जीव और ब्रह्म का स्पश्ट भेद
श्री शंकराचार्य जी जीव ओर ब्रह्म में वास्तविक भेद नहीं मानते । केवल उपाधि भेद मानते हैं । और जीव के उपासना आदि जितने व्यवहार हैं उनको भी उपाधि कृत ही कहते हैं । उनके इस सिद्धान्त की पुश्टि मंे हम उनके भाश्य से कुछ उदाहरण आलोचना सहित देते हैं: –
(1)
द्वि रूपं हि ब्रह्मावागम्यते, नामरूपविकारभेदोपाधि विषिश्टं, तद् विपरीतं च सर्वोपाधि विवर्जितम् ।
(षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 34)
ब्रह्म के दो रूप हैं एक तो नाम रूप विकार भेद की उपाधि वाला, दूसरा इसके विपरीत सब प्रकार की उपाधियों से छूटा हुआ ।
(2)
तत्राविद्यावस्थायां ब्रह्मण उपास्योपासकादिलक्षणः सर्वो व्यवहारः । तत्र कानिचिद् ब्रह्मण उपासनान्यभ्युदयार्थानि, कानिचित् क्रम – मुक्तयर्थानि, कानि चित् कर्म समृद्धîर्थानि । तेशां गुणविषेशोपाधिभेदेन भेदः ।
(षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 35)
वहाँ अविद्या की अवस्था मंे ब्रह्म के उपास्य और उपासक आदि लक्षण वाले सब व्यवहार होते हैं । ब्रह्म की कुछ उपासनायें अभ्युदय के लिये हैं, कुछ मुक्ति के क्रम के लिये, कुछ कर्म की समृद्धि के लिये । इनमंे उपाधि के भेद से भेद होता है ।
(3)
पर एवात्मा देहेन्द्रिîमनोबुद्धयुपाधिभिः परिच्छिद्यमानो वालैः षारीर इत्युपचय्यते । यथा घटकरकाद्युपाधिवषादपरिच्छिन्नमपि नभः परिच्छिन्नवदवभासते, तद्वत् ।।
(षां॰ भा॰ 1।2।6 पृश्ठ 67)
परमात्मा ही देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि की उपाधियों से परिछिन्न होकर मूर्खों के लिये षारीर अर्थात् जीव कहलाता है । जैसे कमण्डल आदि से परिच्छिन्न आकाष परिच्छिन्न दिखाई पडता है ।
(4)
अविद्या प्रत्युपस्थापित कार्यकरणोपाधि निमित्तोऽयं षारीरान्तर्यामणोर्भेदव्यपदेषो न पारमार्थिकः । एको हि प्रत्यगात्मा भवति, न द्वौ प्रत्यगात्मानौ संभवतः । एकस्यैव तु भेदव्यवहार उपाधिकृतो यथा घटाकाषो मठाकाष इति । ततच्श्र ज्ञातृज्ञेयादि भेद श्रुतयः प्रत्यक्षादीनि च प्रमाणानि संसारानुभवो विधिप्रतिशेध षास्त्रां चेति सर्वमेतदुपपद्यते । तथा च श्रुतिः ‘यन्त्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतर पष्यति’ इत्यविद्याविशये सर्वं व्यवहारं दर्षयति । ‘यत्र त्वस्य सर्वमात्मैवा भूत्तत्केन कं पष्येत्’ इति विद्याविशये सर्वं व्यवहारं वाययति’
(षां॰ भा॰ 1।2।20 पृश्ठ 81)
जीव और ब्रह्म का भेद अविद्या के कारण है । पारमार्थिक नहंी । आत्मा एक ही है दो नहंी हो सकते । जैसे आकाष एक है । परन्तु घटाकाष मठाकाष व्यवहार मंे अलग अलग हैं । इसी प्रकार उपाधि के भेद से जीव भी अलग अलग है । ज्ञाता और ज्ञेय का भेद, प्रत्यक्षादि प्रमाण आदि सब व्यवहार दषा में है । विद्या विशय मंे यह सब व्यवहार नहीं रहते ।
(5)
एवं मिथ्या ज्ञानकृत एव जीवपरमेष्वरयोर्भेदः, न वस्तुकृतः । च्योमवदसंगत्वाविषेशात् ।
(षां॰ भा॰ 1।3।16 पृश्ठ 114)
इस प्रकार जीव परमेष्वर का भेद मिथ्याज्ञान के कारण है वास्तविक नहीं । जैसे आकाष और उसके टुकडों का भेद ।
(6)
यावदेव हि स्थाणाविव पुरूश बुद्धिं द्वैतलक्षणमविद्यां निवर्तयन् कूटस्थनित्यद्दक्स्वरूपमात्मानमहं ब्रह्मास्तीति न प्रतिपद्यते तावज्जीवस्य जीवत्वम् ।।
(षां॰ भा॰ 1।3।16 पृश्ठ 112)
जैसे ठूठ को भूल से मनुश्य समझ लेते हैं इसी प्रकार जब तक द्वैत लक्षण वाली अविद्या मिट कर यह ज्ञान नहीं हो जाता कि मैं कूटस्थ ब्रह्म हूँ उसी समय तक जीव का जीवत्व रहता है ।
(7)
अपरे तु वादिनः पारमार्थिकमेव जैवं रूपमिति मन्यन्तेऽस्मदीयाष्च केचित् । तेशांसर्वेशामात्मैकत्व सम्यग्दर्षन प्रति पक्षभूतानां प्रति बोधायेदं षारीरकमारब्धम् । एक एव परमेष्वरः कूटस्थनित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते । नान्योविज्ञानधातुरस्तीति ।
(षां॰ भा॰ 1।3।16 पृश्ठ 115)
कुछ मतावलम्बी जीव के रूप को पारमार्थिक (वास्तविक) ही मानते हैं । हम में से भी कुछ लोग इसी मत के हैं । हमने षारीरक का आरम्भ उन्हीं के भ्रम को दूर करने के लिये किया है जिससे स्पश्ट
(1) यहाँ ‘अस्मदीयाष्च’ से प्रकट होता है कि श्री शंकराचार्य जी के समय में भी कुछ वेदान्ती जीव को पारमार्थिक ही मानते थे । उपाधिकृत नहीं ।
(2) परमेष्वर और ब्रह्म पर्याय हैं । भिन्न नहीं ।
(3) स्पश्ट है कि षांकर मत में ब्रह्म ही मायावी बनता है । क्यों? क्या कूठस्थ नित्य ब्रह्म भी स्वयं मायावी बन सकता है ?
हो जाय कि आत्मा एक ही है । एक ही कूटस्थ नित्य परमेष्वर जो ज्ञान से जाना जा सकता है, अविद्या या माया के द्वारा जादूगर की भांति अनेक प्रकार का दिखाई पडता है।
यह हुआ षांकरमत का निरूपण । अब हम यह दिखलाते हैं कि वादरायण के सूत्रों मंे जीव ओर ब्रह्म का स्पश्ट पारमार्थिक भेद है ओर श्री शंकराचार्य जी अपने भाश्य में इस भेद को मिटाने मंे सफल नहीं हुये ।
(1)
नेतरोऽनुपपत्तेः । (1।1।16)
इतष्चानन्दमयः पर एवात्मा । नेतरः । इतर ईष्वरादन्यः संसारी जीव इत्îर्थः । न जीव आनन्दमय षब्देनाभिधीयते । कस्मात् । अनुपपत्तेः ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 38)
‘आनन्दमय’ परमात्मा ही है । जीव नहीं । ‘इतर’ का अर्थ है ईष्वर से भिन्न संसारी या जीव । जीव के लिये आनन्दमय षब्द नहीं लाते । क्यों ? उपपत्ति नहीं बैठती ।
यहाँ स्पश्ट कहा है कि जीव ईष्वर से भिन्न है । यहाँ सूत्रकार ने उपाधि आदि का वर्णन नहीं किया ।
(2)
भेदव्यपदेषाच्ंच । (1।1।17)
इतष्च नानन्दमयः संसारी । यस्मादानन्दमयाधिकारे – ‘रसो वै सः’ । रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति (तै॰ 2।7) इति जीवानन्दमयौ भेदेन व्यपदिषति ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 39)
यहाँ भी आनन्दमय जीव नहीं । क्योंकि आनन्दमय अधिकार से । उपनिशद् (तै॰ 2।7) में कहा है कि ब्रह्म रस है यह रस को पाकर ही आनन्दी होता है’’ यहाँ स्पश्टतया जीव और आनन्दमय मंे भेद बताया है ।’
षंकर स्वामी इसी सूत्र मंे आगे चल कर मायावी का द्दश्टान्त देते हैं । वह सूत्रकार के विरूद्ध और असंगत है ।
(3)
अस्मिन्नस्य च तद्यांग षास्ति । (1।1।19)
इतष्च न प्रधाने जीवे बानन्दमयषब्दः । यस्मादस्मिन्नानन्दमये प्रकृत आत्मनि प्रतिबुद्धस्यास्य जीवस्य तद्योगं षास्ति । तदात्मना योगस्तद्योगः । तöावापत्तिः । मुक्तिरित्यर्थः ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 39)
‘‘यहाँ भी आनन्दमय न प्रधान के लिये है न जीव के लिये । क्योंकि कहा है कि ज्ञानी होने पर जीव का ब्रह्म से योग होता है । आत्मा से योग का अर्थ है तद् योग अर्थात् उसी की भावना करना । अर्थात् मुक्तिः।’’
यहाँ सूत्रकार के षब्द ‘तद्योग’ से भेद स्पश्ट है । परन्तु षंकर स्वामी ने ‘तद्भावापत्तिः’ ऐसा अर्थ किया है । यह अषुद्ध है । यदि यही तात्पर्य होता तो सूत्रकार इतने बलपूर्वक कई सूत्रों में यह न कहते कि आनन्दमय षब्द जीव के लिए नहीं आ सकता । ‘तद् योग’ का अर्थ तो केवल इतना है कि ज्ञान होने पर जीव अपने को ब्रह्म का सम्बन्धी समझता है । योग तभी होगा जब दो पदार्थ भिन्न – भिन्न हों । परमार्थतः एक ही वस्तु का ‘तद् योग’ कैसा ?
(4)
न ह्यक्षरसंनिवेषमात्राया गायत्र्याः सर्वात्मकन्वं संभवति । तस्माद् यद् गायत्र्याख्य विकारेऽनुगतं जगत् कारणं ब्रह्म तदिह सर्वमित्युच्यते । यथा ‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ (छा ॰ 3।14।1)
(षां॰ भा॰ 1।1।25 पृश्ठ 54)
यहाँ कहा था कि ‘‘गायत्री वा इदं सर्वे’’ । यह सब गायत्री है । इस पर प्रष्न उठाया गया कि गायत्री तो कई अक्षरों का संघात है । इसमंे ‘‘सर्वात्मकत्व’’ कैसा ? इस का उत्तर यह है कि विकार युक्त गायत्री के लिये यह ‘सर्व’ नहीं प्रयुक्त हुआ किन्तु जगत् के कारण ब्रह्म के लिये । जैसे ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ मंे । यहाँ षंकर स्वामी स्वीकार करते हैं कि ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ मंे ‘सर्वे’ षब्द जगत् कारण ब्रह्म के लिये है । ‘सर्वे खल्विदं ब्रह्म’ यह वाक्य बहुधा अद्वैत परक लिया जाता है । परन्तु यह ठीक नहंी । षंकर स्वामी को भी यह स्वीकार करना ही पडा । इसका आगे का वाक्य ‘तज्ंलान्’ भी यही सिद्ध करता है ।
(5)
अनुपपत्तेस्तु न षारीरः (1।2।3)
पूर्वेण सूत्रेण ब्रह्मणि विवक्षितानां गुणानामुपपत्तिरूक्ता । अनेन तु षारीरे तेशामनुपपत्तिरूच्यते । तु षब्दोऽवधारणार्थः । ब्रह्मैवोत्तेन न्यायेन मनो मयत्वादिगुणं न तु षारीरो जीवो मनोमयत्वादिगुणः ।……………………………………….नन्वीष्वरोऽपि षरीरे भवति । सत्यम् । षरीरे भवति न तु षरीर एव भवति । ‘ज्यायान् पृथिव्या ज्यायनन्तरिक्षात्’, आकाषवत् सर्वगतश्चनित्यः इति च व्यापित्व श्रवणत् । जीवस्तु षरीर एव भवति, तस्य भोगाधिश्ठानाच् छरीरादन्यत्र वृत्त्îभावात् ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 65-66)
‘‘पहले सूत्र में ब्रह्म में विवक्षित गुणों की उपपत्ति बताई । इस सूत्र में बताते हैं कि वे गुण जीव में नहीं पाये जाते । उक्त न्याय से मनोमयत्वादि गुण ब्रह्म मंे ही हो सकते हैं । जीव में नहीं । यदि कोई कहे कि षरीर में तो ब्रह्म भी विद्यमान है, यह ठीक है, परन्तु ब्रह्म षरीर में है ‘षरीर में ही है’ ऐसा नहीं । ‘‘वह पृथ्वी से भी बडा है अन्तरिक्ष से भी बडा है’ ‘‘आकाष वत् सर्वत्र व्यापक है नित्य है ।’’ जीव केवल षरीर में ही है । षरीर उसके भोग का अधिश्ठान है । उसकी वृत्तियाँ अन्यत्र नहीं है ।’’
यहाँ तो स्पश्टतया जीव और ब्रह्म का भेद सिद्ध हो गया । षरीर में जीव भी है और ब्रह्म भी परन्तु षरीर जीव के भोग का अधिश्ठान है ब्रह्म के भोग का नहीं । यदि ब्रह्म ही अविद्यावष जीव होता तो ऊपर का कथन न बन सकता । सूत्र में भी ऐसा नहीं है ।
(6)
कर्मकर्तृ व्यपदेषाच्ंच । (1।2।4)
तथोपास्योपासकभावोऽपि भेदाधिश्ठान एव । तस्मादपि न षारीरो मनोमयन्वादि विषिश्टः ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 66)
तथा उपास्य उपासक भाव तो भेद के द्वारा ही हो सकता है । इसलिये भी मनोमयत्वादि गुण से यहाँ जीव का अभिप्राय नहीं ।
भेद स्पश्ट है । उपाधि का उल्लेख नहीं । यदि ब्रह्म ही उपाधि के कारण जीव हो गया होता तो भी उपास्य उपासक का प्रष्न न उठता ।
(7)
षब्दविषेशात् (1।2।5)
………………………….‘‘एवमयमन्रात्मन पुरूशो हिरण्मयः’’ (षत॰ ब्रा॰ 10।6।3।2) इति । षारीरस्यात्मनो यः षब्दोऽभि – धायकः सप्तम्यन्तोऽन्तरात्मन्निति तस्माद्विषिश्टोऽन्यः प्रथमान्तः पुरूशषब्दो मनो मयत्वादि विषिश्टस्यात्मनोऽभिधायकः । तस्मात् तयोर्भेदोऽधिगम्यते ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 66)
‘‘षतपथ ब्राह्मण में आया है कि यह अन्तरात्मा में ज्योतिर्मय पुरूश है । यह सप्तमी विभक्ति में जो षब्द है यह जीव के लिये है । और प्रथमा विभक्ति में जो षब्द है वह ब्रह्म के लिये है । इसलिये इन दोनों का भेद स्पश्ट प्रतीत होता है ।’’
षब्द स्पश्ट है । टिप्पणी की आवष्यकता नहीं ।
(8)
स्मृतिश्च षारीरपरमात्मनोर्भेदं दर्षयति – ईष्वरः सर्वभूतानां हृद्देषेऽर्जुन तिश्ठति ……………(गीता 18।61)’’
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 67)
स्मृति भी जीव और ब्रह्म का भेद बताती है जैसा कि गीता के ष्लोक मंे है । ‘‘ईष्वर सब भूतों के हृदय में है…..।’’
इस सूत्र के भाश्य में षं॰ स्वा॰ ने आगे चल कर कहा है कि यह भेद अविद्या के कारण है । मूर्खों की यह धारणा है । परन्तु सूत्र में तो ऐसा नहीं है । न गीता मंे । गीता में मूर्खता की बात क्यों लिखी जाती ?
