वैदिक परंपरा एवं कुरान की प्रमुख शिक्षाएं – संदीप कुमार उपाध्याय

  • भूमिका

 

वैदिक शिक्षा का इतिहास भारतीय सभ्यता का इतिहास है | भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं | सूत्र काल तथा लोकायत के बीच शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली के पश्चात हम बौद्धकालीन शिक्षा को निरंतर भौतिक तथा सामाजिक प्रतिबद्धता से परिपूर्ण होते देखते हैं| बौद्ध काल में स्त्रियों और शूद्रों को भी शिक्षा की मुख्य धारा में सम्मिलित किया गया लेकिन प्राचीन वैदिक भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था | वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत उत्कृष्ट थी ,लेकिन कालांतर में भारतीय शिक्षा व्यवस्था  का ह्रा हुआ विदेशियों ने यहां की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया जिस अनुपात में होनी चाहिए थी| अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियां समस्याओं का सामना करना पड़ा यदि भारतीय वैदिक शिक्षा से किनारा नहीं करते तो वे चुनौतियों से भली प्रकार निपट सकते थे |[1]

  • भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था

भारत की प्राचीन शिक्षा आध्यात्मिकता पर आधारित थी |शिक्षा मुक्ति एवं आत्मबोध के साधन के रूप में थी यह व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि धर्म के लिए थी | भारत की शैक्षिक एवं सांस्कृतिक परंपरा विश्व इतिहास में प्राचीनतम है| डॉक्टर अल्टेकर के अनुसार वैदिक युग से लेकर अब तक भारत वासियों के लिए शिक्षा का अभिप्राय यह रहा है कि शिक्षा प्रकाश का स्रोत है तथा जीवन के विभिन्न कार्यों में यह हमारा मार्ग आलोकित करती है|[2] प्राचीन काल में शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया गया था |भारत विश्व गुरु कहलाता था विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा को प्रकाशस्रोत, अंतर्दृष्टि, अंतर्ज्योति, ज्ञानचक्षु और तीसरा नेत्र आदि उपमाओं से विभूषित किया है |उस युग की यह मान्यता थी कि जिस प्रकार अंधकार को दूर करने का साधन प्रकाश है उसी प्रकार व्यक्ति के सब संशयों और भ्रर्मों को दूर करने का साधन शिक्षा है| प्राचीन काल में इस बात पर बल दिया गया की शिक्षा व्यक्तियों को जीवन का यथार्थ दर्शन कराती है तथा इस योग्य बनाती है कि वह भवसागर की बाधाओं को पार करके अंत में मोक्ष को प्राप्त कर सकें जोकि मानव जीवन का चरम लक्ष्य है |प्राचीन भारत की शिक्षा का प्रारंभिक रूप हम ऋग्वेद में देखते हैं| ऋग्वेदीय शिक्षा का उद्देश्य था तत्व साक्षात्कार और स्वाधीनता | वेद काल में तो भारत पराधीन भी नहीं था लेकिन वेदों की शिक्षा में उसी समय लिख दिया गया था कि यदि संकट आए तो हमें स्वाधीन ही रहना है और हम स्वराज्य के लिए ही सदा यत्न करें|[3] ब्रह्मचर्य ,तप और योगाभ्यास से तत्व का साक्षात्कार करने वाले ऋषि, विप्र, वैघस, कवि, मुनि ,मनीषी के नामों से प्रसिद्ध थे | वेद कहते हैं कि देवता यज्ञकर्ता ,पुरुषार्थी तथा भक्तों को चाहते हैं ,आलसी से प्रेम नहीं करते |[4] साक्षात्कृत तत्वों का मंत्रों के आकार में संग्रह होता गया | वैदिक संहिताओं में जिनका स्वाध्याय, सांगोपांग अध्ययन, श्रवण मनन और निदिध्यासन वैदिक शिक्षा रही | विद्यालय,गुरुकुल, आचार्यकुल, गुरुगृह इत्यादि नामों से विदित थे | आचार्य के कुल में निवास करता हुआ, गुरुसेवा और ब्रह्मचर्य व्रत धारी विद्यार्थी षडंग वेदों का अध्ययन करता था, ज्ञान पाने के लिए, क्योंकि ज्ञान के बारे में कहा गया है कि ज्ञान यज्ञ बहुत ही श्रेष्ठ है, ज्ञान के सामने सारे बुरे कर्म समाप्त हो जाते हैं |[5] स्वामी दयानंद ने सबसे पहला गुरु माता को माना है और लिखा है कि प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान् धन्य है वह माता है जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या ना हो तब तक सुशीलता का उपदेश करें |[6] शिक्षक को आचार्य और गुरु कहा जाता था और विद्यार्थी को ब्रह्मचारी ,व्रतधारी ,अंतेवासी, आचार्य कुलवासी | मंत्रों के दृष्टा अर्थात साक्षात्कार करने वाले ऋषि अपनी अनुभूति और उसकी व्याख्या और प्रयोग को ब्रह्मचारी ,अंतेवासी को देते थे| गुरु के उपदेश पर चलते हुए वेदग्रहण करने वाले व्रतचारी श्रुतषि होते थे| वेद मंत्र कंठस्थ किए जाते थे | आचार्य स्वर से वेद मंत्रों का परायण करते थे और ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले जाते थे | इसके पश्चात अर्थबोध कराया जाता था| ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य था | स्त्रियों के लिए भी आवश्यक समझा जाता था | आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने वाले विद्यार्थी को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे | ऐसी विद्यार्थिनी ब्रह्मवादिनी कही जाती थी| यज्ञों का अनुष्ठान विधि से हो इसलिए होता, उद्गाता, अध्वर्यु और ब्रह्मा की आवश्यक शिक्षा दी जाती थी | वेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण ,छंद, ज्योतिष और निरुक्त उनके पाठ्य होते थे| वेदज्ञान से युक्त होना ही ध्येय था|[7]  पाञ्च वर्ष के बालक की प्राथमिक शिक्षा आरंभ कर दी जाती थी | गुरुगृह में रहकर गुरुकुल की शिक्षा प्राप्त करने की योग्यता उपनयन संस्कार से प्राप्त होती थी | आठवें वर्ष में ब्राह्मण बालक के, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय के और बारहवें वर्ष में वैश्य के उपनयन की विधि थी| अधिक से अधिक यह 16, 22 और 24 वर्षों की अवस्था में होता था | ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्यार्थी गुरुगृह में 12 वर्ष वेदाध्ययन करते थे तब वे स्नातक कहलाते थे | समावर्तन के अवसर पर गुरु दक्षिणा देने की प्रथा थी | समावर्तन के पश्चात भी स्नातक स्वाध्याय करते रहते थे | नैष्ठिक ब्रह्मचारी आजीवन अध्ययन करते थे | समावर्तन के समय ब्रह्मचारी दंड, कमंडलु, मेखला आदि को त्याग देते थे | जब यथावत् ब्रह्मचर्य आर्य अनुकूल बर्तकर वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लेता था तब वह गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने का अधिकारी हो जाता था |[8] ब्रह्मचर्य व्रत में जिन जिन वस्तुओं का निषेध था अब से उनका उपयोग हो सकता था |

