वे सूचना मिलते ही पहुँच जाते थे
आर्यसमाज की प्रथम पीढ़ी के नेताओं तथा विद्वानों में श्री पण्डित सीतारामजी शास्त्री कविरंजन रावलपिण्डी का नाम उल्लेखनीय है। आप पण्डित गुरुदज़जी विद्यार्थी के साथी-संगियों में से एक थे। अष्टाध्यायी के बड़े पण्डित थे। आपने वर्षों आर्यसमाज के उपदेशक के रूप में आर्य प्रतिनिधि सभा पञ्जाब में कार्य किया। फिर स्वतन्त्र धन्धा करने का विचार आया तो कलकज़ा चले गये। वहाँ भारत प्रसिद्ध वैद्य कविराज विजय रत्नसेन के चरणों में बैठकर कविरंजन की उपाधि प्राप्त करके पहले अमृतसर फिर रावलपिण्डी में औषधालय खोलकर बड़ा नाम कमाया।
आप वेद, शास्त्र, ब्राह्मणग्रन्थों के बड़े मर्मज्ञ विद्वान् थे। अष्टाध्यायी के बड़े प्रचारक थे। यदि कोई कहता कि अष्टाध्यायी का पढ़ना-पढ़ाना अति कठिन है तो उसकी पूरी बात सुनकर उसका
ऐसा युक्तियुक्त उज़र देते कि सुनने वाला सन्तुष्ट हो जाता था।
कविराजजी की कृपा से ही डॉज़्टर केशवदेवजी शास्त्री बन पाये। आपकी प्रेरणा से आर्यसमाज को और भी कई संस्कृतज्ञ प्राप्त हुए। आपने कलकज़ा में अध्ययन करते हुए, वहाँ भी आर्यसमाज
की धूम मचा दी। आपका वहाँ ब्राह्मसमाज के पण्डितों से तथा नेताओं से गहरा सज़्पर्क रहा।
एक समय ऐसा आया कि सारा ब्राह्मसमाज आर्यसमाज में मिलने की सोचने लगा फिर कोई विघ्न पड़ गया। ब्राह्मसमाजियों में आर्यसमाज में विलीन होने का विचार पैदा हुआ तो इसका कारण मुज़्यरूप से कविराज सीतारामजी के प्रयास थे। यह सारी कहानी हम कभी इतिहास प्रेमियों के सामने रखेंगे। सब तथ्य हमने एक लेख में पढ़े थे। वह लेख खोजकर फिर विस्तार से इस विषय पर लिखा जाएगा।
कविराज ने अपनी विद्वज़ा तथा अपनी वैद्यक से आर्यसमाज को बहुत लाभान्वित किया। उन दिनों आर्यसमाज में संस्कृतज्ञ बहुत कम थे। अमृतसर में यह देखा गया कि जब कभी किसी
संस्कार में या किसी समारोह में कविराज जी को बुलाया गया तो आप एकदम सब कार्य छोड़कर अपनी आर्थिक हानि की चिन्ता न करते हुए वहाँ पहुँच जाते। बस, उन्हें आर्यसमाज की सूचना
मिलनी चाहिए। वे शरीर से स्वस्थ थे। जीवन बड़ा नियमबद्ध था।
स्वाध्याय तथा सन्ध्या में प्रमाद करने का प्रश्न ही न था। वे मास्टर आत्माराम अमृतसरी के अभिन्न मित्र थे। वैसे शास्त्रीजी की मित्र-मण्डली बहुत बड़ी थी। उन्हें मित्र बनाने की कला आती
थी।