शिक्षक
-योगेन्द्र दम्माणी, एफ.सी.ए.
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अर्थात् समाज की स्थिति व्यवस्थित हुए बिना वह भी हलचल में रहता है। वेद के दिखाये मार्ग से हट कर चलने के कारण समाज हिल-सा गया है, लेकिन समाज बनता तो लोगों से ही है। तो स्पष्ट है कि दोष निज में है। ये दोष क्योंकर और क्यों हमारी रगों में समा गया है, कारण कुछ-कुछ स्पष्ट भी है। कहते हैं, मनुष्य शीर्ष का अनुकरण करता है, क्योंकि मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो कुछ देखे या सिखाये बिना नहीं सीख सकता। जानवर अपने रास्ते से कम ही भटकते हैं। शीर्ष यानि हमारा ब्राह्मण / पंडित / शिक्षक वर्ग। इस वर्ग में कुछ तो गड़बड़ है, जिसे ठीक किया जा सकता है। आगे बढ़ेंगे।
कुछ दिन पूर्व हमारे पड़ोस में एक बजुर्ग महिला की वर्षगाँठ थी। पूर्व या इसी जन्म के संस्कार ने उन्हें प्रेरित किया कि वे जिले के एक गुरुकुल में एक दिन के खाने का खर्च वहन करेंगी। मन में विचार आया और फोन गुरुकुल के आचार्य जी के यहाँ बज पड़ा। महिला ने जब अपनी इच्छा जताई तो आचार्य जी बोल पड़े-जी हमारे ब्रह्मचारियों का भोजन तो हो गया, आपने फोन करने में देर कर दी। वाह रे हठधर्मी आचार्य! क्या दान देने वाले की मंशा उसी दिन के भोजन की व्यवस्था की थी और थी भी तो आप शालीनता से कह सकते थे कि जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद जो आपने गुरुकुल के बारे में सोचा। हम आपका दिया हुआ प्रसाद जरुर करेंगे। हमारे यहाँ १-१ १/२ बोरी अन्न लगता है। आप कहें जब मैं मँगवालूँ या आप भिजवा सकें तो आपकी बहुत कृपा। इसी तरह की ऐंठ ने समाज को चरमरा-सा दिया है। यदि गुरु, पंडित ही शालीन न होवेगें तो उनसे शिक्षा लेने वाली प्रजा कहाँ जाएगी? हमारे यहाँ पहले ऐसे पंडित हुआ करते थे जो कभी किसी की यजमानी में जाते तो अपनी दक्षिणा में बहुत कम रखकर (जो उन्हें माँगे बिना ही मिल जाती थी) प्रसन्न चित्त रहते और बाकी अपने संरक्षक समाज के नाम की रसीद काट दिया करते थे। विद्या ददाति विनयम् सार्थक था। आज पंडितों के बैंक एकाउंट भरे पड़े हैं, उनका आगा पीछा चाहे हो ही न, मधुमेह आदि समस्याओं से ग्रस्त हैं, रिकार्ड देख लीजिए अपने संरक्षित समाज को एक पैसा भी उन्होंने दान दिया हो तो। पंडित वर्ग समझ बैठा है कि दान देना सिर्फ दूसरों का काम है।
एक सज्जन के यहाँ मृत्यु हो गयी, एक भी पंडित अन्तिम संस्कार के लिए तैयार न हुआ, कारण था-जब भी सज्जन अपने यहाँ किसी कार्यक्रम में पंडितों को बुलाते तो अल्प दक्षिणा में सलटा देते थे। उन्हें शायद यह नहीं मालूम था कि आजकल सब ‘रेट’ के अनुसार चलते हैं। समाज के प्रति उदासीनता इस हद तक पहुँच चुकी है कि सब काम लक्ष्मी जी के अनुसार होते हैं। पंडित बनते तो हम ज्ञान बाँटने के लिए हैं, पर रह जाते हैं वैश्य बन कर, ब्राह्मणता खूँटी पर टँग जाती है। गुरुकुलों में भी यही शिक्षा दी जा रही है कि पूजा-पाठ की विद्या के साथ-साथ संगीत की शिक्षा जैसे वाद्य यन्त्र