वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप -2

वैदिक धर्म में ईश्वर का स्वरूप

पिछले अंक का शेष भाग….

लोग एक तर्क रखते हैं- अमुक व्यक्ति के अमुक स्थान पर जाने से, पूजा करने से, स्मरण से उसकी इच्छा पूरी हो गई। यह सुनते ही सभी इच्छा पूर्ति चाहने वाले लोगों की दौड़ उसी ओर प्रारम्भ हो जाती है। यहाँ विचारणीय है कि यदि स्थान विशेष में, किसी की इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य है तो वहाँ जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा पूरी होनी चाहिए। इच्छापूर्ति के साथ कोई शर्त या योग्यता निश्चित हो तो उस योग्यता वाले लोगों की इच्छा तो अवश्य पूरी होनी चाहिए, परन्तु लाखों लोग जहाँ जाते हैं, वहाँ कठिनता से हजारों की इच्छा पूर्ण होती है। फिर शेष की इच्छा पूरी क्यों नहीं हुई? यहाँ पर एक प्रश्न पूछा जाता है यदि सबकी इच्छा पूरी नहीं होती तो हर वर्ष भक्तों की संख्या क्यों बढ़ जाती है? इसका उत्तर है कि जिनकी इच्छा पूरी होती है, उनका प्रचार होता है, वे अगली बार अधिक संख्या में एकत्रित होकर देवता के दर्शन करने जाते हैं। इसके विपरीत जिनकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती, वे शान्त होकर बैठ जाते हैं। अब प्रश्न उठता है कि जिनकी इच्छा पूरी हुई, वह कैसे पूरी हो गई, यदि देवता कुछ करता नहीं है? इसका उत्तर है कि लोगों की इच्छाएँ सामान्य और सांसारिक होती हैं। जाने वाले लोगों में कुछ की पूरी हो जाती हैं, कुछ की नहीं। यह बात किसी देवता के पास न जाने पर भी पूर्ण होती है, परन्तु जिसकी इच्छा पूरी हो गई वह समझता है, देवता ने उसकी इच्छा पूरी की है। जिसकी इच्छा पूरी नहीं हुई, वह मानता है, देवता उससे रुष्ट है।

वस्तुतः देवता इच्छा पूरी करने का सामर्थ्य रखते तो यह सामर्थ्य सबके पास है या एक के पास? यदि एक देवता के पास यह हो तो दूसरे के पास वह सामर्थ्य नहीं होना चाहिए। मन्दिर में हिन्दू की इच्छा पूरी होती है, पीर दरगाह में मुसलमान की, गुरुद्वारे में सिक्ख की। फिर तो सभी में इच्छापूर्ति का सामर्थ्य हो जाता, परन्तु ऐसा है नहीं। मनुष्य जिस वस्तु, व्यक्ति, स्थान में सामर्थ्य मान लेता है, वही देवता उस भक्त के लिए इच्छापूर्ति का काल्पनिक कारण बन जाता है।

मूर्ति पूजा चलने का एक और कारण है मूर्ति पूजा एक व्यापार है। इसमें हजारों-लाखों लोगों को व्यवसाय मिला है, अतः इसे कोई छोड़ना नहीं चाहता। दूसरे किसी व्यापार में पूँजी लगती है, श्रम लगता है, जिम्मेदारी होती है, परन्तु मूर्ति पूजा के व्यापार में मालिक को कुछ नहीं मिलता, सेवक सब कुछ का अधिकारी बन जाता है। एक मन्दिर को बनाने में कुछ भी नहीं लगता या कितना भी लग सकता है- यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर करता है। एक पत्थर रखकर भी कार्य चलाया जा सकता है, उसमें देवता को कुछ भी नहीं मिलता। मिली हुई सारी धन-सामग्री पुजारी व मन्दिर संचालकों की होती है। इच्छा पूर्ति की भावना से देवता पर प्रसाद चढ़ाने वाला इच्छापूर्ण न होने की दशा में पुजारी से कोई प्रश्न नहीं कर सकता। इसमें उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं होती। मन्दिर का देवता वस्तु का उपयोग नहीं करता, इसलिए उसकी एक सामग्री एक दिन में सैकड़ों बार भेंट चढ़ती है। इससे अधिक लाभदायक व्यवसाय और कौन-सा हो सकता है? जो व्यक्ति इस व्यवसाय में लगा है, वह इस लाभ को क्यों छोड़ना चाहेगा?

