वर्णव्यवस्था की आर्थिक नीति
स्वामी विवेकानन्द सरस्वती…..
मनुष्य जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने के लिए आर्थिक सम्पन्नता ही पर्याप्त नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अर्थ का सुख-शान्ति प्रदान करने में कोई स्थान ही नहीं है। बड़े से बड़े नीति शास्त्रावेत्ता, विज्ञानवेत्ता, संगीतज्ञ, वेदज्ञ एवं शास्त्राविशारदों को भोजन न मिले, तो उनकी सारी विद्याएँ एक ओर ही रखी रह जायेंगी। भूखे भजन न होई गोपाला के अनुसार उनकी सारी प्रतिभा को क्षुधा रूपी पिशाचिनी ग्रस लेगी। अन्त में विवश होकर उन्हें रोटी के लिए प्रयत्न करना पड़ेगा, क्योंकि बुभुक्षितैः व्याकरणं न भुज्यते, पिपासितैः काव्यरसो न पीयते उक्ति पूर्ण रूपेण चरितार्थ होगी। यह भी सम्भव है कि वे अपने धर्म के कार्यों को त्याग कर रोटी के लिए पाप कर्म में प्रवृत्त हो जावें। बुभुक्षितः किं न करोति पापम्, भूखा मनुष्य कौन-सा पाप नहीं करता ? अर्थात् सब पाप करने को उद्यत हो जाता है। इसलिए यह जान पड़ता है कि यद्यपि अर्थ मनुष्य जीवन को पूर्ण सुखमय बनाने में एकमात्र साधन नहीं, तथापि यह वह साधन है, जिसके अभाव में कोई भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र अपना सर्वागिन विकास नहीं कर सकता। अतः आज हम उसी विषय पर विचार करते हैं कि वर्ण-व्यवस्था में आर्थिक नीति क्या होनी चाहिए, जिसके आधर पर अवलम्बित मनुष्य-जाति सुखमय जीवन बिता सकें।
वर्ण-व्यवस्था की अर्थनीति को समझने से पूर्व हम एक वाक्य में यह बतलाना आवश्यक समझते हैं कि आखिर यह वर्ण-व्यवस्था है क्या बला? जिसके लिए महर्षि दयानन्द जी महाराज तथा उनके अनन्य भक्त, सुयोग्य विद्वान् स्वामी समर्पणानन्दजी महाराज अपने जीवन की आहुति दे गये। वर्ण-व्यवस्था वह व्यवस्था है, जो किसी व्यक्ति का जन्म के आधार पर धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक अधिकार न मान कर व्यक्ति के चुने हुए गुण, कर्म, स्वभाव पर मानती है। जिस प्रकार किसी भी वकील या अध्यापक का लड़का इसलिए वकील या अध्यापक नहीं बनाया जाता है कि वह वकील या अध्यापक का पुत्र है। पुत्र को उस पद को प्राप्त करने के लिए उन पदों की योग्यता और प्रमाण पत्र प्राप्त करने होंगे, बिना उसकी योग्यता के वकील के पुत्र को वकील बनाना या अध्यापक के पुत्र को अध्यापक बनाना समाज के साथ अन्याय करना होगा। ठीक इसी प्रकार किसी भी पूँजीपति का पुत्र इसलिए पूँजी का स्वामी नहीं बनेगा कि वह पूँजीपति का पुत्र है, बल्कि पूँजी का स्वामी वह तब बन सकता है, जब वह उसके योग्य हो। यही अवस्था धर्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक क्षेत्र में भी है।