  • आचार्य के कर्त्तव्य

प्राचीन भारत में किसी प्रकार की परीक्षा नहीं होती थी और न कोई उपाधि ही दी जाती थी | नित्य पाठ पढ़ाने के पूर्व ब्रह्मचारी ने पढ़ाए हुए पाठ को समझा है और उसका अभ्यास नियम से किया है या नहीं इसका पता आचार्य लगा लेते | ब्रह्मचारी अध्ययन और अनुसंधान में सदा लगे रहते थे तथा वाद विवाद और शास्त्रार्थ में सम्मिलित होकर अपनी योग्यता का प्रमाण देते थे | भारतीय शिक्षा में आचार्य का स्थान बड़ा ही गौरव का था | उनका बड़ा आदर और सम्मान होता था| आचार्य पारंगत विद्वान्, सदाचारी, क्रियावान् , निराभिमानी होते थे और विद्यार्थियों के कल्याण के लिए सदा कटिबद्ध रहते थे | अध्यापक छात्रों का चरित्र निर्माण, उनके लिए भोजन, वस्त्र का प्रबंध ,रुग्ण छात्रों की चिकित्सा, शुश्रुषा करते थे | कुल में सम्मिलित ब्रह्मचारी मात्र को आचार्य अपने परिवार का अंग मानते थे और उनसे वैसा ही व्यवहार रखते थे | आचार्य धर्मबुद्धि से निशुल्क शिक्षा देते थे|