(9)
संभोगप्राप्तिरिति चेन्न वैषेश्यात् । (1।2।8)
न तावत् सर्वप्राणिहृदयसंबन्धाचछारीरवद् ब्रह्मणः संभोग प्रसंगः, वैषेश्यात् । विषेशोहि भवति षारीरपरमेष्वरयोः । एकः कत्र्ता भोक्ता धर्माधर्मसाधनः सुखदुःखादिमाँश्च । एकस्तद्विपरी – तोऽपहतपाप्मत्वादिगुणः । एतस्मादनयोविषेशादेकस्य भोगो नेतराय, यदि च संनिधानमात्रेण वस्तुषक्तिमनाश्रित्य कार्य संबन्धोऽभ्युपगम्येत, आकाषीदीनामपि दाहादिप्रसंगः ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 68)
‘‘यद्यपि ब्रह्म सब के हृदय मंे विद्यमान है तथापि उसे दुःख सुख संभोग नहीं लगता । क्यों? जीव और ब्रह्म मंे विषेशता (भेद) है । जीव कत्र्ता, भोक्ता, धर्म अधर्म का साधन और सुखी या दुखी है । ब्रह्म पाप आदि से मुक्त है । इसलिये भोग जीव के लिये है ब्रह्म के लिये नहीं । यदि कहो कि व्यापक होने से ब्रह्म मंे भी भोग का प्रष्न होगा तो कहते हैं कि नहीं । आकाष व्यापक होता है । परन्तु वस्तु के जलने पर आकाष नहीं जलता ।’’
आगे चल कर षं॰ स्वा॰ ने इसी सूत्र के भाश्य मंे कहा है कि जीव का संभोग मिथ्याज्ञान के कारण है । यह उन्होनें अपने मत को स्थापित करने के लिये कहा है । सूत्र में ऐसा नहंी है । जहाँ तक षं॰ स्वा॰ ने सूत्र का अर्थ किया है जीव ब्रह्म का भेद स्पश्ट है ।
(10)
विषेशणाच्ंच । (1।2।12)
विषेशणं च विज्ञानात्मपरमान्मनोरेव भवति । ‘आत्मानं रथिनं विद्धि षरीरं रथमेव तु’ (का॰ 1।3।3) इत्यादिना परेण प्रन्थेन रथिरथादिरूपककल्पनया विज्ञानात्मानं रथिनं संसारमोक्षयोर्गन्तारं कल्पयति । ‘सोऽध्वनः पारमाप्रोति तद्विश्णोः परमंपदम्’ (का॰ 1।2।9) इति च परमात्मानं गन्तव्यम् । तथा ‘तं दुदर्षगूढमनुप्रविश्टं गुहाहितं गह्वरेश्ठं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधि गमेन देवं मत्वा धीरो हर्शषोकौ जहाति’ (का॰ 1।2।12) इति पूर्वस्मिन्नपि ग्रंथे मन्तृ-मन्तव्यन्वेनैतावेव विषेशितौ । प्रकरणं चेदं परमात्मनः । ‘ब्रह्मविदा वदन्ति’ इति च वक्तृविषेशोपादानं परमात्मपरिग्रहे घटते । तस्मादिह जीवपरमात्मानावुच्येयाताम् । एश एव न्यायः ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया’ (मुण्ड॰ 3।1।1) इत्येवमादिश्वपि । तत्रापि ह्मध्यान्माधिकारान्न प्राकृतौ सुपर्णावुच्येते । ‘तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति’ इत्यनलिगांद् विज्ञानात्मा भवति ‘अनश्रन्नन्योऽभिचाकषीति’ इत्यनषनचेतनत्वाभ्यां परमात्मा । अनन्तरे च मन्त्रे तावेव द्रश्टद्रश्टव्य भावेन विषिनिश्टि – ‘‘समाने वृक्षेपुरूशोनिमग्नोऽनीषया षोचति मुह्यमानः । जुश्टं यदा पष्यत्य-न्यमीषमस्य महिमानमिति वीतषोकः (मुण्ड॰ 3।1।2) इति ।’’
इस संदर्भ पर सूक्ष्म दृश्टि डालने से ज्ञात होता है कि यद्यपि बाद्ररायण का मौलिक सूत्र ‘विषेशणाच्च’ द्वैत को सिद्ध करने के लिये पय्र्याप्त था, तथापि षं॰ स्वा॰ ने सुन्दर युक्ति एवं प्रमाणों की श्रंखला द्वारा सोने पर सुहागे का काम कर दिया । अब द्वैत – सिद्धि मंे कोई आषंका नही रही । इसके पष्चात् यदि षं॰ स्वा॰ द्वैत के खण्डन मंे कुछ कथन भी करते हैं तो उनका मूल्य कुछ नहीं रहता । या यांे कहना चाहिये कि सांप तो निकल गया लकीर पीटते रहो । हम यहाँ ऊपर के सदंर्भ का भाशानुवाद मात्र देते हैं । पाठक गण स्वयं विचार लें कि द्वैत की पुश्टि कितने प्रबल प्रमाणों द्वार की गई है । और यदि पीछे से इसके विरूद्ध कुछ कहा भी गया है तो वह कितना निर्बल तथा निर्मूल है ।
‘‘भेद तो विज्ञानात्मा (जीव) और परमात्मा मंे ही होता है । कठोपनिशद् में आत्मा केा रथी और षरीर को रथ बताया है । इस रूपक से विदित होता है कि यहाँ तात्पर्य ‘‘विज्ञानात्मा’’ अर्थात् जीव से है जो संसार रूपी यात्रा मोक्षप्राप्ति के लिये कर रहा है । उसी उपनिशद् मंे कहा है कि ‘‘वह मार्ग के पार जाकर विश्णु के परमपद को पाता है’’ यहाँ परमात्मा से तात्पर्य है । कठोपनिशद् मंे इससे पहले कहा गया था कि धीर पुरूश अध्यात्म योग द्वारा हृदय के भीतर छिपे हुये देव को जान कर हर्श और षोक के द्वन्द्वों से छूट जाता है । यहाँ जीव और ब्रह्म का स्पश्ट भेद है । यहाँ प्रकरण परमात्मा का है । क्योंकि कहा है कि ‘‘ब्रह्म के जानने वाले कहते हैं ।’’ यहाँ स्पश्ट है कि कहने का विशय परमात्मा ही है । इसलिये यहाँ जीव और परमात्मा दोनों ही समझने चाहिये । मुण्डक उपनिशद् के ‘‘द्वासुपर्णा’’ आदि मन्त्र में भी यही बात है । वहाँ सचमुच के पक्षियों का वर्णन नहीं है । ‘‘एक उनमंे से पिप्पली को खाता है ।’’ इससे विज्ञानात्मा (अर्थात् जीव) अभिप्रेत है ।’’ ‘‘दूसरा न खाता हुआ देखभाल करता है’’ यहाँ ‘न खाना’ और ‘चेतनत्व’ दोनों से परमात्मा का अभिप्राय है । मुण्डक का एक और मन्त्र है ‘एक ही वृक्ष में एक पुरूश परवष होता हुआ षोक करता है । परन्तु जब उसी वृक्ष पर दूसरे स्वामी को देखता है तो षोक छूट जाता है ।’ यहाँ दोनों का भेद स्पश्ट है ।-
ऊपर षंकर स्वामी ने दो षब्द प्रयुक्त किये हैं एक विज्ञानात्मा दूसरा परमात्मा । विज्ञानात्मा जीव के लिये हैं । एक स्थान पर स्पश्ट भी लिख दिया है ‘‘जीवपरमात्मानौ ।’’ यहाँ ‘विज्ञान’ पद ज्ञान का बोधक है अविद्या या भ्रम या अध्याय का नहीं । अविद्या ग्रसित जीव अपने ईष को नहीं देख सकता ं विज्ञानात्मा ही देख सकता है । उपनिशद् के जो मन्त्र यहाँ दिये गये हैं उनमंे कहीं यह नहीं लिखा कि अविद्यावष अपने को ब्रह्म से इतर समझता है । इत्यादि ।
(11)
भेदव्यपदेषात् । (1।3।5)
भेदव्यपदेषष्चेह भवति – ‘तमेवैकं जानथ आत्मानम्’ इति ज्ञेयज्ञातृभावेन ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 96)
भेद का उल्लेख है । ‘‘उसी एक आत्मा को जानो’’ । यहाँ ज्ञेय और ज्ञाता (जानने योग्य और जानने वाला) यह दो अलग – अलग बतायें हैं ।
यहाँ द्वैत स्पश्ट है ।
(12)
स्थित्यदनाभ्यां च (1।3।7)
ताभ्यां च स्थित्यदनाभ्यामीष्वरक्षेत्रज्ञौ तत्र गृह्येते ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 97)
अर्थात् ‘द्वासुपर्णा सयुजा सखाया’ (मु॰ 3।1।1) वाली ऋचा मंे एक को भोक्ता बताया है और दूसरे को द्रश्टा । इससे ईष्वर और जीव का भेद विस्पश्ट है ।
नोट – श्री षं॰ स्वामी ने ऐसा कहा है:- ‘तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्ति’ इति कर्मफलाषनं, ‘अनश्रन्नन्योऽभिचाकषीति’ इत्यौदासीन्येनावस्थानं च ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 97)
यहाँ ‘ओदासीन्येन’ ठीक नहीं है । ‘अभिचाकषीति’ का उपसर्ग ‘अभि’ प्रकट करता है कि यद्यपि ईष्वर चखता नहीं परन्तु वह परोपकार भाव से निश्काम होता हुआ देख भाल रखता है (ैनचमतअपेमत) । वह कर्मफल के बन्धन में नहीं है परन्तु ‘वषी’ है । ‘द्रश्टा’ का अर्थ केवल ‘उदासीनता से देखना’ निरर्थक है । फलदाता ईष्वर ही है । श्री षं॰ स्वामी ब्रह्म को कत्र्ता नहीं मानते । इस लिये उन्होंने ‘औदासीन्येन’ अपनी ओर से लगा दिया ।
(13)
प्रलोयमानमपि चेदं जगच्छक्तîवषेशमेव प्रलीयते । षक्तिमूलमेव च प्रभवति । इतरथाकस्मिकत्व प्रसंगात् । …………समान नामरूपन्वाच्चावृत्तवपि महासर्ग महाप्रलय लक्षणायां जगतोऽभ्युपगम्यमानायां न कश्चिच्छब्द प्रामाण्यादि विरोधः समान नाम – रूपतां च श्रुतिमृती दर्षयतः ।
(षां॰ भा॰ 1।3।30 पृश्ठ 130)
जब जगत् का प्रलय होता है तो उतना ही होता है कि षक्ति बच रहे और उसी षक्ति से फिर जगत् बनता है । अन्यथा सृश्टि आकस्मिक (बिना कारण के) हो जाय …………….. महासृश्टि और महाप्रलय में नाम और रूप समान ही होते हैं । ऐसा मानने में श्रुति और स्मृति का कुछ विरोध नहीं ……………….
यदि केवल ब्रह्म ही सत्य है और जगत् अध्याय मात्र तथा मिथ्या है तो प्रलय, महा प्रलय तथा सृश्टि के बार – बार आने का क्या तात्पर्य है ? मायावाद मंे प्रलय का क्या स्थान है और कैसे ?
(14)
सुशुप्तावृत्øान्तौ च षारीराद् भेदेन परमेष्वरस्य व्यपदेषात् । सुशुप्तौ तावत् ‘अयं पुरूशः प्राज्ञेनात्मना संपरिश्वक्तो न बाह्यं किंचन वेद नान्तरम् (वृ॰ 4।3।21) इति षारीराद् भेदेन परमेष्वरं व्यपदिषति । तत्र पुरूशः षारीरः स्यात् तस्य वेदितृत्वात् । बाह्याम्यन्तरवेदनप्रसंगें सति तत् प्रतिशेधसंभवात् । प्राज्ञः परमेष्वरः, सर्वज्ञत्वलक्षणया प्रज्ञया नित्यमवियोगात् । तथोत्क्रान्तावपि ‘अयं षारीर आत्माप्राज्ञेनात्मनान्वारूढ उत्सर्जन्यति’ (वृ॰ 4।3।35) इति जीवाद् भेदेन परमेष्वरंव्यपदिषति । तत्रापि षारीरो जीवः स्याच् छरीरस्वामित्वात् । प्राज्ञस्तु एव परमेष्वरः ।
(षां॰ भा॰ 1।3।42 पृश्ठ 143)
‘‘सुशुप्ति और उत्क्रान्ति (मृत्यु) दोनों मंे जीव और परमेष्वर का भेद बताया है । सुशुप्ति का उदाहरण – ‘‘यह पुरूश प्राज्ञ आत्मा से मिल कर न बाहर का कुछ देखता है न भीतर का ।’’ (वृ॰ 4।3।21) यहाँ जीव और परमेष्वर का भेद बताया गया है । यहाँ पुरूश का अर्थ है जीव । क्यांेकि जानने की क्रिया ‘अर्थात् वह न बाहर की बात जानता है न भीतर की,’ जीव के ही सम्बन्ध मंे संभव है । ‘प्राज्ञ’ का अर्थ है परमेष्वर क्योंकि उसका लक्षण ही यह है कि वह सर्वज्ञ है और सर्वज्ञता से कभी अलग नहीं होता । इसी प्रकार मृत्यु का भी उदाहरण – ‘‘यह षरीरी आत्मा प्राज्ञ आत्मा की सहायता से निकल कर जाता है’’ (बृ॰ 4।3।35) यहाँ भी जीव और परमेष्वर का भेद बताया गया है । यहां जीव का नाम षारीर है क्योंकि वह षरीर का स्वामी है और प्राज्ञ तो परमेष्वर ही है ।’’
यहाँ यह कह जा सकता है कि सुशुप्ति और उत्क्रान्ति मंे ही जीव और ब्रह्म का भेद बताया गया है वास्तविक नहीं है । परन्तु यह कल्पना ठीक नहीं क्योंकि ब्रह्म को ‘प्राज्ञ’ या ज्ञानी बताया है । जब ब्रह्म ज्ञानी है तो वह अविद्यावष जीव नहीं हुआ । और यदि जीव नहीं हुआ तो भेद कैसा? यदि स्वप्न का द्रश्टान्त देकर यह कहा जा सकता कि जीव वस्तुतः ब्रह्म है, स्वप्न वष अपने को जीव समझता है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि सुशुप्ति मंे जीव और प्राज्ञ ब्रह्म का सम्पर्क होता है । या मृत्यु मंे जीव प्राज्ञ परमेष्वर के आश्रय से निकलता है । यहाँ स्पश्ट कहा है कि सुशुप्ति और उत्क्रान्ति में परमेष्वर और जीव का भेद है । श्री षंकरजी भी स्वीकार करते हैं । अब प्रष्न यह रहता है कि यह भेद वास्तविक है या व्यावहारिक या प्रातिभासिक! व्यावहारिक का तो सुशुप्ति और उत्क्रान्ति मंे प्रष्न ही नहीं उठता । और न प्रातिभासिक का । फिर यह भेद वास्तविक ही मानना पडेगा ।
(15)
त्रयाणांमेव चैवमुपन्यासः ष्नश्च ।। (1।4।6)
इस सूत्र का केवल इतना अर्थ है । ‘‘तीनों का ही प्रसंग है और प्रष्न भी ।’’
इस सूत्र से जीव ब्रह्म का अभेद लेषमात्र भी प्रतीत नहीं होता । परन्तु षं॰ स्वा॰ ने एक लम्बी व्याख्या करके कई अप्रासंगिक बातें लिखी हैं:-
(अ) इह चान्यत्र धर्मादित्यस्य प्रष्नस्य प्रतिवचनं ‘न जायते म्रियते वा विपश्चित्’ इतिजन्ममरण प्रतिशेधेन प्रतिपाद्यमानं षारीरपरमेष्वरयोरभेदं दर्षयति ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 153)
‘‘उपनिशद् में उत्तर दिया गया कि जीवन मरता है न उत्पन्न होता है । इस जन्म मरण के प्रतिवेध से जीव और ब्रह्म का अभेद प्रतिपादित होता है ।’’
यह युक्ति सर्वथा युक्ति आभास है क्यांेकि जन्ममरण के प्रतिशेश से जीव का नित्यत्व बताया गया है । इसको आप जीव और ब्रह्म का नित्यत्व के विशय मंे साद्दष्य तो कह सकते हैं । परन्तु अनन्यत्व नहीं ।
(आ) तथा – ‘स्वप्रान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपष्यति महान्तं विभुमान्मानं मन्वा धीरो न षोचति’ (का॰ 2।4।4) इति स्वप्रजागरितद्दषो जीवस्यैव महत्त्व विभुत्व विषेशणस्य मननेन षोकविच्छेदं दर्षयन्न प्राज्ञादन्यो जीव इति दर्षयति प्राज्ञविज्ञानाद्धि षोक विच्छेद इति वेदान्त सिद्धान्तः ।
(षां॰ भा॰ 1।4।6 पृश्ठ 143)
‘‘कठोपनिशद् में स्वप्न और जागृत देखने वाले जीव के लिये बताया गया है कि जब वह महत्व और विभुत्व विषेशण का मनन करता है तो षोक विच्छेद हो जाता है । इसमें बताया गया कि जीव परमेष्वर ही है । वेदान्त का यह सिद्धान्त है कि प्राज्ञ अर्थात् परमब्रह्म के ज्ञान से ही षोकविच्छेद होता है ।’’
समालोचना – यहाँ ‘न प्राज्ञादन्यो जीवः’ यह कहाँ से आ गया ? यह तो ठीक है कि ‘‘प्राज्ञ के विज्ञान’’ से ही षोक दूर होता है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्राज्ञ ही जीव है । उपनिशद् मंे तो यह बताया गया है कि ईष्वर को महान और विभु मानकर किसी को षोक नहीं होता । अर्थात् जो जीव ईष्वर पर विष्वास करेगा उसको षोक नहीं होगा । विष्वास करने वाला या न करने वाला जीव है । ‘मत्वा धीरो न षोचति’ । यह मानने वाला धीर ब्रह्म नहीं किन्तु ब्रह्म से इतर होना चाहिये । इसलिये षं॰ स्वा॰ की प्रतिपत्ति युक्ति संगत नहीं ।
(इ) तथाग्रे – ‘यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह । मृत्योः स मृत्युमाप्रोति य इह नानेवं पष्यति । (का॰ 2।4।10) इति जीवप्राज्ञभेदद्दश्टिमपवदति ।’
(षां॰ भा॰ 1।4।6 पृश्ठ 153)
‘जो इस लोक में है वह परलोक में । जो परलोक मंे है वह इस लोक मंे । मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है जो यहाँ भेद देखता है’ इससे जीव और ब्रह्म के भेद का खण्डन किया है ।
हमारी आलोचना – उपनिशद् में तो केवल इस लोक और परलोक का नैरन्तर्य (सातत्य) बताया गया है । यहाँ जीव और ब्रह्म के भेद या अभेद का तो प्रष्न ही नहीं था । यह समस्त ब्रह्माण्ड एक इकाई है । इसकी प्रत्येक वस्तु का परस्पर सम्बन्ध है । ‘नाना इव पष्यति’ का अर्थ है कि जो संसार की चीजांे को असम्बद्ध वत् देखता है और समझता है कि इस लोक और परलोक मंे कोई सम्बन्ध नहीं वह अज्ञानी है और मृत्यु को प्राप्त होता है । इसको एक द्रश्टान्त से देख सकते हैं । एक परिवार में कई लोग हैं । सबका एक दूसरे से सम्बन्ध है । यदि उनमंे से कोई अपने को अलग समझे तो परिवार का हृास हो जाय । ‘‘नाना इव’’ देखना प्रबन्ध को तोडना है, और प्रबन्ध के टूटते ही हृास हो जाता है । इसका यह अर्थ तो नहीं कि परिवार में एक ही मनुश्य है । कई नहीं । सम्बन्ध षब्द ही बताता है कि अनन्यत्व नहीं है । यदि एक ही पुरूश होता तो परिवार ही न होता । ब्रह्म को समस्त जगत् में ओत – प्रोत समझना और समस्त वस्तुओं और क्रियाओं को सम्बद्ध समझना ही ‘ज्ञान’ है । और इसके बिना मुक्ति नहीं होती ।
(ई) ‘तं दुर्दर्षं गूढमनु प्रविश्टं गुहाहितं गह्वरेश्टं पुराणम् । अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्शषोकौ जहाति’ (का॰ 1।2।12) इति तेनापि जीवप्राज्ञयोरभेद एवेह विवक्षित इति गम्यते’
(षां॰ भा॰ 1।2।12 पृश्ठ 154)
कठोपनशित् के 1।2।12 से भी ब्रह्म और जीव का अभेद बताया गया है ।
हमारी समालोचना – नही तो । उपनिशद् मंे तो अभेद का लवलेष भी नहंी । वहाँ तो ‘धीर’ और ‘देव’ का स्पश्ट भेद है । ‘‘देवं मत्वा धीरो हर्श षोकौ जहाति’’ । अनुप्रवेष से भी जीव ब्रह्म की एकता सिद्ध नहीं होती । बहुत खींचातानी से भी उपनिशद् का वह अर्थ नहीं निकलता जो षंकर स्वामी ने लिया है । बादरायण के सूत्र में तो कुछ भी संकेत नहीं । षंकर स्वामी को स्वंय लिखना पडा:-
‘‘सूत्रं त्वविद्याकल्पितजीवप्राज्ञभेदापेक्षया योजयितव्यम् ।’’
‘‘अर्थात् सूत्र का अर्थ अविद्याकल्पित जीव ब्रह्म के भेद की अपेक्षा से लेना चाहिये ।’’
इससे स्पश्ट है कि सूत्र में भेद बताया गया है । रही यह बात कि वह अविद्या कल्पित है या नहीं सो सूत्र में तो इसका उल्लेख नहीं । यह केवल षंकर स्वामी की कल्पना है ।
विचारे ‘प्रधान’ को तो षंकर स्वामी ने व्यर्थ ही घसीटा है ।
(15)
अपि चैवमेके षाखिनो वाजसनेयिनोऽस्मिन्नेव बालाक्यजात षत्रु संवादे स्पश्टं विज्ञानमयषब्देन जीवमाम्नाय तद् व्यतिरिक्तं परमात्मानमामनन्ति – ‘य एश विज्ञानमयः पुरूशः क्वैश तदाभूत् कुत एतदागात्’ । (बृ॰ 2।1।16) इति प्रष्ने । प्रतिवचनेऽपि ‘य एशोऽन्तहृदय आकाषस्तस्मिञा्षेते’ इति ।
(षां॰ भा॰ 1।4।18 पृश्ठ 168)
इस बालाकी अजात षत्रु संवाद मंे वाजसनेयी षाखा वाले स्पश्ट रीति से विज्ञानमय से जीव का ही अर्थ लेते हैं और परमात्मा को इससे भिन्न मानते हैं । ‘‘यह विज्ञानमय पुरूश कहाँ था और कहाँ से आया’’? (बृ॰ 2।1।16) इस प्रष्न के उत्तर में कहा है, ‘‘हृदय के भीतर जो आकाष है उसमंे सोता है’’ ।
यहाँ जीव-ब्रह्म का भेद स्पश्ट है । परन्तु षं॰ स्वा॰ ने दो पंक्तियाँ आगे ‘‘उपाधिमतां आत्मनाम्’’ अपनी ओर से लिख दिया अर्थात् यहाँ उपाधिकृत जीवों का विशय है । इस कथन की पुश्टि न तो उपनिशद् से होती है न सूत्र से ।
(17)
वृहदारण्यक के 4।5।6 में मैत्रेयी – याज्ञवल्क्य संवाद है । श्री षंकर स्वामी ने वेदान्त 1।4।19 के भाश्य में प्रष्न उठाया:-
‘विज्ञानान्मानमेवेहोपदिश्टं दर्षयति’ (पृश्ठ 169)
इसका उत्तर देते हैं:-
‘परमांत्मोपदेष एवायम्’ (पृश्ठ 169)
अर्थात् यहाँ विज्ञानात्मा जीवका सम्बन्ध नहीं किन्तु परमात्मा का है ।
कस्मात् – क्यों ?