मूर्तिपूजा दोनों के लिए लाभदायक है, करने वाले के लिए भी और कराने वाले के लिए भी। करने वाला मूर्ति की पूजा भय या प्रलोभन वशात् करता है, अतः मूर्ति उसको भय से मुक्त करती है और यही उसकी इच्छाओं को पूर्ण भी करती है। यह एक मानसिकता ही है या मनोवैज्ञानिक परिस्थिति है। दोनों स्थितियों में मन्दिर चलाने वाले को लाभ होता है।

ईश्वर को जानने के भी दो साधन हैं। विद्वान् लोग और शास्त्र ईश्वर के सिद्धान्त पक्ष को बताते हैं, फिर व्यवहार से उसका प्रत्यक्ष किया जा सकता है।

जो लोग कहते हैं ईश्वर को देखना है, देखेंगे तो ही स्वीकार करेंगे, उनसे एक प्रश्न किया जा सकता है। क्या कोई केवल देखने पर ही उस वस्तु को मानता है? जो वस्तु दिखाई नहीं देती, क्या उसे स्वीकार नहीं करता? प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि भूख,प्यास, गर्मी, सर्दी, सुख-दुःख, पीड़ा, हर्ष कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे आँखों से देखा जा सके। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं है, जिसने इनको देखा हो, परन्तु सभी इनका अनुभव करते हैं, अतः यह कथन कि दिखने वाली वस्तु को ही स्वीकर करते हैं न दिखने वाली को नहीं- यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है। ज्ञानेन्द्रियों से जो वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे भौतिक होती हैं। इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः अपने समान भूतों को वे पहचानती हैं। आँख अग्नि का स्वरूप है, आँख से रूप जाना जाता है। गन्ध पृथ्वी का गुण है, अतः नासिका से पृथ्वी तत्त्व का बोध होता है। रस जल का गुण है, अतः रसना से रस का ज्ञान होता है। स्पर्श वायु का गुण है, अतः त्वचा से स्पर्श का ज्ञान होता है। पाँचों वस्तुओं को जानने के लिए पाँच इन्द्रियाँ कार्य करती हैं। पाँच इन्द्रियों से पाँच भूतों को जाना जा सकता है।

