आर्यसमाजियों की श्रद्धा तथा सेवाभाव
संस्थाओं के झमेलों ने आर्यसमाज के संगठन और प्रचार को बड़ी क्षति पहुँचाई है। संस्थाओं के कारण अत्यन्त निकृष्ट व्यक्ति आर्यसमाज में घुसकर ऊँचे-ऊँचे पदों पर अधिकार जमाने में सफल हो गये हैं। लोग ऐसे पुरुषों को देखकर यह समझते हैं कि आर्यसमाजियों में श्रद्धा नहीं है।
आर्यवीरों ने देश-धर्म के लिए कितने बलिदान दिये हैं। आर्यों की श्रद्धा तथा सेवाभाव का एक उदाहरण यहाँ देते हैं। लाहौर में एक महाशय सीतारामजी आर्य होते थे। इन्हीं को चौधरी सीताराम कहा जाता था। ये आर्यसमाज के सब कार्यों में आगे-आगे होते थे, इसलिए इन्हें चौधरी सीताराम आर्य कहा जाता था। लाला जीवनदासजी की चर्चा करते हुए भी हमने इनका उल्लेख किया था।
वे लकड़ी का कार्य करते थे। इनकी दुकान आर्यसमाज के प्रमुख लोगों के मिलन तथा विचार-विमर्श करने का एक मुज़्य स्थान होता था। आर्ययुवक जो स्कूलों, कॉलेजों में पढ़ते थे, वे
उनकी दुकान का चक्कर लगाये बिना न रह सकते थे।
एक बार महाशय सीतारामजी को निमोनिया हो गया। वे कई दिन तक अचेत रहे। उनके आर्यसमाजी मित्रों ने उनकी इतनी सेवाकी कि बड़े-बड़े धनवानों की सन्तान भी ऐसी देखभाल न करे।
लाहौर के बड़े-से-बड़े डॉज़्टर को आर्यलोग बुलाकर लाये। अपने-आप ओषधियाँ लाते। आर्यवीरों ने दिन-रात अपना समय बाँट रखा था। हर घड़ी उनकी सेवा और देखभाल के लिए आर्यपुरुष उनके
पास रहते।
वे गृहस्थी थे। पत्नी आज्ञाकारिणी थी। पुत्र भी धर्मप्रेमी थे। महाशय राजपालजी का मुसलमान हत्यारा इल्मुद्दीन जब छुरे का वार करके भागा था तो इन्हीं महाशयजी के सुपुत्र श्री विद्यारत्न ने ही उसे पकड़ा था। एक और आक्रमण के समय क्रूर घातक को स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्दजी महाराज ने धर दबोचा था।
हमारा इस प्रसङ्ग को छेड़ने का अभिप्राय यह है कि ऐसे सद्गृहस्थी के घर में सब-कुछ था तथापि आर्य भाइयों में अपने इस आदर्श कर्मवीर के लिए इतना ह्रश्वयार था, उनके प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि उनके रुग्ण होने पर उनकी सेवा करने के लिए आर्यों में एक होड़ और दौड़-सी थी। जब महाशयजी स्वस्थ हुए तो इस सेवाभाव, इस भ्रातृभाव से इतने प्रभावित हुए कि अब वे पहले से भी कहीं अधिक आर्यसामाजिक कार्यों में जुटे रहते। वे दुकानदार भी थे और प्रचारक भी। वे कार्यकर्ज़ा भी थे और संगठन की कला के कलाकार भी थे।