  • ब्रह्मचारी के कर्त्तव्य

विद्यार्थी गुरु का सम्मान और उनकी आज्ञा का पालन करते थे | गुरु भी शिष्य को अपनी रुचि के अनुसार ही मिल जाता था | यह सबसे बड़ी विशेषता थी |[9] आचार्य का चरण स्पर्श कर दिनचर्या के लिए प्रातः काल ही प्रस्तुत हो जाते थे | गुरु के आसन के नीचे आसन ग्रहण करा सुसंयत वेश में रहना, गुरु के लिए दातुन इत्यादि की व्यवस्था करना, उनके आसन को उठाना और बिछाना, स्नान के लिए जल ला देना, समय पर वस्त्र और भोजन के पात्र को साफ करना, ईधन संग्रह करना,पशुओं को चराना इत्यादि छात्रों के कर्तव्य माने जाते थे | विद्यार्थी ब्रह्म मुहूर्त में उठते थे और प्रातः कृत्यों से निवृत होकर स्नान, संध्या, होम आदि कर लेते थे | फिर अध्ययन में लग जाते थे |[10] इसके उपरान्त भोजन करते थे और विश्राम के पश्चात आचार्य के पाठ ग्रहण करते थे | सायंकाल समिधा एकत्र कर ब्रह्मचारी संध्या और होम का अनुष्ठान करते थे| विद्यार्थी के लिए भिक्षाटन करना अनिवार्य कृत्य था | भिक्षा से प्राप्त अन्न गुरु को समर्पित कर विद्यार्थी मनन और निदिध्यासन में लग जाते थे | स्वामी दयानंद ने लिखा है कि आचार्य अपने शिष्य और शिष्याओं को इस प्रकार उपदेश करें कि तू सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमाद रहित होकर पढ पढा , पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्या को ग्रहण करें |[11]

  • अध्ययन समय

वेदों का अध्ययन श्रावण पूर्णिमा को उपाकर्म से प्रारंभ होकर पौष पूर्णिमा को उपसर्जन से समाप्त होता था | शेष महीनों में अधित पाठों की आवृत्ति पुनरावृत्ति होती रहती थी | विद्यार्थी पृथक–पृथक पाठ ग्रहण करते थे, एक साथ नहीं  | प्रतिपदा और अष्टमी को अनाध्याय होता था | गांव नगर अथवा पड़ोस में आकस्मिक विपत्ति से और श्रेष्ठ जनों के आगमन से विशेषण अनाध्याय होते थे | अनाध्याय में अधीत वेद मंत्रों की पुनरावृत्ति और विषयांतर का अध्ययन निषिध्द न थे | नियमों का उल्लंघन करने वाले विद्यार्थी को दंड देने की परिपाटी थी | पाठ्यक्रम के विस्तार के साथ वेदों और वेदांगों के अतिरिक्त साहित्य, दर्शन, ज्योतिष, व्याकरण और चिकित्सा शास्त्र इत्यादि विषयों का अध्ययन होने लगा | टोल पाठशाला, मठ और विहारों में पढ़ाई होने लगी |[12]

 

  • शिक्षा के प्रमुख केन्द्र

काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, वल्लभी, ओदंतपुरी, जगद्दल, नदिया , मिथिला, प्रयाग , अयोध्या आदि शिक्षा के केंद्र थे | दक्षिण भारत के एन्ननारियम , सलौत्गी, तिरुमुक्कुदल, मल्लपुरम्, तिरुवोरियूर में प्रसिद्ध विद्यालय थे | अग्रहारो के द्वारा शिक्षा का प्रचार और प्रसार शताब्दियों होता रहा  | कादीपुर और सर्वज्ञपुर के अग्रहार विशिष्ट शिक्षाकेंद्र थे | प्राचीन शिक्षा प्रायः वैयक्तिक ही थी | कथा, अभिनय इत्यादि शिक्षा के साधन थे | अध्यापन विद्यार्थी के योग्यतानुसार होता था अर्थात विषयो को स्मरण रखने के लिए सूत्र, कारिका और सारनो से काम लिया जाता था | पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष पद्धति किसी भी विषय की गहराई तक पहुंचने के लिए बड़ी उपयोगी होती थी|

  • पाठ्यविधि

भिन्न-भिन्न अवस्था के छात्रों को कोई एक विषय पढ़ाने के लिए सम केंद्रीय विधि का विशेष रुप से उपयोग होता था | सूत्र, वृत्ति, भाष्य,वार्तिक इस विधि के अनुकूल थे | कोई एक ग्रंथ के वृहत् और लघु संस्करण इस परिपाटी के लिए उपयोगी समझे जाते थे | यह वैदिक शिक्षा का ही प्रभाव था कि अति प्राचीन काल में न राज्य था और न राजा था, न दंड था और न दंड देने वाला | स्वयं सारी प्रजा ही एक-दूसरे की रक्षा करती थी|[13] ऐसी शिक्षा दी जाती थी कि योग्य शिष्य योग्य साथी ही चुनता था, क्योंकि वेद कहते हैं कि रत्नं रत्नेन संगच्छते अर्थात रत्न रत्न के साथ जाता है | गुणों को महत्व दिया जाता था, संस्कारों को महत्व दिया जाता था | शिक्षा में कोई भेदभाव नहीं था राजा और रंक के बालक साथ साथ पढ़ते थे|[14]