वाक्यान्वयात् – वाक्यों के पूर्वा पर सम्बन्ध से । कौन से वाक्यों का ?
‘‘अमृतत्वस्य तु नाषास्ति वित्तेन’’ इति याज्ञवल्क्यादुपश्रुत्य ‘येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्या यदेव भगवान् वेद तदेव में ब्रूहि इत्यमृतन्धमाषासानाया मैत्रय्या याज्ञवल्क्य आत्मविज्ञानमिदमुपदिषति न चान्यत्र परमात्मविज्ञानादमृतत्वमस्तीति श्रुति स्मृति वादा वदन्ति’ ।
(षां॰ भा॰ 1।4।19 पृश्ठ 169)
हमारी आलोचना – वाक्यों के पूर्वा पर सम्बन्ध से विज्ञानात्मा (जीव) का खण्डन तो नहीं होता । याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को तो यह समझाया है कि धन से अमृतत्व नहीं प्राप्त होता । अपने आत्मा पर विचार करने से होगा । यह ठीक है कि परमात्मज्ञान के लिये भी तो पहले जीव का ज्ञान आवष्यक है । जीव के अस्तित्व को भुला कर परमात्मोपदेष या अमृतत्व प्राप्ति का कोई अर्थ नहीं ।
(18)
नीचे के तीन सूत्रों में कई आचार्यों की साक्षी से षं॰ स्वामी ने ब्रह्म – जीव का अभेद प्रतिपादित किया है । यह आलोचनीय है । सूत्र यह है ।
1-प्रतिज्ञासिद्धेर्लिगंमाष्मरथ्यः ।
2-उत्क्राम्रिश्यत एवंभावादित्यौडुलोमिः ।
3-अवस्थितेरिति काषकृत्स्नः ।
(1।4।20।21।22)
इसके षाब्दिक अर्थ यह हैः-
1-आष्मरथ्य आचार्य का मत है कि यह प्रतिज्ञा की सिद्धि का लिंग है ।
2- औडुलोमि आचार्य का मत है कि मरने वाले (षरीर छोडने वाले) का इस प्रकार का भाव हो जाता है ।
3- काषकृत्स्न आचार्य का मत है कि जीव की स्थिति ही इस प्रकार की है ।
अस्त्यत्रप्रतिज्ञा ‘आत्मनिविज्ञाते सर्वामिदं विज्ञातं भवति’ ‘इदं सर्वं यदयमात्मा’ इति च । ……….यदि हि । विज्ञानात्मा परमात्मनोऽन्यः स्यात् ततः परमात्मविज्ञानेऽपि विज्ञानात्मा न विज्ञान इति ।
(षां॰ भा॰ 1।4।20 पृश्ठ 170)
प्रतिज्ञा यह है कि आत्मा के जानने से सब जगत् जान लिया जाता है । ‘यह जो आत्मा है वह सब कुछ है’ । यदि विज्ञानात्मा परमात्मा से अलग होता तो परमात्मा के जानने से आत्मा का ज्ञान न होता ।
हमारी समझ में यह युक्ति ठीक नहीं । उपनिशद् मंे जो यह कहा कि ब्रह्म के जानने से सब कुछ जान लिया जाता है उससे षांकर – अद्वैत सिद्ध नहीं होता । क्योंकि नियन्ता के जानने से उसके समस्त काम को समझ सकते हैं । ईष्वर को नियन्ता तो द्वैतवाद भी मानता है । किसी बडे कारखाने के स्वामी के द्रश्टि – कोण को समझते ही समस्त कारखाना समझ में आ सकता है । किसी षासक क द्रश्टिकोण को समझते ही उसके समस्त षासन को समझ सकते हैं । यही बात यहाँ कीह गई । विज्ञानात्मा (जीव) तो परमात्मा के षासन में रहता है । यद्यपि वह कर्म करने में स्वतन्त्र है तथापि वह इस जगत् के सभी नियमों से बंधा हुआ है । अतः ब्रह्म को समझ कर हम जीव को भी समझ सकते हैं । क्योंकि विज्ञानात्मा एक छोटा आत्मा है । परमात्मा बडा आत्मा है । सूय्र्य को समझने से दीपक का समझना या समुद्र को समझने से झील का समझना सुगम हो जाता है । उपनिशद् की उस प्रतिज्ञा मंे जीव – ब्रह्म के अभेद की द्रश्टि नहीं है । ‘‘आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति’’ । यहाँ एक प्रष्न करने से ही समस्त अभेदवाद समाप्त हो जाता है । अर्थात् ‘केन?’’ । ‘‘केन आत्मनि विज्ञाते सिर्वमिदं विज्ञातं भवति?’’ ब्रह्म को कौन जान ले तो उसे सब कुछ ज्ञात हो जाय? ब्रह्म तो ज्ञेय हुआ । ज्ञाता हुआ जीव । फिर अभेद कहाँ रहा ?
आचार्य औडुलोमि और आचार्य काषकृत्स्न का जितना मत सूत्रों मे दिया है उससे तो अभेद की सिद्धि नहीं होती ।
श्री औडुलोमि जी कहते हैं कि षरीर छोडने के पष्चात् मुक्त जीव में ‘एवंभाव’ अर्थात् ब्रह्मरूपता हो जाती है । ‘ब्रह्मरूपता’ का यह अर्थ नहंी कि जीव का जीवत्व नश्ट होकर केवल ब्रह्म ही रह जाता है । काषकृत्स्न आचार्य कहते हैं कि जीव की आन्तरिक अवस्था इस प्रकार की है कि वह मुक्ति में ब्रह्मरूपता का अनुभव करने लगता है । अर्थात् मुक्ति कोई बाहर की आरोपित वस्तु नहीं है । मुक्ति का बीज जीव की आन्तरिक अवस्था में विद्यमाना है । हमारा यहाँ यह लिखने का तात्पर्य यह है कि षं॰ स्वा॰ का ब्रह्म – जीव अभेद न तो बादरायण के सूत्रों मंे है न आष्मरथ्य आदि आचार्यों के कथनों में और न उपनिशदों के उद्धरणों मंे । इसको तो ‘अतस्मिँस्तद्बुद्धिः’ अर्थात् भेद में अभेद की कल्पना ही कहना चाहिये ।
षंकर स्वा॰ के निम्न वाक्यों पर द्रश्टि डालिये:-
(1) न च तेजः प्रभृतीनां सृश्टौ जीवस्य पृथक् सृश्टिः श्रुता, येन परस्मादात्मनोऽन्यस्तद्विकारो जीवः स्यात् ।
(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)
श्रुति मंे जैसे अग्नि आदि की उत्पत्ति वर्णन की वैसे अलग जीव की सृश्टि का वर्णन नहीं किया जिससे परमात्मा से अलग जीव उसका विकार हो सकता ।
हमारी आलोचना – जीव की उत्पत्ति का अलग वर्णन इस लिये नहीं है कि जीव नित्य और अजन्मा है । इससे न तो यह सिद्ध होता है कि जीव ब्रह्म ही है । न उसका विकार । अग्नि आदि भी तो ब्रह्म का विकार नहीं है । क्यांेकि ब्रह्म उपादान कारण नहीं।
(2) काषकृत्स्नयाचार्यस्याविकृतः परमेष्वरोजीवोनान्यइति मतम् ।
(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)
काषकृत्स्न आचार्य तो अविकृत परमेष्वर को ही जीव मानते हैं न अन्य को ।
(3) आष्मरथ्यस्य तु यद्यपि जीवस्य परस्मादनन्यत्वम – भिप्रेतं तथापि प्रतिज्ञासिद्धेरिति सापेक्षत्वाभिधानात् काय्र्यकारण – भावः कियानप्यभिप्रेत इति गम्यते ।
(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)
यद्यपि आष्मरथ्य जी जीव का परमेष्वर से अनन्यत्व मानते हैं तो भी ‘‘प्रतिज्ञासिद्धि से’’ इस अपेक्षा के कथन मात्र से कुछ – कुछ काय्र्य कारण भाव की प्रतीति होती है ।
(नोट – यह तो अनन्यत्व नहीं है) ।
(4)औडुलोमिपक्षे पुनः स्पश्टमेवावस्थान्तरापेक्षौ भेदाभेदौ गम्यते ।
‘‘औडुलोमि के पक्ष में तो स्पश्ट ही भेद और अभेद अवस्था की अपेक्षा से हैं ।’’ (अर्थात् बन्ध अवस्था मंे भेद है मुक्ति मंे अभेद है ।)
(5) तत्र काषकृत्स्नीयं मतं श्रुत्यनुसारीति गम्यते ।
(षां॰ भा॰ 1।4।22 पृश्ठ 171)
यहाँ काषकृत्स्न का मत श्रुति के अनुसार है ।
हमारी आलोचना – इससे इतना तो स्पश्ट है कि यह आचार्य षांकर अद्वैत के मानने वाले नहीं थे । कारण और काय्र्य का भेद अनन्यत्व नहीं हो सकता । बन्ध में भेद और मुक्ति में अभेद कुछ अर्थ नहीं रखते । यह तो कह सकते हैं कि बन्ध में जीव को ब्रह्मरूपता नहीं प्राप्त होती । मोक्ष मंे होती है । काषकृत्स्न का मत वही नहीं जो षंकर स्वामी का है । श्रुति के अनुसार अवष्य है क्यांेकि श्रुति भी ष्ंाकर स्वामी के मत की पुश्टि नहीं करती ।
(19)
अधिकं तु भेदनिर्देषात् (वे॰ 2।1।22)
(1) यत् सर्वज्ञ सर्वषक्ति ब्रह्म नित्य षुद्ध बुद्धमुक्तस्वभावं षारीरादधिकमन्यत् । तद्वंय जगतः स्त्रश्टृ ब्रूमः । न तस्मिन्हिता कारणादयो दोशाः प्रसज्यन्ते । नहि तस्य हितं किंचित्कत्र्तव्यम-स्तयहितं वापरिहर्तव्यम् । नित्यमुक्तस्वभावन्वात् ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 2089)
(2) षारीरस्त्वनेवंविधस्तस्मिन् प्रसज्यन्ते हिताकरणादयो दोशाः न तु तं वयं जगतः स्त्रश्टारं ब्रूमः । कुत एतत् । भेदनिर्देषात् ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 209)
जो सर्वज्ञ सर्वषक्तिमान् ब्रह्म है वह नित्य – षुद्ध – बुद्ध मुक्त स्वभाव होने से जीव से अधिक, अन्य है । उसी को हम जगत् का रचयिता कहते हैं । उसमंे यह दोश नहीं लगाया जा सकता कि वह हित नहीं करता । उसको न तो अपना कोई हित करना है न अपना कोई अहित निवारण करना है । नित्य – मुक्त – स्वभाव होने के कारण ।
जीव तो ऐसा नहीं है, उसमें ‘हित न करना’ आदि दोश लग सकते हैं । उसको हम जगत् का रचयिता नहीं कहते । क्यों । भेद का निर्देष होने के कारण ।
हमारी आलोचना – यहाँ ब्रह्म और जीव का भेद स्पश्ट है ।
पूर्व पक्ष – नन्वभेदनिर्देषोऽपिदर्षितः ‘तत्त्वमसि’ इत्येवंजाती – यकः । कथं भेदाभेदौ विरूद्धौ संभवेयाताम् ।
‘तत्वमसि’ आदि वाक्यों मंे अभेद भी तो बताया है । भेद और अभेद दोनों कैसे मेल खायेंगे?
षां॰ उत्तर पक्ष – नैश दोशः । (1) आकाषघटाकाषन्या येनोभयसंभवस्य तत्र तत्र प्रतिश्ठापितत्वात् ।
(2) अपि च यदा तत्त्वमसीत्येवं जातीयकेनअभेदनिर्देषेन अभेदः प्रतिबोधितो भवति, अपगतं भवति तदाजीवस्य संसारित्वं ब्रह्मणश्च स्त्रश्टृत्वं, समस्तस्य मिथ्याज्ञान विजृम्भितस्य भेदव्यवहारस्य सम्यगानेन बाधितत्वात् ।
(षां॰ भा॰ 2।1।22 पृश्ठ 209)
यह दोश नहीं । क्यांेकि (1) जैसे आकाष और घटाकाष मंे भेद अभेद दोनों ही ठीक है वैसा ही यहां भी समझना चाहिये । (2) दूसरे जब ‘तत्वमसि’ आदि निर्देष से अभेद की जागृति हो जायगी तो न जीव का संसारीपन रहेगा और न ब्रह्म का स्त्रश्टापन । यह तो सब भेद मिथ्या ज्ञान के द्वारा है । जब यह समाप्त हुआ तो वह भी नश्ट हो जायगा ।
हमारी आलोचना – यह हम कई स्ािानांे पर दिखा चुके हैं कि ‘तत्वमसि’ जीव के लिये है ब्रह्म के लिये नहीं । और न यह वाक्य ब्रह्म और जीव का अभेद बताता है ।
वादरायण के सूत्र मंे इस बात की गन्ध तक नहीं कि यह भेद मिथ्या ज्ञान के कारण है । सूत्र मिथ्या ज्ञान को दूर करने के लिये हैं न कि उसके आधार पर वक्तव्य देने के लिये ।
आकाष और घटाकाष तो एक ही हैं और एक लक्षण वाले हैं । परन्तु जीव और ब्रह्म का भेद आप ही प्रबल भाशा मंे बता चुके हैं । अतः यह द्रश्टान्त ठीक नहंी है ।
मिथ्या ज्ञान के दूर होने पर किसी जीव की मुक्ति हो जाय तो उसका संसारीपन अवष्य छूट जायगा । परन्तु उसकी अपनी सत्ता नश्ट नहीं होगी । मुक्ति का अर्थ यह नहीं कि अस्तित्व भी नश्ट हो जाय । (देखो षां॰ भा॰ 4।4।12, 4।4।17)
यह कहना तो सर्वथा ही अनर्गल है कि ईष्वर का स्त्रश्टापन भी समाप्त हो जायगा । क्यांेकि एक जीव की मुक्ति होने से समस्त जीवमंडल की मुक्ति नहीं हो सकती । आज संसार विद्यमान है और ईष्वर का स्त्रश्टापन भी स्थित है । क्या यह समझना चाहिये कि अब तक षंकर स्वामी, उनके गुरू अथवा किसी अन्य जीव की मुक्ति हुई ही नहीं ।
(20)
न जीवस्योत्पत्तिप्रलयौ स्तः, षास्त्रफल संबन्धोपपत्तेः । षरीरानुविनाषिनि हि जीवे षरीरान्तरगतेश्टानिश्टप्राप्ति परिहारार्थौ विधि – प्रतिशेधावनथकौ । स्याताम् । श्रूयते च -‘जीवापेतं वाव किलेदं स्त्रियते न जीवो स्त्रियते । (छा॰ 6।11।3)’
(षां॰ भा॰ 2।3।16 पृश्ठ 277)
जीव की उत्पत्ति प्रलय नहीं होते । इसी प्रकार षास्त्रोक्त कर्मफल का सम्बन्ध हो सकता है । यदि षरीर के साथ जीव भी नश्ट हो जाय तो दूसरे षरीर में इश्ट अनिश्ट की प्राप्ति या परिहार कैसे हो ? और षास्त्र में जो विधि ओर निशेधात्मक उपदेष है वह भी अनर्थक हो जाय । छान्दोग्य में भी कहा है कि ‘जीव से त्यागा हुआ षरीर मरता है जीव नहीं मरता ।’
यह भाशा जीव ब्रह्म का भेद दिखाने के लिये इतनी स्पश्ट है कि टिप्पणी की आवष्यकता नहंी । 17वें सूत्र के भाश्य में षंकर स्वामी ने जो यह लिखा हैः-
‘‘प्रतिज्ञानुपरोधोऽप्यविकृतस्यैव ब्रह्मणो जीवभावाभ्युपगमात् । लक्षणभेदोऽप्यनयोरूपाधिनिमित्तएव ।’’
(षां॰ भा॰ 2।3।17 पृश्ठ 279)
अर्थात् अविकृत (विकार – रहित) ब्रह्म के जीव मानने से ही उपनिशदों का समन्वय होता है और जीव ब्रह्म का जहाँ कहीं लक्षण – भेद दिया है वह उपाधि के कारण है यह ठीक नहीं । प्रथम तो इससे स्पश्ट हो जाता है कि षास्त्रों में जीव ब्रह्म का लक्षण भेद दिया है । दूसरे ब्रह्म को अविकृत भी मानना और फिर उसमें उपाधि का पचडा लगाना ये दोनों परस्पर विरूद्ध बातें हैं । यदि ब्रह्म अविकार्य है तो उसमंे उपाधि का कुछ प्रभाव नहीं पड सकता और वह जीव-भाव को प्राप्त नहंी हो सकता । श्री षंकर स्वामी लिखते हैं:-
यदपि क्वचिदस्योत्पत्ति प्रलय श्रवणं तदप्यत एवोपाधिसंबन्धान्नेतव्यम् । उपाध्युत्पत्त्यस्योत्पत्तिः प्रलयेन च प्रलय इति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।17 पृश्ठ 279)
जहाँ कहीं जीव की उत्पत्ति या प्रलय लिखी है वह उपाधि सम्बन्ध से है । उपाधि की उत्पत्ति से इसकी उत्पत्ति, उपाधि की प्रलय से इसकी प्रलय ।
यहाँ यह ठीक है कि षरीर ही उत्पन्न या नश्ट होता है । जीव नहीं । जहाँ जीव की उत्पत्ति या विनाष का उल्लेख है वहाँ षरीर की अपेक्षा से है । परन्तु इसको ब्रह्म में तो नहंी घटा सकते । याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को जो उपदेष दिया है वहाँ भी जीव ही अभिप्रेत है । यह जो षंकर स्वामी आकाष का द्रश्टान्त देते हैं:-
‘‘आकाषस्येव घटादि संबन्ध निमित्तम्’’ । (पृश्ठ 279)
अर्थात् जैसे आकाष के घट आदि के निमित्त से भाग हो जाते हैं वैसे ही ब्रह्म के भी हो जायंगे । यह ठीक नहीं । प्रथम तो उपनिशदों या सूत्रों में ऊपर के वाक्य के तुल्य एक भी ऐसा वाक्य नहीं है जहाँ बिना खींचा तानी के स्पश्ट ऐसा उल्लेख हो । दूसरे जहाँ आकाष से ब्रह्म की उपमा दी गई है वहाँ विभुत्व के प्रसंग में न कि उपाधि के प्रसंग मंे । यह एक विषेश बात है जिसको लोग आँखों से ओझल कर देते हैं । दूसरी बात यह है कि आकाष जड है । घटाकाष को यह ज्ञान नहीं कि मैं उपाधि के कारण अब तंग या तंग सा हो गया । केवल दूसरे लोग ऐसा समझ लेते हैं । परन्तु ब्रह्म तो सर्वज्ञ तथा चेतन है । उसे स्वयं यह क्यों नहीं पता रहता कि मैं विभु हूँ केवल षरीर के कारण परिच्छिन्न हो गया हूँ ।’’ घडे की दीवारंे भीतर के आकाष के किसी गुण को तिरोहित करने के समर्थ नहीं है । फिर षरीर की उपाधि ब्रह्म के मौलिक गुण सर्वज्ञता, निश्पापता, आनन्द आदि को कैसे तिरोहित कर सकती है? तीसरे घडे की दीवारें झूठी नहीं, सच्ची हैं फिर भी वे आकाष के गुणों को दबा नहीं सकीं तो षरीर की मायावीं उपाधियाँ ब्रह्म को कैसे दबा सकती हैं? जीव अल्प हैं षरीर के आश्रित है अतः षरीर की सीमाओं से प्रभावित हो जाता है।
(21)
नित्यस्वरूप चैतन्यत्वे घ्राणाद्यानर्थक्यमिति चेत् । न । गन्धा – दिविशय विषेशपरिच्छेदार्थत्वात् ।। तथाहि दर्षयति ‘गन्धाय घ्राणम्’ इत्यादि ।
(षां॰ भा॰ 2।3।18 पृश्ठ 280)
यदि यह आक्षेप करो कि यदि जीव नित्य चेतन होगा तो नाक आदि व्यर्थ हो जायेंगे तो यह आक्षेप ठीक नहीं । क्यांेकि नाक आदि तो गन्ध आदि विषेश विशयों के पहचानने के लिये हैं । षास्त्र भी कहता है, ‘‘गन्ध के लिये नाक है ।’’
यह ठीक है । परन्तु इससे जीव का ब्रह्म से भेद स्पश्ट हो जाता है । ब्रह्म को किसी विशय के जानने के लिये इन्द्रिय की आवष्यकता नहीं ।
‘‘पष्यतयचक्षुः स शृणोत्यकर्णः’’ (ष्वे॰ 3।19)
जब बिना चक्षु के रूप विशय को देखता और बिना कान के षब्द विशय को सुनता है तो बिना नाक के गन्ध विशय को सूंघने में क्या संदेह ?
