अब आपद्धर्मविषय का विचार किया जाता है। धर्म दो प्रकार का है- एक सनातन धर्म और दूसरा आपद्धर्म कहाता है। स्वस्थदशा में सेवने योग्य वेदादि शास्त्रों में कर्त्तव्य मानकर मनुष्यों के लिये कहा गया सनातनधर्म है। जब सनातन धर्म के सेवने से मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता वा सनातन धर्म के सेवन में असमर्थ हो जाता है उस समय में जिस प्रकार निर्वाह करने के लिये धर्मशास्त्रकारों ने आज्ञा दी है वह आपद्धर्म है। जिस-जिस ब्राह्मणादि वर्ण के जो-जो अध्यापनादि धर्म सम्बन्धी कर्म धर्मशास्त्र में कहे हैं, उनका सेवन करना यदि किसी प्रकार देश, काल वा वस्तु के भेद से असम्भव हो तो भी सर्वथा अज्ञानान्धकाररूप अधर्म के गड्ढे में न गिरना चाहिये किन्तु आपद्धर्मरूप स्वल्पधर्म के सेवन से भी निर्वाह करना अच्छा है। जैसे उत्सर्ग करने पर अपवाद स्वयमेव प्रवृत्त होता है अर्थात् सामान्यकर किसी बात के कहने पर विशेषता स्वयमेव खड़ी हो जाती है जैसे धर्मशास्त्र वा वैद्यकशास्त्र में सब काल में सबके लिये सामान्य कर दिन में सोने का निषेध है। परन्तु अपवादरूप से विधान करने पड़ा कि रात को जागने की दशा में ग्रीष्म ऋतु और अजीर्णतादि रोगों में नियत काल तक मनुष्य को दिन में सोना चाहिये। ऐसे अपवादों को कोई रोक नहीं सकता अर्थात् जहां सामान्य की प्रवृत्ति होना दुस्तर हो जाती है वा हो सकने पर उससे विशेष हानि होना सम्भव होता है तब अपवाद दशा खड़ी की जाती है वा करने पड़ती है। वैसे ही आपत्काल स्वयमेव आया करते हैं। उस समय जो कर्त्तव्य है वही आपद्धर्म है। सनातनधर्म में बाधा डालने वाला आपद्धर्म हो ऐसी शटा नहीं करनी चाहिये। जैसे अपने वर्ण की एक स्त्री के साथ द्विजों का विवाह होना सनातनधर्म है और विधवाओं का आपत्काल में नियोग होना आपद्धर्म है। उस नियोग की गर्भहत्या वा लोक में व्यभिचार द्वारा बुराई फैलने आदि की अपेक्षा उत्तमता और धर्म मानना हो सकता है कि जो एक स्त्री के साथ नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति होने से नियुक्त दोनों स्त्री-पुरुषों की एक सन्तान में प्रीति बढ़ती है। विवाह की अपेक्षा वा विधवा स्त्री को ब्रह्मचर्य (पतिव्रत) धर्म धारण करके जन्म व्यतीत कर देने की अपेक्षा नियोग की उत्तमता नहीं है। इसी कारण जो स्त्री वा पुरुष सनातनधर्म के सेवन से निर्वाह कर सकता है उसके लिये नियोग नहीं है। यदि नियोग कर लूंगी ऐसा मानकर कोई स्त्री अपने पति को मार डाले तो भी नियोग करना दूषित नहीं होता क्योंकि जिस बुराई से बचने और इष्ट की प्राप्ति के लिये जो काम किया जाता है उससे वैसा प्रयोजन सिद्ध न करके कोई विरुद्ध काम करे तो वह करने वाले को दोष है। जैसे बाल काटने के लिये छुरा बनाया गया है उससे कोई हाथ आदि काट ले तो यह छुरा