गुणः खलु अनुरागस्य कारणं, न बलात्कारः अर्थात केवल गुण ही प्रेम होने का कारण है बल प्रयोग नहीं |

डॉक्टर जाकिर नाइक ने भी वेदों की शिक्षा को लेकर अध्ययन किया और वेदों के संदर्भ देते हुए लिखते हैं कि जीवन भर निष्काम कर्म करते रहना चाहिए | [1]

१ इस प्रकार का निष्काम कर्म पुरुष में लिप्त नहीं होता है |[2]

२ जो ग्राम, अरण्य, रात्रि-दिन में जानकर अथवा अनजाने में बुरे कर्म करने की इच्छा है अथवा    भविष्य में करने वाले हैं उनसे परमेश्वर हमें सदा दूर रखें|[3]

३ हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर वा विद्वज्जन आप हमें दुश्चरित् से दूर हटावे और सुचरित में प्रवृत्त करें |[4]

४ हे पुरुष तू लालच मत कर, धन है ही किसका|[5]

५ एक समय में एक पति की एक ही पत्नी और एक पत्नी का एक ही पति होवे |[6]

६ हमारे दाएं हाथ में पुरुषार्थ और बाएं हाथ में विजय हो [7]

७ पिता, पुत्र ,भाई, बहन आदि परस्पर किस प्रकार व्यवहार करें |[8]

८ जुआ नहीं खेलना चाहिए |इसको निंदनीय कर्म समझे |[9]

९ सात मर्यादाएं हैं जिनका सेवन करने वाला पापी माना जाता है | इन सात पापों को नहीं करना चाहिए- अस्तेय, तलपारोहण , ब्रह्महत्या, भ्रुणहत्या ,सुरापान, दुष्कृत कर्म पुनः पुनः करना तथा पाप करके झूठ बोलना यह सात मर्यादाएं हैं |[10]

१० पशुओं के मित्र बनो और उनका पालन करो |[11]

११ चावल खाओ , यव खाओ ,उड़द खाओ, तिलखाओ अन्नों में ही तुम्हारा भाग निहित है |[12]

१२ आयु यज्ञ से पूर्ण हो, मन यज्ञ से पूर्ण हो, आत्मा यज्ञ से पूर्ण हो और यज्ञ भी यज्ञ से पूर्ण हो|[13]

१३ संसार के मनुष्यों में ना कोई छोटा है और ना कोई बड़ा है| सब एक परमात्मा की संतान हैं| पृथ्वी उनकी माता है सबको प्रत्येक के कल्याण में लगे रहना चाहिए |[14]

१४ जो सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में देखता है उसे किसी प्रकार का मोह और शोक नहीं होता है |[15]

१५ परमेश्वर यहां वहां सर्वत्र और सब के बाहर भीतर भी है |[16]

वेदों में सारे विश्व के मनुष्यों के साथ भाइयों जैसा प्रेम करना बताया गया है न केवल मनुष्य में ही बल्कि जानवरों तक से प्यार व मोहब्बत करने का उद्देश्य वेदो में लिखा हुआ मिलता है| वेद के हजारों मंत्रों में से दो चार मंत्र जो यहां दिए जा रहे हैं उनको पढ़िए, विचारिये और न्याय कीजिए

सं गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् |

देवा भागं यथा पूर्वे सं जानानां उपासते ||[17]

अर्थात् हे मनुष्यो तुम सब एक होकर चलो, एक होकर बोलो ,तुम ज्ञानियों के मन एक प्रकार के हो ,तुम परस्पर इस प्रकार व्यवहार करो जिस प्रकार तुम से पूर्व पुरुष अच्छे ज्ञानवान् ,विद्वान् ,   महात्मा अपने-अपने भाग को निर्वहन करते रहे हैं|

हृदयं सं मनस्यम विद्वेषं कृणोमि वः|

अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाहन्या || [18]

जाकिर नायक लिखते हैं कि वेदों की शिक्षाएं आज भी उपयोगी हैं वेद का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि निसंदेह महान और विशालता तो खालिक (स्रष्टा) की ही है | वह आदमी जिसके पास बहुत सारा खाना है अगर कोई भूखा बेबसी की हालत में इससे केवल रोटी का एक टुकड़ा मांगने आता है तो इसके खिलाफ इसका दिल सख्त हो जाता है यहां तक कि अगर कभी उसने उसकी सेवा भी की है तब भी उसे कोई आराम पहुंचाने वाला नहीं मिलता |[19]

