपि जातमात्रस्य प्रत्यक्षनुमानागमैरसम्भावितो मरणत्रास उच्छेददृष्ट्यात्मकः पूर्वजन्मानुभूतं मरणदुःखमनुमापयति।

अर्थात् और वह यह अपने संस्कारों के रूप में वर्तमान मरणभय रूप अभिनिवेश नामक क्लेश अभी-अभी उत्पन्नमात्र कृमि रूप क्षुद्रजन्तुओं को भी, जिनको इस वर्तमान जन्म में प्रत्यक्ष, अनुमान तथा शब्द प्रमाण से जानकारी नहीं मिली है, ऐसा उच्छेद-विनाश रूप मृत्यु का भय पूर्व जन्मों में अनुभव किये मरण दुःख का अनुमान कराता है।

यहाँ पर महर्षि वेदव्यास ने क्षुद्रजन्तु-कृमि का उदाहरण रूप में ग्रहण किया है, जिसने अभी-अभी जन्म लिया है, जिसे मृत्यु के विषय में किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं है और न ही उसने किसी और को मरते हुए प्रत्यक्ष किया है, जिसको मृत्यु क्या होती है? इसका कोई पता तक नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे अनुमान भी नहीं हो सकता, अर्थात् मृत्यु का प्रत्यक्ष न तो स्वयं को हुआ है और न ही अन्यों को मरते हुए प्रत्यक्ष किया है। बिना प्रत्यक्ष के उसे अनुमान भी नहीं होगा। जब कोई मनुष्य या अन्य प्राणि उस कृमि को मारने की चेष्टा करते हैं, तब वह कृमि पूर्व प्रत्यक्ष के अनुसार अनुमान नहीं कर सकता, क्योंकि उसे इस जन्म में कभी मृत्यु का प्रत्यक्ष ही नहीं हुआ है। न प्रत्यक्ष हुआ है और न ही अनुमान हो सकता है। कोई यह न समझे कि श         द प्रमाण से पता लग जायेगा? ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द प्रमाण का प्रयोग जिस प्रकार से मनुष्यों में होता है, उस प्रकार अन्यों (कृमि आदि योनियों) में नहीं होता है। मनुष्यों को उपदेशादि के द्वारा जानकारी दी जाती है, इसलिए मनुष्य श   द प्रमाण का प्रयोग करते हैं, परन्तु कृमि आदि ऐसा नहीं कर पाते हैं। मनुष्यों जैसी विकसित बुद्धि अन्य योनियों में नहीं होती है। इस कारण महर्षि वेदव्यास ने तीनों (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द ) प्रमाणों से असम्भावित बताया है, फिर भी कृमि को मृत्यु का भय हो रहा होता है और वह भय अनायास पूर्व जन्म को सिद्ध करता है।

महर्षि वेदव्यास के इस उपरोक्त मन्तव्य से यह बात सिद्ध होती है कि पूर्व जन्म होता है और अगला जन्म भी होता है। जो कोई यह कहता है कि पूर्व जन्म को किसने देखा या अगले जन्म को किसने देखा? ये बातें निराधार हैं अर्थात् बिना प्रमाण के ऐसी-ऐसी बातें किया करते हैं, जिनके पीछे किसी भी प्रकार का आधार नहीं होता। यह अभिनिवेश नामक क्लेश निराधार वाली बातों को पूर्ण विराम दे देता है। अभिनिवेश नामक क्लेश से पूर्व जन्म, अगला जन्म, आत्म-नित्यत्व आदि अनेक सिद्धान्त खुलते हैं- स्पष्ट होते हैं और इनके माध्यम से आत्मा को यथार्थ रूप से समझने का यत्न किया जाता है। ऐसा जो करता है, वह तत्व ज्ञानी बन जाता है। तत्व ज्ञानी बन कर वह जन्म-मरण रूपी शृंखला को तोड़ देता है। इस सम्बन्ध में महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती लिखते हैं- ‘………इस क्लेश की निवृत्ति उस समय होगी कि जब जीव, परमेश्वर और प्रकृति अर्थात् जगत् के कारण को वह नित्य और कार्यद्रव्य के संयोग को अनित्य जान लेगा। इन क्लेशों की शान्ति से जीव को मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।’ (ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका मुक्तिविषय) यहाँ पर महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अभिनिवेश नामक क्लेश की व्याख्या करते हुए पूर्व जन्म और अगले जन्म की सिद्धि से आत्म-नित्यत्व की सिद्धि की है, जिससे योगाभ्यासी अपने आप (आत्मा) को जाने व समझे और अपने प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए क्रियायोग को दृढ़ करे, जिससे तत्व ज्ञान हो सके और प्रयोजन को पूर्ण कर सके।

महर्षि वेदव्यास अभिनिवेश की व्यापकता को बताते हुए कहते हैं-

यथा चायमत्यन्तमूढेषु दृश्यते क्लेशस्तथा

विदुषोऽपि विज्ञातपूर्वपरान्तस्य रूढः।

अर्थात् यह अभिनिवेश नामक क्लेश अत्यन्त मूढ़ यानि सब प्रकार के विज्ञान से रहित महामूर्ख, जिसे सामान्य जानकारी भी नहीं है, जो घनघोर जंगलों में रह रहा हो, ऐसे व्यक्ति को सताता रहता है- इसमें कोई विशेष बात नहीं है, परन्तु जो विद्वान् है, जिसने सब शास्त्रों का अध्ययन किया है, जिसे जन्म और मृत्यु का बोध है, जिसे बन्धन का कारण और मोक्ष का भी कारण पता है, इतना ही नहीं उसे यह भी पता है कि जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्य होगी और जिसकी मृत्यु होगी, उसका पुनः जन्म भी होगा, इससे आत्मा का नाश नहीं होता, आत्मा तो नित्य है- इत्यादि सभी विषयों का यथावत् बोध रखता है, फिर भी मृत्यु से डरता रहता है। इस प्रकार साधारण से साधारण मनुष्य, पशु-पक्षी आदि और विद्वान् सभी मृत्यु से डरते हैं। मृत्यु का आतंक प्राणिमात्र को है, इसका निराकरण नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में महर्षि वेदव्यास कहते हैं-

‘कस्मात्? समाना हि तयोः कुशलाकुशलयोर्मरणदुःखानुभवादियं वासनेति।’

अर्थात् प्राणिमात्र को एक समान मृत्यु का भय क्यों होता है? इसका समाधान यह है कि पूर्व जन्म में कुशल=विद्वान् और अकुशल=साधारण अनपढ़ मनुष्य, दोनों ने एक समान मृत्यु का दुःख भोगा है। उस दुःखानुभव की वासना (संस्कार) दोनों में एक समान है, इसलिए वर्तमान जन्म में भी दोनों को पुनः मृत्यु का भय हो रहा है। इससे पूर्व जन्म की सिद्धि होती है।

संसार में कोई भी व्यक्ति इस बात का खण्डन नहीं कर सकता कि पूर्व जन्म नहीं होता या अगला जन्म नहीं होता। इतना ही नहीं, आत्मा नहीं मरता है-आत्मा का नाश नहीं होता है, यह जीवन ही अन्तिम जीवन नहीं है- इत्यादि अनेक विषय तर्क और प्रमाणों से सही सिद्ध होते हैं।

– ऋषि उद्यान, पुष्कर मार्ग, अजमेर