बजाना, शुद्ध भाषा का ज्ञान, जीवन जीने की कला का ज्ञान, हस्त शिल्प आदि-आदि भी पढ़ा रहे हों। शायद सोचते होंगे-यह सीख लेंगे तो निम्न श्रेणी में चले जाएँगे। एक तो नींव बिना के उठे हुए ये गुरुकुल या तो सिर्फ अपने रोज दान देने वाले पिताओं (उन्हें पता भी नहीं लगता कि ये पिता लोग भी दान ला रहे हैं किसी और से) की चापलूसी करने में व्यतीत कर देते हैं, या छोटी-मोटी पंडिताई कर गृहस्थ बन इधर-उधर फिरते रहते हैं। समर्पण अपने मिशन के प्रति अपने महर्षि के प्रति शून्य होता जा रहा है। गलत को गलत कहने का कौशल खत्म हो गया है। गृहस्थ का दान दशों दिशाओं में बिखरता जा रहा है। संगठन सूत्र स्वामी जी के पश्चात् पचास वर्षों तक ही रहा। संगठन के लचर होने के कारण सब अपनी-अपनी दुकानें खोले जा रहे हैं। हमें यज्ञशाला बनवानी है, जी हमें अपने आश्रम की बाउन्ड्री बनवानी है, जी हमें आश्रम में कमरे बनवाने हैं आदि। हम आर्य समाजियों और पौराणिको में क्या फर्क रहा? सब के सब अपना आशियाना बनाने में लगे हैं। बल्कि फर्क तो यह हो रहा है कि वे जो पौराणिक पंडित तैयार कर रहे हैं, वे छा रहे हैं, क्योंकि उनका संगठन मजबूत है। अपनी पौराणिक कहानियाँ वे इस अंदाज में, इतनी मृदुल आवाज में बयाँ करते हैं कि आज के पढ़े लिखे भी खो जाएँ, चाहे उन कहानियों का सिर पैर हो ही नहीं। यहाँ साप्ताहिक सत्संगों में पढ़े लिखे टार्च लेकर भी देखने से न मिले। मिले भी कैसे? आप जब सत्संग चले जाए या वहाँ कोई झगड़ा हो रहा होता है या पंडित जी बिना तैयारी के समय काट रहे होते हैं या होते ही नहीं। युवकों के लिए आज के अनुरूप सामग्री है ही नहीं उनके पास और वाक् पटुता मृदुलता से तो हम कोसों दूर रह जाते हैं। अनुशासन भी नहीं होता, जानकारी भी नहीं होती कि सत्संग में आज क्या होगा? भजनोपदेशक जी किसी फिल्मी धुन पर भजन गा कर इति श्री कर देते हैं। विचारणीय विषय है यें। गुस्सा न होइए, सोचिए कि ये हलचल हमें इतिहास के पन्नों तक ही सीमित न रख दे।
पंडित जी या शिक्षक का कार्य होता है मिसाल प्रस्तुत करना। ऋषि दयानन्द ने मिसाल प्रस्तुत की थी अपने आचरण से और लोग उनके अनुयायी हुए। एक सच्चे शिक्षक की तरह उन्होंने कार्य किया। अभी कुछ दिन पूर्व एक गुरुकुल के वार्षिकोत्सव में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ ब्रह्मचारियों के द्वारा बनाये गए चित्रों की प्रदर्शनी भी लगी थी। शाकाहार के प्रति समर्पित बेचारे ब्रह्मचारियों को उनके शिक्षकजी ने जो चित्र बनाने का कार्य सौंपा था, उसे देखकर रोना आ गया। अधिकांश सभी चित्रों में मत्स्य हत्या दिखाई गयी थी। शायद प्रधानाध्यापक महोदय को पता ही न हो, किन्तु क्योंकि चित्रकार शिक्षक विचार शून्य थे, वे बच्चों से उस तरह का कार्य करवा रहे थे। यदि हम गुरुकुल खोलते हैं, तो कुछ सामान्य शिक्षाओं को जिस पर हम टिके हैं, का ख्याल तो जरूर रखना ही चाहिए। इसी प्रकार एक स्थान पर तोरण द्वार में भी अंग्रजी और स्थानीय भाषा थी, हिन्दी गायब थी। वहाँ अंग्रेजी कोई नहीं जानता था।