के बनने में वा बनाने वाले का दोष नहीं किन्तु यह उसी काटने वाले कर्त्ता का दोष है। इसी प्रकार नियोग जिस प्रयोजन के लिये है उससे विरुद्ध करे तो यह नियोग का दोष नहीं किन्तु उस स्त्री का दोष है। क्योंकि यदि नियोगरूप अवलम्ब उसको ज्ञात न हो तो वह अन्य पुरुष के साथ भाग जाने आदि बुद्धि से भी पति को मार सकती वा उससे विरोध कर सकती है। और कदाचित् नियोग करने में कोई दोष ही हो तो भी नियोग की अकर्त्तव्यता नहीं सिद्ध हो सकती। जैसे ‘हिरण चर जाने के भय से जौ-गेहूं आदि का बोना नहीं रोक दिया जाता’ वैसे यहां भी दोष के भय से नियोग को नहीं रोक सकते किन्तु जैसे हिरणों से खेत बचाने के अनेक उपाय किये जाते हैं वैसे नियोग आदि आपत्काल के धर्म में भी जो-जो दोष जान पड़े उसको हटाने को उपाय करना चाहिये और विपत्ति के समय में आपद्धर्म का तो सेवन अवश्य करना चाहिये। नियोग यहां केवल आपद्धर्म के उदाहरण में दृष्टान्तरूप से लिखा है। ब्राह्मणादि वर्ण जब अपने-अपने कर्मों से जीविका करने में असमर्थ होते हैं तब उनको अपने-अपने से नीच वर्ण के कर्मों से जीविका करनी चाहिये यह भी आपद्धर्म है सो लिखा भी है कि- ‘ब्राह्मण आपत्काल में क्षत्रिय के धर्म से जीविका करे क्योंकि यही उसका समीपी है। यदि अपने और क्षत्रिय के दोनों धर्म से जीविका न कर सके तो खेती और गोरक्षा आदि वैश्य की जीविका से निर्वाह करे।’१ और- ‘खेती को ब्राह्मण यत्न से छोड़ दे’२ यह कहना किसी अन्य का मत है किन्तु मनु का नहीं। खेती करना ऐसा बुरा नहीं कि जैसा लोग मानते हैं। पाराशर स्मृति में खेती का विधान लिखा है।३ तथा अन्य क्षत्रियादि को भी वैश्यादि की वृत्ति से आपत्काल में निर्वाह करना चाहिये। आगे आपत्काल के विषय पर महाभारत में शान्तिपर्वान्तर्गत आपद्धर्मानुशासन नामक एक अवान्तरपर्व है, वहां आपत्काल में सेवने योग्य धर्मों का साधन और दृष्टान्तों के सहित प्रायः विस्तार से व्याख्यान किया है। उसमें सारांश यह है कि- आपत्काल में निर्वाह के लिये मनुष्य को नीतिज्ञ और लोक के व्यवहार में चतुर होना चाहिये तब वह अपना सुख से निर्वाह कर सकता है। उसी आपद्धर्म के प्रकरण में यह भी लिखा है कि- ‘जिसके साथ जो मनुष्य जैसा बर्त्ताव करता है उसके साथ वैसा ही बर्त्ताव करना धर्म है। अर्थात् छली, कपटी वा दुष्ट मनुष्य के साथ छल कपट और दुष्टता करना तथा श्रेष्ठ, सज्जन धर्मात्मा पुरुषों से धर्मानुकूल वर्त्तना यह दोनों प्रकार का धर्म है।’