वैदिक वर्णव्यवस्था एक मनोवैज्ञानिक एवं समाज-हितकारी व्यवस्था थी। जैसा कि महर्षि मनु ने (1.31, 87-91 में) स्वयं कहा है, वह निश्चय ही समाज को सुरक्षित और व्यवस्थित करके उसकी प्रगति और उन्नति करने वाली व्यवस्था है। उसकी विशेषताएं थीं –
- मनोवैज्ञानिक आधार-वर्णव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं का और तदनुसार प्रशिक्षण का ध्यान रखा गया है। प्रत्येक मनुष्य में ये भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। प्रत्येक को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर कार्यचयन का अवसर प्रदान किया गया है। इसमें महाविद्वान् से लेकर अनपढ़ तक, सबको कार्य का अवसर प्राप्त है। एक के कार्य में दूसरे के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है।
- कार्यसिद्धान्त का समान महत्त्व-मनुस्मृति की व्यवस्था ऐसे कार्यसिद्धान्त पर आधारित है जिसमें चारों वर्णों के कार्यों का समान और अनिवार्य महत्त्व है। जैसे शरीर के लिए मुख, बाहु, उदर, पैर सबका समान महत्त्व है और किसी एक के बिना शरीर अपंग हो जाता है, उसी प्रकार समाजरूपी पुरुष के लिए चारों वर्णों का महत्त्व है। किसी एक के बिना वह अपंग है। अतः चारों वर्ण अपने कार्यों से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सबका कार्य अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है।
- शक्ति का विकेन्द्रीकरण एवं संतुलन-मनुस्मृति में शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करके, साी वर्णों में शक्तियों को बांटकर समाज में शक्ति-संतुलन स्थापित किया गया है। सभी वर्णों की शक्तियां और अधिकार सुनिश्चित हैं। वर्णव्यवस्था में किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के पास असीमित शक्ति का संग्रह नहीं हो सकता। विविध शक्तियों का एक स्थान पर संग्रह होना ही समाज में असन्तुलन, अन्याय, अत्याचार, अभाव को पैदा करता है। अतः वर्णव्यवस्था ने ज्ञान, बल, धन और श्रम को पृथक्-पृथक् किया है। भारत में जब तक वर्णव्यवस्था रही कभी समाज में शक्ति का असन्तुलन नहीं हुआ। सबके लिए काम था। सबकी मूल आवश्यकताएं पूर्ण होती थीं।
आज ही कथित श्रेष्ठ व्यवस्था का उदाहरण लीजिए। व्यवसाय- स्वतन्त्रता के नाम पर आज कोई भी एक व्यक्ति या व्यक्तिसमूह ज्ञान, धन, बल और श्रम का अपरिमित संग्रह कर सकता है। एक ही व्यक्ति अनेक व्यवसायों पर नियन्त्रण कर लेता है। उसका दुष्परिणाम यह होता है कि तुलना में उतने ही व्यक्ति या परिवार व्यवसाय से वंचित हो जाते हैं। अनेक प्रकार की शक्तियां एकत्र करके वह व्यक्ति व्यवसाय तक सीमित नहीं रहता, अपितु साथ ही शासन, प्रशासन और समाज को अपने हितों के लिए नियन्त्रित करना आरभ कर देता है। वह मनमानियां भी करता है। एक स्थान पर अनेक व्यवसायों की शक्ति का संग्रह होने के परिणामस्वरूप गरीब, अधिक गरीब और शक्तिहीन हो रहे हैं। शक्तिसपन्न लोग अधिक शक्तिसपन्न हो रहे हैं। समाज में दो ही वर्ग बनते जा रहे हैं-पूंजीपति और गरीब। लोकतन्त्र होते हुएाी शक्ति-सपन्नों का राज्य है। वे प्रायः निरंकुश हैं, कानून की पकड़ से बाहर हैं। वर्णव्यवस्था वाले समाज में ज्ञान में ब्राह्मणों का वर्चस्व था, बल में क्षत्रियों का, धन में वैश्यों का, श्रम में शूद्रों का। ब्राह्मणों पर क्षत्रियों का अंकुश था और क्षत्रियों पर ब्राह्मणों का। वैश्य-शूद्रों पर भी राज्य का अंकुश था और राज्य पर वैश्यों का। एक वर्ण के व्यवसाय में दूसरा वर्ण हस्तक्षेप नहीं कर सकता था, अतः रोजगार के अधिक अवसर थे।