(22)
वेदान्त दर्षन के दूसरे अध्याय के तीसरे पाद के 19वें सूत्र से लेकर 32वें तक जीव के अणुत्व का प्रष्न है । इन सूत्रों में स्पश्ट दिया है कि जीव अणु है विभु नहीं । परन्तु षंकर स्वामी ने 19 से 28 तक सूत्रों को पूर्व – पक्ष मान कर षेश मंे जीव का विभुत्व स्वीकार किया है जिससे जीव – ब्रह्म का अभेद सिद्ध हो जाय । सब सूत्रों के षब्दों पर दृश्टि डालने से षंकर स्वामी की अयुत्क्ता स्पश्ट हो जाती है । सूत्र ये हैं:-
(19) उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम् ।
उत्क्रान्तिगत्यागतीनां श्रवणात् परिच्छिन्नोऽअणु परिमाणो जीव इति । उत्क्रान्तिस्तावत् – ‘स यदास्माच्छरीरादुत्क्रामति सहैवैतैः सर्वैरूत्क्रामति’ (कौशीत॰ 3।3) इति गतिरपि ‘ये वै के चास्माल्लोकात् प्रयन्धि चन्द्रमसमेव ते सर्वे गच्छन्ति (कौशी॰ 1।2) इति । आगतिरपि ‘तस्माल्लोकात् पुनरेत्यस्मै लोकाय कर्मणे’(बृ॰ 4।4।6) इति’
आसामुत्क्रान्तिगत्यागत्तीनां श्रवणात् परिच्छिन्न स्तावज्जोब इति प्राप्रोति । नहि विभोश्चलनमवकल्पत इति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।19 पृश्ठ 281)
श्रुति मंे दिया है कि जीव निकलता है, जाता है और फिर लौटता है । जैसे कौशीतकि ब्रह्मण – उपनिशद् मंे लिखा है कि जब जीव इस षरीर से निकलता है तो इन सब (प्राणादि) के साथ निकलता है । तथा ‘‘जो कोई इस लोक से जाते हैं वे सब चन्द्र लोक को जाते हैं’’ और वृहदारण्यक में है कि ‘‘उस लोक के फिर इस लोक को लौटते हैं कर्म के लिये ।’’ निकलने, जाने और लौटने से सिद्ध है कि जीव परिच्छिन्न है । विभु होता तो चलना कैसे होता ?
(20) स्वात्मना चोत्तरयोः ।
उत्तरे तु गत्यागतो नाचलतः संभवतः । स्वात्मना हि तयोः संबन्धो भवति गमेः कर्तृस्थ क्रियात्वात् । अमध्यम परिमाणस्य च गत्यागतो अणुत्व एव संभवतः ।…………………………. तस्मादप्यस्याणुत्वत्वसिद्धिः ।
(षां॰ भा॰ 2।3।20 पृश्ठ 282)
जाना ओर लौटना अचल मंे नहीं हो सकता । अपने आत्मा से ही उनका सम्बन्ध होता है । गति कत्र्ता में ही होती है । जाने और लौटने के लिये जीव अणु होना चाहिये ।
(21) नाणुरतचªछुतेरिति चेन्नेतराधिकारात् ।
अथापि स्यान्नाणुरयमात्मा । कस्मात् । अतचªछुतेः । अणुत्व-विपरीत परिमाणश्रवणादित्यर्थः । ‘सवा एश महाजन आत्मा योऽयं विज्ञानमयः प्राणेशु (बृ॰ 4।4।12), ‘आकाषवत् सर्वगश्च नित्यः,’ ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ (तै॰ 2।1।1) इत्येवं जातीयका हि श्रुतिरात्मनोऽणुत्वे विप्रतिशिध्येतेति चेत् नैश दोशः । कस्मात् । इतराधिकारात् । परस्य ह्यान्मनः प्रक्रियायामेशा परिमाणान्तर श्रुतिः ।
(षां॰ भा॰ 2।3।21 पृश्ठ 282)
यदि वह कहा जाय कि आत्मा अणु नहीं । क्यों? श्रुति के विरूद्ध होने से । अर्थात् श्रुति में लिखा है कि आत्मा अणु नहीं । जैसे बृहदारण्यक में है ‘वह महान् अज, विज्ञानमय है,’ या तैत्तिरीय में है ‘वह आकाषवत् सर्वत्र है,’ ‘‘ब्रह्म सत्य, ज्ञान, और अनन्त है’’ । तो यह आक्षेप ठीक नहीं । क्यांेकि यहाँ प्रकरण ब्रह्म का है । यह श्रुतियाँ ब्रह्म के परिच्छिन्नत्व का खण्डन करती हैं जीव का नहीं ।
(22) स्वषब्दोन्मानाभ्यांच ।
इतश्चाणुरात्मा यतः साक्षादेवास्याणुत्ववाची षब्दः श्रूयते ‘एशोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राणः पञचधा संविवेष (मु॰ 3।1।9) इति ……….तथोन्मानमपि जीवस्याणिमानं गमयति बालाग्रषत भागस्य षतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः सविज्ञेयः (ष्वे॰ 5।8) इति । आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृश्टः । (ष्वे॰ 5।8) इति चोन्मानान्तरम् ।’
(षां॰ भा॰ 2।3।22 पृश्ठ 282-83)
मुण्डक उपनिशद् में स्वयं ‘अणु’ षब्द आया है । ष्वेताष्वर में बाल के सिर के सौवां हिस्सा ऐसा परिमाण भी लिखा है ।
(23) अविराधश्चन्दनवत् ।
यथा हि हरिचन्दन विन्दुः षरीरैकदेष संबद्धोऽपि सन् सकल देहव्यापिनमाह्लादं करोति एवमात्मापि देहैकदेषस्थः सकल देह-व्यापिनीमुपलब्धिं करिश्यति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।23 पृश्ठ 283)
जैसे चन्दन का एक बिन्दु एक अंग मंे लगा हुआ सब षरीर को आनन्द देता है (त्वचा के द्वारा) इसी प्रकार आत्मा भी एक देष में ठहरा हुआ सब षरीर का ज्ञान करता है । इससे जीव का अणुत्व सिद्ध है ।
(24) अवस्थिति वैषेश्यादिति चेआभ्युपगमाद्धृदि हि ।
अभ्युपगम्यते ह्यान्मनोऽपि चन्दनस्येव देहैकदेषवृत्तित्वमव स्थिति वैषेश्यम् । कथमित्युच्यते । हृदि ह्येश आत्मा पठ्यते वेदान्तेशु ‘हृदि ह्येश आत्मा’ (प्रष्न 3।6) ‘सवा एश आत्मा हृदि’ (छा॰ 8।3।3) ।
(षां॰ भा॰ 2।3।24 पृश्ठ 283)
चन्दन की बूँद के समान आत्मा को भी एक देष में स्थित बताया गया है । प्रष्न और छान्दोग्य दोनों मंे लिखा है कि आत्मा हृदय मंे रहता है ।
(25) गुणाद् वा लोकवत् ।
यथा लोके मणिप्रदीपप्रभृतीनामपवरकैकदेषावत्र्तिनामपि प्रभाऽपवरकव्यापिनी सती कृत्स्नेऽपवरके कार्यं करोति तद्वत् ।
(षां॰ भा॰ 2।3।25 पृश्ठ 284)
लोक में देखते हैं कि एक देष में रक्खा हुआ मणि या दीपक सभी स्थानों में प्रकाष करता है इसी प्रकार जीव भी एक देष मंे ठहरा हुआ समस्त षरीर मंे काम करता है ।
(26) व्यतिरेको गन्धवत् ।
अप्राप्तेश्वपि कुसुमादिशु गन्धवत्सु कुसुमगन्धोपलब्धेः । एव – मणोरपि सतो जीवस्य चैतन्यगुणव्यतिरेको भविश्यति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।26 पृश्ठ 284)
जैसे फूल न मिलने पर भी दूर से फूल की गन्ध मिल जाती है इसी प्रकार अणु जीव का चैतन्य गुण भी दूर देष में काम कर सकता है ।
(27) तथा च दर्षयति ।
‘आलोमभ्य आ नखाग्रेभ्यः’ (छा॰ 8।8।1)
(षां॰ भा॰ 2।3।27 पृश्ठ 284)
छान्दोग्य उपनिशद् में भी कहा है ‘‘बालों तक, नाखूनों के अन्त तक’’ ।
(28) पृथगुणपदेषात् ।
‘प्रज्ञया षरीरं समारूद्य’ (कौशी॰ 3।6) इति चात्मप्रज्ञयोः कर्तृकरणभाशेन पृथगुपदेषाच्चैतन्यगुणेनैवास्य षरीरव्यापिता गम्यते ।……………….तस्मादणुरात्मेति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।28 पृश्ठ 284)
कौशीतकी में लिखा है कि जीव प्रज्ञा के द्वारा षरीर में रहता है । यहाँ कत्र्ता और करण को अलग – अलग दे दिया है । इस लिये आत्मा अणु है ।
हमने इन 10 सूत्रों का भाश्य षंकर स्वामी के षब्दों में ही दे दिया है । इससे जीव का परिच्छिन्न होना और इस लिये ब्रह्म से भिन्न होना भी सिद्ध है । उपनिशदों के भी पुश्फल प्रमाण इस पक्ष में हैं ।
परन्तु षंकर स्वामी ने इन को पूर्वपक्ष कर दिया है । यद्यपि इनमें कोई षब्द भी ऐसा नहीं जिससे इनका पूर्वपक्षत्व सिद्ध हो सके ।
आगे के चार सूत्रों के भाश्य मंे षंकर स्वामी ने ऊपर के पूर्व पक्ष का खण्डन किया है । और जीव ब्रह्म के अनन्यत्व का प्रतिपादन । परन्तु सूत्रों के षब्दों से ऐसा ज्ञात नहीं होता । दूसरे अध्याय के पहले पाद का 22वां सूत्र ‘अधिकं तु भेदनिर्देषात्’ भी भेद को स्पश्ट बताता है । अतः जीव के अणुत्व को भी ।
तथापि हम यहाँ अगले चारों सूत्रों और उन पर षांकर भाश्य की आलोचना करते हैं:-
(29) तद्गुणसारत्वात् तु तद्-व्यपदेषः प्राज्ञवत् ।
षां॰ भा॰ – (1) तुषब्दः पक्ष व्यावर्तयति । नैतदस्त्यणु-रात्मेति ।
‘तु’ षब्द पूर्वपक्ष का परिहार करता है । आत्मा अणु नहीं है ।
(2) उपाधि गुणसारन्वज्जीवस्याणुत्वादि व्यपदेषः प्राज्ञवत् । यथा प्राज्ञस्य परमात्मनः सगुणेशूपासनेशूपाधिगुणसारत्वाद णीयस्त्वादिव्यपदेषः ‘अणीयान् व्रीहेर्वा यवाद् वा’ (छा॰ 3।1।14।2) ‘मनोमयः प्राणषरीरः सर्वगन्धः सर्वरसः सत्यकामः सत्य संकल्पः’ (छा॰ 3।1।14।2) इत्येव प्रकारस्तद्वत् ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 285-287)
उपाधि गुण के सार के कारण जीव को अणु कहा है । प्राज्ञ के समान । जैसे सगुण उपासना मंे उपाधि गुण सारत्व के कारण प्राज्ञ ब्रह्म को अणु कहा, ‘जैसे छान्दोग्य में चावल और जौ से भी छोटा कहा है । अथ मनोमय, प्राण षरीर, सर्वगंध, सर्वरस, सत्यकाम और सत्य संकल्प बताया है । उसी प्रकार यहाँ भी ।’
हमसार अलोचना – श्री आनन्द तीर्थ (मध्वाचार्य) के अणु भाश्य मंे ‘तु’ नहीं है । अन्य पुस्तकों मंे है । आनन्द तीर्थ कहते हैं:-
भिन्नाजीवः परोभिन्नस्तथाजिज्ञानरूपतः ।
प्रोच्यन्ते ब्रह्मरूपेण वेद वादेशु सर्वथा । (अणु भाश्य)
अर्थात् जीव भिन्न है । पराब्रह्म भिन्न है परन्तु ज्ञानरूपता के कारण जीव को ब्रह्मरूप से वर्णन किया गया है तथा:-
चेतनत्वादि सादृष्यं यद्यभेद इतीश्यते ।
अंगीकृतं तदस्माभिर्नं स्वरूपैक्यता क्वचित् ।। (अणु व्याख्यान)
चेतनता आदि के सादृष्य से यदि अभेद मानों तो हम को स्वीकृत है । परन्तु स्वरूप से एकता नहीं ।
परन्तु यदि ‘तु’ को मान भी लिया जाय तो भी षंकर मत की पुश्टि नहीं होती । क्यांेकि 28वें सूत्र ‘पृथगुपदेषात्’ के पष्चात् 29वें सूत्र का ‘तु’ पृथक् उपदेष का खण्डन करता हुआ प्रतीत नहीं होता । यदि कहो कि पिछले दसों सूत्र के खण्डन में है तो भी ठीक नहीं क्यांेकि उन सूत्रों के षब्दों से स्पश्ट है कि समस्त बातों का खण्डन ‘गुण सारत्व’ मात्र से नहीं होता । यदि बादरायण को ऐसा अभीश्ट होता तो एक एक युक्ति का क्रमषः खण्डन करते ।
इसकी अपेक्षा तो स्वामी हरि प्रसाद ने वैदिकवृत्ति मंे अच्छा कहा है । बुद्धि सत्व का आत्मा से व्यतिरेक बताकर वह षंका उपस्थित करते हैं । ष्वेताष्वरतर में जीव को ‘अंगुश्ठमात्रो रवितुल्यरूपः’ (ष्वे॰ 5।8) बताया गया है, षंका होती है कि अंगूठे के परिणाम वाला अणु कैसे हो सकता है, इसके उत्तर में 29वां सूत्र कहता है कि –
(1) न खलु श्रुत्या स्वरूप तोऽगंुश्ठपरिमाणो जीवात्मा व्यपदिष्यते किन्तु बुद्धि गुण प्रधान्यात् ।
जीवात्मा स्वरूप से अंगूठे के बराबर नहीं । बुद्धि गुण की प्रधानता के कारण है ।
(2) हृदयं च मनुश्याणां प्रायेणागंुश्ठ परिमाण मिति ।
मनुश्यों का हृदय प्रायः अंगूठे के बराबर माना जाता है ।
(30) यावदात्मभावित्वाश्च न दोशस्तद् दर्षनात् ।
नेयमनन्तर निर्दिश्ट दोशप्राप्तिराषंकनीया । कस्मात् । यावदात्म भावित्वाद् बुद्धिसंयोगस्य । यावदयमात्मा संसारी भवति, यावदस्य सम्यग्यदर्षनेन संसारित्वं न निवतते, तावदस्य बुद्धîा संयोगो न षाम्यति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।30 पृश्ठ 287)
पहले एक षंका उठाई कि जब बुद्धि और आत्मा भिन्न है तो इनका संयोगान्त (अवसान) भी अवष्य होगा । बुद्धि के वियोग होेने पर जीव का अलक्ष्यत्व होगा अर्थात् लक्षण न कर सकोगे । अतः या जीव का अभाव मानना पडेगा या असंसारीपन ।
इस षंका का उत्तर देते हैं । जब तक आत्मा संसारी रहता है, जब तक समयक् ज्ञान से संसारित्व छूटता नहीं तब तक बुद्धि का संयोग भी नहीं छूटता ।
षंकर स्वामी के इस अर्थ से भी जीव के अणुत्व पर कोई प्रभाव नहीं पडता । केवल दूसरा प्रष्न उठ जाता है । जीव के अणु होने पर भी यह ठीक ही हो सकेगा कि जब तक जीव की मुक्ति न होगी षरीर मंे आना जाना (संसारीपन) लगा रहेगा । परन्तु इससे ब्रह्म और जीव का अनन्यत्व सिद्ध नहीं होता ।
(31) पुस्त्वादिवत् त्वस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात् ।
यथा लोके पुंस्त्वादीनि बीजात्मना विद्यमानान्येव बाल्यादिश्वनुपलभ्यमानान्यविद्यमा वदभिप्रेयमाणानि यौवनादिश्वा-विर्भवन्ति, नाविद्यमानान्युत्पद्यते शण्ढादीनामपि तदुत्पत्ति प्रसंगात्, एवमयमपि बुद्धिसम्बन्धः षक्तîात्मना विद्यमान एव सुशुप्ति प्रलययोः पुनः प्रशोधप्रसवयोराविर्भवति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।31 पृश्ठ 289)
बालकों मंे पुंस्त्व (मर्दानापन) बीज मात्र होता है । प्रकट नहीं होता । और युवावस्था में प्रकट होता है । होता अवष्य है । अभाव से भाव नहीं हो जाता । अन्यथा नपुंसक मंे पुस्त्व आ जाता । इसी प्रकार सुशुप्ति और प्रलय में भी आत्मा का बुद्धि से सम्बन्ध षक्तिमात्र रहता है । और जगने पर आविर्भूत हो जाता है ।
इस व्याख्या से जीव के अणु होने का खण्डन नहीं होता किन्तु जीव का ब्रह्म से भेद प्रकट होता है । क्योंकि प्रलय या सुशुप्ति में ब्रह्म तो एक सा ही रहता है । उसमंे बीज – अंकुर की उपमा नहीं घट सकती ं
(32) नित्योपलब्ध्यनुपलब्धि प्रसंगोऽन्यतरनियमो वाऽन्यथा ।
(1) तच्चैवंभूतमन्तः करणमवष्यमस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम् ।
(2) अन्यथा ह्यनभ्युपगम्यमाने तस्मिन्नितयोपलब्ध्यनुपलव्धि प्रसंगः स्यात् । आत्मेन्द्रियविशयाणामुपलब्धि साधनानां संनिधाने सति नित्यमेवोपलब्धिः प्रसज्येत । अथसत्यपि हेतु समवधाने फलाभावस्ततो नित्यमेवानुपलब्धिः प्रसज्येत ।
(षां॰ भा॰ 2।3।32 पृश्ठ 289)
(1) हमको ऐसे अन्तःकरण को मानना ही चाहिये ।
(2) न मानने से या तो नित्य ज्ञान होगा या नित्य अज्ञान । आत्मा इन्द्रिय और विशयों के सम्पर्क से सदा ज्ञान ही होगा । और यदि इनके सम्पर्क से भी ज्ञान न हुआ तो कभी नहीं होगा ।
