आर्यसमाज का एक विचित्र विद्वान्
महामहोपाध्याय पण्डित श्री आर्यमुनिजी अपने समय के भारत विज़्यात दिग्गज विद्वान् थे। वे वेद व दर्शनों के प्रकाण्ड पण्डित थे। उच्चकोटि के कवि भी थे, परन्तु थे बहुत दुबले-पतले। ठण्डी भी अधिक अनुभव करते थे, इसी कारण रुई की जैकिट पहना करते थे।
वे अपने व्याज़्यानों में मायावाद की बहुत समीक्षा करते थे और पहलवानों की कहानियाँ भी प्रायः सुनाया करते थे। स्वामी श्री स्वतन्त्रानन्दजी महाराज उनके जीवन की एक रोचक घटना सुनाया
करते थे। एक बार व्याज़्यान देते हुए आपने पहलवानों की कुछ घटनाएँ सुनाईं तो सभा के बीच बैठा हुआ एक पहलवान बोल पड़ा, पण्डितजी! आप-जैसे दुबले-पतले व्यक्ति को कुश्तियों की
चर्चा नहीं करनी चाहिए। आप विद्या की ही बात किया करें तो शोभा देतीं हैं।
पण्डितजी ने कहा-‘‘कुश्ती भी एक विद्या है। विद्या के बिना इसमें भी जीत नहीं हो सकती।’’ उस पहलवान ने कहा- ‘‘इसमें विद्या का ज़्या काम? मल्लयुद्ध में तो बल से ही जीत मिलती है।’’
पण्डित आर्यमुनिजी ने फिर कहा-‘‘नहीं, बिना विद्याबल के केवल शरीरबल से जीत असज़्भव है।’’
पण्डितजी के इस आग्रह पर पहलवान को जोश आया और उसने कहा,-‘‘अच्छा! आप आइए और कुश्ती लड़कर दिखाइए।’’
पण्डितजी ने कहा-‘आ जाइए’।
सब लोग हैरान हो गये कि यह ज़्या हो गया? वैदिक व्याज़्यानमाला-मल्लयुद्ध का रूप धारण कर गई। आर्यों को भी आश्चर्य हुआ कि पण्डितजी-जैसा गज़्भीर दार्शनिक ज़्या करने जा रहा है।शरीर भी पण्डित शिवकुमारजी शास्त्री-जैसा तो था नहीं कि अखाड़े में चार मिनट टिक सकें। सूखे हुए तो पण्डितजी थे ही।
रोकने पर भी पण्डित आर्यमुनि न रुके। कपड़े उतारकर वहीं कुश्ती के लिए निकल आये।
पहलवान साहब भी निकल आये। सबको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि महामहोपाध्याय पण्डित आर्यमुनिजी ने बहुत स्वल्प समय में उस पहलवान को मल्लयुद्ध में चित कर दिया।
वास्तविकता यह थी कि पण्डितजी को कुश्तियाँ देखने की सुरुचि थी। उन्हें मल्लयुद्ध के अनेक दाँव-पेंच आते थे। थोड़ा अज़्यास भी रहा था। सूझबूझ से ऐसा दाँव-पेंच लगाया कि मोटे बलिष्ठकाय पहलवान को कुछ ही क्षण में गिराकर रख दिया और बड़ी शान्ति से बोले, ‘देखो, बिना बुद्धि-बल के केवल शरीर-बल से कुश्ती के कल्पित चमत्कार फीके पड़ जाते हैं।