इन्द्रियाँ भौतिक हैं, अतः भौतिक पदार्थों को जानने का इनमें सामर्थ्य है, परन्तु इनके जानने का सामर्थ्य उनका अपना है, यह गोलक का नहीं है। यदि इनमें जानने का सामर्थ्य होता तो मरने के पश्चात् भी आँख देखती, परन्तु ऐसा नहीं होता। इसके विपरीत आँख एक मरे हुए व्यक्ति के चेहरे से निकल कर जीवित व्यक्ति में लगा दी जाती है तो वही आँख देखने लगती है। इन भौतिक इन्द्रियों से भौतिक पदार्थ जाने जाते हैं, परन्तु दोनों भौतिक पदार्थ आँख और वस्तु विद्यमान होने पर भी ज्ञान का अभाव होना सर्वत्र परिलक्षित होता है, अतः ज्ञान भूतों का गुण नहीं है, अन्यथा भौतिक पदार्थों में अवश्य विद्यमान होता। इसी प्रकार चेतन की इच्छापूर्वक क्रिया भौतिक पदार्थों में दिखाई देती है, पर वह क्रिया भौतिक वस्तुओं का धर्म नहीं है, अन्यथा मृतक के शरीर में जीवित अवस्था में होने वाली क्रियाएँ पाई जातीं, जबकि इसके विपरीत जड़ पदार्थ में होने वाली क्रियाएँ सड़ना, गलना, सूखना आदि प्रारम्भ हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त कोई मानता है कि चेतन प्राणी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि जो दिखाई देते हैं, इन सबका केवल शरीर दिखाई देता है, इनके अन्दर विद्यमान जीवात्मा नहीं, अतः आत्मा नहीं होती। इसका उत्तर है- कोई भी अपनी या किसी की भी आत्मा को अपनी स्थूल आँखों से नहीं देख सकता, वह केवल अनुमान कर सकता है। मनुष्य जब शरीर में विद्यमान आत्मा को शरीर में अनुभव करता है, उस समय मनुष्य से पूछें- क्यों भाई, अपने माता-पिता आदि को देखा है? तो सामान्य रूप से शरीर को देखकर वह कहता है, हाँ देखा है। परन्तु वही व्यक्ति उस मनुष्य के मर जाने पर कहता है- मेरे माता-पिता मर गये। उससे पूछो- फिर यह शरीर कौन है? तो वह कहता है- वह चेतन इस शरीर में रहता था, तभी तक यह मेरा पिता था, उसके चले जाने पर इससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। इससे निराकार जीवात्मा का बोध होता है। शरीर में प्रारम्भ से शरीर से भिन्न एक चेतन रहता है, इसका हमें कैसे बोध होता है? शरीर में उसके होने का बोध शरीर के प्रत्यक्ष होने से नहीं हो सकता। शरीर और चेतना साथ-साथ हैं, परन्तु शरीर चेतना के बिना न क्रिया कर सकता है, न स्थिर रह सकता है। शरीर से चेतना के पृथक् होते ही शरीर नष्ट होने लगता है। इस प्रकार किसी के होने पर किसी बात का होना और किसी के न होने पर किसी बात का न होना ही उस पदार्थ के अस्तित्व का प्रमाण है। जीवन के होने पर शरीर में क्रिया का होना और जीवन के समाप्त हो जाने पर उस प्रकार की क्रियाओं का समाप्त हो जाना, जीवन का शरीर से भिन्न होना सिद्ध करता है। इस प्रमाण से शरीर में जीव के होने पर घटित होने वाली क्रियाएँ उसके द्वारा हो रही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वह जीवात्मा ही उन क्रियाओं का कर्त्ता है।

शरीर ही जीवन और जड़ की भिन्नता को प्रमाणित करता है। शरीर का बनना, उसका जीवित रहना, शरीर का घटना-बढ़ना, शरीर के द्वारा क्रियाओं का होना शरीर से भिन्न जीवात्मा के होने का प्रमाण है। इसी प्रकार भौतिक पदार्थ जड़ हैं, परन्तु चेतन के संयोग से उनमें क्रिया दिखाई देती है। इन सब भौतिक पदार्थों में क्रिया का अभाव होने से ये स्वयं कुछ नहीं कर सकते। जब जड़ होने से ये भौतिक पदार्थ पृथक्-पृथक् कोई क्रिया करने में समर्थ नहीं हैं, अतः इन सब पदार्थो का संयोग भी किसी क्रिया को उत्पन्न नहीं कर सकता और अपने से भिन्न चैतन्य को उत्पन्न करने का सामर्थ्य भी इनमें नहीं हो सकता।

शरीर का बने रहना, सक्रिय होना चेतना के होने का लक्षण है। अन्य कोई भी प्रकार चेतना के जानने-पहचानने का हो नहीं सकता। बहुत सारे शरीरों में यह प्रक्रिया घटते, बढ़ते, देखते हैं, अतः शरीर से भिन्न आत्मा की पहचान कर लेते हैं। यह पहचान ईश्वर के साथ नहीं कर पाते, इसके दो कारण हैं। प्रथम- वह एक है, अतः उस जैसा दिखाकर उसे नहीं बताया जा सकता। बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य से ईश्वर का स्वरूप पूछते हुए कहा है- तुम ईश्वर को जानते हो तो बताओ, वह कहाँ है? महर्षि ने बताया- संसार में जो कुछ हो रहा है, उससे ईश्वर के होने का पता चलता है। ऋषि कहते हैं- यह कोई उत्तर नहीं है जो दूध देती है वह गाय होती है, जो सवारी कराता है वह घोड़ा होता है- यह कथन किसी के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। हमें तो प्रत्यक्ष बताओ कि यह ईश्वर है तो याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं- उसे इदम् इत्थम् नहीं बताया जा सकता, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है। दूसरा उसकी तुलना नहीं हो सकती, क्योंकि कोई उस जैसा दूसरा नहीं है, अतः जो भी उससे भिन्न है, उसे इंगित करके यह बताया जा सकता है कि यह ईश्वर नहीं है। इसलिए उपनिषद्कार एक प्रसिद्ध शब्द का प्रयोग करते हैं- नेति, नेति, वह ऐसा नहीं है। ईश्वर  के स्वरूप को समझने के लिए यह नकारात्मक प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