डॉक्टर जाकिर नाइक वेदों में आस्था तो दिखाते हैं और वैदिक ज्ञान को ईश्वररीय मानते हैं, लेकिन साथ ही वे कुरान को अल्लाह की असली किताब मानते हैं और अंत में कहते हैं कि अल्लाह ने जो अंतिम किताब दी, उसी पर विश्वास करना चाहिए | इसका मतलब यह हुआ कि जाकिर वेदों का उपयोग इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए एवं हिंदुओं या आर्यों को बरगलाने के लिय करते हैं जबकि सच्चाई है कि हमारी वैदिक परंपरा के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति के समय मानवों को वेदों का ज्ञान भंडार और तदन्तर्गत १६ विद्या और ६४ कलाएं परमपिता परमेश्वर द्वारा ही प्रदान की गई थी विविध विद्याओं के देवतुल्य प्रणेताओं द्वारा वे विद्याएं और कलाएं मानव को दी गई |[20]

 

कुरान की प्रमुख शिक्षाएं

जाकिर मानते हैं कि इस्लाम की शिक्षाएं सारी दुनिया के लिए हैं इसका प्रमाण वे देते हैं कि मुसलमानों ने स्पेन में लगभग ८०० साल तक शासन किया और वहां उन्होंने किसी को भी इस्लाम स्वीकारने के लिए मजबूर नहीं किया | बाद में ईसाई धार्मिक योद्धा स्पेन आए और उन्होंने मुसलमानों का सफाया कर दिया |[21] वे कहते हैं कि इस्लाम की शिक्षाएं सारे संसार के लिए हैं लेकिन जब अन्य विद्वान उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारते हैं तो वे किनारा कर जाते हैं महेंद्र पाल आर्य जो मौलवी से आर्य बने हैं उन्होंने भी उसे चैलेंज किया कि यदि कुरान की शिक्षाएं ही सर्वोपरि है तो सिद्ध करो | वैसे इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि दुनिया के हर मत और संप्रदाय में बहुत सी बातें तो अच्छी है ही, चलिये कुरान की अच्छी बातो पर ही चर्चा करें कि वह दुनिया को क्या शिक्षा देती है -पीठ पीछे बुराई करने को कुरान रोकती है | कुरान की आयते और हदीसे आचरण और व्यवहार को जो महत्व प्राप्त है, उसको दर्शाती है| उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं –

अल्लाह ताला कुरान में फरमाते हैं -ईमान लाने वाले! बहुत से गुनाहों से बचो, क्योंकि कतिपय गुमनाम गुनाह होते हैं और न तो हमें पढ़ो और ना तुमसे कोई किसी की पीठ पीछे निंदा करें क्या तुम में से कोई इसको पसंद करेगा कि वह अपने मरे हुए भाई का मांस खाए यह तो तुम्हें अप्रिय होगा ही और अल्लाह का डर रखो निश्चय ही अल्लाह तौबा कबूल करने वाला अत्यंत दयावान है |[22] पैगंबर मोहम्मद फरमाते हैं यदि कोई मुझसे यह प्रतिज्ञा करें कि वह अपनी जुबान पर नियंत्रण रखेगा, अपने सतीत्व की रक्षा करेगा ,दूसरों के संबंध में बुरी बात न कहेगा और किसी पर आरोप नहीं लगाएगा और पीठ पीछे निंदा नहीं करेगा, व्यभिचार और ऐसे पापों से बचेगा तो मैं उसके लिए अवश्य जन्नत का वादा करुंगा |

