यह किसका प्रकाश है?
पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी महाराज ने देश-विभाजन से पूर्व एक पुस्तक लिखी। उसके प्रकाशनार्थ किसी धनी-मानी सज्जन ने दान दिया। स्वामीजी के गुरुकुल से वह पुस्तक प्रकाशित कर दी
गई। उसमें दानी का चित्र दिया गया, लेखक का चित्र न दिया गया। एक ब्रह्मचारी पुस्तक लेकर महाराज के पास लाया और कहा-‘‘विद्वान् का महज़्व नहीं, धनवान् का है। आपका चित्र
ज़्यों नहीं प्रकाशित किया गया।’’
गज़्ज़ीर मुद्रावाले वीतराग आत्मानन्दजी ने पुस्तक हाथ में लेकर उसके पृष्ठ उलट-पुलटकर कहा-‘‘यह सारी पुस्तक किसका प्रकाश है?’’