वेदज्ञान मति पापाँ खाय
यह राजा हीरासिंहजी नाभा के समय की घटना है। परस्पर
एक-दूसरे को अधिक समझने की दृष्टि से महाराजा ने एक शास्त्रार्थ
का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से पण्डित श्री मुंशीरामजी
लासानी ग्रन्थी ने यह पक्ष रज़्खा कि सिखमत मूलतः वेद के विरुद्ध
नहीं है। इसका मूल वेद ही है। एक ज्ञानीजी ने कहा-नहीं, सिखमत
का वेद से कोई सज़्बन्ध नहीं। श्री मुंशीरामजी ने प्रमाणों की झड़ी लगा
दी। निम्न प्रमाण भी दिया गया-
दीवा बले अँधेरा जाई, वेदपाठ मति पापाँ खाई।
इस पर प्रतिपक्ष के ज्ञानीजी ने कहा यहाँ मति का अर्थ बुद्धि नहीं
अपितु मत (नहीं) अर्थ है, अर्थात् वेद के पाठ से पाप नहीं जा
सकता अथवा वेद से पापों का निवारण नहीं होगा। बड़ा यत्न करने
पर भी वह मति का ठीक अर्थ बुद्धि न माने तब श्री मुंशीरामजी ने
कहा ‘‘भाईजी! त्वाडी तां मति मारी होई ए।’’ अर्थात् ‘भाईजी
आपकी तो बुद्धि मारी गई है।’’
इस पर विपक्षी ज्ञानीजी झट बोले, ‘‘साडी क्यों त्वाडी मति
मारी गई ए।’’ अर्थात् हमारी नहीं, तुज़्हारी मति मारी गई है। इस पर
पं0 मुंशीराम लासानी ग्रन्थी ने कहा-‘‘बस, सत्य-असत्य का
निर्णय अब हो गया। अब तक आप नहीं मान रहे थे अब तो मान
गये कि मति का अर्थ बुद्धि है। यही मैंने मनवाना था। अब बुद्धि से
काम लो और कृत्रिम मतभेद भुलाकर मिलकर सद्ज्ञान पावन वेद
का प्रचार करो ताकि लोग अस्तिक बनें और अन्धकार व अशान्ति
दूर हो।’’