आर्यमाज के शहीद महाशय जयचन्द्र जी
मुलतान की भूमि ने आर्यसमाज को बड़े-बड़े रत्न दिये हैं। श्री पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी, पण्डित लोकनाथ तर्कवाचस्पति, डॉज़्टर बालकृष्णजी, स्वामी धर्मानन्द (पण्डित धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड), पण्डित त्रिलोकचन्द्रजी शास्त्री-ये सब मुलतान क्षेत्र के ही थे। आरज़्भिक युग के आर्यनेताओं में महाशय जयचन्द्रजी भी बड़े नामी तथा पूज्य पुरुष थे। वे भी इसी धरती पर जन्मे थे। वे तार-विभाग में चालीस रुपये मासिक लेते थे। सज़्भव है वेतन वृद्धि से कुछ
अधिक मिलने लगा हो। उन्हें दिन-रात आर्यसमाज का ही ध्यान रहता था। वे आर्य
प्रतिनिधि सभा के मन्त्री चुने गये। सभा के साधन इतने ही थे कि श्री मास्टर आत्मारामजी अमृतसरी के घर पर एक चार आने की कापी में सभा का सारा कार्यालय होता था। एक बार
मास्टरजी ने मित्रों को दिखाया कि सभा के पास केवल बारह आने हैं। श्री जयचन्द्रजी ने चौधरी रामभजदज़, मास्टर आत्मारामजी आदि के साथ मिलकर समाजों में प्रचार के लिए शिष्टमण्डल भेजे। सभा की वेद प्रचार निधि के लिए धन इकट्ठा किया। सभा को सुदृढ़ किया। जयचन्द्रजी सभा कार्यालय में पत्र लिखने में लगे रहते।
रजिस्टरों का सारा कार्य स्वयं करते। इस कार्य में उनका कोई सहायक नहीं होता था।
पण्डित लेखरामजी के बलिदान के पश्चात् प्रचार की माँग और बढ़ी तो जयचन्द्रजी ने स्वयं स्वाध्याय तथा लेखनी का कार्य आरज़्भ किया। वक्ता भी बन गये। आर्यसमाज की सेवा करनेवाले इस अथक धर्मवीर को निमोनिया हो गया। इस रोग में अचेत अवस्था में लोगों ने उन्हें ऐसे बोलते देखा जैसे वे आर्यसमाज मन्दिर में प्रार्थना करवा रहे हों अथवा उपदेश दे रहे हों। श्री पण्डित विष्णुदज़जी ने उन्हें आर्यसमाज के ‘शहीद’ की संज्ञा दी।