संदेह रहने के प्रति सावधान किया गया है पैगंबर ने फरमाया संदेह करने के प्रति सावधान रहो क्योंकि संदेश झूठी सूचना पर आधारित हो सकता है| दूसरों की टोह में ना पड़ो दूसरों की छुपी हुई कमियों का रहस्य ना खोलो |[23] अहंकार बहुत बुरी बला है | कुरान कहता है धरती में अकड़ कर न चलो न तो तुम धरती को फाड़ सकते हो और न लंबे हो कर पहाड़ों को पहुंच सकते हो |[24]            अल्लाह किसी इतराने वाले ,बड़ाई जताने वाले को पसंद नहीं करता |[25] कामनाएं अच्छी चीजों की ही हो | पैगम्बर मोहम्मद ने फरमाया मैं तुम्हारे मामले में निर्धनता से नहीं डरता हूं बल्कि इससे डरता हूं कि तुम सांसारिक वस्तुओं की कामना उसी तरह करने लगोगे जिस तरह दूसरों ने किया | और यह तुम्हें उसी तरह नष्ट कर देगी जिस तरह पहले के लोगों को नष्ट किया | ईर्ष्या द्वेष से दूर रहना कुरान की मुख्य शिक्षा है | पैगंबर मोहम्मद ने घोषणा की ईर्ष्या से दूर रहो क्योंकि जिस तरह से आग लकड़ी को जलाती है उसी प्रकार ईर्ष्या सत्कर्मों को जलाती है| किसी मुसलमान की छवि को अन्याय पूर्ण ढंग से आहत करने से बड़ा कोई और अत्याचार नहीं है| व्यंग करना बहुत बुरी बात है इस विषय में पैगंबर मोहम्मद ने फरमाया दूसरों की परेशानी पर खुशियां न मनाओ क्योंकि अल्लाह उसकी परेशानी दूर कर सकता है और जगह पर रख सकता है |[26] जमाखोरी किसी गुनाह से कम नहीं है | कुरान कहता है जो लोग इस चीज में कृपणता से काम लेते हैं जो अल्लाह ने अपनी उदार कृपा से उन्हें प्रदान की है, वे यह न समझे कि यह उनके हित में अच्छा है बल्कि यह उनके लिए बुरा है जिस चीज़ में उन्होंने कृपणता से काम लिया होगा वही आगे कयामत के दिन उनके गले का तौक बन जाएगी |[27] जो लोग सोना और चांदी एकत्र करके देखते हैं रखते हैं और उन्हें अल्लाह के मार्ग में खर्च नहीं करते उन्हें दुखद यात्रा की शुभ सूचना दे दो |[28] अवैध संपत्ति अवैध ही होती है |

मुस्लिम इतिहास में जिहाद के नाम पर अवैध संपत्ति पर कब्जा करने के बहुत से उदाहरण भरे भरे पड़े हैं लेकिन सच में यह है कि कुरान आदेश इसके विपरीत ही है | ऐसी धन संपत्ति जिसे अवैध तरीके से हासिल किया गया हो और जो कोई इसका उपयोग करें और अपनी आवश्यकताओं के लिए उसे खर्च करें वह उसे बहुत अधिक हानि पहुंचाती है जैसा कि पैगंबर मोहम्मद ने चेतावनी दी है उसकी नमाज ए अल्लाह के पास कबूल नहीं होगी | उस की दुआएं कबूल नहीं होगी अल्लाह से उसकी शिकायत को नहीं सुना जाएगा और यदि उसने अच्छे कर्म किए होंगे तो उनसे उसे कोई लाभ नहीं होगा परलोक में अल्लाह की विशेष अनुकंपा और उपचार का वह भागीदार नहीं होगा | पैगंबर मोहम्मद ने घोषणा की यदि कोई व्यक्ति कोई वस्तु दीवानी से कमाता है और फिर उसका एक अंश दान में दे देता है तो उसका दान स्वीकार नहीं किया जाएगा और यदि वह उसमें से अपनी आवश्यकता के लिए खर्च करता है तो उसमें कोई संपन्नता नहीं होगी और यदि उसमें से अपने वारिशों के लिए छोड़ जाता है तो उसकी मौत के बाद वह जहन्नुम के साधन का काम करेगा | जान लो कि अल्लाह बुराई से बुराई को नहीं मिटाएगा (अर्थात दान और जकात अवैध संपत्ति में से देने पर कभी मुक्ति नहीं मिल सकती ) एक अपवित्रता दूसरी अपवित्रता को दूर नहीं कर सकती यह उसे शुद्ध नहीं कर सकती |[29] आगे आपने फरमाया अल्लाह पवित्र है और वह केवल वही नजर कबूल करता है जो शुद्ध है | बेईमानी और धोखा देना कुरान में बुरी बात कही गई है| कुरान कहता है तबाही है घटा देने वालों के लिए, जो नापकर लोगों से लेते हैं तो पूरा पूरा लेते हैं किंतु जब उन्हें नाप कर या तोल कर देते हैं तो घटा कर देते हैं |[30] पैगंबर मोहम्मद व्यक्तिगत रुप से औचक निरीक्षण करते थे एक बार आपने एक व्यापारी को गीले अनाज के ऊपर सूखे अनाज रखे हुए पाया पैगंबर मोहम्मद ने अपना हाथ अनाज के ढेर के अंदर मिलावट की जांच के लिए डाला और पाया कि उसने ऐसा खरीदारों को धोखा देने के लिए किया है | आपने व्यापारी से कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया व्यापारी ने कहा ऐसा बारिश के कारण हुआ है | इस पर पैगंबर ने फरमाया वह व्यक्ति हमसे नहीं जो दूसरों को धोखा देता है | शरारत और भ्रष्टाचार के विषय में कुरान कहता है -खाओ और पियो अल्लाह का दिया और धरती में बिगाड़ फैलाते मत फिरो |[31]

