वे ऐसे धर्मानुरागी थे
स्यालकोट के लाला गणेशदासजी जब स्वाधीनता संग्राम में कारावास गये तो उन्हें बन्दी के रूप में खाने के लिए जो सरसों का तेल मिलता था, उसे जेल के लोहे के बर्तनों में डालकर रात को
दीपक बनाकर अपनी कालकोठरी में स्वाध्याय किया करते। ‘आर्याभिविनय’ ऋषिकृत पुस्तक का सुन्दर उर्दू अनुवाद पाद टिह्रश्वपणियों सहित इसी दीपक के प्रकाश में जेल में तैयार हुआ। इसे
‘स्वराज्य पथप्रदर्शक’ [प्रथम भाग ही] के नाम से बड़े सुन्दर कागज पर आपने छपवाया था। जिन्होंने कालकोठरी में भी स्वाध्याय, सत्संग, शोध साहित्य-सृजन को अपना परम धर्म जाना, ऐसे धर्मवीरों का जीवन हमारे लिए अनुकरणीय है।