(3) नचैवं दृष्यते ।
(4) अथवान्यतरस्यात्मन इन्द्रियस्य वा षक्ति प्रतिबन्धोऽभ्यु – पगन्तव्यः ।
या यह मानो कि आत्मा या इन्द्रिय की षक्ति में कोई बाधा पड गई ।
(5) न चात्मनः षक्तिप्रतिबन्धः संभवति अविक्रियत्वात् ।
आत्मा की षक्ति मंे बाधा नहीं हो सकती । वह अविकारी है ।
(6) नापीन्द्रियस्य । न हि तस्य पूर्वोत्तरयोः क्षणयोरप्रतिबद्ध षक्तिकस्य सतोऽकस्माच्छक्तिः प्रतिबध्येत ।
इन्द्रियों में भी बाधा नहीं हो सकती । क्यांेकि पहले और पीछे कोई बाध होती नहीं
तात्पर्य यह है कि आत्मा इन्द्रियों के द्वारा विशयों से संनिकर्श करता है तो ज्ञान होता है । दीवार विशय है, आंख इन्द्रिय है । मैं देखने वाला आत्मा हूँ । जब तक आंख खुली है आत्मा का आंख के द्वारा दीवार को प्रत्यक्ष करना चाहिये । ऐसा नहीं होता । आंख खुली रहने पर भी हम चीजों को नहीं देखते । इससे पता चलता है कि आत्मा और आंख के बीच मंे एक अन्तःकरण या मन भी है । यदि मन को न मानें तो या तो सदा दीवार का ज्ञान होगा या कभी न होगा । परन्तु कभी होता है कभी नहीं होता । इससे सिद्ध है कि मन भी है ।
हमारी आलोचना – ऊपर के इस कथन से जीव का अणु होना सिद्ध तो है असिद्ध नहीं । और न इससे जीव के ब्रह्म होने का कोई प्रसंग उठता है ।
हमने यहाँ 12 सूत्र दिये हैं । जो जीव के अणु होने को प्रकट करते हैं ।
अब आगे हम कुछ युक्तियों की भी आलोचना करेंगे जो पिछले सूत्रों के अन्तर्गत षांकर – भाश्य में भाश्यकार की ओर से उठाई गई हैं । और जिनके लिये बादरायण को उत्तरदाता नहीं बनाया जा सकता ।
षं॰ स्वा॰ – न चाणोर्जीवस्य सकलषरीरगता वेदनोपपद्यते । त्वक् संबन्धात् स्यादिति चेत् । न । कण्टकोतोदनेऽपि सकल षरीर गतैव वेदना प्रसज्येत । त्वक् कण्टकयोर्हि संयोगः कृत्स्नायां त्वचि वर्तते त्वक् च कृत्स्नषरीरव्यापिनीति । पादतल एव तु कण्टकनुन्नो वेदनां प्रतिलभते ।
(षां॰ भा॰ 2।3।32 पृश्ठ 285-286)
यदि जीव अणु होता तो समस्त षरीर की वेदना को न अनुभव कर सकता । यदि कहो कि त्वचा का समस्त षरीर से सम्बन्ध है इस लिये त्वचा के द्वारा वेदना का ज्ञान हो जायगा । तो यह ठीक नहीं । क्योंकि यदि पैर कांटे पर पड जाय तो समस्त षरीर मंे पीडा होनी चाहिये थी । क्योंकि कांटे और त्वचा का सम्बन्ध समस्त देह से है । त्वचा समस्त देह में व्यापक है । परन्तु ऐसा होता नहीं । पीडा केवल पैर के तलवे में ही होती है ।
हमारी आलोचना – इस युक्ति को युक्ति कहने में बडा संकोच होता है । यदि यह युक्ति षांकर भाश्य में न होती तो हम इसकी ओर संकेत करना भी उचित न समझते । षरीर षास्त्र का सामान्य ज्ञान रखने वाला विद्यार्थी भी जानता है कि पैर मंे कांटा लगने से पैर में ही क्यांे पीडा होती है । समस्त षरीर मंे नहीं होती । त्चचा एक अखण्ड अविभाज्य वस्तु नहीं है । षरीर के भिन्न – भिन्न भागों से मस्तिश्क तक नस नाडियों का तांता लगा हुआ है । अतः पैर में कांटा लगते ही आतमा को सूचना मिल जाती है कि षरीर के अमुक स्थान में कांटा लगा है । तार घर में एक स्थान पर बैठे हुये तार बाबू को पता चल जाता है कि तार लखनऊ से खटखटाया जा रहा है या कलकत्ता से । इससे तो जीव के अणुत्व का खण्डन नहीं होता अपितु नाडी संस्थान के उत्तम प्रबन्ध का परिचय होता है ।
जब पक्षाघात (लकवा) हो जाता है तो तन्तु सम्बन्ध मंे विकार आने से कांटे का चुमना भी अनुभव नहीं होता । यदि आत्मा विभु होता तो पक्षाघात होने का कोई प्रभाव न होना चाहिये था ।
कांटे के पैर में लगने से ‘पैर में पीडा है’ ऐसा ज्ञान जीव को अपने मस्तिश्क में होता है षरीर के अन्य स्थानों पर नहीं । इससे सिद्ध है कि जीव अणु ही है ।
यद्यपि त्वग् इन्द्रिय समस्त षरीर मंे है तो भी कांटा जितनी पीडा आंख में उत्पन्न कर सकता है उतनी पैर के तलवे में नहीं । बिना जूते के चलने वाले ग्रामीण पुरूशों की तलवे की खाल इतनी कठोर हो जाती है कि साधारण कांटे का लगना अनुभव भी नहीं होता ।
(2) षंकर स्वामी – न चार्णोगुर्णव्याप्तिरूपपद्यते, गुणस्य गुणिदेषत्वात् । गुणत्वमेव हि गुणिनमनाश्रित्य गुणस्य हायेत । प्रदीप प्रभायाश्च द्रव्यान्तरत्वं व्याख्यातम् । गन्धोऽपिगुणत्वाभ्युप – गमात् साश्रय एवं संचरितुमर्हति । अन्यथा गुणत्वहानिप्रसगांत् ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
(1) जहाँ गुणी रहेगा वहीं गुण रहेगा । यदि जीव अणु है तो उसकी चेतनता भी अणु होनी चाहिये । फिर वह एकदेषीय होगी और षरीर के अन्य भागों मंे विदित न होगी । गुणी का आश्रय छोड कर गुण नहीं रह सकता ।
(2) दीपक का प्रकाष तो गुण नहीं अपितु एक और द्रव्य है ।
(3) गन्ध का द्रश्टान्त भी ठीक नहीं । क्यांेकि गन्ध को गुण मानो तो गन्ध अपने गुणों के बाहर नहीं जा सकता ।
अतः जीव अणु नहीं है ।
हमारी आलोचना – षं॰ स्वा॰ के मत मंे गुण और गुणी का भेद नहीं । वैषेशिक मत के खण्डन में वे इसको स्पश्ट लिख चुके हैं । इस लिये यहाँ गुणगुणी का भेद मान कर विपक्षी की युक्ति का खण्डन करना उचित नहीं ।
इसके अतिरिक्त युक्ति सर्वथा निस्सार है । यह ठीक है कि जहाँ गुणी रहेगा वहीं गुण भी रहेगा । उसके बाहर नहीं जा सकता । परन्तु उस गुण की सहायता से उत्पन्न हुई षक्ति का प्रभाव तो बहुत दूर तक जा सकता है । यदि मैं अपने कमरे में कुर्सी पर बैठा हूँ तो मेरे गुण कुर्सी से बाहर नहीं जा सकते । परन्तु उन गुणों की सहायता से मैं कलम, लाठी, विद्युत्तार आदि में जो क्रिया उत्पन्न कर देता हूँ वह तो सैकडों मील तक जा सकती है । श्री षंकर स्वा॰ की विद्वत्ता उनके आश्रित थी । वह उनसे बाहर नहीं जा सकती थी । परन्तु उस विद्वत्ता का प्रकाष अन्य भौतिक साधनों द्वारा पुस्तक रूप में देष और काल दोनों की सीमा से बाहर चला जा रहा है । गुण तो द्रव्य में ही रहेगा परन्तु कर्म के लिये यह नियम नहीं है । अतः जीव का अणु होना षरीर की चेतनता – युक्त प्रवृत्तियों का बाधक नहीं ।
प्रकाष ओर गन्ध पर भी वही बात लागू होती है ।
प्रकाष को द्रव्यान्तर कह देने से तो उपमा निरर्थक नहीं ठहर सकती ।
(3) षं॰ स्वा॰ – यदि च चैतन्यं जीवस्य समस्तं षरीरं व्याप्नुयान्नाणुर्जीवः स्यात् । चैतन्यमेव ह्यस्य स्वरूपमग्नेरिवौश्ण्य – प्रकाषौ । नात्र गुणगुणिविभागो विद्यत इति । षरीरपरिमाणत्वं च प्रत्याख्यातम् । परिषेशाद् विभुर्जीवः ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
जब जीव का चैतन्य समस्त षरीर मंे व्याप्त है तो जीव अणु नहीं हो सकता । चैतन्य ही इसका स्वरूप है । जैसे अग्नि का गर्मी और प्रकाष । गुण और गुणी अलग तो हो ही नहीं सकते ।
यह पहले ही बताया जा चुका है कि जीव का वही परिमाण नहीं है जो देह का है । (देखो वेदान्त 2।2।34)
अतः यही सिद्ध है कि जीव विभु है ।
हमारी आलोचना – जीव की चेतनता षरीर भर में कैसे व्याप्त होती है? इसका हम अभी ऊपर उल्लेख कर चुके हैं । षरीर के सभी अवयवों मंे चेतनता का समान प्रकाष नहीं होता । यदि समस्त षरीर में चेतनता बराबर होती और जीव विभु होता तो अन्तःकरण के मानने की आवष्यकता न थी । एक ही साथ आँख से देख और कान से सुन सकते है । परन्तु ऐसा नहीं होता । उँगली के कट जाने से चेतनता नहीं कट जाती ।
अभी षं॰ स्वा॰ प्रकाष को द्रव्यान्तर बताते थे और अभी उसी पृश्ठ में उसी सूत्र के भाश्य में उसी प्रसंग में प्रकाष को अग्नि का स्वभाव माना ।
प्रदीपप्रभायाश्च द्रव्यान्तरम् ।
स्वरूपमग्नेरिवोश्ण्यप्रकाषौ ।।
यदि आप कहें कि प्रदीप और प्रभा मंे द्रव्यान्तरत्व है तो ठीक नहीं । क्यांेकि उपमा में प्रदीप से मिट्टी, काँच या पीतल के पात्र से अभिप्राय नहीं है अपितु दीप षिखा या अग्नि से ।
एक बात बहुत ही विचित्र कही । षं॰ स्वा॰ कहते हैं कि जीव षरीर के परिमाण वाला नहीं है । इसलिए विभु है । हमको देखना है कि इस सूत्र में क्या है? सूत्र यह हैः –
एवं चात्माऽकात्स्र्नयम् ।
(2।2।34)
इसका अर्थ हुआ ‘‘इसी प्रकार आत्मा का अकात्स्र्नयम्’’ भी ।
श्री षंकर स्वामी का कथन है कि यह सूत्र जैनियों के इस सिद्धान्त का खण्डन करता है कि जीव का परिमाण षरीर के परिमाण के बराबर होता है । क्योंकि यह जीव का परिमाण षरीर के परिमाण के बराबर हो तो बच्चे का जीव छोटा और युवा का बडा होना चाहिये क्यांेकि बच्चे का षरीर छोटा और युवा का बडा होता है । दूसरे हाथी के षरीर से निकला हुआ जीव चींटी की योनि में कैसे प्रवेष करे और चींटी के षरीर से निकला हुआ हाथी के षरीर में कैसे?
परन्तु जीव के षरीर परिमाणी न होने से विभुत्व कैसे सिद्ध हुआ? यह तो अणुत्व का हेतु है । जीव अणु होने से चींटी और हाथी दोनों के षरीर में प्रवेष कर सकता है । षरीर घटता बढता है जीव नहीं । मैं एक छोटे कमरे में भी रह सकता हूँ और एक विषाल भवन में भी । षर्त केवल एक है । मेरे रहने के कमरे से मेरा षरीर छोटा होना चाहिये । इससे जीव का अणुत्व सिद्ध है । इसके भी आगे चलिये । इस युक्ति से जीव का विभुत्व प्रतिशिद्ध (खण्डित) भी है । क्यांेकि यदि जीव विभु होता तो चींटी के षरीर से हाथी के या हाथी के षरीर से चींटी में जाने की न आवष्यकता होती न संभव ही था । देखो ‘‘उत्क्रान्तिगत्यागतीनाम्’’ (वे॰ 2।3।19) ।
(4) षं॰ स्वा॰ – (क) तथा च – ‘‘बालाग्रषतभागस्य षतधा कल्पितस्य च । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते’’ (ष्वे॰ 5।9) इत्यणुत्वं जीवस्योक्त्वा तस्यैव पुनरानन्त्यमाह ।
(ख) तच्चैवमेव समञजसं स्याद् यद्यौपचारिकमणुत्वं जीवस्य भवेत् पारमार्थिक चानन्त्यम् । न ह्युभयं मुख्यमवकल्पेत ।
(ग) न चानन्त्यमोपचारिकमिति षक्यं विज्ञातुम्, सर्वोपनिशत्सु ब्रह्मान्मभावस्य प्रतिपिपादयिशितत्वात् ।
(घ) तथेतर स्मिन्नप्युन्माने ‘बुद्धेगु णेनात्मगुणेन चैव आराग्रमात्रो ह्यवरोऽपि दृश्टः’ (ष्वे॰ 5।8) इति च बुद्धिगुणसंबन्धे – नैवाराग्रमात्रतां षास्ति न स्वेनैवात्मना ।
(षां॰ भा॰ 2।3।29 पृश्ठ 286)
(क) ष्वे॰ 5।9 में जीव को अणु भी कहा है और अनन्त भी । (ख) यह तभी ठीक हो सकता है कि अणुत्व को उपचार की भाशा मानें और अनन्तत्व को परमार्थ की भाशा । दोनों को मुख्य नहीं मान सकते । (ग) अनन्तत्व को उपचार की भाशा नहीं मान सकते क्यांेकि सब उपनिशदों मंे जीव को ब्रह्म बताया है । (घ) ष्वे॰ 6।8 में बुद्धि गुण के सम्बन्ध से ही आत्मा का अणुत्व बताया है स्वयं अपने स्वरूप से नहीं ।
हमारी आलोचना – आपने यह तो मान लिया कि ष्वेताष्वतर में जीव को अणु माना है । केवल आपका कहना यह है कि अनन्त भी माना है । अतः अणुत्व को उपचार की भाशा समझनी चाहिये । हमारा कहना है कि आप किसी को भी औपचारिक न मानिये । केवल ‘अनन्त’ के अर्थ पर विचार कीजिये । ‘अनन्त’ और ‘विभु’ में भेद है । उपनिशत् ‘विभु’ नहीं बताती, अनन्त बताती है । प्रत्येक अणु अनन्त होता है क्योंकि उसका न आदि होता है न अन्त । वह अमर होता है । आपने ष्वेताष्वतर उपनिशत् के 5।8 को उद्धृत तो ठीक किया परन्तु अर्थ मूल से सर्वथा विपरीत किया । उपनिशत् कहती है:-
‘‘बुद्धिगुणेन आत्मगुणेन चैव’’
अर्थात् बुद्धि के गुण से तथा आत्मगुण से । आप अर्थ करते हैं ‘बुद्धिगुण संबन्धेनैव’ ‘‘न स्वेनैवात्मना’’ । आपने ‘न’ अपनी ओर से जोड कर अर्थ का अनर्थ कर दिया ।
जब अर्थ करने का यह हाल है तो अन्य उपनिशदों की बात क्यों छेडते हैं । वे तो आपके हाथ में मोम की नाक हैं । जोड दो, घटा दो, खींच दो, सिकोड दो, मुख्य को उपचार कह दो, उपचार को मुख्य कह दो ।
सर्वथा व्यवहत्र्तव्यं कुतोऽह्यवचनीयता ।
(5) षं॰ स्वा॰ – मिथ्याज्ञानपुरः सरोऽयमात्मनो बुद्धयुपाधि संबन्धः ।।
(षां॰ भा॰ 2।3।30 पृश्ठ 288)
आत्मा का यह बुद्धि उपाधि सम्बन्ध मिथ्याज्ञान के कारण है ।
हमारी आलोचना – किसके मिथ्याज्ञान के ? जीव के या ब्रह्म के ? ब्रह्म तो सर्वज्ञ है । इसको मिथ्याज्ञान कैसा? ‘जीव के’ कहो तो जीव और ब्रह्म का भेद सिद्ध होता है । यदि कहो कि मिथ्याज्ञान एक तीसरी (द्रव्यान्तर) है जो जीव या ब्रह्म को पकडती फिरती है । तो द्वैत से भी आगे त्रैत सिद्ध हो जायगा । यदि कहो कि मिथ्याज्ञान मिथ्या कल्पना है तो हम आपके ही षब्दों को दुहरा देंगे:-
कल्पितानामवस्तुत्वादवस्त्वेव संयोगः
(षां॰ भा॰ 2।3।12 पृश्ठ 232)
आपने अपने षस्त्रालय में अनेक ऐसे षस्त्रों का संचयन कर दिया है जिनसे स्वयं आपके सिद्धान्तों का खण्डन हो जाता है ।
(1) कत्र्ता षास्त्रार्थवत्त्वात् । (2।3।33)
कत्र्ता चायं जीवः स्यात् । कस्मात् । षास्त्रार्थवत्वात् । एवं च ‘यजेत’ ‘जुहुयात्’ ‘दद्यात्’ इत्येवंविधं विधि षास्त्रमर्थवद् भवति । अन्यथा तदनर्थकंस्यात् ।।
(षां॰ भा॰ 2।3।33 पृश्ठ 290)
यह जीव कत्र्ता है । अर्थात् इसमंे कर्तृत्व है । क्यांे? यदि कर्तृतव षून्यजीव हो तो षास्त्र के ऐसे विधिवाक्य अनर्थक हो जायं यज्ञ करो, ‘आहुति दो’, ‘दान करो’ आदि!