मेरे बच्चों को शहर की एक अच्छी स्कूल में (जो स्कूल है विद्यालय नहीं) मेरे काफी असहमत होते हुए भी पिछले वर्ष दाखिला कराया गया। यह स्कूल बच्चों के भोजन की पूर्ण व्यवस्था रखता है। पूर्णतया शाकाहारी भी है, किन्तु तत्कालीन शिक्षा व्यवस्था में पढ़े शिक्षक-शिक्षिकाएँ ही अध्यापन कराते हैं और बच्चे मुझसे कई बार शिकायत करते हैं कि पिता जी, टीचर ने कहा-मांस खाना अच्छा है, अण्डे में प्रोटीन है। पढ़ाते तो हैं ही। यही नहीं, बच्चे इसलिए भोजन में अरुचि रखते हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक तामसिक भोजन, अत्यधिक विदेशी भोजन, अत्यधिक मोटा करने वाला भोजन परोसा जाता है और देखा जाता है कि बच्चे उसे खाएँ। शिक्षिका जी को शिकायत करने पर कहा गया कि हमारा स्कूल ग्लोबल है, इसलिए आपकी शिकायत दरकिनार की जाती है। उन्हें शायद यह नहीं पता कि ग्लोबली लोग भोजन में बदलाव ला रहे हैं, जिससे वे स्वस्थ रहें। अपने खान-पान के कारण बीमारियों से त्रस्त हैं और बदल रहे हैं। कई लोग तो कई वर्षों से विदेश में है और आजतक लहसुन, प्याज को देखा तक नहीं और दिन में कम से कम अठारह घण्टे काम करते हैं। हम कहाँ जा रहे हैं? उस स्कूल के ट्रस्टीगण ध्यान ही नहीं दे पाते, कारण हम सभी जानते हैं। लक्ष्मी जी ने सिद्धान्तों को दूर कर दिया है। हमारे समाज को अपने शीर्ष से दिशा नहीं मिल रही। इस अन्धी आधुनिकता की दौड़ में प्रथम वर्ण कहीं खो-सा गया है।
कभी पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने कहा था कि आर्य सामाजियो, तुम दौड़ना बन्द मत करना, क्योंकि अगर दौड़ना बन्द कर दोगे तो हिन्दू खड़ा हो जाएगा और तुम खड़े हो गये तो हिन्दू बैठ जायेगा और तुम बैठ गये तो हिन्दू मर जाएगा और यही बात आज पंडित या शिक्षक वर्ग पर लागू हो रही है। समाज मर रहा है। मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि उसके विद्यालय के शिक्षक बच्चों से रोज पूछते थे कि क्या माता-पिता को प्रणाम करके आए? कभी-कभी घर भी पहुँच जाया करते थे सही गलत की जाँच के लिए। वह कहता है कि मैं आज भी बड़ों को प्रणाम करके ही घर से निकलता हूँ। यह है पुरानी शिक्षा पद्धति का फल। हमने खुद ही नैतिक शिक्षा बन्द कर दी। बच्चे कैसे नैतिक होंगे। नीति श्लोक तो पढ़ाई से छू मन्तर हो गये हैं। ऐसे-ऐसे गुरुकुल भी खुले हुए हैं, जो छात्रों को बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ दे रहे हैं, चाहे उन बालकों को ठीक से हिन्दी भी पढ़नी न आती हो, लिखना तो दूर की बात । शिक्षक या गुरु जी पढ़ाएँ भी कब? उन्हें तो आजकल Smart Phone पर Whats app से ही छुट्टी नहीं मिलती। सब देश के बारे में ज्यादा ही सोचने लगे हैं। Forwarded मैसेज की चिन्ता सताती है, बच्चों की नहीं। अब तो पंडित जी लोग भी सत्संगों में अपना कार्यक्रम खत्म करते ही सिर झुकाकर अँगुलियाँ घुमाते देखे जा सकते हैं। दूसरा वक्ता क्या बोल रहा है सत्संग में, इसका पता ही नहीं। फिर से कहना पड़ता है-अति सर्वत्र वर्जयेत्।