संतोष सफलता और संपन्नता की कुंजी है और लालच पूर्णत: है इसके विपरीत है| हम में से अधिकतर लोगों का विश्वास है कि संपत्ति हमारे संपन्नता लाएगी | यह हमें विलासिता के साधन तो अवश्य प्रदान कर सकती है परंतु सुख नहीं दे सकती | सुख हमारी प्रकृति की आंतरिक अनुभूति है भौतिक संपन्नता को पागलों की तरह भोग करके प्राप्त नहीं किया जा सकता | वास्तव में वह संतोष ही है जो हमें सुख के संसार में ले जाता है |जहां दिल स्वयं अपने आप के साथ शांति में रहता है| शरीर और आत्मा लालच के चंगुल से मुक्त हो जाता है | लालच और गुणोत्तर समानुपात में बढ़ती है | पैगंबर मोहम्मद की निम्नलिखित हदीस मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है – यदि आदम की संतान को सोने से भरी एक घाटी भी दे दी जाए तो वह इस तरह के दो घाटियों की इच्छा करेगा क्योंकि उसके मुंह को धूल के अतिरिक्त कोई चीज नहीं भर्ती और अल्लाह उस व्यक्ति को क्षमा करता है जो उस से तोबा करता है |[32] मनुष्य सदैव धन और भौतिक संपन्नता की खोज में रहता है| अधिक से अधिक कमाने के लिए संघर्ष करता करना उसकी प्रकृति में बसा हुआ है | वह सदैव धनवान बनने, अपने जीवन स्तर को विकसित करने, अपनी जीवनशैली में और साधन जोड़ने, तीव्र गति से चलने वाली कारों का सपना देखने और प्राकृतिक वातावरण में भव्य महलों की अभिलाषा रखता है | संक्षेप में किसी व्यक्ति के अभिलाषाओं की सूची अंतहीन होती है | वह अपने सपनों को साकार करने और महत्वकांक्षाओं को पाने में कोई कसर नहीं छोड़ते | हम भौतिक साधनों की खोज में इतने वशीभूत हो जाते हैं कि हम जीवन के खेल में नैतिक मूल्यों को अक्सर भूल जाते हैं इस संसार से अपने संपूर्ण विलासितापूर्ण साधनों का प्रेम हमें परलोक की तलाश से दूर कर सकता है | हम सदैव याद रखना चाहिए कि हमारे अस्तित्व का मुख्य उद्देश्य ईश्वर की इबादत करना है | हमारा पालनहार भौतिक विलासिताओ की अंधी दौड़ से हमें सचेत करता है और वैभव की क्षणभंगुर चमक को सांसारिक लुभावनापन बताकर उसका उपहास करता है, क्योंकि यह हमें ईश्वर की इबादत करने के मुख्य उद्देश्य से दूर कर देता है | कुरान की यह आयत इसी वास्तविकता को स्पष्ट कर रही है और तुम्हारे संपत्ति और तुम्हारी संतान वह चीज नहीं जो तुमको हमारा निकटवर्ती बना दें, हां जो ईमान लाया और उसने अच्छा कर्म किया ऐसे लोगों के लिए उनके कर्म का दोगुना बदला है और वह स्वर्ग में संतोषपूर्वक रहेंगे |[33] भ्रष्टाचार हर युग में बहुत बड़ी समस्या रही है अब जबकि हम लालच के कारण तक पहुंच गए हैं | इसलिए हमें कहने दीजिए कि दुनिया का लालच ही हमें आर्थिक केक में से दूसरे का हिस्सा झपटने के लिए प्रेरित करती है | अवैध संसाधनों द्वारा दुनिया के लालच को पूरा करने की कोई कोशिश समाज को न्याय और समता से वंचित कर देती है | सामान्य भाषा में इसे घुस कहा जाता है जो हमारे समाज में प्रचलित है | पैगंबर मोहम्मद ने अपने अनुयायियों और साथियों को संपन्न करने बनने के लिए अवैध साधनों को अपनाने के विरुद्ध सचेत किया | जुआ और शराब की आदत समाज के लिए व्यापक रुप से खतरनाक है यह लोगों को उत्पादक गतिविधियों से दूर रखती है और उन्हें अवैध साधनों से धन कमाने के लिए प्रेरित करती है | अधिकतर मामलों में यह परिवारों को आर्थिक रूप से नष्ट कर देती है जिससे वह कर्जदार और बेसहारा हो जाता है| इस से बढ़कर यह समाज के नैतिक ताने-बाने को कमजोर कर देती है |