लोग कहते हैं- ईश्वर को कैसे जानें? किसी भी वस्तु के जानने के क्या साधन हैं? यदि वस्तु उपलब्ध है तो हम उसे प्रत्यक्ष कर लेते हैं, यदि प्रत्यक्ष नहीं है तो उपायों से प्रत्यक्ष कर लेते हैं। प्रथम शब्दों से जानते हैं, फिर व्यवहार से। इसको समझने के लिए विज्ञान के उदाहरण से समझा जा सकता है। प्रथम हम सिद्धान्त को कक्षा में समझते हैं, फिर प्रयोगशाला में उसका साक्षात् करते हैं।

आवश्यकता पर वस्तु की प्राप्ति न हो तो उसका होना व्यर्थ हो जायेगा। संसार में कोई भी वस्तु व्यर्थ नहीं है, फिर ईश्वर कैसे व्यर्थ हो सकता है?

आवश्यक वस्तुओं में विकल्प नहीं होता। जैसे भूख है तो भोजन मिले या न मिले- यह विकल्प नहीं चलेगा। भूख है तो भोजन मिलना ही चाहिए। इसी प्रकार संसार में दुःख है तो दूर होना ही चाहिए। संसार की वस्तुओं से दुःख दूर नहीं होता, संसार की वस्तुएँ भौतिक हैं, वे शरीर के दुःखों को तो दूर कर सकती हैं, क्योंकि शरीर भी भौतिक है, परन्तु दुःख का अनुभव जीवात्मा करता है। उसका दुःख आत्मा के न्यून सामर्थ्य को दूर करने से मिटेगा। जैसे जड़ वस्तुएँ मिलकर जड़ के सामर्थ्य को बढ़ा देती हैं, वैसे चेतन का आश्रय चेतन के सामर्थ्य को बढ़ा देता है, अतः चेतन को चेतन की प्राप्ति करनी होगी। दुःख को दूर करने के लिए ईश्वर का मानना एक अनिवार्यता है। एक और प्रश्न हमारे मन में उत्पन्न हो सकता है, वह यह कि ईश्वर को एक मानें या अनेक मानें? अनेक मानने में हमें प्रतीत होता है, जैसे अनेक होना अधिकता का द्योतक है, जैसे एक से अधिक दो या तीन होते हैं, परन्तु एक से अधिक संख्या वास्तव में अपूर्णता की सूचक है। जो एक होगा, वही पूर्ण होगा। सम्पूर्णता ही एकत्व का आधार होता है। जब ईश्वर अनेक होंगे तो बड़े-छोटे होंगे, एक जगह होंगे तो दूसरी जगह पर नहीं होंगे, जो एक कर सकता होगा वह दूसरा नहीं कर सकता होगा। ईश्वरत्व की सम्भावना को दो में बाँट नहीं सकते, अतः ईश्वर पूर्ण व एक ही होगा।

जब ईश्वर एक है और पूर्ण है, तब वह एक स्थान पर हो दूसरे स्थान पर न हो, ऐसा कैसा सम्भव है? एक स्थान पर होकर अन्य स्थान पर न हो तो उसमें अपूर्णता होगी। इस तरह ईश्वर का एक होना पूर्ण होना, सर्वत्र होना, ईश्वर होने की शर्त है।