वैदिक वर्ण व्यवस्था की अर्थनीति के अनुसार सम्पत्ति पर अधिकार वैश्य का होगा परन्तु वह होगा पूर्ण सदुपयोग की मर्यादा से बँधा हुआ। यदि उस निश्चित की हुई मर्यादा का कोई भी वैश्य उल्लघन करता है, तो सम्पत्ति पर उसका अधिकार नहीं रहेगा। जिस प्रकार अच्छी शासन व्यवस्था में कोई पुलिस या अध्यापक या अन्य कोई अधिकारी अपने अधिकार या कर्त्तव्य का ठीक-ठीक पालन नहीं करता है, तो वह अधिकार उससे छीन लिया जाता है एवं वह अधिकारी उस पद से च्युत कर दिया जाता है, ठीक इसी प्रकार का नियम वैश्य वर्ग के साथ भी होगा। अब यह एक दूसरा प्रश्न पूछा जा सकता है कि इस अर्थनीति में अधिक् से अधिक् एक व्यक्ति कितनी सम्पत्ति रख सकता है या उसका स्वामी बन सकता है? इसका उत्तर यह है कि इसकी कोई मात्रा निश्चित नहीं, जो जितना योग्य होगा, वह उतनी ही अधिक सम्पत्ति का स्वामी बन सकता है। इस व्यवस्था के उपर तीसरा आक्षेप यह किया जा सकता है कि तब तो यह व्यवस्था नाम भेद मात्रा से पूँजीवाद को बढ़ावा देने वाली हुई क्योंकि इससे भी अधिक सम्पत्ति एक स्थान पर इकट्ठी होगी और इसमें भी वही दोष आयेंगे, जो पूँजीवाद में पहले आ चुके हैं। सच तो यह है कि वह है ही पूँजीवाद का प्रच्छनन रूप किन्तु हम इसके उत्तर में यह कह सकते हैं कि यदि अर्थ की मात्रा निश्चित कर दी जायेगी कि अधिक से अधिक इतने धन का एक व्यक्ति स्वामी हो सकता, तो यह विशुध वर्ण-व्यवस्था रह ही नहीं जायेगी क्योंकि इसमें अपने चुने हुए वर्ण के अनुसार पूर्ण विकास का स्थान नहीं है। जिस प्रकार ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के सम्बन्ध में यह निश्चित कर दिया जाये कि ब्राह्मण अमुक सीमा तक अपना ज्ञान क्षेत्रा बढ़ा सकता है, क्षत्रिय इस सीमा तक अपना बल, पौरुष बढ़ा सकता है, इससे अधिक नहीं, तो ऐसी व्यवस्था से समाज या राष्ट्र की क्षति होगी, समाज के विकास की जड़ कट जायेगी। यह तो रही विकास सम्बन्धी क्षति।
दूसरी ओर मान लीजिए कि निश्चित मात्रा कर दी गई और उस मात्रा के अन्दर रहने वाला ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य अपने ज्ञान, बल और धन से प्रजा के अज्ञान, अन्याय, अभाव को दूर न कर के विपरीत रूप में इनका प्रसार करने लगे तो क्या उसने राज्य की निश्चित मात्रा का उल्लंघन किया है? इसके लिए उनको इतना अत्याचार करते हुए भी छोड़ दिया जावेगा? नहीं, कदापि नहीं। हाँ, इसके विपरीत यह तो अवश्य ही निश्चित किया जायेगा कि न्यून से न्यून इतनी योग्यता, त्याग और सदाचार से युक्त व्यक्ति ही ब्राह्मण माना जायेगा, अन्य नहीं। इसी प्रकार क्षत्रिाय, वैश्य बनने की भी मर्यादा निश्चित होगी। अपने-अपने क्षेत्र में उन्नति करने पर ब्राह्मण, ब्राह्मणतर, ब्राह्मणतम क्षत्रिय, क्षत्रियतर, क्षत्रियतम और वैश्य, वैश्यतर, वैश्यतम होंगे।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के उत्तराधिकारी का निर्णय सरकार द्वारा नियुक्त धर्मार्य सभा या अन्य कोई सभा विद्यार्थी के स्नातक बनने के पश्चात् उनकी योग्यता के अनुसार करेगी। सम्पत्ति कमाने का अधिकार केवल वैश्य वर्ग को ही होगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय को तो नहीं, किन्तु वैश्य वर्ग पर यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि जब वैश्य के पास अधिक सम्पत्ति का सचय होगा, तो पूँजीवादियों के दोष से बचना कठिन होगा। इसका उत्तर यह है कि सम्पत्ति का सचय स्वयं में कोई बुरी वस्तु