यदि कोई जाति सांसारिक व्यवहार के हेतु अपने व्यक्तियों के इस प्रकार के चार भेद कर दे तो यह कोई दोष नहीं ,किन्तु गुण है। क्योंकि बिना विभाग किये काय्र्य चल नहीं सकता। आजकल भी प्रत्येक जाति अपने व्यक्तियों का किसी प्रकार का विभाग करती है। “सब धान बाईस पसेरी“ नही हो सकते । मनुष्य स्वभाव से विषम है। यह विषमता प्रकृति और प्रवृति दोनो में पाई जाती है। मनुष्य का हित भी इसी में है। पूर्ण समानता समाज का निर्माण नहीं कर सकती । समाज के निर्माण का मूल तत्व यह है कि प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक समझे। इसको आप परस्परतंत्रता ¼Interdependence½ कह सकते है। यह परम्परतंत्रता विषमता से ही उत्पन्न होती है। एक कृषक समझता है कि मै कृषक तो हूँ परन्तु सैनिक नही हूॅ। सैनिक समझता है कि मै सैनिक तो हूॅ परन्तु कृषक नही हूँ यह भाव इनको एक दूसरे का आश्रय तकने पर बाधित करता है। समाजशास्त्र के प्राचिन, मध्यकालीन तथा आर्वाचीन पंडितों ने समाज के विभाग की जितनी कल्पनायें की है उन में उत्कृष्तम ब्राहम्ण, क्षत्रिय,वैश्य, तथा शूद्र का चतुर्वण्र्य विभाग है ।