ईश्वर के ईश्वरत्व का जो अनिवार्य गुण है, वह ईश्वर का सर्वज्ञ होना है। ज्ञान का सम्बन्ध उपस्थिति के बिना अधूरा है, जो जहाँ होता है, वह ही वहाँ के विषय में जान सकता है। जो जहाँ पर नहीं रहता, वह वहाँ के विषय में नहीं जान सकता। जानने के लिए होना अनिवार्य होने से वह सर्वव्यापक होगा। जो सर्वव्यापक होगा, वह सर्वज्ञ होगा। जो सर्वज्ञ होगा, वही सर्वशक्तिमान् होगा। ईश्वर सब जानने वाला होने से सर्वव्यापक सर्वत्र रहने वाला है, अतः वही सर्वसामर्थ्य से सम्पन्न होने से सर्वशक्तिमान् होगा।

अब एक प्रश्न रहता है। ईश्वर सर्वव्यापक है, सर्वव्यापक होने से सर्वज्ञ है और सर्वज्ञ होने के कारण वह सर्वशक्तिमान् है। ऐसे ईश्वर को साकार होना योग्य है या निराकार होना योग्य है? साकार मानना सबसे सुविधाजनक है। प्रथम प्रश्न है- साकार होना एक परिस्थिति है। स्थूल भूत साकार हैं, परन्तु सूक्ष्म अवस्था में निराकार भी हैं। साकारता निराकारता पदार्थों में एक परिवर्तनशील अवस्था है। यह परिवर्तनशीलता, व्यवस्था की अपेक्षा से है। संसार का निर्माण करते हुए सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ा जाता है।

संसार अनित्य है, अतः उसमें परिवर्तन सम्भव है। परिवर्तन अनित्यता का ही दूसरा नाम है। एक जैसा रहना नित्यता है, बदलते रहना अनित्यता है। संसार बदलता रहता है, इसी कारण अनित्य है। जो नित्य है, वह अपरिवर्तनीय है। प्रकृति भी मूलरूप में नित्य है, अतः प्रवाह से अनित्य होने पर भी स्वरूप से वह नित्य है। इस प्रकार ईश्वर का साकार होना सम्भव नहीं, वह साकार होते ही अनित्य हो जायेगा, क्योंकि संसार में जितनी भी साकार वस्तुएँ हैं वे सब अनित्य हैं। ईश्वर पूर्ण, एक और नित्य होने से साकार नहीं हो सकता, अतः निराकार है।

एक और प्रश्न ईश्वर के सम्बन्ध में किया जाता है जीवात्मा को ही ईश्वर क्यों न मान लिया जाए? प्रथम तो जीवात्मा की अनेकता उसकी अपूर्णता की पहचान है। फिर संसार में कुछ कार्य मनुष्य के द्वारा किये जाते हैं, परन्तु उन्हीं कार्यों का बड़ा भाग मनुष्य के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है, तब हमारे करने से जितना हो रहा है, उसका शेष कौन कर रहा है? जो कर रहा है, वह हमारी तरह होने वाली वस्तु से पृथक् है, हमसे अधिक सामर्थ्यवान् है और हमारा सहायक है।

ईश्वर के अस्तित्व के लिए शास्त्र एक और तर्क देता है। संसार में कोई वस्तु है तो उसका उपयोग अवश्य होता है। संसार में किसी समस्या का अनुभव कोई व्यक्ति करता है तो उसका समाधान भी इसी संसार में होना चाहिए।१० भूख है तो समाधान के रूप में भोजन है। प्यास है तो उसका समाधान पानी है। ऐसे ही रोग-शोक, गर्मी-सर्दी यदि कष्ट हैं तो संसार में इन कष्टों का उपाय भी निश्चित होगा। इसी आधार पर ईश्वर है तो हमारी किसी समस्या का समाधान भी उससे होना चाहिए। इसका एक सरल उपाय है। जब कोई समस्या हमारे सामने आती है तो उसके समाधान का उपाय भी हमें स्मरण हो जाता है। जैसे भूख में भोजन का, फिर किस परिस्थिति में व्यक्ति ईश्वर का स्मरण करता है, वह उसका समाधान है। मनुष्य को दुःख में ईश्वर का स्मरण आता है, वही हमारे दुःखों के समाधान का साधन है।११

