मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है और वर्णों के अन्तर्गत किन्हीं जातियों का परिगणन नहीं किया है। इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं- एक, मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी। दो, जन्म का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी। यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां ब्राह्मण हैं, अमुक क्षत्रिय हैं, अमुक वैश्य हैं और अमुक शूद्र हैं। मनु ने प्रथम अध्याय (1.31, 87-92) में जब वर्णों की उत्पत्ति बतलायी है, तब केवल चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण का उल्लेख किया है। वहां किसी भी जाति की उत्पत्ति का वर्णन या उल्लेख न होना यह सिद्ध करता है कि मनुस्मृति की व्यवस्था से जन्मना जातियों का कोई सबन्ध नहीं था। दशम अध्याय में कुछ जातियों का अप्रासंगिक वर्णन है जो स्पष्टतः बाद में मिलाया गया प्रक्षिप्त प्रसंग है। यदि वह मनुकृत मौलिक होता तो वह प्रथम अध्याय के वर्णोत्पत्ति प्रसंग (1.31, 87-91) में ही वर्णित मिलता।
निष्कर्ष-मनु का समय अति प्राचीन है। यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमूल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं। मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी। यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाव वाली रही और हजारों वर्षों तक वह विश्व के अधिकांश भाग में प्रचलित रहती रही है। इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरूप को खोकर विकृत हो गयीं। आज राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां बदलीं, हम राजतन्त्र से प्रजातन्त्र में आ गये। समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी। यदि हमारी यही सोच उभरती है तो प्राचीन गौरव से जुड़ी प्रत्येक वस्तु जैसे-महापुरुष, वीर पुरुष, कवि, लेखक, नगर, तीर्थ, भवन, साहित्य, इतिहास सभी कुछ निन्दा की चपेट में आ जायेगा। अपने अतीत से कट जाने वाले समुदाय गौरव के साथ आगे नहीं बढ़ सकते। अतीत की उपेक्षा का अर्थ है भविष्य की उपेक्षा। ‘इतिहास’ नामक विषय के अध्ययन का जिन कारणों से महत्त्व है, वही महत्त्व वर्णव्यवस्था के अध्ययन का है। हमें केवल विरोध के लिए ही अतीत का मूल्यांकन नहीं करना चाहिए, अपितु किसी भी व्यवस्था, वस्तु, व्यक्ति का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाना चाहिए। वही सही मूल्यांकन माना जा सकता है और वह मूल्यांकन यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था कर्म पर आधारित थी जन्म पर नहीं। अतः मनु पर जातिवादी होने का आरोप नितान्त निराधार एवं मिथ्या है।