नहीं है। बुरा तो तब है, जब वैश्य उस सम्पत्ति से अपनी भोग तृष्णा को सन्तृप्त करता है और अपने कार्यकर्त्ताओं को अपना सहयोगी न समझकर, उनके साथ आत्मीयता का व्यवहार न करके उनके पेट की रोटी काट कर अपनी सुरा की बोतल और तेल-फुलेलों पर व्यय करता है, अपनी नाक ऊँची करने में दूसरों का रक्त चूसता है। यदि सम्पत्ति का सचय अपने आप में बुरा है, तब तो सरकारी कोष में रखा हुआ रुपया भी बुरा है, मालगोदाम में रखे हुए अन्नादि बुरे हैं। यदि इन्हेंपूँजीवाद कहा जायेगा तो क्या पूँजीवाद के भ्रम से उन कोषों या मालगोदामों को जला या नष्ट कर दिया जायेगा? ऐसा कहना या करना अपनी बुद्धि के दिवालियेपन का परिचय देने के सिवाय और कुछ नहीं होगा। क्योंकि देश में कोष या मालगोदाम इसलिए सुरक्षित रखे जाते हैं कि संकटकालीन समय में काम आ सकें सेना-सचय, सुरक्षित सेना भी इसी लिए रखी जाती है। यदि अपने पास सचित कोष, सेना न होगी तो आपत्ति काल में किससे कार्य चलायेंगे? उस समय परमुखापेक्षी होकर दूसरे राष्ट्रों का मुख देखना पड़ेगा। यदि उनके यहाँ भी यही व्यवस्था रही या अन्य किसी कारण वश वे सहायता नहीं कर सकें तो राष्ट्र की प्रजा भूखों मरेगी। इससे यह सिद्ध होता है कि सचय अपने आप में कोई बुरी वस्तु नहीं किन्तु अच्छी वस्तु है। हर राष्ट्र, हर समाज, हर सघटन को सचय करना चाहिए। हाँ, उसका उद्देश्य भोग-विलासिता की सामग्री बढ़ाना न होकर देश व समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आलम्बन- पदार्थ भोजन, वस्त्र, निवास स्थान का प्रदान तथा यथाशक्ति अनुबन्ध प्रदार्थ; शिक्षा-दीक्षा का प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित प्रबन्ध करना होगा। यदि सेठ भामाशाह की समस्त सम्पत्ति देश-सुरक्षा के कार्य में आ सकती है, तो यह क्यों आवश्यक है कि उसकी सम्पत्ति छीन कर दूसरे-जो इसके योग्य नहीं है, केवल झूठे कोरे समाजवाद या साम्यवाद का नारा लगाकर उनमें बाँट दी जाये।
यदि वैश्य अपने कार्यकर्त्ताओं को उनके परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक देता है, उन्हें पुत्रवत् या सहयोगी बन्धु के तुल्य समझता है, इसके अतिरिक्त जो कुछ सम्पत्ति शेष है, उससे देश में विद्यालय खोल कर शिक्षा का प्रचार-प्रसार या देश में सड़क, विज्ञान शाला, धर्मशाला, पुस्तकालय का निर्माण करवाता है, तो उसकी सम्पत्ति किसी को भी नहीं अखरेगी। इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वह किसी भी प्रकार से अपनी आय बढ़ा ले, दिखाने के लिए एकाध रुपया उधार भी फेंक देवे। सदुपयोगवाद का इतना लचीला अर्थ नहीं है। सदुपयोगवाद तो यह कहता है कि जिस मील, कारखाने, भूमि या गोपालन विभाग का वह स्वामी नियुक्त किया गया है, उस विभाग में कार्य करने वाले श्रमिकों को उनके परिश्रमानुकुल पारिश्रमिक देकर उस मील, कारखाने या अन्य विभागों में जो व्यय हुआ है, उसे निकाल कर जितने से उसका अच्छी तरह निर्वाह हो सके ; निर्वाह करने योग्य ही, नाक ऊँची करने योग्य नहीं, उतने धन को छोड़कर समस्त धन देश या प्रजा की सेवा में सहर्ष प्रदान करे। उसकी सम्पत्ति परोपकाराय सतां विभूतयः के अनुसार प्रजा मात्र के हित के लिए हो। सदुपयोगवाद तथा पूँजीवाद का क्या यही सच्चा चित्र किसी कवि ने इस श्लोक में किया है-