प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टायनबी ने एक बार टिप्पणी की थी कि इस्लाम का मानवता पर सर्वाधिक मूल्यवान और प्रभावी योगदान शराब और जुआ पर प्रतिबंध लगाना है | रीवा या ब्याज या सूदखोरी ना लेने की शिक्षा हमें कुरान में मिलती है इस्लामी अर्थव्यवस्था ऐसे सभी लेन-देन से रोकती है जिसमें ब्याज सम्मिलित हो इस्लाम में ब्याज और महाजनी ब्याज में अंतर नहीं किया गया है| इस्लाम केवल शून्य ब्याज की दर की अनुमति देता है अर्थात ब्याज बिल्कुल नहीं होना चाहिए | एक बात यहाँ विचारणीय है कि कुरान के प्रादुर्भाव काल में अरब में लोग अशिक्षित ही जान पडते है कोई वर्ग विशेष ही शिक्षित रहा होगा | मुहम्मद साहब स्वयं अशिक्षित थे इसलिये उस काल में वहां आचार्य , पाठशाला , विद्यार्थी ,पाठ्यक्रम शिक्षा केंद्र की कोई चर्चा नहीं है | वर्षो बाद मदरसों का भी निर्माण केवल कुरान की शिक्षा देने के लिए हुवा | आज भी अधिकांश मुस्लिम शिक्षकों द्वारा मदरसों में केवल कुरआन की ही शिक्षा दी जाती है |

 

[1] इस्लाम और वैदिक धर्म में समानताये , पृष्ठ ६८

[2] यजु ४० /२

[3]  यजु .४/२८

[4] यजु . ४/१

[5] अथर्ववेद . ७/३७/१

[6] अथर्ववेद . ७/३७/१

 

[7] अथर्ववेद . ७/५८/१८

[8] अथर्ववेद . ३/३०

[9]ऋग्वेद १०/१३४

[10] ऋग्वेद १०/५/६

[11] अथर्ववेद १७/४ और यजु.१/११

[12] अथर्ववेद ६/१४०/२

[13] यजु २२/३३

[14] ऋग्वेद ५/६०/१५

[15] यजुर्वेद ४०/६

[16] यजुर्वेद ४०/५

[17] ऋग्वेद १०/१९१/२

[18] अथर्ववेद ३/३०/४

[19] ऋग्वेद १०/११७/२

[20] वेदो में विज्ञान , फरहान ताज,पृष्ठ १००

[21] गलतफहमियो का निवारण , पृष्ठ २३

[22] कुरआन ,४९:१२

[23] हदीस

[24] कुरआन १७:३७

[25] कुरआन ५७:२३

[26] पैगम्बर का पैगाम , मो. अफजल ,पृष्ठ ६७

[27] कुरआन ३:१८०

[28] कुरआन ९:३४

[29] पैगम्बर का पैगाम , मो. अफजल ,पृष्ठ ६९

[30] कुरआन ८३:१-३

[31] कुरआन २:६०

[32] पैगम्बर का पैगाम , मो. अफजल ,पृष्ठ ७०

 

[33] कुरआन ३४:३७

  • वैदिक परम्परा कि प्रमुख शिक्षाए

[1] हमारी राजभाषा हिन्दी , पृष्ट ५६

[2] हमारी राजभाषा हिन्दी , पृष्ट ५९

[3] ऋग्वेद ५/६६/६ .यतेमहि स्वराज्ये |

[4] ऋग्वेद ८/२/१८ .इच्छन्ति देवाः सुन्वन्तं न स्वप्नाय |

[5] गीता ४/३३ .श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञः परंतप |

[6] सत्यार्थप्रकाश , द्वितीय समुल्लास

[7] अथर्ववेद १/१/४. सं श्रुतेन गमेमहि |

[8] मनु ३/२ .वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वापि यथाक्रमम्| अविलुप्तब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममावसेत् ||

[9] हमारी विरासत ,पृष्ठ २८३

[10] वही

[11] सत्यार्थ प्रकाश , पृष्ठ ५१

[12] वही

[13] महाभारत शान्तिपर्व .

न राज्यं न च राजासीत् , न दण्डो न च दाण्डिकः |

स्वयमेव प्रजाः सर्वाः, रक्षन्ति स्म परस्परम् ||

[14]  हमारी विरासत , पृष्ठ २८३

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