अब तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। इस तृतीयाध्याय में कोई-कोई श्लोक प्रक्षिप्त जैसे अनेक साधारण लोगों को जान पड़ेंगे और वास्तव में वे प्रक्षिप्त नहीं हैं, तो उनका समाधान यहां नहीं किया जाता, किन्तु आगे भाष्य में उनके अर्थ का निर्णय होगा, यहां तो केवल जो प्रक्षिप्त हैं, उन्हीं का निश्चय किया जाता है। एक सौ सत्ताईसवां (१२७वां) श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवित पितरों का ही श्राद्ध करना वेदोक्त सिद्ध हो चुका तो फिर श्राद्ध का नाम प्रेतकर्म नहीं हो सकता। और छब्बीसवें श्लोक का अट्ठाईसवें श्लोक के साथ सम्बन्ध भी ठीक मिल जाता है, इस कारण से भी सत्ताईसवें का प्रक्षिप्त होना अनुमान से सिद्ध है। तथा प्रेत के लिये कोई कर्म उपयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि मरा हुआ शरीर तो जलाने आदि द्वारा पृथिवी में मिल जाता है तथा केवल जीवात्मा कोई सुख-दुःख का भोग नहीं कर सकता, तो प्रेत के लिये किसी प्रकार की क्रिया करना निष्फल है।
एक सौ उनहत्तरवें (१६९) श्लोक से लेकर एक सौ बयासीवें (१८२) श्लोक तक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परन्तु १७१,१७३,१७४ इन तीन श्लोकों को छोड़कर। यद्यपि उक्त प्रक्षिप्त श्लोकों में निन्दारूप अर्थवाद कहा गया है, तो भी अर्थवाद सम्भव, सम्बद्ध और न्याययुक्त ही होना चाहिये। और यहां असम्भव, असम्बद्ध और अन्याययुक्त अर्थवाद प्रतीत होता है। जैसे सोमविक्रयी पुरुष को दिया अन्न विष्ठा हो जाता है। इस कथन से क्या प्राप्त हुआ कि जो विद्वान् को दिया गया, वह अन्न अर्थापत्ति से विष्ठाभाव को न प्राप्त होवे। लेकिन ऐसा तो नहीं देखा जाता, किन्तु अच्छे या बुरे किसी भी व्यक्ति के द्वारा खाया गया अन्न विष्ठा हो ही जाता है। तथा अन्न ही रस आदि के द्वारा रुधिर और मांसादि भाव को प्राप्त होता है। इसी से यह पूर्वोक्त कथन असम्भव वा असम्बद्ध है। और परिवेत्ता कि जिसने बड़े भाई के बैठे रहते विवाह किया, वह दोषी होना चाहिये। उसके साथ में बड़ा भाई और छोटे भाई की स्त्री क्यों अपराधी समझे गये ? उन्होंने क्या अपराध किया था ? अर्थात् कुछ नहीं तो उन दोनों का अपराधी बनाना अन्याय वा अधर्म अवश्य है।
जैसे किसी की चोरी करने वाला चोर और जिसकी चोरी उसने की हो, उन दोनों को अन्यायी राजा के यहां दण्ड के योग्य मानकर दण्ड दिया जावे, तो यह साक्षात् अन्याय है। और धर्मशास्त्र के वचन पक्षपात रहित होने चाहियें, परन्तु वैसे नहीं दीखते, इस कारण उक्त श्लोक प्रक्षिप्त अवश्य हैं, कि जिनमें पक्षपातादि, धर्म से विरुद्ध वर्णन है।