१ यद्यपि छल-कपटादि करना वास्तव में धर्म नहीं तथापि छल-कपटादिरूप कांटों से धर्माङ्कुर की रक्षा होती हो तो वे धर्म के सहकारी कारण होने से धर्म माने जावेंगे। यह भी आपत्काल में ही धर्म है सदा नहीं। ‘पराया धन हर लेना और अन्याय से किसी को दुःख देने की निष्ठा को सदा छोड़कर वेदोक्त पञ्चमहायज्ञादि नित्यकर्म और गर्भाधानादि नैमित्तिक कर्म में प्रीति रखते हुए मन, वाणी और शरीर सम्बन्धी दस दोषों को छोड़कर दस लक्षण वाले दयादि नामक धर्म का नित्य नियम से सेवन करते हुए ब्राह्मणादि वर्णों को न्यायपूर्वक ही किसी प्रकार की जीविका से आपत्काल में निर्वाह करना चाहिये।’२ ‘विद्या, शिल्पकारी, नौकरी, सेवा, गोरक्षा, किसी प्रकार की दुकान करना, खेती, सन्तोष, भिक्षा मांगना, ब्याज- सूद लेना ये दस काम जीविका अर्थात् अन्न-धनादि की प्राप्ति के हेतु हैं।’३ इन दस जीविका के हेतुओें में से सब धर्मानुकूल नहीं हैं किन्तु- ‘दाय नाम अपना भाग वा हिस्सा, दुकान आदि का लाभ तथा बेचना, लड़ाई में जीतना, सूद लेना, कृषि, गोरक्षा और शिल्पकारी ये तीनों कर्मयोग में लिये जायेंगे, अच्छा दान लेना ये ही सात प्रकार की प्राप्ति धर्मानुकूल हैं।’४ क्रय के अन्तर्गत होने से भृति भी धर्मानुकूल है। शिल्पकारी, गोरक्षा और कृषि कर्मयोग के अन्तर्गत हैं अतः वे भी धर्मानुकूल हैं। सेवा, सन्तोष कर बैठ रहना और भिक्षा मांगना ये तीनों धर्मानुकूल नहीं किन्तु धर्म से विरुद्ध हैं। यद्यपि सेवा और भिक्षा मांगने की अपेक्षा धैर्य रखकर बैठ रहना अच्छा है तथापि निकम्मापन से लेकर किसी के वस्तु को भोगना अच्छा नहीं। इसी कारण आपत्काल में भी ब्राह्मणादि को इन तीनों का सेवन नहीं करना चाहिये। शिल्पकारी और खेती आदि कर्मों को कोई लोग ब्राह्मणादि के करने योग्य नहीं कहते सो ठीक नहीं क्योंकि पूर्वोक्त प्रकार से मनु जी ने स्वयमेव उनका धर्मानुकूल होना स्वीकार किया है। अर्थात् इन कर्मों का करना अधर्म नहीं। यदि कोई लोग ब्राह्मणादि के विद्याभ्यासादि बड़े-बड़े कर्मों में हानि देखकर शिल्प वा खेती आदि के न करने का प्रतिपादन करते हैं तो ठीक है जो बड़ा काम कर सकता है जिससे अपना वा संसार का बड़ा उपकार होता है तो उसको छोटा काम न करना चाहिये। परन्तु बड़े काम से निर्वाह करना किसी कारण नहीं हो सकता तो छोटे से निर्वाह करना चाहिये, इससे शिल्पकारी वा खेती आदि का अधर्म होना सिद्ध नहीं होता। स्वस्थ दशा में जब ब्राह्मणादि लोग विद्याभ्यास और अध्यापनादि अपने-अपने कर्मों से निर्वाह कर सकते हैं तब उनको शिल्प वा खेती आदि से जीविका नहीं करनी चाहिये, यह सर्वसम्मत है और आपत्काल में खेती आदि करना भी धर्मानुकूल ही है, यह सिद्धान्तपक्ष जानो। भिक्षा मांगना, किसी की नौकरी करना, सन्तोष कर बैठ रहना, गाड़ी वा इक्का चलाना अनेक प्रकार के छल-प्रपञ्च रचना इत्यादि की अपेक्षा खेती और शिल्पादि से निर्वाह करना बहुत ही उत्तम है। कोई लोग खेती करने में जीवहिंसा मानते हैं, परन्तु खेती की अपेक्षा गाड़ी-इक्का चलाने आदि में हिंसा अधिक है। तथा नौकरी की अपेक्षा खेती में स्वतन्त्रता और प्रसन्नता भी अधिक है।