वेदों को परमप्रमाण और अपनी स्मृति का स्रोत मानने वाले मनु वेदोक्त आदेशों-निर्देशों के विरुद्ध न तो जा सकते हैं और न उनके विरुद्ध विधान कर सकते हैं। इसलिए हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि उन्होंने अपनी स्मृति में मौलिक रूप से शूद्रों के प्रति कोई असद्भाव प्रदर्शित किया होगा। उन्हें वेदों का गभीर ज्ञान था, उस परपरा के वे संवाहक थे, अतः उनके विधान सद्भावपूर्ण थे। उनमें से कुछ पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वेदों में शूद्रों के प्रति सद्भाव का वर्णन वाले कुछ मन्त्र उद्धृत किये जाते हैं-
(क) रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि देहि रुचा रुचम्॥
(यजुर्वेद 18.48)
अर्थ-सबसे प्रीति की कामना करता हुआ व्यक्ति कहता है-हे परमेश्वर या राजन्! ब्राह्मणों में हमारी प्रीति हो, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में हमारी प्रीति हो। आप मुझमें सबसे प्रीति करने वाले संस्कार धारण कराइये।
(ख) प्रियं मा दर्भ कृणु ब्रह्मराजन्यायां शूद्राय चार्याय च॥
(अथर्ववेद 19.32.8)
अर्थ-मुझे ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और वैश्य, सबका प्रिय बनाइये। मैं सबसे प्रेम करने वाला और सबका प्रेम पाने वाला बनूं।
(ग) प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।
प्रियं सर्वस्य पश्यत उत शूद्रे उतार्ये॥
(अथर्ववेद 19.62.1)
अर्थ-मुझे विद्वान् ब्राह्मणों, क्षत्रियों, शूद्रों, वैश्यों और जो भी मुझ पर दृष्टिपात करे, उसका प्रियपात्र बनाओ।
वेदों के ये मन्त्र कितने सद्भावपूर्ण आदर्श वचन हैं। यह वैदिक संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था का एक नमूना प्रस्तुत किया गया है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि वैदिक काल का समाज कैसा था। यही वेद, मनु स्वायंभुव के आदर्श हैं, अतः उनके वचन भी इसी प्रकार परम सद्भाव से परिपूर्ण हैं। शूद्रों के प्रति असद्भावपूर्ण वचन वेदभक्त मनु के नहीं हो सकते।