विद्या विवादाय धनम मदाय शक्तिः परेषां परपीडनाय।
खलस्य साधेर्विपरीतमेतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।
(गुणरत्नम)
दुष्ट व पूँजीवादी की विद्या, धन, शक्ति, विवाद, अहंकार दूसरे को दुःख देने के लिए होते हैं। सज्जन; (सदुपयोगवादी) की विद्या, धन, शक्ति, ज्ञान, दान दूसरे की रक्षा के लिए होते हैं।
इस समय संसार में चारों ओर अशान्ति की लहर चल पड़ी है। चतुर्दिक हा! हन्त, त्रायध्वम की पुकार हो रही है। इसको दूर करने के लिए अनेक वाद प्रचलित हैं- पूँजीवाद, श्रमाधिकारवाद, साम्यवाद और समाजवाद। पूँजीवाद के द्वारा यह अशान्ति दूर हो, इसकी तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि यह तो अशान्ति की जननी ही है। अब रहे श्रमाधिकारवाद, साम्यवाद एवं समाजवाद, इनकी भी हम थोड़ी परीक्षा करते हैं। किसी व्यक्ति का सम्पत्ति पर इसलिए अधिकार हो कि उसने उसे अपने श्रम से उपार्जित किया है। यदि वह उस सम्पत्ति को जलाने या पानी में डालने लगे, तो समाज या राष्ट्र उसे ऐसा करने देगा? कदापि नहीं। अब यदि वह उस सम्पत्ति का सदुपयोग करता है, तो उसे ऐसा करने से कोई भी शिष्ट समाज या राष्ट्र नहीं रोकेगा। इसलिए श्रम के नाम पर किसी का सम्पत्ति पर अधिकार ठीक नहीं रहा। समाजवाद तो केवल एक कोरी कल्पना और आडम्बर मात्र है। साम्यवाद तो न कभी विश्व में हुआ है, न होगा। इनकी विस्तृत आलोचना के लिए पूज्य स्वामी समर्पणानन्द जी द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘कायाकल्प’ का परिशीलन करें।
१. सम्पत्ति रखने की कोई निश्चित मात्रा न होगी।
२. वैश्य अपने व्यापार को कितना ही बढ़ाये जाये, सदुपयोगवाद के अनुसार उसकी समस्त सम्पत्ति, प्रजा और राष्ट्र की सेवा के लिए होगी, न कि अपनी भोग विलास की तृष्णा की तृप्ति और नाक ऊँची करने के लिए।
३. धन कमाने का अधिकार केवल वैश्य वर्ग को होगा। वह भी केवल गृहस्थाश्रम में ही २५ वर्ष तक,ब्रह्मचर्य या वानप्रस्थ में नहीं।
४. स्नातक बनने पर जिसको धर्मार्य सभा या राजार्य सभा निश्चित करेगी, वही वैश्य वर्ग में जाकर धनोपार्जन करेगा।
५. सम्पत्ति पर अधिकार व्यक्ति का होगा किन्तु वह तब तक ही होगा, जब तक वह उसका सदुपयोग कर रहा हो। अन्यथा उससे सम्पत्ति छीन कर जो उसके योग्य होगा, उसको दी जायेगी।
ये हैं वर्ण-व्यवस्था की अर्थ-नीति के पाँच मूल सूत्र, जिन पर चलायी गई अर्थ-नीति से राष्ट्र का सर्वागीण विकास होगा। इस अर्थनीति के द्वारा चलायी गई अर्थव्यवस्था में न कभी पूँजीवाद का भय होगा, न कभी साम्यवाद की अकर्मण्यता और आलस्य का। सबको अपने विकास का सुयोग्य अवसर प्राप्त होगा।
प्रभु हमें शक्ति प्रदान करे, जिससे हम ऐसी स्वर्णिम व्यवस्था की स्थापना करके भारत ही नहीं, विश्व को
सुख और शान्तिमय वातावरण में विचरण करा सके ।
– कुलाधिपति
गुरुकुल प्रभात आश्रम,
टीकरी; (भोलाझाल), मेरठ