संन्यास की मर्यादा
श्री स्वामी स्वतन्त्रानन्दजी महाराज के जीवन की एक प्रेरणाप्रद घटना है कि आप एक बार अजमेर गये। प्रो0 घीसूलालजी के साथ किसी सामाजिक कार्य के लिए कहीं जा रहे थे। होली के दिन थे। बाज़ार में शरारती मूर्ख लोगों ने साधु पर रङ्ग डाल दिया। आप एकदम रुक गये। प्रो0 घीसूलालजी से कहा-‘‘अब वापस चलिए। वस्त्र बदलेंगे। इसपर धज़्बे पड़ गये हैं। मैं तो संन्यासी वेश में ही चल सकता हूँ। साधु पर दाग़ ठीक नहीं।’’
श्री महाराज लौट गये। जहाँ ठहरे थे वहीं पहुँचे। उनके पास और वस्त्र थे ही नहीं। कौपीन लगाकर बैठ गये। आर्यपुरुषों ने उनका कुर्ता सिलवाया। धोती ली। गेरु रङ्ग करवाया। उन्हें पहना
और कार्य पर बाहर निकले। जब तक बिना दाग़ के भगवे वस्त्र तैयार न हुए वे कौपीन धार कर अपने पठन-पाठन में लगे रहे, मिलनेवाले आर्य पुरुषों से बातचीत करते रहे। आर्य साधुओं, महात्माओं व नेताओं ने ऐसी मर्यादाएँ स्थापित की हैं और ऐसे इतिहास बनाये हैं।