वे कितने महान् थे!
महात्मा नारायण स्वामीजी महाराज ने अपने जीवन के कुछ नियम बना रखे थे। उनमें से एक यह था कि अपने लिए कभी किसी से कुछ माँगना नहीं। इस नियम पर गृहस्थी नारायणप्रसाद
(महात्माजी का पूर्वनाम) ने कठोरता से आचरण किया। अब उनका ऐसा स्वभाव बन चुका था कि वे किसी अज्ञात व्यक्ति से तुच्छ-से-तुच्छ वस्तु भी लेने से संकोच करते थे।
अपनी इस प्रवृज़ि को ध्यान में रखते हुए महात्माजी ने संन्यास लेते समय कुछ राशि आर्यप्रतिनिधि सभा उ0प्र0 को दान करते हुए दी और यह कहा कि आवश्यकता पड़ने पर वे इस स्थिर-निधि के सूद से कुछ राशि ले सकेंगे। श्री महाशय कृष्णजी ने इस पर आपज़ि की कि यह संन्यास की मर्यादा के विपरीत है। दान की गई राशि से यह ममत्व ज़्यों?
महात्माजी चाहते तो अपने निर्णय का औचित्य सिद्ध करने के लिए दस तर्क दे सकते थे। उनके पक्ष में भी कई विद्वान् लेखनी उठा सकते थे तथापि उस महान् विभूति ने तत्काल पत्रों में ऐसी
घोषणा कर दी कि मैं उस राशि से कभी भी सूद न लूँगा।
आपने महाशय कृष्ण के लेख को उचित ठहराते हुए, अपनी आत्मकथा में इस बात को गिरा हुआ कर्म बताया।1 महात्माजी ने स्वयं लिखा कि उन्होंने जो सूद से राशि लेनेवाली बात सोची थी यह उनकी आत्मा की निर्बलता ही थी। अपने गुण-दोष पर विचार करना और अपनी भूल का सुधार करना, यह आत्मोन्नित का सोपान है।
नारायण स्वामीजी का जीवन इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है।