(2) विहारोपदेषात् (2।3।34)
इतश्च जीवस्य कर्तृत्वं, यज्जीवं प्रक्रियायां संध्ये स्ािाने विहारमुपदिषति । – ‘स ईयतेऽमृतो यत्र कामम्’ (बृ॰ 4।3।18) इति, ‘स्वे षरीरे यथाकामं परिवर्तते’ (बृ॰ 2।1।18) इति च ।
(षां॰ भा॰ 2।3।38 पृश्ठ 290)
यहाँ भी जीव का कर्तृतव सिद्ध है क्यांेकि जीव विशय मंे कहा है कि वह स्वप्न में फिरता है, वह अमर इच्छा पूर्वक विचरता है, ‘अपने षरीर में इच्छा पूर्वक विचरता है ।’
(3) उपादानात् (2।3।35)
इतश्चास्य कर्तृत्वं यजजीव प्रक्रियायामेव करणानामुपादानं संकीर्तयति तदेशां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय’ (बृ॰ 2।1।18) इति च
इन्द्रिय आदि उपकरणों का लेना पाया जाता है । ‘प्राणों को लेकर’ ऐसा आया है।
(4) व्यपदेषच्च क्रियायां न चेन्निर्देष विपर्ययः । (2।3।36)
इतश्च जीवस्य कतृत्वं, यदस्य लौकिकीशु वैदिकीशु च क्रियासु कर्तृत्वं व्यपदिषति षास्त्रं – विज्ञानं यज्ञ तनुते कर्माणि तनुतेऽपि च (तै॰ 2।5।1) इति
जीवका कर्तृत्य लौकिकी ओर वैदिकी क्रियाओं में लिखा हुआ है ।
पूर्व पक्ष – विज्ञान षब्दों बुद्धौ समधिगतः । कथमनेन जीवस्य कर्तृत्वं सूच्यते । इति
विज्ञान षब्द तो यहाँ बुद्धि के लिये आया है । फिर जीव का कर्तृतव कैसे सूचित हुआ?
उत्तर पक्ष – नेत्युच्यते । जीवस्यैवैश निर्देषो न बुद्धेः । न चेज्जीवस्य स्यान्निर्देष विपर्ययः स्यात् । तथा
(षां॰ भा॰ 2।3।36 पृश्ठ 290)
नहीं । जीवका ही है । बुद्धि का नहीं । यदि जीव का न होता तो षब्द अन्यथा होते ।
(5) उपलब्धिवदनियमः । (2।3।37)
यथा यमात्मोपलब्धिं प्रति स्वतन्त्रोऽप्यनियमेनश्टमनिश्टं चोपलभत एवमनियमेनैवेश्टमनिश्टं च संपादयिश्यति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।37 पृश्ठ 291)
जैसे यह आत्मा आँख द्वारा इश्ट और अनिश्ट दोनों प्रकार के रूप देखता है उसी प्रकार इश्ट और अनिश्ट फल वाले कामों को भी कर बैठता है ।
न च सहायापेक्षस्य कर्तुः कर्तृत्वं निवर्तते । भवति ह्येधोदकाद्यपेक्षस्यापि पक्तुः पक्तृत्वम् । सहकारि वैचित्र्याच् चेश्टानिश्टार्थ क्रियायामनियमेन प्रवृत्तिरात्मनो न विरूध्यते ।
(षां॰ भा॰ 2।3।37 पृश्ठ 291)
सहायता लेने से कत्र्ता का कर्तृतव नहीं जाता । ईंधन, जल आदि की सहायता लेता हुआ भी पाचक पाचक ही है । सरकारी पदार्थों की विचित्रता से कत्र्ता के कर्तृतव में कोई भेद नहीं आता चाहे क्रिया अनिश्ट हो या इश्ट ।
(6) षक्तिविपर्ययात् (2।3।38)
यदि पुनर्विज्ञान षब्द वाच्या बुद्धिरेव कत्र्री स्यात् ततः षक्तिविपर्ययः स्यात् ।
(षां॰ भा॰ 2।3।38 पृश्ठ 291)
यदि विज्ञान षब्द वाची बुद्धि में ही कर्तृव माना जाय तो स्थान मंे कर्तृकारक बुद्धि के साथ लाना पडेगा । फिर बुद्धि के लिये ‘मैं’ षब्द प्रयुक्त होगा ।
(7) समाध्यभावाच्च । (2।3।39)
योऽप्ययमौपनिशदात्मप्रतिपत्तिप्रयोजनः समाधिरूपदिश्टो वेदान्तेशु ‘आत्मावा अरे द्रश्टव्य’ इत्यादि (बृ॰ 2।4।5)……………..ओमितयेवं ध्यायथ आत्मानम् । (मु॰ 2।2।6) इत्येवं लक्षणः, सोप्यसत्यात्मनः कर्तृतवे नोपपद्येत ।
(षां॰ भा॰ 2।3।39 पृश्ठ 292)
यदि जीव में कर्तृतव न माना जाय तो उपनिशदों की ‘ध्यान’ की व्यवस्था अनर्थक हो जाय ।
हमारी आलोचना – इन सात सूत्रों में जीव का कर्तृतव सिद्ध किया गया है । षां॰ भा॰ में इस का सुन्दर प्रतिपादन है । परन्तु इससे जीव का ब्रह्म से भेद ही पुश्ट होता है । यदि हम केवल इतने ही भाश्य को देखते तो कभी न समझते कि षांकर मत में जीव ब्रह्म का अभेद है । षंकर स्वामी इस स्पश्ट भेद का प्रतिख्यान नहीं कर सके ।
यदि इन सूक्तियों को सूत्र 1।1।4 के भाश्य से मिलाया जाय तो आकाष पाताल का भेद प्रतीत होता है । वहाँ तो ‘आम्रायस्य क्रियार्थत्वात’ आदि विधि परक वाक्यों की अवहेलना की गई है:- (देखो पृश्ठ 10) ब्रह्म – उपासना का भी खण्डन है:-
न तु तथा ब्रह्मण उपासना विधिषेशत्वं संभवति, एकत्व हेयोपादेय षून्यतया क्रिया कारकादि द्वैत विज्ञानोपमर्दोपपत्तेः ।
(पृश्ठ 11)
अर्थात् जब द्वैत है ही नहीं तो कौन किसकी उपासना करे? बादरायण के 2।3।33 का जैमिनि के 1।2।1 सूत्र से मिलान हो जाता है । परन्तु षंकर स्वामी बीच में बाधक होते हैं । (पूरी चतुः सूत्री पढिये) ।
इसके अतिरिक्त एक और बात है । अब तक तो आत्मा की प्रवृत्ति बुद्धि सत्व की उपाधि के कारण मानते थे । अब 2।3।37 के भाश्य में कितनी प्रबलता के साथ जीव का ‘कर्तृत्व’ स्वीकार किया । यहाँ स्पश्ट कह दिया कि अन्तःकरण करण है और जीव कत्र्ता । न उपाधि है न अध्याय ! न घटाकाष मठाकाष का द्रश्टान्त ।
(25)
यथा च तक्षोभयथा । (2।3।40)
षं॰ स्वा॰ – त्वर्थे चायं चः पठितः । नैवं मन्तव्यं स्वभाविक मेवात्मनः कर्तृतवमग्नेरिवौश्ण्यमिति । यथा तु तक्षा लोके वास्या दिकरणहस्तः कर्ता दुःखी भवति स एव स्वगृहंप्राप्तो विमुक्तवास्यादिकरणः स्वस्थो निवृतो निव्र्यापारः सुखी भवति एवं अविद्या प्रत्युपस्थापित द्वैतसंपृक्त आत्मा स्वप्रजागरितावस्थयोः कर्ता दुःखी भवति । इत्यादि
(षां॰ भा॰ 2।3।4 पृश्ठ 293)
यहाँ ‘च’‘तु’ के अर्थ मंे आया है । ऐसा नहीं मानना चाहिये कि आत्मा का कर्तृतव स्वाभाविक है जैसे अग्नि में उश्णता । जैसे बढई उसी समय तक कत्र्ता और दुःखी है जब तक हाथ में औजार हैं । जब औजार रख कर घर चला आया तब न दुःखी है न कत्र्ता है । इसी प्रकार आत्मा जब तक अविद्या के कारण द्वैत से मिला हुआ है तब तक कत्र्ता भी है और दुःखी भी ।
हमारी आलोचना – यहाँ ‘च’ का अर्थ ‘तु’ करके पिछले सूत्रों में कही बातों का खण्डन करना सर्वथा अनुचित है । सूत्र में ‘चकार’ से पिछली बातों की पुश्टि की गई है । सूत्र का षाब्दिक अर्थ यह है:-
‘‘और जैसे तक्षा दोनों प्रकार से’’
इसमंे न तो अविद्या का उल्लेख है । न स्वाभाविक कर्तृत्व के खण्डन का । यहाँ तो केवल यह बताया है कि जैसे बढई चाहे तो मेज बनावे चाहे न बनावे । इसी प्रकार जीवात्मा ‘कर्तुम् अकर्तुम् अन्यथा वा कत्र्तुम्’ सभी बातों में समर्थ है । करे, न करे, उल्टा करे । इसी से तो उसका कर्तृत्व पाया जाता है । भाव या अभाव क्रिया का होता है कर्तृत्व का नहीं । यदि मैं लिखना बन्द कर दूँ तो लेखन – षक्ति का नाष प्रकट नहीं होता । इसी प्रकार जीव का कर्तृत्व तो स्वाभाविक ही है जैसा पिछले सूत्रों में वर्णन किया गया है । उस कर्तृत्व का आविर्भाव परिस्थिति के अनुसार होता है । षंकर स्वामी को अपने इन वचनों की स्मृति नहीं रही:-
(1) जीवस्यैवैश निर्देषो न बुद्धेः ।
(2) न च सहायापेक्षस्य कर्तुः कर्तृत्वं निवर्तते ।
(षां॰ भा॰ 2।3।36।37 पृश्ठ 290,291)
बढई के औजार तो अविद्या कल्पित नहीं है । इसी सूत्र के भाश्य में षंकर स्वामी ने कुछ अप्रासांगिक षंकायें भी उठाई इनको हम यहाँ देते हैं:-
षं॰ स्वा॰ न स्वाभाविकं कर्तृतवमात्मनः संभवति अनिर्मोक्ष प्रसंगात् । इत्यादि
(षां॰ भा॰ 2।3।40 पृश्ठ 292)
यदि आत्मा का कर्तृत्व स्वाभाविक हो तो मोक्ष न हो सकेगी । जैसे अग्नि से गरमी नहीं दूर हो सकती उसी प्रकार आत्मा से कर्तृत्व दूर न होगा । जब तक कर्तृत्व दूर न होगा पुरूशार्थ सिद्धि न होगी । क्यों? ‘‘कर्तृत्वस्य दुःख रूपत्वात्’’ । कर्तृत्व दुःखरूप है ।
पूर्व पक्ष – स्थितायामपि कर्तृत्वषक्तौ कर्तृत्वकाय्र्य परिहारात् पुरूशाथः सेत्स्यति । (पृश्ठ 292)
कर्तृत्व षक्ति रह जायगी । काय्र्य न रहेगा । इससे पुरूशार्थ की सिद्धि हो सकेगी । जैसे काठ में अग्नि रहती है पर जलाती नहीं ।
षं॰ स्वा॰ – न । निमित्तानामपि षक्तिलक्षणेन संबन्धेन संवद्धानामत्यन्त परिहारासंभवात् । (पृश्ठ 292)
नहीं । अत्यन्त परिहार तो न होगा । षक्ति तो बनी ही रही ।
पूर्व पक्ष – मोक्षसाधन विधानान्मोक्षः सेत्स्यति । (पृश्ठ 292)
मोक्ष साधन के विधान से मोक्ष हो जायगा ।
षं॰ स्वा॰ – न । साधनायत्तस्यानित्यत्वात् । (पृश्ठ 292)
नहीं, साधन तो अनित्य होते हैं फिर उनका फल मुक्ति भी अनित्य होगी ।
पूर्व पक्ष – पर एव तर्हि संभारी कत्र्ता भोक्ता च प्रसज्येत । परस्मादन्यष्चेच्चितिमाञजीवः कर्ता बुद्धîादिसंघातव्यतिरिक्तो न स्यात् । (पृश्ठ 292)
परब्रह्म से भिन्न तथा बुद्धि आदि संघात से अलग यदि कोई जीव नहीं है तो मानना पडेगा कि परब्रह्म ही संसारी होकर कत्र्ता भोक्ता है ।
षं॰ स्वा॰ – न । अविद्याप्रत्युपस्थापितत्वात् कर्तृतवभोक्तत्वयोः ।
(षां॰ भा॰ 2।3।40 पृश्ठ 292)
नहीं । यह कर्तृत्व भोक्तृत्व तो अविद्या के कारण हैं ।
हमारी आलोचना – (1) पहली बात तो प्रसंग की है । सूत्र में मोक्ष का कोई प्रसंग नहीं । पिछले सूत्रों में भी नहीं । केवल ध्यान का है ।
(2) दूसरी बात यह है कि कर्तृत्व को दुःख रूप बताना भूल है । दुःख फल है दुश्टकर्म का । दुश्टकर्म का । दुश्टकर्म कर्तृत्व का अनिश्ट आविर्भाव है । उसी के इश्ट आविर्भाव को पुण्य कहते हैं जिसका फल सुख होता है । ऐसा न मानोगे तो कुछ कर्मफल की व्यवस्था भी न रहेगी ।
(3) मोक्ष में यदि कर्तृत्व का विनाष माना जाय तो मुक्त और जड पदार्थ में क्या भेद रहेगा? ऐसा मोक्षानन्द तो आलसियों के लिये ही ठीक होगा । यदि दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति को ही मोक्ष माना जाय तो प्रत्येक जड पदार्थ को मुक्ति स्वयं प्राप्त है । मेरी मेज मुझसे बहुत अच्छी है । वह नित्य मुक्त है मैं बद्ध हूँ ।
(4) मोक्ष के अनित्य मानने में क्या हानि? यदि बन्ध के पीछे मोक्ष हुआ । तो मोक्ष अनादि न ठहरा । अनन्त कैसे होगा ?
(5) अविद्या के कारण कर्तृत्व भोक्तृत्व है तो बताइये किस की अविद्या के । इसकी मीमांसा हम पूर्व कर चुके हैं । पीसे को क्या पीसा जाय ?