आगे एक सौ सत्तासीवें (१८७) श्लोक से लेकर दो सौ अस्सीवें (२८०) श्लोक पर्यन्त प्रक्षिप्त हैं। परन्तु १९२, २०६ से लेकर २०९ तक, २१३,२२६,२२८, २३१ से लेकर २३३ तक, २४३, २५१ से लेके २५३ तक और २५९ श्लोकों को छोड़कर शेष १८७ से २८० तक प्रक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इन प्रक्षिप्त श्लोकों में अनेक वचन असम्भव हैं। कोई-कोई परस्पर विरुद्ध हैं। और श्राद्ध-तर्पण के विषय में जो पूर्व मैंने वेद का सिद्धान्त ठीक-ठीक दिखाया है, उससे तो सभी प्रक्षिप्त श्लोक विरुद्ध हैं। इसी कारण ऐसे श्लोक विचारशील विद्वानों को अप्रामाणिक पक्ष में छोड़ देने चाहियें, क्योंकि ऐसे वचनों से धर्मशास्त्र में कलट लगता है। जैसे मरीच्यादि ऋषियों से पितृगणों की उत्पत्ति दिखायी है, सो जो ऋषियों से उनकी उत्पत्ति मानी जावे, तो पितृगण अनादि वा सनातन नहीं हो सकते, और ऐसा होने पर मरीच्यादि ऋषियों को तर्पण-श्राद्ध नहीं करना चाहिये, और करें तो पुत्रों का श्राद्ध-तर्पण हुआ, किन्तु पितरों का नहीं। आगे लिखा है कि- ‘ब्राह्मणों को अत्यन्त उष्ण भोजन कराया जावे और वे मौन होकर भोजन करें।’१ सो यह कथन चिकित्साशास्त्र से विरुद्ध है, क्योंकि वैसा भोजन करने से मूत्रकृच्छ्र वा प्रमेहादि अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। इसलिये वैसा भोजन किसी को भी न करना वा कराना चाहिये। आगे लिखा है कि- ‘जो शिर बांधकर भोजन करता, जो दक्षिण को मुख करके तथा जो जूता पहन कर खाता है, उस अन्न को राक्षस खा जाते हैं।’२ यदि यह बात सत्य हो तो भोजन करने वाले ब्राह्मणों की कितने ही अन्न से तृप्ति न होनी चाहिये, क्योंकि वे ब्राह्मण (जो प्रत्यक्ष में खा रहे हैं) तो खाते ही नहीं, किन्तु उनके मुख से राक्षस खा जाते हैं। सो सम्भव नहीं। भोजन करने वाले प्रत्यक्ष में तृप्त हुए दीख पड़ते हैं। इस कारण उक्त कथन ठीक नहीं है। आगे लिखा है कि- ‘निषिद्ध वा मूर्खादि नाममात्र का ब्राह्मण वा शूद्रादि भोजन करते हुए ब्राह्मणों को न देखे और देख लेवे तो श्राद्ध करना निष्फल है।’३ इत्यादि कथन ठीक नहीं, क्योंकि कहारादि सेवक वहां अवश्य रहते वा रहने चाहियें और वे न रहें तो सेवा ही कौन करे ? तथा कहीं यजमान भोजन कराने वाला ही मूर्ख हो तो वह भी देखेगा। तथा मक्खी-मच्छरादि भी उनको अवश्य देखेंगे। तो ऐसी अनेक दशा हो सकती हैं, कि जिनसे श्राद्ध का फल हो सकना बहुत कठिन है। और जब अनेक जीव-जन्तुओं के मांस से पितरों की अनन्त वा अक्षय तृप्ति दिखायी है, तो फिर मासिक, पाक्षिक, वार्षिक वा नित्य श्राद्ध करना निष्फल है, एक ही बार में अनन्त तृप्ति क्यों नहीं कर दी जाती, जो बार-बार न करना पड़े ? अर्थात् यह बात असम्भव है कि एक दिन का खाया महीने भर वा वर्षभर तक न पचे। इसलिये अन्य भी ऐसे आशय के श्लोक प्रक्षिप्त ही मानने चाहियें। पृथक्-पृथक् विशेष विचार आगे भाष्य में किया जायेगा। इस उक्त प्रकार से इस तृतीयाध्याय के सब दो सौ छियासी (२८६) श्लोकों में से नब्बे (९०) श्लोक प्रक्षिप्त और शेष एक सौ छियानवे (१९६) श्लोक सब विचारशील महाशयों को ठीक समझने चाहियें।