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तप से आयु व ज्ञान बढ़ता है
डा. अशोक आर्य
यह एक ध्रुव सत्य है कि इस संसार का प्रत्येक व्यक्ति लम्बी आयु प्राप्त करने का अभिलाषी है | इस अभिलाषा के अनुरूप लम्बी आयु तो चाहता है किन्तु इस लम्बी आयु को पाने के लिए उसे कठिन पुरुषार्थ करना होता है | वास्तव में मानव बड़ी बड़ी अभिलाषाएं तो रखता है किन्तु तदनुरूप पुरुषार्थ नहीं करता | फिर इन विशाल अभिलाषाओं का क्या प्रयोजन ? कैसे पूर्ण हों ये अभिलाषाएं ? आज का मानव सब प्रकार से निरोग व हृष्ट पुष्ट रहते हुए ज्ञान का स्वामी बनने के लिए इच्छाओं का सागर तो ढोता है किन्तु इस सागर में से एक बूंद भी पाने के लिए , उस का उपभोग करने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता , जब कि सब प्रकार की उपलब्धियां पुरुषार्थ से ही पायी जा सकती हैं | पुरुषार्थ ही इस जीवन का आधार है | इस लिए वेदादि महान ग्रन्थ पुरुषार्थी बनने की प्रेरणा देते हैं | ज्ञान व आयु बढाने के लिए तपोमय जीवन बनाने की प्रेरणा अथर्ववेद के मन्त्र ७.६१.२ मैं इस प्रकार दी गयी है | :-
अग्ने तपस्तप्यामहे , उप तप्यामहे ताप: |
श्रु तानी श्रन्वंतो वयं, आयुष्मंत: सुमेधस: || अथर्व. ७.६१.२ ||
यदि इस मन्त्र का संक्षेप में भाव जानने का प्रयास करते हैं तो हम पाते हैं कि मन्त्र हमें उपदेश दे रहा है कि हे मनुष्य तूं मानसिक व शारीरिक तप कर | इस प्रकार तप द्वारा वेदादि का ज्ञान प्राप्त करते हुए मेधावी व दीर्घ आयु को प्राप्त कर |
भाव से स्पष्ट है कि यह मन्त्र दो प्रकार के तापों का उल्लेख कर रहा है | इन दो प्रकार के तापों का नामकरण इस प्रकार कर सकते हैं : –
१. तप
२. उपतप
मन्त्र कहता है कि इन दो प्रकार के तपों के निरंतर अभ्यास से बुद्धि शुद्ध होती है , निर्मल होती है ,तेजस्वी होती है तथा इस प्रकार के तप से मानव ज्ञान का स्वामी बन जाता है व दीर्घायु को प्राप्त होता है |
यह जो दो प्रकार के तपों का वर्णन इस मन्त्र में आया है इन में से तप को हम मानस तप तथा उपतप को शारीरिक तप का नाम दे सकते हैं | मानस तप उस तप को कहते हैं , जिस के द्वारा शरीर व मन शुद्ध होता है | इस के लिए शरीर को विशेष कष्ट नहीं करना होता | इसे पाने के लिए अधिक परिश्रम अधिक पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं होती | दूसरी प्रकार के तप का नाम उपतप के रूप
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में जो दिया है इस प्रकार के तप को पाने के लिए आसन व प्राणायाम करना होता है | दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि आसन व प्राणायाम को उपतप के नाम से जाना गया है | आसन व प्राणायाम के लिए मनुष्य को प्रयास करना होता है , मेहनत करनी होती है , पुरुषार्थ करना होता है | इस प्रकार शरीर को कुछ कष्ट दे कर इस की शुद्धिकरण का प्रयास आसन व प्राणायाम द्वारा किया जाता है तो इसे उपतप के नाम से जाना गया है | गीता में उपदेश देते हुए श्लोक संख्या १७.१४ तथा श्लोक संख्या १७.१६ के माध्यम से योगी राज श्री कृष्ण जी इस प्रकार उपदेश करते हैं : –
देव्द्विजगुरुप्राग्यपूजनं शौचमार्जवम |
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते || गीता १७.१४ ||
मन: प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: |
भावसंशुद्धिरित्येतत तपो मानसमुच्यते || गीता १७.१६ ||
श्रीमद्भागवद्गीता के उपर्वर्णित श्लोको के अनुसार मानस तप का अति सुन्दर वर्णन किया है | श्लोक हमें उपदेश कर रहा है कि मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मनोनिग्रह, भावशुद्धि तथा जितेन्द्रियता आदि को मानस तप जानों | ब्रह्मचर्य, अहिंसा, शरीर की शुद्धि , सरलता आदि शारीरिक तप हैं | इस प्रकार गीता भी वेदोपदेश का ही अनुसरण कर रही है | इतना ही नहीं योगदर्शन भी इसी चर्चा को ही आगे बढ़ा रहा है | योग दर्शन के अनुसार : –
अहिन्सासत्यास्तेय – ब्रह्म्चर्याप्रिग्रहा यमा: || योग. २.३० ||
शौचासंतोश -ताप – स्वाध्यामेश्वर्प्रनिधानानी नियमा: || योग २.३२.||
इस प्रकार योग दर्शन ने यम को मुख्य ताप तथा नियम को गौण या उपताप बताया है | इस के अनुसार यम पांच प्रकार के होते हैं : –
(१.) अहिंसा
(२.) सत्य
(३.) अस्तेय (चोरी न करना
( ४.) ब्रह्मचर्य का पालन
( ५). विषयों से विकृति अर्थात अपरिग्रह
योग – दर्शन कहता है कि सुखों के अभिलाषी को इन पांच यम पर चलना आवश्यक है | इस के बिना वह सुखी नहीं रह सकता | इस के साथ ही योग – दर्शन नियम पालन को भी इस मार्ग का आवश्यक अंग मानता है | इस के अनुसार नियम भी पांच ही होते हैं : _
(१) स्वच्छता , जिसे शौच कहा है
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(२) संतोष
(३) तप
(४) स्वाध्याय
(५) ईश्वर चिंतन जिसे ईश्वर प्रणिधान का नाम दिया गया है
योग दर्शन ने जहाँ पांच तप माने हैं ,वहां तप को नियम का भी भाग माना है तथा पांच नियमों में एक स्थान तप को भी दिया गया है | इस से ही स्पष्ट है की तप अर्थात पुरुषार्थ का महत्व इस में सर्वाधिक है | फिर पुरुषार्थ के बिना तो कोई भी यम अथवा नियम का पालन नहीं किया जा सकता |
अंत में हम कह सकते हैं कि अग्निरूप परमात्मा के आदेश से जब हम मानसिक व शारीरिक तप करते हैं तथा वेदादि सत्य ग्रंथों का स्वाध्याय कर ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें अतीव प्रसन्नता मिलती है, अतीव आनंद मिलता है | आनंदित व्यक्ति की सब मनोका – मनाएं पूर्ण होती हैं | जिसकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं , उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता | प्रसन्न व्यक्ति को कभी कोई कष्ट या रोग नहीं होता, वह सदा निरोग रहता है | जो नोरोगी है उसकी आयु में कभी ह्रास नहीं होता , उसकी आयु दीर्घ होती है | अत: वेदादेश को मानते हुए वेद मन्त्र में बताये उपाय करने चाहियें , जिससे हम सुदीर्घ आयु पा सकें |
डा. अशोक आर्य