(26)
परात्तु तच्छु तेः । (2।3।41)
षं॰ स्वा॰ – अविद्यावस्थायां काय्र्यकरणसंघाताविवेकदर्षिनो जीवस्याविद्यातिमिरान्धस्य सतः परस्मादात्मनः कर्माध्यक्षात् सर्वभूताधिवासात् साक्षिणष्चेतयितुरीश्वरात् तदनुज्ञया कर्तृत्व भोक्तृत्व लक्षणस्य संसारस्य सिद्धिः । तदनुग्रहहेतुकेनैव च विज्ञानेन मोक्ष सिद्धिर्भवितुमर्हति । कुतः । तच्छु तेः ।
(षां॰ भा॰ 2।3।41 पृश्ठ 295-297)
अविद्या अवस्था में काय्र्य करण संघात द्वारा उत्पन्न हुये अविवेक के कारण अन्धकार में अंधे के समान जीव के प्रपंच की सिद्धि सत्, कर्माध्यक्ष, सब भूतों में व्यापक साक्षी, चेतन ईष्वर के द्वारा ही होती है और उसी के अनुग्रह से ज्ञान उत्पन्न होकर मुक्ति होती है । ऐसा ही वेद में कहा है इत्यादि ।
हमारी आलोचना – कितना सुन्दर वर्णन है ब्रह्म और जीव के भेद का । जीव अविवेकी है, ईष्वर सत् है, पर (बडा) है, कर्माध्यक्ष है, सर्व भूताधिवासी है, साक्षी है उसकी कृपा से ज्ञान उत्पन्न होता है । इससे अच्छा निरूपण ब्रह्म और जीव के भेद का कोई द्वैतवादी भी न करेगा ! अविद्या के विशय में पहले कह चुके हैं ।
अगले सूत्र में इसका और अच्छा निरूपण है । परन्तु है पूरा द्वैत । अभेद का नाम नहीं । देखिये ।
कृतप्रयत्त्रापेक्षस्तु विहित प्रतिशिद्धावैयथ्र्यादिभ्यः । (2।3।42)
षां॰ स्वा॰ – जीवकृतधर्माधर्म वैशम्यापेक्ष एव तत् तत् फलानि विशम विभज्ञेत् पर्जन्यवदीश्वरो निमित्तत्वमात्रेण । (पृ॰ 296)
जीव के किये हुये धर्म अधर्म भेद की अपेक्षा से ही फल भी भिन्न – भिन्न होते हैं । बादल सभी पेडों पर बरसता है परन्तु भिन्न – भिन्न वृक्ष अपने भेदी की अपेक्षा से भिन्न – भिन्न फल लाते हैं । इसी प्रकार ईष्वर भी सब को प्रेरणा करता है परन्तु निमित्त मात्र ।
यदि जीव कर्म करने में सर्वथा ईष्वर के आधीन होता तो विधि और निशेध व्यर्थ हो जाते ।
(27)
अंषांषीभाव
(1) जीव ईष्वरस्यांषो भवितुमर्हति, यथाऽग्नेर्विस्फुलिंगः । अंष इवांषः । नहि निरवयवस्य मुख्यांेऽषः संभवति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।43 पृश्ठ 297)
जीव ईष्वर का अंष कहा जा सकता है जैसे अग्नि की चिनगांरियां । अंष के समान अंष । वास्तविक अंष नहीं । क्योंकि ईष्वर तो निरवयव है । उसके टुकडे नहीं हो सकते । इसलिये उसके वास्तविक अंष नहीं हो सकते ।
(2) यथा जीवः संसारदुःखमनुभवति नैवं पर ईष्वरोऽनुभवतीति प्रति जानीमहे ।
(षां॰ भा॰ 2।3।46 पृश्ठ 299)
जैसे जीव संसार के दुःख का अनुभव करता है । ईष्वर नहीं करता । अविवेक के कारण ।
(3) आभास एव च । (2।3।50)
आभास एव चैश जीवः परस्यात्मनो जलसूर्यकादि वत् प्रति – पत्तव्यः । न स एव साक्षात् । नापि वस्त्वन्तरम् । अतश्च यथा नैकस्मिञजलसूर्य के कम्पमाने जलसूर्यकान्तरं कम्पते, एवं नैकस्मिञजोवे कर्मफलसंबन्धिनि जीवान्तरस्य तत् संबन्धः । एवमप्यव्यति – करः एव कर्मफलयोः । आभासस्य चाविद्याकृतत्वात्तदाश्रयस्य संसारस्याविद्याकृतत्वोपपत्तिरिति ।
(षां॰ भा॰ 2।3।50 पृश्ठ 302)
जीव को ईष्वर का आभास मानना चाहिये जैसे जल मंे सूय्र्य की छाया । वह साक्षात् ऐसा नहीं है । न अन्य वस्तु है । जैसे एक जल में सूय्र्य की छाया नहीं कंपती । ऐसे ही एक जीव में कर्म फल का जो सम्बन्ध है वह दूसरे में नहीं । आभास तो अविद्याकृत होता है । इसलिये संसार भी अविद्या कृत है ।
हमारी आलोचना – यहाँ अंष और आभास दो षब्द हैं जो बहुधा लोक में भी प्रयुक्त होते हैं । और प्रायः लोगों में भ्रान्ति फेली हुई है कि जीव ब्रह्म का अंष है या आभास है । यहाँ ‘अंष इव अंषः’ ओर ‘न स एव साक्षात्’ कह कर बता दिया गया कि जीव ईष्वर का न तो वास्तविक अंष है न छाया । क्योंकि ईष्वर अखण्ड है । और विभु है, अंष होता है किसी अवयवी का । और छाया पडती है किसी पदार्थ की किसी दूसरे दूरस्थ पदार्थ में । ईष्वर से दूरस्थ कोई पदार्थ नहीं जिसमें ईष्वर की छाया पड सके । इससे प्रतिबिम्बवाद का भी खण्डन हो गया । हाँ, एक अर्थ मंे जीव को ईष्वर का अंष भी मान सकते हैं और आभास भी । वह है समानता में । दोनों चेतन हैं । जल में सूय्र्य की किरणों का आभास भी चकाचैंध उत्पन्न कर देती है । लोक में रिवाज भी है कि जब कोई किसी दूसरे के समान होता है तो कहते हैं यह उसकी छाया है । यह अंषत्व और आभासत्व बौद्धिक तथा औपचारिक है वास्तविक नहीं ।
श्री षंकर स्वामी ने अविद्या का पचडा यहाँ भी लगा दिया । यह पुरानी बात है । पहले कही भी जा चुकी है ।
(4) सत्यपि जीवेष्वरयोरंषाषिभावे प्रत्यक्षमेव जीवस्येष्वर विपरीतधर्मत्वम् । र्कि पुनर्जीवस्येष्वरसमानधर्मत्वं नास्त्येव । न नास्त्येव । विद्यमानमपि तत् तिरोहितमविद्यादिव्यवधानात् ।
(षां॰ भा॰ 3।2।5 पृश्ठ 347)
जीव और ईष्वर मंे अंष – अंषी भाव होने पर भी जीव और ईष्वर का विपरीत धर्मत्व प्रत्यक्ष ही है ।
प्रष्न – क्या जीव और ईष्वर में समान धर्मत्व है ही नहीं ?
उत्तर – ऐसा नहीं कि न हो । समान धर्मत्व विद्यमानता है परन्तु अविद्या के परदे मंे छिपा हुआ है ।
हमारी आलोचना – जीव ब्रह्म का अंष किस अर्थ में है यह ऊपर दे चुके । यहाँ ब्रह्म – जीव भेद स्पश्ट षब्दों में वर्णित है । समान धर्मत्व का अर्थ अनन्यत्व नहीं है । षं॰ स्वामी भी ‘समानधर्मत्व’ षब्द का प्रयोग करते हैं ‘अनन्यत्व’ का नहीं । समानधर्मत्व द्वैत का बोधक है । अद्वैत का नहीं । जैसे गाय और नील गाय में । जीव में ईष्वर के समान बहुत से गुण हैं जो अविद्या के कारण जीव को विदित नहीं होते ।
(28)
(1) स एव तु जीवः सुप्तः स्वारथ्यंगतः पुनरूत्तिश्ठति नान्यंः । कस्मात् । कर्मानुस्मृतिषब्दविधिभ्यः ।
(षां॰ भा॰ 3।2।9 पृश्ठ 352)
(2) विभज्य हेतु दर्षयिश्यामि । कमषेशानुश्ठानदर्षनात् तावत् स एवोत्यातुमर्हति नान्यः । (पृश्ठ 352)
(3) नह्यन्यद्रश्टमन्योऽनुस्मतुर्महति । (पृश्ठ 352)
(4) षव्देभ्यश्च तस्यैवोत्यानमगम्यते । तथाहि पुनः प्रतिन्यायं प्रतियोन्या द्रवति बुद्धान्तायैव । (बृ॰ 4।3।16)
(5) कर्मविद्याविधिभ्यष्चैवमेवावगभ्यते । अन्यथाहि कर्म विद्याविधयोऽनर्थकाः स्युः । (पृ॰ 353)
(6) अपि चान्योत्थानपक्षे यदि तावच्छरीरान्तरे व्यवहरमाणो जीव उत्तिश्ठत् तत्रत्यव्यवहाग्लोपप्रसंगः स्यात् ।
(7) अथ मुक्त उत्तिश्ठेदन्तवान्मोक्ष आपद्येत ।
(8) एतेनेष्वरस्योत्थानं प्रत्युक्तम् । नित्यनिवृत्ताविद्यत्वात् ।
(9) युक्तं तत्रविवेककारणाभावज्जल बिन्दोरनुद्धरणम् । इह तु विद्यत विवेक कारणं कर्म चाविद्या चेतिवैशम्यम् ।।
(षां॰ भा॰ 3।2।9 पृश्ठ 353)
प्रष्न यह था कि जो जीव सुशुप्ति अवस्था मंे जाता है । क्या जागने पर वही जीव फिर जागृति मंे वापिस आ जाता है? यदि समुद्र में एक बूँद मिल जाय तो फिर वही बूँद बाहर निकले ऐसा आवष्यक नहीं है । इस पर शंकराचार्य जी उत्तर देते हैं कि –
(1) वही जीव जो सोया था स्वस्थ होकर फिर जाग उठता है दूसरा नहीं । इसकी पुश्टि में चार हेतु हैं – कर्म, अनुस्मृति, षब्द और विधि ।
(2) एक एक करके हेतु देते हैं । कल आधा काम समाप्त करके सो गया । आज जागने पर षेश आधे को समाप्त कर देता है । यदि दूसरा कोई जीव उठा होता तो उसे क्या मालूम था कि कौन काम किस अवस्था में छूटा हुआ है । रात को किसी किताब के 18 पृश्ठ पढ कर सो गये तो प्रातःकाल 19वें से आरम्भ कर देते हैं । (कर्म)
(3) एक का देखा हुआ दूसरे को याद नहीं रह सकता । परन्तु सोने से पूर्व देखी हुई चीजें याद रहती हैं । (अनुस्मृति)
(4) बृहदारण्यक आदि उपनिशदों मंे भी यह लिखा है कि वही जीव उठता है । (षब्द)
(5) यदि कोई दूसरा ही उठ बैठता न कि सोने वाला तो केवल सोने मात्र से मुक्ति हो जाती । विधि के उपदेष की क्या आवष्यकता थी ? कर्मफल की पूरी व्यवस्था नश्ट हो जाती ।
(6) यदि यह माना जाय कि एक षरीर में काम करता हुआ जीव सोने के पष्चात् दूसरे षरीर में जाग उठता है तो पहले षरीर में किया हुआ काम अधूरा रह जायगा ।
(7) यदि कहो कि मुक्त जीव उठ सकता है तो मोक्ष अन्त वाली हो जायगी । मुक्त होकर भी जीव बद्ध हो सकेगा । जो अविद्या से निवृत्त हो गया वह फिर क्यों प्रपंच में फँसे?
(8) यदि कहो कि ईष्वर उठ बैठता है तो वह भी ठीक नहीं । क्योंकि वह तो सदा अविद्या से मुक्त है ।
(9) जल बिन्दुओं मंे विवेक नहीं । अतः वहाँ कोई एक बूँद उठ खडी हो । परन्तु जीव तो विवेक वाला है । और अविद्या (मिथ्या-ज्ञान) भी लगी हुई है । इसलिये उदाहरण विशम है ।
हमारी आलोचना – यदि जीव ही ब्रह्म होता तो पहले तो यह कहना असंगत था कि सुशुप्ति में जीव ब्रह्म से मिलता है । दूसरे ऊपर के सभी विकल्प और उनकी मीमांसा निरर्थक हो जाती ।
(29)
(1) न तावत् स्वत एव परस्य ब्रह्मणउभयलिगंत्वमुपपद्यतेउ न ह्येकं वस्तु स्वत एव रूपादिविषेशोपेतं तद्विपरीतं चेत्यवधारयितुं षक्यं विरोधात् ।
(2) अस्तु तर्हि स्थानतः पृथिव्याद्युपाधियोगादिति । तदपि नोपपद्यते । नह्युपाधियोगादप्यन्याद्रषस्य वस्तुनोऽन्याद्रषः स्वभावः संभवति ।
(3) नहि स्वच्छः सन् स्फटिकोऽलक्तकाद्युपाधियोगादस्वच्छो भवति भृममात्रत्वादस्वच्छताभिनिवेषस्य ।
(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 355-56)
(1) परब्रह्य मे स्वतः दोनों प्रकार के लिंग नहीं हो सकते । यह नहीं हो सकता कि किसी वस्तु में रूपादि हों भी और न भी हों । क्यांेकि यह परस्पर विरूद्ध हैं ।
(2) पृथिवीं आदि की उपाधि के कारण भी विरूद्ध धर्म नहीं आ सकते । उपाधि के भेद से किसी वस्तु में विपरीत स्वभाव नहीं आ सकते ।
(3) स्वच्छ स्फटिक् लाख के संसर्ग से अस्वच्छ नहीं हो जाता । अस्वच्छता तो भ्रम मात्र है ।
हमारी आलोचना – यहाँ स्पश्ट कह दिया कि उपाधि के कारण ब्रह्म के स्वभाव मंे भेद नहीं पडता । फिर जीव का जीवत्व कहाँ से आया ? क्योंकि षांकरमत मंे जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं । इन सब की तुलना कीजिये षंकर स्वामी के दूसरे कथन से । देखिये कितना विरोध है:-
एवमेकमपि ब्रह्मापेक्षितोपाधि संबन्ध निरस्तोपाधि संबन्ध च उपास्यत्वेन ज्ञेयत्वेन च वेदान्तेशूपदिष्यते ।
(षां॰ भा॰ 1।1।12 पृश्ठ 35)
एक ही ब्रह्म उपास्यत्व और ज्ञेयत्व के कारण वेदान्त में उपाधि सहित और उपाधि रहित दोनांे प्रकार का बताया गया है ।
(4) उपाधीनां चाविद्या प्रत्युपस्थापितत्वात् ।
(षां॰ भा॰ 3।2।11 पृश्ठ 356)
स्फटिक के साथ लाल लाख की उपाधि तो सच्ची है । परन्तु ब्रह्म की तो उपाधि भी अविद्या के कारण है ।
हमारी आलोचना – षंकर स्वामी का तात्पर्य है कि स्फटिक मंे जो लाख की छाया पडने से स्फटिक लाल दिखाई देता है । इसमें स्फटिक तथा लाख दोनों सत्य हैं । मिथ्या लाख सत्य स्फटिक मंे लाली उत्पन्न नहीं कर सकती । परन्तु ब्रह्म की उपाधि तो अविद्या वष है । हमारा यह कहना है कि यदि ब्रह्म से इतर कोई वस्तु नहीं और अविद्या कोई वस्तु नहीं तो उपाधि का प्रष्न ही नहीं उठता । और जीव की जो स्वप्न, सुशुप्ति आदि में अवस्थायें होती हैं वे जीव ब्रह्म के भेद को सिद्ध करती हैं । इसी प्रकार का कथन षां॰ भा॰ के 3।2।15 के अन्त मंे किया गया है । परन्तु वह भी आपत्ति जनक ही है ।
(30)
प्रकाषादिवच्चावैषेश्यं प्रकाषश्च कर्मण्यभ्यासात् । (3-2-25)
वेदान्तेश्वभ्यासेनासकृज्जीवप्राज्ञयोरभेदः प्रतिपाद्यते ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 367)
षंकर स्वामी ने यहाँ ब्रह्म – जीव का अभेद माना है । सूत्र मंे तो केवल इतना है कि समाधि मंे जीव को ब्रह्म रूपता प्राप्त हो जाती है । इसको सूत्रकार ने ‘अवैषेश्यं’ कहा है । क्यांेकि उपासना आदि कर्म में अभ्यास करता है’ और इस प्रकार जीव का अन्धकार नश्ट होकर प्रकाष की उपलब्धि हो जाती है । यदि स्वाभाविक अभेद होता तो कर्म में अभ्यास की आवष्यकता न थी । षंकर स्वामी ने कर्म का अर्थ ‘कर्म सूपाधिभूतेशु’ किया है । यह कैसे ? उपाधि का सूत्र में गन्ध भी नहीं । कई पिछले सूत्रों से प्रकरण भी यही चला जाता है कि ब्रह्म का उपासक ब्रह्म को ‘अव्यक्त’, अनन्त आदि रूप में अनुभव करता है ।
(31)
परमतः सेतून्मानसंबन्ध भेदव्यय देषेभ्यः । (3-2-31)
पूर्व पक्ष – परमतो ब्रह्मणोऽन्यत् तत्वं भवितुमहति कुतः सेतु व्यपदेषात्, उन्मान व्यपदेषात्, संबन्ध व्यपदेषात्, भेद व्यपदेषाच्चेति ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 369)
परम ब्रह्म से भी इतर एक तत्व है । क्यों? इस लिये कि श्रुति मंे ब्रह्म के साथ सेतु, उन्मान, संबन्ध और भेद षब्दों का प्रयोग किया है ।
सेतु अर्थात् पुल तो तभी होगा जब पुल के पार भी कोई चीज हो, उन्मान अर्थात् माप तोल भी तभी होगी । संबन्ध और भेद भी उसी समय ।
षं॰ स्वा॰ का उत्तर पक्ष – सामान्यात् तु । (3।2।32)
(1) सेतु व्यपदेषादात्मनो लौकिक सेतुनिदर्षनेन सेतुवाह्य वस्तुतां प्रसञजयता मृद् दारूमयतापि प्रासड्क्ष येत । न चैतन्नयाय्यम् । अजत्वादि श्रुतिविरोधात् …………….सेतुरिव सेतुरिति प्रकृत आत्मा स्तूयते । सेतु तीत्र्वेत्यपि तरतेरतिक्रमासंभवात् प्राप्रोत्यर्थ एव वर्तते । यथा व्याकरणं तीर्ण इति प्राप्त इत्युच्यते ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 370)
यदि सेतु का लौकिक सेतु से अत्यन्त साद्रष्य लोगे तो ब्रह्म को मिट्टी और लकडी का बनाहुआ भी मानना पडेगा । परन्तु ब्रह्म तो अजन्मा है…………… सेतु का अर्थ है सेतु के समान आत्मा! सेतु को तरने का अर्थ है प्राप्त करना । जैसे व्याकरण तीर्थ होते हैं ।
(2) बुद्धîर्थः पादवत् । (3।2।33)
उन्मानव्यपदेषोऽपि न ब्रह्म व्यतिरिक्तवस्त्वस्तित्व प्रतिपत्त्यर्थः किमर्थस्तर्हि? बुद्धîर्थः, उपासनार्थ इति यावत्! (पृ॰ 371)
तात्पर्य यह है कि ब्रह्म को ‘चतुश्यात्’ इसलिये कहा है कि साधारण बुद्धि के पुरूश उपासना कर सकें ।
क्योंकि सभी तो परमात्मा को पूर्णरीत्या समझ नहीं सकते ।
(3) स्थानविषेशात् प्रकाषादिवत् । (3।2।34)
उपाधिभेदापेक्षयोपचर्यते न स्वरूपभेदापेक्षया प्रकाषादिवदित्यु-प्रमोपादानम् ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 371)
भेद और संबन्ध भी उपाधि के भेद से हैं स्वरूप भेद से नहीं । प्रकाष के समान ।
(4) तथान्यप्रतिशेधात् । (3।2।36)
तथान्यप्रतिशेधादपि न ब्रह्मणः परं वस्त्वन्तरमरतीति गम्यते ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 372)
अन्य निशेध किया गया है । इससे भी सिद्ध है कि ब्रह्म से इतर कोई वस्तु नहीं ।
हमारी आलोचना – आपकी सेतु, उन्मान आदि के व्याख्या से यह सिद्ध नहीं होता कि ब्रह्म से इतर कोई अन्य वस्तु नहीं । यदि सेतु का अर्थ प्राप्ति है और उन्मान उपासना के लिये है तो भी अन्य वस्तु का अस्तित्व तो मानना ही पडेगा । हाँ । केवल यह कहा जा सकता है कि परम ब्रह्म से भी परम और कोई वस्तु नहीं ।
यदि 31वें सूत्र को पूर्व पक्ष न माना जाय और अगले सूत्र 31वें सूत्र की व्याख्या मानें जाय तो भी कुछ हानि नहीं ।
‘स एवाधस्तात्’ ‘अहमेवाधस्तात्’ ‘आत्मैवाधस्तात्’ (पृश्ठ 372)
(छान्दोग्य 7।25।1-2) से भी दूसरी वस्तु का अस्तित्व स्पश्ट होता है । अन्यथा ‘अधः’ का क्या अर्थ होगा । एक ही वस्तु हो तो क्या ऊपर और क्या नीचे? इसका स्पश्टीकरण तो बादरायण के अगले सूत्र से हो जाता हैः-
अनेन सर्वगतत्वमायामषब्दादिभ्यः । (3।2।37)
अर्थात् ‘ब्रह्मैवेदं सर्वम्,’ ‘अहमेवाधस्तात्’ आदि वाक्यों से ब्रह्म का ‘सर्वगतत्व’ या व्यापक होना पाया जाता है । षंकर स्वामी स्वयं लिखते हैं:-
‘आयामषब्दो व्याप्तिवचनः षब्दः’
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 372)
‘आयाम’ षब्द का अर्थ है व्यापक होना । व्यापक के लिये व्याप्य भी तो हो । जब व्याप्य ही नहीं तो व्यापक कैसा?