- विशेषज्ञ बनाने की पद्धति-वर्णव्यवस्था की पद्धति से शिक्षित-दीक्षित होकर जो व्यक्ति निकलते हैं वे अपने-अपने कर्मों में कुशल प्रशिक्षित अर्थात् विशेषज्ञ नागरिक होते हैं। ऐसे विशेषज्ञों से कोई भी समाज सदा उन्नति ही करेगा। प्रत्येक क्षेत्र के कार्यों में निरन्तर प्रगति होती रहेगी।
- विशेषता का हस्तान्तरण-मनुस्मृति में विहित व्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता से है। किन्तु इसमें यह भी स्वतन्त्रता है कि कोई बालक अपने माता-पिता के व्यवसाय को अपना सकता है। इस प्रकार विशेषज्ञता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती जाती है। इससे विशेषज्ञता और विकासदर दोनों बढ़ती हैं। इसी विशेषता के कारण प्राचीनाारत में प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति हुई।
- कठोरता और लचीलेपन का समन्वय-वर्णव्यवस्था पद्धति में सभी के अधिकार, कर्तव्य और व्यवसाय निर्धारित हैं। जब तक व्यक्ति किसी वर्ण में रहता है, उसे कठोरता से उसके नियमों का पालन करना पड़ता है। उसके भंग करने पर राजदण्ड की व्यवस्था है।
किन्तु यदि कोई व्यक्ति वर्णपरिवर्तन करना चाहता है तो उसे इसकी छूट है। वह जिस वर्ण में जाना चाहता है उसकी आवश्यक योग्यता प्राप्त करके उस वर्ण को ग्रहण कर सकता है।
- वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्व विश्व की सभी व्यवस्थाओं के अपरिहार्य तत्त्व-क्या हम वर्णव्यवस्था के मूल तत्त्वों की उपेक्षा कर सकते हैं? कदापि नहीं। जैसा कि बार-बार कहा गया है कि मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था के आधारभूत तत्त्व हैं-गुण, कर्म, योग्यता। मनु व्यक्ति अथवा वर्ण को महत्त्व और आदर-समान नहीं देते अपितु वर्णस्थ गुणों को देते हैं। जहां इनका आधिक्य है, उस व्यक्ति और वर्ण का महत्त्व और आदर-समान अधिक है, न्यून होने पर न्यून है। आज तक संसार की कोई भी सय व्यवस्था इन तत्त्वों को न नकार पायी है और न नकारेगी। इनको नकारने का अर्थ है-अन्याय, असन्तोष, आक्रोश, अव्यवस्था और अराजकता। मुहावरों की भाषा में इसी स्थिति को कहते हैं ‘घोड़े-गधे को एक समझना’ या ‘साी को एक लाठी से हांकना।’ उसका परिणाम यह होता है कि कोई भी समाज या राष्ट्र न विकास कर सकता है, न उन्नति; न समृद्ध हो सकता है, न सपन्न; न सुखी हो सकता है, न संतुष्ट; न शान्त रह सकता है, न अनुशासित; न व्यवस्थित रह सकता है, न अखण्डित। उक्त गुणों से रहित व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकती। वर्तमान में निश्चित सर्वसमानता का दावा करने वाली सायवादी व्यवस्थााी इन तत्त्वों से स्वयं को पृथक् नहीं रख सकी है। उसमें भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार पद और सामाजिक स्तर हैं। उन्हीें के अनुरूप वेतन, सुविधा और समान में अन्तर हैं। वर्णव्यवस्था के मूल तत्वों को विश्व की कोई व्यवस्था नकार नहीं सकती।