वेद कहता है हमारे अन्दर एक दूसरे के प्रति चाहना हो। परस्पर अभिलाषा होनी चाहिए। यह जो मानसिक परिस्थित है, इसका मन में विचार होने की भूमिका बन चुकी है, मनुष्य के मन में जब द्वेष नहीं होता, सहानुभूति का भाव किसी के प्रति अनुकूलता का लक्षण है। इस भाव की अधिकता ही अपनेपन को जन्म देती है। अपनापन स्वाभाविकता को बताता है। यदि हमारे मन में किसी के प्रति द्वेष नहीं है तो हम उसके कष्ट को देखकर उसे यह कष्ट क्यों मिल रहा है, इस प्रकार का दुःख उसको नहीं मिलना चाहिए इस प्रकार का विचार मन में आता है। अपनापन दूसरे के प्रति मन में निकटता का भाव उत्पन्न करता है। इस निकटता से उत्पन्न प्रसन्नता का विचार प्रेम को प्रकाशित करता है। समाज में जब कोई हमारे साथ सद्भाव दिखाता है तो हमें भी उसके प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने की इच्छा होती है। सद्भाव की अधिकता होने पर दूसरे से उसकी अपेक्षा नहीं रहती, हमें वस्तु अच्छी लगती है। दूसरे व्यक्ति में सम्भव है जो भाव हमारे मन में है, वह न हो, या उतना न हो तब भी हम अपना सम्पूर्ण अपनापन देते हैं तो दूसरे पक्ष से कई बार उसप्रकार की अपेक्षा भी नहीं रहती। वेद कहता है प्रेम की आकांक्षा दोनों ओर से होनी चाहिए। इसलिए मन्त्र कहता है अन्योऽन्यमभिहर्यत– परिवार के सदस्यों में एक दूसरे के हित की चिन्ता होनी चाहिए। हम समुदाय में रहते हुए यदि अपने लाभ या अपने हित की बात ही सोचते हैं, सदा अपनी ही चिन्ता करते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह मान लिया जाता है अब आपकी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। जब कोई असमर्थ होता है तो उसकी चिन्ता की जाती है, उसके चाहने वाले उसका ध्यान रखते हैं। जब हमें लगता है यह व्यक्ति स्वयं अपना भला कर सकता है, अपना हित साध सकता है तब किसी के लिए उसके विषय में सोचना प्राथमिकता नहीं रहती। और हाँ सब अपना अपना सोचेंगे तो फिर वहाँ कोई दूसरे के बारे में क्यों सोचेगा?
अपने बारे में सोचना अपना हित चाहना बुरी बात नहीं है। यहाँ अनुचित तब होता है जब मनुष्य अपने बारे में सोचता है तब उसे दूसरे की चिन्ता नहीं होती या वह दूसरे की उपेक्षा कर देता है। अपनी चिन्ता करते हुए केवल अपनी ही चिन्ता होती है, दूसरे की चिन्ता नितान्त नहीं होती हैं। जब हम अपने को मुख्य न मानकर दूसरे की चिन्ता करते हैं, ऐसा सभी करते हैं तो सब सब की चिन्ता कर सकते हैं। अपनी चिन्ता में सब सम्मिलित नहीं हो सकते परन्तु एक-एक औरों की चिन्ता करे तो सबको सबकी चिन्ता हो जाती है। यह लाभ सबमें प्रेम भाव होने पर होता है। परिवार में सबको अपने तुल्य हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि की चिन्ता करनी चाहिए। इसी से सबमें परस्पर प्रीति बढ़ती है।
वेद मन्त्र में एक उपमा दी है वत्सं जातमिवाघ्न्या– जैसा एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है वेद में जो उपमायें दी गई वे स्वाभाविक हैं। संसार के पदार्थों में, व्यक्तियों के व्यवहार में सदा ही उन्हें देखा जा सकता है। सब उसे अनुभव कर सकते हैं। वेद कहता है हमें गति करनी चाहिए सूर्य और चन्द्र की भाँति। भगवान् ने सृष्टि कैसे बनाई, संसार की रचना कैसे की, वेद कहता है- यथापूर्वमकल्पयत् जैसे प्रत्येक सर्ग में ईश्वर सृष्टि की रचना करता है उसी प्रकार रचना करता रहेगा। यहाँ भी प्रेम कैसा करना चाहिए जैसे एक गाय अपने सद्य जात बछड़े से करती है। गाय बछड़े से प्रेम करती है परन्तु उसका प्रेम तभी तक रहता है जब तक उसका बछड़ा असमर्थ होता है, अपनी माँ पर निर्भर होता है। जैसे ही बछड़ा बड़ा हो जाता है, गाय में उसप्रकार का प्रेम नहीं रहता। यह उपमा सम्भवतः इस बात को स्पष्ट करने के लिए है जब कोई प्राणी, या मनुष्य समर्थ हो जाता है तब उसके साथ उसप्रकार का सहयोग अपेक्षित नहीं होता। इसलिए प्रेम में केवल भावना नहीं औचित्य भी अपेक्षित है।
इसप्रकार इस मन्त्र में अपने व्यवहार को सुधारने के लिए मनुष्य को, अपने परिवार को प्रसन्न व सुखी रखने के लिए परस्पर द्वेष का न होना, एक दूसरे के सुख-दुःख को स्वात्मवत् समझना। परस्पर प्रसन्नता के लिए यत्न करना और प्रत्येक सदस्य में परिवार के सदस्यों के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने वाला वार्तालाप और व्यवहार करते रहना चाहिए। इसलिए मन्त्र में-
अविद्वेषम् सहृदयम्, सामनस्यम् के साथ अभिहर्यत कहा है।