(32)
धर्म जैमिनिरत एव ।
पूर्वं तु बादरायणो हेतुव्यपदेषात् । (वेदान्त 3-2-40-41)
यह दो सूत्र कर्म – फल के सम्बन्ध में है । 38वें सूत्र में कहा गया है ‘फलमत उपपत्तेः’ । अर्थात् कर्मों का फल स्वंय ईष्वर देता है । कर्म स्वंय फल नहीं देते । श्री षंकर स्वामी 41वें सूत्र की व्याख्या में स्वयं लिखते हैं:-
कर्मापेक्षादपूर्वापेक्षाद्वा यथातथास्त्वीश्वरात् फलमिति सिद्धान्तः ।
(षां॰ भा॰ 3।2।41 पृश्ठ 374)
अर्थात् ईष्वर जीवों के कर्मो के अनुकूलं या अपूर्वं की अपेक्षा से फल देता है ।
यह ठीक है । परन्तु इससे कर्म के करने वाले जीव और फल के देने वाले ईष्वर का भेद सिद्ध हो जाता है । यदि ब्रह्म और जीव एक ही हो तो कौन पाप करे और कौन दुःख रूपी दण्ड देबे?
परन्तु षंकर स्वामी ने 40वें सूत्र का अर्थ इस प्रकार किया है मानो जैमिनि जी को इससे विरोध है । वस्तुतः यह बात नहीं है जैमिनि यह तो कहते हैं कि धर्म फल का दाता है । परन्तु यह नहीं कहते कि ‘ईष्वरस्तु फलं ददातीत्यनुपपन्नम्’ । यह श्री षंकर स्वामी के षब्द हैं जैमिनि जी के नहीं । धर्म को फलदाता मानना उपचार की भाशा है । क्यांेकि धर्म के ही अनुकूल तो फल मिलेगा । ‘अपूर्व’ कहो, ‘धर्म’ कहो, बात एक ही है । ईष्वर बिना कर्म की अपेक्षा के तो फल देता नहीं ।
अन्यथा उस पर निर्दयता का दोश लगेगा । यह कहना ठीक नहीं कि ईष्वर ही साधु या असाधु कर्म करता है ।
(33)
उपचितापचित गुणत्वं हि सति भेद व्यवहारे सगुणे ब्रह्मण्यु – पपद्यते न निर्गुणे परस्मिन् ब्रह्मणि ।।
(षां॰ भा॰ 3।3।12 पृश्ठ 385)
बढना , घटना आदि तो सगुण ब्रह्म में हो सकता है, निर्गुण दो प्रकार के ब्रह्मों का उल्लेख नहीं है । वहाँ तो केवल यह प्रसंग था कि ‘आनन्द’ आदि गुणों का तो ब्रह्म के साथ सर्वत्र ही संबन्ध है । परन्तु ‘प्रियषिरस्त्व’ आदि का नहीं । यह तो उपासक अपनी अपेक्षा से प्रयुक्त करता है । ब्रह्म तो एक ही है । उपस्थित गुणों के अस्तित्व की भावना से सगुण और अनुपस्थित गुणों के नास्तित्व की भावना से निर्गुण । शंकराचार्य जी सगुण ब्रह्म और अपर ब्रह्म को व्यर्थ ही बीच में लाते हैं ।
(नोट – ऊपर ‘प्रियषिरस्त्व’ का संकेत तैत्तिरीय उपनिशद् 2।5 से है – ‘तस्य प्रियमेव षिरः, मोदोदक्षिणः पक्षः, प्रमोदः उत्तरः पक्षः । आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छप्रतिश्ठा ।’)
(34)
व्यतिहारो विषिंशन्ति होतरवत् । (वे॰ 3।3।37)
व्यतिहारोऽयमाध्यानाम्नायते इतरवत् । यथेतरे गुणाः सर्वत्मत्वप्रभृतय आध्यानायाम्नायते तद् वत् । तथाहि विषिशन्ति समाम्नातार उभयोच्चारणेन ‘त्वमहमस्म्यहं चत्वमसि’ इति तच्चोभयरूपानां मतौ कत्र्तव्यामार्थवद्धवति । अन्यथा हीदं विषेशेणोभयाम्नानमनर्थकंस्यात् । एकेनैव कृतत्वात् ।।
(षां॰ भा॰ 3।3।37 पृश्ठ 411)
जीवेषयोर्मिथोविषेशणविषेश्यभावो व्यतिहारः ।
जीव और ईष्वर के परस्पर एक दूसरे के विषेशण विषेश्य भाव को व्यतिहार कहते हैं ।
जैसे सर्वात्मत्व आदि अन्य गुण ध्यान के लिये हैं इसी प्रकार यह व्यतिहार भी ध्यान के लिये हैं । जैसे कहा है ‘‘मैं तू हूँ और तू मैं है’’ । ध्यान के दोनों रूपों को मान कर ही यह कथन सार्थक हो सकता है । अन्यथा यह सब अनर्थक हो जायगा यदि एक ही माना जाय तो ।
हमारी आलोचना – कुछ श्रुतियों में उल्लेख है कि ‘मंै तू हूँ और तू मैं है’ । इन कथनों से लोग जीव और ब्रह्म की एकता को मान बैठते हैं । परन्तु बादरायण इस सूत्र में स्पश्ट करते हैं कि ऐसा ‘व्यतिहार’ अर्थात् बदला केवल ध्यान के लिए है । अर्थात् ध्यान करने वाला ध्येय में इतना तन्मय हो जाता है कि वह अपने को भूल जाता है । षंकर स्वामी इसी प्रकार का अर्थ करते हैं । आगे चल कर वे लिखते हैं:-
न वयमेकत्वद्रढीकारं वारयामः किं तर्हि व्यतिहारेण द्विंरूपा मतिः कर्तव्या वचनप्रामाण्यान्नैक रूपेत्येतावदुपपादयामः ।
(पृ॰ 411)
जब षंकर जी से कहा गया कि ऐसा अर्थ करने से तो आप एकत्व के सिद्धान्त को ही मिटा देंगे तो उन्होंने यह कथन कह दिया कि –
‘‘हम एकत्व को हटाना नहीं चाहते । हमारा तात्पर्य तो यह है कि व्यतिहार से द्विरूप मति होनी चाहिये । प्रमाण से एक रूपा मति सिद्ध नहीं होती ।’’
इस विचार श्रेणी पर विचार कीजिये । अन्य अनेकों स्थानों पर ष॰ स्वामी यही कहते हैं कि भेद भाव मिटा दो । यही सोचो कि तुम ब्रह्म हो । परन्तु यहाँ स्पश्ट कह दिया कि ध्यान हो ही नहीं सकता जब ध्यान करने वाला और जिसका ध्यान किया जाय वह भिन्न – भिन्न न हों । जब मैं कहता हूँ कि ‘मैं तू हूँ और तू मैं’ तो मैं और तू का भाव भी अलग – अलग रहता है । अकेला बैठा हुआ मैं तो ‘तू’ का प्रयोग कर ही नहीं सकता ।
(35)
संकल्पादेव तु केवलात् पिन्नादिसमुत्थानमिति ।
(षां॰ भा॰ 4।4।8 पृश्ठ 507)
मुक्त पुरूश के संकल्पात्र से ही पितर आदि उठ बैठते । (देखो छा॰ 8।2।1)
हमारी आलोचना – इससे स्पश्ट है कि सम्यक् ज्ञान होने और मुक्ति प्राप्त करने पर भी जीव और ब्रह्म में एकता नहीं होती । अन्यथा संकल्प और पितृ-समुत्थान का कोई भी अर्थ न होगा । बद्ध अवस्था में तो कह सकते थे कि अविद्या के कारण भेद है । परन्तु जब मुक्ति मिल गई तो फिर भी संकल्प आदि के लिये उसी समय स्थान रह सकता है जब जीव और ब्रह्म मंे वास्तविक भेद हो । इससे तो षंकर स्वामी की इस बात का भी खण्डन होता हैः-
ब्रह्मैव हि मुक्त्îशवस्था न च ब्रह्मणोऽनेकाकारयोगोस्तिि ।
(षां॰ भा॰ 3।4।52 पृश्ठ 458)
अर्थात् ब्रह्म में कई आकार नहीं होते । इसलिये ब्रह्म ही मुक्ति अवस्था है ।
षं॰ स्वा॰ – अविभागेन द्रश्टत्वात् । (वे॰ 4।4।4)
परं ज्योतिरूपसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिश्पद्यते यः स किं परस्मादात्मनः पृथगेव भवत्युताविभागेनैवावतिश्ठत इति वीक्षायाम् …………… अविभक्त एव परेणात्मना मुक्तोऽवतिश्ठते । कुतः द्रश्टत्वात् ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 505)
अर्थात् सूत्र में दिया है कि मुक्त जीव परमात्मा में अविभक्त होकर ठहरता है । इससे ब्रह्म और जीव का अभेद सिद्ध है ।
हमारी आलोचना – नहीं । यहाँ अविभाग से केवल यही तात्पर्य है कि जीव और ब्रह्म के बीच में अज्ञान का व्यवधान नहीं रहता ।
षं॰ स्वा॰ – ‘यथोदकं षुद्धे षुद्धमासिक्तं ताद्रगेवभवति । एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम’ (क॰ 4।15) इति चैवमादोनि मुक्तस्वरूप निरूपण पराणि वाक्यान्यविभागमेव दर्षयन्ति । नदी समुद्रादि निदर्षनानि च ।
(षां॰ भा॰ 4।4।4 पृश्ठ 505)
कठोपनिशत् का वचन है कि जैसे षुद्ध जल में षुद्ध जल मिल जाता है इसी प्रकार मुक्त आत्मा ब्रह्म मंे मिल जाता है । इसी प्रकार के अन्य वचन भी मुक्ति के स्वरूप को बताते हैं । समुद्र और नदी का द्रश्टान्त भी इसी का निरूपण करता है ।
हमारी आलोचना – उपनिशद् के इस वचन से ब्रह्म जीव का भेद सिद्ध होता है न कि अभेद । षुद्ध जल षुद्ध में मिल गया । इसका क्या अर्थ? क्या वह मिलने वाला जल नश्ट हो गया? नहीं! जल में जल मिलकर बढता है । यदि अभेद होता तो मिलने का प्रष्न भी न उठता । ‘ताद्रगेव भवति’ (वैसा ही होता है) यह षब्द ही बताते हैं कि उपमा भेद को दर्षाति है ।
समुद्र और नदी का संकेत मुण्डक उपनिशद् के निम्न ष्लोक की ओर हैः-
यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय । तथा विद्वान्नामरूपाद्विमुक्तः परात्परं पुरूशमुपैति दिव्यम् ।
(मु॰ 3।2।8)
‘जैसे नदियां नाम और रूप को छोडकर समुद्र मंे मिल जाती हैं इसी प्रकार विद्वान् नाम और रूप से मुक्त होकर परमात्मा की दिव्य ज्योति को प्राप्त होता है ।’
इस ष्लोक से जीव ब्रह्म का अभेद सिद्ध नहीं होता । गंगा जब बंगाल की खाडी में गिरती है तो अपने जल के अस्तित्व को नहीं खो देती । न उसका और पुराने जल का अभेद हो जाता है । गंगा का जल समुद्र के जल मंे आधिक्य उत्पन्न कर देता है । केवल गंगा का रूप बदल जाता है । बनारस की गंगा की जो अलग धारा थी वह नहीं रहती और न उसका अलग नाम रहता है । इसी प्रकार बद्ध अवस्था में जीव के षरीर था । इसलिये रूप था । और इसलिये नाम भी था । पुरूश, स्त्री, बालक, आदि का रूप षरीर की अपेक्षा से है । इसी प्रकार नाम भी षरीरों की पहचान के लिये है । जब जीव मुक्त हो गया तो षरीर नहीं रहा । इसलिये रूप से छुटकारा हो गया । और जो लोग षरीर भेद के कारण पुकारने के लिये नाम रखते थे उनको भी आवष्यकता नहीं रही अतः नाम भी नहीं रहा । परन्तु जीव तो रहा । यह है उपनिशत् के इस ष्लोक का अर्थ ।
मुक्ति का जो वर्णन वेदान्त के तीसरे और चैथे अध्याय में आता है उसके षांकर भाश्य से भी जीव ब्रह्म का अभेद स्पश्ट नहीं होता ।
षं॰ स्वा॰ – भेदनिर्देषस्त्वभेदेऽप्युपचर्यते । ‘स भगवः कस्मिन् प्रतिश्ठित इति स्वे महिम्नि’ (छा॰ 7।24।2) इति ।
(षां॰ भा॰ 4।4।4 पृश्ठ 505)
‘अभेद होने पर भी उपचार की भाशा में भेद दिखाया गया है जैसे वह किसमें प्रतिश्ठित होता है? अपनी महिमा मंे’ । अपने में ही रत रहता है । अपने में ही खेलता है ।
हमारी आलोचना – हर स्थान पर तो उपचार की भाशा नहीं हो सकती । उपचार की भाशा स्वयं द्वैत की बोधक है । अद्वैत की नहीं ।
षं॰ स्वा॰ – अतएव चानन्याधिपतिः । (वे॰ 4।4।9)
‘अथ य इहात्मानमनुविद्य व्रजन्त्येतांश्च सत्यान् कामांस्तेशां सर्वेशु लोकेशु कामचारो भवति’ इति । (छा॰ 8।1।6)
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 507)
मुक्त पुरूष का कोई अधिपति नहीं होता क्यांेकि सब लोकों मंे उनका कामचार (इच्छापूर्ति) होता है ।
हमारी आलोचना – यह भी द्वैत को ही बताता है । तात्पर्य केवल यह है कि बद्ध अवस्था में अनेक विघ्न उपस्थित होते थे । मुक्त अवस्था में वे दूर हो जाते हैं । जीव अदीन हो जाता है ।
(36)
(अ) अभावं बादरिराह ह्येवम् । (वे॰ 4।4।10)
तत्र बादरिस्तावदाचार्यः षरीरस्येन्द्रियाणां चाभावं महीयमानस्य विदुशो मन्यते ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 508)
बादरि आचार्य मुक्ति मंे षरीर और इन्द्रियों का अभाव मानते हैं ।
(आ) भावं जैमिनिर्विकल्पामननात् । (वे॰ 4।4।11)
जैमिनिस्त्वाचार्यो मनोवच्छरीरस्यापि सेन्द्रियस्य भावं मुक्तं प्रति मन्यते । यतः स एक धा भवति त्रिधा भवति (छा॰ 7।26।2) इन्यादिनाऽनेकधाभावविकल्पमामनन्ति । न ह्यनेकविधता विना षरीरभेदेनाञजसी स्यात् । (पृ॰ 508)
जैमिनि आचार्य मन के समान षरीर और इन्द्रियों का भाव भी मानते हैं जिससे वह अनेक प्रकार का हो जाता है । विना षरीर के अनेक प्रकार का कैसे हो सकता है ?
(इ) द्वादषाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः । (वे॰ 4।4।12)
बादरायणः पुनराचयोऽत एवोभयलिंग श्रुति दर्षनादुभयबिधत्वं साधु मन्यते यदा सषरीरतां संकल्पयति तदा सषरीरो भवति यदा त्वषरीरतां तदाऽषरीर इति । सत्यसंकल्पन्वात् । संकल्प वैचित्र्याच्च । द्वादषाहवत् । यथा द्वादषाहः सत्रमर्हनश्च भवति । उभयलिंगश्रुति दर्षनादेवमिदमपीति ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 508)
बादरायण आचार्य दोनों मानते हैं । जैसे द्वादषाह सत्र को बाहर दिन का सत्र भी कहते हैं और अहीन भी । इसी प्रकार मुक्त जीव जब षरीर का संकल्प करता है तो षरीरी हो जाता है और अषरीरता का संकल्प करता है तो अषरीरी ।
हमारी आलोचना – मुक्ति के इस स्वरूप से जीव और ब्रह्म की एकता की जड ही उखड जाती है । संसारी बातों मंे तो व्यावहारिक और पारमार्थिक अर्थ लिये जा सकते थे । परन्तु मुक्ति में पारमार्थिक अर्थ ही लेने होंगे । मुक्ति तो लौकिक नहीं होती ।
(37)
जगद् व्यापारवर्जं प्रकरणादसंनिहितत्वाच्च । (वे॰ 4।4।17)
जगदुत्पत्त्यादि व्यापारं वर्जयित्वाऽन्यदणिमाद्यान्मकमैष्वर्यं मुक्तानां भवितुमर्हति जगद् व्यापारस्तु नित्यसिद्धस्यैवेश्वरस्य ।
(षां॰ भा॰ पृश्ठ 510)
मुक्त जीवों को अणिमा आदि अन्य सब सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं जगद् व्यापार को छोड कर । अर्थात् जगत् का बनाना , स्थित रखना तथा नाष करना केवल नित्य ईष्वर के ही हाथ में है । मुक्त आत्माओं के नहीं ।
हमारी आलोचना – इससे सिद्ध है कि मुक्त आत्मा भी ब्रह्म नहीं हो जाते । इतना मान कर षंकर स्वामी ब्रह्म और जीव के अभेद को कैसे मान सकते हैं? यहाँ एक प्रष्न उठता है । जगद् व्यापार में न केवल सूय्र्य पृथ्वी आदि का ही निर्माण है अपितु षरीरांे का भी । मुक्त आत्माअनेक षरीर धारण कर लेते हैं ऐसा षंकर स्वामी ने 4।4।15 के भाश्य मंे लिखा है । जिन पाँच भूतों से षरीर बनते हैं उनके भौतिक नियम हैं जिनका उल्लंघन करना किसी बद्ध या मुक्ति आत्मा की षक्ति के बाहर है । इसका हमारे विचार से यह समाधान है कि मुक्त आत्माओं के सांकल्पिक षरीर होते हैं न कि भौतिक । स्वप्न के समान । इसीलिये उनका व्यापार भी भौतिक षरीरों के समान नहीं होता ।