मनुष्य का अस्तित्व उसके शरीर से प्रतीत होता है। उसका सुख-दुःख, हानि-लाभ शरीर के बिना सम्भव नहीं, परन्तु यह शरीर मनुष्य ने अपनी इच्छा से प्राप्त नहीं किया है। यह एक व्यवस्था से प्राप्त है, कोई व्यवस्थापक है तथा उसकी व्यवस्था में प्राणियों का बड़ा स्थान है, उसे ही लोग ईश्वर कहते हैं। जैसे मनुष्य का जन्म उसके हाथ में नहीं, उसी प्रकार उसका जीवन भी अधिकांश में उसके वश में नहीं होता। मृत्यु तो उसके वश में है ही नहीं। यही परिस्थिति विशाल रूप में देखने पर संसार के निर्माण, संचालन और विनाश की भी है। जब इतना सब हो रहा है, मनुष्य की अपनी इच्छा से भी नहीं हो रहा है, जीवन के सुख-दुःख की व्यवस्था में जहाँ हमारी इच्छा काम नहीं आती, वहाँ जिसकी नियमावली व व्यवस्था काम करती है, उसे ही ईश्वर कहते हैं।

कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध विद्यमान ज्ञान से है, अतः ज्ञान चेतन का धर्म है और हमारे पास ज्ञान है, हमारी अल्पशक्ति के कारण वह पूर्ण ज्ञान हमारे पास नहीं है। अतिरिक्त ज्ञान जो भी इस संसार में मनुष्य के लिए आवश्यक है, वह उसी से प्राप्त हो सकता है। जो ज्ञान का स्रोत है, वही ईश्वर कहलाता है।

इसी भाँति ईश्वर के बोध कराने वाले दो शास्त्र हैं। ये वेद के व्याख्यान हैं- एक दर्शन और दूसरे उपनिषद्। एक ईश्वर की सत्ता को अनुभव कराते हैं, दूसरे में बुद्धि से ही उसका समाधान करते हैं। इसके लिए युक्ति, प्रमाण, उदाहरण, तर्क आदि का सहारा लेते हैं, परन्तु उपनिषद् की दृष्टि अनुभव को बाँटने की है। उसको युक्ति प्रमाणों से बहुत नहीं समझा जा सकता, उसे अनुभव करने वाला सहज स्वीकार कर सकता है, अतः ईश्वर अनुभव का विषय होने पर भी सिद्धान्त से निश्चय किये बिना उसका अनुभव करना सरल नहीं है। ईश्वर ज्ञान के भी दो पक्ष हैं- सैद्धान्तिक और प्रायोगिक। जिसे मनु के शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है-

स्वाध्याय के द्वारा योग को सिद्ध किया जाता है। योग के प्रयोग से स्वाध्याय की सहायता प्रमाणित होती है। स्वाध्याय और योग साधना से परमात्मा की प्राप्ति होती है, साधक के हृदय में परमात्मा का प्रकाश होता है-

स्वाध्यायद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत्।

स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते।।

टिप्पणी

१. कि कारणं ब्रह्म – श्वेताश्वतर

२. कालः स्वभावो – श्वेताश्वतर

३. ते ध्यान – श्वेताश्वतर

४. इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारी

व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्। – न्यायदर्शन

५. पणव्यवहारे स्तुतौ च। -धातुपाठ

६. एतदालम्बन श्रेष्ठं, एतदालम्बनं परम्।

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते। – कठोपनिषद्

७. नेति नेति- बृहदारण्यक्

८. तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्। -योगदर्शन

९. स पर्यगात् – यजुर्वेद ४०

१०. दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ। दृष्टे सापार्थाचेन्नैकन्तात्यन्ततोऽभावात्। – सांख्यकारिका

११. परिणामताप- योगदर्शन

– डॉ. धर्मवीर

 

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