अब वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का संक्षेप से विचार किया जाता है। मनुष्य पहली अवस्था में वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम को धारण करके वेदादि शास्त्रों की शिक्षा को प्राप्त करके गृहाश्रम में विवाह कर धर्मपूर्वक पुत्रों को उत्पन्न और उनको समर्थ करके पचास वर्ष की अवस्था से ऊपर गृह से निकलकर वन में बसे। वन में बसना यहां उपलक्षण मात्र है। अर्थात् घर से बाहर कहीं एकान्त में जहां बसने से मन की अत्यन्त स्थिरता और अन्तःकरण के सब सन्देहों की निवृत्ति हो। इस प्रकार मन की शुद्धि होना ही जगत् के उपकार और अपने परमकल्याण मुक्ति आदि को प्राप्त होने के लिये सर्वोपरि उपाय है। एकान्त में बसने के बिना चित्त का वैसा समाधान सब कोई नहीं कर सकते। यदि कोई विशेष अधिकारी विरला मनुष्य घर में रहता हुआ ही तप कर सकता हो तो उसके लिये घर से निकलकर वन में बसने का यहां विधान नहीं है। क्योंकि इसी छठे अध्याय में लिखा है कि- ‘यहां तक सामान्य कर संन्यासियों का धर्म कहा अब आगे विशेष वेदसंन्यासियों का धर्म कहते हैं।’१ ‘सब कर्म और उनके फलभोग की उत्कण्ठा को छोड़कर कर्म के दोषों को छोड़ता हुआ नियमपूर्वक वेद का अभ्यास करके पुत्र और ऐश्वर्य के साथ ही मरणपर्यन्त निवास करे।’२ यहां राजा जनकादि का उदाहरण जो शतपथादि में लिखा है वही विशेष दृष्टान्त है। अर्थात् पूर्वकाल में ऐसे बहुत ऋषि-महर्षि हो गये, जो घर में रहते हुए ही वैसे काम कर सकते थे। इत्यादि प्रकार से जो घर में रहते हुए ही गृहाश्रम की सफलता हुए पीछे पांचों इन्द्रियों को वश में करनारूप तप कर सकते हैं, उनको पचास वर्ष की अवस्था के पश्चात् अपनी स्त्री के साथ भी कामासक्ति को सर्वथा छोड़कर घर में रहते हुए ही वानप्रस्थाश्रम का काम- तप करना चाहिये। क्योंकि तप करने के लिये वानप्रस्थाश्रम है। सो व्यास जी ने योगभाष्य के साधनपाद के आरम्भ में ही तप करने की अत्यन्त आवश्यकता दिखायी है३- ‘तप किये बिना योगसिद्धि नहीं हो सकती, और योगाभ्यास किये बिना मनुष्य का कल्याण भी नहीं होता, क्योंकि अनादि काल से किये शुभाशुभ कर्म और अविद्यादि क्लेशों की वासनारूप रस्सियों से जकड़ी, चित्रविचित्रविषयक जाल जिसमें प्रगट है, ऐसी अन्तःकरण की अशुद्धि, बिना तप किये नष्ट नहीं हो सकती। इस कारण अपना कल्याण चाहने वाले प्रत्येक मनुष्य को सावधानी से तप करना चाहिये। परन्तु ऐसा भी तप न करे कि जिससे शरीर को विशेष कष्ट होकर असाध्य रोगादि में ग्रस्त हो जावे, किन्तु जिससे चित्त प्रसन्न हो ऐसा तप करे।’ जैसे वस्त्रादि में अवस्थित थोड़ा स्थूल मल पहले साधारण धोने आदि उपाय से छूट जाता है। और बहुत काल से जुड़े उस वस्त्रादि के रोम-रोम में व्याप्त दृढ़ता से ठहरे हुए मल की निवृत्ति बहुत बड़े उपाय से कर सकते हैं, ऐसा विचारकर तपरूप विशेष उपाय से अज्ञान को हटाने के लिये तीसरा वानप्रस्थ आश्रम अपना कल्याण चाहने वाले सब मनुष्यों को अवश्य सेवने योग्य है। यह वानप्रस्थाश्रम करने का अभिप्राय है। प्रयोजन यह है कि इस वानप्रस्थाश्रम में बहुत काल के जमे हुए अन्तःकरण के मल को छुड़ाने का उपाय बताया गया है कि ऐसा-ऐसा सेवन करना चाहिये। ‘प्राणायामों से दोषों को जलावे, धारणाओं से मन के पाप को, प्रत्याहार से मन की फंसावट मिटावे और ध्यान करके ईश्वर में विश्वास न होने रूप अन्तःकरण के दोष को दूर करे। जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं के मल छूटकर निर्मल निकल आते हैं ऐसे ही प्राणायामादि रूप योगाभ्यास तप से इन्द्रियों और अन्तःकरण को निर्मल कर कल्याण प्राप्ति कर उपाय वानप्रस्थ आश्रम में करे।’१ घर के अनेक फन्दों को छोड़कर वन को प्रस्थान जिस दशा में किया जावे उसको वानप्रस्थ आश्रम कहते हैं। इसका विशेष विचार भाष्य में देखना चाहिये।
और संन्यासाश्रम तो केवल एक परमेश्वर के आश्रय को लेकर सबकी सहायता छोड़कर भ्रमण करने तथा जीवन्मुक्तदशा को धारण कर मुक्ति के द्वार पर पग धरने के लिये सब वृद्धावस्था में सेवना चाहिये। सो पहले ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ इन तीन आश्रमों का सेवन करके ही संन्यासी होना चाहिये, यह सामान्य कर उत्सर्गरूप प्रधान पक्ष है। इसी कारण इस छठे अध्याय में उत्सर्गरूप से कहा है कि- ‘पहले ब्रह्मचर्याश्रम में विधिपूर्वक वेद पढ़के, द्वितीय गृहाश्रम में धर्म से पुत्रों को उत्पन्न कर तथा वानप्रस्थाश्रम में यज्ञादि तप करके मोक्ष अर्थात् संन्यास में मन लगावे।’२ अन्य वाक्य इसके अपवाद हैं कि- ‘जिस दिन विरक्तता आ जावे, उसी दिन घर वा वन से तथा किन्हीं की सम्मति है कि ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यासी हो जावे।’१ इसका आशय यह है कि संसारी सुखभोग से पूर्ण और परिपक्व दृढ़ वैराग्य होने पर संसारी सुखभोग में जिसने अनेक दोष देखे अथवा लौकिक सब सुख जिसने भोग लिये ऐसे पूर्ण विद्यायुक्त विद्वान् को संन्यास आश्रम धारण करना चाहिये। ऐसा होना तीनों आश्रम का सेवन किये पश्चात् संन्यास धारण करने पर सम्भव है। जिस देश में नाममात्र के वैराग्य में फंसकर मूर्ख अविद्वान् लोग संन्यासाश्रम धारण करते हैं, उस देश और उन मनुष्यों की सदा अधोगति ही होती है। इसी कारण यह भी सिद्धान्त ठीक ही है कि ब्राह्मण को ही संन्यास धारण करना चाहिये क्योंकि पूर्ण विद्वान् हुए बिना वैराग्य ठीक नहीं हो सकता और ब्राह्मण ही पूर्ण विद्यावान् हो सकता है। यदि कोई क्षत्रियादि तप करके पूर्ण विद्वान् होने से संन्यास धारण करने योग्य हो तो वह गुणकर्मों से ब्राह्मण की योग्यता धारण करने पर ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। अब इस विषय का विचार समाप्त किया जाता है। और इस छठे अध्याय में प्रक्षिप्त भी कोई श्लोक नहीं। इस कारण उसका भी कुछ विचार यहां कर्त्तव्य नहीं है।